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Funny Story : बुड्ढे आशिक को सबक

मानसी अभी कालेज से लौट कर होस्टल पहुंची ही थी कि उस के डीन मिस्टर प्रसाद का फोन आ गया. वह बैग पटक कर मोबाइल अटैंड करने लगी. प्रसाद मानसी के पीएचडी गाइड थे और वे चाहते थे कि मानसी उन के साथ बाहर जाने के लिए तैयार हो जाए, उन्हें तुरंत बाहर जाना है.

मानसी को समझ नहीं आया कि क्या कहे? हां कहे तो मुश्किल और ना कर दे तो और भी मुसीबत. तभी उसे अपने बचपन के साथी शिशिर का बहाने बनाने का फार्मूला याद आया.

उस ने कराहते हुए कहा, ‘‘सर, मैं तो एक कदम भी चल नहीं पा रही हूं.’’

प्रसाद भी बड़े घाघ थे, बोले, ‘‘अभी तो यहां से अच्छीभली निकली हो, अब क्या हो गया?’’

‘‘ओह,’’ मानसी आवाज में दर्द भर कर बोली, ‘‘सर, अभी यहां बस से उतरते समय मेरा पांव मुड़ गया जिस से मोच आ गई,’’ कहते हुए मानसी ने एक और कराह भरी.

अब प्रसादजी परेशान हो उठे. प्रसाद थे तो 52-55 की उम्र के बीच, पर अपनी ही स्टूडैंट स्कौलर छात्रा मानसी पर ऐसे लट्टू हुए रहते कि सारे कालेज में उन्हें ‘बुड्ढा आशिक’ के नाम से जाना जाता.

वे मानसी को डांटते हुए बोले, ‘‘क्या मानसी, तुम ढंग से नहीं चल सकती, अभी आता हूं तुम्हें देखने.’’

प्रसाद की बात सुन मानसी और परेशान हो उठी. फिर वह कराहते हुए बोली, ‘‘वह मेरा दोस्त शिशिर आ रहा है, वह दवा दे देगा. आप चिंता न करें मैं ठीक हो जाऊंगी.’’

बेचारे प्रसाद सर ने बाहर जाने का अपना प्रोग्राम ही कैंसिल कर दिया. वे मानसी के बिना नहीं जाना चाहते थे. उन का हाल तो कुछ ऐसा था कि एक मिनट भी मानसी के बिना न रहें.

मानसी थी तो उन की एक रिसर्च स्कौलर छात्रा, किंतु उस के विरह में जैसे वे हलकान होते थे, यह देख कर उन के साथी तो क्या उन के स्टूडैंट भी परेशान हो जाते थे और कई बार उन्हें चिढ़ा कर कहते, ‘‘सर, मानसीजी तो कैंटीन में खा रही हैं.’’

इस पर वे बड़े परेशान हो जाते और फोन कर मानसी से कहते, ‘‘अरे मानसी, कैंटीन का खाना खा कर तुम बीमार हो जाओगी. आओ तो, यहां मेरे कैबिन में देखो, मनोरमा ने क्या लजीज खाना बना कर भेजा है.’’

इस पर मानसी की सारी सहेलियां उस की हंसी उड़ाती और कहतीं, ‘‘जा, तेरा बुड्ढा आशिक तुझे बुला रहा है.’’

मानसी भी कम नहीं थी, वह कहती, ’’कम से कम आशिक तो है, तुम्हारे तो वे भी नहीं हैं.’’

मानसी ने अपने कक्ष में बैड पर लेट कर कुछ देर रैस्ट किया, फिर फोन पर शिशिर का नंबर मिला कर बतियाने लगी, ’’अरे, कंपाउंडर साहब, कैसे हो,’’ शिशिर कोई कंपाउंडर नहीं था, वह तो अपने पिता का तेल का बिजनैस संभालता था. उस के पिता तेल के व्यापारी थे और उन का यह व्यवसाय पीढि़यों से चल रहा था. मानसी व शिशिर के घरमहल्ले थोड़ी दूरी पर ही थे. शिशिर उस के साथ ही कालेज तक पढ़ता रहा था. एमए के दौरान शिशिर के पिता के बीमार होने पर उसे पूरा बिजनैस संभालना पड़ा था. तब मानसी ही उस की मदद कर के एमए की परीक्षा जैसेतैसे दिलवा सकी. फिर वह आगे न पढ़ सका. मानसी ने पीएचडी की पढ़ाई जारी रखी. इस तरह वे थोड़े दूर तो हो गए, पर मोबाइल पर दोनों के बीच बातचीत होती रहती थी. यहां तक कि मानसी के घर पर कोई काम हो तो शिशिर ही कर जाता.

मानसी के पिता नहीं रहे थे. उस की बहन वैशाली ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था, वह अपना बुटीक चलाती थी. वह मानसी से बड़ी थी.

मानसी को प्रसाद प्यार से मनु कहते. उन्हें लगता मनु ही उन की सच्ची संगिनी हो सकती है. उस समय वह भूल जाते कि उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, घरबार है. वे मानसी के पीएचडी के काम में जरा भी रुचि नहीं लेते थे. इस से मानसी को भीतर ही भीतर गुस्सा आता.

प्रसाद की पत्नी मनोरमा अपनी नई बहू व नाती में इतनी व्यस्त रहती कि उस बेचारी को पता ही नहीं था कि इधर उस के पति क्या रंगरलियां मना रहे हैं.

