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विश्‍वगुरु कौन : India या China

India-China : पूर्वी लद्दाख में सैनिकों को पीछे हटाने के लिए भारत के साथ हुए समझौते पर चीन ने सकारात्मक रुख दिखाते हुए अपने सैनिकों की वापसी शुरू कर दी है. उल्लेखनीय है कि भारत और चीन के बीच सीमा रेखा लगभग करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी है. चीन इसे महज दो हजार किलोमीटर बता कर भारत के लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताता रहा है. यह सीमा विवाद ही दोनों देशों के बीच तनाव का कारण बनता है. 2020 में गलवान में हुई झड़प ने सीमा विवाद को थोड़ा और गंभीर बना दिया था. दरअसल विवादित सीमाएँ विवादित क्षेत्रों में प्रशासनिक उपस्थिति की कमी के कारण जटिल हुई हैं, जो कि दूरदराज के क्षेत्र हैं. असहमति इस तथ्य से भी उत्पन्न होती है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा को कभी भी स्पष्ट रूप से सीमांकित नहीं किया गया है, चीन और भारत अक्सर इसके सटीक स्थान पर असहमत होते हैं और भारतीय मीडिया बार-बार भारतीय क्षेत्र में चीनी सैन्य घुसपैठ की खबरें उछालता रहता है.

चीन काफी लम्बे समय से खुद को उन तमाम विवादों से बहुत दूर रख रहा है जिन विवादों में दुनिया के अनेक देश जरूरी और गैर जरूरी रूप से उलझे हुए हैं. जैसे चीन रूस यूक्रेन युद्ध या इजरायल फिलिस्तीन युद्ध पर कोई टिप्पणी नहीं करता. वह अपनी सेना भी कहीं नहीं भेजता, जबकि अमेरिका, भारत लगातार इन युद्धों से जुड़ाव बनाये हुए हैं और युद्ध को लेकर उनकी टिप्पणियां चलती रहती हैं. भारतीय मीडिया तो चार कदम और आगे है. वह बार बार दोहराता है कि रूस और इजराइल प्रधानमंत्री मोदी के कहने पर युद्ध समाप्त करेंगे. प्रधानमंत्री मोदी भी कभी यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ अपनी फोटो मीडिया में फ़्लैश करवाते हैं तो कभी पुतिन और नेस्तन्याहु के साथ उनकी तस्वीरें वायरल होती हैं. ऐसा लगता है मानो युद्धों को रुकवाने के लिए सबसे ज्यादा भागदौड़ मोदी ही कर रहे हैं. कभी चीन के राष्ट्रपति या अमेरिका के राष्ट्रपति की ऐसी फोटोज मीडिया में नहीं आती क्योंकि वे अपने देश के विकास और समस्याओं के समाधान में लगे हैं, खासकर चीन.

चीन का पूरा ध्यान अपने देश की आर्थिक उन्नति और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की तरफ है. चीन में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि औसतन 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष है और उसने अपने 800 मिलियन से अधिक लोगों को गरीबी से बाहर निकाल कर उन्हें रोजगार और एक अच्छी जीवनशैली प्रदान की है. दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनकर उभरने में चीन को 70 वर्षों से भी कम समय लगा है.

गौरतलब है जब 70 साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन की सत्ता संभाली थी तब ये एक बेहद गरीब देश था. न उसके पास कोई व्यापारिक सहयोगी था न किसी तरह के कूटनीतिक रिश्ते. चीन पूरी तरह से ख़ुद पर निर्भर था. बीते 45 वर्षों में चीन ने व्यापारिक रास्ते खोलने और निवेश लाने के लिए अपने बाजार की व्यवस्था में कई ऐसे सुधार किए जो ऐतिहासिक हैं. इस तरह चीन अपने करोड़ों लोगों को गरीबी के दलदल से बाहर खींच लाया. हालाँकि बीच में माओत्सेतुंग के शासन में उनके कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के औद्योगीकरण की कोशिश के नाकाम होने से चीन को बड़ा झटका लगा था. हालात तब और ख़राब हो गए थे जब 1959-1961 के बीच अकाल ने करीब 40 लाख लोगों की जानें ले ली. मगर 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में सुधारों की जिम्मेदारी डेंग जियाओपिंग ने उठाई.

उन्होंने चीनी अर्थव्यवस्था को नया आकार देना शुरू किया. किसानों को अपनी जमीन पर खेती करने का अधिकार दिया गया. इससे उनके जीवन स्तर में सुधार आया और खाने की कमी की समस्या भी दूर हो गई. चीन और अमेरिका ने 1979 में अपने कूटनीतिक संबंधों को दोबारा स्थापित किया और विदेशी निवेश के दरवाज़े खोल दिए गए. चूंकि उस वक्त चीन में मजदूर, मानव संसाधन और किराया बहुत सस्ता था, निवेशकों ने धड़ाधड़ पैसे डालने शुरू किए.

एक समय था जब चीन की आबादी दुनिया में सबसे ज्यादा थी मगर अब भारत आबादी के मामले में चीन से आगे निकल चुका है. चीन की आबादी 2020 में करीब 1.44 बिलियन थी. चीन की जनसंख्या में सालाना बढ़ोतरी 7 मिलियन से थोड़ी कम है. चीन की एक-संतान नीति के तहत, 1991 से 2017 के बीच अपनी बढ़ती जनसंख्या दर पर काफी काबू पा लिया है, जबकि भारत की जनसंख्या 2024 में 145 करोड़ होने का अनुमान है. चीन की जनसंख्या वर्तमान में प्रति वर्ष 7 मिलियन से थोड़ा कम बढ़ रही है, जबकि भारत की लगभग 18 मिलियन बढ़ती है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, भारत की आबादी अगले तीन दशकों तक बढ़ती रहेगी और फिर इसमें गिरावट आनी शुरू होगी. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2085 तक भारत की आबादी चीन की आबादी से दोगुनी हो जाएगी.

चीन के विकास की बड़ी वजह यह है कि चीन एक साम्यवादी देश है, जो किसी भगवन या देवी देवता को नहीं मानते. वहां केवल श्रम की पूजा होती है. बहुत कम उम्र से चीनी बच्चे अनुशासन, शारीरिक फिटनेस और कौशल प्राप्त करने में लग जाते हैं. चीन ने अपनी युवा आबादी को बेहतर शिक्षा, रोजगार और अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर देश के विकास को गति दी है. वहीं भारतीय युवा अपनी सारी ऊर्जा धार्मिक कर्मकांडों को निभाने और धार्मिक यात्राएं, शोभायात्राएं, कांवड़ यात्राएं, जुलूस, मातम अथवा राजनितिक दलों की प्रायोजित रैलियों-दंगों-उत्पात मचाने में गंवा रहा है. सरकार इस आबादी को ना तो अच्छी शिक्षा दे पा रही है, ना अनुशासन और ना रोजगार.

1978 में जब से चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना और सुधारना शुरू किया है, तब से उसकी सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि औसतन 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है. इसी अवधि में उसने स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सेवाओं तक आमजन की पहुंच में उल्लेखनीय सुधार किया है.

चीन अब एक उच्च-मध्यम आय वाला देश है. चीन सरकार ने 2020 में ही अपने देश से अत्यधिक गरीबी को खत्म कर दिया था, जबकि भारत के प्रधानमंत्री मोदी अपनी 140 करोड़ आबादी में से 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन बाँट रहे हैं और यह बात बताने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं कि भारत में 80 करोड़ आबादी अपने लिए दो वक्त का भोजन नहीं जुटा सकती, इसलिए सरकार उनको मुफ्त राशन दे रही है. इतना युवा देश होने के बावजूद भारत में बेरोजगारी और भुखमरी चरम पर है और मोदी सरकार हमें विश्वगुरु बनने का सपना दिखा रही है.

चीन और भारत आबादी के लिहाज से बराबर ही हैं. दोनों देशों के बीच जटिल व्यापारिक सम्बन्ध हैं. भारतीय बाजार में चीनी सामान का आधिपत्य है, जो अधिक समय तक भले ना चले मगर सस्ता इतना कि गरीब आदमी की खरीद में आ जाए. चीन ने अपने छोटे छोटे कुटीर उद्योग के माध्यम से घर घर में उद्योगधंधे शुरू करवा दिए और वहां से निकले उत्पादों को दुनिया भर के बाजारों में खपा दिया. मगर भारत में कोई छोटा मोटा धंधा शुरू करने के लिए साधारण लोन प्राप्त करने में आम आदमी को चप्पलें घिस जाती हैं. यही वजह है कि बीते सत्तर सालों में एक जैसी परिस्थिति से निकले भारत और चीन की आर्थिक हालत में जमीन आसमान का अंतर है. चीन उत्पादन के क्षेत्र में आज दुनिया के शीर्ष पर पहुंच चुका है. वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश बन चुका है. दुनिया की 80 % ए.सी. , 70% स्मार्टफोन, 60 % जूते, 74% सोलर सेल, 60% सीमेंट, 45% पानी का जहाज, 50% स्टील चीन ही बनाता है. 50% कोयला का उत्पादन भी चीन ही करता है. चीन को अब ग्लोबल फैक्ट्री कहा जाने लगा है और चीन अरबपतियों के मामले में भी दूसरे नम्बर पर पहुँच चुका है.

आज शायद ही कोई चीज है जो चीन नहीं बनाता है. चीन पूरी दुनिया में झांकता है कि सबसे ज्यादा बिकने वाली चीज क्या है और किस चीज की मांग सबसे ज्यादा होने वाली है? उसे वह पहले सीखता है, फिर बनाता है और सबसे सस्ते दामों पर बेचता है. चीन अपने सामानों को इतनी बड़ी मात्रा में बनाता है कि उत्पादों के दाम बहुत क़म हो जाते हैं. उनके लेबर बहुत निपुण होते है और उनके पास एडवांस टेक्नोलॉजी होती है जो उनके उत्पादन की क्षमता को कई गुना बढ़ा देते हैं, जिससे उत्पादन की तुलना में लेबर की लागत बहुत कम हो जाती है.

चीन की तरक्की का एक बड़ा कारण उसकी राजनितिक स्थिरता भी है. चीन के नेता हमेशा से अपने देश के प्रति वफादार रहे हैं और देश की उनत्ति को बढ़ावा दिया है. चीन की महिलायें पॉलिटिक्स से लेकर लगभग हर कार्यक्षेत्र में नजर आती हैं. यहां की ज्यादातर औरतें शिक्षित हैं और बड़ी संख्या में पुरुषों के साथ काम करती हैं. ये सर्वविदित है कि काम में महिलाओं की हिस्सेदारी किसी देश को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाती है. आधी आबादी की 80% आबादी नास्तिक है यानि ज्यादातर महिलाओं को धर्म और धार्मिक कर्मकांडों से कोई मतलब ही नहीं है. जिस कारण वे अपनी पूरी ऊर्जा, अपना पैसा और समय कर्म करने में लगाती हैं. वो धर्म पर नहीं कर्म पर विश्वास करती हैं और हमेशा अपनी और परिवार की उन्नति के बारे में सोचती हैं.

चीन की विस्फोटक उन्नति के और भी कई राज हैं जैसे:-चीन में हड़ताल और संघबाजी का न होना, अपने लक्ष्य के प्रति दूर की सोच और कड़ी मेहनत, देश के प्रति अपार देशभक्ति और लगन, बढ़िया शिक्षा होना और बड़ो से लेकर बच्चों तक को टेक्नोलौजी की सही समझ और ज्ञान. भारत और चीन के बीच तुलनात्मक विश्लेषण कई विषयों पर किया जा सकता है, जैसे कि आय असमानता, औद्योगिक विकास, रक्षा बजट, सिंचित क्षेत्र और तंबाकू नियंत्रण आदि. आय असमानता की बात करें तो भारत में आय असमानता चीन की तुलना में बहुत ज्यादा है. भारत में शहरी क्षेत्रों में आय असमानता 40% और ग्रामीण क्षेत्रों में 32% है. औद्योगिक विकास के मामले में चीन में भारत की तुलना में ज़्यादा अर्ध-कुशल श्रम शक्ति है. चीन में व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण का आकार बहुत बड़ा है. चीन ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था भारत के मुकाबले बहुत मजबूत कर ली है. चीन का रक्षा बजट भारत के रक्षा बजट से तीन गुना ज्यादा है. आज भारत की अर्थव्यवस्था दो ट्रिलियन डौलर की है और चीन की नौ ट्रिलियन डौलर की. आज शंघाई दुनिया के सबसे वैभवशाली समृद्ध शहरों में गिना जाता है और चीन का दावा है कि 2025 तक वह न्यूयार्क जैसे नौ शहर बसा लेगा.

मोदी सरकार को उम्मीद है कि एक दिन भारत आर्थिक वृद्धि दर के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा जो बस एक कदम पीछे है. लेकिन हकीकत यह है कि अभी भारत की चीन के साथ तुलना नहीं की जा सकती है. भारत में जरूरी सार्वजनिक सेवाओं का जो हाल है वह चीन में नहीं है. चीन में जरूरी सार्वजनिक सेवाओं का स्तर भारत से कहीं ज्यादा अच्छा है. चीनी लोगों का रहन सहन भी भारतीय लोगों से कहीं ज्यादा अच्छा है.

चीन और भारत दोनों ही देशों में असमानता बहुत ज्यादा है लेकिन चीन में जीवन प्रत्याशा बढ़ाने के लिए भारत से कहीं ज्यादा अच्छे प्रयास किए जा रहे हैं. चीन अपने लोगों की शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भारत से कहीं ज्यादा खर्च कर रहा है. भारत में ऐसे बहुत से शिक्षा संस्थान हैं जो काफी अच्छे हैं लेकिन इसके बावजूद भी यह भी एक सच्चाई है कि ये केवल देश के एक तबके के लिए ही हैं और आम आदमी का बच्चा इनमें नहीं पढ़ सकता है. आज भी भारत में हर पांच से एक लड़का स्कूल नहीं जाता है और हर तीन में से एक लड़की भी स्कूल नहीं जाती है. यही नहीं देश के कुछ स्कूलों छोड़ दे तो सारे स्कूलों की गुणवत्ता बहुत ही खराब है. सरकारी स्कूलों की हालत यह है कि पूरा का पूरा स्कूल कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले एक शिक्षक के भरोसे चल रहा है. देश में शिक्षा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आधे से ज्यादा बच्चे चार साल की स्कूलिंग के बाद 20 को पांच से भाग देने की स्थिति में नहीं होते हैं.

भारत दुनिया में सबसे ज्यादा जेनरिक दवाओं का उत्पादन करने वाला देश है, लेकिन यहां का स्वास्थ्य क्षेत्र बड़े पैमाने पर अनियंत्रित है. भारत में गरीब लोगों को बहुत ही घटिया क्वालिटी की स्वास्थ्य सेवाएं मिलती हैं. कई मामलों में ये शोषण के स्तर तक पहुंच जाती है. भारत में सार्वजनिक सेवाओं का हाल इतना बुरा है कि बड़े अस्पतालों में इलाज कराना किसी सजा से कम नहीं है. निजी अस्पतालों का खर्चा इतना ज्यादा होता है कि गरीब लोग उसके बारे में सोच भी नहीं सकते हैं. चीन अपने जीडीपी का 2.7 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है लेकिन भारत अपनी जीडीपी का केवल 1.2 फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है.

चीन अपने नागरिकों की भूख को मिटाने, अशिक्षा को खत्म करने और स्वास्थ्य सेवाओं को ठीक करने के लिए प्रतिबद्ध है. यही कारण है कि चीन अपने यहां लोगों को बेहतर जीवन स्तर देने में कामयाब रहा है लेकिन भारत में लोगों का जीवन उस स्तर तक नहीं सुधरा है जिसकी लोगों ने उम्मीद की थी.

जब सहेली या मित्र अंधविश्वासी हो

“अरे, यह तुम ने गले में इतना बड़ा कला धागा क्यों पहन रखा है, पहले तो नहीं पहना था,” नेहा ने कहा तो प्रिय रोंआसी हो कर कहती है, “आजकल मेरा पढ़ने में मन नहीं लग रहा क्योंकि मुझे किसी की नज़र लग गई है. इसलिए मैं ने यह पहना है.”

हर बार की टौपर प्रिय के मुंह से ये शब्द सुन कर नेहा आवक रह गई, बोली, “क्या तुम इन सब अंधविश्वासों को मानती हो? तुम्हारा पढ़ाई में मन इसलिए नहीं लग रहा क्योंकि पढ़ाई से ज्यादा वक्त तुम अपने नए बने बौयफ्रैंड को दे रही हो जिस के चलते क्लास में देर से आती हो और कुछ समझ नहीं पा रही हो. इस में यह काला धागा क्या कर लेगा? तुम अपने दोस्त से कहो कि क्लास में तुम्हें टाइम से ही जाना है. देखना, फिर कैसे पढ़ाई में तुम्हारा मन फिर से लगने लगेगा.”

यह सुन नेहा सोच में पड़ गई क्योंकि इस सच से तो वह मना नहीं कर सकती थी कि आजकल उस का मन पढ़ाई से ज्यादा अपने नए बने बौयफ्रैंड के साथ टाइम स्पैंड करने में ज्यादा लग रहा है.

किसी की नजर न लगे, इसलिए लोग नीबू, मिर्च, जूताचप्पल आदि घरों व गाड़ियों में टांगते हैं. स्टूडैंट भी शगुनअपशगुन को बहुत मानते हैं क्योंकि उन्होंने अपने परिवार को शुरू से ऐसी रूढ़ियों में बंधे हुए ही देखा है. उन के मन में डर होता है कि इन सब रिचुअल को फौलो नहीं किया, तो हमारे साथ कुछ खराब हो जाएगा.

यह बात समझ में आती है कि शुरू से जो माहौल देखो वही सही लगने लगता है. लेकिन अब तो आप घर से बाहर एक नई दुनिया में अपने दोस्तों के साथ हैं, उन से भी बहुतकुछ सीख सकते हैं. अगर एक दोस्त को लगता है कि मेरी दोस्त बहुत अच्छी है, हम बेस्ट फ्रैंड हैं, एकदूसरे की दोस्ती को पसंद करते हैं लेकिन उस की अंधविश्वासी बातों की वजह से मुझे अच्छा नहीं लग रहा और उस रिलेशन में सफोकेशन होने लगा है, तो अपनी अच्छी दोस्ती तोड़ने के बजाय अपने दोस्त को समझा कर उसे सही रास्ते पर लाएं.

अगर दोस्त किसी गलत रास्ते पर है तो उसे सही रास्ते पर लाना भी आप का काम है. लेकिन इस के लिए उसे कुछ इस तरह वैज्ञानिक तर्क दे कर समझाना होगा कि उसे बुरा न लगे और बात भी समझ आ जाए. अब यह दोस्त मेल टू मेल भी हो सकता है, फीमेल टू फीमेल भी हो सकती है और मेलफीमेल हो सकते हैं. लेकिन दोस्त को कुछ भी समझाने से पहले यह समझना होगा कि अंधविश्वास आखिर है क्यों.

अंधविश्वासी होने का कारण परवरिश में छिपा हुआ है

यह सिर्फ इन टीनएजर्स की ही बात नहीं है, दुनिया में ऐसे कई वैज्ञानिक, डाक्टर और इंजीनियर जैसे पढ़ेलिखे लोग हैं जिन का मन बिल्ली के रास्ता काटने पर आज भी शंकाग्रस्त हो उठता है कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं होगी. घर से निकलते वक्त छींक आने पर मन में आशंका होने लगती हैं कि कुछ अमंगल तो नहीं होगा. सवाल यह है कि पढ़ालिखा इंसान भी क्यों और कैसे अंधविश्वासी बनता है.

पढ़ेलिखे इंसानों के भी अंधविश्वासी होने का कारण उन की परवरिश में छिपा हुआ हैं. बचपन में अपने परिवार और आसपास के माहौल में इंसान जो कुछ देखता है, वो सब बातें उस के अवचेतन मन में गहरे तक बैठ जाती हैं. बचपन की इन्हीं सहीगलत बातों को इंसान सिर्फ़ और सिर्फ़ सही मानने लगता हैं. जब इंसान बड़ा हो कर पढ़तालिखता है, तो वह दुविधाग्रस्त हो जाता है कि सही क्या है और गलत क्या है. बचपन में वह देखता है कि घर का कोई भी सदस्य जब घर से बाहर जा रहा हो और ऐसे में यदि किसी को छींक आ जाएं, तो इसे अपशकुन माना जाता हैं. ऐसे में दो मिनट रुक कर फ़िर बाहर जाना चाहिए वरना अमंगल होने की आशंका रहती है. इस बात को कई बार देखनेसुनने पर यह बात उस के मन में घर कर जाती है.

लेकिन जब उन्हें इस का वैज्ञानिक कारण पता चलता है, तो उन्हें समझ आता है छींक आना एक सामान्य मानवीय क्रिया है और इस का शकुनअपशकुन से कोई वास्ता नहीं हैं. ऐसे में जो पढ़ेलिखे लोग, पढ़े हुए पर चिंतनमनन करते हैं, वे तो छींक आने को सामान्य क्रिया मानने लगते हैं. लेकिन उन में से भी कुछ लोगों के साथ यदि कभी ऐसा हुआ हो कि वे कभी किसी शुभ कार्य के लिए बाहर जा रहे हों और किसी को छींक आ गई और उस दिन उन का कार्य सफल न हुआ तो ऐसे में इन पढ़ेलिखे लोगों को भी विज्ञान से ज्यादा बचपन में सुनी हुई बातों पर विश्वास होने लगता हैं क्योंकि उस वक्त इंसान कार्य की असफलता से परेशान रहता है. इसी परेशानी में वह सही या गलत की पहचान नहीं कर पाता. इसलिए, आइए जानें कि सहेली को कैसे समझाएं.

सहेली को बताएं पीरियड्स में रोकटोक अंधविश्वास की देन है

कई सारे घरों में आज भी माहवारी को गंदी चीज माना जाता है. ऐसे में घर की बच्चियों, जिन की माहवारी की अभी शुरुआत हुई है, के दिमाग में भी पीरियड्स को ले कर कई सारी भ्रांतिया भर दी जाती हैं. उन्हें अचार छूने से मना कर दिया जाता है, तुलसी का पौधा छूने से रोका जाता है, कई घरों में तो किचन में भी जाने से रोका जाता है.

अगर आप की सहेली के घर में भी ऐसा होता है, तो उसे बातोंबातों में बताएं कि पीरियड्स में अचार छूने से आचार ख़राब नहीं होता. मैं तो हमेशा ही पीरियड्स में भरे डब्बे में हाथ डाल देती हूं, कभी आचार ख़राब नहीं हुआ, तुम भी एक बार ट्राई जरूर करना और अगर ऐसे हो तो मुझे बताना. आप के घर में पीरियड्स में कितनी आज़ादी है और सहेली के घर में कितनी रोकटोक, इस बारे में खुल कर बात करें. ऐसा करने पर वह जरूर समझेगी.

व्रतत्योहार में भूख से बेहाल हो तब समझाएं

जब सहेली का व्रत हो और वह भूख से बेहाल हो रही हो तब उस से पूछें कि ऐसा कर के तुम किस को खुश करना चाहती हो. अगर ऐसा इसलिए कर रही हो कि तुम्हारे अच्छे नंबर लाने की विश पूरी हो या फिर तुम्हें शादी के लिए मनपसंद जीवनसाथी चाहिए तो डियर, इस में व्रत करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि इस के लिए तुम्हें खूब मेहनत करनी होगी तभी एग्जाम में अच्छे नंबर आएंगे और जहां तक बौयफ्रैंड से शादी करने की बात है, उस के लिए उसे भी अपने पैरों पर खड़े होना होगा ताकि पेरैंट्स को इनकार करने की कोई वजह ही न मिले. इस में व्रत करने से सिर्फ टाइम और एनर्जी वेस्ट होगी.

मंदिर की जगह मौल ले जाएं

जब सहेली आप को मंदिर या किसी धार्मिक स्थल पर चलने को कहे तो मना न करें और अगली बार आप उसे अपने साथ मौल या फिर मूवी देखने ले जाएं और उसे बातोंबातों में बताएं कि मंदिर में तो हम कितना बोर हो गए थे, अब देखो साथ में कितने मज़े कर रहे हैं, शौपिंग, मूवी, खानापीना सब हो गया, कितना रिलैक्स हो गया. क्या ऐसा रिलैक्स हम मंदिर में कर पाते, नहीं न, तो फिर जब भी फ्री टाइम होगा, हम ऐसे ही आउटिंग के लिए चलेंगी. इस तरह करने पर उसे भी मंदिर के बजाए मौल जाना ही अच्छा लगने लगेगा क्योंकि कहीं न कहीं वह यह बात खुद भी जान चुकी होगी कि मौल में मंदिर जाने से ज्यादा एंजौयमैंट हुआ है.

