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इन भारतीय खिलाड़ियों के नाम है टेस्ट में सर्वाधिक छक्के जड़ने का रिकार्ड

वनडे और टी20 क्रिकेट के आने के बाद से क्रिकेट में छक्कों की अहमियत बढ़ गई है. वनडे में सबसे ज्यादा छक्के जड़ने का रिकार्ड जहां शाहिद अफरीदी के नाम है वहीं अंतरराष्ट्रीय टी20 में यह रिकार्ड क्रिस गेल के नाम है.

टेस्ट क्रिकेट की बात करें तो ब्रेंडन मैकलम 107 छक्कों के साथ शीर्ष पर हैं. लेकिन इस बीच सवाल उठता है कि टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम की ओर से सर्वाधिक छक्के जड़ने का रिकार्ड किन बल्लेबाजों के नाम है. तो आइए जानते हैं किन दिग्गज भारतीय बल्लेबाजों के नाम टेस्ट में सर्वाधिक छक्के जड़ने का रिकार्ड है.

वीरेंद्र सहवाग

भारतीय टीम के विस्फोटक बल्लेबाज वीरेंद्र सहवाग टेस्ट में भारत की ओर से छक्के जड़ने के मामले में पहले नंबर पर हैं. सहवाग ने साल 2001 से 2013 के बीच अपने टेस्ट करियर में कुल 104 मैच खेले और 180 पारियों में बल्लेबाजी की और इस दौरान उन्होंने कुल 91 छक्के जड़े. सहवाग के नाम टेस्ट में 49.34 की औसत से 8,586 रन बनाने का रिकार्ड दर्ज है.

सहवाग के नाम दो तिहरे शतक हैं. उनका सर्वोच्च स्कोर 319 है जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ साल 2008 में बनाया था. इसके अलावा सहवाग ने 1,233 चौके भी जड़े.

एमएस धोनी

एमएस धोनी वनडे में भारत की ओर से सर्वाधिक 197 छक्के जड़ने वाले बल्लेबाज हैं. वहीं टेस्ट में वह भारत की ओर से सर्वाधिक छक्के जड़ने के मामले में दूसरे नंबर पर हैं. धोनी ने साल 2005 से 2014 तक टेस्ट क्रिकेट खेली और इस दौरान कुल 90 टेस्ट मैचों में उन्होंने 38.09 की औसत से 4,876 रन बनाए और 78 छक्के जड़े. इसके अलावा उन्होंने 544 चौके भी जड़े. धोनी के नाम टेस्ट में 6 शतक हैं. इसके अलावा उनका सर्वोच्च स्कोर 224 रहा है.

सचिन तेंदुलकर

भारतीय टीम के शिखर पुरुष सचिन तेंदुलकर ने साल 1989 से 2013 तक टीम इंडिया के लिए क्रिकेट खेली. इस दौरान उन्होंने 200 टेस्ट मैच खेले. इतने मैचों की 329 पारियों में उन्होंने बल्लेबाजी करते हुए कुल 70 छक्के जड़े. इसके अलावा उन्होंने 2,058 चौके जड़े.

कपिल देव

भारत के सफलतम औलराउंडर व पूर्व कप्तान कपिल देव ने साल 1978 से 1994 तक क्रिकेट खेली. इस दौरान उन्होंने 131 टेस्ट मैच खेले और 61 छक्के जड़े. कपिल ने इस दौरान 184 पारियों में बल्लेबाजी की. कपिल के नाम टेस्ट में 5,284 रन दर्ज हैं जो उन्होंने 31.05 की औसत से बनाए हैं. इसके अलावा उन्होंने 557 चौके भी जड़े. कपिल के नाम टेस्ट में कुल 8 शतक दर्ज हैं और उनका सर्वोच्च स्कोर 163 रन है.

सौरव गांगुली

भारतीय टीम के पूर्व कप्तान व दिग्गज बल्लेबाज सौरव गांगुली टेस्ट क्रिकेट में भारत की ओर से सर्वाधिक छक्के जड़ने के मामले में पांचवें नंबर पर हैं. गांगुली ने साल 1996 से 2008 के बीच कुल 113 मैचों की 188 पारियों में कुल 57 छक्के जड़े. इसके अलावा उन्होंने 900 चौके भी जड़े. आपको बता दें कि गांगुली ने अपने टेस्ट करियर में कुल 7,212 रन बनाए. इस दौरान उन्होंने 16 शतक जड़े. वहीं उन्होंने 239 रनों की पारी खेली. सौरव गांगुली को टीम इंडिया के बेहतरीन कप्तानों में एक माना जाता है.

हरभजन सिंह

भारत की ओर से छठवें नंबर पर सर्वाधिक छक्के जड़ने का रिकार्ड हरभजन सिंह के नाम है. हरभजन सिंह टेस्ट में 42 छक्के जड़ चुके हैं.

नवजोत सिंह सिद्धू

सातवें नंबर पर नवजोत सिंह सिद्धू हैं. सिद्धू के नाम टेस्ट में 38 छक्के हैं.

दिन दहाड़े

मेरे चचेरे भाई का ठेकेदारी का व्यवसाय है. वे गृह और सड़क निर्माण में काम आने वाले उपकरणों को किराए पर देते हैं. 1 वर्ष पूर्व उन से एक कंपनी के मालिक मिले, जिन्हें सरकारी तौर पर सड़क बनाने का काम सौंपा गया था.

भाई का रोलर उन्होंने किराए पर लिया था. स्वयं को कानपुर का रहने वाला बता कर भाई से गहरी दोस्ती कर ली. अब तक किराया लगभग 1 लाख रुपए हो गया था.

इस बीच, वे कानपुर चले गए और वापस आने पर किराए की राशि अदा करने की बात कही. तब से अब तक कई महीने हो गए हैं, न वे स्वयं आए और न ही उन का कोई संदेश.

जब भाई ने संबंधित विभाग में जा कर पता किया तो पता चला कि वे समस्त सरकारी कागजी कार्यवाही पूरी कर के गए हैं. भाई फोन लगाता है तो नहीं लगता और दिया गया पता भी फर्जी है.