अगले दिन मानसी कालेज पहुंची, तो ठीकठाक थी, किंतु जैसे ही वह प्रसाद के कैबिन के सामने पहुंची, लंगड़ाने लगी. प्रसाद लपकते हुए बाहर आए और बोले, ’’अरे मानसी, संभल कर.’’

मानसी तो शर्म से पानीपानी हो गई. उस की सारी सहेलियां भी यह देख कर हंस कर लोटपोट हो रही थीं. वे बोलीं, ’’यह क्या मनु? लग रहा था, प्रसाद अभी तुम्हें गोद में उठा कर सीधे अपने कैबिन में ही ले जाएंगे.’’

मानसी ने किताबें समेटीं व लाइब्रेरी में जा बैठी. तभी प्रसाद भी वहां आ गए और पूछने लगे, ’’कल क्यों नहीं आई? कितना मजा आता, केरल का ट्रिप था?’’

मानसी को लगा, साफसाफ कह दे कि आप अपनी श्रीमतीजी को क्यों नहीं ले जाते? पर चुप रही, उसे पीएचडी भी तो पूरी करनी है.

प्रसाद को टरका कर उस ने शिशिर को फोन मिलाया, ’’अरे, कंपाउंडर…’’ फिर शुरू हो गई दोनों की बातचीत. शिशिर को वह कंपाउंडर इसलिए कहती थी कि खुद पीएचडी कर के डाक्टर हो जाएगी.

अभी उस ने कुछ लिखा ही था कि फिर प्रसाद आ गए और शुरू हो गई वही उन की बकवास, ’’आप कितनी खूबसूरत हैं, आप पर तो सब फिदा होते होंगे?’’

इधर मानसी की सहेलियां चुपके से सुनतीं और कहतीं, ’’तेरा बुड्ढा आशिक बेचारा…’’

इन बातों से मानसी का दिमाग गरम हो जाता, लेकिन वह क्या करे? पीएचडी तो उसे करनी ही है. फिर लैक्चररशिप… फिर मजे ही मजे. पर इस बुड्ढे आशिक से कैसे पीछा छुड़ाए? वह बेचारी मन मसोस कर रह जाती.

एक दिन तो गजब हो गया. सारी सहेलियों के साथ वह फिल्म देखने गई थी. वहां सभी ऐंजौय कर रही थीं कि जाने कहां से प्रसाद टपक पड़े,’’अरे, अब क्या करें.’’ सारी सहेलियां एकदम चीखीं.

’मुझे इस बला से पिंड छुड़ाना ही होगा,’ एक दिन मानसी सोचने लगी, लेकिन ऐसे कि लाठी भी न टूटे और सांप भी मर जाए.

अब तो हद ही हो गई थी, रोज कालेज से होस्टल पहुंचते ही उस के मोबाइल पर प्रसाद का मैसेज आ जाता, ’शाम को कहीं चलते हैं, वहीं डिनर करेंगे.’ अति होने पर मानसी ने सोच लिया कि कुछ तो करना ही पड़ेगा. रोज कहां तक बहाने बनाए. अत: उस ने शिशिर को फोन किया, ’’कंपाउंडर साहब, कल तैयार रहना…’’ और उसे अपनी सारी योजना भी बताई. वह पीली साड़ी और गले में मंगलसूत्र डाले शिशिर की स्कूटी से कालेज पहुंची और सीधे प्रसाद के कैबिन में विनम्रता से दाखिल हुई, ’’मे आई कम इन सर,’’ कुछ ऐसा ही मुंह से निकला मानसी के.

’’ओह… ’’प्रसाद ने सिर उठाया, वे पेपर पढ़ रहे थे. देख कर गिरतेगिरते बचे. ’’कम इन… कम इन…’’ वे बोले.

’’सर, ये मेरे मंगेतर शिशिर, अब मेरे जीवनसाथी बन गए हैं. हम दोनों ने शादी कर ली है. सर, आशीर्वाद दीजिए न.’’ मानसी ने हाथ जोड़ कर कहा.

प्रसाद की तो भृकुटी तन गई. उसे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वे मानसी से क्या कहें.

’’तुम… हांहां ठीक है, ठीक है, जाओ.’’ मानसी पर उन्हें गुस्सा आ रहा था.

मानसी बोली, ’’सर, डिनर…’’

प्रसाद बोले, ’’नहीं. आज मनोरमा को क्लीनिक ले कर जाना है.

मानसी बोली,’’बधाई हो सर.’’

प्रसाद को जैसे काटो तो खून नहीं.

मानसी बाहर आ गई. शिशिर को मंगलसूत्र उतार कर देते हुए बोली, ’’इसे संभाल कर रखना. फिर काम आएगा.’’

उस की सारी सहेलियां भी उस के इस नाटक से हैरान थीं. वे बोलीं, ’’तेरा जवाब नहीं मानसी, तूने सही तरीका ढूंढ़ा उस बुड्ढे आशिक से पीछा छुड़ाने का. अब शायद ही कभी वह ऐसी हरकतें करे.’’

मानसी बोली, ’’हम ऐसे ही डाक्टरथोड़े हैं,’’ और कैंपस में ठहाके गूंजने लगे.

Beautiful Story : मेरी बहू पुरवई

‘‘सुनिए, पुरवई का फोन है. आप से बात करेगी,’’ मैं बैठक में फोन ले कर पहुंच गईथी.