ढोंगी बाबाओं के ढोंग के किस्से पढ़ाएंसुनाएं

आएदिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि इन ढोंगी बाबाओं ने किस तरह जनता को लूटा है. इन बाबाओं के ऊपर रेप केस तक चल रहे हैं. ये किसकिस तरह जनता का माल लूट कर अपने महल खड़े करते हैं, कितनी लग्जरी गाड़ियों में चलते हैं. आएदिन कहीं न कहीं छपता ही रहता है. उन न्यूज़पेपर और मैगज़ीन की कटिंग इन्हें दिखाएं.

आसाराम बापू के भक्त उन पर अंधा विश्वास करते थे. नाबालिग से रेप के मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद आसाराम बापू फिलहाल राजस्थान की जोधपुर जेल में बंद हैं. एक जमाने में आसाराम के अंधभक्तों की भरमार थी. आसाराम पर अपने आश्रम में बच्चियों का यौनशोषण और कई महिलाओं का रेप करने के आरोप हैं. राम रहीम को 2 साध्वियों का रेप करने के आरोप में 20 साल की सजा सुनाई गई है.

शनिधाम के संस्थापक दाती महाराज पर भी उन की एक 25 वर्षीया शिष्या ने आरोप लगाया था कि बाबा और उन के अन्य सहयोगियों ने दिल्ली व राजस्थान के पाली स्थित आश्रम में बलात्कार किया. दिल्ली के रोहिणी के विजयविहार इलाके में आध्यात्मिक विश्वविद्यालय के नाम पर आश्रम चलाने वाले इस ढोंगी बाबा ने खुद को कलियुग का कृष्ण घोषित कर रखा था. इस वहशी बाबा ने 16 हजार महिलाओं के साथ संबंध बनाने का लक्ष्य रखा, लेकिन इसी की एक अनुयायी महिला को जब अपनी 4 बेटियों के साथ बाबा की घिनौनी करतूत का पता चला तो उस ने भी वहशी बाबा की पोल खोलने की ठान ली. वीरेंद्र देव पर अब तक अलगअलग थानों में रेप समेत 10 से ज्यादा एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं.

चित्रकूट के चमरौहा गांव के रहने वाले भीमानंद महाराज पर भी सैक्स रैकेट चलाने का आरोप लगा था. बाबा कौशलेंद्र उर्फ फलाहारी बाबा पर भी शिष्या का रेप करने का आरोप लगा. इस तरह के आरोप न जाने कितने बाबाओं पर लगे हैं. जब आप अपनी सहेली को रिसर्च के साथ यह सब बताएंगी और इंटरनैट पर दिखाएंगी तो अगली बार जब वह किसी बाबा के पास प्रवचन सुनने जाएगी तो दस बार सोचेगी जरूर.

बृहस्पतिवार को सिर न धोना अंधविश्वास कैसे है, उसे बताएं

रचना ने बृहस्पतिवार को सिर में तेल डाला था. उसे लगा कहीं जाना तो है नहीं, फिर बाल धोने की भी जरूरत नहीं है. लेकिन शाम के समय रचना की सहेलियों का फोन आया कि चलो, हम सब लोग घूमने जा रहे हैं. ऐसे में रचना कंफ्यूज हो गई कि इतने तेल में बाहर कैसे जाएं. सहेली ने कहा, उस में क्या है, सिर धो लो. लेकिन रचना ने कहा, आज बृहस्पतिवार है, सिर नहीं धो सकते. यह सुन कर सहेली की हंसी छूट गई. सीरियसली, इस वजह से प्रोग्राम कैंसिल कर रही हो?

सब ने बारबार बोला तो वह बिना हेयर वाश किए ही उन के साथ पब में आ गई. वहां आ कर अपने बालों की वजह से वह काफी एंबैरेसिंग फील कर रही थी. अलग ही बैठी थी. ऐसे में आस्था, जोकि उस की बेस्ट फ्रैंड थी, ने जा कर समझाया कि आज के टाइम में तुम कहां इन चक्करों में पड़ी हो. तुम्हारे घर वाले इन बातों को मानते हैं, तो क्या हुआ. तुम तो इन रूढ़ियों को तोड़ सकती हो न.

सिर के बाल भी शरीर के अन्य अंगों की तरह शरीर का एक भाग हैं. हम जिस तरह हाथपैर जैसे अंग कभी भी धो लेते हैं, ठीक उसी तरह सिर के बाल भी कभी भी धो सकते हैं. बिना मतलब अंधविश्वास से मन में किसी तरह का वहम न पालो. मेरा यकीन कर, अमावस्या को या ऐसे किसी भी दिन सिर के बाल धोने से कुछ भी अशुभ नहीं होगा. मैं खुद भी जब चाहे तब बाल धो लेती हूं. मेरे साथ कुछ भी अमंगल नहीं हुआ है. यह सुन सहेली का मन इन अंधविश्वासों से जरूर बाहर आएगा.

अब कुछ वैज्ञानिक तर्क

छींक आने पर 2 मिनट रुक कर बाहर जाते हैं : प्रियंका जल्दीजल्दी में अपने कदम बढ़ाते हुए क्लास की तरफ बढ़ रही थी. उस के साथ आ रही उस की दोस्त रेनू ने उसे टोका, आस्था, 5 मिनट रुक कर चलेंगे, तुम देख नहीं रही हो, मुझे अभी छींक आ गई है. इस पर आस्था ने नाराज हो कर कहा कि हम पहले ही लेट हैं प्रैक्टिकल के लिए. अगर और रुके तो एंट्री नहीं होगी. लेकिन रेनू ने कहा हमारे घर में दादादादी से ले कर मम्मीपापा तक और मुझे भी पूरा विश्वास है कि छींक आने पर यदि दो मिनट न रुक कर वैसे ही बाहर चले गए तो कोई न कोई अनहोनी जरूर होती है. रेनू ने उस की बात नहीं मानी लेकिन आस्था दौड़ते हुए गई और उस ने एंट्री कर ली. लेकिन थोड़े ही देर में जब रेनू पहुंची, तो रूम क्लोज हो चुका था और मैडम की लाख मिन्नतें करने पर भी रेनू को एंट्री नहीं मिली.

उस का प्रैक्टिकल छूटना मतलब मार्क्स कम होना. रेनू का मूड बहुत ख़राब हुआ तो समझाया कि आज तो तुम ने अपनी आंखों से देख लिया न कि तुम्हारे छींकने के बावजूद भी मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन तुम्हारा काफी नुकसान हो गया. अगर तुम न रुकतीं तो शायद नुकसान न होता. अब तुम ही सोचो, अगर यह अपशकुन होता, तो वह मुझे लगता लकिन लगा तुम्हें. इसलिए इस का अपशकुन से कुछ लेनादेना नहीं है.

क्या है छींक आने का वैज्ञानिक कारण : आस्था ने फिर रेनू को तसल्ली से समझाया कि मेरे पापा हमेशा कहते हैं, छींक वह क्रिया है जिस में फेफड़ों से हवा नाक और मुंह के रास्ते अत्यधिक तेजी से बाहर निकाली जाती है. जब हमारे नाक के अंदर की झिल्ली, किसी बाहरी पदार्थ के घुस जाने से खुजलाती है, तब नाक से तुरंत हमारे मस्तिष्क को संदेश पहुंचता है और वह शरीर की मांसपेशियों को आदेश देता है कि इस पदार्थ को बाहर निकालें. सर्दीजुकाम होने पर भी ऐसे ही छींक आती है क्योंकि ज़ुकाम की वजह से हमारी नाक के भीतर की झिल्ली में सूजन आ जाती है और उस से खुजलाहट होती है.

मतलब, छींक आना एक सामान्य मानवीय क्रिया है. अब आप सोचिए कि जब छींक द्वारा हमारा शरीर नाक और गले के उत्तेजक पदार्थों को बाहर निकाल रहा हैं तो उस में शकुनअपशकुन बीच में कहां से आ गया. छींक बेचारी को पता नहीं होता कि कोई शुभकार्य के लिए बाहर जा रहा हैं तो आना चाहिए कि नहीं आना चाहिए. रेनू की समझ में पूरी बात आ चुकी थी और अब वह समझ चुकी थी कि यह सिर्फ एक अंधविश्वास है, और कुछ नहीं.

जब शेषनाग करवट लेते हैं तब भूकंप आता है

रजत ने बताया कि हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि धरती शेषनाग पर टिकी हुई है और जब शेषनाग करवट बदलता हैं, तो वह हिलने लगती है और इसी से भूकंप आता है. जब भी भूकंप आता है तो मेरी दादी यही बोलती थी और इतना पढ़नेलिखने के बाद भी मैं इसी बात को सच मानता रहा हूं. इस सच से परदा उठाया मेरी एक टीचर ने जब उन्होंने इस का वैज्ञानिक तर्क दिया तो बात समझ आई.

भूकंप आने का वैज्ञानिक तर्क

पूरी धरती 12 टैक्टोनिक प्लेटों पर स्थित है. इस के नीचे तरल पदार्थ लावा है. ये प्लेटें इसी लावे पर तैर रही हैं और इन के टकराने से ऊर्जा निकलती है जिस से भूकंप आता है. इस के बाद मैं ने अपने घर पर भी यह बात सब को बताई और उन का तो मुझे नहीं पता लेकिन मेरा चीजों को देखने का नज़रिया बदल गया. अब मैं कोशिश करता हूं कि हर चीज को विज्ञान की कसौटी पर परख कर देखूं.

वाकई यह सच है कि विज्ञान तर्क के आधार पर किसी भी बात को जांचतापरखता हैं जबकि धर्म से जुड़ी किताबें सिर्फ़ बातों का पुलिंदा होती हैं, जिन में अंधविश्वास भरा होता है. इस तरह हर इंसान बचपन से देखीसुनी बातें और वैज्ञानिक सच में से किसे सच माने, इस दुविधा में फंसा रहता हैं और इस तरह बचपन से हुई अपनी परवरिश के कारण ही पढ़ालिखा इंसान भी अंधविश्वासी बन जाता है.

दोस्तो, हम हर विषय की दोदो परिभाषाएं रखते हैं, इसलिए दुविधाग्रस्त हो जाते हैं. कुछ लोगों का कहना होता है कि हमारे पूर्वज ऐसा मानते थे, इसलिए हम भी मानेंगे. हमारे पूर्वज कंदमूल खा कर जंगलों में नग्न रहते थे, तो क्या हम भी कंदमूल खा कर जंगलों में नग्न घूमेंगे? नहीं न. सो, सुनीसुनाई बातों के बजाय अपनी बुद्धि पर भरोसा करें. वैसे भी, जब जागो तभी सवेरा होता है.

Workout करते समय क्या आपको भी होती है घबराहट?

Gym Anxiety :आज लता ने जैसे ही दो मिनट का व्यायाम किया, उस के दिल की धड़कन तेज हो गई. उस का जी घबराने लगा. उस ने झट अपने चिकित्सक को फोन किया. बगैर विलंब उन के पास गई. लता की जांच की गई. उस का मधुमेह बढ़ रहा था. रक्तचाप भी. चिकित्सीय सलाह से उस ने भारी कसरत तुरंत बंद कर दी. अब वह सरल व्यायाम व टहलने को ही प्राथमिकता देती है.

आप ने गौर किया होगा कि बहुत बार ऐसा होता है कि आप अगर हलकाफुलका भी व्यायाम कर रहे हों, यहां तक कि पैदल चल रहे हों या साइकिल चला रहे हों, तब भी शरीर में अचानक ही बेचैनी होना तथा घबराहट लगना एक आम बात सी होने लगती है. बेचैनी और घबराहट ऐसी प्रक्रिया है जिस में शरीर अपने आंतरिक अंगों को नियंत्रित करता है, यानी, कुछ देर की बेचैनी, अचानक पसीना सा आना एक तरह से शरीर के ठंडा होने की एक प्रक्रिया है. बहुत बार कड़ा व्यायाम करने पर शरीर का अंदरूनी तापमान बढ़ जाता है, जिस से त्वचा पर मौजूद हमारे पसीने की ग्रंथियां पसीना छोड़ती हैं. बाहरी तापमान में बदलाव के साथ ही भावनात्मक स्थिति जैसे कारक पसीना आने, घबराहट, बेचैनी का कारण बन सकते हैं.

वहीं, कई मामलों में सामने आया कि यह हालत 10 मिनट से अधिक होने के बड़े स्वास्थ्य संबंधी नुकसान हो सकते हैं. ऐसे में सचेत हो जाना चाहिए. हमारा शरीर यह संकेत भेज रहा होता है कि इसे देखभाल की जरूरत है. ऐसी हालत में जो भी कसरत कर रहे हैं उसे टाल देना चाहिए.

हालांकि कुछ लोगों को जैविक कारकों के कारण दूसरों की तुलना में ज्यादा घबराहट होती है, बेचैनी छाने लगती है और पसीना भी आता है. जिन्हें पसीना कम आता है उन के शरीर में पानी की कमी होती है. लेकिन ज्यादा आना भी सेहत के लिए तो हानिकारक नहीं है. इस से शरीर से ज्यादा तरल पदार्थ निकलता है, इसलिए किसी भी कसरत या व्यायाम से पहले पर्याप्त मात्रा में पानी पीना चाहिए.

शरीर में घबराहट महसूस होने और पसीना आने वाले भागों में मुख्यतौर पर बगलें, मुंह, हथेलियां और पैरों के तले शामिल हैं. ऐक्सरसाइज के दौरान ज्यादा पसीना आने से ब्यूटी व गंध आदि से संबंधित कई समस्याएं हो सकती हैं. अकसर व्यायाम करते समय मौइश्चराइजिंग क्रीम या सनस्क्रीम बह जाती है और वह आंखों में आने लगती है. इस वजह से भी बेचैनी, जलन और घबराहट होती है. इस के लिए जरूरी है कि वर्कआउट से पहले क्रीम की हलकी परत लगाएं. वहीं माथे पर कौटन के कपड़े से बना स्वैट बैंड आप के पसीने को आंखों में आने से रोकता है.

ऐक्सरसाइज करते समय अकसर होंठ सूखने लगते हैं, जो शरीर में पानी की कमी की ओर इशारा करते हैं. इस के लिए दिनभर में कम से कम 8 गिलास पानी तो पीना ही चाहिए. इस से स्वाभाविक है पसीना भी खूब आएगा. ऐक्सरसाइज करते समय सांस चढ़ने से मुंह के बजाय सांस नाक से ही लेनी चाहिए और होंठों पर बारबार जीभ नहीं फिरानी चाहिए क्योंकि मुंह की लार में मौजूद एंजाइम्स से होंठ जल्दी सूखने लगते हैं. ऐसे में बेहतर है कि ऐक्सरसाइज आदि करने से पहले अच्छी क्वालिटी की लिपबाम लगाई जाए. पुरुष भी कोई नया इत्र, डिऔडरैंट या परफ्यूम लगा कर व्यायाम कर रहे होते हैं. उस कारण भी घबराहट और बेचैनी होने लगती है.

 

 

ऐक्सरसाइज के दौरान घबराहट से कुछ लोगों को हलका बुखार भी हो जाता है. मगर वे किसी की बातों मे आ कर अपना व्यायाम चालू रखते हैं. यह घातक है. हम अपने चिकित्सक कभी भी खुद न बनें. इसलिए इस संबंध में चिकित्सीय परामर्श के बगैर आगे कोई दबाव वाला व्यायाम नहीं करना चाहिए.

 

कुछ लोगों को पसीना कम आता है, यह बात तो स्वाभाविक है. लेकिन यदि आप को घबराहट और बेचैनी के बाद भी चलनाफिरना तथा टहलना सुकून दे रहा है तो यह फिक्र की कोई बात नहीं है. मगर इस तरफ से लापरवाह होना नुकसानदायक है. कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी भारी व्यायाम और भागने वाली कसरत अपने मन से आरंभ नहीं करनी चाहिए.

 

यह आप के स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है. शरीर है तो सब है. शरीर की भाषा को समझना चाहिए, जैसे तापमान का अचानक बढ़ जाना, माथे पर पसीना छलक उठना, कुछ घबराहट सी होना, बोलने में भारीपन लगना वगैरह. ऐसी स्थिति में कोई भी कसरत न करना समझदारी की निशानी है.

Dhirendra Shastri : गुड़ खाएं, गुलगुलों से परहेज – विदाई वर्णव्यवस्था की क्यों नहीं?

Dhirendra Shastri: हिंदुत्व के नए और लेटेस्ट पोस्टरबौय बागेश्वर बाबा उर्फ़ धीरेंद्र शास्त्री की हिंदू एकता यात्रा के आखिरी दिन बुन्देलखंड के छोटे से कसबे ओरछा में लाखों की तादाद में सवर्ण हिंदू भक्त देशभर से पहुंचे थे. इस 9 दिनी यात्रा का घोषित मकसद एक नारे की शक्ल में यह था कि जातपांत की करो विदाई, हम हिंदू हैं भाईभाई. अब यह बाबा भी शायद ही बता पाए कि आखिर यह हिंदू शब्द क्या बला है और जो थोड़ाबहुत है भी तो उस से यह साफ़ फिर भी नहीं होता कि क्या सभी हिंदू हैं, यानी, दलित भी हिंदू हैं या सदियों पहले की तरह केवल सवर्ण ही हिंदू हैं और अगर वही हिंदू हैं तो उन में अदभुद एकता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में कोई आपसी मतभेद नहीं है क्योंकि उन में रोटीबेटी के संबंध हैं.

 

इस हिंदू या सनातन एकता यात्रा के संपन्न होने के बाद यकीन मानें, कोई सवर्ण किसी दलित के घर, अपनी बेटी तो दूर की बात है, बेटे का भी रिश्ता ले कर यह कहते नहीं गया कि आओ भाई, आज से हमतुम दोनों हिंदू हैं. अब समधी बन जाना शर्म की नहीं बल्कि फख्र की बात है. बागेश्वर बाबा ने हमें हिंदू होने के असल माने समझा दिए हैं तो जातपांत की विदाई की पहली डोली अपने ही आंगन से उठाते एकता की मिसाल कायम करते हैं. यह रिश्तेदारी कायम करना तो दूर की बात है, हिंदू एकता यात्रा के साक्षी बने सवर्णों ने रास्ते में किसी दलित के घर पानी भी नहीं पिया, फिर आग्रह कर खाना खाना तो दूर की बात है, जिसे राजनेता बतौर दिखाने, कभीकभी करते हैं.

 

असल में मुसलमानों का खौफ दिखाती और हर स्तर पर उन के बहिष्कार की अपील करती इस यात्रा में लगभग सभी सवर्ण थे. दलित न के बराबर भी नहीं थे. जातिगत एकता की बात और दुहाई कतई नई बात नहीं हैं. सब से पहले यह मुद्दा आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने उठाया था. बीती 6 अक्तूबर को राजस्थान के बारां में उन्होंने एक बार फिर कहा कि हिंदू समाज को अपनी सुरक्षा के लिए मतभेद भुला कर एकजुट हो जाना चाहिए.

 

अब न तो यह मोहन भागवत बताते और न ही कोई बागेश्वर बाबा बताता कि हिंदू असुरक्षित किस से है और हिंदुओं के ही अलावा उसे खतरा किससे है. इन दोनों किस्मों के लोग डर मुसलमानों और ईसाईयों का दिखाते हैं. देश का यह वह दौर है जिस में सवर्ण यानी पूजापाठी हिंदू लगातार कट्टर होता जा रहा है. जबकि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को इस तरह के नारों, भाषणों व यात्राओं से कोई सरोकार ही नहीं है, इसलिए नहीं कि वह पूजापाठी नहीं है बल्कि इसलिए कि वह इसलाम या ईसाईयत को खतरा नहीं मानता. उलटे, कई मानो में तो वह खुद को सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले इन से ज्यादा नजदीकी महसूस करता है.

 

कभी किसी दलित नेता या दलित धर्मगुरु ने इस आशय की कोई बात नहीं कही और न ही इस नए नारे का समर्थन किया कि बटेंगे तो कटेंगे. यह मांग और मुहिम सवर्णों की है जिसे आकार और आवाज ब्राह्मण दे रहे हैं. ये वही ब्राह्मण हैं जो सदियों से दलितों को धर्मग्रंथों की बिना पर लतियाते रहे हैं लेकिन आज उन्हें गले लगाने का ड्रामा कर रहे हैं जिसे दलित बखूबी समझ रहा है.

 

बारीकी से देखें तो अंदरूनी तौर पर हालात एकदम उलट हैं. बात जातिगत भेदभाव मिटाने या खत्म करने की की जा रही है लेकिन वर्णव्यवस्था, जो इस फसाद की जड़ है, पर न बाबा बागेश्वर कुछ बोल रहे और न ही मोहन भागवत. फिर किसी भाजपा नेता से तो इस विषय पर कुछ सुनने की उम्मीद करना ही बेकार की बात है.

 

इस ड्रामे की पोल खोलते मध्यप्रदेश के प्रमुख दलित नेता और कांग्रेसी विधायक फूलसिंह बरैया कहते हैं कि भाजपाई और धर्मगुरु यात्राओं के जरिए नरेंद्र मोदी के इशारे पर गुंडागर्दी कर रहे हैं. ये लोग दलितों के हमदर्द न कभी पहले थे और न आज हैं. ये लोग असल मुद्दों से लोगों का ध्यान बंटा रहे हैं. ये दलितों को अगर मंदिर बुला रहे हैं तो उन का मकसद और मंशा दलितों से मंदिरों में झाड़ूबुहारी करवाना और अपने चप्पलजूतों की रखवाली करवाना है. दिक्कत तो यह भी है कि इस धार्मिक होहल्ले में कोई बेरोजगारी और महंगाई की बात नहीं करता.

 

बरैया हिंदू शब्द पर भी सवाल उठाते कहते हैं कि आखिर हिंदू है कौन, किसी धर्मग्रंथ में हिंदू शब्द का उल्लेख नहीं है. यह एक खूबसूरत तर्क हो सकता है लेकिन मौजूदा समस्याओं का हल इसे भी नहीं कहा जा सकता. अगर किसी धर्मग्रंथ में या पौराणिक साहित्य में हिंदू शब्द का उल्लेख होता तो क्या ये समस्याएं हल हो जातीं और दरअसल समस्याएं हैं क्या जो आम लोगों को बेचैन किए हुए हैं तो समझ आता है कि असल समस्या महंगाई या बेरोजगारी नहीं है बल्कि धर्म है, जाति है और उस से भी बड़ी है भारतीय दिलोदिमाग में पसरी वर्णव्यवस्था, धार्मिक भेदभाव और ऊंचनीच. दलित विचारकों या विद्वानों ने कभी हिंदू एकता की वकालत नहीं की. उलटे, वे वर्णव्यवस्था को खत्म करने की बात करते रहे. लेकिन आजकल के दलित नेता इस पर कुछ नहीं बोलते क्योंकि वे तमाम सिरे से संघ और भाजपा की धार्मिक तिजोरी में दलित हितों और अस्मिता को गिरवी रख सत्ता की मलाई चाट रहे हैं.

 

अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में बसपा प्रमुख पानी पीपी कर वर्णव्यवस्था को कोसते कांशीराम का दिया यह नारा बुलंद करती रहती थीं कि, ‘तिलक तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार.’ जब वही मायावती यह कहने लगीं कि, ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश है, हाथी नहीं गणेश है’ तो दलितों ने उन्हें और बसपा को ख़ारिज कर दिया. मायावती और बसपा दोनों अब सियासी दौड़ से बाहर हैं और खुद को ठगा सा महसूस कर रहे दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा सचमुच में ब्रह्मा, विष्णु और महेश वालों की पार्टी को वोट देने को मजबूर हो गया.

 

संविधान हाथ में ले कर घूम रही कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को लोकसभा चुनाव में जरूर उस ने वोट दिया लेकिन पहले हरियाणा और फिर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों ने साफ़ कर दिया कि दलित समुदाय धार्मिक चकाचौंध और बाबाओं के फैलाएं जाल में फंसता जा रहा है क्योंकि वह जातिगत भेदभाव दूर करने के नारे में छिपी वर्णव्यवस्था को नहीं देख पा रहा है जिसे दूर और खत्म करने के लिए कभी नामचीन दलित नेताओं ने हिंदू धर्म तक छोड़ दिया था. इन में संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव आंबेडकर का नाम सब से ऊपर है.