        प्रतिभा अग्निहोत्री

*

अप्रैल 2016 का वाकेआ है. हमारे यहां एक साधु बाबा आए. वे एक झोले में कई प्रकार के मनके रखते थे. उस में से उन्होंने रुद्राक्ष की काफी तारीफ की. कहने लगे, जो मेरे इस रुद्राक्ष को धारण करेगा, उस की समस्त बाधाओं का अपनेआप निराकरण हो जाएगा.

हमारे भाईसाहब वहीं बैठे हुए थे. वे अंधविश्वासी हैं. उन्होंने साधु बाबा से एकमुखी रुद्राक्ष के बारे में पूछा. बाबा ने झोले से एक मनका निकाल कर दिखाया और बोले कि एकमुखी रुद्राक्ष दुर्लभ हैं. मैं ने बड़ी मुश्किल से इसे नेपाल के पास रहते हुए हिमालय की तराई से प्राप्त किया है. अब तक इसे मैं ने किसी को नहीं दिया. आप की श्रद्घा देख कर मैं आप को दे सकता हूं. आप इसे रख लीजिए.

भाईसाहब ने जब मोलभाव किया, तो वे नाराज हो गए. बाबा बोले, रुद्राक्ष की कीमत नहीं होती. स्वेच्छा से दक्षिणास्वरूप आप जो देना चाहें, दें.

भाईसाहब उस रुद्राक्ष को हाथ में रखते हुए 101 रुपया देने लगे. तो बाबा ने 1,001 रुपए के बिना रुद्राक्ष नहीं देने की बात कही. आखिरकार भाईसाहब ने उन्हें 1,001 रुपए दिए और रुद्राक्ष रख लिया.

बाबाजी आशीर्वाद देते हुए निकल गए. भाईसाहब ने उस रुद्राक्ष को तुलसी माला के साथ पिरो लिया, और गले में पहनने लगे.

महीनेभर बाद रुद्राक्ष का रंग बदलने लगा, साथ ही उस की पपड़ी भी निकलने लगी. धीरेधीरे उस का ऊपरी हिस्सा ही गायब हो गया. पता चला कि वह रुद्राक्ष नहीं, बल्कि सूखा बेर है जिसे रंगरोगन आदि के जरिए वैसा रूप दे दिया गया था.

सी पी तिवारी

 

 

मैदान में भी दिखा जिंदगी सा संघर्ष

अंडर-17 विश्वकप फुटबौल टूर्नामैंट में भले ही सिवा मेजबानी के फख्र के कुछ और हासिल न हुआ हो लेकिन खिलाडि़यों के जुझारूपन ने भविष्य के लिए उम्मीदें जगाने में तो कामयाबी पा ही ली. मैदानी खेलों में जिस मेहनत, लगन और कमिटमैंट की जरूरत होती है वह इन नवोदित फुटबौल खिलाडि़यों में स्पष्ट देखने को मिला.

इन किशोरों की परवरिश कोई नाजों या वैभव में नहीं हुई है. इन में से अधिकतर खिलाड़ी अभावों में पले हैं. इन्हें किसी अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामैंट में खेलते देखना ही हैरत की बात है. महिला पहलवान गीता और बबीता फोगट की तरह ये उन घरों से निकल कर मैदान तक आए हैं जहां जिंदा रहना ही किसी संघर्ष से कम नहीं होता.

मिसाल के तौर पर अंडर-17 के भारतीय फुटबौल टीम के अमरजीत सिंह क्याम को ही लें, जान कर हैरत होती है कि मणिपुर के थाउबाल जिले के हाओखा ममांग नाम के छोटे से और पिछड़े गांव में जन्मे अमरजीत के पिता पेशे से मामूली किसान हैं और घर में चूल्हा रोजाना जले इस के लिए उन की मां घर से 25 किलोमीटर दूर इंफाल जा कर रोजाना मछलियां बेचती हैं. खेतीकिसानी से बचे वक्त में अमरजीत के पिता पैसा कमाने के लिए कारपैंटरी का काम करते हैं. अमरजीत के फुटबौल के प्रति जनून को देखते हुए गरीब मांबाप ने और मेहनत की और बेटे का सपना पूरा करने के लिए दिनरात हाड़तोड़ मेहनत की.

इसी तरह अंडर-17 के तेजतर्रार स्ट्राइकर अनिकेत जाधव तो और भी ज्यादा गरीब व अभावग्रस्त परिवार से हैं. बचपन से ही अनिकेत को फुटबौल का चस्का लग गया था और इस खेल में कुछ कर गुजरने का सपना वे देखने लगे थे.

यह वह वक्त था जब घर में खानेपीने के लाले पड़े रहते थे. एक मिल में मामूली पगार पर काम करने वाले अनिकेत के पिता की नौकरी छूट गई तो वे एक गैराज में मैकेनिक का काम करने लगे. पर यहां भी आमदनी इतनी नहीं थी कि घर की जरूरतें पूरी हो सकें, लिहाजा वे आटोरिकशा चलाने लगे.

इस पूरी जद्दोजेहद में पिता ने बेटे के सपने को परेशानियों व अभावों से दूर रखा और उसे प्रोत्साहित करते रहे. नतीजतन, अनिकेत को टीम में खेलने का मौका मिला और आगे के लिए टीम में उन की जगह पक्की हो गई.

एक और खिलाड़ी कोमल थाटल के मातापिता दोनों टेलरिंग का काम करते हैं. फुटबौल खरीदने के लिए कोमल के

पास पैसे नहीं होते थे, इसलिए वे बेकार कपड़ों की फुटबौल बना कर उस से प्रैक्टिस करते थे. इसी प्रैक्टिस और लगन ने उन्हें अंडर-17 की टीम में जगह दिलाई.

