मेरी बेटी यूएसए के एक बिजनैस स्कूल से एमबीए कर रही थी. दूसरे साल के मध्य में अच्छे इंटरव्यू होने के बावजूद 80 कंपनियों में उस का कहीं सैलेक्शन नहीं हुआ और नवंबर के मध्य तक किसी न किसी कंपनी में उस की जौब लगनी अत्यंत आवश्यक थी क्योंकि उस के बाद कैंपस सैलेकशन के लिए कंपनियों का आना लगभग बंद हो जाता है. यह जान कर हम सभी परेशान हो उठे. ठीक 4 हफ्ते बाद इंडिया आने का उस का टिकट हो चुका था. सवा साल बाद बेटी को देखने की खुशी में हर्षोल्लास से बुने सपने पलभर में चूरचूर हो गए.
लगातार मिली असफलताओं की मायूसी से उस का आत्मविश्वास खोता जा रहा था. हजारों मीलों का फासला. बस फेस टाइम पर उस का मनोबल बनाए रखी थी. उधर, वहां रहतीं उस की दोनों बहनों ने उस की हिम्मत को बंधाए रखा.
निराशा के अंधकार बढ़ते ही जा रहे थे. अपने देश की अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर उसे वहां क्यों जाने दिया. सौ हजार डौलर का लोन, वीजा का चक्कर, अनिश्चित भविष्य.
संशय के तूफानों में घिरे दिन यों ही बोझिल हो कर बीत रहे थे कि हर्षोल्लास से भरा उस का फोन आया कि दुनिया की 2 नामी कंपनी गूगल व मैकानजी ने उस की असीम प्रतिभा को पहचानते हुए सैकंड राउंड का इंटरव्यू अच्छा नहीं होने के बावजूद उसे सैलेक्ट कर के उपहारों से ढक दिया है. अविश्वास के घोर अंधेरे का अंत हो चुका था, विश्वास की लाली चारों ओर फैल गई थी.
रेणु श्रीवास्तव
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इंदौर में जब मेरी बेटी गरिमा का जन्म हुआ था. तब मेरी मां सर्विस करती थीं. सुबह का स्कूल था. घर आ कर खाना वगैरा बना कर लाने में उन्हें अकसर 2 बज जाते थे.
मेरा औपरेशन हुआ था, हिलनाडुलना भी मना था. बड़े जोरों से भूख भी लग जाती थी. मेरे पास वाले पलंग पर जिस लड़की की डिलीवरी हुई थी, उस की मां दूसरे दिन से मेरे लिए भी खाना लाने लगी. यहां तक कि मेरी बच्ची की नैपीज वगैरा भी वे ही बदल देतीं. कहतीं, ‘‘नहीं, तुम मत उठो. मैं सब कर दूंगी.’’
आज भी उस अनजान महिला के प्रति मेरा सिर आदर से झुक जाता है. इस दुनिया में जहां वक्त पर अपने भी काम नहीं आते, वहीं ऐसा निस्वार्थ भाव. सच है इस दुनिया में अच्छे लोग भी कम नहीं हैं.
ज्योति द्विवेदी