 

उन्होंने कहा था- ‘जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था एकदूसरे से अलग नहीं हैं. वर्णव्यवस्था ने जातिव्यवस्था को वैधता प्रदान की और इस से दलित समुदाय पर अत्याचार हुए. ज्योतिराव फुले वर्णव्यवस्था को ब्राह्मण वर्ग द्वारा दलित और शूद्र समुदाय के शोषण का उपकरण मानते थे. दक्षिण भारत के दलित चिंतक और सुधारक ई वी रामास्वामी पेरियार भी मानते थे कि ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था दलितों व गैरब्राह्मणों के शोषण का आधार हैं. बी एस वेंकटराव की दलील यह थी कि वर्णव्यवस्था ने केवल सामाजिक अन्याय को ही नहीं बल्कि आर्थिक असमानता को भी जन्म दिया. दलितों को उन के श्रम और संसाधनों से वंचित कर उन्हें हमेशा निर्भर बनाए रखा.

 

इन सभी ने इस रोग से छुटकारे की दवा शिक्षा को बताया था लेकिन दलित शिक्षा का हाल यह है कि आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करने वाली एक याचिका पर अपना फैसला सुनाते सुप्रीम कोर्ट की बैंच के एक जस्टिस पंकज मित्तल ने कहा था कि सब से पिछड़े वर्गों के लगभग 50 फीसदी छात्र कक्षा 5 के पहले और 75 फीसदी कक्षा 8 के पहले स्कूल छोड़ देते हैं. हाईस्कूल लैवल पर तो यह आंकड़ा 95 फीसदी तक पहुंच जाता है. यानी, एक फीसदी दलित भी स्नातक नहीं हो पाते. ऐसे में वे शायद ही बटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों की हकीकत समझ पाएंगे. बकौल फूलसिंह बरैया, भाजपा हिंदू एकता यात्रा जैसी मुहिम से लोगों को वेबकूफ़ बना रही है जिस से लंबे समय तक राज किया जा सके.

 

किसी धर्मगुरु संघ प्रमुख या हिंदूवादी नेता की मंशा जाति या वर्णव्यवस्था को खत्म करने की नहीं है. क्योंकि यही हिंदू, वैदिक या सनातक धर्म कुछ भी कह लें, की बुनियाद है जिस पर सत्ता के महल और मंदिर खड़े होते हैं. इन सब का मैसेज यह है कि दलित, पिछड़े और आदिवासी सवर्णों की बादशाहत स्वीकारते फिर से उन की गुलामी ढोएं, इस से ही उन के पाप धुलेंगे. यह पाप छोटी जाति और नीच योनि में पैदा होना है. ये वे भाजपाई हिंदू हैं जो पीछे हटने की कोशिश में वक्ती तौर पर आगे बढ़ते जा रहे हैं और कांग्रेसी हिंदू आगे बढ़ने की कोशिश के बाद भी पिछड़ते जा रहे हैं क्योंकि उन के पूर्वज लोकमान्य तिलक जैसे घोर मनुवादी नेता भी थे.

 

आज भी कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भरमार है जिन्हें वर्णव्यवस्था से कोई एतराज नहीं. वे सिर्फ गांधीनेहरू परिवार के कंधों पर सवार हो कर सत्ता की मलाई चाट लेना चाहते हैं और वहां न मिले तो भाजपा के द्वार तो इन के लिए खुले ही हुए हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और सुरेश पचोरी जैसे दर्जनों नेता अपने ब्राह्मण होने का गरूर टूटने से बचाने के लिए भाजपा की गोद में जा बैठे. दरअसल ये नेता तिलक के मनुवादी संस्कारों से ग्रस्त थे कि दलितों और औरतों को शिक्षा का अधिकार नहीं और जातिव्यवस्था व वर्णव्यवस्था उन के भले के लिए बनाई गई थीं.

Father Son Story: पापा मेरी जान

‘‘सुरेखा, सुरेखा…’’ किचन में कुकर की सीटी की आवाज के आगे सतीश की आवाज दब गई. जब पत्नी ने पुकार का कोई जवाब नहीं दिया तो अखबार हाथ में उठा कर सतीश खुद अंदर चले आए.

हाथ का अखबार पास पड़ी कुरसी पर पटक कुछ जोर से बोले सतीश, ‘‘क्या हो रहा है? मैं ने कल की खबर तुम्हें सुनाई थी कि पिता के पैसों के लिए बेटे ने उस की हत्या की सुपारी अपने ही एक दोस्त को दे दी. देखा, कलियुगी बच्चों को…बेटाबेटी ने मिल कर अपने बूढ़े मातापिता को मौत के घाट उतार दिया, ताकि उन के पैसों से मौजमस्ती कर सकें. हद है, आज की पीढ़ी का कोई ईमान ही नहीं रहा.’’  सुरेखा ने उन्हें शांत करने की कोशिश की, ‘‘आप इन खबरों को पढ़ कर इतने परेशान क्यों होते हैं? यह भी देखिए कि ये बच्चे किस वर्ग के हैं और कितने पढ़ेलिखे हैं?’’

‘‘क्या कह रही हो तुम? ये बच्चे बाहर से एमबीए आदि पढ़लिख कर आए थे. जरा सोचो सुरेखा, इन की पढ़ाईलिखाई पर मांबाप ने कितना पैसा खर्च किया होगा. आजकल के बच्चे इतने नकारा हैं कि…’’

कहतेकहते हांफने लगे सतीश. सुरेखा पानी का गिलास ले कर उन के पास चली आईं, ‘‘आप रोजरोज इस तरह की खबरें पढ़ कर अपने को क्यों दुखी करते हैं? छोडि़ए न, हम तो अच्छेभले हैं. बस, 2 महीने रह गए हैं आप के रिटायरमैंट को. अपना घर है. पैंशन आती रहेगी. और क्या चाहिए हमें? जितना है वह अपने बच्चों का ही तो है.’’

सतीश पानी का एक घूंट ले कर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बच्चों का क्यों? तीनों को पढ़ालिखा दिया. अब जो करना है, उन्हें खुद करना है. मैं एक पैसा किसी पर खर्च नहीं करने वाला.’’

सुरेखा चौंकीं, ‘‘अरे, यह क्या कह   रहे हैं? सिर्फ अमन की ही तो   शादी हुई है. अभी तो आभा की होनी है. आरुष भी आगे पढ़ाई करना चाहता है. फिर…’’

इस ‘फिर’ से बचते हुए सतीश बाहर निकल गए. दरअसल, जब से उन्होंने अपनी ही कालोनी में रहने वाले जगत को सुबहसुबह पार्क में फूटफूट कर रोते देखा तो उन की सोच ही बदल गई. जगत उम्र में उन से 10 साल बड़े थे. एक बेटा धनंजय और एक बेटी छवि. धनंजय को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया. रिटायरमैंट में मिले फंड के पैसों से छवि की शादी कर दी. बचाखुचा पत्नी की बीमारी में निकल गया. बेटे की शादी के बाद वे साथ ही रहते थे. महीना भर पहले बेटे ने उन्हें घर से निकाल दिया. जगत की समझ में नहीं आ रहा था कि वे इस उम्र में जाएं तो कहां जाएं. अपनी पूरी कमाई बच्चों पर लगा दी. उन की पढ़ाई और शादी की वजह से अपना घर नहीं बना पाए. पैंशन नहीं, देखरेख करने वाला भी कोई नहीं.

सतीश, जगत का हाल सुन कर हिल गए. धनंजय को बचपन में देखा था उन्होंने. वह ऐसा निकलेगा, क्या कभी सोचा था?  सुरेखा को पता था कि सतीश एक बार जो ठान लेते हैं उस से पलटते नहीं हैं. कल रात ही आरुष ने उन से कहा था, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना चाहता हूं. छात्रवृत्ति के लिए कोशिश तो कर रहा हूं, फिर भी 3 लाख तक का खर्च आ ही जाएगा.

पापा, क्या आप इतने पैसे उधार दे सकेंगे?’’

आरुष ने बिलकुल एक बच्चे की तरह कहा, ‘‘ममा, 2 साल बाद मेरा एमबीए हो जाएगा. इस के बाद मुझे कहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी. मैं पापा के सारे पैसे चुका दूंगा. आप बात कीजिए न उन से,’’ उस समय तो सुरेखा ने हां कह दिया था, पर अपने पति का रुख देख कर उसे शंका हो रही थी कि पता नहीं वे क्या जवाब देंगे.

घर का काम निबटा कर सुरेखा सतीश के कमरे में आईं, तो वे कंप्यूटर के सामने चिंता में बैठे थे. सुरेखा धीरे से उन के पीछे आ खड़ी हुईं. कुछ क्षण रुकने के बाद बोलीं, ‘‘यह क्या चिंता ले कर बैठ गए? बच्चे भी पूछने लगे हैं अब तो. खाना भी सब के साथ नहीं खाते और…’’  सतीश ने पलट कर सुरेखा की तरफ देखा, ‘‘मेरे पास उन से बात करने के लिए कुछ नहीं है. वे अपनी अलग दुनिया में जीते हैं सुरेखा. मैं साथ बैठता हूं तो सब असहज महसूस करते हैं.’’  ‘‘ऐसा नहीं है, सब आप की इज्जत करते हैं. अच्छा, कल बहू मायके जाने को कह रही है, भेज दें?’’

सतीश झल्ला गए, ‘‘तुम ये सब बातें मुझ से क्यों  पूछ रही हो, उन्हें तय करने दो. अमन जिम्मेदार शादीशुदा आदमी  है. उसे अपनी जिंदगी खुद जीनी चाहिए.’’ सुरेखा चुप हो गईं. ऐसे मूड में आरुष के विदेश जाने की बात करतीं भी कैसे?

अगले दिन नाश्ते के समय आरुष ने खुद बात छेड़ दी, ‘‘पापा, मैं ने आप को बताया था न कि एमबीए के लिए मेरा अमेरिका में एक यूनिवर्सिटी में चयन हो गया है. बस, पहले साल मुझे 40 प्रतिशत स्कौलरशिप मिलेगी. मैं सोच रहा था कि अगर आप…’’  सतीश एकदम से भड़क गए, ‘‘सोचना भी मत. तुम्हें इंजीनियर बना दिया, बस, अब इस से आगे मैं कुछ नहीं कर सकता. यही तो दिक्कत है तुम जैसी नई पीढ़ी की, बस अपनी सोचते हो. यह नहीं सोचते कि कल तुम्हारे मातापिता का क्या होगा? हम अपनी बाकी जिंदगी कैसे जिएंगे?’’

आरुष सकपका गया. अमन भी वहीं बैठा था. उस ने जल्दी से कहा, ‘‘पापा, आप ऐसा क्यों कहते हैं? हम लोग हैं न.’’  सतीश के होंठों पर व्यंग्य तिर आया, ‘‘तुम लोग क्या करोगे, यह मुझे अच्छी तरह पता है. मुझे तुम लोगों से कोई उम्मीद नहीं, तुम लोग भी मुझ से कोई उम्मीद मत रखना…’’ प्लेट छोड़ उठ खड़े हुए सतीश. सुरेखा को झटका सा लगा. अपने बच्चों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं सतीश? आज तक बच्चों की परवरिश में कहीं कोई कमी नहीं रखी, अच्छे स्कूलकालेजों में पढ़ाया. अब अचानक उन के सोचने की दिशा क्यों बदल गई है?

अमन उठ कर सुरेखा के पास चला आया, ‘‘मां, पापा को आजकल क्या हो गया है? आजकल इतने गुस्से में क्यों रहते हैं?’’ अचानक सुरेखा की आंखों से आंसू निकल आए, ‘‘पता नहीं क्याक्या पढ़ते रहते हैं. सोचते हैं कि उन के बच्चे भी उन के साथ…’’

‘‘क्या मां, क्या लगता है उन्हें? हम उन के पैसों के पीछे हैं?’’ अमन ने सीधे पूछ लिया.

सुरेखा की हिचकी बंध गई, ‘‘पता नहीं बेटा, ऐसा ही कुछ भर गया है उन के दिमाग में. मैं तो समझासमझा कर हार गई कि सब घर एक से नहीं होते.’’

अमन ने सुरेखा के हाथ थाम लिए और धीरे से बोला, ‘‘इस में पापा की गलती नहीं है. आजकल रोज इस तरह की खबरें आ रही हैं. पहले भी आती होंगी, पर आजकल मीडिया कुछ ज्यादा ही सक्रिय है. आप जाने दीजिए मां, सब ठीक हो जाएगा. पापा से कह दीजिए कि हमें उन के पैसे नहीं चाहिए. बस, हमें चाहिए कि वे सुकून से रहें.’’

अमन और आरुष अपनेअपने रास्ते पर चले गए. आभा अब तक कालेज से नहीं आई थी. इस साल उस की पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी. आभा चाहती थी कि वह नौकरी करे. सुरेखा को लगता था कि समय पर उस की शादी हो जानी चाहिए. पर उन की सुनने वाला घर में कोई नहीं था.  आरुष ने अमन की मदद से बैंक से लोन लिया और महीने भर बाद वह अमेरिका चला गया. आभा को भी कैंपस इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. जब उस ने अपनी पहली तनख्वाह सतीश के हाथ में रखी तो वे निर्लिप्त भाव से बोले, ‘‘अपनी कमाई तुम अपने पास रखो, जमा करो. कल तुम्हारे काम आएगी.’’

सुरेखा ने समझ लिया था कि सतीश को समझाना बहुत मुश्किल है, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि कम से कम बच्चे समझदार हैं. 6 महीने बाद अमन को भी मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई. अमन अपनी पत्नी के साथ मुंबई चला गया.  सुरेखा को घर का अकेलापन काटने लगा. आभा का काम कुछ ऐसा था कि दफ्तर से लौटने में देर हो जाती. सुरेखा टोकतीं तो आभा कहती, ‘‘मां, आजकल हर प्राइवेट नौकरी में यही हाल है. देर तक काम करना पड़ता है. कोई जल्दी घर जाने की बात नहीं करता तो मैं कैसे आऊं.’’  आभा इतनी व्यस्त रहती कि उसे खानेपीने की सुध ही नहीं रहती. सुरेखा चाहती थीं कि उन की युवा बेटी शादी कर के सुख से रहे. दूसरी लड़कियों की तरह सजेसंवरे, अपनी दुनिया बसाए. एक दिन वह सतीश के सामने फट पड़ीं, ‘‘आप को पता भी है कि आभा कितने साल की हो गई है? उस की शादी की बात आप चलाएंगे या मैं चलाऊं? मैं अपनी बेटी को खुश देखना चाहती हूं.’’

सतीश अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतने रमे हुए थे कि बेटी का रिश्ता खोजना उन्हें भारी लग रहा था. पर सुरेखा के कहने पर वे कुछ चौकन्ने हुए. अखबार में देख कर एक सही सा लड़का ढूंढ़ा. आभा को यह बिलकुल पसंद नहीं था कि वह किसी के देखने की खातिर सजेसंवरे. बड़ी मुश्किल से वह लड़के वालों के सामने आने को तैयार हुई. सुरेखा उत्साह से तैयारी में जुट गईं. बेटी की शादी का सपना हर मां अपनी आंखों में संजोए रहती है.  आभा 2-3 बार उस से कह चुकी थी कि मां, अभी रिश्ता हुआ नहीं है. आप को ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं  है. बस, चाय और बिस्कुट रखिए मेज पर.  सुरेखा हंसने लगीं, ‘‘ऐसा कहीं होता है भला? जिस घर में तेरी शादी होनी है उस घर के लोगों की कुछ तो खातिरदारी करनी पड़ेगी.’’

आभा चुप हो गई. सुरेखा ने घर पर ही गुलाबजामुन बनाए, नारियल की बरफी बनाई, नमकीन में समोसे, कटलेट और पनीर मंचूरियन बनाया. साथ ही जलजीरा आदि तो था ही. चुपके से जा कर वे अपने होने वाले दामाद के लिए सोने की चेन भी ले आई थीं. रिश्ता पक्का होने के बाद कुछ तो देना पड़ेगा.

सतीश को जिस बात का अंदेशा था, आखिरकार वही हुआ. प्रमोद चार्टर्ड अकाउंटैंट था और आते ही उस की मां ने बढ़चढ़ कर बताया कि प्रमोद को सीए बनाने में उन्होंने कितने पापड़ बेले हैं.

सतीश ने कुछ देर तक उन का त्याग- मंडित भाषण सुना, फिर पूछ लिया, ‘‘देखिए मैडम, हर मातापिता अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए कुछ न कुछ त्याग तो करते ही हैं. मैं ने भी अपने बच्चों की शिक्षा पर बहुत खर्च किया है. आप कहना क्या चाहती हैं, यह स्पष्ट बताइए.’’

प्रमोद की मां सकपका गईं. बात प्रमोद के मामा ने संभाली, ‘‘आप तो दुनियादार हैं सतीशजी. बेटे की शादी भी कर रखी है. आप को क्या बताना.’’

सतीश गंभीर हो गए, ‘‘अगर बात लेनदेन की कर रहे हैं तो मैं आप से कोई संबंध नहीं रखना चाहूंगा.’’

सतीश की आवाज इतनी तल्ख थी कि किसी की कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी. इस के बाद बात बस, औपचारिक बन कर रह गई. उन के जाने के बाद सुरेखा अपने पति पर बरस पड़ीं, ‘‘लगता है, आप अपनी बेटी की शादी करना ही नहीं चाहते. आप का ऐसा रुख रहेगा, तो कौन आप से संबंध रखना चाहेगा भला?’’

सतीश ने अपनी पत्नी की तरफ निगाह डाली और शांत आवाज में कहा, ‘‘मैं ने अपनी बेटी को इसलिए नहीं पढ़ाया कि उस का रिश्ता ऐसे घर में करूं.’’

सुरेखा रोने लगीं, ‘‘आप पैसे के पीछे पागल हो गए हैं. अपनी बेटी की शादी में कौन पैसा खर्च नहीं करता.’’

सुरेखा के रोने का उन पर कोई असर नहीं पड़ा. वे वहां से चले गए. अचानक सुरेखा ने कंधे पर एक कोमल स्पर्श महसूस किया, आभा खड़ी थी. आभा धीरे से बोली, ‘‘मां, रोओ मत. पापा ने सही किया. मुझे खुद दहेज दे कर शादी नहीं करनी. मैं अपने लिए राह खुद बना लूंगी, तुम चिंता मत करो.’’

बेटी का आश्वासन भी सुरेखा को शांत न कर पाया.

6 महीने बाद आभा ने एक दिन सुरेखा से कहा, ‘‘मां, मैं किसी को आप से मिलवाना चाहती हूं.’’

सुरेखा को खटका लगा. पहली बार आभा उस से किसी को मिलवाने को कह रही है. कौन है?

शाम को आभा अपने से उम्र में काफी बड़े एक आदमी को घर ले कर आई, ‘‘मां, मेरे साथ काम करते हैं हरिहरण. बहुत बड़े साइंटिस्ट हैं और हम दोनों…’’

आभा की बात पूरी होने से पहले सुरेखा उसे खींच कर कमरे में ले गईं और बोलीं, ‘‘आभा, उम्र में इतने बड़े आदमी से…ऐसा क्यों कर रही है बेटी? ऊपर से साउथ इंडियन?’’

‘‘मां,’’ आभा ने सुरेखा का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘हरी बेहद सुलझे हुए और इंटेलिजैंट व्यक्ति हैं. आजकल नार्थसाउथ में क्या रखा है मां? तुम्हें भी तो इडलीसांभर पसंद है. क्या तुम होटल जा कर रसम और चावल नहीं खातीं? हरि को तो अपनी तरफ का राजमा, अरहर की दाल और आलू के परांठे बहुत पसंद हैं. हम दोनों एकदूसरे को अच्छे से जाननेसमझने लगे हैं. मैं उन के साथ बहुत खुश रहूंगी मां,’’ कहतेकहते आभा की आंखों में पानी भर आया. सुरेखा ने उसे गले से लगा लिया, ‘‘आभा, मेरे लिए तेरी खुशी से बढ़ कर और कुछ नहीं है बेटी. पर एक मां हूं न, क्या करूं, दिल नहीं मानता.’’

आभा की पसंद के बारे में सतीश ने कुछ कहा नहीं. उन्हें हरिहरण अच्छे लगे. आभा ने कोर्ट में जा कर शादी की. सुरेखा कहती रह गईं कि पार्टी होनी चाहिए, पर हरि ने हंस कर कहा, ‘‘मिसेज सतीश, आप पैसा क्यों खर्च करना चाहती हैं? वह भी दूसरों को खिलापिला कर. सेव इट फौर टुमारो.’’

तीनों बच्चे अपनी जिंदगी में रम गए. गाहेबगाहे आते तो कुछ लेने के बजाय बहुत कुछ दे जाते. सतीश अब पहले से कम बोलने लगे. अब उन्हें भी बच्चों की कमी खलने लगी थी.

ऐसे ही चुपचाप एक दिन रात को जो वे सोए तो सुबह उठे ही नहीं. पहला दिल का दौरा इतना तेज था कि उन के प्राण निकल गए. सुरेखा अकेली रह गईं. आभा महीना भर आ कर उन के पास रह गई, पर उस की भी नौकरी थी, जाना तो था ही. अमन भी आरुष का साथ देने अमेरिका पहुंच गया और वहीं जा कर बस गया.

इतने बड़े घर में सुरेखा अब अकेली पड़ गईं, सतीश की पैंशन, उन के कमाए पैसों और अपने गहनों के साथ. रहरह कर उस के मन में टीस उठती कि समय पर अगर बच्चों की मदद कर दी होती तो आज यह पैसा बोझ बन कर उन के दिल को ठेस न पहुंचाता.

अमन से जब भी वे अपने दिल की बात करतीं, वह तुरंत जवाब देता, ‘‘मां, तुम सब छोड़छाड़ कर यहां आ जाओ हमारे पास. सब साथ रहेंगे. मेरी बेटी बड़ी हो रही है. उसे तुम्हारा साथ चाहिए.’’

बहुत सोचसमझ कर सुरेखा ने अपनी जायदाद के 3 हिस्से किए और कागजात साइन करवाने अमन, आभा और आरुष के पास भेज दिए. सप्ताह भर बाद अमन की लंबी चिट्ठी आई. चिट्ठी में लिखा था, ‘‘मां, हमें वहां से कुछ नहीं चाहिए. हम तीनों बच्चों को आप ने बहुत कुछ दिया है. आप अपना पैसा जरूरतमंदों में बांट दीजिए, किसी अनाथालय के नाम कर दीजिए. शायद इस से पापा की आत्मा को भी शांति मिलेगी. और हां, देर मत कीजिए, जल्दी आइए. अब तो कम से कम हम सब को साथ वक्त बिताना चाहिए.’’

सुरेखा फूटफूट कर रोने लगीं. काश, आज यह दिन देखने के लिए सतीश जिंदा होते. जिस पैसे की खातिर सतीश अपने बच्चों से दूर हो गए, वह पैसा आज उन के किसी काम का रहा नहीं.

Story : डायमंड नेकलेस

नेहा का मन आज सुबह से ही घर के कामों में नहीं लग रहा था. उत्सुकतावश वह बारबार अपने चौथे मंजिल के फ्लैट की छोटी सी बालकनी से झांक कर देख रही थी कि सामने वाले बंगले में कौन रहने आने वाला है ? कल बंगले का सामान तो आ गया था, बस इंतजार था तो उस में रहने वाले लोगों का. इस से पहले जो लोग इस बंगले में रहते थे, वे इतने नकचढ़े थे कि फ्लैट में रहने वालों को तुच्छ सी नजरों से देखते थे. उन्हें अपने पैसों का इतना घमंड था कि आंखें हमेशा आसमान की तरफ ही रहती थीं. नेहा ने कितनी बार बात करने की कोशिश की, पर उस बंगले वाली महिला ने घास नहीं डाली.

किसी ने सच कहा है कि इनसान कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, उसे अपने पैर जमीन पर रखने चाहिए, हमेशा आसमान में देखने वाले कभीकभी औंधे मुंह गिरते हैं. इन बंगले वालों का भी यही हुआ, छापा पड़ा, इज्जत बचाने के लिए रातोंरात बंगला बेच कर पता नहीं कहां चले गए?

“अरे, ये जलने की बू कहां से आ रही है, सो गई क्या?” पति की आवाज सुन कर नेहा हड़बड़ा कर किचन की तरफ भागी, “अरे, ये तो सारी सब्जी जल गई…”

“आखिर तुम्हारा सारा ध्यान रहता कहां है? कल से देख रहा हूं, कोई काम ठीक से नहीं हो रहा है. बंगले वालों का इंतजार तो ऐसे कर रही हो जैसे वो बंगला तुम्हें उपहार में देने वाले हों, अब बिना टिफिन के ही दफ्तर जाऊं क्या? या कुछ बनाने का कष्ट करोगी.”