फीफा 17 में उल्लेखनीय प्रदर्शन करने वाले जैकसन सिंह भी अमरजीत के गांव के हैं और उन के घर की माली हालत भी अपने कप्तान से जुदा नहीं. साल 2015 में जैकसन के पिता देवेन सिंह को पैरालिसिस का अटैक आया था जिस के चलते उन्हें पुलिस की नौकरी छोड़नी पड़ी थी लेकिन जैकसन की मां ने बेटे के सपने पर आंच नहीं आने दी. उन्होंने हाट बाजारों में सब्जियां बेच कर घर चलाया व जैकसन की जरूरतें पूरी करने के लिए पैसा जुटाया. जैकसन ने फीफा में देश की तरफ से पहला गोल करते स्वर्णिम अक्षरों में खेलों खासतौर से फुटबौल में अपना नाम दर्ज कराते हुए जता दिया कि एक बेहद बेहतर वक्त उन का इंतजार कर रहा है.

इन किशोरों ने बचपन बेहद अभावों व तनाव में गुजारा है लेकिन मैदान पर वे हताश नहीं दिखे. हार की वजहें अनुभवहीनता और पेशेवर व प्रशिक्षित प्रतिद्वंद्वी थे. जो संघर्ष इन्होंने किया वह इन की जिंदगी का रीप्ले था. यह टूर्नामैंट उन के लिए अभ्यास टूर्नामैंट था. जिस में भले ही उन्हें जीत हासिल न हुई हो लेकिन उन के प्रदर्शन से हर कोई संतुष्ट है कि इन भारतीय खिलाडि़यों का भविष्य उज्जवल है. इस के लिए निश्चित ही इन के मांबाप तारीफ के काबिल हैं जिन्होंने बेटों का फुटबौलर बनने का सपना पूरा करने के लिए खुद को मेहनत की आग में झोंका और देश के लिए उम्मीदें जगाईं वह भी बिना किसी पहचान के.

ऐसे देखा जाए तो भारतीय टीम विपक्षी टीमों से कोई भी मैच बड़े अंतर से नहीं हारी. भारतीय टीम के खिलाड़ी सुरक्षात्मक ज्यादा खेले. कहीं न कहीं मेजबानी और अपने कैरियर को ले कर उन्हें दबाव भी निश्चित रहा होगा. जिस माहौल से ये खिलाड़ी निकले हैं वहां यही सिखलाया जाता है कि परिवार व समाज में रहना है तो बहुत ही सुरक्षित ढंग से रहना होगा. ऐसा ही मैदान में भी दिखा. यदि वे विपक्षी टीमों की तरह आक्रामक खेलते तो परिणाम कुछ और ही होता.

अब जिम्मेदारी सरकार की है कि वह इन खिलाडि़यों को तमाम सहूलियतें व फीस दे कि अभाव या चिंताएं इन के ख्वाबों में बाधक न बनें. जरूरत तो इस बात की भी महसूस हो रही है कि इन के मांबाप को समारोहपूर्वक सम्मानित किया जाए, जिन्होंने देश को होनहार खिलाड़ी इतने विषम हालात में दिए.

हमारी बेड़ियां

मेरी एक सहेली के विवाह का अवसर था. उस के यहां विदाई के समय दुलहन को उस के मामा द्वारा गोद में उठा कर विदाई वाहन में बैठाया जाता है. मेरी सहेली कुछ मोटी थी. जब उस के दुबलेपतले मामा उसे गोद में उठा कर कुछ कदम ही चले तो वे लड़खड़ा कर गिर पड़े जिस से दोनों को खासी चोट आ गई. दुलहन और उस के मामा को तुरंत अस्पताल ले जा कर मरहमपट्टी करवाई गई. फिर अगले दिन दुलहन की विदाई की गई.

प्रतिभा अग्निहोत्री

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मेरे घनिष्ठ व वर्षों पड़ोसी रहे तिवारी की छोटी बिटिया प्रिया के लग्न का प्रसंग था. विवाह में मुझे सपरिवार शादी के 2 दिन पहले उन के घर पर पहुंचने का निमंत्रण था. हम शादी से पहले आतिथ्य देने उन के घर पहुंच गए.

विवाह के बाद बरात विदाई का समय आया. जैसा कि आम रिवाज है, दुलहन बाबुल पक्षों से संबंधित अपने सगेसंबंधियों से गले मिल कर रो रही थी. उस की अश्रुधारा रुकने का नाम नहीं ले रही थी.

कुछ सगे प्रिया के मिजाज, स्वभाव व व्यवहार से अच्छी तरह परिचित थे. एक तरफ जा कर बतियाने लगे, जिसे मेरी धर्मपत्नी ने भी सुना कि, ‘अरे, अने छोरी से कहो कि यह नाटक बंद करे. दूसरों को रुलाने वाली क्यों रो रही है? अब तुझे नहीं रोना है, थने तो ले जाने वाले ससुराल पक्ष के रोने की बारी है.’

ग्रामीण सामाजिक मान्यता के आधार पर यह रूढि़वादी प्रथा अभी भी शहरों में भी विद्यमान है. रोना नहीं आने पर भी इस मौके पर दिखावाप्रदर्शन के दुलहन को ऐसा करने के लिए प्रेरित किए जाने के दृश्य आसानी से विदाई के वक्त देखे जा सकते हैं.

एस सी कटारिया

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पांच वर्ष पूर्व मेरे भाई की मृत्यु 42 वर्ष की उम्र में हुई. रीतिरिवाजों के अनुसार चूडि़यां तोड़ा जाना, बिंदी हटाने आदि के कर्मकांड महिलाओं द्वारा करवाए जा रहे थे. तब मेरी मां, जो स्वयं पहले इस पीड़ा से गुजर चुकी थीं, अपना रोनाधोना एवं दुखदर्द भूल कर मेरी भाभी के साथ खड़ी हो कर बोलीं, ‘‘यह सबकुछ नहीं होगा. मेरी बहू जैसे रहती थी वैसे ही रहेगी.’’ सारी महिलाएं आपस में खुसुरफुसुर करने लगीं. आपस में कह रही थीं कि सदमे के कारण दिमाग पर असर हो गया है. जबकि मुझे अपनी मां पर गर्व महसूस हो रहा था. मेरी मां की उम्र लगभग 80 वर्ष की रही होगी.

