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रोहित का दोहरा शतक उनकी पत्नी के नाम, ऐसे किया इजहार

मोहाली में रोहित शर्मा का बल्ला श्रीलंकाई गेंदबाजों के खिलाफ जमकर हल्ला बोला. बुधवार को हिटमैन रोहित शर्मा ने अपने करियर का एक और ब्लौकबस्टर पारी खेली, रोहित ने 153 गेंदों में 208 रन बनाकर बड़ा रिकौर्ड अपने नाम कर लिया है.

श्रीलंका के सभी गेंदबाज रोहित की बल्लेबाजी के सामने बेबस नजर आ रहे थे. रोहित ने अपनी पारी में 153 गेंदों में 208 रन बनाए.

जब रोहित मैदान पर शिखर धवन के साथ बल्लेबाजी करने आए तो उस दौरान शिखर धवन के बल्ले से रन बरस रहे थे, धवन ने 67 गेंदों 68 रनों की पारी खेली. लेकिन धवन के आउट होते ही रोहित शर्मा ने जमकर शौट लगाने शुरू कर दिए.

रोहित ने 40वें ओवर की तीसरी गेंद पर 1 रन लेकर अपना शतक पूरा किया. रोहित का वनडे करियर में यह 16वां शतक था. बतौर कप्तान यह उनकी पहली सेंचुरी थी, इससे पहले श्रीलंका क्रिकेट टीम के कप्तान थिसारा परेरा ने टौस जीतकर पहले गेंदबाजी का फैसला किया था.

वहीं श्रीलंका ने धर्मशाला में खेले गए पहले वनडे मैच में भारत को सात विकेट से हराकर तीन वनडे मैचों की सीरीज में 1-0 से बढ़त ले ली. भारतीय टीम में चोटिल केदार जाधव के स्थान पर वौशिंगटन सुंदर को शामिल किया गया है.

रोहित ने दूसरे वनडे में भारत की जीत के बाद कोच रवि शास्‍त्री से बातचीत में कहा, “क्रिकेटर के तौर पर यह साल मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ रहा. मैं गेंद को बहुत अच्छी तरह से हिट कर रहा हूं.” यह सलामी बल्लेबाज सीमित ओवरों की टीम का अहम सदस्य है लेकिन टेस्ट एकादश में अब भी उनकी जगह पक्की नहीं है लेकिन वह हमेशा यही सोचकर चलते हैं कि उन्हें प्रत्येक मैच खेलना है. रोहित ने कहा, “मैं खुद से कहता हूं कि अगर मौका मिलता है तो मुझे इसके लिये तैयार रहना होगा. पहले क्या हुआ उसका मुझे खेद नहीं है, भविष्य उज्ज्वल है. पिछले पांच छह महीनों में यही बात मेरे दिमाग में रही.”

रोहित ने कहा, “मैं टेस्ट मैचों के लिये तैयार रहना चाहता हूं, मैं जानता हूं कि हम कुछ अवसरों पर पांच गेंदबाजों तो कभी चार गेंदबाजों के साथ खेलते हैं और ऐसे संयोजन में कभी मुझे मौका मिल सकता है और कभी नहीं. मैं खुद को इस तरह से तैयार करता हूं कि मैं हर मैच में खेल रहा हूं.” रोहित ने कहा, “मैं अपनी अच्छी शुरूआत को बड़ी पारी में बदलने की कोशिश कर रहा हूं. मैं जानता हूं कि हर समय ऐसा नहीं होगा लेकिन जब ऐसा होता है तो मैं उसका पूरा फायदा उठाना चाहता हूं.”

शतक लगाने के बाद मिसेज रोहित शर्मा यानी की रितिका सजदेह बेहद खुश नजर आईं. उन्होंने ताली बजाकर रोहित की पारी का सम्मान किया तो वहीं रोहित ने सभी के सामने फ्लाइंग किस देकर अपना प्यार जताया. बता दें कि 13 दिसंबर को रोहित शर्मा की मैरिज एनीवर्ससरी थी.

13 दिसंबर 2015 में उन्होंने रितिका सजदेह से शादी की थी, उन्होंने करियर का तीसरा दोहरा शतक लगाकर रितिका को एक शानदार गिफ्ट दिया है. भारत इस मैच को जीतकर सीरीज को बराबरी करना चाहेगा. रोहित के लिए यह दिन और खास हो जाता है. 2015 में इसी दिन रितिका सजदेह से शादी की थी. दोनों ने 6 साल एक दूसरे को डेट करने के बाद शादी रचाई थी. ऐसे में रितिका के लिए रोहित इससे अच्छा कोई और गिफ्ट नहीं दे सकते थे.

13 दिसंबर 2015 में उन्होंने रितिका सजदेह से शादी की थी, उन्होंने करियर का तीसरा दोहरा शतक लगाकर रितिका को एक शानदार गिफ्ट दिया है. भारत इस मैच को जीतकर सीरीज को बराबरी करना चाहेगा. रोहित के लिए यह दिन और खास हो जाता है. 2015 में इसी दिन रितिका सजदेह से शादी की थी. दोनों ने 6 साल एक दूसरे को डेट करने के बाद शादी रचाई थी. ऐसे में रितिका के लिए रोहित इससे अच्छा कोई और गिफ्ट नहीं दे सकते थे.

क्या आप जानते हैं सिलेंडर से जुड़ा ये नियम, मिलेगा 50 लाख तक का बीमा

पिछले दिनों केंद्र सरकार ने उज्ज्वला योजना शुरू की थी. इसके तहत सरकार का लक्ष्य गांव-देहात के ज्यादा से ज्यादा घरों में गैस कनेक्शन पहुंचाने का है.

इसके बावजूद भी कुछ लोग गैस का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. ऐसे में इन लोगों को गैस एजेंसी से जुड़े कई नियमों के बारे में भी जानकारी नहीं होती. हम जो बात आपको बताने जा रहे हैं उसके बारे में शायद ही आपको जानकारी हो.

आपको बता दें कि संबंधित कंपनी की तरफ से हर LPG उपभोक्ता का 50 लाख रुपए तक का इंश्योरेंस होता है. इस इंश्योरेंस की दो स्थिति होती हैं.

आपको यह भी बता दें कि इसके लिए किसी भी उपभोक्ता को कोई अतिरिक्त मासिक प्रीमियम नहीं भरना होता. यदि गैस सिलेंडर से कोई हादसा होता है तो पहली कंडीशन के तहत 40 लाख और दूसरी कंडीशन के तहत 50 लाख रुपए संबंधित एजेंसी को देने होते हैं.

हर साल गैस सिलेंडर फटने या सिलेंडर में आग लगने के कारण तमाम हादसे सुनने में आते हैं. ऐसे में आम लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती. यहीं कारण है कि हादसा होने के बाद भी बहुत कम लोग ही गैस एजेंसी की तरफ से कवर किए जाने वाले इस इंश्योरेंस के लिए क्लेम करते हैं. जबकि यह क्लेम लेना आपका अधिकार है और संबंधित एजेंसी की जिम्मेदारी. इस इंश्योरेंस से जुड़ी अधिक जानकारी के लिए आगे पढ़िए.

40 लाख का क्लेम

LPG सिलेंडर से यदि आपके घर या प्रतिष्ठान में कोई हादसा होता है तो आप 40 लाख तक का इंश्योरेंस क्लेम कर सकते हैं. वहीं सिलिंडर फटने से यदि किसी व्यक्ति की मौत होती है तो 50 लाख रुपए तक का क्लेम किया जा सकता है. इस तरह के एक्सीडेंट में प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को 10 लाख रुपए तक की क्षतिपूर्ति राशि का नियम है.

कोई अतिरिक्त प्रीमियम नहीं

ऊपर बताए गए इंश्योरेंस के लिए उपभोक्ता को कोई प्रीमियम नहीं भरना होता. जब आप कोई नया कनेक्शन लेते हैं तो यह इंश्योरेंस औटोमेटिक आपको मिल जाता है. कनेक्शन के समय ली जाने वाली धनराशि में यह इंश्योरेंस प्रीमियम निहित होता है. पेट्रोलियम कंपनियों इंडियन औयल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम के वितरकों को यह बीमा करवाना होता है.