पति की जलीकटी बातें सुन कर नेहा की आंखों में आंसू आ गए. वह जल्दीजल्दी दूसरी सब्जी बनाने की तैयारी करने लगी.

‘सही तो कह रहे हैं ये, सत्यानाश हो इन बंगले वालों का,’ सुबहसुबह दिमाग खराब हो गया.

पर, नेहा भी करे तो क्या करे…, बड़ा सा घर होगा, नौकरचाकर होंगे, गाड़ी होगी, पलकों पर बैठाने वाला पति होगा, पर सारे सपने चकनाचूर हो गए. छोटा सा फ्लैट, पुराना सा स्कूटर, सीमित आय और वो घर की नौकरानी. सारा दिन किचन में खटती रहती है वह, उस पर पति के ताने कि ढंग से पढ़ीलिखी होती तो इस मंहगाई के दौर में नौकरी कर के घर चलाने में मदद तो करती, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों को तो घर में पढ़ा लेती, इतनी मंहगी ट्यूशनों की फीस बचती.

मन जारजार रोने को हो आया, पर मुझे घरगृहस्थी के काम चैन से करने भी नहीं देते. जैसेतैसे टिफिन तैयार कर के पति को थमाया, गुस्से के मारे पतिदेव ने टिफिन लिया और बिना उस की तरफ देखे चलते बने.

जबतब पति की ये बेरुखी नेहा के दिल को अंदर तक कचोट जाती है. कितना गुमान था उसे अपनी खूबसूरती पर, परंतु पति के मुंह से तो कभी तारीफ के दो बोल भी नहीं निकलते, सुनने को कान तरस गए उस के…

तभी कार की आवाज सुन कर उस की तंद्रा टूट गई. थोड़ी देर पहले का सारा वाकिआ भूल कर वह दौड़ कर बालकनी में पहुंच गई, लगता है, बंगले वाले लोग आ गए. कार से उतरती महिला को देख कर नेहा अंदाजा लगाने लगी, उम्र में मेरे जितनी ही लग रही है. अरे, ये तो… कांची जैसे दिख रही है??? नहींनहीं, वह इतने बड़े बंगले की मालकिन कैसे हो सकती है… पर, नहीं… ये तो वो ही है. उस ने झट से अंदर आ कर बालकनी का दरवाजा बंद कर दिया.

उफ, ये यहां कैसे आ गई? इतनी बड़ी दुनिया में इसे रहने के लिऐ मेरे घर के सामने ही जगह मिली थी क्या?

आज तो दिन नहीं खराब है, सुबहसुबह पता नहीं किस का मुंह देख लिया. हो सकता है, मेरी आंखों का धोखा हो, वो कांची न हो, कोइ ओर हो…, पर पर वो तो वही थी.

हाय री, मेरी फूटी किस्मत, वैसे ही इस घर में कौन से जन्नत के सुख थे, ऊपर से ये नई बला आ गई.

अस्तव्यस्त फैला हुआ घर, किचन में बिखरा फैलारा, ढेर सारे झूठे बरतन, सब बेसब्री से नेहा की बाट जोह रहे थे, पर आज तो उस का मन एकदम खिन्न हो गया था. सारा काम छोड़ कर वह बेमन सी बिस्तर पर लेट गई.

कितने वक्त बाद आज कांची को देख कर फिर अतीत के गलियारों में भटकने लगी.

पुराने भोपाल के एक छोटे से महल्ले में घर था उस का. प्यारा सा, अपनों से भरापूरा घर और घर के साथ ही सब के दुख में रोने के लिए कंधा देने वाला, खुशियों में दिल से खुश होने वाला, अपनत्व से भरपूर, प्यारा सा अपना सा महल्ला. हर एक के रिश्ते को पूरा महल्ला जीता था. सामने वाले घर में जो रिंकी रहती थी, उस की चाची उन के साथ रहती थी, वो पूरे महल्ले की चाची थी. आज वो पोतेपोतियों वाली हो गई हैं, फिर भी अभी तक छोटेबड़े सब उन को चाचीजी कहते हैं. हंसी तो तब आती थी, जब पिताजी उम्र में बडे़ होने के बाद भी उन्हें चाचीजी कहते थे. कोई बंटी की मम्मी को छः नंबर वाली भाभी, कोई दो नबंर वाली आंटी, सब ऐसे उपनामों से पुकारी जाती थी. वे संबोधन कितने अपने से लगते थे, आजकल मिसेस शर्मा, मिसेज गुप्ता, ये… वो… सब दिखावटी से लगते हैं.

गरमियों में शाम को और सर्दियों में दोपहर को सब औरतों की दालान में महफिल जमती थी, जिस में शामिल होता था सब्जी तोड़ना, पापड़, बड़ियां बनाना, सुखाना, ढेरों व्यंजनों की विधियों का आदानप्रदान, स्वेटरों की नईनई डिजाइनें बनाना, एकदूसरे को सिखाना, अपनेअपने सुखदुख साझा करना… क्या जमाना था वो भी… हम बच्चे स्कूल से आ कर बस्ते रखते और जी भर कर धमाचौकड़ी करते,  कभी लंगड़ी, कभी छुपाछुपी, कभी पाली जैसे ढेरों खेल खेला करते थे.

उस जमाने में टेलीविजन तो था नहीं, सो समय की भी कोई कमी न थी, कितनी बेफ्रिकी, सुकून भरे दिन थे वे… घर के आसपास सब जगह कितना भराभरा लगता था, उस दौर में अकेलेपन जैसे शब्द का नामोनिशान नहीं था और आज का वक्त देखो, इन बड़ेबड़ें शहरों में सब अपने छोटेछोटे दड़बों में कैद हैं.

घर से निकलते ही दिखावटीपन का मुखौटा हर किसी के चेहरे पर चढ़ जाता है, आत्मीयता का नामोनिशान नहीं दिखता, दिखते हैं तो बस दौड़तेभागते भावविहीन चेहरे, जिन्हें किसी के सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं होता है. अपना घर और महल्ला याद आते ही नेहा की आंखें डबडबा गईं.

 

उसी प्यारे से अपने से महल्ले में उस की पड़ोसी थी कांची. दोनों के पिता एक सरकारी स्कूल में टीचर थे, वे दोनों भी उसी स्कूल में, एक ही कक्षा में पढ़ती थीं. दांतकाटी रोटी थी, फर्क बस इतना था कि जहां कांची कक्षा में प्रथम आती थी, वहीं नेहा सब से आखिरी स्थान पर. यों समझो, बस जैसेतैसे नैया पार हो जाती थी. एक फर्क और था दोनों में, कांची साधारण नाकनक्श की सांवली सी लड़़की थी, वहीं नेहा एकदम गोरीचिट्टी, तीखे नैननक्श, लंबे बाल. ऐसा लगता था जैसे बड़ी फुरसत से बनाया है. पर इन सब के परे उन की दोस्ती थी, उसे कांची की पढ़ाई से या कांची को उस की सुंदरता से कोई फर्क नहीें पड़ता था. एकदूसरे को देखे बिना उन का गुजारा न था. पर हाय री किस्मत, उन की दोस्ती को जाने किस की नजर लग गई ?

नजर क्या लग गई? उम्र का 16वां, 17वां साल होता ही दुखदायी है, पता नहीं कितने रिश्तों की बलि चढ़ा देता है, यही तो उस के साथ हुआ. 16वां साल लगतेलगते उस का रूप ऐसा निखरा कि देखने वाला पलक झपकाना ही भूल जाए और बस यही रूप उस के सिर चढ़ कर बोलने लगा. उसे लगने लगा कि दुनिया में उस0से सुंदर कोई है ही नहीं. पहले जब कांची उसे पढ़ाई करने की सलाह देती थी, तो उस के साथ बैठ कर वो थोड़ाबहुत पढ़ लेती थी और शायद उसी की बदौलत वह 10वीं तक जैसेतैसे पहुंच गई थी. पर अब उसे कांची का टोकना अच्छा न लगता था, जिस की भड़ास वो उस के रंगरूप का मजाक उड़ा कर निकालती.

जिस दिन अर्द्धवार्षिक परीक्षा का परिणाम आया था, वो दिन शायद उन की दोस्ती का आखिरी दिन था. जहां कांची ने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया, वहीं नेहा को सिर्फ पास भर होने लायक नंबर मिले थे. शिक्षकों की डांट से उस का मन पहले ही से खिन्न था, जैसे ही कांची ने उसे समझाना चाहा, वह उस पर पूरी कक्षा के सामने कितना चिल्लाई थी. क्याक्या नहीं कहा उस ने उस दिन. ‘‘अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में? प्रथम आ कर क्या तीर मार लोगी, कोई शादी भी नहीं करेगा तुम से. चूल्हे में जाए ऐसी पढ़ाई, मुझे कोई जरूरत नहीं है. ऊपर वाले ने मुझे ऐसा रंगरूप दिया है कि ब्याहने के लिए राजकुमारों की लाइन लग जाएगी, तुम पड़ी रहो किताबों में औंधी.’’

इतने अपमान के बाद भी कांची ने इतना तो कहा था, ‘‘रंगरूप अपनी जगह है, वो हमेशा हमारे साथ नहीं रहता, पर शिक्षा हमारी आंतरिक सुंदरता को निखारती है और हमेशा हमारे साथ रहती है.’’ और उस की आंखें भर आई थीं.

आज भी वो बातें याद कर के अपनेआप पर शर्म आती है. उस दिन के बाद उस ने मुझ से बात नहीं की, मैं तो करने से रही.

उस के बाद मेरा बिलकुल ही पढ़ने में मन नहीं लगता, बस सपनों में खोई रहती, नतीजा… 10वीं में सप्लीमेंट्री आ गई, वहीं कांची ने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. कभी गुस्सा न करने वाले पिताजी का गुस्सा उस दिन चरम पर पहुंच गया. इतने गुस्से में हम भाईबहनों ने पिताजी को कभी नहीं देखा था. उन का गुस्सा जायज था, स्कूल में दबीछुपी आवाज में उन्हें सुनने को मिला था कि अपनी लड़की को तो पढ़ा नहीं पाए, दूसरों के बच्चों को क्या पढ़ाएंगे ? सारे भाईबहन तो हमेशा पिताजी से ही पढ़ते थे, बस मैं ही उस वक्त कांची के साथ पढ़ने का बहाना बना कर उस के घर भाग जाती थी. तब तो मेरी शामत ही आ गई थी समझो…

पिताजी की दिनचर्या बहुत ही व्यवस्थित थी. वे सुबह 5 बचे उठ कर टहलने जाते थे. अगले दिन से उन्होंने मुझे भी अपने साथ उठा दिया और पढ़ने बैठा कर टहलने चले गए. जब वे लौट कर आए तो देखा कि मैं किताब के ऊपर सिर रख कर सो रही हूं. उस दिन उन्होंने बहुत प्यार से मुझे पढ़ाई के महत्व के बारे में समझाया था, पर मेरे कानों पर जूं तक नहीे रेंगी. जब 4-5 दिनों तक यही हाल रहा तो पिताजी ने एक नई तरकीब निकाली. उन्होंने सुबह मुझे पढ़ने बैठाया और मेरी दोनों चोटियों को एक रस्सी से बांध कर, छत के कुंदे पर अटका दिया और मेरी गरदन बस इतनी ही हिल रही थी कि मैं किताब की तरफ देख सकूं. पढ़ने की हिदायत दे कर पिताजी टहलने चले गए.

मेरा हाल तो देखने लायक था. नींद के झोंके से जैसे ही सिर झुका, बालों की जड़ें ऐसी खिंची जैसे हजारों लाल चींटियां चिपक गई हों. उस दिन मैं ने नींद को भगाने की दिल से कोशिश की थी, पर पढ़ाई में मन भी तो लगे. एक घंटे तक नींद और चोटियों के बीच युद्ध चलता रहा और आखिरकार नींद के आगे पढ़ाई ने हार मान ली. और जब दर्द सहन करने की शक्ति खत्म हो गई, तो मैं चीख मार कर जोरजोर से रोने लगी.

पिताजी की मामूली तनख्वाह में 4 बच्चों को पालती मां… पति के आदर्शों को ढोती मां… घर के अभावों को दूसरों से ढांकतीछुपाती मां…, दिनभर कामकाज से थी, गहरी नींद में सोई हुई थी.

मेरी चीख सुन कर मां बदहवास सी उठ कर दौड़ी. मेरी हालत देख कर वहीं जड़ हो गई, चोटियों के लगातार खिंचने से मेरी पूरी गरदन लाल हो गई थी. ऊपर से रंग इतना गौरा था कि नींद और रोने से पूरा चेहरा भी लाल हो गया था, ठीक उसी वक्त पिताजी का आना हुआ.

हे राम, उस वक्त मां ने पिताजी को जो फजीहत की…, बाप रे बाप. मां ने पूरी दुनिया की लानतें पिताजी को दे मारी, मेरी फूल से बच्ची का ये क्या  हाल कर दिया? खबरदार, जो आज के बाद इस को पढ़ाया तो, आप ने किताबों में इतना सिर फोड़फोड़ कर  कौन से ताजमहल बनवा दिए हमारे लिए, कौन से कलक्टर बन गए आप… जो इसे बनाने चले हो?

मेरे जरीए मां ने शायद उस दिन एक ईमानदार शिक्षक के घर के आर्थिक अभावों का गुस्सा निकाला था, जो इतने सालों से उन के अंदर किसी सुप्त ज्वालामुखी की तरह दबा हुआ पड़ा था. किसी से न डरने वाले पिताजी भी उस दिन मां का वो रूप देख कर दंग रह गए थे, कुछ भी न बोले और उस दिन के बाद पिताजी ने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. मुझे तो समझो मुंहमांगी मुराद मिल गई थी. इस के कुछ ही दिनों बाद कांची के पिताजी का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. इतना सब होने के बाद भी जाने से पहले वह मुझ से आखिरी बार मिलने आई थी, पर मैं कमरे से बाहर ही नहीें निकली और वह हमेशा के लिए चली गई.

 

मेरा ध्यान पढ़ाई से पूरी तरह हट चुका था. 10वीं में लगातार तीन वर्ष फेल होने के बाद परेशान हो कर पिताजी ने मेरी पढ़ाई छुड़वा दी. मेरी छोटी बहन ही 11वीं में पहुंच गई थी, अब तो स्कूल जाते मुझे भी बहुत शर्म आने लगी थी. पढ़ाई छूटने पर मैं ने चैन की सांस ली और शायद स्कूल के शिक्षकों ने भी… अब तो मैं पूरी तरह आजाद थी, पत्रिकाओं में से खूबसूरती के नुसखे पढ़ कर उन्हें आजमाना, हीरोइनों के फोटो कमरे में चिपकाना और सपनों के राजकुमार का इंतजार करना, ये ही मेरे जीवन का ध्येय बन गए थे.

पर, एकएक कर के सपनों के महल चकनाचूर होने लगे. सुंदरता की वजह से एक से बढ़ कर एक रिश्तों की लाइन लग गई, पर जैसे ही उन्हें पता चलता कि लड़की 10वीं तक भी नहीं पढ़ी, सब पीछे हट जाते, न पिताजी के पास देने के लिए भारीभरकम दहेज था. मेरी वजह से पूरे घर में मातमी सा सन्नाटा पसर गया था, सब मुझ से कटेकटे से रहने लगे. पिताजी भी चारों तरफ से निराश हो चुके थे. तब इन का रिश्ता आया. एकलौता लड़का था, वो भी सरकारी औफिस में क्लर्क. मांबाप गांव में रहते थे, थोड़ीबहुत खेतबाड़ी थी. उन्हें लड़की की पढ़ाई से कोई मतलब नहीं था, वे तो बस सुंदर लड़की चाहते थे. और जैसेतैसे पिताजी ने मेरी नैया पार लगा दी.

फोन की घंटी की आवाज से नेहा हड़बडा कर उठ बैठी. वह फोन उठाती, तब तक फोन बंद हो चुका था. घड़ी पर नजर पड़ते ही नेहा चौंक उठी. उफ, एक बज गया, सोचतेसोचते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. बच्चों के आने का वक्त होने वाला है, ऐसा लग रहा है जैसे शरीर में जान ही नही है. अपने को लगभग घसीटती हुई वह किचन में पहुंची. प्लेटफार्म पर पड़ा फैलारा, सिंक में पड़े झूठे बरतन, पलकपावड़े बिछाए उसी का इंतजार कर रहे थे.

‘‘हाय, क्या जिंदगी हो गई है… सारी उम्र चौकाबरतन में निकली जा रही है. पर काम तो किसी भी हाल में करना ही पड़ेगा,’’ ऐसा सोच कर वह जैसेतैसे हाथ चलाने लगी.

शाम को पतिदेव ने चाय पीते हुए गौर किया कि रोज की अपेक्षा आज उस के चेहरे पर कुछ ज्यादा ही मायूसी छाई हुई है, तो चुटकी लेते हुए बोल पड़े, ‘‘क्या हुआ…? तुम्हारी वो बंगले वाली नहीं आई क्या, जो चेहरे पर मातम छाया  हुआ है?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. वो तो आ गई है… आप को पता है कि वो कौन है?’’

‘‘अरे भाई, मैं अंतर्यामी थोड़े ही हूं, जो मुझे औफिस में बैठेबैठे पता चल जाएगा.’’

‘‘वो मेरे बचपन की सहेली कांची है.’’

‘‘अरे वाह, ये तो खूब रही, तुम्हारे बंगले वाले पचड़े का अंत तो हुआ. तुम हमेशा बंगले वाली से दोस्ती करना चाहती थी, लो, तुम्हारी दोस्त ही आ गई, फिर भी चेहरा लटका हुआ है?’’

‘‘आप को कुछ भी तो पता नहीं है, इसलिए आप ऐसा बोल रहे हैं. स्कूल के दिनों में उस से मेरी लड़ाई हो गई थी, किस मुंह से उस के सामने जाऊंगी.’’

इतना सुनना था कि पतिदेव चाय का प्याला टेबल पर पटकते हुए चीखे, ‘‘ऊपर वाला बचाए तुम से… क्या बच्चों जैसे बातें कर रही हो… उस के सामने नहीं जा सकती तो क्या घर में छुप कर रहोगी? बंगले वाली यहां घूमने नहीं आई, रहने आई है.

“कान खोल कर सुन लो, खबरदर, जो आज के बाद मेरे सामने बंगले वाली का जिक्र भी किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’ सुबह से पति की डांट, कांची को देख कर सारे दिन का तनाव, शाम को फिर पति की फटकार, नेहा के सब्र का बांध टूट गया. बाथरूम में घुस कर वह रो पड़ी. सब के सामने तो रो भी नहीं सकती. आंसू देखते ही पतिदेव हत्थे से ही उखड़ जाते हैं, उन्हें कुछ भी समझाना उस के बस के बाहर है.

कांची को सामने आए दो दिन हो चुके थे. दो दिनों से अंदर ही अंदर घुटन और तनाव से उस की हालत ऐसी हो गई थी जैसे वह बरसों से बीमार हो. रात को खाने की थाली में दाल देखते ही जैसे घर में तूफान आ गया. पति ने थाली उठा कर रसोईघर में पटक दी और गुस्से से दहाड़ पड़े, ‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या? या सारे सब्जी वाले मर गए हैं, या फिर घर में इतनी कंगाली आ गई है कि सब्जी खरीदने के पैसे नहीं बचे? दो-तीन दिन हो गए, इनसान कब तक सब्र करे, सुबह आलू, टिफन में आलू, रात को दाल… इनसान कब तक खाएगा? हद होती है किसी बात की. एक सब्जी खरीदने का काम तुम्हारे जिम्मे है, क्या वो भी नहीं कर सकती?  तुम्हारा ये खाना… तुम ही खाओ, हम लोग अपना इंतजाम कर लेंगे,’’ गुस्से में बच्चों को ले कर पैर पटकते हुए घर से निकल गए.

 

नेहा सिर पकड़ कर धम्म से सोफे पर बैठ गई… उफ, ये क्या हो गया है मुझ को? सच ही तो कह रहे हैं, आज तीन दिन हो गए हैं… कहीं कांची न देख ले, इस डर से वह सब्जी लेने नीचे तक नहीं उतरी, सब्जी वाला रोज आवाज लगा कर चला जाता है. कांची तो हमेशा के लिए यहां रहने आई होगी, ऐसे कब तक घर में छिप कर बैठूंगी. उफ, इसे भी पूरी दुनिया में क्या यही जगह मिली थी रहने के लिए…? भगवान भी पता नहीं किस बात की सजा दे रहा है मुझे… पतिदेव का गुस्सा सुबह भी सातवें आसमान पर था. न कुछ खाया, न टिफिन ले गए, बिना बात करे ऐसे ही औफिस चले गए. दुखी और उदास मन से वह अपने को कोसती हुई सब्जी वाले का इंतजार करने लगी… पर, ये क्या, एक घंटा हो गया, लेकिन सब्जी वाला तो आया ही नहीं. लगता है, तीन दिन से सब्जी नहीं ली, तो आज उस ने आवाज ही नहीं लगाई. सारा जमाना मेरी जान का दुश्मन बन बैठा है. वह उठने ही वाली थी कि दूसरे सब्जी वाले की आवाज सुनाई पड़ी, अमूमन इस से वो कभी सब्जी नहीं खरीदती थी, क्योंकि वो सब्जियों को हाथ लगाने पर झल्लाता था. जैसे किसी ने उस की नईनवेली दुलहन को छू लिया हो. पर मरती क्या न करती, थैला लिए सीढ़ियां उतर कर सब्जी लेने आ पहुंची.

सब्जी वाले ने भी ताना मारने का मौका नहीं गंवाया. वह मुसकराते हुए बोला, “धन्यवाद. मेरे ढेले से जो आज आप सब्जी खरीदने आईं. जी, मन में तो आया कि उस का मुंह  नोंच ले, पर हाय री किस्मत, क्याक्या दिन देखने पड़ रहे हैं. मन ही मन कुढ़ते हुए थैला ले कर वह मुड़ी ही थी कि नीचे के फ्लैट वाली मिसेज काटजू लगभग दौड़ती सी आई (उन्हें किसी से भी बात करने के लिए अब ऐसा ही करना पड़ता है. तब से, जब से उन्हें ये बात समझ में आई कि उन्हें देखते ही लोग ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग. इस में गलती लोगों की नहीं है, उन की फितरत ही ऐसी है, हंसहंस के लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना उन का सब से प्यारा शगल था). पर उन्होंने नेहा को गायब होने का मौका नहीं दिया.

‘‘अरे नेहा, क्या हुआ? तबीयत खराब है क्या? 2-3 दिन से दिखाई नहीं पड़ी, चेहरा भी कैसा पीला पड़ा हुआ है.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, थोड़ा घर की साफसफाई में व्यस्त थी.’’

‘‘अरे भाई, इतना भी क्या काम करना कि आसपास की खबर ही न हो… पर, इस में तुम्हारा भी क्या दोष? तुम्हारे यहां बाई नहीं है न, सारा काम खुद ही करना पड़ता है, वक्त तो लगेगा ही…’’

नेहा को मिसेज काटजू की इसी आदत से सख्त चिढ़ थी, जब भी मिलती, ताना मारने से बाज नहीं आती.

‘‘खैर, छोड़ो ये सब, पता है… सामने वाले बंगले में जो आई है न, वो पहले वाली से बिलकुल अलग है. इतनी अमीर है, पर घंमड जरा सा भी नहीं. खुद भी बैंक में अफसर है. कल मैं शाम को इन के साथ घूमने के लिए निकली थी न, तब वह मिली थी, सारा दिन तो वह बैंक मे रहती हैं.

कभीकभी तुम भी कहीं घूम आया करो… अरे, मैं तो भूल ही गई, पुराने स्कूटर पर घूमने में क्या मजा आएगा? भाई साहब से बोल कर अब नई गाड़ी ले भी लो, इतनी भी क्या कंजूसी करना.’’

‘‘अच्छा, मिसेज काटजू, मैं चलती हूं, मुझे बहुत काम है,’’ खून का घूंट पीती हुई नेहा गुस्से के मारे, बिना जवाब सुने सीढ़ियां चढ़ गई.

