मेरी एक सहेली के विवाह का अवसर था. उस के यहां विदाई के समय दुलहन को उस के मामा द्वारा गोद में उठा कर विदाई वाहन में बैठाया जाता है. मेरी सहेली कुछ मोटी थी. जब उस के दुबलेपतले मामा उसे गोद में उठा कर कुछ कदम ही चले तो वे लड़खड़ा कर गिर पड़े जिस से दोनों को खासी चोट आ गई. दुलहन और उस के मामा को तुरंत अस्पताल ले जा कर मरहमपट्टी करवाई गई. फिर अगले दिन दुलहन की विदाई की गई.

प्रतिभा अग्निहोत्री

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मेरे घनिष्ठ व वर्षों पड़ोसी रहे तिवारी की छोटी बिटिया प्रिया के लग्न का प्रसंग था. विवाह में मुझे सपरिवार शादी के 2 दिन पहले उन के घर पर पहुंचने का निमंत्रण था. हम शादी से पहले आतिथ्य देने उन के घर पहुंच गए.

विवाह के बाद बरात विदाई का समय आया. जैसा कि आम रिवाज है, दुलहन बाबुल पक्षों से संबंधित अपने सगेसंबंधियों से गले मिल कर रो रही थी. उस की अश्रुधारा रुकने का नाम नहीं ले रही थी.

कुछ सगे प्रिया के मिजाज, स्वभाव व व्यवहार से अच्छी तरह परिचित थे. एक तरफ जा कर बतियाने लगे, जिसे मेरी धर्मपत्नी ने भी सुना कि, ‘अरे, अने छोरी से कहो कि यह नाटक बंद करे. दूसरों को रुलाने वाली क्यों रो रही है? अब तुझे नहीं रोना है, थने तो ले जाने वाले ससुराल पक्ष के रोने की बारी है.’

ग्रामीण सामाजिक मान्यता के आधार पर यह रूढि़वादी प्रथा अभी भी शहरों में भी विद्यमान है. रोना नहीं आने पर भी इस मौके पर दिखावाप्रदर्शन के दुलहन को ऐसा करने के लिए प्रेरित किए जाने के दृश्य आसानी से विदाई के वक्त देखे जा सकते हैं.

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