हादसा हो तो यह करें

यदि आपके साथ किसी तरह का कोई हादसा होता है तो सबसे पहले पुलिस और इंश्योरेंस कंपनी को यह जानकारी दें. कई बार पुलिस ऐसे मामलों की एफआईआर दर्ज नहीं करती. इसलिए जरूरी है कि आप एफआईआर कराएं और इंश्योरेंस की रकम का दावा करने के लिए एफआईआर की कौपी सुरक्षित रखें. कोई घायल हुआ है तो उससे संबंधित बिल भी संभालकर रखें.

सलमान की फिल्म ‘टाइगर जिंदा है’ भी पाकिस्तान में नहीं होगी रिलीज

2012 में सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘‘एक था टाइगर’’ को पाकिस्तान में प्रदर्शन की इजाजत नहीं मिली थी. अब पांच साल बाद जब उसी फ्रेंचाइजी की फिल्म ‘‘टाइगर जिंदा है’’ का निर्माण किया गया है, तो अब यह फिल्म भी पाकिस्तान में रिलीज नहीं हो पाएगी.

पाकिस्तान के केंद्रीय सेंसर बोर्ड के चेयरमैन मोबशेर हसन ने एक अंग्रेजी दैनिक से बातचीत करते हुए कहा है कि, ‘‘पाकिस्तान के सेंसर बोर्ड ने फिल्म‘टाइगर जिंदा है’को एनओसी देने से साफ मना कर दिया है. इस फिल्म को उन्हीं वजह से रोका गया है, जिन वजहों से ‘एक था टाइगर’को प्रदर्शन की इजाजत नहीं दी गयी थी. ‘टाइगर जिंदा है’ में भी पाकिस्तान और पाकिस्तानी सरकारी एजंसियों की गलत तस्वीर पेश की गयी है.’’

जबकि पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड के उपाध्यक्ष मोहम्मद अशरफ गोंडाल ने कहा है कि, ‘‘पाकिस्तान के सूचना प्रसारण मंत्रालय और राष्ट्रीय इतिहास व साहित्य संग्रहालय विभाग को भी सूचित कर दिया गया है कि वह फिल्म ‘टाइगर जिंदा है’को एनओसी न दे.’’

सैफ अली खान की फिल्म ‘‘एजेंट विनोद’’के बाद ‘‘टाइगर जिंदा है’’दूसरी भारतीय फिल्म है, जिसे इस वर्ष पाकिस्तान में बैन किया गया है.

मेरी उम्र 18 साल है. मैं जब भी अपने बौयफ्रैंड से मिलती हूं तो वह सैक्स की डिमांड करता है. आप मुझे सही राह सुझाएं.

सवाल
मेरी उम्र 18 साल है और पिछले 3 साल से मैं रिलेशनशिप में हूं. मैं जब भी अपने बौयफ्रैंड से मिलती हूं तो वह मुझ से सैक्स की ही डिमांड करता है जिसे मैं मना नहीं कर पाती. कुछ दिनों से मुझे ज्यादा कमजोरी महसूस हो रही थी तो मैं ने उसे सैक्स के लिए मना कर दिया जिस से वह नाराज हो गया और मुझ से बात करनी ही छोड़ दी. यहां तक कि वह मेरा फोन भी नहीं उठा रहा है, जिस से मैं परेशान हूं. आप ही मुझे सही राह सुझाएं?

जवाब
यह उम्र कैरियर बनाने की होती है जिस में आप कई बार सैक्स कर चुकी हैं जो नुकसानदेह हो सकता है और वह भी ऐसे पार्टनर के साथ जो सिर्फ आप से अपनी सैक्स की चाह पूरी कर रहा है.

पार्टनर की इस बात पर नाराजगी से आप स्पष्ट समझ जाएं कि वह आप से कोई प्यारव्यार नहीं करता और सिर्फ आप से अपनी सैक्स इच्छापूर्ति कर रहा है. भूल कर भी दोबारा उसे फोन मत करिए, क्योंकि गलती उस की है न कि आप की. आप समय रहते संभल जाइए वरना बाद में पछताने के लिए कुछ हाथ नहीं लगेगा.

इस बात को समझें, पहले कैरियर बनाइए और जब एक बार अच्छा कैरियर बन जाएगा फिर तो अच्छे लड़कों की आप के लिए लाइन लग जाएगी. तो फिर मन को मजबूत करते हुए उसे भूल जाइए.

राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान : युवा नेता पर 100 साल पुरानी नीतियां

47 वर्षीय राहुल गांधी निर्विरोध रूप से कांग्रेस के नए अध्यक्ष चुन लिए गए. वह अब 132 साल पुरानी कांग्रेस का नेतृत्व करेंगे. राहुल गांधी को यह पद संघर्ष से नहीं मिला. अब तक के उन के पार्टी उपाध्यक्ष और सांसद के तौर पर किए गए कार्यों को उल्लेखनीय नहीं माना गया. उन की अंग्रजीदां अभिजात्य छवि बनी रही है. राहुल गांधी भी पार्टी की हिंदूवादी छवि पेश करते दिखाई दिए हैं.

गुजरात चुनावों में वह मंदिरों की परिक्रमा करते दिखाई दिए. स्वयं को जनेऊधारी हिंदू प्रचारित करते रहे. ऐसा कर के वह समूचे देश  के नेता के तौर पर नहीं, खुद को महज हिंदुओं का नेता साबित कर रहे थे. उधर भाजपा ‘हिंदुत्व’ को अपनी मिल्कियत समझती रही है. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कह चुके हैं कि कांग्रेस के पास तो हिदुत्व का क्लोन है. यानी असली माल उन के पास है. भाजपा एक तरह से कह रही है कि हिंदुत्व पर उन का कौपीराइट है. कांग्रेस तो नक्काल है. इस से लगता है कि कांग्रेस आज भी हिंदुत्व की पिछलग्गू दिखाई देती है. इस तरह तो कांग्रेस हिंदुत्व की बी नहीं, ए टीम दिखाई दी है.

यह सच है कि कांग्रेस आजादी के समय हिंदूवादी पार्टी थी. मुहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहते थे. तब के बड़े नेता तनमन से हिंदूवादी थे. कुछ तो वर्णव्यवस्था को ईश्वरीय देन मानने वाले थे. नेहरू थोड़े उदारवादी थे पर वह पार्टी के तिलक, जनेऊधारियों की सलाह के खिलाफ जाने का साहस नहीं दिखा पाते थे. न ही जगजीवन राम जैसे दलित और सरदार पटेल जैसे पिछड़े वर्ग के नेताओं की सलाह हिंदुत्व के विपरीत मानने की हिम्मत करते थे.

राहुल गांधी पिछले समय से काफी सक्रिय दिखाई दिए हैं. उन्होंने गुजरात चुनावों में जो तेवर दिखाए, 22 साल से एकछत्र शासन कर रही भाजपा को हिला दिया. वह तो ठीक है. उन्होंने जीएसटी पर व्यापारी वर्ग का समर्थन पाने के लिए सभाओं में मोदी सरकार को कोसा. ऐसा उन्होंने व्यापारियों को लुभाने के लिए किया. मंदिरों की परिक्रमा कर के ब्राह्मणों का समर्थन पा सकते हैं पर उन के पास देश की बड़ी युवा जनसंख्या के लिए कोई एजेंडा दिखाई नहीं दिया. न पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और औरतों के लिए उन के पास किसी तरह का नया दृष्टिकोण है.

हालांकि वह कुछ समय तक दलितों के घरों में जाते रहे. रात को उन के घर में रुकते और उन के घर में खाना खाते. इस से दलितों में किसी तरह का कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया. केवल इतना ही हुआ कि दलित कांग्रेस को अपनी हितैषी पार्टी मानती रही है. दलितों में कांग्रेस के प्रति वह धारणा पहले से है.

राहुल गांधी के पूर्वजों की बात करें तो नेहरू समाजवाद लाने की बात करते रहे. इंदिरा गांधी गरीबी हटाने का नारा ले कर आईं. राजीव गांधी गरीबों, गांवों तक एक रुपए में से 15 पैसे पहुंचने की बात कर के उन्हें लुभाते रहे, पर हकीकत में इस देश के गरीबों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के लिए सिवाय वादों के कुछ नहीं हुआ. 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह सोनिया गांधी की छत्रछाया में कारपोरेट और भ्रष्ट नेताओं के कल्याण में खड़े नजर आए.