नेहा को समझ नहीं आ रहा था कि वह मिसेज काटजू के तानों से दुखी है या कांची के बैंक में अफसर होने पर… जो भी हो, एक बात अच्छी हो गई कि कांची दिनभर घर में नहीं रहती, उसे ज्यादा छिपने की जरूरत नहीं है. वैसे भी वो घर से निकलती ही कितना है, दो बच्चों के साथ खटारा स्कूटर पर कहीं जाने से तो उसे घर में रहना ज्यादा अच्छा लगता है. बच्चे भी नहीं जाना चाहते, उन्हें भी शर्म आती है और पति भी कहां ले जाना चाहते हैं? ये सब सोचते हुए उस की आंखें भर आईं…

8-10 दिन ऐसे ही बीत गए, नेहा की दिनचर्या में एक बड़ा फर्क आया था. वह यह कि उस ने बालकनी में जाना लगभग बंद कर दिया था. वह चाहती थी कि जब तक हो सके, बस कांची का सामना न हो. रोज की तरह आज भी वह अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थी, तभी मां का फोन आया, 3 दिन बाद छोटे भाई की सगाई थी, मां ने आने का आग्रह कर के फोन रख दिया.

कितने बदल गए हैं सब लोग… बदलें भी क्यों न, उस की तरह फालतू कोई नहीं हैं, दोनों छोटी बहनें सरकारी स्कूल में टीचर हैं, भाई भी सरकारी अफसर है. पिताजी को गुजरे तो 3 साल हो गए, याद आते ही उस की आंखें भर आईं.

मायके में मां के अलावा उसे याद करने की किसी के पास फुरसत नहीं है. बहनें और भाई जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर फोन लगा लेते हैं बस… एक मां ही है, जो महीने में कम से कम एक बार फोन कर के हालचाल पूछ लेती हैं. पर इस में सारा दोष भाईबहनों का तो नहीं है, मैं मौन सा उन्हें फोन करती हूं, ताली दोनों हाथ से बजती है, एकतरफा रिश्ता कोई कब तक निभाएगा वो तो सिर्फ मां ही निभा सकती है.

अपनी मजबूरी पर उस का दिल जारजार रोने लगा. क्या, मेरा मन नहीं करता  अपनी मा, भाईबहनों से बात करने का, उन के अलावा और कौन है मायके में. फोन का बिल देख कर पतिदेव ऐसेऐसे विषवाण  छोड़ते थे कि कलेजा छलनी हो जाता. पर वह सब्र का घूंट पी लेती थी, क्योंकि इस के अलावा उस के पास कोई चारा भी न था. सालसालभर मिलना नहीं होता था, कम से कम फोन पर बात कर के ही दिल को तसल्ली मिल जाती थी. पर उस दिन तो अति हो गई, जब पतिदेव बरसे थे, ‘‘अगर इतना ही शौक है फोन पर गप्पें लगाना का तो जरा घर से बाहर निकल कर चार पैसे कमा कर दिखाओ. तब पता चलेगा, पैसे कैसे कमाए जाते हैं, घर बैठ कर गुलछर्रे उठाना बहुत आसान है.’’

सुन कर, अपमान से तिलमिला उठी थी वह, सहने की भी कोई हद होती है. जी में तो आया कि चीखचीख कर कहे कि जब खुद यारदोस्तों से घंटों फोन पर बतियाते हो, तब बिल नहीं आता, मैं क्या अपनी मां से भी बात न करूं, पर कुछ कह न सकी थी, बस तभी बमुशिकल ही फोन को हाथ लगाती थी वह. काश, वो भी आत्मनिर्भर होती, उस के हाथ में भी चार पैसे होते, जिन्हें वह अपना इच्छा से खर्च कर सकती. लो, ऐसे खुशी के मौके पर मैं भी क्या सोचने बैठ गई. मायके जाने के खयाल से शरीर में खुशी की लहर दौड़ गई. अरे, कितनी सारी तैयारी करनी है, आज 10 तारीख तो हो गई. 13 तारीख को सगाई है, तो 12 को निकलना पड़ेगा. सिर्फ कल का ही दिन तो बचा है.

पतिदेव का मूड न उखड़े, इसलिए नेहा उन की पंसद का खाना बनाने में जुट गई. ‘‘क्या बात है? आज इतने दिनों बाद घर में ऐसा लग रहा है, जैसे सचमुच खाना बना हो, बड़ी चहक रही हो, कोई लौटरी लग गई क्या?’’

‘‘आज मां का फोन आया था. राहुल का रिश्ता तय हो गया है. 13 को सगाई है, चलोगे न…?’’सुनते ही पतिदेव के चेहरे की हंसी गायब हो गई. ‘‘अरे, मैं नहीं जा पाऊंगा, औफिस में बहुत काम है, बच्चों की भी पढ़ाई का नुकसान होगा. शादी में सब लोग चलेंगे, अभी तुम अकेली ही चली जाओ.’’

नेहा के सारे उत्साह पर पानी फिर गया. पर उसे इतना बुरा क्यों लग रहा है, ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा है. मायके के किसी भी प्रोग्राम में हमेशा ऐसा ही तो होता है… खैर, एक तरह से अच्छा ही हुआ, बच्चों के पास ढंग के कपड़े भी नहीं हैं. खर्च करने से बजट गड़बड़ा जाएगा, शादी मैं तो खर्च करना ही पड़ेगा.

नेहा ने अपना सूटकेस खोल कर साड़ियां निकाली, कुलमिला कर 4-5 भारी साड़ियां हैं, जिन्हें वह कई बार पहन चुकी थी और एकमात्र शादी में चढ़ाया गया सोने का हार, जिसे  पहनने में भी अब उसे शर्म लगती थी, पर बिना पहने भी नहीं जाया जा सकता. कहीं नहीं हैं, पता नहीं घर के समारोहों में भी इतना दिखावा क्यों करना पड़ता है.

पिछली बार बहन की गोद भराई में उस की सास ने तो ताना मार ही दिया था. लगता है, नेहा को पुरानी चीजों से बहुत लगाव है, इसलिए हमेशा यही हार  पहनती है. अरे भाई, अब तो नया ले लो, वो भी बेचारा थक गया होगा. हाल  सब के ठहाकों से गूंज उठा था, पर कहां से ले ले नया हार…? सोचते हुए उस ने जैसे ही हार निकाला…, अरे, इस की एक झुमकी तो टूट रही है. हाय, अब क्या  पहनूंगी? सोने का कुछ न कुछ तो पहनना पड़ेगा, मंगलसूत्र तो बहुत ही हलका है, अकेले उस से काम नहीं चलेगा. सुबह औफिस जाते वक्त इन्हें दे दूंगी, सुनार के यहां डाल देंगे. दिन में जा कर उठा लाऊंगी, परसों तो निकलना ही है. सुबह पति से मनुहार कर के नेहा ने झुमकी सुनार के यहां पहुंचा दी थी.

जल्दीजल्दी घर के काम पूरे कर के वह झुमकी लेने बाजार की तरफ चल पड़ी. बाजार पास ही था, इसलिए पैदल ही चल दी. मायके जाने के उत्साह में कांची कब उस के ध्यान से उतर गई, उसे पता ही नहीं चला. उत्साह का आलम ये था कि जिस बंगले ने उस की नींद उड़ा रखी थी, उस की तरफ भी उस का ध्यान नहीं गया.

तेज कदमों से चलते हुए वह सुनार की दुकान पर पहुंची, झुमकी उठा कर जैसे ही वह पलटी, उस का मुंह खुला का खुला रह गया. सामने कांची खड़ी थी, वो भी उसे देख कर हक्काबक्का रह गई. कुछ पल बाद दोनों को जैसे ही होश आया, खुशी से चीखते हुए कांची उस से लिपट गई.

‘‘हाय, मैं ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तुझ से मुलाकात होगी. एक पल को तो मैं पहचान ही नहीं पाई कि तू ही है या कोई और, कितनी बेडौल हो गई है.’’

‘‘पर, तू तो बिलकुल वैसी की वैसी ही है, जरा भी नहीं बदली,’’ नेहा जबरन मुसकरात हुए बोली.

‘‘तू यहां क्या कर रही है? क्या इसी शहर में रहती है? कहां है तेरा घर? तेरे पति क्या करते हैं और बच्चे…?

‘‘अरे, बसबस…..सांस तो ले ले, मैं कहां भागे जा रही हूं, परसों राहुल की सगाई है, कान की झुमकी उठाने  आई थी. मुझे कल ही निकलना है, आज बहुत काम है, बातें तो फिर होती रहेंगी.’’

नेहा की बेरुखी कांची समझ न सकी, वह तो खुशी के मारे अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘‘अरे वाह, क्या बात है, छोटा सा राहुल इतना बड़ा हो गया. हाय, टपने पुराने महल्ले को देखने का इतना मन कर रहा है…, पर अभीअभी नए घर में शिफ्ट हुए हैं, पहले ही बैंक से बहुत छुट्टियां ले चुकी हूं. आज भी घर के कुछ काम निबटाने थे, छुट्टी पर हूं, नहीं तो मैं भी तेरे साथ चलती, सभी से मिल लेती. खैर, कोई बात नहीं, तू जब लौट कर आएगी तो तेरी बातें सुन कर ही वहां की यादें ताजा कर लूंगी.’’

‘‘ले, तुझे देख कर तो मैं सब भूल गई. तू रुक, मैं जरा कड़े की डिजाइन सुनार को बता दूं.’’

उफ, जिस बला से बच रही थी, वो इस तरह मेरे सामने आएगी, सोचा न था. कहीं झुमकी न देखने लगे, जल्दी से रूमाल में लपेट कर उसे पर्स में डाल ली. कांची की आत्मीयता उसे दिखावा  लग रही थी. जब वो मेरी हालत देखेगी तो जरूर पूछेगी, क्या हुआ तेरे रूपसौंदर्य का, सपनों का राजकुमार नहीं आया लेने, पर अब तो इस से बचना मुश्किल है, नेहा रूआंसी हो उठी.

‘‘चल, अब बता तेरा घर किधर है, पहले मेरे यहां चलते हैं, चाय पिएंगे, फिर मैं तुझे घर छोड़ दूंगी,’’ दुकान से बाहर आते हुए कांची बोली.

‘‘नहीं, आज नहीं. मुझे बहुत देर हो रही है.’’

‘‘चुप रह, मैं कोई बहाना नहीं सुनने वाली, एकाध घंटे में कुछ नहीें बिगड़ने वाला, चल बता, किधर है तेरा घर?’’

‘‘पास में ही है, सतगुरू अपार्टमैंट में रहती हूं.’’

सुनते ही कांची लगभग उछल ही पड़ी, ‘‘क्या बात कह रही है. उस अपार्टमैंट के सामने ही तो मेरा बंगला है. हद हो गई यार… हम दोनों 10 दिनों से एकदूसरे के इतने पास रह रहे हैं और एकदूसरे को दिखे भी नहीं? ये तो  कमाल ही हो गया… मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि मेरी सब से प्यारी दोस्त मेरे पड़ोस में रहती है, अब हमारा बचपन फिर से जी उठेगा,’’ कांची खुशी से फूली नहीं समा रही थी.

‘‘अरे क्या हुआ…? तेरा चेहरा क्यों उतरा हुआ है, कहीं पुरानी बातें तो याद नहीं कर रही, मैं तो वो सब कब का भूल चुकी हूं, तू भी भूल जा.’’

‘‘बातोंबातों में घर ही आ गया, चल चाय पीते हैं,’’ कांची ने कार बंगले में पार्क करते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, फिर आऊंगी…’’

‘‘चल न यार,’’ कांची उस का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए अंदर ले गई.

बंगले की शानोशौकत देख कर नेहा की आंखें फटी की फटी रह गईं. साजसज्जा के ऐसेऐसे सामान. ऐसी दुर्लभ पेंटिग्स… आलीशान कानूस… जिधर नजर जाती, ठहर जाती. ये सब तो उस ने सिर्फ फिल्मों में ही देखा था, यह तो उस का सपना था…

‘‘कहां खो गई, चल बैडरूम में बैठते हैं,’’ नेहा मंत्रमुग्ध सी उस के पीछे चल पड़ी.

‘‘यहां आराम से बैठ. भोला, जरा चायनाश्ता तो लाना…’’

नेहा जैसे ही बैठने को हुई, उस की नजर बैड पर बिखरे जेवरों पर पड़ी. आश्चर्य के मारे उस का मुंह खुला का खुला रह गया. इतने सारे जेवर… वे भी एक से बढ़ कर एक.

‘‘तू भी क्या सोचेगी? कैसा फैला हुआ पड़ा है? तू तो जानती है, मुझे शुरू से सादगी से रहना ही पसंद है,  पर इन की बिजनैस पार्टियों में इन की खुशी के लिए सब पहनना पड़ता है. राज एक पाटी में गए थे, समझ नहीं आ रहा था कि क्या पहनूं? तो सारे निकाल लिए, रखने का वक्त ही नहीं मिला.

“ये भोला भी, अभी तक चाय नहीं लाया. तू बैठ, मैं अभी देख कर आती हूं,’’ कांची उस की मनोस्थिति से पूरी तरह बेखबर थी.

नेहा को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. उस की नजर तो डायमंड नेकलेस पर अटक गई थी, जो बिलकुल उस के पास ही पड़ा था. इतना खूबसूरत नेकलेस तो उस ने कभी सपने में भी नहीं देखा था, न ही वो उस की कीमत का अंदाजा लगा सकती थी.

अगर ये मैं राहुल की सगाई में पहन कर चली जाऊं, तो… सारे रिशतेदारों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी, और मुह पर ताले पड़ जाएंगे.

अगर मांगू तो… कांची क्या सोचेगी, नहींनहीं, चुपचाप उठा लूं तो… पर, कहीं किसी ने देख लिया तो… कोई भी तो नहीं है, उस ने पर्स से रूमाल निकाल कर नेकलेस पर पटक दिया, इधरउधर देखा और झट रूमाल के साथ नेकलेस उठा कर पर्स में डाल लिया.

‘‘नौकरों के भरोसे कोई काम नहीं होता, ले  गरमागरम चाय पी,’’ कांची ने बैडरूम में घुसते हुए कहा.

नेहा ने इतनी गरम चाय एक घूंट में ही पी ली और उठ खड़ी हुई.

‘‘अरे, बैठ ना…”

‘‘नहीं, मैं तो भूल गई, मुझे प्रेस वाले के यहां से साडियां भी उठानी हैं, मैं फिर आऊंगी.’’

कांची के कुछ कहने से पहले ही उस ने ऐसी दौड़ लगाई, जैसे पीछे भूत पड़े हों, घर में घुस कर ही सांस ली.

धम्म से कुरसी पर बैठ गई, जब सांस में सांस आई तो एहसास हुआ कि ये क्या किया?

हाय, मैं ने चोरी की, वो भी कांची के यहां से.

ये चोरी थोड़े ही है, 2-3 दिन की ही तो बात है. शादी से लौट कर, उस से मिलने जाऊंगी, और धीरे से रख दूंगी. मन के दूसरे कोने से आवाज आई.

पर्स से नेकलेस निकाल कर आईने के सामने गले पर लगाते ही नेहा की सारी ग्लानि बह गई.

वाह… क्या लग रही हूं मैं, सब देखते ही रह जाएंगे. उस ने जल्दी से नेकलेस को सूटकेस में रख लिया.

बच्चे पढ़ाई कर रहे थे, पतिदेव के आने में अभी वक्त था. कई दिन बाद उस ने बालकनी का दरवाजा खोल कर ताजी हवा को महसूस किया. तभी बंगले से कांची निकलती हुई दिखी.

अरे, ये तो इधर  ही आ रही है. हाय, लगता है कि उसे पता चल गया कि मैं ने ही उस का नेकलेस चुराया है. अब क्या करूं? क्या सोचेगी वह मेरे बारे में? मेरी भी मति मारी गई थी, जो मैं ने ऐसा नीच काम किया, क्या करूं?

जल्दी से बालकनी का दरवाजा बंद कर, बच्चों को हिदायत दी कि कोई आ कर पूछे तो कहना कि मम्मी बाहर गई हैं, देर से आएंगी.

नेहा सांस रोके अंदर जा कर बैठ गई.

घंटी बजते ही बेटे ने दरवाजा खोल दिया.

‘‘क्या यह नेहा का घर है?’’

‘‘जी आंटी, पर मम्मी घर पर नहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कोई बात नहीं. मै बाद में आऊंगी,” कांची ने जाते हुए कहा. उस के जाते ही नेहा की जान में जान आई.

उफ, शुक्र है, बच गई, बस कल ट्रेन पकड़ लूं.

सारी रात चिंता के मारे नेहा सो न सकी. सुबह पति और बच्चों के जाने के बाद वह जल्दीजल्दी जाने की तैयारी करने लगी.

ट्रेन तो 11 बजे की है, लगभग 10 बजे घर से निकल जाऊंगी. अरे, सूखे कपड़े तो बालकनी में ही रह गए, अगर नहीं उठाए तो 3 दिन तक वहीं पड़े रहेंगे, मजाल है कि कोई उठा कर अंदर रख दे. बड़बड़ाते हुए नेहा ने जैसे ही बालकनी का दरवाजा खोला, सामने से आती हुई कांची को देख कर उस के हाथपैर फूल गए. कुछ समझ न आया तो बाहर से ताला बंद कर के, ऊपर सीढ़ियों में जा कर छिप गई.

हाय, अगर ऊपर से कोई आ गया तो क्या कहूंगी? क्यों बैठी हू सीढ़ियों में… ये किस मुसीबत में फंस गई, पर अब करे क्या? दम साधे बैठी रही.

कुछ देर बाद सीढ़ियों पर किसी के उतरने की आवाज आई, शायद ताला देख कर कांची चली गई थी. 5 मिनट रुक कर वह नीचे आई और ताला खोला. मायके में अपनी झूठी शान दिखाने के लिए क्याक्या करना पड़ रहा है, बस एक बार ट्रेन में बैठ जाऊं.

10 बजने ही वाले थे. सूटकेस उठा कर, ताला लगाया, चाबी पड़ोस में दे कर सीढ़ियां उतरने लगी, उस की सांस धौंकनी की तरह चल रही थी, ज्यादा गरमी न होने के बाद भी पसीना पीठ से बह कर एड़ियों तक पहुंच रहा था.

भगवान का लाखलाख शुक्र है कि आटो सामने ही दिख गया, बिना मोलभाव (जो उस की आदत नहीं थी) के वह जल्दी से आटो में बैठ कर स्टेशन के लिए निकल पड़ी.

क्या कांची पीछे से आवाज दे रही थी…, नहींनहीं, मेरा भ्रम होगा…

जैसेतैसे स्टेशन पहुंच कर अंदर घुसी ही थी कि सचमुच पीछे से कांची के पुकारने की आवाज सुन कर उस के होश ही उड़ गए…

अब तो ऊपर वाला भी मेरी इज्जत की धज्जियां उड़ने से नहीं बचा सकता. झूठी शान के चक्कर में मेरी मति मारी गई थी जो मैं ने ऐसा नीच काम किया. अब कांची से आंखें मिलाऊंगी… हे भगवान, काश, ये धरती फट जाए तो मैं उसी में समा जाऊं… क्या करूं? कहां जाऊं…. भागूं…..पर, पैर  जड़ हो गए…

तभी हांफती हुई कांची आई, ‘‘कब से आवाज दे रही हूं? सुन ही नहीं रही है, कल तेरे घर आई, तो भी नहीं मिली. सुबह आई, तो ताला लगा था, मुझे लगा कि गई ये तो… पर, अभी आटो में बैठती हुई दिखी, तब भी आवाज लगाई, पर शायद तू सुन नहीं पाई. नेहा को काटो तो खून नहीं.

‘‘अरे, उस दिन तू मेरे घर आई थी न शायद जल्दबाजी में तेरी झुमकी वहीं गिर गई थी, उसे ही लौटाने आई थी. मैं सोचसोच कर परेशान हो रही थी. अगर न दे पाई तो तू वहां क्या पहनेगी. चल, अब मैं निकलती हूं, पहले ही बैंक के लिए देर हो गई है, तू वहां से आ जा, फिर मिलते हैं.’’

नेहा ठगी सी खड़ी रह गई, डायमंड की चमक पूरी तरह से फीकी पड़ चुकी थी.

 

 

Hindi Kahani : वापसी का सैलिब्रेशन

लेखक :  महावीर राजी

पीयूषजी ने स्कूटर कंपाउंड में पार्क करते हुए घड़ी की ओर देखा. 7 बज रहे थे. उफ, आज फिर देर हो गई. ट्रैफिक जाम की वजह से हमेशा देर हो जाती है. ऊपर से हर दस कदम पर सिग्नल की फटकार. रैड सिग्नल पर फंसे तो समझिए कि सिग्नल के ग्रीन होने में जितना समय लगेगा उतने में आप आराम से एक कप कौफ़ी सुड़क सकते हैं. मेन रोड के जाम से पिंड छुड़ाने के लिए आसपास की गलियों-उपगलियों को भी आजमाया. वहां समस्याएं अजब तरह की मिलीं. रास्ते के बीचोंबीच गाय, भैंस और सांड जैसे मवेशी बेखौफ हांडते दिखे, मानो गलियां संसद का गलियारा हों जहां नेतागण छुट्टे मटरगश्ती करते रहते हैं.

किसी मवेशी को जरा छू भी गई गाड़ी कि बवाल शुरू. एक महीने पहले तक पीयूषजी को शाम को घर लौटने की इतनी हड़बड़ी नहीं रहती थी. औफिस समय के बाद भी साथियों से गपशप चलती रहती. औफिस से दस कदम पर तिवाड़ी की चाय की गुमटी थी, जायके वाली स्पैशल चाय के लिए मशहूर. चाय के बहाने मिलनेजुलने का शानदार अड्डा. औफिस से निकल कर खास साथियों के साथ वहां चाय के साथ ठहाके चलते.

पीयूषजी पीडब्लूडी में जौब करते हैं. काम का अधिक दबाब नहीं. पुरानी बस्ती में घर है. पति,पत्नी और 6 साल का बेटा आयुष. छोटा परिवार. पत्नी तीखे नाकनक्श और छरहरे बदन की सुंदर युवती. शांत और संतुष्ट प्रकृति की घरेलू जीव. दोनों के बीच अच्छी कैमिस्ट्री थी. शाम को घर लौटने पर पीयूष जी के ठहाकों से घर खिल उठता. पत्नी के इर्दगिर्द बने रहने और उस से चुहल करने के ढेरों बहाने जेहन में उपजते रहते.

पत्नी चौके में व्यस्त रहती, वे बैठक से आवाज लगाते, ‘उर्मि, एक मिनट के लिए आओ,जरूरी काम है.’  पत्नी का जवाब आता, ‘अभी टाइम नहीं. सब्जी बना रही हूं.’  वे तुर्की बतुर्की हुंकारते, ‘ठीक है, मैं ही वहां आ जाता हूं. दोनों मिल कर रागभैरवी में गाते हुए सब्जी बनाएंगे.’ फिर लपकते हुए चौके में आते और उर्मि को बांहों में समेट लेते. उर्मि पति के प्रेमिल जनून पर निहाल हो उठती. टीवी देखते, बंटी के साथ खेलतेबतियाते और उस का होमवर्क करातेकराते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता. सुबह उठते और स्वयं बाजार जा कर घर का सौदासुलफ के अलावा दूर सब्जीमंडी से ताजा सब्जी भी लाते, शौक से बिना ऊबे.

सबकुछ ठीक चल रहा था कि एक महीने पहले ऐसा क्या हो गया कि उन की सारी दिनचर्या ही उलटपुलट गई. पीयूषजी की शिक्षादीक्षा कसबे में हुई थी. कसबाई संस्कार से अभी तक मुक्त नहीं हो पाए थे. शहर के लटकेझटके से पूरे अभ्यस्त भी नहीं. सोशल मीडिया का नाम सुना था. यह होता क्या है, बिलकुल नहीं जानते थे. सहकर्मियों के बीच आपसी बातचीत में फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे जुमले उड़ते हुए कानों में पड़ते जरूर पर उन्होंने इन सब पर कभी ध्यान देने की कोशिश नहीं की. उन के पास मोबाइल छोटा वाला था.

औफिस में मिश्रा से उन की ज्यादा पटती. एक दिन शाम को औफिस से निकलते हुए उन्होंने मिश्रा से कहा, ‘आज पुचका खाने का मन कर रहा. चलो, पुचका खाते हैं. अहा हा हा, इमली के खट्टेमीठे पानी की याद आते ही मुंह मे पानी भर आया.’

मिश्रा हिनहिनाते हुए हंसा, ‘सौरी सर, फिर कभी. आज जरूरी काम है.’