पद्मा अग्रवाल

जीवन की मुसकान

मेरी बेटी यूएसए के एक बिजनैस स्कूल से एमबीए कर रही थी. दूसरे साल के मध्य में अच्छे इंटरव्यू होने के बावजूद 80 कंपनियों में उस का कहीं सैलेक्शन नहीं हुआ और नवंबर के मध्य तक किसी न किसी कंपनी में उस की जौब लगनी अत्यंत आवश्यक थी क्योंकि उस के बाद कैंपस सैलेकशन के लिए कंपनियों का आना लगभग बंद हो जाता है. यह जान कर हम सभी परेशान हो उठे. ठीक 4 हफ्ते बाद इंडिया आने का उस का टिकट हो चुका था. सवा साल बाद बेटी को देखने की खुशी में हर्षोल्लास से बुने सपने पलभर में चूरचूर हो गए.

लगातार मिली असफलताओं की मायूसी से उस का आत्मविश्वास खोता जा रहा था. हजारों मीलों का फासला. बस फेस टाइम पर उस का मनोबल बनाए रखी थी. उधर, वहां रहतीं उस की दोनों बहनों ने उस की हिम्मत को बंधाए रखा.

निराशा के अंधकार बढ़ते ही जा रहे थे. अपने देश की अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर उसे वहां क्यों जाने दिया. सौ हजार डौलर का लोन, वीजा का चक्कर, अनिश्चित भविष्य.

संशय के तूफानों में घिरे दिन यों ही बोझिल हो कर बीत रहे थे कि हर्षोल्लास से भरा उस का फोन आया कि दुनिया की 2 नामी कंपनी गूगल व मैकानजी ने उस की असीम प्रतिभा को पहचानते हुए सैकंड राउंड का इंटरव्यू अच्छा नहीं होने के बावजूद उसे सैलेक्ट कर के उपहारों से ढक दिया है. अविश्वास के घोर अंधेरे का अंत हो चुका था, विश्वास की लाली चारों ओर फैल गई थी.

रेणु श्रीवास्तव

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इंदौर में जब मेरी बेटी गरिमा का जन्म हुआ था. तब मेरी मां सर्विस करती थीं. सुबह का स्कूल था. घर आ कर खाना वगैरा बना कर लाने में उन्हें अकसर 2 बज जाते थे.

मेरा औपरेशन हुआ था, हिलनाडुलना भी मना था. बड़े जोरों से भूख भी लग जाती थी. मेरे पास वाले पलंग पर जिस लड़की की डिलीवरी हुई थी, उस की मां दूसरे दिन से मेरे लिए भी खाना लाने लगी. यहां तक कि मेरी बच्ची की नैपीज वगैरा भी वे ही बदल देतीं. कहतीं, ‘‘नहीं, तुम मत उठो. मैं सब कर दूंगी.’’

आज भी उस अनजान महिला के प्रति मेरा सिर आदर से झुक जाता है. इस दुनिया में जहां वक्त पर अपने भी काम नहीं आते, वहीं ऐसा निस्वार्थ भाव. सच है इस दुनिया में अच्छे लोग भी कम नहीं हैं.

ज्योति द्विवेदी

इन्हें आजमाइए

पार्टी, मीटिंग, औफिस, कौर्पोरेट इवैंट, कुछ ऐसे स्थान हैं जहां बहुत अधिक स्ट्रौंग परफ्यूम नहीं लगाना चाहिए. अधिक स्ट्रौंग खुशबू से कई लोगों को एलर्जी होती है. इस कारण हो सकता है उन्हें परेशानी हो, इसलिए ऐसे अवसरों पर हलकी खुशबू वाले परफ्यूम लगाएं.

सर्दी के मौसम में आंखों के नीचे झुर्रियां व काले निशान पड़ने लगते हैं. इसलिए रोज सोने से पहले बादामयुक्त अंडरआई क्रीम से  आंखों के चारों ओर गोलाई से मालिश करें.

जैतून के तेल में नीबू के रस की 2-3 बूंदें मिला कर नाखूनों की मालिश सप्ताह में 2 से 3 बार करें. लगातार मालिश से नाखून ज्यादा समय तक स्वस्थ, मजबूत और सुंदर बने रहेंगे.

बच्चों की स्किन बहुत सैंसिटिव होती है, उन के लिए स्किन फ्रैंडली ज्वैलरी लें, जो स्मूथ, हलकी और गोल किनारे वाली हो और सौफ्ट स्किन को नुकसान न पहुंचाए.

भले ही आप को अपने सहकर्मी की कोई बात कितनी भी बुरी लगे, लेकिन एकदम से उस के मुंह पर न कहें बल्कि प्यार से उसे समझाएं, इस से रिश्ते में मिठास बनी रहेगी.

युवतियां अपनी सेफ्टी के लिए मिर्चपाउडर या कोई स्प्रे आदि हमेशा अपने पर्स में रखें. जरूरत पड़ने पर वे इन से हमलावर से बच सकती हैं.

जानिए लोगों कि किस हद तक करें मदद

एक सवाल हमेशा चिंतन करने वालों को परेशान करता है कि क्या इंसान मूलतया अच्छा प्राणी है जो परिवेश और परिस्थिति के वशीभूत हो, बुरा हो जाता है, या इंसान मूलतया बुरा प्राणी है जो मजबूरीवश अच्छाई का चोला धारण करता है? आखिर सच क्या है? येल यूनिवर्सिटी की अगर मानें तो व्यक्ति मूलतया अच्छा प्राणी है जिस पर कई कारकों के काम करने से उस में परिवर्तन नजर आता है, जो कभी अच्छा तो कभी बुरा भी हो सकता है.

