आजकल हर कोई यह कहता नजर आता है कि जीतेजी मांबाप को सबकुछ दो, उन की सेवा करो तो मरने के बाद श्राद्ध जैसे पाखंड करने की जरूरत ही क्या. लेकिन ऐसा कहने वाले अधिकतर लोग गया जाने वाली ट्रेन में बैठे नजर आते हैं तो सहज समझ आता है कि आत्मा नाम की काल्पनिक चीज का डर कितने गहरे तक बिठा दिया गया है.
अव्वल तो देशभर के पंडेपुजारियों की तरह सालभर गया के पंडों की मौज रहती है क्योंकि श्रद्धालु यानी ग्राहक आते ही रहते हैं लेकिन पितृ पक्ष का पखवाड़ा इन का सीजन होता है जिस में सालभर की दुकानदारी हो जाती है. मोक्ष और मुक्ति नाम की फसल के जो बीज सदियों पहले ब्राह्मणों ने बोए थे उस की फसल इन दिनों पंडे तबीयत से काटते हैं. पिछले साल तो पितृ पक्ष में गया के पंडों की दीवाली हो आई थी क्योंकि तब मौजूदा दौर के ब्रैंडेड बाबा बागेश्वर उर्फ़ धीरेंद्र शास्त्री वहां गए थे. यह बाबा वहां भी चमत्कारों का अपना दरबार लगाने बाला था लेकिन बेतहाशा उमड़ती भीड़ के चलते प्रशासन ने उसे इजाजत नहीं दी थी. पर इस से बाबा की सेहत या दुकानदारी पर कोई फर्क नहीं पड़ा था, उस ने एक महंगे होटल सम्बोधि रिट्रीट में ही मिनी दरबार लगा लिया था.
इस होटल के जिस कमरे में बाबा बागेश्वर ठहरा था उस में कई दिनों तक अंधविश्वासी लोग माथा टेकने और दक्षिणा चढ़ाने आते रहे थे. सम्बोधि होटल का कमरा नंबर 2 मुद्दत तक आस्था और चढ़ावे का केंद्र बना रहा था. बागेश्वर बाबा ने गया में अपने पूर्वजों का पिंडदान भी किया था. पिंडदान के कारोबार पर कोरोना की मार पड़ने से 2 साल जो घाटा हुआ था वह एक झटके में पूरा हो गया था. इस बाबा को देखने और मिलने कोई 15 लाख लोग खासतौर से गया पहुंचे थे. इस से वहां के पंडों की बांछें खिल गई थीं.