ऐसा क्या जरूरी काम आ गया कि दस मिनट भी स्पेयर नहीं कर सकते?’

‘सुगंधा को चैटिंग का टाइम दिया हुआ है 6 बजे का,’ मिश्रा खींसे निपोरा.

‘सुगंधा…?’

‘फेसबुकिया फ्रैंड… कल विस्तार से समझाऊंगा सोशल मीडिया के बारे में, ठीक?’  मिश्रा बाइक पर बैठ कर फुर्र हो गया.

दूसरे दिन औफिस औवर के बाद तिवाड़ी की गुमटी में एक भांड चाय की गुरुदक्षिणा के एवज में मिश्रा ने पीयूषजी को फेसबुक, व्हाट्सऐप, मैसेंजर, ट्विटर आदि सोशल मीडिया की विस्तार से दीक्षा दी तो पीयूषजी के ज्ञानचक्षु खुल गए.

‘देश के हर कोने से दोस्त मिलेंगे. मित्र भी और मित्राणियां भी,’  मिश्रा खिलखिलाया, परिवार के सीमित दायरे के कुएं को हिंद महासागर का विस्तार मिलेगा. यथार्थ से परे किंतु उस के समानांतर एक और विलक्षण दुनिया, जिस की बात ही निराली है. उस में एक बार प्रवेश करें, तभी जान सकेंगे, सर.’

पीयूषजी को एहसास हुआ, मिश्रा के सामने सामान्य ज्ञान के स्तर पर कैसे तो अबोध बच्चे जैसे हैं वे. इलैक्ट्रौनिक तकनीक कितनी उन्नत हो गई, उन्हें पता ही नहीं. लोग घरबैठे

विराट दुनिया का भ्रमण कर रहे हैं, वे अभी भी कुंए के मेढ़क रहे.

दूसरे दिन ही मिश्रा के संग जा कर बढ़िया मौडल का एंड्रौयड फोन खरीद लाए. फोन क्या,

जादुई चिराग ही था जैसे. बटन दबाते ही कहांकहां के तरहतरह के लोगों से संपर्क होते निमिष मात्र लगता. चिराग के व्यापक परिचालन की ट्रेनिंग भी बाकायदा मिश्रा ने उन्हें दे दी.

सोशल मीडिया से जुड़ते ही पीयूषजी की जिंदगी में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया. फेसबुक पर मित्रों की संख्या देखते ही देखते हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ने लगी. विभिन्न रुचि व क्षेत्र के मित्र बने. कई ललनाओं ने ललक कर उन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया जिन्हें बड़ी नजाकत से उन्होंने थाम लिया. कइयों से खुद अपनी पहल पर दोस्ती गांठी.

फेसबुक के न्यूज़फीड को ऊपर खिसकाते घंटों बीत जाते. न मन भरता और न पोस्ट का ही अंत होता. ऊपर ठेलते रहो, नीचे से पोस्ट द्रौपदी के चीर की तरह निकलते रहते. व्हाट्सऐप और मैसेंजर पर चैट का सिलसिला भी खूब जमने लगा.

कुछ ही समय मे आलम यह हो गया कि हर समय  खुले  मोड में मोबाइल उन के हाथ में रहने लगा. राह में चल रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. खाना खा रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. किसी से बात कर रहें हैं, नजरें मोबाइल पर. न सूचनाओं का अंत होता न चैट पर विराम. हर दो मिनट पर न्यूजफीड को देर तक ऊपर सरकाने और हर तीसरे मिनट  नोटिफिकेशन चैक करने की लत लग गई. पता नहीं किस मित्र का कब और कैसा मैसेज या कमैंट आ गया हो. अपडेट रहना जरूरी है.

दोपहर ढलते ही नजरें बेसब्री से बारबार घड़ी की ओर उठ जातीं. औफिस समय खत्म होने का इंतजार रहता. लगता, जैसे किसी षड्यंत्र के तहत घड़ी के कांटे जानबूझ कर धीमी चाल से चल रहे हैं. कोफ्त से मन फनफना उठता. औफिस से निकल कर सीधे घर की ओर दौड़ते.

घर आ कर हड़बड़ करते, फ्रैश होते और मोबाइल लिए सोफे पर जो ढहते तो शाम के चायनाश्ता से ले कर रात के डिनर तक का सारा काम वहीं लेटेबैठे होता. पत्नी से संवाद सिर्फ हां-हूं तक सिमट गया. ठहाके और चुहल तो पता नहीं कहां अंतर्ध्यान हो गए थे.

पीयूषजी के पास अब घर के कामकाज के लिए समय नहीं रहा. पहले वे शाम को औफिस स लौट कर चाय पीते, टीवी देखते, आयुष का होमवर्क करा देते थे. होमवर्क कराते हुए उर्मि के साथ चुहल भी चलती रहती. अब उर्मि से साफ कह दिया कि 3 लोगों का खाना बनाने में ऐसा थोड़े ही है कि शाम का सारा समय खप जाए. उन्हें डिस्टर्ब न करें और आयुष का होमवर्क खुद करा दें. सब्जी बाजार व मेन मार्केट घर से दूर पड़ता था. पहले वे स्वयं स्कूटर से जा कर ताजा सब्जी तथा अन्य सामान ले आते थे. अब उन का सारा ध्यान सोशल मीडिया की ऐप्स पर रहता और यह काम भी उर्मि के जिम्मे आ गया.

बैड पर भी मोबाइल उन की  कंगारू-गोद  में दुबका रहता. उर्मि चौके का काम समेट कर और बेटे को सुला कर पास आ लेटती और इंतजार करती कि हुजूर को इधर नजरें इनायत करने की फुरसत मिले तो दोचार प्यार की बातें हों. पर बहुधा ऐसा नहीं हो पाता. उस समय पीयूषजी कुछ खास ललनाओं से चैट में मशगूल रहते. सूखे इंतजार के बाद आखिर उर्मि की आंखें ढलक जातीं.

कई बार ऐसा होता कि रात के 11 बजे किसी मित्र से वीडियो चैट कर रहे होते. उधर से मित्र गरम कौफ़ी की चुस्कियां लेता दिखता. कौफ़ी से उड़ती भाप आभासी होने बावजूद नथुनों में घुस कर खलबली मचाने लगती. वह खलबली कैसे शांत होती. आभासी कौफ़ी हवा से निकल कर तो नमूदार होने से रही. बगल में थकीहारी लेटी उर्मि को जगाते और कौफ़ी बना लाने का आदेश फनफना देते. पतिपरायण उर्मि को मन मार कर उठना ही पड़ता.

घड़ी की ओर नजर गई, साढ़े छह बजे थे. तेजी से कंपाउंड में स्कूटर खड़ा किया और पांच मिनट में फ्रैश हो कर सोफे पर चले आए. उर्मि चायनाश्ते की तैयारी में लग गई. पीयूषजी ने मोबाइल औन कर के पहले फेसबुक पर क्लिक किया. स्क्रीन पर गोलगोल घूमता छोटा वृत्त उभर आया. वृत्त एक लय में घूम रहा था…और घूमे जा रहा था, निर्बाध. ओह, ऐप खुलने में इतनी देर. उन्होंने मोबाइल को बंद कर के फिर औन किया.  प्रकट भये कृपाला  की तर्ज पर फिर वही वृत्त. खीझ कर औफऔन की क्रिया को कई बार दुहरा दिया. वृत्त नृत्य बरकरार रहा. इस्स… झटके से फेसबुक बंद कर के व्हाट्सऐप पर उंगली दबाई. मन में सोचा, फेसबुक बाद में देखेंगे. व्हाट्सऐप पर भी पहले जैसा वृत्त अवतरित हो आया. यह क्या हो रहा है आज. उत्तेजना में एकएक कर के मैसेंजर और ट्विटर से भी नूराकुश्ती की. पर हाय… लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल. हर जगह मुंह चिढ़ाता वही चक्र मौजूद.

उन का ध्यान इंटरनैट चैक कर लेने की ओर गया. धत्त तेरी… नैट तो सींग-पूंछ समेट करकुंभकर्णी नींद में सोया पड़ा है. बिना नैट के कोई भी ऐप खुले, तो कैसे. लेकिन नैट गायब क्यों हो सकता है. पिछले हफ्ते ही 3 महीने का पैक भराया था. कोई तकनीकी अड़चन है शायद. बचपन के दिनों की याद हो आई जब घर में ट्रांजिस्टर हुआ करता था. अकसर ट्रांजिस्टर अड़ियल घोड़ी की तरह स्टार्ट होने से इनकार कर देता. तब पिताजी उस पर दाएंबांए दोचार थाप लगाते तो वह बज उठता. पीयूषजी ने उत्तेजना से भरकर मोबाइल के बटनों को बेतरतीब टीपा, कि शायद नैट जुड़ जाए. पर सब बेकार.

उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मोबाइल को घूरा. 15 हजार रुपए का नया सैट. इतनी जल्दी फुस्स. हंह… फनफना कर मिश्रा को फोन लगाया, ‘कैसा मोबाइल दिलाए मिश्राजी, नैट नहीं पकड़ रहा?’

‘मोबाइल चंगा है, सर. नैट कहां से पकड़ेगा, पूरे शहर की इंटरनैट सर्विस 3 दिनों के लिए बंद कर दी है सरकार ने.’

‘अरे,’  पीयूषजी घोर आश्चर्य से भर गए.

‘जामा मसजिद के पास दंगा हो गया. रैफ बुलानी पड़ी.’

जामा मसजिद तो शहर के धुर उत्तरी छोर पर है.’

हां सर, खबर है कि एक समुदाय विशेष के 2 गुटों में आपसी रंजिश से मामूली मारपीट हुई.

दंगा की आशंका से सरकार बहादुर का कलेजा कांप उठा. बस, आव देखा न ताव, ब्रह्मास्त्र

चला कर नैट सस्पैंड.’

इंटरनेट बंद, यानी डेटा बंद. डेटा बंद तो मोबाइल कोमा में जाना ही है क्योंकि इस की जान

तो डेटा नाम के अबूझ से जीव में बसती है न.

अब..?

‘अब’  सलीब की तरह जेहन में टंग गया. समय देखा, सिर्फ 6:45. 11 बजने से पहले नहीं सोते. कैसे कटेगा समय? सामने टेबल पर कछुए सा सींगपूंछ समेटे पड़ा था सैट.

पीयूषजी की आह निकल गई, ‘हाय, तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में

तनहा हो गए…’ आभासी दुनिया में विचरण करतेकरते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता था. यथार्थ में क्या है…वही घरगृहस्थी, वही पत्नीबच्चे, वही चिंतातनाव. सबकुछ बासी व बेस्वाद. मन सूखे कुएं सा सायंसायं करने लगा. कुछ पल शून्य में देखते हुए निश्च्छल निश्चल बैठे रहे. फिर बुझे मन से उठे. पूरे घर का बेवजह चक्कर लगा कर वापस सोफे पर आ बैठे. रिमोट दबाकर टीवी औन किया. जल्दीजल्दी न्यूज़ व शो के पांचसात चैनल बदल डाले. मन नहीं रमा. चारपांच ऐप्स के सिवा मोबाइल के अन्य उपयोग की न तो जानकारी थी, न ही उन में रुचि. दिमाग बेचैन और जी उदास हो गया. उदासी पलकों तक चली आयी तो दबाव से कुछ पल के लिए पलकें ढलक गईं. वे अबूझ चिंतन में चले गए.

तभी उर्मि नाश्ता ले आई. बेसन के चिल्ले, साथ में गर्मागर्म चाय.

 

कहां खो गए जनाब? नाश्ता हाजिर है,’  उर्मि चहकी. उस की चहक से तंद्रा टूटी तो पलकों की यवनिका धीरे से ऊपर उठ गई. सामने उर्मि खड़ी थी. खिलखिलाने से मुंह की फांक खुली तो भीतर करीने से दुबके मुक्ता दाने चिलक उठे. मुक्ता दानों के संग कदमताल मिलाती हिरणी सी आंखें भी भरतनाट्यम कर रही थीं.

उन्होनें गहरी नजरों से पत्नी को निहारा. निहार में घोर आश्चर्य घुला था. सांचे में ढला गोरा बदन और खिलाखिला चेहरा. देर तक टिकी रहीं नजरें चेहरे पर. फिर मांग और बिंदी को छू कर अधरों से टपकती गले के नीचे की उपत्यका पर ठहर गईं. पीयूषजी पत्नी की रूपराशि देख कर चमत्कृत थे. उर्मि ही है या कोई मायावी यक्षिणी…

‘ऐसे क्या देख रहे हैं, जैसे पहले कभी देखा नहीं,’  उर्मि खिलखिलाई तो जैसे नूपुर की नन्ही घंटियां बज उठी हों. घंटियों की आवाज पीयूषजी के दिल में झंकार भर गई.

सचमुच यार, यह रूप, यह हंसी. पहली बार ही देख रहा हूं. कहां छिपाया हुआ था इस खजाने को,’  पीयूषजी की आवाज खुशी से थरथरा रही थी. रोज ही तो देखते हैं पत्नी को, आज उस का सौंदर्य इतना नया, इतना जादुई क्यों लग रहा है.

उर्मि अवाक थी. यह कैसा परिवर्तन आया जनाब में. सुखद और रोमांचक. सबकुछ सामने ही था, पर आप को दिखाई न दे तो मैं क्या करती?  शोख हंसी में लिपटे लफ्ज. दिखाई देता तो कैसे, जब से मोबाइल लिया है, आंखें ही नहीं बल्कि पूरी बौडी लैंग्वेज में रोबोट की तासीर घुल गई. आप के भीतर से आप के खुद को बेदखल कर के एक रोबोट आ बैठा और आप को पता भी नहीं. भाव और स्पंदनहीन रोबोट.

पीयूषजी एक पल के लिए ठगे से रह गए. नजरें उर्मि के चेहरे से हट ही नहीं रही थीं.

भावावेश में उसे बांहों में खींच लिया. देहस्पर्श बिलकुल नया लगा.. पहली रात का पहली छुवन जैसा. अद्भुत. पति के अप्रत्याशित आलिंगन से उर्मि रोमांच से भर गई. ऐसे उत्तप्त आलिंगन के लिए किस कदर तरस गई थी इन दिनों वह. आलिंगन ही क्यों, बैड पर के आंतरिक क्षणों की सारी क्रियाएं भी तो जिन में पहले एक उत्तेजित नशा घुला रहता था,

कितनी यांत्रिक व बेरस हो गई थी. आंखें खुशी से छलकीं तो हंसी में नमी घुल आई.

पीयूषजी ने थरथराते होंठ उस आर्द्र हंसी पर धर दिए. मन रुई सा हलका हो गया.‘वाह, चिल्ले… एक अरसे बाद बना मेरा फ़ेवरिट स्नैक,’   पीयूषजी बच्चों से चहके.

‘परसों ही तो बनाई थी,’  उर्मि तुनक कर बोली. पीयूषजी एक बार फिर चौंके, ‘अरे, परसों खाया था तो याद क्यों नहीं आ रहा?

‘याद नहीं आ रहा कमबख्त,’ पीयूषजी खीझ से भर गए. ऐसा स्मृति लोप पहले तो कभी नहीं होता था. इन सारे बदलावों के पीछे मोबाइल में दुबके आभासी दुनिया का तिलिस्म तो नहीं? वे सहम से गए. चाय पीते हुए हुलस कर उर्मि से हंसीमजाक करने लगे. तभी उन काध्यान उर्मि के टौप पर गया. गुलाबी पृष्ठभूमि पर गहरे हरे रंगों के बेलबूटे, गौर वर्ण पर खूब खिल रहे थे.

‘यह टौप तुम पर खूब फब रहा है. कब खरीदा?’  पीयूष जी प्रशंसात्मक भाव से बुदबुदाए.‘पिछले 2 महीने से यूज कर रही हूं. कितनी बार तो इस में देखा, फिर भी?’ उर्मि खिलखलाती हुई गंभीर हो गई, ‘टौप को ध्यान से देखते भी तो कैसे? नया मोबाइल लेने के बाद सारा ध्यान और सारी चेतना मोबाइल ऍप्स के ब्लैकहोल में समा गई है. घरपरिवार से कट कर आभासी दुनिया में विचरने वाले रोबोट जैसे हो गए हैं, आप. कई बार टोकने का मन किया, पर…’

कुछ पलों का मौन छाया रहा दोनों के बीच. उर्मि सामने के सोफे पर जा बैठी. पीयूषजी अपराधबोध से भर गए. उर्मि के उलाहने में कड़वा सच नहीं था क्या? सोशल मीडिया और आभासी दुनिया के पीछे विक्षिप्त दीवाने की तरह ही दौड़ रहे हैं. इस अंधी बेलगाम दौड़ ने संवेदना और सोच को छीज कर उन्हें घरपरिवार के इमोशन्स से किस कदर रिक्त कर दिया, उफ्फ. आज नैट बंद रहने से वे उस के सम्मोहन से मुक्त हैं तो सबकुछ कितना नया औरआकर्षक लग रहा है.

आहिस्ते से उठे और उर्मि की बगल में आ गए. उस की हथेली को दोनों हथेलियों में भर कर सहलाते हुए फुसफुसाए, ‘तुम ने ठीक कहा, डार्लिंग. आभासी दुनिया के छद्म सम्मोहन के पीछे की अंधी दौड़ में ढेर सारे नायाब सुख और तरल एहसास छूटते चले गए. ये सुख, एहसास, प्रेम पगे पल भले छोटे दिखते हैं, जिंदगी में कितनी ऊर्जा, कितना रस और संजीवनी भरते हैं, आज पता चला. मन कितना खाली, कितना तनहा हो गया था इन के बिना. पर अब नहीं. अब एकएक कर के इन सारे छूटे हुए एहसासों को जीभर कर जिऊंगा.

उर्मि की नजरें उठीं और पीयूषजी की नजरों से गूंथ गईं. अवगुंठन में प्यार लबलबा रहा था.‘अब यह मत कहना कि नाक की यह लौंग भी पुरानी है. मानो चांद की नन्ही सी कणिका छिटक कर ठिठौना सी आ चिपकी हो चेहरे पर. नाक की लौंग में नन्हा सफेद एडी जड़ा था

जो चेहरे को अद्भुत चमक दे रहा था. लौंग को मुग्धभाव से देखते हुए पीयूषजी हंसे तो उर्मि इठलाई, ‘पुराना है और पिछले 6 महीने से पहनी हुई हूं, जनाब.’

‘अरे, इतने दिनों से नथुने में है, फिर भी नजर नहीं गई इस पर. कमाल है. हमारा बेटा कहां

 

है, यार? बहुत दिनों से देखा नहीं उसे,’  रूम में चारों ओर देखते हुए ललक कर पूछा.

‘बेटे को देखा नहीं, बहुत दिनों से? क्या कह रहे हैं? रोज ही तो सामने बैठा होमवर्क करता रहता है, जी,’  उर्मि विस्मय से बोली.

‘आभासी दुनिया की तंद्रा में दृष्टि ससुरी यंत्रीकृत सी हो गई थी. तुम, वो, ये सारा परिवेश

सामने होते हुए भी आंखों से ओझल रहते. आज तंद्रा टूटी तो तुम्हें देखा. आज ही उसे देखूंगा. उस का होमवर्क मैं कराऊंगा, ठीक.’

‘पड़ोस में खेलने गया है, आता होगा. अब किचेन में चलती हूं, बहुत काम है,’  उर्मि उठती हुई बोली तो पीयूषजी मनुहार कर उठे, ‘प्लीज, कुछ देर रुको न, जी नहीं भरा देखने से.

खूबसूरती को भासी दुनिया में लाख विचर ले कोई, लौटना तो आखिरकार यथार्थ पर ही होता है, खाली हाथ. कितना मूर्खतापूर्ण गुजरा वह समय. जेहन में महादेवी वर्मा की पंक्तियां कौंध गईं.. विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना. परिचय इतना, इतिहास यही… महादेवीजी ने ये पंक्तियां उन जैसों के लिए लिखी होंगीं शायद.

अब छोड़िए भी. रात के खाने की तैयारी करनी है,’  उर्मि उन की बांहों से छूटने का प्रयास करती बोली, ‘देर हो जाएगी, बहुत काम है,  मेरी हंसी   देखने के लिए ढेर समय मिलेगा मिस्टर अग्रवाल.’

पर पीयूषजी के भीतर का प्रेमी आज वियोग सहने को तैयार न था. उर्मि के साथ के एकएक पल को जी लेने को मचल रहा था उन का मन. ‘तो ऐसा करते हैं कि मैं भी किचेन में चलता हूं. तुम सब्जी बनाना, मैं आटा गूंथ दूंगा.’

पीयूषजी ने भोलेपन से कहा. उर्मि पति की अदा पर फिदा हो गई. पहले वाले दिन याद हो आए जब पीयूषजी उस के इर्दगिर्द बने रहने और चुहल करने का कोई बहाना नहीं छोड़ते थे.

‘आप का मन नहीं लगेगा इन कामों में,’   उर्मि ने आंखें नचाते हुए व्यंग्य किया.

‘लगेगा और खूब लगेगा. उस पिशाच को कंधे से उतार कर पेड़ पर उलटा लटका दिया है,’ पीयूषजी की आवाज आत्मविश्वास से लबरेज थी.

फिर परात में आटा, आटे में पानी, पानी मे थोड़ी चुहल और थोड़े ठहाके. फेंटते हुए देर तक

मनोयोग से आटा गूंथते रहे. ऐसा मजा जीवन में पहले कभी नहीं आया.

इसी बीच आयुष पड़ोस से खेल कर आ गया. पीयूषजी ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया मानो अरसे बाद गोद मे लिया हो. वात्सल्य के विलक्षण फुहार से भीग गया उन का मन. बेटा भी थिरक कर चूजे की तरह चिपक गया उन से. फिर होमवर्क कराते हुए उस की मासूम बातों व हरकतों में खूब आनंद मिला.

डिनर के बाद उर्मि को ले कर छत पे चले आए. काफी दिनों बाद छत पर आए थे. सबकुछ नयानया लग रहा था. आंगन, डोली, पिछवाड़े खड़ा अमरूद का छतनार पेड़. विभिन्न किस्मों के फूलों और शो पत्तों के छोटेबड़े बीसेक गमले. कलैक्शन उन्हीं का तो किया हुआ था, चाव से. देखरेख के अभाव में कुछ अधखिले थे तो कुछ मरणासन्न. जैसे उन्हें उलाहना दे रहे हों कि नन्हें दोस्तों को भूल क्यों गए, सर?  ग्लानि से भर गया मन. कल से तुम्हारी सेवा में हाजिर रहूंगा, दोस्तों. आकाश में इस छोर से उस छोर तक विशाल स्याह चंदोबा तना था. चंदोबे पर एक ओर न्यून कोण में टिका चतुर्दशी का चांद. दोनों की नजरें उस पर टिक गईं.

चौदहवीं का चांद  उर्मि क्लिक कर बोली, ‘कितना प्यारा लग रहा न?’ ‘हां, एक अंतराल के बाद देख रहा हूं. उस चांद को भी और इस चांद को भी. आभासी दुनिया की सनकभरी दौड़ में ऐसे रोमांचकारी अनुभूतियों से रूबरू नहीं हो सका कभी,’   पीयूषजी उर्मि की बांह थाम कर थरथराती आवाज में बोले, ‘बेशक, आज के युग में सोशल मीडिया से दूर रहना संभव नहीं पर मेरे लिए वह  कीप  की तरह होगी. सिर्फ कुछ देर का लाड़, बस. उसे ड्रैकुला की तरह अनुभूतियों व इमोशन्स का खून नहीं चूसने दूंगा. उस दुनिया की सैर के दौरान भी तुम सब को, तुम को, आयुष को, घरपरिवार को और सारे सैंटीमैंट्स को साथ लिए रखूंगा.’

सुबह यथासमय नींद खुल गई. पहले नींद खुलते ही बेताल जेहन में प्रकट हो जाता और हाथ मोबाइल ढूंढने लगते. आज दिल और दिमाग शांत थे. चाय पी कर छत पर चढ़ गए.खुरपी, संडासी, ट्रिमर, वाटर केन आदि निकाला. 2 घंटे की बेसुध सेवा. एकएक पौधे को सहलाया. सहलाते हुए मन रोमांच से सराबोर होता रहा. ऐसे अनिवर्चनीय सुख से क्यों कर विमुख रहे अब तक. गमलों का काम कर के सब्जी बाजार गए. सारा परिवेष नया सा लग रहा था. रामखेलावन, मंगरु साव और पिंटू के पुराने ग्राहक थे. सभी लोग उलाहना देते हुए चहक उठे, ‘भले ही कुच्छो न खरीदो साहेब, पर दुचार दिनन पर आ कर मिल लो, तो दिल जुड़ा जात है.’