निभा के 2 बेटे आपस में किसी खिलौने के लिए लड़ रहे थे. टीवी पर एक कार्टून शो चल रहा था. शो में एक बच्चा एक डरावना कार्टून कैरेक्टर से बचने के लिए पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करता है, मगर बारबार गिरने को होता है. दोनों बच्चों की नजर जब उस पर पड़ी तो दोनों ही बच्चे मना रहे थे कि वह किसी तरह बच जाए. उन का खिलौने पर से ध्यान हट गया था.

यह छोटा सा उदाहरण हम ने बच्चों का इसलिए दिया कि बचपना इंसान का शुरुआती दौर है और बच्चे अपने मूल स्वभाव में हैं. बच्चों पर किसी भी तरह के परिवेश और परिस्थितिजन्य प्रभाव के पहले की, यह विवेचना है.

जैसेजैसे बच्चा बड़ा होता जाता है उस में अपने आसपास के लोगों और परिस्थितियों का बड़ा प्रभाव पड़ने लगता है. इस प्रभाव के रहते हुए भी कई लोग अच्छे स्वरूप में रहते हैं, और दूसरों की सेवा व सहायता के लिए हमेशा तत्पर दिखते हैं. इन्हीं सेवाभावी तत्पर लोगों की जिंदगी में जब झांका गया तो सामने आया कि ये अपनी सेवा और सहायता के बाद ज्यादातर सेवा प्राप्त करने वालों से असंतुष्ट और दुखी थे. अधिकांश लोगों ने इन की सेवा और सहायता का नाजायज फायदा उठाया और इन का शोषण किया. कइयों ने इन के किए का एहसान मानना या जताना जरूरी नहीं समझा.

ऐसे में सेवा और निस्वार्थ सहायता करने वालों के लिए  भला क्या प्रेरणा रह जाती है.

शांभवी और उस के पति संभव जिस कालोनी में रहते थे वह काफी समृद्ध लोगों का इलाका था. संभव को नाइट ड्यूटी करनी पड़ती और शांभवी घर पर ट्यूशन पढ़ाती जिस का समय सुबह 6 से 9 बजे का होता. पड़ोस में 75 साल के एक अंकल रहते थे. वे अकेले ही रहते थे.

एक सुबह उन की बाई शांभवी के पास खबर ले कर आई कि अंकल दरवाजा नहीं खोल रहे. चूंकि शांभवी पहले से ही उन का ध्यान रखा करती थी. वह अपने ट्यूशन के बच्चों की छुट्टी कर जल्द अंकल के घर गई. उस के पास अंकल के घर की एक चाबी रहती थी. उस से उस ने दरवाजा खोला. अंकल को पैरालिटिक हाल में पाया. संभव नाइट ड्यूटी कर के सो रहा था. उस का फोन बंद था. दौड़ते हुए वह घर आई. संभव को उठाया और अंकल को अच्छे अस्पताल में भरती कराया गया. छोटा बेटा दूर रहता था पर वह भी आ गया.

छोटा बेटा तीसरे दिन से संभव को फोन कर के बारबार पैसे की किल्लत के बारे में बताने लगा. जबकि अंकल काफी समृद्ध थे. दोनों बेटे अच्छे जौब में होने के बावजूद अंकल ने अपना पुराना बंगला बेच दोनों बेटों को 40-40 लाख रुपए नकद दिए थे. उन की अपनी जमापूंजी, पैंशन सब थी, जिस में छोटा बेटा भी हिस्सेदार था. लड़के का कहना था कि पापा को डिस्चार्ज कराते वक्त फिक्स्ड डिपौजिट तुड़वानी पड़ेगी, जिस में नुकसान हो जाएगा. संभव अभी 70 हजार रुपए दे दे, वह बाद में वापस कर देगा.

छोटे बेटे ने अपनी ऐयाशी के लिए कई जगहों से उधार ले रखा था. एक जगह तो उस की इसी वजह से नौकरी भी चली गई थी. अब इन दोनों के लिए उसे न मना करते बनता, न इतने रुपए देते. अंकल का दिमाग सही ढंग से काम नहीं कर रहा था. दोनों लड़के अव्वल दरजे के धूर्त और स्वार्थी.

संभव अपराधभावना से घिर रहा था. यद्यपि संभव के लिए अभी इतने रुपए निकाल देना आसान न था, और दोनों बेटे इस भार को उठाने में सक्षम भी थे. इन का छोटा बेटा धर्म और आस्था के नाम पर कुछ महीने पहले ही नामी धार्मिक प्रतिष्ठानों में दानधर्म कर के काफी आशीष बटोर लाया था.

संभव को इस दुविधा से निकालने के लिए आखिर शांभवी को कड़ा फैसला लेना ही पड़ा.

अंकल जब अपने घर आए और आया के सहारे रहने लगे, शांभवी उन की देखभाल करने जाती जरूर लेकिन उन के बेटों का फोन नंबर ब्लौक कर दिया.

आइए, कुछ मुख्य बिंदुओं को समझें ताकि किसी की सहायता कर हमें परेशानी न उठानी पड़े :

सेवा और दान में अंतर :   मनुष्य भौतिक वस्तुओं का दान कुछ न कुछ प्राप्ति की ही आशा में करता है, चाहे वह किसी गुरु महाराज या शक्तिशाली व्यक्ति की कृपा हो, पुण्य की आशा हो या अपने कर्मों को सुधार कर जिंदगी में सुख हासिल करने की कामना हो. अकसर धार्मिक दान ऐसे ही होते हैं.

धार्मिक दान प्राप्त करने वाले किसी संस्थान या व्यक्ति में भी अहंकार होता है. वह कृपा या आशीष बरसा कर दान देने वाले को धन्य कर के उच्च आसन पर पहुंचने की मानसिकता से ग्रस्त होते हैं. दान देने वाला भी कृपा पाने का हक जताने में पीछे नहीं रहता. वहीं, दान लेने वाला अपने आप को कमतर सिद्ध होने से बचाने के लिए आशीष या कृपा देने का स्वांग जरूर रचता है.