राहुल गांधी जल्दी ही अपनी नई टीम बनाएंगे और तय है वह अपनी टीम में युवा नेताओं को भी रखेंगे पर कांग्रेस पार्टी में अभी जो युवा नेता हैं उन में से ज्यादातर पिता या परिवार की राजनीतिक विरासत से आए हुए हैं. उन की सोच जानीपहचानी है. जमीन से जुड़ाव वाले नेताओं की कांग्रेस में कमी हो रही है. जो हैं वे लकीर के फकीर दिखाई पड़ते हैं.

कांग्रेस को हिंदूवादी छवि से मुक्त कर के सही मायने में लोकतांत्रिक समाजवादी नीतियां स्थापित करनी होगी. सामाजिक क्षेत्र के लिए उन के पास कोई दृष्टिकोण नहीं दिखता. कांग्रेस में किसी भी युवा या पुराने नेता में आज के भारत को नई दिशा देने के लिए वह नजरिया नहीं है, जो तरक्की के लिए आवश्यक है.

मंदिरों, तीर्थों और विपक्ष की खामियां उजागर करने मात्र से देश किसी नेता का मुरीद नहीं बन सकता. राहुल गांधी को सामाजिक, राजनीतिक बदलाव का कोई नया कारगर क्रांतिकारी एजेंडा पेश करना होगा पर लगता नहीं वह देश में सुधार का कोई नया नजरिया पेश कर पाएंगे. आज देश कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है. ऐसे में कोई नेता तो युवा हो पर नीतियां 100 साल पुरानी हो, तब कैसे कोई देश तरक्की कर सकता है.

संपत्ति का बंटवारा : कानून पर संस्कार भारी

मोबाइल की घंटी बजी तो दीपा स्क्रीन पर अपनी बड़ी बहन का फोटो देख कर समझ गई कि अवश्य कोई महत्त्वपूर्ण बात होगी, क्योंकि वे निरर्थक बातों के लिए कभी फोन नहीं करतीं.

उन्होंने कहा, ‘‘तुझे पता है, बिहार की सारी पैतृक जमीन दोनों भाइयों ने मिल कर, तेरे और मेरे साइन अपनेआप कर के कौडि़यों के भाव बेच दी है. मुझे किसी शुभचिंतक ने फोन से सूचना दी है.’’

सुन कर दीपा सकते में आ गई कि पिता की चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई कि उन्होंने ऐसा कदम उठा लिया जैसेकि वे उन के जाने का ही इंतजार कर रहे थे. पिताजी यदि स्वयं बेचते तो सब को बराबर हिस्सा देते, लेकिन अचानक दुर्घटना में उन की मृत्यु हो गई. उन्होंने कई बार दीपा से कहा था कि परिवार में केवल वही आर्थिक अभाव से जूझ रही है, इसलिए जमीन के पैसे से उसे काफी मदद मिलेगी. लेकिन यह घटना अपवाद नहीं है, बल्कि घरघर की कहानी है.

पुश्तैनी संपत्ति में अधिकार

पहले जमाने में संयुक्त परिवार होते थे. अधिकतर परिवारों के सभी पुरुष पैतृक व्यवसाय में लगे होते थे, इसलिए बहनों के विवाह में दहेज के रूप में पैतृक संपत्ति का हिस्सा उन्हें दे देते थे. विवाह के बाद भी उन के हर दुखसुख में भागीदार होते थे और यथासंभव आर्थिक मदद भी करते थे. दूरियां भी कम होती थीं. यहां तक कि यदि कोई स्त्री ससुराल द्वारा परित्यक्ता होती थी या विधवा हो जाती थी, तो उस के भाई या पिता उसे हर तरह का संरक्षण देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे.

वे मातापिता के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी निभाते थे. बेटियां विवाह के बाद पूरी तरह से अपनी ससुराल को समर्पित हो जाती थीं. लेकिन समयानुसार जमाने और लोगों की सोच में अत्यधिक परिवर्तन आया है. अब पैतृक व्यवसाय को छोड़ कर युवक दूसरे शहरों में नौकरी करने लगे हैं. संयुक्त परिवारों का एकल परिवारों में परिवर्तित होने के परिणामस्वरूप सब अलगअलग रहने लगे हैं. इस से उन के निजी खर्चे बहुत बढ़ गए हैं.

महिलाओं के भी आत्मनिर्भर होने से पुरुषों का उन के प्रति उदासीन दृष्टिकोण हो गया है. बेटियां भी अब भाई के कंधे से कंधा मिला कर अपने मातापिता के प्रति जिम्मेदारी से विमुख नहीं हैं. पहले की अपेक्षा दहेज प्रथा को भी कानूनन नकारा गया है. महिलाएं भी आत्मनिर्भर होने के कारण स्वाभिमान के तहत पिता से दहेज लेने के विपक्ष में हो गई हैं. ये सब देखते हुए महिलाओं का भी पुश्तैनी संपत्ति में अधिकार होना आवश्यक हो गया है.

बराबर का हक

विवाहित स्त्रियों को पुश्तैनी संपत्ति में पुरुष के बराबर का हक 1956 के ऐक्ट ‘हिंदू उत्तराधिकार के संशोधन’ के आगमन के बाद बनाया गया, लेकिन मूलतया यह प्रभावी नहीं हुआ. 9 सितंबर, 2005 से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत नए नियमों के आधार पर पुश्तैनी संपत्ति पर महिला और पुरुष दोनों का बराबर हक है.

अब प्रश्न यह उठता है कि कानून तो बन गया, लेकिन क्या व्यवहारिकता में भी इसे परिवारों ने अपनाया है? नहीं. यदि बहन या बेटी अपनी जबान पर भी संपत्ति के बंटवारे में हिस्सा लेने की इच्छा ले आए तो पुरुषों को बहुत नागवार गुजरता है. वे उस के अधिकारों का हनन कर के उसे हमेशा जरूरत के समय हाथ पसारे ही देखना चाहते हैं और उस की मदद कर के समाज में प्रशंसा का पात्र बनना चाहते हैं.

वे उसे अपने बराबर संपत्ति के अधिकार का भागी न मान कर उस दया का पात्र मानने में ही अपना बड़प्पन सुरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे वह तो उस घर में पैदा ही नहीं हुई. डोली उठने के साथ ही उस के उस घर पर अपने सारे अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं और परिवार वाले उसे अपनेआप को पराया समझने पर मजबूर कर देते हैं. यह उस के हिस्से की विडंबना ही तो है.

बिखरते रिश्ते

‘स्त्रीपुरुष में पुश्तैनी संपत्ति का बराबर का बंटवारा’ कानून के तहत परिवारों के रिश्तों में बहुत कड़वाहट आ गई है. इस में कोई संदेह नहीं है, जो कार्य पुरुष अपना नैतिक कर्तव्य समझ कर करते थे, उन्हें अब कानून के डर से भी नहीं करना चाहते, क्योंकि पुरुषप्रधान देश में पुरुषों की सदियों से चली आ रही मानसिकता में बदलाव कछुए की चाल से हो रहा है. अभी भी नैतिक कर्तव्य समझने वाले पुरुष ही कानून का पालन कर रहे हैं.

रिश्तों में खटास आने का मुख्य कारण ‘जर, जोरू और जमीन’ ही होते हैं. यह सर्वविदित है. आधुनिक समय में कानून बनने के बाद पहले की अपेक्षा स्त्रियों को संपत्ति में बराबर का हकदार बनाने के स्थान पर उन की जिम्मेदारी तो अपने मातापिता के प्रति बढ़ गई, लेकिन उन की आर्थिक सुरक्षा गौण हो गई है.

अभी भी पुरुष चाहे अपने मातापिता के लिए आर्थिक या शारीरिक रूप से कुछ भी न करें, लेकिन पैतृक संपत्ति पर अपना पूरा अधिकार समझते हैं. जीवन भर बेटी उन के लिए अपनी नैतिकता के तहत कुछ भी करे, लेकिन संपत्ति में हिस्सा मांगे या मातापिता उसे देना चाहें तो वे उस के खून के प्यासे तक हो जाते हैं. उस के द्वारा अपने अधिकारों के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाना तो बहुत दूर की बात है. ऐसा प्रतिदिन सुनने में आता है.