इन अनजान लोगों के मूर्त अपनापन के आगे आभासी मित्रों के छद्म, सहानुभति कितनी खोखली है. पीयूषजी उन लोगों के स्नेह से भीतर तक भीग गए.

औफिस में इंटरनैट बंद होने से सभी के चेहरे क्षुब्ध थे मानो कोई नायाब खजाना लुट गया हो. सभी पानी पीपी कर सरकार को कोस रहे थे. यह भी कोई बात हुई कि शहर के किसी ओनेकोने में जरा सा फसाद हुआ नहीं कि इंटरनैट बंद. नैट के बिना जनता की जान हलक में आ जाती है, यह नहीं सोचती वह.

कल के ढेर सारे नायाब अनुभवों से गुजरने के बाद पीयूषजी का मन शांत था. उन की टिप्पणियों को सुन कर मजा आ रहा था. देखतेदेखते 2 दिन बीत गए. 2 दिनों में  सदियों को जी लिया हो जैसे. शाम को औफिस से लौट कर घर में प्रवेश करते ही मिश्रा का फोन आ गया, ‘नैट चालू हो गया, सर. 6 बजे गूगल मीट में जुड़ना है.’

‘कीप…हंह,’ उन की हंसी छूट गई.

चाय पीते हुए पीयूषजी ने पत्नी से हुलस कर कहा, ‘तैयार हो जाओ. घूमने निकलेंगे. पहलेमल्टीप्लैक्स में फ़िल्म, फिर किसी बढ़िया रैस्तरां में शानदार डिनर. तुम सब को वापस हासिल कर लेने का सैलिब्रेशन, ओके.’

Winter Session in Loksabha : पार्लियामेंट में हंगामा, क्या छिपा रहा है सत्तापक्ष

2024 के लोकसभा चुनाव के बाद भले ही नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए ने तीसरी बार सरकार बना ली हो, पर वह लोकसभा में देश के हालातों पर चर्चा से भाग रही है. 2014 और 2019 की पहली दो मोदी सरकार में प्रधानमंत्री से ले कर मंत्रियों तक को भाषण देने की आदत लग चुकी है. बहुमत की मनमानी सरकार चलाने की आदत ने विपक्ष के साथ बातचीत कर सदन चलाने की कला का खत्म कर दिया है. बात केवल संसद की ही नहीं है मीडिया के साथ भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं होती है. मीडिया में अपने चहेते चैनलों पर केवल डिबेट करने ही पार्टी प्रवक्ता जाते हैं. सवालों का जवाब न दे कर सत्ता पक्ष क्या छिपाना चाहता है ?
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 25 नवंबर को हुई थी. 4 दिन में सदन की कार्यवाही सिर्फ 40 मिनट चली. हर दिन औसतन लोकसभा और राज्यसभा में करीब 10-10 मिनट तक कामकाज हुआ. लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष ने अडाणी और संभल मुद्दा उठाया. विपक्ष दोनो मुद्दों पर बहस करना चाहता था. सरकार इस के पहले तैयार नहीं हुई. इस के पहले मानसून सत्र में विपक्ष नीट और मणिपुर के मुद्दे पर बहस करना चाहता था. तब भी सरकार ने बहस की मांग नहीं मानी. मानसून सत्र भी समय से पहले खत्म हो गया था. अब शीतकालीन भी उसी दशा में पहुंच रहा है.
2014 और 2019 में सत्तापक्ष विपक्ष के सांसदों को निलंबित कर के बोलने नहीं देता. 140 से अधिक सांसदों को निलंबित किया था. 2024 के लोकसभा चुनावों में जनता ने विपक्ष को ताकतवर भले न किया हो पर सत्तापक्ष को कमजोर किया है. जिस से वह सांसदों को निलंबित नहीं कर पा रहे हैं. सत्तापक्ष को भले ही 40-45 फीसदी वोट मिले हो लेकिन 55-60 फीसदी जनता सत्ता पक्ष के साथ नहीं है. चुनावी गणित को समझें तो लोकसभा चुनाव के बाद 4 राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए हैं. इन में से महाराष्ट्र और हरियाणा भाजपा के खाते में गए तो जम्मू कश्मीर और झारखंड विपक्षी दलों के हाथों में गए हैं.
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 25 नवंबर को हुई थी तब हंगामा हुआ. केवल 40 मिनट सत्र चला. 2 दिसंबर तक के लिए सदन स्थगित हो गया. सोमवार को 10 बजे सत्र शुरू हुआ तो 10 मिनट के बाद ही हंगामा शुरू हुआ फिर सदन स्थगित हो गया. इसी तरह सांप सीढ़ी के खेल की तरह से सदन चलने बंद होने लगा. विपक्ष अडाणी और संभल के मुद्दे पर चर्चा चाहता है. लोकसभा में स्पीकर ओम बिरला ने कहा ‘सहमति-असहमति लोकतंत्र की ताकत है. मैं आशा करता हूं सभी सदस्य सदन को चलने देंगे. देश की जनता संसद के बारे में चिंता व्यक्त कर रही है. सदन सब का है, देश चाहता है संसद चले.’
राहुल गांधी ने संसद के बाहर कहा था कि अडाणी पर अमेरिका में 2 हजार करोड़ की रिश्वत देने का आरोप है. उन्हें जेल में होना चाहिए. मोदी सरकार उन्हें बचा रही है. सदन में चर्चा करने और जवाब देने से बच रही है. कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने कहा ‘सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि वह कौन सा मुद्दा उठाना चाहती है और कब ? क्या सरकार ने कहा था कि अडाणी, मणिपुर, संभल, चीन और विदेश नीति पर चर्चा होगी ? सरकार की तरफ से कुछ नहीं आया. उन्होंने न तो विशय स्पष्ट किया और न ही तारीख. जिस दिन वे विषय और तारीख स्पष्ट कर देंगे, हम सदन चला पाएंगे. लेकिन हम सरकार में एक नया अहंकार देख रहे हैं.’

समाजवादी पार्टी के सांसद राम गोपाल यादव ने कहा ‘सरकार अडाणी, संभल और मणिपुर से जुड़े मुद्दों पर चर्चा से भाग रही है. जब सरकार नहीं चाहती कि संसद चले तो वह कैसे चल सकती है ?’ अब संसद में कांग्रेस की ताकत और बढ़ चुकी है. गांधी परिवार के 3 सदस्य सदन में पहुंच चुके हैं. सोनिया गांधी राज्यसभा की सदस्य हैं. राहुल गांधी रायबरेली से लोकसभा का चुनाव जीत कर आए हैं. अब शीतकालीन सत्र में प्रियंका गांधी भी वायनाड से लोकसभा चुनाव जीत कर संसद बन चुकी हैं. यह उन का पहला सत्र है.

25 नवंबर को शीतकालीन सत्र का पहला दिन था. राज्यसभा में सभापति जगदीप धनखड़ और लीडर औफ औपोजिशन मल्लिकार्जुन खड़गे के बीच बहस हुई. दरअसल धनखड़ ने खड़गे से कहा कि हमारे संविधान को 75 साल पूरे हो रहे हैं. उम्मीद है आप इस की मर्यादा रखेंगे. इस पर खड़गे ने जवाब दिया कि इन 75 सालों में मेरा योगदान भी 54 साल का है, तो आप मुझे मत सिखाइए. दूसरे दिन अडाणी मुद्दे पर लोकसभा में हंगामा हो गया. जिस के बाद सदन स्थगित हो गया. 12 बजे जब दोबारा कार्यवाही शुरू हुई तो विपक्ष ने यूपी के संभल में हिंसा का मुद्दा उठाया. जिस के बाद लोकसभा और राज्यसभा दोनों को 28 नवंबर तक के लिए स्थगित कर दिया गया था.

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान कुल 16 विधेयक पेश किए जाने हैं. इन में से 11 विधेयक चर्चा के लिए रखे जाएंगे. जबकि 5 कानून बनने के लिए मंजूरी के लिए रखे जाएंगे. ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ पर भी चर्चा होनी है. राज्यसभा में लोकसभा से पारित एक अतिरिक्त विधेयक भारतीय वायुयान विधेयक राज्यसभा में मंजूरी के लिए लंबित है. ऐसे में सत्र बेहद खास है. इस के बाद भी पहला सप्ताह हंगामे में गुजर गया. दूसरे सप्ताह की शुरूआत हंगामे से हुई है.

सवाल यह कि सत्ता पक्ष बोलेगा ?
पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा मुफ्ती ने कहा कि बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार हो रहे हैं, अगर भारत में भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार हो रहे हैं तो फिर भारत और बांग्लादेश में क्या अंतर है ? मुझे भारत और बांग्लादेश में कोई अंतर नहीं दिखता. संभल की घटना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, कुछ लोग दुकानों में काम कर रहे थे और उन्हें गोली मार दी गई. अजमेर शरीफ दरगाह, जहां सभी धर्मों के लोग प्रार्थना करते हैं और जो भाईचारे की सब से बड़ी मिसाल है, वे वहां भी मंदिर खोजने के लिए खुदाई करने की कोशिश कर रहे हैं.

महबूबा ने दावा किया कि देश 1947 की स्थिति में लौट रहा है. जब युवा नौकरी की बात करते हैं, तो उन्हें नौकरी नहीं मिलती. हमारे पास अच्छे अस्पताल या शिक्षा नहीं हैं. सरकार सड़कों की हालत नहीं सुधार रही. बल्कि मंदिर की तलाश में मस्जिद को ध्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं. महबूबा ने यह मुद्दा उठाया क्योंकि इसी मुद्दे पर संसद में हंगामा हो रहा है. संभल मुद्दे पर केवल महबूबा ही नहीं बोल रही समाजवादी पार्टी के सांसद रामगोपाल यादव भी वही बात कह रहे हैं. उत्तर प्रदेश में संभल हिंसा को ले कर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस सरकार को सड़क पर घेर रही है.

समाजवादी पार्टी के सांसद राम गोपाल यादव ने कहा ‘भाजपा किसी को भी संभल जाने नहीं देना चाहती हैं. जो लोग पाप करते हैं, वे हमेशा उसे छिपाने की कोशिश करते हैं. न सदन में बोलते हैं न किसी को घटना स्थल पर जाने देते हैं.’ कांग्रेस और सपा दोनों ही संभल हिंसा के लिए योगी सरकार और बीजेपी को जिम्मेदार बता रहे हैं. दोनों ही पार्टियों ने प्रतिनिधिमंडल बना कर संभल जाने का ऐलान कर दिया था. लेकिन यूपी पुलिस ने दोनों ही पार्टियों के प्रतिनिधिमंडल को रोक दिया है. जिले में धारा 163 लागू कर दी गई है और किसी भी प्रकार का प्रदर्शन के अलावा धरना देने या जुटान पर रोक है.

समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश में नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडेय को संभल जाने से रोका गया. वह कहते हैं कि पुलिस के पास अवैध असलहे भी होते हैं. संभल हिंसा में 5 लोग मारे गए. आरोप है कि यह पुलिस फायरिंग पर मारे गए. इस को ले कर पुलिस विभाग और नेताओं के बीच बहस हो रही है.
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने भी जब संभल जाने की कार्यक्रम बनाया तो पुलिस ने कहा ‘संभल जिले में शांति और सांप्रदायिक संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए वह जनहित में सहयोग करें और अपना प्रस्तावित कार्यक्रम स्थगित करें ताकि संभल जिले के जिला मजिस्ट्रेट द्वारा पारित धारा 163 बीएनएसएस के आदेश का उल्लंघन न हो.’ अजय राय ने कहा ‘संभल की घटना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.’ कांग्रेस की नेता आराधना मिश्रा को संभल जाने से रोकने के लिए उन के घर में पुलिस ने अरेस्ट कर लिया.

सवालों से बच रही सरकार

संसद एक ऐसी व्यवस्था है जहां जनता के प्रतिनिधि उस के हक के सवाल सरकार से पूछते हैं. सरकार इन के जवाब देने को बाध्य होती है. सरकार संसद में जनता के सवालों से बचने के लिए ही हंगामा होने देती है. देश विदेश के तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिन का जवाब मोदी सरकार देना नहीं चाहती. खालिस्तान भी इस का एक मुद्दा है जिस को ले कर भारत और कनाडा के संबंध खराब हो रहे हैं जिस का प्रभाव दोनों देशों के नागरिकों पर पड़ता है. संसद से बाहर भी जो सरकार के खिलाफ बोलने की कोशिश करता है उस का मुंह भी बंद किया जा रहा है.

मोदी सरकार ने 3 साल में 28079 वेबसाइट (यूआरएल) बंद किए. इन में 10,500 खालिस्तानी का प्रचार कर रहे थे. इन को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69ए के तहत ब्लौक किया गया. इस अधिनियम के तहत किसी भी औनलाइन सामग्री को राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, या देश की संप्रभुता के लिए खतरा मानते हुए ब्लौक किया जा सकता है. संसद में इन मुद्दों पर बहस से सरकार बचना चाहती है.

बांग्लादेश और कनाडा में हिंदू अल्पसंख्यकों पर जिस तरह से अत्याचार हो रहे हैं भारत में संभल जैसे हिंसा के मसले उठ रहे हैं. विपक्ष लगातार सवाल पूछ रहा है कि प्रधानमंत्री मणिपुर क्यो नहीं जा रहे ? एक साल से अधिक समय से वहां हिंसा जारी है. संभल में विपक्ष को नहीं जाने दिया जा रहा. सदन में समाजवादी पार्टी देश की तीसरी सब से अधिक सांसदों वाली पार्टी है. उस के नेता को संभल जाने से रोका जाएगा तो संसद में सत्ता पक्ष क्या कारण बता पाएगा ? इस का एक ही रास्ता है कि सदन चले ही नहीं.

सरकार पूजापाठ और कुंभ के आयोजन को आगे कर के संसद के संवाद का जवाब दे रही है. वह संवाद भी पूजापाठ के काम कर रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या में को ले कर सरकार विपक्ष को घेर रही थी अब कुंभ की बारी है. जनता सरकार से संवाद चाहती है. अपने मुद्दों पर जवाब चाहती है. सरकार सवाल से बचना चाहती है और जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से हटाना चाहती है. इसीलिए सदन में गतिरोध और हंगामा है. मीडिया पर सवाल न पूछने का दबाव है.

Clutter Free Home : घर को बेकार चीजों का गोदाम न बनाएं

”सुमित की मम्मी ने तो अपने फ्रिज को कचरापेटी बना रखा है. कल मैं सुमित के साथ कंबाइन स्टडी के लिए उस के घर पर रुकी थी. शाम को मैं ने पानी लेने के लिए उस का फ्रिज खोला तो उस में पेप्सी और कोक की पुरानी बोतलों में उन्होंने पीने का पानी भर कर रखा हुआ है. मुझे तो देख कर उबकाई आ गई. गंदी और पीली बोतलें. आंटी को ये भी नहीं पता कि ये बोतलें भी एक्सपायरी हो जाती हैं और इन में पानी रख कर पीना खतरनाक है. मैं तो फिर बाहर जा कर अपने लिए पानी खरीद कर लाई.” राधिका अपनी दोस्त साक्षी को सुमित की मां की अज्ञानता के बारे में बता रही थी.

”सुमित के दादाजी के पास दवाइयों का बड़ा सा डिब्बा है. उस में ऊपर तक दवाइयां भरी हैं. मगर जब वो अपनी कोई दवाई ढूंढते हैं तो वह उन्हें कभी नहीं मिलती. एक दिन मैं उन की एक दवा ढूंढने में उन की मदद कर रही थी तो मैं ने देखा कि उन के डिब्बे में बहुत सी दवाएं एक्सपायरी हो चुकी हैं फिर भी उन्होंने रखी हुई हैं. फ्रिज में भी दवा और टौनिक की बोतलें भरी पड़ी हैं. पता नहीं आंटी उन्हें फेंकती क्यों नहीं हैं? मैं ने सुमित से भी कहा मगर उस ने तो खुद अपनी अलमारी को कचरापेटी बना रखा है. पुरानी किताबें, पुरानेपुराने कौमिक्स और टूटेफूटे खिलौनों से उस की पूरी अलमारी भरी पड़ी है.” राधिका ने आगे बताया.

राधिका की बातें सिर्फ सुमित की मां या उस के परिवार के बारे में ही नहीं बल्कि अनेकों भारतीय गृहणियों और परिवारों के बारे में बिलकुल सही है. हम भारतीय चूंकि गरीबी के कठिन दौर से उभरे हैं लिहाजा छोटीछोटी चीजों को बटोरे रखने की आदत हमारे जींस में है. हम काम की चीजों के साथ बेकार और पुरानी चीजों का भी भंडार अपने घरों में इकट्ठा कर लेते हैं. हमें लगता है कि आज नहीं तो कल ये हमारे काम ही आएंगी. हम अपने घरों में रखी चीजों पर नजर डालें तो पाएंगे कि अनेक ऐसी वस्तुएं हैं जिन का हम ने सालों से इस्तेमाल नहीं किया है, मगर उन चीजों से हमारी अलमारियां और बक्से भरे हुए हैं. हर भारतीय घर में पुराने कपड़ों के बौक्स भरे मिलेंगे. अखबारों और किताबों के बंडल मिल जाएंगे. पुराने जूतों के ढेर और पुराने बर्तन जो कभी इस्तेमाल नहीं होते, बोतलें, तालेकुंजियां, पुरानी रजाइयां-कंबल, चादरें, परदे तक लोग इस आशा में सहेज कर रख लेते हैं कि यह पुराने हुए तो क्या इन से कुछ और काम लिया जा सकता है, हालांकि वे सालोंसाल पड़े ही रहते हैं. इन चीजों में गंदगी जमा होती है. फफूंद या दीमक लग जाती है. या वे खुद पुरानी हो कर सड़ने लगती हैं मगर हम फिर भी उन्हें सहेजे रखते हैं.

कृष्णाजी की उम्र 60 वर्ष से ऊपर हो चुकी है. उन्होंने आज भी अपने बेटे के बचपन के कपड़े, किताबें, क्रेओन्स, उस की पहली यूनिफार्म, उस का पहला स्वेटर-टोपा, उस की छोटी से रजाई और तकिए, गद्दा और खिलौने संभाल कर रखे हुए हैं. उन के घर में एक कमरा उन के बेटे के बचपन की चीजों से भरा पड़ा है, जबकि उन का बेटा अपने परिवार के साथ अमेरिका में सेटल हो चुका है. कृष्णाजी को पैसों की तंगी रहती है. वे चाहें तो अपने घर के कुछ कमरे किराए पर दे सकती हैं. इस से उन्हें अच्छी आमदनी हो जाएगी और उन का अकेलापन भी दूर हो जाएगा, मगर वो अपना पुराना और बेकार सामान, पुराना फर्नीचर और बेटे की चीजों को घर से हटाना ही नहीं चाहतीं हैं. उन का घर लोगों को किसी छोटेमोटे म्यूजियम जैसा नज़र आता है.

कृष्णाजी जैसी अनेक माएं हैं जो अपने बच्चों की बचपन की यादों को मरते दम तक सीने से चिपकाए रखती हैं. यह ममता और भावनात्मक लगाव दुनिया के दूसरे देशों की माओं में देखने को नहीं मिलता, मगर यह समझना भी बहुत जरूरी है कि कोई भी वस्तु अपनी उम्र पूरी करने के बाद स्वयं ही नष्ट होने लगती है अथवा उस में कीड़ा लग जाता है. ऐसी हालत में भी उन को घर में रखना बीमारियों को न्योता देना ही है. एक समय के बाद पुरानी किताबों के पन्ने पीले पड़ कर टूटने लगते हैं. कपड़े गर्द और सीलन से भर कर बदबू मारने लगते हैं. चीजों पर जमी गंदगी और धूल सांस संबंधी बीमारियां पैदा करती है. अलमारियों से पुरानी चीजें न हटाई जाएं तो दीमक लग जाती है जो अच्छी चीजों को भी नष्ट कर देती है. लकड़ी की वस्तुएं एक समय के बाद सूख कर खुद भुरभुराने लगती हैं. इसलिए जो चीजें काम की न हों उन्हें घर से निकाल देना ही बेहतर है. क्योंकि यह चीजें घर में नकारात्मक ऊर्जा भी पैदा करती हैं.

बच्चों को अपनी पुरानी किताबें, खिलौने और कपड़े स्वयं निकाल कर जरूरतमंद बच्चों को दे देने चाहिए. वहीं बड़ों को भी पुरानी वस्तुएं गोदाम में रखने और सड़ाने की बजाए समय से कबाड़ीवाले को बेच देनी चाहिए. इस से कुछ पैसे भी आ जाएंगे और घर भी साफसुथरा हो जाएगा.

बुजुर्गों को भी चाहिए कि उम्र के आखिरी पड़ाव में वह जीवन भर बटोर के रखी गई अनेकानेक चीजों को खुद ही बेच कर वह पैसा अपने लिए उपयोग में ले आएं. वरना उन के मरने के बाद उन की अधिकांश वस्तुएं कूड़े में ही फेंकी जाएंगी.

घर को साफसुथरा रखने का दायित्व सिर्फ गृहणियों का ही नहीं है, बल्कि घर के हर सदस्य का है. घर में पुराना सामान सिर्फ गृहणियां ही इकट्ठा नहीं करतीं बल्कि घर के बुजुर्ग, बच्चे और जवान भी खूब इकट्ठा करते हैं और उन की साफसफाई का सारा जिम्मा बेचारी गृहणियों के सिर आ जाता है. अनुज के पिताजी ने अपने दादाजी की खटारा कार आज भी गैरेज में रखी हुई है. अब वो न तो चलती है और न बिकती है. कबाड़ी वाला उसे अब लोहे के भाव खरीदेगा मगर अनुज के पिताजी अब भी उसे बेचने को तैयार नहीं हैं. कहते हैं मेरे दादाजी की निशानी है. खटारा कार गैरेज में रख कर अपनी नई कार वे बाहर सड़क पर पार्क करते हैं और रात में कई बार निकल कर देखते हैं कि कहीं कोई चोर गाड़ी का कोई पार्ट निकाल कर तो नहीं ले गया.

घर जितना साफसुथरा, कम सामान वाला और खुलाखुला होगा, उस को मेंटेन रखना उतना ही आसान होगा. उस की साफसफाई भी ठीक तरीके से हो सकेगी और वह देखने में भी सुंदर लगेगा. आपने गौर किया होगा कि उच्च वर्गीय घरों में खाली स्पेस ज़्यादा दिखता है. उन की जरूरत भर का सामान अलमारियों में एडजस्ट हो जाता है क्योंकि वे फालतू सामान से अपनी अलमारियां नहीं भरते हैं. जबकि मध्यमवर्गीय लोग ज्यादा से ज्यादा सामान से अपना घर भरते रहते हैं. उच्च वर्गीय लोग ब्रांडेड चीजें खरीदते हैं मगर कम संख्या में, जो ज्यादा दिन तक चलती हैं, परन्तु मध्यमवर्गीय लोग उतने ही पैसे में ज्यादा चीजें खरीद लेते हैं जो लोकल होती हैं और कम समय में ही खराब हो जाती हैं.

इसके अलावा यह जगह भी घेरती हैं. खराब हो जाने पर गृहणियां उन्हें यह सोच कर जल्दी फेंकती भी नहीं हैं, कि अभी कुछ दिन पहले ही तो खरीदी थी. ऐसे में अगर घर को सुंदर और सुव्यवस्थित रखना है तो चीजों को इकट्ठा करने की ऐसी मानसिकता को छोड़ना होगा. कम सामान खरीदें, मजबूत सामान खरीदें और बेकार चीजों को तुरंत घर से बाहर निकाल दें. घर को रहने योग्य बनाएं, कचड़ा घर नहीं.

Vote Bank : ‘वोट व्यवस्था’ ने बदला ‘Caste’ सिस्‍टम

चुनावी राजनीति में महिलाओं की भूमिका बदल गई है. अब जो महिलाओं के हित की बात करेगा वही देश पर राज करेगा. वैसे तो महिलाओं की भूमिका बहुत पहले भी थी अब यह अहम होती जा रही है. बिहार में नीतीश कुमार की जीत में महिलाओं की भूमिका दिखी थी. उन की शराब बंदी योजना से सब से अधिक महिलाएं खुश थीं, क्योकि शराब पी कर पति की मार पत्नियों को ही खाना पड़ती थी. अब वोट लेने के लिए महिलाओं तक नकद रूपया पहुंचाना पड़ रहा था. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री रहते हुए ‘लाड़ली बहना योजना’ चलाई थी. महिलाओं के बीच उन की लोकप्रियता बढ़ी तो उन का नाम ही ‘शिवराज मामा’ पड़ गया.