मदद होती है निस्वार्थ  :  जब इंसान के अंदर प्रेमपूर्णभाव का अतिरेक होता है, वह स्वयं को छोड़ जरूरतमंद के बारे में सोचता है. कैसे उसे विपत्ति से निकाला जाए, कैसे उस की समस्या का समाधान किया जाए, ऐसे इंसान को यही चिंता रहती है. मदद से उसे कितना फायदा होगा या क्या नुकसान, यह विचार करने से पहले ही वह मदद के लिए हाथ बढ़ा चुका होता है.

नीरा को ही ले लें. वह मददगार स्वभाव की है, पर दिखावा नहीं करती. उस के औफिस के चपरासी की बीमारी से जब मौत हो गई तो वह उस की पत्नी व उस के बच्चे से मिलने उन के घर गई. उन की बुरी स्थिति देख वह अपने घर से अपने बच्चे की ड्रैस, पढ़ाई की सारी सामग्री, उस की जरूरत के कई सामान उसे दे आई. हर महीने बच्चे की स्कूल फीस भी देने लगी. यह सब देख उस स्त्री का शराबी भाई नीरा के प्रेमपूर्ण आचरण का फायदा उठाने लगा. वह जबतब उस के औफिस आ जाता और किसी न किसी बहाने उस से पैसे की मांग करता. वह ऊब कर जब उसे फटकारने लगी, तो वह औफिस से नीरा के घर लौटते वक्त उस का पीछा करने लगा. उसे अनापशनाप धमकाने लगा.

तंग आ कर नीरा ने चपरासी की बीवी से संपर्क साधना तो छोड़ा ही, घर में भी अपनी परेशानी बता कर अलग ही परेशान हो गई. पति और सास ने उसे समझाइश दी कि दान ही करना था तो हमारे गुरुजी के आश्रम में दान करती. वे हम से खुश होते. हमें आशीष देते. हम से बताती तो तुम्हारे उस बच्चे को दे रही स्कूल फीस में हम भी कुछ मिला कर गुरुजी के आश्रम के बच्चों के लिए तोहफे ले लेते. इस से तुम्हारे पति को गुरुजी के आश्रम के रैनोवेशन का ठेका भी मिल जाता.

अब समझने वाली बात यह है कि जब जरूरत चपरासी की बीवी को थी तो वह करोड़पति के आश्रम में दान कर के उस स्त्री की मदद कैसे करती जिसे उस वक्त मदद की दरकार थी. नीरा को भी क्या शांति मिलती? बिलकुल नहीं.

हां, घरवालों को उस दान के बदले व्यक्तिगत फायदा जरूर हो जाता. गुरु की नजर में चढ़ कर विशेष कृपापात्र बनने की इच्छा और इस के लिए मौके टटोलना, दान देना व इस का फायदा उठाना, एक निस्वार्थ सहायता से काफी अलग है.

क्यों लोग किसी विशेष समूह का हिस्सा बन दान करते हैं :  धार्मिक समूह का हिस्सा बन दान करने के पीछे व्यक्ति का शक्तिशाली संस्थान या व्यक्ति से कृपालाभ की आंकाक्षा प्रधान होती है. समाज में और लोगों के सामने उन की धाक बनी रहे, जरूरत के वक्त उन का शक्तिपरीक्षण काम आ सके.

ऐसे संस्थान या गुरु दान और कृपा का विशेष संयोग पैदा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने से जोड़े रखते हैं ताकि वे स्वयं विलासितापूर्ण जीवन जिएं, ठाठ और दर्प से जिएं तथा लोगों की व्यक्तिगत सोच पर अपनी विशेष सोच व चिंतन को थोप सकें और समाज के पंख फैलाते दृष्टिकोणों को अपनी दकियानूसी सोचों के सीखचों में रोक सकें.

मदद करें दूसरों की लेकिन स्वयं की मदद करते हुए :  ज्यादातर लोग एहसान ले कर या तो आसानी से भुला देते हैं, या मदद करने वाले का ही तरहतरह से शोषण करने लगते हैं.

पार्थ जितना पढ़ने में अच्छा था उतना ही मददगार, सरल स्वभाव का. उस के छुटपन का दोस्त रंजन यह भलीभांति समझ चुका था. ऐसे तो पार्थ पढ़ाई आदि में उस की मदद किया ही करता, मगर तब भी वह रंजन के साथ खड़ा था जब रंजन के पिता को दिल का दौरा पड़ा. वह अपने सैमिस्टर के एग्जाम छोड़, अस्पताल की दौड़भाग में लगा रहा, उन्हें खून दिया, उन का जीवन बचाया. इधर, रंजन ने यारीदोस्ती के नाम पर पार्थ की नई बाइक को पथरीली, ऊबड़खाबड़ जमीन पर डेढ़ सौ किलोमीटर तक ऐसा दौड़ाया कि पार्थ को उस बाइक को ठीक करवाने में ढाई हजार रुपए खर्चने पड़े.

सीधासादा पार्थ रंजन से कह तो कुछ नहीं पाया लेकिन घरवालों ने पार्थ को ऐसी खरीखोटी सुनाई कि मदद के नाम पर उस की पूरी परिभाषा ही बदल गई.

मदद तो करें मगर मौकापरस्तों को पहचानें भी :  जीवन में सिर्फ स्वार्थी और आत्मकेंद्रित हो कर नहीं चला जा सकता. हम सामाजिक प्राणी हैं. हम दूसरों की मदद जरूर करें, वह भी इसलिए नहीं कि आगे हमें काम पड़ सकता है, बल्कि इसलिए कि वाकई मनुष्य स्वभाव से अच्छा प्राणी है. हां, मदद करते वक्त खुद का उन के द्वारा नाजायज फायदा न उठने दें. मदद दें, तो थोड़ी दूरी भी रखें और कुछ औपचारिकताएं भी. इस से सामने वाला कितना भी बेशर्म क्यों न हो, उसे अपनी सीमा का एहसास होता रहेगा. मदद करते वक्त अपनी क्षमता से बाहर न जाएं.