बहनों को हिस्सा मिले यह तो अपवाद है, भाई भाई को ही हिस्सा देने में कतराता है. जहां मौका देखा संयुक्त संपत्ति पर मालिकाना हक जताने में संकोच नहीं करता. चाहे जिंदगी भर के लिए एकदूसरे से रिश्ता टूट जाए.

मानसिकता में बदलाव

इस में बहनों की सदियों से चली आई मानसिकता भी दोषी है. कई बहनें विवाह के बाद अपनी ससुराल के समारोहों में अपने भाइयों से परंपरानुसार मोटी रकम वसूलना चाहती हैं और संपत्ति में से भी हिस्सा मांगती हैं, जबकि वे अपने भाई से आर्थिक दृष्टि से अधिक संपन्न हैं.

सारी वस्तुस्थिति का अवलोकन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कानून बनने से अधिक आवश्यक है, मातापिता अपने जीतेजी संपत्ति के बंटवारे की वसीयत लिख दें ताकि उन की मृत्यु के बाद कोई भी परिवार का सदस्य संपत्ति पर अवैध मालिकाना कब्जा न कर सके.

समयानुसार स्त्री और पुरुष की मानसिकता में बदलाव आए, पैसे से अधिक रिश्तों को महत्त्व दे कर नैतिकता के आधार पर पुश्तैनी संपत्ति का बंटवारा हो और इस में भी मातापिता द्वारा अपने बच्चों में एकदूसरे के प्रति सौहार्द की भावना और रिश्तों को पैसे से अधिक महत्त्व देने वाले डाले गए संस्कार ही सब से अधिक परिवार के विघटन को रोकने में और समस्या के समाधान को फलीभूत करने में सक्षम हैं.

शर्मनाक : जवानों ने की आदिवासी लड़कियों से छेड़छाड़

यह शर्मनाक हादसा छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के पालनार कसबे के आदिवासी गर्ल्स होस्टल का है. बीती 31 जुलाई को पालनार होस्टल की आदिवासी लड़कियां चहक रही थीं. एक नाचगाने के जलसे की तैयारियां कर रही वे लड़कियां बारिश का लुत्फ उठाते हुए घर न जा पाने का अफसोस भी कर  रही थीं कि राखी के दिन अपने भाइयों की कलाई पर राखी नहीं बांध पाएंगी.

होस्टल में खासी चहलपहल थी. जलसे की तैयारियां कर रही लड़कियां उस वक्त और खुश हो उठीं, जब उन्हें यह पता चला कि नजदीक के कैंप से कई जवान उन से राखी बंधवाने आ रहे हैं.

गौरतलब है कि नक्सली इलाके छत्तीसगढ़ में जगहजगह सीआरपीएफ के कैंप लगे हुए हैं, जिन में सेना के जवान डेरा डाले हुए हैं. जिस वक्त वरदी पहने कई जवान होस्टल आए, तब कुछ लड़कियां बाथरूम गई हुई थीं.

उन में से जब कुछ लड़कियां अपने कमरों की तरफ लौट रही थीं, तब उन्हें देख कर राखी बंधवाने की मंशा लिए आए जवानों ने एक बार फिर अपना असली रंग दिखा दिया. उन्होंने बाथरूम से आती लड़कियों को रास्ते में रोक कर उन की तलाशी की बात कही, तो वे लड़कियां घबरा उठीं.

सीआरपीएफ के जवानों की इस इलाके में पुलिस वालों और नक्सलियों से भी ज्यादा दहशत रहती है, इसलिए लड़कियां डर के मारे तलाशी से इनकार नहीं कर पाईं.

तलाशी के नाम पर जवानों ने जो घटिया हरकत की, उस ने सेना के जवानों की बदनीयती की पोल खोल दी.

तलाशी के बहाने उन्होंने लड़कियों के अंगों से छेड़छाड़ शुरू की तो वे और घबरा उठीं, पर हट्टेकट्टे और वरदी के नशे में चूर जवानों का विरोध नहीं

कर पाईं. तलाशी के नाम पर उन्होंने भोलीभाली लड़कियों की कैसी तलाशी ली होगी, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं है.

जब तलाशी के बहाने छेड़छाड़ पर पानी सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो लड़कियों की हिम्मत वापस आई और उन्होंने शोर मचाते हुए विरोध शुरू कर दिया. इस पर और भी लड़कियां इकट्ठा होने लगीं, तो जवान भाग खड़े हुए, पर तब तक तकरीबन 14 लड़कियों के नाजुक अंगों से खिलवाड़ कर अपनी हवस और बुरी मंशा को अंजाम दे चुके थे.

बात जब होस्टल की वार्डन द्रौपदी सिन्हा तक पहुंची, तो इस शर्मनाक हादसे पर वे गुस्सा हो उठीं और सीधे  नजदीकी थाने कोंडाकोआ जा कर अज्ञात जवानों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दी.

कुछ ही देर में पूरे राज्य में जवानों की इस बेजा हरकत पर खासा हल्ला मच गया और आदिवासी गुस्से से भर उठे कि हमारी लड़कियों को तो सीआरपीएफ के जवानों ने भेड़बकरी समझ रखा है, जो कभी भी कहीं भी नक्सली होने के शक में पकड़ कर तलाशी के नाम पर छेड़छाड़ शुरू कर देते हैं और मौका मिले तो बलात्कार तक कर डालते हैं.

माहौल गरमाते देख पुलिस और प्रशासन भी हरकत में आ गए और मामले की जांच के लिए तुरंत एक कमेटी बना डाली. इस कमेटी ने

13 छात्राओं के बयान दर्ज किए, तो एक हैरतअंगेज बात यह भी सामने आई कि उन जवानों के नाम और पहचान किसी को नहीं मालूम थे.

आदिवासी लड़कियों के बयानों से यह जाहिर हुआ कि एक जवान बारीबारी से उन्हें टटोलता रहा और दूसरा होस्टल की निगरानी करता रहा.

दंतेवाड़ा के कलक्टर सौरभ कुमार और पुलिस के आला अफसर भी पालनार गर्ल्स होस्टल पहुंचे, पर तब तक वे जवान फरार हो चुके थे.

बहरहाल, छात्राओं द्वारा बताए गए हुलिए के आधार पर उन की पहचान शुरू हुई और पुलिस ने अज्ञात वरदीधारियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 और 354 (क) के तहत मामला दर्ज कर उन जवानों की खोजबीन शुरू कर दी.

जवान या शैतान

मामले ने तूल पकड़ा, तो आदिवासी संगठनों के लोगों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया. 8 अगस्त को पीडि़त छात्राओं को 231वीं बटालियन के 254 जवानों के फोटो और वीडियो दिखाए गए, तो उन्होंने उन्हें पहचान लिया.

पहला जवान 9 अगस्त को ही गिरफ्तार कर लिया गया, जिस का नाम शमीम अहमद है और वह जम्मूकश्मीर का रहने वाला है.

दूसरा जवान नीरज खंडेलवाल घटना के दूसरे दिन ही छुट्टी ले कर अपने घर देहरादून भाग गया था, जिसे 12 दिन बाद गिरफ्तार कर लिया गया.

शमीम और नीरज तो इसलिए जल्दी पकड़े गए, क्योंकि उन्होंने आदिवासी गर्ल्स होस्टल में घुस कर इन लड़कियों पर बुरी निगाह डाली थी और उन के साथ बेहूदा हरकतें भी की थीं.

कहने को तो इन जवानों की ड्यूटी नक्सलियों से निबटने और आदिवासियों की हिफाजत करने की है, पर होता उलटा है. ये जवान खुद आदिवासी लड़कियों और औरतों पर मौका पाते ही भूखे भेडि़यों की तरह टूट पड़ते हैं और देखते ही देखते उन की इज्जत तारतार कर देते हैं.

दरअसल, 31 जुलाई को पालनार में हुआ यह था कि जवानों की इमेज चमकाने के लिए प्रशासन ने खुद रक्षाबंधन का जलसा रखा था, जिसे नाम दिया गया था ‘सुरक्षा बलों के साथ बस्तर की औरतों का अनोखा रिश्ता’. दंतेवाड़ा के कलक्टर सौरभ कुमार और एसपी कमललोचन कश्यप की इजाजत से ही इसे किया गया था.