‘‘हां हां, लाओ फोन दो. हां, पुरू बेटी, कैसी हो तुम्हें एक मजेदार बात बतानी थी. कल खाना बनाने वाली बाई नहीं आईथी तो मैं ने वही चक्करदार जलेबी वाली रेसिपी ट्राई की. खूब मजेदार बनी. और बताओ, दीपक कैसा है हां, तुम्हारी मम्मा अब बिलकुल ठीक हैं. अच्छा, बाय.’’

‘‘बिटिया का फोन लगता है’’ आगंतुक ने उत्सुकता जताई.

‘‘जी…वह हमारी बहू है…बापबेटी का सा रिश्ता बन गया है ससुर और बहू के बीच. पिछले सप्ताह ये लखनऊ एक सेमीनार में गएथे. मेरे लिए तो बस एक साड़ी लाए और पुरवई के लिए कुरता, टौप्स, ब्रेसलेट और न जाने क्याक्या उठा लाए थे. मुझ बेचारी ने तो मन को समझाबुझा कर पूरी जिंदगी निकाल ली थी कि इन के कोई बहनबेटी नहीं है तो ये बेचारे लड़कियों की चीजें लाना क्या जानें और अब देखिए कि बहू के लिए…’’

‘‘आप को तो बहुत ईर्ष्या होती होगी  यह सब देख कर’’ अतिथि महिला ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘अब उस नारीसुलभ ईर्ष्या वाली उम्र ही नहीं रही. फिर अपनी ही बेटी सेक्या ईर्ष्या रखना अब तो मन को यह सोच कर बहुत सुकून मिलता है कि चलो वक्त रहते इन्होंने खुद को समय के मुताबिक ढाल लिया. वरना पहले तो मैं यही सोचसोच कर चिंता से मरी जाती थी कि ‘मैं’ के फोबिया में कैद इस इंसान का मेरे बाद क्या होगा’’

आगंतुक महिला मेरा चेहरा देखती ही रह गई थीं. पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई. हां, मन जरूर कुछ महीने पहले की यादों मेंभटकने पर मजबूर हो गया था.  बेटा दीपक और बहू पुरवई सप्ताह भर का हनीमून मना कर लौटेथे और अगले दिन ही मुंबई अपने कार्यस्थल लौटने वाले थे. मैं बहू की विदाई की तैयारी कर रही थी कि तभी दीपक की कंपनी से फोन आ गया. उसे 4 दिनों के लिए प्रशिक्षण हेतु बेंगलुरु जाना था. ‘तो पुरवई को भी साथ ले जा’ मैं ने सुझाव रखा था.

‘मैं तो पूरे दिन प्रशिक्षण में व्यस्त रहूंगा. पुरू बोर हो जाएगी. पुरू, तुम अपने पापामम्मी के पास हो आओ. फिर सीधे मुंबई पहुंच जाना. मैं भी सीधा ही आऊंगा. अब और छुट्टी नहीं मिलेगी.’  ‘तुम रवाना हो, मैं अपना मैनेज कर लूंगी.’

दीपक चला गया. अब हम पुरवई के कार्यक्रम का इंतजार करने लगे. लेकिन यह जान कर हम दोनों ही चौंक पड़े कि पुरवई कहीं नहीं जा रहीथी. उस का 4 दिन बाद यहीं से मुंबई की फ्लाइट पकड़ने का कार्यक्रम था. ‘2 दिन तो आनेजाने में ही निकल जाएंगे. फिर इतने सालों से उन के साथ ही तो रह रही हूं. अब कुछ दिन आप के साथ रहूंगी. पूरा शहर भी देख लूंगी,’ बहू के मुंह से सुन कर मुझे अच्छा लगा था.

‘सुनिए, बहू जब तक यहां है, आप जरा शाम को जल्दी आ जाएं तो अच्छा लगेगा.’

‘इस में अच्छा लगने वाली क्या बात है मैं दोस्तों के संग मौजमस्ती करने या जुआ खेलने के लिए तो नहीं रुकता हूं. कालेज मेंढेर सारा काम होता है, इसलिए रुकता हूं.’

‘जानती हूं. पर अगर बहू शाम को शहर घूमने जाना चाहे तो’

‘कार घर पर ही है. उसे ड्राइविंग आती है. तुम दोनों जहां जाना चाहो चले जाना. चाबी पड़ोस में दे जाना.’

मनोहर भले ही मना कर गए थे लेकिन उन्हें शाम ठीक वक्त पर आया देख कर मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा.  ‘चलिए, बहू को कहीं घुमा लाते हैं. कहां चलना चाहोगी बेटी’ मैं ने पुरवई से पूछा.

‘मुझे तो इस शहर का कोई आइडिया नहीं है मम्मा. बाहर निकलते हैं, फिर देख लेंगे.’

घर से कुछ दूर निकलते ही एक मेला सा लगा देख पुरवई उस के बारे में पूछ बैठी, ‘यहां चहलपहल कैसी है’

‘यह दीवाली मेला है,’ मैं ने बताया.

‘तो चलिए, वहीं चलते हैं. बरसों से मैं ने कोई मेला नहीं देखा.’

मेले में पहुंचते ही पुरवई बच्ची की तरह किलक उठी थी, ‘ममा, पापा, मुझे बलून पर निशाना लगाना है. उधर चलते हैं न’ हम दोनों का हाथ पकड़ कर वह हमें उधर घसीट ले गई थी. मैं तो अवाक् उसे देखती रह गईथी. उस का हमारे संग व्यवहार एकदम बेतकल्लुफ था. सरल था, मानो वह अपने मम्मीपापा के संग हो. मुझे तो अच्छा लग रहाथा. लेकिन मन ही मन मैं मनोहर से भय खा रही थी कि वे कहीं उस मासूम को झिड़क न दें. उन की सख्तमिजाज प्रोफैसर वाली छवि कालेज में ही नहीं घर पर भी बनी हुईथी.

