त्याग की देवी नहीं मैं,
स्वाभिमानी मुसकान हूं मैं
दे सको तो मान दो कि
साहसभरी इंसान हूं मैं
संस्कृति का पिटारा खोल कर
आदर्श ये अब बतलाना न
सीता, गांधारी के उदाहरणों से
अब दुर्बल हमें बनाना न
क्यों बांधू आंखों पर पट्टी?
खुली आंख सही पथ न दिखा दूं?
सत्य हूं, क्यों दूं अग्निपरीक्षा
न परीक्षकों को ही अब दे पाऊं
जीवनदान या जीवनभिक्षा
धर्म की आड़ ने किया नारी को निर्बल
इतनी क्यों हैरान हूं मैं
दे सको तो मान दो
कि साहसभरी इंसान हूं मैं
जीने को मिला अपना जीवन
खुशियों के संग मैं न जीऊं क्यों?
विरही उर्मिला बनूं किसलिए
रहूं अनब्याही प्रेयसी राधा सी क्यों?
विष पी मीरा सी बन प्रेमपगी दीवानी
खुद को अबला नारी बतलाऊं क्यों?
बुद्धि विवेक से रखती संयम
शक्ति की अद्भुत पहचान हूं मैं
दे सको तो मान दो
कि साहसभरी इंसान हूं मैं
मुझ में अदम्य वैसा ही साहस
जो बुंदेलों की लक्ष्मीबाई में कूट भरा
चमक है मेरे हाथों में
रजिया की तलवारों सी
बुद्धि में गार्गी सा ज्ञान खरा
कमजोर समझने की भूल न करना
न करने की अब हिम्मत भी करना
दे सको तो बस मान ही दो
कि साहसभरी इंसान हूं मैं.
– डा. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’




 
  
  
  
             
        




 
                
                
                
                
                
                
                
               