देर से ही सही, पर सच जब उजागर हुआ, तो कई सवाल भी साथ लाया कि अगर आदिवासी छात्राओं से जवानों को राखी बंधवानी ही थी, तो इस के लिए रक्षाबंधन वाले दिन के बजाय प्रोग्राम हफ्ताभर पहले क्यों रखा गया और खुले में रखने के बजाय बंद में क्यों रखा गया.

इस होस्टल में तकरीबन 5 सौ आदिवासी लड़कियां रहती हैं, जिन्हें कहा गया था कि वे नाचगाने की प्रैक्टिस करें.

कई और सवाल भी हैं. मसलन, क्या रक्षाबंधन पर बहनें भाइयों के सामने नाचतीगाती हैं? जवाब साफ है कि नहीं. इस दिन भाई भले ही वे फिर धर्म के क्यों न हों, अपनी बहनों को तोहफे देते हैं और उन की हिफाजत की जिम्मेदारी लेते हैं.

पर यहां तो उलटी गंगा बह रही थी. जवानों ने आते ही लड़कियों को छेड़ना शुरू कर दिया, जिस से लड़कियां अपने बचाव के लिए टायलेट की तरफ भागीं, पर वहां भी हैवान बने जवानों ने उन को बख्शा नहीं और मामले पर लीपापोती करते हुए यह जताने की कोशिश की गई कि केवल 2 जवान ही गए थे, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है.

एक महीने तक तो सच को छिपा कर रखा गया, लेकिन पर जब यह पूरी तरह उजागर हुआ तो साफ यह हुआ कि बस्तर में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज है ही नहीं. आएदिन सीआरपीएफ के जवान आदिवासी औरतों की इज्जत से खिलवाड़ किया करते हैं.

अब से तकरीबन 6 महीने पहले भी आधा दर्जन आदिवासी लड़कियों के नक्सली होने के शक में उन के स्तन तक निचोड़ कर देखे गए थे.

इन से अच्छे हैं नक्सली

सेना के जवानों के सामने आदिवासी लड़कियों को नाचने पर क्यों मजबूर किया गया, इस की जांच हो तो कई चौंका देने वाली बातें उजागर होंगी. पर अफसोस, इन भोलेभाले आदिवासियों से किसी को कोई सरोकार नहीं है. सभ्य समाज की नजर में ये गंवार हैं और मीडिया तभी यहां पहुंचता है, जब नक्सली कोई जोरदार धमाका कर जवानों को उड़ा देते हैं.

हर कोई जानता है कि नक्सली आदिवासियों के हिमायती हैं. उन का मानना है कि पहले पूंजीपति और जमींदार आदिवासियों का शोषण करते थे, अब वही काम बस्तर में तैनात सेना के जवानों के जरीए कराया जा रहा है और इस की जिम्मेदार सरकार है, जो नहीं चाहती कि आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन का उन का बुनियादी हक मिले.

नक्सली चूंकि सेना के जवानों से आदिवासियों की हिफाजत करते हैं, इसलिए उन्हें देशद्रोही करार देते हुए बदनाम कर दिया जाता है. पूरे देश में हवा ऐसी बनाई जाती है, जैसे नक्सली कोई आतंकी या समाज के दुश्मन हों. सेना के जवानों से परेशान इन आदिवासियों की हिफाजत नक्सली करते हैं, तो इस की एवज में आदिवासी भी उन का साथ और माली इमदाद देते हैं.

अरबों रुपए सरकार इन जवानों की तैनाती और खानेपीने पर खर्च कर रही है, पर वे आदिवासियों को तंग करते हैं, तो नक्सलियों की इस दलील को एकदम खारिज नहीं किया जा सकता कि सरकार की मंशा सेना के जवानों से आदिवासियों को इतना परेशान करा देने की है कि वे खुद जंगल छोड़ कर भागने लगें और कुदरती तोहफों से भरपूर बस्तर उद्योगपतियों को दिया जा सके.

मुमकिन है कि यह पूरा सच न हो, पर पालनार की घटना से यह तो उजागर होता है कि जवानों की मंशा और इरादे ठीक नहीं थे, जो घर और बीवी छोड़ कर सालों से बस्तर के कैंपों में रह रहे हैं और अपनी सैक्स की भूख मिटाने के लिए आदिवासी औरतों को निशाना बनाते हैं. ऐसे में कोई उन्हें बचाने नहीं आता. आते हैं तो नक्सली और वे भी सीधे बारूदी सुरंगें लगा कर जवानों को थोक में मारते हैं.

इन दोनों के बीच पिस रहा है तो बेचारा आदिवासी समाज, जिसे यह समझ नहीं आ रहा कि आखिर क्यों हजारों जवानों को सरकार ने इस दुर्गम इलाके में रख छोड़ा है, जो करने के नाम पर आदिवासियों को आएदिन परेशान करते हैं और अब तो होस्टलों में घुस कर लड़कियों को भी नहीं बख्श रहे हैं.

आदिवासियों को जवानों से भले और हमदर्द नक्सली लगते हैं, तो इस में हैरत की बात क्या?

दूसरी कई मांगों और पालनार गर्ल्स होस्टल मामले के विरोध में कई आदिवासी संगठनों ने 5 सितंबर, 2017 को बस्तर बंद का ऐलान किया था, जो कामयाब रहा था.

पहली दफा कुछ गैरआदिवासियों ने भी उन का साथ दिया था. शायद ये लोग भी सेना के जवानों से आजिज आने लगे हैं. पर सरकार जवानों को यहां से हटाएगी, ऐसा लग नहीं रहा.

अंधभक्ति का चक्रव्यूह : बाबाओं के इस जाल में फंस न जाना

कुछ समय पहले की बात है. टैलीविजन के खबरिया चैनल और अखबार चीखचीख कर कह रहे थे कि डेरा सच्चा सौदा के गुरु राम रहीम को दिए जज के फैसले के चलते उन के अनुयायियों ने पंचकुला को धूंधूं कर जला डाला. हर तरफ आग ही आग, हिंसा पसरी हुई थी.

सवाल उठा कि ये बाबा के कैसे अनुयायी हैं, जो हिंसक हो उठे? क्या यह भारत की ऐसी पहली घटना थी? क्या इस से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था?

एक जानेमाने अखबार से मालूम हुआ कि अदालतों में चल रहे ऐसे मुकदमों की फेहरिस्त बहुत लंबी है.

पिछले साल उत्तर प्रदेश में बाराबंकी जिले के एक बाबा परमानंद को गिरफ्तार किया गया था. औरतों के साथ जिस्मानी संबंध बनाते हुए उन के वीडियो सोशल मीडिया पर आए थे. अगर दक्षिण भारत की बात करें, तो स्वामी नित्यानंद की सैक्स सीडी साल 2010 में सामने आई थी.

इस तरह की घटनाएं बारबार होती हैं और हर बार अंधभक्ति की चपेट में आई जनता छली जाती रही है. कैसी धर्मांधता है यह? क्या हमारी सोचनेसमझने की ताकत खत्म हो चुकी है?

जिस उम्र में बच्चे खेलते हैं, जवान होती लड़कियां आनी वाली जिंदगी के सपने बुनती हैं, उस उम्र में उन को धार्मिक जगहों पर सेवा के काम में भेज कर क्या सच में पुण्य कमाया जा सकता है?

सड़क पर घायल पड़े किसी इनसान को देख लोग मुंह मोड़ कर चल देते हैं, मुसीबत में पड़े शख्स से किनारा कर लेते हैं, पर किसी बाबा पर आंच आ जाए, तो बवाल कर देते हैं. क्या यही धर्म है?

क्या वजह है इस धर्मांधता की? इस बारे में कई संस्थानों से जुड़े लोगों से बात की गई, तो मालूम हुआ कि कहीं न कहीं लोग शांति की तलाश में इन आश्रमों का रुख करते हैं.

भेदभाव भरा बरताव

आज समाज में फैले जातिगत भेदभाव, ऊंचनीच व अमीरीगरीबी का फर्क क्या लोगों को मजबूर नहीं करता इन बाबाओं की शरण में जाने को? अमीर दिनोंदिन अमीर व गरीब और गरीब होता जा रहा है. ऐसे में इन आश्रमों से अगर किसी गरीब को मुट्ठीभर अनाज और तन ढकने को कपड़ा मिल जाए, तो ये लोग उसे अपना मंदिर समझने लगते हैं और समाज से कटे हुए दलित, बाबा से मिली इज्जत के बदले व समाज से बदला लेने के लिए हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं.