पुरवई को देख कर लग रहा था मानो वह ऐसे किसी कठोर अनुशासन की छांव से कभी गुजरी ही न हो. या गुजरी भी हो तो अपने नाम के अनुरूप उसे एक झोंके से उड़ा देने की क्षमता रखती हो. बेहद स्वच्छंद और आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी खुशमिजाज उन्मुक्त पुरवई का अपने घर में आगमन मुझेठंडी हवा के झोंके सा एहसास करा रहा था. पलपल सिहरन का एहसास महसूस करते हुए भी मैं इस ठंडे उन्मुक्त एहसास कोभरपूर जी लेना चाह रही थी.

पुरवई की ‘वो लगा’ की पुकार के साथ उन्मुक्त हंसी गूंजी तो मैं एकबारगी फिर सिहर उठी थी. हड़बड़ा कर मैं ने मनोहर की ओर दृष्टि दौड़ाई तो चौंक उठी थी. वे हाथ में बंदूक थामे, एक आंख बंद कर गुब्बारों पर निशाने पर निशाना लगाए जा रहे थे और पुरवई उछलउछल कर ताली बजाते हुए उन का उत्साहवर्द्धन कर रही थी. फिर यह क्रम बदल गया. अब पुरवई निशाना साधने लगी और मनोहर ताली बजा कर उस का उत्साहवर्द्धन करने लगे. मुझे हैरत से निहारते देख वे बोल उठे, ‘अच्छा खेल रही है न पुरवई’

बस, उसी क्षण से मैं ने भी पुरवई को बहू कहना छोड़ दिया. रिश्तों की जिस मर्यादा को जबरन ढोए जा रही थी, उस बोझ को परे धकेल एकदम हलके हो जाने का एहसास हुआ. फिर तो हम ने जम कर मेले का लुत्फ उठाया. कभी चाट का दोना तो कभी फालूदा, कभी चकरी तो कभी झूला. ऐसा लग रहा था मानो एक नई ही दुनिया में आ गए हैं. बर्फ का गोला चाटते मनोहर को मैं ने टहोका मारा, ‘अभी आप को कोई स्टूडेंट या साथी प्राध्यापक देख ले तो’

मनोहर कुछ जवाब देते इस से पूर्व पुरवई बोल पड़ी, ‘तो हम कोई गलत काम थोड़े ही कर रहे हैं. वैसे भी इंसान को दूसरों के कहने की परवा कम ही करनी चाहिए. जो खुद को अच्छा लगे वही करना चाहिए. यहां तक कि मैं तो कभी अपने दिल और दिमाग में संघर्ष हो जाता है तो भी अपने दिल की बात को ज्यादा तवज्जुह देती हूं. छोटी सी तो जिंदगी मिली है हमें, उसे भी दूसरों के हिसाब से जीएंगे तो अपने मन की कब करेंगे’

हम दोनों उसे हैरानी से ताकते रह गए थे. कितनी सीधी सी फिलौसफी है एक सरस जिंदगी जीने की. और हम हैं कि अनेक दांवपेंचों में उसे उलझा कर एकदम नीरस बना डालते हैं. पहला दिन वाकई बड़ी मस्ती में गुजरा. दूसरे दिन हम ने उन की शादी की फिल्म देखने की सोची. 2 बार देख लेने के बावजूद हम दोनों का क्रेज कम नहीं हो रहा था. लेकिन पुरवई सुनते ही बिदक गई. ‘बोर हो गई मैं तो अपनी शादी की फिल्म देखतेदेखते… आज आप की शादी की फिल्म देखते हैं.’

‘हमारी शादी की पर बेटी, वह तो कैसेट में है जो इस में चलती नहीं है,’ मैं ने समस्या रखी.

‘लाइए, मुझे दीजिए,’ पुरवई कैसेट ले कर चली गई और कुछ ही देर में उस की सीडी बनवा कर ले आई. उस के बाद जितने मजे ले कर उस ने हमारी शादी की फिल्म देखी उतने मजे से तो अपनी शादी की फिल्म भी नहीं देखीथी. हर रस्म पर उस के मजेदार कमेंट हाजिर थे.

‘आप को भी ये सब पापड़ बेलने पड़े थे…ओह, हम कब बदलेंगे…वाऊ पापा, आप कितने स्लिम और हैंडसम थे… ममा, आप कितना शरमा रही थीं.’

सच कहूं तो फिल्म से ज्यादा हम ने उस की कमेंटरी को एंजौय किया, क्योंकि उस में कहीं कोई बनावटीपन नहीं था. ऐसा लग रहा था कमेंट उस की जबां से नहीं दिल से उछलउछल कर आ रहे थे. अगले दिन मूवी, फिर उस के अगले दिन बिग बाजार. वक्त कैसे गुजर रहा था, पता ही नहीं चल रहाथा.  अगले दिन पुरवई की फ्लाइट थी. दीपक मुंबई पहुंच चुका था. रात को बिस्तर पर लेटी तो आंखें बंद करने का मन नहीं हो रहा था,क्योंकि जागती आंखों से दिख रहा सपना ज्यादा हसीन लग रहा था. आंखें बंद कर लीं और यह सपना चला गया तो पास लेटे मनोहर भी शायद यही सोच रहे थे. तभी तो उन्होंने मेरी ओर करवट बदली और बोले, ‘कल पुरवई चली जाएगी. घर कितना सूना लगेगा 4 दिनों में ही उस ने घर में कैसी रौनक ला दी है मैं खुद अपने अंदर बहुत बदलाव महसूस कर रहा हूं्…जानती हो तनु, बचपन में  मैं ने घर में बाबूजी का कड़ा अनुशासन देखा है. जब वे जोर से बोलने लगते थे तो हम भाइयों के हाथपांव थरथराने  लगते थे.