मदद लेने वाले के लिए गुजारिश

मदद की आवश्यकता किसी को भी पड़ सकती है. हम जब मदद लें तो सहायता करने वाले व्यक्ति का विशेष खयाल रखें, ताकि उसे कोई असुविधा न हो. जहां तक हो सके, कम से कम मदद लें और ज्यादा से ज्यादा एहसान मानें.

कभी किसी से सहायता की आवश्यकता पड़ ही जाए, तो लें अवश्य, लेकिन आप भी दूसरों की मदद को तत्पर रहें.

मदद लेना और मदद देना सामाजिक प्रक्रिया है. हमारे संतुलित और सामंजस्यपूर्ण व्यवहार से हमारे सामाजिक रिश्ते मधुर और मजबूत बनते हैं. इस का खयाल अवश्य रखें.

सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल : सुविधा या लूट

देश में इन दिनों मध्यम व उच्च श्रेणी के निजी नर्सिंग होम व निजी अस्पतालों से ले कर बहुआयामी विशेषता रखने वाले मल्टी स्पैशलिटी हौस्पिटल्स की बाढ़ सी आई हुई है. दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र व गुजरात जैसे आर्थिक रूप से संपन्न राज्यों से ले कर ओडिशा, बिहार व बंगाल जैसे कम संपन्न राज्यों तक में भी ऐसे बहुसुविधा उपलब्ध करवाने वाले अस्पतालों को संचालित होते देखा जा सकता है.

हजारों करोड़ रुपए की लागत से शुरू किए जाने वाले इन अस्पतालों को संचालित करने वाला व्यक्ति या इस से संबंधित ग्रुप कोई साधारण व्यक्ति या ग्रुप नहीं होता. निश्चित रूप से ऐसे अस्पताल न केवल धनाढ्य लोगों द्वारा खोले जाते हैं बल्कि इन के रसूख भी काफी ऊपर तक होते हैं. इतना ही नहीं, बड़े से बड़े राजनेताओं व अफसरशाही से जुड़े लोगों का इलाज करतेकरते साधारण अथवा मध्यम या उच्चमध्यम श्रेणी के मरीजों की परवा करना या न करना ऐसे अस्पतालों के लिए कोई माने नहीं रखता.

नामीगिरामी बड़े अस्पतालों में फोर्टिस, मैक्स, अपोलो, कोलंबिया एशिया रेफरल हौस्पिटल, नोवा स्पैशलिटी हौस्पिटल, ग्लोबल हैल्थ सिटी, बीजीएस ग्लोबल हौस्पिटल, सर गंगाराम हौस्पिटल आदि शामिल हैं. यहां एक ही छत के नीचे किसी भी मरीज के हर किस्म की बीमारी की जांचपड़ताल, उस से संबंधित हर किस्म के मैडिकल टैस्ट व हर प्रकार के औपरेशन की सुविधा उपलब्ध रहती है.

पांचसितारा होटल्स जैसी सुविधाएं प्रदान करने वाले अस्पतालों का खर्च उठा पाना साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है. ऐसे अस्पतालों में छोटा औपरेशन अथवा मध्यम श्रेणी की बीमारी का इलाज भी लाखों रुपए में हो पाता है.

इस में शक नहीं कि देश में लाखों संपन्न मरीज ऐसे हैं जो इन या इनजैसे दूसरे बड़े अस्पतालों से अपना इलाज करवा कर स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं. परंतु यदि हमें यह पता चले कि इतने विशाल भवन, वृहद आकार व प्रकार वाले इन्हीं पांचसितारा सरीखे अस्पतालों में मरीजों के साथ खुलेआम लूट नहीं, बल्कि डकैती की जा रही है तो यह उन अस्पतालों के लिए किसी कलंक से कम नहीं है.

आज यदि ऐसे कई बड़े अस्पतालों की वैबसाइट खोल कर देखें या इन अस्पतालों के भुक्तभोगी मरीजों द्वारा साझा किए गए उन के अनुभवों पर नजर डालें तो ऐसे अस्पतालों की वास्तविकता तथा इन विशाल गगनचुंबी इमारतों के पीछे का भयानक सच पढ़ने को मिल जाएगा.

बेशक, कुछ रिव्यू लिखने वालों ने इन अस्पतालों की सक्रियता व उन के स्टाफ के बरताव की तारीफ भी लिखी है. परंतु प्रश्न यह है कि लाखों रुपए खर्च करने के बावजूद यदि एक भी मरीज या उस के तीमारदार अस्पताल के प्रति कोई नकारात्मक विचार ले कर जाते हैं तो आखिर ऐसा क्यों?

इलाज के नाम पर लूट

पिछले दिनों मनीश गोयल नामक नवयुवक ने दिल्ली के शालीमार बाग स्थित एक हौस्पिटल के अपने अनुभव को सोशल मीडिया पर एक वीडियो द्वारा साझा किया. उस ने बताया कि उस के मरीज को एक बाईपास सर्जरी के बाद 19 जून को डिस्चार्ज किया जाना था. अस्पताल से उस औपरेशन का पैकेज बाईपास सर्जरी की फीस के साथ 2 लाख 2 हजार रुपए में तय हुआ था. मरीज अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पा रहा था तथा उस के परिजन अस्पताल के इलाज से संतुष्ट नहीं थे और मरीज को अन्यत्र स्थानांतरित करना चाह रहे थे. यह जान कर अस्पताल ने 5 लाख 61 हजार रुपए का बिल मरीज के तीमारदारों को दे दिया. किसी कारणवश 19 जून के बाद मरीज ने अपना इलाज इसी अस्पताल में एक सप्ताह और कराया. अब एक सप्ताह के बाद हौस्पिटल ने मरीज को नया बिल 11 लाख 37 हजार रुपए का पेश कर दिया.