अमीर अपने काले धन से किसी को दो गज जमीन नहीं देगा, पर इन मठों के नाम पर धर्मशालाएं बनवाएगा व जमीनें दान कर देगा, ताकि उस का काला धन भी ठिकाने लग जाए और समाज में रुतबा भी बढ़ जाए.

इस तरह यहां गरीब व अमीर सभी तरह के अंधभक्तों का स्वागत होता है. पर भेदभाव भी होता है. अमीर झाड़ू ले कर सेवा के नाम पर सिर्फ तसवीरें खिंचवाते हैं और गरीब को तसवीरें दिखा कर वही झाड़ू हमेशा के लिए थमा दी जाती है.

घरेलू हिंसा जिम्मेदार

क्या आएदिन घरपरिवारों में होने वाली हिंसा औरतों व बच्चों को इस अंधभक्ति की तरफ नहीं खींचती है? क्यों कोई अपने बच्चे इन बाबाओं व आश्रमों के सुपुर्द कर देता है? क्यों कोई औरत अपने परिवार को हाशिए पर रख कर इन बाबाओं के मायाजाल में फंसती चली जाती है?

अगर गंभीरता से सोचा जाए, तो शायद वह अपने वजूद की तलाश में यह रफ्तार पकड़ लेती है. जहां परिवारों में औरतों को इज्जत नहीं मिलती, उन्हें यहां प्यार के दो बोल भले महसूस होते हैं और वे सत्संग व प्रवचनों के बहाने इन की ओर खिंची चली जाती हैं और वहां पर हाजिरी देना अपना धर्म समझने लगती हैं.

टूटते परिवार व समाज

कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो इन आश्रमों में जाने वाले ऊंचे तबके के भक्तों की देखादेखी ऐसा करने लगते हैं और इन से जुड़ते चले जाते हैं. अमीर लोग भी इन के कार्यक्रमों व सत्संगों में जाना पसंद करते हैं.

यह सही है कि यह सामाजिक होने का एक जरीया भर है और इनसान सजधज कर कर रहना व संगीत सुनना पसंद करता है, इसलिए इन सत्संगों में उसे क्षणिक खुशी मिलती है.

पर सोचने की बात यह भी है कि यही खुशी वह इन के अनुयायी न बन कर अपने परिवार, दोस्तों व रिश्तेदारों में भी तो ढूंढ़ सकता है? क्या टूटते परिवार, बदलता सामाजिक माहौल इन बाबाओं को राह दिखाने के लिए जिम्मेदार नहीं है?

पीढ़ी दर पीढ़ी अंधभक्ति

कई घरों में इन बाबाओं के लिए खास दर्जा होता है. घर में कुछ अशुभ हुआ, तो बाबा से सलाहमशवरा किया जाता है और अगर कुछ शुभ हुआ, तो भी बाबा को चढ़ावा चढ़ाया जाता है. घर के बड़ेबुजुर्ग यह सब करते हैं व अपनी अगली पीढ़ी को भी मजबूर करते हैं कि वह इस का पालन करे.

ऐसा अकसर अपना कारोबार करने वाले परिवारों में होता है, जहां अगली पीढ़ी पहली पीढ़ी पर निर्भर होती है, इसलिए अगली पीढ़ी न चाहते हुए भी इस अंधभक्ति के चक्रव्यूह में फंस जाती है और इन बाबाओं के आश्रम फलतेफूलते रहते हैं.

कम मेहनत में शौहरत

आजकल इन आश्रमों में दान व चंदे के नाम पर खूब पैसा जमा होता है. इन्हें भी लोगों की जरूरत पड़ती है, ताकि इन का प्रचारप्रसार किया जा सके, इन के नाम के डंके बजाए जा सकें. ऐसे में पढ़ीलिखी बेरोजगार नौजवान पीढ़ी या वे औरतें, जो किसी वजह से नौकरी नहीं कर रही हैं, भी इन संगठनों से खूब जुड़ रही हैं.

जिन औरतों ने कभी सोचा भी न था कि शादी के बाद वे महज घरेलू औरत बन सिर्फ बच्चे ही पालती रह जाएंगी, उन्हें कुछ अलग करने की चाह इन आश्रमों से जुड़ने को मजबूर करती है.

ऐसी औरतें बड़ेबड़े स्टेजों पर खड़ी हो कर भीड़ को संबोधित कर अपनेआप को ऊंचा समझने की गलतफहमी में इन से जुड़ी रहती हैं और इस अंधभक्ति के चक्रव्यूह में फंसती चली जाती हैं.

ऐसी औरतें अपने आसपड़ोस की औरतों के लिए मिसाल बन जाती हैं और देखादेखी दूसरी औरतें भी इन आश्रमों से जुड़ने लगती हैं, जबकि इन के खुद के बच्चे दाइयों के भरोसे पलते हैं. वे भूल जाती हैं कि अपने बच्चे पालने का काम कोई छोटा काम नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी जिम्मेदारी है.

हिम्मत हारना

कई बार अपने काम में बारबार नाकाम होने पर भी लोग मठोंमंदिरों का रुख करने लगते हैं. जो काम लगन व मेहनत से होना चाहिए, उस के लिए वे इन बाबाओं से आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं. वहां आशीर्वाद के साथ मन को बहलाने वाली बातें सुन कर कभीकभार उन के काम बन भी जाते हैं और ऐसे लोग ही इस कामयाबी को बाबा का आशीर्वाद समझ कर उन के अनुयायी हो जाते हैं, जबकि यह हिम्मत, हौसला अगर उन के अपने परिवार से मिला होता, तो वह परिवार एकता के सूत्र में जुड़ जाता और वह सदस्य बाबा से न जुड़ता.

शांति की तलाश में

जब कभी परिवार के किसी सदस्य को कोई लंबी व बड़ी बीमारी का सामना करना पड़ता है, तो पूरा परिवार निराश हो जाता है. ऐसे में जब सभी दरवाजे

बंद हों, तो वे इन बाबाओं का दरवाजा खटखटाते हैं और परिवार का सदस्य ठीक हुआ या नहीं, वह तो दूसरी बात है, पर वे अपना समय व दौलत इन आश्रमों में जरूर लुटाते हैं.

हो सकता है कि इस से उन्हें शांति मिलती हो, पर यह शांति उन्हें किसी दूसरे नेक काम को कर के भी मिल सकती है.

कुलमिला कर एक इनसान दूसरे इनसान के लिए मददगार साबित हो, तो शायद इन बाबाओं, मठाधीशों का साम्राज्य खत्म हो जाए.

धर्म के नाम पर हो रहे इस पाखंड का खात्मा होना चाहिए, तभी सही माने में इनसान अपने इनसानियत के धर्म को समझ सकेगा.

झूठ बोलना सीखें : आज की दुनिया में सत्य बड़ी जानलेवा बीमारी है

आप ने रेलवेस्टेशनों, बसअड्डों, पैसेंजर गाडि़यों और महानगरों के फुटपाथों पर 10 रुपए में इंगलिश सिखाने का दावा करने वाली पुस्तकें खरीदी भले ही न हों मगर देखी जरूर होंगी. इन्हें अपनी जेब के अनुकूल, अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप पा सर्वसाधारण अपनी जेब ढीली करने को उत्सुक नजर आता है. और इस तरह यह धंधा चलता रहता है. समय की मार खाए गरीब बेचारे कभी यों 10 रुपए में अंगरेजी तो नहीं सीख पाते किंतु अपनी तरफ से पूरी कोशिश करने की आत्मसंतुष्टि उन्हें जरूर मिल जाती है. उस पुस्तक ने उन का कितना अंगरेजी ज्ञान बढ़ाया, यह तो नहीं कहा जा सकता. यह शोध का विषय है लेकिन चिंतनमननमंथन द्वारा मानसिक वादविवाद का आयोजन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दरअसल इस सर्वसाधारण के जीवन को उन्नत करने के लिए अंगरेजी नहीं झूठ बोलना कैसे सीखें नामक पुस्तक की सख्त आवश्यकता है. सर्वशिक्षा अभियान के तहत अगर इसे बढ़ावा मिले तो अतिउत्तम. अनिवार्य पठनीय पुस्तक का दरजा मिले तो वाहवाह.