‘बड़े हुए, शादी हुई, बच्चे हो जाने के बाद तक मेरे दिलोदिमाग पर उन का अनुशासन हावी रहा. जब उन का देहांत हुआ तो मुझे लगा अब मैं कैसे जीऊंगा क्योंकि मुझे हर काम उन से पूछ कर करने की आदत हो गईथी. मुझे पता ही नहीं चला इस दरम्यान कब उन का गुस्सा, उन की सख्ती मेरे अंदर समाविष्ट होते चले गए थे. मैं धीरेधीरे दूसरा बाबूजी बनता चला गया. जिस तरह मेरे बचपन के शौक निशानेबाजी, मूवी देखना आदि दम तोड़ते चले गए थे ठीक वैसे ही मैं ने दीपक के, तुम्हारे सब के शौक कुचलने का प्रयास किया. मुझे इस से एक अजीब आत्म- संतुष्टि सी मिलती थी. तुम चाहो तो इसे एक मानसिक बीमारी कह सकती हो. पर समस्या बीमारी की नहीं उस के समाधान की है.

‘पुरवई ने जितनी नरमाई से मेरे अंदर के सोए हुए शौक जगाए हैं और जितने प्यार से मेरे अंदर के तानाशाह को घुटने टेकने पर मजबूर किया है, मैं उस का एहसानमंद हो गया हूं. मैं ‘मैं’ के फोबिया से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस ले पा रहा हूं. सच तो यह है तनु, बंदिशें मैं ने सिर्फ दीपक और तुम पर ही नहीं लगाईथीं, खुद को भी वर्जनाओं की जंजीरों में जकड़ रखा था. पुरवई से भले ही यह सब अनजाने में हुआ हैक्योंकि उस ने मेरा पुराना रूप तो देखा ही नहीं है, लेकिन मैं अपने इस नए रूप से बेहद प्यार करने लगा हूं और तुम्हारी आंखों मेंभी यह प्यार स्पष्ट देख सकता हूं.’

‘मैं तो आप से हमेशा से ही प्यार करती आ रही हूं,’ मैं ने टोका.

‘वह रिश्तों की मर्यादा में बंधा प्यार था जो अकसर हर पतिपत्नी में देखने को मिल जाता है. लेकिन इन दिनों मैं तुम्हारी आंखों में जो प्यार देख रहा हूं, वह प्रेमीप्रेमिका वाला प्यार है, जिस का नशा अलग ही है.’

‘अच्छा, अब सो जाइए. सवेरे पुरवई को रवाना करना है.’

मैं ने मनोहर को तो सुला दिया लेकिन खुद सोने सेडरने लगी. जागती आंखों से देख रही इस सपने को तो मेरी आंखें कभी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहेंगी. शायद मेरी आंखों में अभी कुछ और सपने सजने बाकी थे.  पुरवई को विदा करने के चक्कर में मैं  हर काम जल्दीजल्दी निबटा रही थी. भागतेदौड़ते नहाने घुसी तो पांव फिसल गया और मैं चारोंखाने चित जमीन पर गिर गई. पांव में फ्रैक्चर हो गया था. मनोहर और पुरवई मुझे ले कर अस्पताल दौड़े. पांव में पक्का प्लास्टर चढ़ गया. पुरवई कीफ्लाइट का वक्त हो गया था. मगर  वह मुझे इस हाल में छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हो रही थी. उस ने दीपक को फोन कर के सब स्थिति बता दी. साथ ही अपनी टिकट भी कैंसल करवा दी. मुझे बहुत दुख हो रहा था.

‘मेरी वजह से सब चौपट हो गया. अब दोबारा टिकट बुक करानी होगी. दीपक अलग परेशान होगा. डाक्टर, दवा आदि पर भी कितना खर्च हो गया. सब मेरी जरा सी लापरवाही की वजह से…घर बैठे मुसीबत बुला ली मैं ने…’

‘आप अपनेआप को क्यों कोस रही हैं ममा यह तो शुक्र है जरा से प्लास्टर से ही आप ठीक हो जाएंगी. और कुछ हो जाता तो रही बात खर्चे की तो यदि ऐसे वक्त पर भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो फिर वह किस काम का यदि आप के इलाज में कोई कमी रह जाती, जिस का फल आप को जिंदगी भर भुगतना पड़ता तो यह पैसा क्या काम आता हाथपांव सलामत हैं तो इतना पैसा तो हम चुटकियों में कमा लेंगे.’