इस के बाद चुनाव में महिलाओं तक नकदी पहुंचाने की होड़ मच गई. यही जीत का मूलमंत्र हो गया. महिलाओं को सामने रख कर बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं ने पूरी वर्ण व्यवस्था को बदल कर रख दिया. रामचरित मानस में तुलसीदास ने महिलाओं को ‘ताड़न के अधिकारी’ बता कर उन के साथ भेदभाव किया गया. वोट व्यवस्था ने पूरे हालात को बदल कर रख दिया. अब कोई महिला ताड़न की अधिकारी नहीं है. ऐसे में हिंदू राष्ट्र बना कर जिस तरह से वर्ण व्यवस्था को लागू करने की कोशिश हो रही है वह कैसे सफल होगी ?

अयोध्या में राममंदिर की राजनीति के सहारे भारतीय जनता पार्टी देश में धर्म का राज स्थापित करना चाहती थी. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राममंदिर का उदघाटन करने के पीछे सब से बड़ी योजना इस लिए थी कि इसी के सहारे जीत हासिल कर ली जाए. चुनाव में यह मुद्दा चला नहीं. भाजपा को केवल 240 सीटें ही मिल सकीं. राममंदिर से पहले उन को 300 से उपर सीटें मिली थीं. राममंदिर का चुनावी लाभ नहीं मिल सका. राममंदिर के सहारे देश में वर्ण व्यवस्था लागू नहीं हो सकी. इस के बाद के चुनाव में महिलाओं को खुश करने वाले काम करने पड़े. जिस का लाभ भी हुआ. महिलाओं के खाते में सीधे नगद ट्रांसफर की जाने वाली योजना ने भारत की राजनीति में वोट लेने का एक प्रमुख तरीका हो गया. मध्य प्रदेश में इस योजना की कामयाबी के बाद महाराष्ट्र और झारखंड में भी इस का सही परीक्षण हुआ है. यह वोट व्यवस्था के आसमान पर एक नया राकेट लांच होने जैसा है.

झारखंड विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं की बढ़ती राजनीतिक ताकत को देखते हुए महिला केंद्रित कल्याण योजनाओं को सामने रखा गया. झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ‘मंईयां सम्मान योजना’ तैयार की. इस योजना के तहत अगस्त 2024 से प्रतिमाह महिलाओं को एक हजार रुपए देना शुरू किया. इस योजना में 66 प्रतिशत महिला सदस्यों ने पंजीकरण कराया. इन परिवारों में से, लगभग 47 प्रतिशत झारखंड मुक्ति मोर्चा के पक्ष में मतदान किया. जिस से पता चलता है कि इस योजना का चुनाव पर कितना प्रभाव पड़ा है.

झारखंड मुक्ति मोर्चा की ‘मंईयां सम्मान योजना’ के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी ने ‘गोगो दीदी’ योजना की घोषणा की थी. ‘गोगो दीदी योजना’ भाजपा की तरफ से वादा किया गया कि उन की सरकार आने पर महिलाओं को 2100 रुपए प्रतिमाह का भुगतान किया जाएगा. इस योजना का पार्टी को लाभ हुआ. जिन घरों में महिलाओं ने ‘गोगो दीदी योजना’ के लिए पंजीकरण कराया. उन्होंने भाजपा को वोट दिया. ‘गोगो दीदी योजना’ की काट के लिए झामुमो सरकार ने अपनी ‘मंईयां सम्मान योजना’ के लिए दिए जाने वाले भुगतान को बढ़ा कर 2500 रुपए प्रतिमाह कर दिया.

महिलाओं ने वोट व्यवस्था के जरीए वर्ण व्यवस्था को कैसे बदला यह इन के वोटिंग पैटर्न से पता चलाता है. जहां पुरुषों और महिलाओं ने भाजपा को (38 प्रतिशत) समान रूप से समर्थन दिया, वहीं इंडिया ब्लौक गठबंधन ने महिलाओं के बीच बेहतर प्रदर्शन किया. चुनाव में इस गठबंधन को पुरुषों के 43 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं के 45 प्रतिशत वोट मिले. ग्रामीण और आदिवासी मतदाताओं के बीच इंडिया ब्लौक को मिले लाभ की बात करें, तो इन वर्गों की महिलाओं ने भी इंडिया गठबंधन को अधिक वोट दिया. ग्रामीण महिलाओं में से लगभग आधी (48 प्रतिशत) ने, जबकि 37 प्रतिशत शहरी महिलाओं ने इंडिया ब्लौक को समर्थन दिया.

कुछ साल पहले तक महिलाएं कम मतदान करती थीं. दूसरा यह माना जाता था कि वह अपने वोट डालने का फैसला खुद नहीं लेती थीं. परिवार के लोग जहां कहते थे वही मतदान हो जाता था. 1984 में पंचायती राज अधिनियम लागू हुआ. उस को लागू होने में 10-12 साल का समय लग गया. पंचायती राज कानून में ग्राम पंचायत के चुनावों और शहरी निकाय चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिला. महिलाओं में राजनीतिक चेतना जगनी शुरू हुई. उन का मतदान भी बढ़ने लगा. उन को राजनीतिक मुददों की समझ भी होने लगी. वह अपने वोट के अधिकार को पहचान गई. वोट पाने के लिए महिलाओं के भी पैर छूने पड़ते हैं. अपने वोट के जरीए महिलाओं ने साबित कर दिया कि वह वर्ण व्यवस्था को बदल लेगी.

वोट लेने के लिए उन महिलाओं के सामने राजनीतिक दलों को झुकना पड़ा. महिलाओं के हित में योजनाएं ले कर आनी पडी. जदयू नेता नीतीश कुमार के बाद मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने महिलाओं पर फोकस कर के योजनाएं बनाई. यह दोनों की नेता वर्णव्यवस्था की समर्थक विचारधारा से जुड़े रहे हैं. जो महिलाओं को उन का अधिकार नहीं देना चाहती थी. उन के लिए महिलाएं शुद्र जैसी थीं. वोट के लिए इन शूद्र समान महिलाओं के आगे झुकना पड़ा. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन ने महिलाओं को प्राथमिकता दी. सरकार ने महिला सशक्तिकरण योजना का विस्तार किया. जिस में महिलाओं की शिक्षा और कौशल विकास के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान किए गए. ‘लाड़की बहिन योजना’ तैयार की. इस योजना के तहत सरकार हर परिवार की महिला मुखिया को प्रतिमाह 1500 रुपए दे रही है. चुनाव के तुरंत पहले सरकार ने रणनीतिक चाल चलते हुए इस रकम को 2500 तक करने का वादा किया. इस का यह प्रभाव हुआ कि महायुति गठबंधन सत्ता में वापस आ गया.

महिलाएं जब इन चुनावों में बढ़ चढ़ कर मतदान करने निकली थीं, उसी समय यह अंदाजा लगने लगा था कि परिणाम क्या होने वाला है ? खासकर ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में बड़ी संख्या में महिलाएं वोट देने निकलीं और चुनाव के नतीजे बताते हैं कि महिलाओं ने महायुति सरकार को जम कर वोट किया. यही वजह रही कि जिन सीटों पर महाविकास अघाड़ी महायुति को कांटे की टक्कर दे रही थी वहां भी महायुति ने महिला वोटरों के दम पर बंपर कामयाबी हासिल की.

प्रत्यक्ष लाभार्थी महिलाओं को केंद्र रख कर बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं में नकद पैसे हस्तांतरण होते हैं. इस से लाभार्थी तत्काल और बिना झंझट के फायदा महसूस करता है. उसे बिचौलियों से मुक्ति मिलती है और वो सशक्त महसूस करता है. इस फायदे के बदले में उसे संबंधित पार्टी को वोट देने में गुरेज नहीं होता है. एक महिला जब समूह में होती है और इन योजनाओं की चर्चा करती है तो दूसरी महिलाएं भी इस से प्रभावित होती हैं. यह योजनाएं सिंगल मदर, विधवाओं और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को तुरंत आकर्षित करती हैं. क्योंकि इस में बिना किसी सरकारी दखल के उन्हें नगद राशि की प्राप्ति होती है. इन योजनाओं को बनाना पार्टियों के लिए जीत का मंत्र हो गया है. इस से महिलाएं परमानेंट वोट बैंक बदल जाती है.

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी नतीजों से एक साफ तस्वीर उभर कर सामने आती है. महिलाएं अब खामोश वोटर नहीं रह गई हैं. महिलाओं को केंद्र में रख कर बनाई गई योजनाएं राजनीतिक दलों के लिए सफलता का मूलमंत्र बन गई है. चुनाव जीतने के लिए इन की मदद के बिना काम नहीं होने वाला है. ऐसे में वर्णव्यवस्था में यकीन करने वाले दल क्या करेंगे ? उन्होंने अयोध्या में राममंदिर की स्थापना के सहारे हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना देखा था उस का क्या होगा ? जिस वर्ण व्यवस्था में महिलाओं को ‘ताड़न के अधिकारी’ बताया गया था उसी की बात करने वाली पार्टी महिलाओं को केंद्र में रख कर योजनाएं बना रही है.

क्या है वर्ण व्यवस्था ?

वर्ण व्यवस्था की शुरूआत वैदिक काल के समय से मानी जाती है. वर्ण व्यवस्था का सब से पहला संदर्भ ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलता है. वर्ण व्यवस्था में समाज को 4 श्रेणियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांटा गया था. प्रत्येक वर्ण को मानदंडो के अनुसार दायित्वों का पालन करना था. 1500 ईसा पूर्व आर्यों के आने के साथ ही भारत में वर्ण व्यवस्था प्रचलन में आ गई. आर्य गोरी चमड़ी वाले लोग थे और अपनी नस्लीय श्रेष्ठता को बनाए रखने के देश के मूल निवासियों, यानी काली चमड़ी वाले लोगों से खुद को अलग किया. यह काली चमड़ी वालों को दास मानते थे.

इस संघर्ष ने दासों को गुलाम बनाने के इरादे से समूह दो भागों में विभाजित कर दिया. ऋग्वैदिक काल में ही समाज का विभाजन हुआ. आर्यों के एक समूह ने खुद को समुदाय से अलग कर लिया और बौद्धिक नेतृत्व के लिए दावा किया. इन लोगों को ‘पुजारी’ कहा गया. एक और समूह ने खुद को अलग कर लिया. इस ने समाज की रक्षा के लिए दावा किया जिसे ‘राजन्या’ कहा गया. इस प्रकार समाज तीन समूहों में विभाजित हो गया. पुजारी, राजन्य और आम लोग.

ऋग्वेद के दसवें मंडल के अनुसार उत्तर वैदिक काल में शूद्र नामक एक नए वर्ण का जन्म हुआ. वहां से वर्ण व्यवस्था में 4 हिस्से हो गए. ब्राह्मणों, क्षत्रिय और वैश्यों को द्विज का दर्जा दिया गया. शूद्रों को द्विज स्थिति के दायरे से बाहर रखा गया था. उन का काम ऊपरी 3 वर्णों की सेवा करना था. अछूतों को वर्ण व्यवस्था का हिस्सा नहीं माना गया था. वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण का स्थान सब से उपर था. आध्यात्मिक व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उन के ऊपर थी. चारों वर्णों के बीच की कड़ी के रूप में काम करते थे. एक ब्राह्मण महिला एक ब्राह्मण पुरुष से शादी कर सकती थी. जबकि उसे अपनी पसंद के पुरुष से शादी करने की पर्याप्त स्वतंत्रता दी गई थी.

वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण के बाद क्षत्रिय दूसरे स्थान था. उन को योद्धा वर्ग माना जाता था. उन का मुख्य कार्य युद्धभूमि में लड़ना था. अन्य तीन वर्णों को किसी भी विदेशी शत्रु से बचाने की जिम्मेदारी उन की थी. एक क्षत्रिय को सभी वर्णों की स्त्री से विवाह करने की अनुमति थी. इस में ब्राह्मण या क्षत्रिय महिला को प्राथमिकता दी जाती थी. एक शूद्र महिला को क्षत्रिय से शादी करने से मना नहीं किया जाता था.

वैश्य वर्ण व्यवस्था के तीसरे स्थान पर थे. इन में व्यापारी, किसान और अन्य पेशेवर शामिल थे. यह लाभदायक व्यावसायिक कामों के साथ ही साथ प्रशासन के साथ मिल कर काम करते थे. इस वर्ण की महिलाओं ने पशुपालन, कृषि और व्यवसाय में अपने पति का समर्थन कर के काम के बोझ को साझा किया. वैश्य महिलाओं को किसी भी वर्ण के पुरुष से शादी करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई थी. शूद्र पुरुष से शादी करने का आमतौर पर प्रयास नहीं किया जाता था.

वर्ण व्यवस्था के सब से निचले चौथे पायदान पर शूद्र थे. इन का मुख्यकार्य अपने से ऊपर वाले तीनों वर्णों की सेवा करना था. इन को किसी भी तरह की पूजा पाठ की अनुमति नहीं थी. वेदपाठ को सुनने की अनुमति भी नहीं थी. कुछ शूद्रों को किसानों और व्यापारियों के रूप में काम करने की अनुमति थी. शूद्र महिलाएं किसी भी वर्ण के पुरुष से विवाह कर सकती थीं. एक शूद्र पुरुष केवल शूद्र वर्ण की महिला से ही विवाह कर सकता था. वर्ण व्यवस्था ने पूरे समाज को बांटने का काम किया.

सब से खराब हालत में थी महिलाएं

वर्ण व्यवस्था में सब से बड़ा प्रभाव औरतों पर पड़ा. इस की आड़ में धर्म व्यवस्था ने औरतों की आजादी को पूरी तरह से छीन लिया. वह किसी भी वर्ण की हो उन को अपनी जिदंगी अपने हिंसा से जीने का अधिकार नहीं था. वह पुरूषवादी सत्ता की गुलाम थी. पति के लिए ही उन की जिदंगी थी. उन को भोग्य की वस्तु समझा जाता था. उन को न तो संपत्ति में कोई अधिकार था न अपनी जिदंगी अपने हिसाब से जीने की. अपनी पसंद से शादी की आजादी तो थी ही नहीं पति के मरने पर दूसरे विवाह की आजादी भी नहीं थी. उन के ऊपर पति के मरने पर सती होने का दबाव भी था. कई परिवारों नवजात लड़कियों की पैदा होते ही हत्या कर दी जाती थी.

तमाम औरतों का दैहिक शोषण होता था. उन को देवदासी बना कर रखा जाता था. औरतों को अपने स्तन ढकने का अधिकार तक नहीं था. केरल के त्रावणकोर में दलित जाति की महिलाओं को ‘मुलक्करम’ नामक टैक्स चुकाना पड़ता था. अगर कोई अधिकारी या ब्राह्मण उन के सामने आता था, तो उन्हें या तो अपनी छाती से वस्त्र हटाने पड़ते थे, या फिर अपनी छाती ढकने के लिए एक टैक्स देना पड़ता था. इस कानून का पालन सार्वजनिक स्थानों पर अनिवार्य था. इस टैक्स को बहुत कठोरता से वसूला जाता था. व्यापक विरोध के कारण और अंग्रेजों के दबाव में इस कानून को समाप्त करना पड़ा था.

त्रावणकोर राज्य में निचली जाति की महिलाओं पर अत्याचार की हदें पार कर दी गई थीं. इन महिलाओं को अपनी छाती ढकने के लिए एक कर देना पड़ता था और यह कर महिलाओं के स्तन के आकार के आधार पर तय किया जाता था. यह त्रावणकोर के राजा के आदेश पर लागू किया गया था. इस टैक्स का विरोध करने वाली महिलाओं को अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं.

नांगेली नाम की एक दलित महिला ने इस अत्याचार का विरोध किया तो उसे मौत के घाट उतार दिया गया. उस के स्तनों को काट देने की क्रूरता ने पूरे समाज को हिलाकर रख दिया था.  अंगरेजी शासन के दबाव में त्रावणकोर को यह क्रूर कानून रद्द करना पड़ा था. दीवान जर्मनी दास ने अपनी किताब ‘महारानी’ में लिखा है कि त्रावणकोर के शासनकाल में केरल के एक हिस्से में रहने वाली महिलाओं को अपने पहनावे के बारे में कड़े नियमों का पालन करना पड़ता था. यह नियम इतने सख्त थे कि किसी के कपड़ों को देख कर उस की जाति का अंदाजा लगाया जा सकता था. अंगरेज गवर्नर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने 1859 में इसे खत्म करने का आदेश दिया. नाडार महिलाओं ने उच्च वर्ग की तरह कपड़े पहन कर इस का विरोध किया. आखिरकार, 1865 में सभी को ऊपरी वस्त्र पहनने की आजादी मिली.

‘देवदासी’ प्रथा भी वर्णव्यवस्था और धर्म आस्था से जुड़ा हुआ है. इस के जरीए दक्षिण भारत में महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला गया. सामाजिक पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हुई. देवदासी प्रथा के अंतर्गत कोई भी महिला धार्मिक स्थल में खुद को समर्पित कर के देवताओं की सेवा करती थीं. देवताओं को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं.

इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ धर्म स्थल के पुजारियों ने यह कह कर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इस से उन के और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है. धीरेधीरे यह उन का अधिकार बन गया, जिस को सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई. उस के बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया. जब राजाओं को लगा इतनी संख्या में देवदासियों का पालन पोशण करना उन के वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गईं.

कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है. देवदासी प्रथा को ले कर कई गैर सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज कराते रहते हैं. देवदासी ऐसी महिलाओं को कहते हैं, जिन का विवाह मंदिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है. देवदासियां वैसे तो ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हें पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है. अंगरेजों के काल में समाज सुधारकों ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की तो इस का विरोध हुआ था. दक्षिण भारत की ही तरह से उत्तर भारत में महिलाओं के प्रति सोच अच्छी नहीं थी. प्रमुख पौराणिक ग्रंथ रामचरित मानस में तुलसीदास ने महिलाओं को ले कर कई बार गलत टिप्पणियां की है. इन में सब से चर्चित ‘ढोल गंवार, शुद्र, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ है. जिस में नारी को पशु और शुद्र के समान माना है. रामचरितमानस के एक दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने रावण व मंदोदरी के संवाद को माध्यम बना कर महिलाओं पर टिप्पणी करते उन के स्वभाव में शामिल अवगुणों के बारे में लिखा है.

‘नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं,
अवगुन आठ सदा उर रहहीं.
साहस अनृत चपलता माया,
भय अबिबेक असौच अदाया.

इस का अर्थ है कि ‘स्त्रियां बहुत साहसी होती हैं इसलिए वह बहुत बार ऐसे काम कर जाती हैं जिस से बाद में उन्हें और उन के परिवार को पछताना पड़ता है. वह यह बात भली भांति नहीं जानती कि कब और कैसे अपने साहस का प्रयोग करें. साहस दुरूसाहस में परिवर्तित हो जाए तो वह नुकसानदायक होता है. स्त्रियों में झूठ बोलने की प्रवृति आम होती है. जिस से उन्हें बहुत बार मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं. स्त्रियां चुलबुले स्वभाव की होती हैं. उन के विचारों में समय के साथ परिवर्तन होता रहता है वह कभी एक धारा पर टिक नहीं पाती इसलिए वह बहुत बार सही निर्णय लेने में असमर्थ होती हैं.

रावण मंदोदरी को कहता है स्त्रियां माया रचने में माहिर होती हैं. इस कला में पुरूष उन्हें कभी परास्त नहीं कर सकते. वह अपनी मायावी दुनियां में पुरुष को बांध कर उन से मनचाहे काम करवा सकती हैं. जैसे आज तूने राम का डर बताते हुए मुझे सीता को वापिस करने के लिए बाध्य करना चाहा. स्त्रियों का बाहरी आवरण बहुत पराक्रमी होता है लेकिन भीतर से वह बहुत डरपोक होती हैं इसलिए बहुत बार वह बनते काम भी बिगाड़ देती हैं. कुछ परिस्थितियों में स्त्रियां स्वयं को सिद्ध करने के लिए ऐसे मूढ़ता वाले काम कर जाती हैं जिस से भविष्य में उन्हें पछताना पड़ता है. यदि स्त्रियां प्रचंड हो जाएं तो वह कभी भी कोमलता नहीं दिखातीं. रावण के अनुसार स्त्रियों में 8वीं कमी होती है कि उन में साफसफाई का अभाव होता है.

बदले हुए हैं जमीनी आधार:

रामचरित मानस के जरीए रामराज्य और राममंदिर बनाने में लगी भाजपा अब महिलाओं के प्रति अपने विचार बदलने में लग गई है. आज सरकार लाड़ली बहन और मुफ्त राशन योजनाओ में महिलाओं को सामने रखा गया है. मुफ्त राशन की व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था के भेदभाव को खत्म कर दिया है. राशन पाने के लिए जो कार्ड बनता है उस में परिवार की मुखिया के रूप में महिला का नाम दर्ज होता है. यानि अब परिवार के प्रमुख के रूप में महिला का नाम दर्ज होता है. जिन को तुलसीदास ने ‘ताड़ना का अधिकारी’ कहा था वह आज परिवार की प्रमुख है.

मोहनलालगंज के गांव नन्दौली में राशन की दुकान केवला देवी चलाती है. जो महिला है. राशन तौलने और हिसाब किताब रखने के लिए एक लड़के को साथ रखा है. जब राशन आ जाता है गांव के लोगों को खबर हो जाती है. वह लोग सुबह से ही दुकान पर आ जाते हैं. इन में 80 फीसदी महिलाएं होती हैं. राशन लेने के लिए औनलाइन फिंगर प्रिंट की व्यवस्था है. राशन लेने वाले सभी बिना भेदभाव के साथ जमीन पर बैठे थे. किसी के बैठने की कोई अलग व्यवस्था नहीं होती है. राशन लेने वाली महिला को फिंगर प्रिंट मशीन पर अपना अंगूठा लगाना पड़ता है. अंगूठा लगाने के बाद ही राशन मिलता है.

दलित महिला के बाद ही सवर्ण महिला को भी बिना गंगा जल से धोए फिंगर प्रिंट पर अंगूठा लगाना पड़ता है. फिंगर प्रिंट मशीन को धोया भी नहीं जा सकता है. इस के खराब होने का चांस रहता है. यह केवल गांव का ही हाल नहीं है. लखनऊ के हुसैनगंज स्थित राममंदिर के पास कृपाषंकर की राशन की दुकान है. यहां भी राशन लेने वाली महिलाएं लाइन में खड़ी होती है. यह भी पहले फिंगर प्रिंट में अंगूठा लगाती है फिर राशन लेती है. रोशन की एक ही लाइन होती है. महिला पुरुष या जातिधर्म के नाम पर कोई अलग लाइन नहीं होती है.

लाड़ली बहना जैसे योजनाएं केवल महिलाओं को सामने रख कर तैयार किया गया है. जिस का कारण यह है कि उन को सरकारी लाभ दिया जा सके. बदले में उन से वोट लिया जा सके. हिंदू राष्ट्र के पैरोकार जिस तरह रामराज स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं उस में महिलाओं को हाशिए पर रखा जाता है. धर्म के नाम पर महिलाओं का शोषण किया जाता है. उन को पीली साड़ी पहना कर नंगे पैर कलश यात्रा निकालने के लिए उकसाया जाता है.

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कलश यात्रा कारगर नहीं हुई. इस के लिए लाड़ली बहना योजना चलानी पड़ी. महिलाओं ने वोट व्यवस्था के जरीए वर्ण व्यवस्था को पूरी तरह से पीछे धकेल दिया है. जिस वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हिंदू राष्ट्र बनाया जा रहा था अब उस का क्या होगा ? वर्ण व्यवस्था में शुद्र और पशु की श्रेणी के खड़ी महिला के बिना चुनाव नहीं जीते जा सकते. ऐसे में उस को खुश करने के लिए मुफ्त राशन, लाड़ली बहना योजना और रक्षा बंधन पर मुफ्त बस का सफर जैसे काम करने पड़ रहे हैं.

आने वाले समय में जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव है वहां भी महिलाओं को केन्द्र में रख कर चुनावी योजनाएं बनानी पड़ेगी. महिलाओं ने वर्ण व्यवस्था को पूरी तरह से नकार दिया है. अब देखना है कि बिना वर्णव्यवस्था के हिंदू राष्ट्र कैसे बन सकेगा और उस का औचित्य क्या रह गया है ?

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