सत्यं वद प्रियं. वद न वद सत्यम अप्रियम, यह पाठ हिंदुस्तान की हर पाठशाल में पढ़ाया जाता रहा है और इस के सदके में हमारे जैसे झूठ बोलने में अक्षम लोगों का जमावड़ा हिंदुस्तान की धरती पर हो गया, जिन्हें आजादी के सठिया जाने के बाद भी मिडिल क्लास कह कर खूब लताड़ा गया. अब तो सब से बड़ा अडं़गा है हमारी प्रगति में, वह यही है, हमारी मिडिल क्लास सत्यवादी सोच. इसलिए शरीर पर टैटू सा गुदा मिडिल क्लास रहनसहन, मिडिल क्लास भाषा.

यह तो मानी बात है कि कोई आदमी सच बोल कर प्रिय नहीं बना रह सकता. सच तो प्रकृति से ही कड़वा होता है, एकदम करेला, ऊपर से नीम चढ़ा जैसा. करेला तो जानते हैं न, छिलका उतार भी दिया जाए तब भी कड़वाहट अंदर पोरपोर तक भरी ही रहती है.

अभी तक हम ने तो सुना नहीं कि करेले को चाशनी में डुबो कर किसी ने बारहमासी रसगुल्ला बनाने में सफलता प्राप्त की हो, किसी को यह कला आई भी हो तो खानदानी शाही दवाखाना की तरह निश्चित ही चांदनी चौक की किसी गली में चुपचाप चल रही होगी. यों पटरियों पर तो वह न बिक रही होगी. यह हमारा सच तो होली पर बनने वाली गुझिया सी साख भी नहीं जुटा पाया कि चलो, सालाना जलसे में ही उस का कुछ जलवा हो. मगर वहां भी बुरा न मानो होली है का वरक लपेटा जाए तब जा कर कुछ बात बने.

इधर, झूठ की दादागीरी एकदम निराली है, बासमती चावल सी उस की महक आ ह ह हा…एकएक दाना एकदम खिला हुआ ताजगी से भरपूर. सब को मजा देने वाला. सब की इज्जत बचाने वाला. झूठ की खासीयत है वह हमेशा आराम से मेजपोश की तरह बिछा रहता है, खूबसूरत परदे की तरह लटका रहता है. सब की नंगई ढकी रहती है. सो, सब को समझ लेना चाहिए कि झूठ बोलना कितना आवश्यक है.

दुनिया तो, जी, झूठ से चलती है, सामने वाले की झूठी तारीफ करिए, आराम से रहिए. हंसिए, बोलिए चैन की नींद सोइए. वरना धरती सुंघाऊ , पानी पिलाने वाले, धूल चटाने वाले, दिन में तारे दिखाने वाले, छठी का दूध याद दिलाने वाले, चारों खाने चित्त कर देने वाले सत्य की मार के लिए स्वयं भी तैयार रहिए क्योंकि सामने वाला व्यक्ति सांप काटे की तरह पहला मौका हाथ आते ही आप पर वार करने से चूकेगा नहीं. फिर चाहे वह कोईर् रामदेव हो या कोईर् बालकृष्ण.

जनाब, बात तो धार्मिक व दलीय भावनाओं की है और सच के साथ वही सब से पहले आहत होती है. अब देखिए आप अपनेआप चलते कहीं गिर पड़ते हैं ठोकर खा कर, तो न अफसोस होता है न दर्द, बस उठे और फिर चल दिए. किंतु, सत्य का कोड़ा पड़े तो पीठ पर उभार छोड़ जाता है. इसलिए जनाब जानिए और समझिए अब हम रह रहे हैं ग्लोबल विलेज में, और राजनीतिज्ञों की सफलता के पांव तले दबेदबे सांस ले रहे हैं. उन के सफल घोटालों की अनवरत दास्तान कानफोड़ू कीर्तन की तरह धाड़धाड़ बज रही है वातावरण में. यह किस का कमाल है, मिथ्या वचन ना.

जिस के आगे 10 रुपए की बांसुरी से सच की कितनी भी मीठी तान निकले, झूठ के औरकैस्ट्रा के आगे टिक नहीं पाती. इस पर भी अगर हम सत्य को पकड़ कर बैठे रहेंगे तो विलुप्त होते देर न लगेगी. सो, आवश्यक है कि हमारी संतानें, भावी पीढ़ी झूठ बोलना सीखें. यों तो यह कार्य पाठ्यक्रम में बदलाव कर के सरकार भी कर सकती है किंतु जैसे बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा इत्यादि के मामले में सरकार से हम सीख चुके हैं  आत्मनिर्भर रहना, वैसे ही हम इस में भी आत्मनिर्भर हो जाएं.

इसी अभियान के अंतर्गत हम ने ‘झूठ बोलना कैसे सीखें’ नामक पुस्तक बाजार में उतारी है, इस से हमारी चार पैसे की आमदनी हो जाएगी और आप झूठ बोलना बड़ी आसानी से सीख जाएंगे. हमें यह जान लेना चाहिए कि कंप्यूटर की तरह इसे पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल करना आवश्यक है लेकिन जब तक यह औपचारिक शक्ल अख्तियार करे तब तक प्राइवेट ट्यूशन से सफलता की ओर कदम बढ़ा देना चाहिए. वैसे भी यदि सभी सीख जाएंगे तो झूठ की सफलता के क्षेत्र में बड़ा कंपीटिशन हो जाएगा बिलकुल आईआईटी सा.

आज की तारीख में यह पाठ किसी पाठशाला की किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ाया नहीं जाता. बस, बच्चा अनुभव से फेल होहो कर इसे धीरेधीरे सीखता है. उस पर तुर्रा यह कि सच की जड़ बड़ी गहरी होती है, बेशरम के झाड़ की तरह बेतरतीब यहां से काटें तो वहां से सिर उठा लेगी. अमरबेल सी जीवन का सब रस चूस लेगी. बरसात में सड़ेगी, अकाल में सूखेगी, सर्दी में ठिठुरेगी मगर गले पड़ी रहेगी. इसलिए एक बार सच की लत पड़ जाए तो बीड़ीसिगरेटशराब की तरह इस के नशे में आदमी सबकुछ लुटा बैठता है राजा हरिश्चंद्र की तरह.

जीवन में सफलता का राज दरअसल आप की झूठ बोलने की क्षमता पर निर्भर करता है या यों कहिए कि गोलमाल करने के प्रतिबद्धता पर टिका रहता है तो कुछ अतिशयोक्ति न होगी. झूठ बोलना एक कला है जिसे कुंगफू जैसी मेहनत से आम आदमी को सीखना पड़ता है, कराटे किड की तरह रोजमर्रा के जीवन में सुबहसवेरे से देर शाम तक इस का अभ्यास करना पड़ता है तब जा कर कहीं यह आम आदमी के जीवन में उतरती है और उसे खास बनाती है. हां, राजनीतिज्ञों और पंडेपुजारियों के जीन में यह होती है वंशानुगत, पैदाइशी, कोयल की कूक सी जिसे संगीत सीखना नहीं पड़ता. वे झूठ की विरासत लिए होते हैं, पैदा होते ही नेता और पंडित बन जाते हैं.

झूठ अपनी संरचना में ही लुभावना व प्रिय लगने वाला होता है व रक्तबीज सा अपनी फसल धड़ाधड़ काटता है. एक झूठ से 100 झूठ पैदा होते देर नहीं लगती. उस की बेल अपनी गति से हौलेहौले परवान चढ़ने लगती है. जबकि सच न बढ़ता है, न घटता है. बस, उतने का उतना ही बना रहता है. सो, उस की प्रगति की संभावना भी स्थिर सी रहती है.

झूठा सहारा ही आप की जिंदगी को बेहद आसान बना देता है. आप का खड़ूस बौस आप से हंसहंस कर करने लगेगा बात. जैसे वजन कम करने के लिए कमर कसनी होती है वैसे ही झूठ बोलना सीखने के लिए तैयार होना पड़ता है. वरना आप झूठ बोल नहीं पाते. सच की इस बीमारी को शुरुआत में ही संभाल लेना चाहिए वरना सच का कैंसर बड़ा भयंकर दर्द देता है. न जीने देता है न मरने देता है. राजा हरिश्चंद्र सा डोम बना कर छोड़ता है जो अपने बेटे का भी दाह नहीं कर पाता. सो, सच से दूर रहें. सच डरने की चीज है, अपनाने की नहीं.