उस की बातों से मेरा मन वाकई बहुत हल्का हो गया. पीढि़यों की सोच का टकराव मैं कदमकदम पर महसूस कर रही थी. नई पीढ़ी लोगों के कहने की परवा नहीं करती. अपने दिल की आवाज सुनना पसंद करती है. पैसा खर्च करते वक्त वह हम जैसा आगापीछा नहीं सोचती क्योंकि वह इतना कमाती है कि खर्च करना अपना हक समझती है.  घर की बागडोर दो जोड़ी अनाड़ी हाथों में आ गईथी. मनोहर कोघर के कामों का कोई खास अनुभव नहीं था. इमरजेंसी में परांठा, खिचड़ी आदि बना लेतेथे. उधर पुरवई भी पहले पढ़ाई और फिर नौकरी में लग जाने के कारण ज्यादा कुछ नहीं जानती थी. पर इधर 4 दिन मेरे साथ रसोई में लगने से दाल, शक्कर के डब्बे तो पता चले ही थे साथ ही सब्जी, पुलाव आदि में भी थोड़ेथोड़े हाथ चलने लग गए थे. वरना रसोई की उस की दुनिया भी मैगी, पास्ता और कौफी तक ही सीमित थी. मुझ से पूछपूछ कर दोनों ने 2 दिन पेट भरने लायक पका ही लिया था. तीसरे दिन खाना बनाने वाली बाई का इंतजाम हो गया तो सब ने राहत की सांस ली. लेकिन इन 2 दिनों में ही दोनों ने रसोई को अच्छीखासी प्रयोगशाला बना डालाथा. अब जबतब फोन पर उन प्रयोगों को याद कर हंसी से दोहरे होते रहते हैं.

तीसरे दिन दीपक भी आ गया था. 2 दिन और रुक कर वे दोनों चले गए थे. उन की विदाई का दृश्य याद कर के आंखें अब भी छलक उठती हैं. दीपक तो पहले पढ़ाई करते हुए और फिर नौकरी लग जाने पर अकसर आताजाता रहता है पर विदाई के दर्द की जो तीव्र लहर हम उस वक्त महसूस कर रहे थे, वह पिछले सब अनुभवों से जुदा थी. ऐसा लग रहा था बेटी विदा हो कर, बाबुल की दहलीज लांघ कर दूर देश जा रही है. पुरवई की जबां पर यह बात आ भी गई थी, ‘जुदाई के ऐसे मीठे से दर्द की कसक एक बार तब उठी थी जब कुछ दिन पूर्व मायके से विदा हुई थी. तब एहसास भी नहीं था कि इतने कम अंतराल में ऐसा मीठा दर्द दोबारा सहना पड़ जाएगा.’

पहली बार मुझे पीढि़यों की सोच टकराती नहीं, हाथ मिलाती महसूस हो रही थी. भावनाओं के धरातल पर आज भी युवा प्यार के बदले प्यार देना जानते हैं और विरह के क्षणों में उन का भी दिल भर आता है.पुरवई चली गई. अब ठंडी हवा का हर झोंका घर में उस की उपस्थिति का आभास करा जाता है.

Sad Love Story : लुट गए हम तेरी मोहब्‍बत में

Writer- साहिना टंडन

1996, अब से 25 साल पहले. सुबह के 9 बजने को थे. नाश्ते की मेज पर नवीन और पूनम मौजूद थे. नवीन

अखबार पढ़ रहे थे और पूनम चाय बना रही थी, तभी राजन वहां पहुंचा और तेजी से कुरसी खींच कर उस पर जम गया.

“गुड मौर्निंग मम्मीपापा,” राजन ने कहा.

“गुड मौर्निंग बेटा,” पूनम ने मुसकरा कर जवाब दिया और उस के लिए ब्रैड पर जैम लगाने लगी.

“मम्मी, सामने वाली कोठी में लोग आ गए क्या…? अभी मैं ने देखा कि लौन में एक अंकल कुरसीपर बैठे हैं.”

“हां, कल ही वे लोग यहां आए हैं. तीन ही लोगों का परिवार है. माता, पिता और एक बेटी है, देविका नाम हैउस का. कल जब सामने सामान उतर चुका था, तब मैं वहां जाने ही वाली थी उन से चायपानी पूछने के लिए कि तभी वह बच्ची देविका आ गई. वह पानी लेने आई थी. बड़ी प्यारी है. दिखने में बहुत सुंदर और बहुत मीठा बोलती है. उस ने बताया कि वे लोग इंदौर से यहां शिफ्ट हुए हैं.”

“ओके. अच्छा मम्मी मैं चलता हूं. रितेश मेरा इंतजार कर रहा होगा,” सेब खाता हुआ राजन लगभग वहां से भागा.

“अरे, नाश्ता तो ठीक से करता जा,” पूनम ने पीछे से आवाज दी.

“उस ने कभी सुनी है तुम्हारी कोई बात. उस के कानों तक पहुंचे तो बात ही क्या है,” नवीन चाय का घूंट भरते हुए बोले.

“आप भी हमेशा उस के पीछे पड़े रहते हैं. यही तो उम्र है उस की मौजमस्ती करने की.”

“कालेज खत्म हुए सालभर हो चला है और कितनी मौज करेगा. रितेश को देखो, आनंद के साथ अब उस ने उस का सारा काम संभाल लिया है.”

“आप का बिजनैस कहीं भागा नहीं जा रहा है, राजन ने ही संभालना है. देख लेना, एक बार जिम्मेदारियों में रम गया, तो फिर साथ बैठ कर बात करने को भी तरस जाएंगे.”

“चलो, देखते हैं, ऐसा कब होता है और आज कहां गए हैं तुम्हारे साहबजादे?”

“संडे है, बताया तो उस ने कि रितेश के साथ गया है,” पूनम बरतन समेटते हुए बोली.

रितेश राजन के घर से चंद ही घर छोड़ कर रहता था. उन के मातापिता आनंद और लता और राजन के मातापिता नवीन और पूनम, सभी का आपस में अच्छा व्यवहार था. सालों पहले आनंद दिल्ली में नवीन के महल्ले में आए थे.