मनीश गोयल के अनुसार, नेफरो के डाक्टर की डेली विजिट के नाम पर बिल में पैसे मांगे गए जबकि डाक्टर 3 दिनों में केवल एक बार आते हैं. परंतु अस्पताल ने उन के विजिट के पैसे 1 दिन में 2 बार विजिट की दर से लगाए हैं. इसी प्रकार 1 और डाक्टर, जिन्होंने मरीज की बाईपास सर्जरी की थी, 4 दिनों से छुट्टी पर थे फिर भी उन के नाम पर प्रतिदिन विजिट के पैसे बिल में मांगे जा रहे थे. इतना ही नहीं, इन सब के अतिरिक्त अस्पताल ने एक सप्ताह में 5 लाख

25 हजार रुपए मूल्य की दवाइयों का बिल भी अलग से लगा दिया. इन सब के बावजूद, मरीज का कहना है कि उसे अपेक्षित स्वास्थ्य लाभ भी नहीं मिल सका.

उपरोक्त घटना इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त है कि इस प्रकार के अस्पताल मरीजों के इलाज के लिए तो कम, मरीजों को लूटने व उन्हें कंगाल करने की नीयत से ज्यादा खोले गए हैं. कुछ मरीजों ने इसी अस्पताल के बारे में अपना तजरबा साझा करते हुए यहां तक लिखा है कि यहां कैंसर के मरीज को गलत दवाइयां दी गईं तथा उन का गलत इलाज किया गया. एक मरीज ने लिखा कि अस्पताल वालों का वास्तविक मकसद पैसा कमाना है. कुछ मरीजों ने इन अस्पतालों में भारी भीड़ और उस भीड़ के चलते होने वाली असुविधाओं का भी उल्लेख किया है.

दीपेश अरोड़ा नामक एक भुक्तभोगी ने अपने रिव्यू में एक अन्य सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल के बारे में लिखा कि उस के परिवार का एक प्रिय सदस्य अस्पताल में गलत इलाज किए जाने की वजह से मर गया. अस्पताल में सफेद यूनिफौर्म में कातिलों की टीम मौजूद है. जबकि राजेश सिंह जैसे किसी व्यक्ति के अनुभव के अनुसार, उसी अस्पताल के एक डाक्टर की देखभाल तथा उन की निगरानी करने का तरीका काबिलेतारीफ है.

दरअसल, भारत में बड़े अस्पतालों की बढ़ती संख्या का समाचार इन दिनों न केवल समूचे दक्षिण एशियाई देशों में, बल्कि अफ्रीका तथा यूरोपीय देशों में भी फैल चुका है. स्वयं इन अस्पतालों के प्रचारतंत्र इन की अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि करने में सक्रिय रहते हैं.

पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, बंगलादेश तथा अरब देशों के तमाम संपन्न मरीज भारत की ओर खिंचे चले आते हैं. और ये अस्पताल इन्हीं बेबस मरीजों की मजबूरी का नाजायज फायदा उठा कर उन से मनचाहे पैसे वसूलते रहते हैं.

धीरेधीरे उन की यही आदत प्रवृत्ति में शामिल हो जाती है और इस का शिकार लगभग प्रत्येक दूसरे मरीज को होना पड़ता है. ऐसे अस्पतालों पर तथा इन के द्वारा की जा रही लूट व डकैती पर सख्त नजर रखने की जरूरत है.

स्वाभिमानी मुसकान हूं मैं…

त्याग की देवी नहीं मैं,

स्वाभिमानी मुसकान हूं मैं

दे सको तो मान दो कि

साहसभरी इंसान हूं मैं

संस्कृति का पिटारा खोल कर

आदर्श ये अब बतलाना न

सीता, गांधारी के उदाहरणों से

अब दुर्बल हमें बनाना न

क्यों बांधू आंखों पर पट्टी?

खुली आंख सही पथ न दिखा दूं?

सत्य हूं, क्यों दूं अग्निपरीक्षा

न परीक्षकों को ही अब दे पाऊं

जीवनदान या जीवनभिक्षा

धर्म की आड़ ने किया नारी को निर्बल

इतनी क्यों हैरान हूं मैं

दे सको तो मान दो

कि साहसभरी इंसान हूं मैं

जीने को मिला अपना जीवन

खुशियों के संग मैं न जीऊं क्यों?

विरही उर्मिला बनूं किसलिए

रहूं अनब्याही प्रेयसी राधा सी क्यों?

विष पी मीरा सी बन प्रेमपगी दीवानी

खुद को अबला नारी बतलाऊं क्यों?

बुद्धि विवेक से रखती संयम

शक्ति की अद्भुत पहचान हूं मैं

दे सको तो मान दो

कि साहसभरी इंसान हूं मैं

मुझ में अदम्य वैसा ही साहस

जो बुंदेलों की लक्ष्मीबाई में कूट भरा

चमक है मेरे हाथों में

रजिया की तलवारों सी

बुद्धि में गार्गी सा ज्ञान खरा

कमजोर समझने की भूल न करना

न करने की अब हिम्मत भी करना

दे सको तो बस मान ही दो

कि साहसभरी इंसान हूं मैं.

– डा. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

रम और रामदास

दलित दारू पीता है और श्रेष्ठिवर्ग सुरापान करता है. दलित देसी ठेके पर नशे में मस्त हो कर चखना चबाते नेताओं को गाली बकता है. ऊंची जाति वाला भुने काजू के साथ वाइन के सिप करते गंभीर हो जाता है और उस के मुंह से अंगरेजी में मार्क्स, अरस्तु और पिकासो का दर्शन झड़ने लगता है. सार यह कि शराब हर कोई पीता है पर उस में भी धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भेदभाव साफसाफ दिखता है.

शराब को ले कर आरपीआई के मुखिया और न्याय मंत्री रामदास आठवले ने एक न्यायपूर्ण बात यह कह डाली कि दलित युवकों को देसी ठेके पर जाने के बजाय सेना में जा कर रम पीनी चाहिए. वहां अच्छा खाना भी मिलता है. खुद दलित होने के नाते रामदास बेहतर जानतेसमझते हैं कि वाकई, देश को दलितों की शहादत की जरूरत है. वे देश में जगहजगह पिटें, इस से तो अच्छा है कि दलित युवक सेना में जा कर लाइफ एंजौय करें. इस बाबत उन्हें आरक्षण भी देने की बात उन्होंने कह डाली.

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