अब झूठ की तारीफों के पुल क्या बांधना. पूरा का पूरा तंत्र बाकायदा इस के सहारे चल रहा है. सच को खोजना पड़ता है भूसे के ढेर से सूई की तरह. समंदर में डूबे खजाने की तरह, सच अन्वेषण की चीज है, इसलिए आप कृपया इस का दैनिक सार्वजनिक उपयोग बंद करें. यह बातबात पर दन्न से उगलने वाली चीज नहीं. यह कीमती चीज है, इसे इस की कीमत मिलने पर ही उपलब्ध कराएं. बताओ भला, यह भी कोई बात हुई कि इधर घर में आया मेहमान, गले मिले नहीं, कि बोल पड़े, ‘कैसे बेढब लग रहे हो.’ आ गया पतीले में उबाल. लो, पकड़ो अपने सच का ढक्कन.

आज की तारीख में जो झूठ नहीं बोल पाता वह सफलता की सीढि़यां नहीं चढ़ पाता. झूठ के साथ बस यही बड़ी खराबी है कि यह दिल पर बोझ बन जाता है. एक सच्चा झूठ बोलने वाला वही होता है जो कैसा भी झूठ बोले मगर वह न तो उस के दिल पर बोझ बने न चेहरे पर शिकन डाले. बस, जिस दिन आप को यह तरीका आ गया, आप महान हो गए. सच तो एक पैदाइशी तत्त्व है खानापीनासोना जैसा, उस में क्या शिक्षा, क्या ज्ञान की आवश्यकता. झूठ बोलना एक फन है और सोचिए, आप कैसे फनकार हैं.

सच के बारे में ऐसी धारणा है कि वही अंतिम विजेता होता है. चलिए मान लिया. मगर अंत का क्या? रास्ते का महत्त्व नहीं. अंत तो मृत्यु भी है, फिर क्या जीवन, कुछ भी नहीं. मौत तो

एक पल में हो जानी है. सांसें तो जीवनभर चलनी हैं. सो, मंजिल से अधिक रास्ते का महत्त्व है. झूठ बोलनासीखना परमआवश्यक पाठ है. इस से अधिक इस विषय में कहना झूठ की तौहीन खास है.

अब हम आप को बताने जा रहे हैं कि हमारी झूठ बोलना सीखें नामक पुस्तक की हाईलाइट्स क्या हैं. इंगलिश स्पीकंग कोर्स की तर्र्ज पर ही हम ने अपने यहां 3 तरह के  कोर्स मय कोर्स मैटीरयल व सीडी के उपलब्ध कराएं हैं. रैगुलर व कौरेस्पौंडैस कोर्र्स दोनों की सुविधाएं हैं. रैपीडेक्स क्रैश कोर्स, नियमित रैगुलर व सस्ता शौर्टकट भी आप की जेब व हस्ती के अनुसार आप की आकंक्षाओं व इच्छाओं के अनुरूप उपलब्ध हैं.

उपलब्ध पुस्तक के की नोट्स अर्थात कुछ टिप्स यानी कि कुछ मारक तत्त्व निम्नांकित हैं. कृपया वृहद वर्णन के लिए पुस्तक खरीदें. संपूर्ण पुस्तक के लिए मनीऔर्डर करें या इंटरनैट के जरिए कैश औन डिलीवरी सुविधा का उपयोग करें.

झूठ बोलना सीखने के लिए निम्नांकित 10 नियमों का पालन करें. आप 10 दिनों में ही झूठ बोलना सीख जाएंगे, फिर आप की पौ बारह –

झूठ बोलने की शुरुआत अपने घर से करें.

घर में भी उस व्यक्ति से करें जिसे आप अपने सब से करीब पाते हैं.  यह कठिन होगा मगर सचमुच कारगर होगा.

झूठ सकुचाते हुए नहीं, धड़ल्ले से बोलें.

झूठ आंखों में आंखें डाल कर बोलें.

झूठ बोलते समय चेहरे पर पसीना न आने दें, आ जाए तो उसे रूमाल से पोंछने की गलती न करें. आप को अभ्यास की आवश्यकता होगी.

झूठ बोलने का अभ्यास सुबह के पहले घंटे से ही करें जैसे रातभर सोने के बाद कहें, ‘रात नींद ही नहीं आई’ या ‘रात को एक सपना देखा’ और फिर दिल की बात एक सपने के माध्यम से बयान करें जिसे वास्तव में आप ने देखा ही नहीं.

अपने झूठ को दैनिक दैनंदिनी में लिखें.

एक दिन में कम से कम 5 झूठ बिना आवश्यकता के बोलें, जब आप लगातार 5 झूठ बोल लें तो एक सच बोलने की छूट है. शुरुआत खाने की तारीफ से भी की जा सकती है, यह आसान है.

दफ्तर में देर से पहुंचने पर बोला, हुआ झूठ या छुट्टी के आवेदन में लिखा गया झूठ इस अभ्यास में शामिल नहीं किया जाएगा.

यदि आप का झूठ पकड़ा जाए तो न गलती मानें, न माफी मांगें. पकड़े जाने पर मुल्ला नसीरुद्दीन की पनाह में जाएं यानी कोईर् तीसरी स्थिति पैदा करें, जहां न सच टिके, न झूठ.

यों आप को झूठ बोलने का सफर दिलचस्प होता जाएगा और पाठ आसान.

याद रखिए झूठ बोलना सीखें यानी झूठ स्पीकिंग कोर्स द्वारा यह सब संभव है मात्र 3 महीनों में. पुस्तक को पढ़ते ही बस 1 महीने में आप फर्राटेदार झूठ बोलने लग जाएंगे और अपना जिंदगीभर का सत्यवचन का पाठ भूल जाएंगे. इस के बाद आप हमेशा झूठ के पक्ष में झंडा उठाए दिखाई देंगे. गरीबी रेखा से नीचे वालों के लिए कम मूल्य पर हमारा एक 15 दिनों का सस्ता व आसान कोर्स भी उपलब्ध है. जो आप की सोच बदल देगा, जीने का नजरिया बदल देगा. वह भी आज के जमाने में आप की सफलता सुनिश्चित करेगा. यह ऐसा कोर्स है जिस में बेहतरीन झूठ बोलना सिखाया जाता है जो बड़ेबड़े राजनीतिज्ञों को मात कर सकता है. बस, एक बार आजमाएं तो.

कृपया अपने बच्चों को सिखाएं, आज की दुनिया में सत्य जानलेवा बीमारी है जिस में आदमी सिर्फ दालरोटी खा सकता है, मक्खनमलाईर् का स्वाद कभी पहचान भी नहीं सकता. अगर भूले से कभी उस के आगे कोईर् रसगुल्ला पड़ जाए तो उस का हाजमा खराब हो जाता है, शौच करकर के वह बदहाल हो जाता है. तो फिर ऐसा शारीरिक सौष्ठव ले कर क्या करेंगे आप. 6 व 8 पैक्स छाती के जमाने में. क्या चुल्लूभर पानी में डूब मरेंगे. और डूबना भी चाहेंगे तो डूबेंगे कैसे. सच बोलने वाले के नसीब में पानी कहां? स्विमिंग पूल तो मिलने से रहा चार दिनों में आए टैंकर में.

आप के हिस्से में इतना जल कहां. हमारी पुस्तक इस रोग के प्रतिक्षक टीके की तरह है. ‘जिंदगी की दो बूंद’ का स्लोगन और पोलियो से छुटकारा जैसे. सो इसे अपनाएं, खुशहाली पाएं.

मुहब्बत का रंग

खोदो मुझ को और मुझे गहरा होने दो

मैं दरिया हूं, मुझे समंदर होने दो

बहुत हो चुकी हवाओं की सरगोशियां

प्यासी है धरती, बादलों को बरसने दो

शिकवा न हो सकेगी कभी जिंदगी से

मुझे खुद से मुहब्बत करने की इजाजत दो

नहीं समाना अब निगाहों में किसी के

मुझे अपने घर का पता दे दो

न उतरे मुझ पर से मुहब्बत का रंग

निगाहों से अपने मुझे सुहागन बना दो

मुहब्बत में मुझे और कुछ न बनाओ

मैं इंसान हूं मुझे इंसान ही रहने दो.

– रिंकी वर्मा

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