रितेश के अलावा उन की एक बेटी भी थी, जिस का नाम अनु था. बचपन में ही रितेश की बूआ ने उसे गोद ले लिया था. हालांकि इस बात से कोई अनजान नहीं रहा कि असल में अनु

आनंद बाबू की बिटिया है. बेऔलाद और विधवा सीमा ने अनु को सगी मां से ज्यादा चाहा. मध्यमवर्गीय परिवार था आनंद बाबू का, पर चूंकि अब उन के पास केवल रितेश ही था, इसलिए ठीकठाक गुजारा हो जाता था सब का.

तत्पश्चात पार्क में, त्योहारों में एकदूसरे से मिलने पर लता और पूनम की भी अच्छी बनने लगी. रितेश का दाखिला भी राजन के स्कूल में ही हो गया था, फिर तो पहले स्कूल, फिर कालेज, दोनों की दोस्ती परवान चढ़ती ही गई.

हालांकि दोनों काफी विपरीत प्रवृत्ति के थे. जहां रितेश कुछ गंभीर और अंतर्मुखी था, वहीं राजन मस्तमौला किस्म का था. जीवनयात्रा के सफर को हंसतेगाते पार करना चाहता था. सभी से चुहलबाजी करना उस की आदत में

शुमार था. कुल मिला कर अलग स्वभाव होने पर भी दोनों में गहरी छनती थी.

रितेश के घर के बाहर राजन ने जोरजोर से हौर्न बजाना शुरू कर दिया, तो रितेश तेजी से सीढ़ियां उतरते हुए

और लता को बाय करता हुआ बाहर की ओर लपका.

“अरे, अब बंद भी कर. पूरे महल्ले को घर से बाहर निकालना है क्या…?”

“अरे, यह तो मेरे दोस्त के लिए है. तू मेरा मैं तेरा दुनिया से क्या लेना,” राजन गुनगुनाते हुए बोला. रितेश उसे देख कर हंस पड़ा.

“और बता, जन्मदिन की तैयारियां कैसी चल रही हैं.”

“वैसे ही जैसी हर साल होती है. पापा के दोस्त, मम्मी की सहेलियां, रिश्तेदार, पड़ोसी सभी होंगे, पर मेरी तरफ से

बस एक ही बंदा है, जो पार्टी में ना हो तो पूरी पार्टी कैंसिल कर दूं. समझा कि अभी और समझाऊं.”

“समझ गया यार. तेरा जन्मदिन हो और मैं ना आऊं, ऐसा कभी हो सकता है. अच्छा अभी यह तो बता की हम जा कहां रहे हैं?”

 

“इतनी देर से जन्मदिन की बात चल रही है तो क्या जन्मदिन का केक मैं नाइट सूट में काटूंगा. हम अपने

लिए कपड़े खरीदने जा रहे हैं.”

पार्टी राजन के घर पर ही थी. घर का हाल रोशनी से नहा चुका था. मेहमानों की चहलपहल जारी थी. राजन और रितेश भी अपने अन्य दोस्तों के साथ मशगूल थे. तभी पूनम राजन के पास आई.

चलो बेटा, केक नहीं काटना क्या, सब इंतजार कर रहे हैं.”

“चलो मम्मी, केक भी तो इंतजार कर रहा होगा. तू चल मैं आया,” राजन रितेश के कंधे पर हाथ रख कर गाता हुआ टेबल के पास पहुंच गया.

जैसे ही मोमबत्तियां बुझाने के लिए वो झुका, वैसे ही

सामने से एक खूबसूरत लड़की ने प्रवेश किया.

राजन की निगाहें जैसे उस पर थम गई हों. रितेश भी एकटक उसे ही देख रहा था. गुलाबी रंग के सूट में वह खिला हुआ गुलाबी प्रतीत हो रही थी. बड़ीबड़ी आंखें, नाजुक होंठ, कंधे पर बिखरे स्याहा काले बाल, सारी कायनात की खूबसूरती जैसे उस में समा गई थी.

“अरे देविका… आओ बेटा,”

देविका के साथ उस की मां आशा भी थी. पूनम ने उन का अभिवादन किया और उसे अपने पास ही बुला लिया.

“चलो बरखुरदार, मोमबत्तियां पिघल कर आधी हो चुकी हैं,” नवीन बोले.

“ओ हां,” राजन जैसे होश में आया हो. उस ने फूंक मार कर मोमबत्तियां बुझाईं, तो हाल तालियों की

गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

केक काट कर सब से पहले उस ने पूनम और नवीन को खिलाया और फिर

रितेश को खिलाने लगा.

जवाब में रितेश ने भी केक का एक बड़ा सा टुकड़ा उस के मुंह में डाल दिया.

यह देख कर सभी जोर से हंस पड़े, पर राजन के कानों तक जो हंसी पहुंची, वह देविका की थी. चूड़ियों

की खनखनाहट जैसी हंसी उसे सीधे अपने दिल में उतरती लगी. जितनी देर पार्टी चलती रही, उतनी

देर राजन की निगाहें चोरीछुपे देविका को ही निहारती रहीं.

घर सामने ही होने की वजह से उस दिन के बाद से देविका कभीकभी राजन के घर आ जाती थी.।वहपाककला में काफी निपुण थी, तो अलगअलग तरह के व्यंजन पूनम को चखाने चली आती थी.

इस बीच राजन से कभी आमनासामना होता था, तो कुछ औपचारिक बातें ही होती थीं. पूनम को तो वह शुरू में ही पसंद थी. उस ने मन ही मन में उसे राजन के लिए पसंद भी कर लिया था, पर बापबेटे से बात करने के लिए वह देविका का मन भी टटोल लेना चाहती थी और उस के लिए वह किसी उपयुक्त मौके की तलाश में थी.

ऐसे ही लगभग 6 माह बीत गए. एक दिन राजन ने घर के बाहर अपनी गाड़ी स्टार्ट की तो देखा कि सामने देविका खड़ी थी. राजन गाड़ी ले कर उस के सामने पहुंचा.

“हेलो देविका, कैसे खड़ी हो, आज कालेज नहीं जाना क्या?”

“जाना तो है, पर आज पापा की कार नहीं है. उन्हें किसी जरूरी काम से कहीं जाना था, तो आज वे जल्दी ही निकल गए. अब टैक्सी का इंतजार है.”

“तो मैं छोड़ देता हूं. रास्ता तो वही है.”

“अरे, अभी मिल जाएगी कोई टैक्सी. तुम क्यों तकलीफ करते हो?”

“तो तुम भी यह तकल्लुफ रहने दो,” कह कर राजन ने गाड़ी का दरवाजा खोल दिया. देविका मुसकरा

के बैठ गई.

गाड़ी सड़क पर दौड़ने लगी थी कि कुछ ही दूरी पर एक रैड लाइट पर देविका की खिड़की के पास गुलाब के फूल बेचने वाला एक बच्चा आ कर खड़ा हो गया और उस से फूल खरीदने की गुहार सी लगाने लगा, तो देविका ने उस से फूल ले लिया.

“इस फूल का तुम क्या करोगी?” अचानक राजन के मुंह से निकल गया.

“क्या मतलब…?” देविका ने सवालिया नजरों से उस की ओर देख कर पूछा.

“मतलब… मतलब तो कुछ भी नहीं. लीजिए, आप फूल.”

“अरे यार, फूल को फूल की क्या जरूरत है?” राजन मुंह ही मुंह में बुदबुदाता हुआ बोला.

“कुछ कहा तुम ने?”

“ना… ना, कुछ भी तो नहीं.”

कुछ ही देर में राजन ने गाड़ी कालेज के गेट के सामने रोक दी.

“थैंक यू सो मच.”

“वेलकम.”

देविका मुसकराती हुई गेट की ओर चली गई. राजन उसे जाता हुआ देख ही रहा था कि अचानक उस की नजरें देविका की सीट के नीचे गिरे हुए एक कागज पर पड़ी. उस ने झट से कागज उठाया और सोचा कि देविका का ही कोई जरूरी कागज होगा. उस ने उसे आवाज लगानी चाहिए, पर तब तक देविका उस की आंखों से ओझल हो चुकी थी.

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‘है क्या यह…’ राजन ने खुद से ही सवाल किया और कागज खोल कर देखा. जैसे ही पहली पंक्ति पर राजन की नजर गई, वह आश्चर्य से भर उठा. वह एक खत था.

राजन ने तूफान की तेजी से वह खत पढ़ डाला. खत समाप्त होते ही वह खुशी के मारे चिल्ला सा उठा. उस ने गाड़ी स्टार्ट की और वापस घर की ओर दौड़ा दी. पूरे रास्ते उस के दिलोदिमाग में वह खत छाया रहा. घर पहुंचते ही उस ने पूनम को पुकारा.

“मम्मी, ओ मम्मी, तू कब सास बनेगी,” राजन पूरे जोशखरोश भरे स्वर में चिल्लाने लगा.

पूनम आई तो उस ने कानों पर हाथ रख लिए.

“पहले चिल्लाना तो बंद कर. और यह क्या कर रहा है, अच्छा है तेरे पापा घर पर नहीं हैं, वरना अभी

तूफान आ जाता.”

“तूफान ही तो आ गया है मम्मी. आप मेरी शादी की बात करती थीं तो अब करवा दीजिए.”

“ऐसे ही करवा दूं, शादी के लिए कोई लड़की भी चाहिए होती है मेरे बच्चे,” पूनम लाड़ भरे स्वर में बोली.

“लड़की तो है, देविका.”

“सच, देविका तुझे पसंद है,” पूनम खुशी से झूम सी उठी.

“बहुत पसंद है और आज ही पता चला कि मैं भी उसे पसंद हूं.”

“क्या कह रहा है, तुझे कैसे पता? क्या उस ने कहा है तुझ से?”

“ऐसा ही कुछ, अच्छा शादी की तैयारियां करो,” राजन कुछ उतावला सा हो रहा था और उस का उतावलापन देख कर पूनम हंसती जा रही थी.

“अरे पागल, ये काम क्या चुटकी बजाते ही हो जाता है, तेरे पापा से बात करनी है और देविका के घर वालों से भी तो…”

“अच्छा. काश, चुटकी बजाते ही हो जाता,” चुटकी बजातेबजाते राजन अपने कमरे में चला गया.

उसे जाता हुआ देख कर पूनम की आंखों में जैसे लाड़ का सागर हिलोरे लेने लगा.

कमरे में पहुंच कर राजन पलंग पर औंधा गिर पड़ा और जेब से खत निकाल कर फिर से पढ़ने लगा.

प्यारे “R”,

आज हमें मिले पूरे 6 महीने हो चुके हैं. वह पार्टी का ही दिन था, जब हम ने एकदूसरे को पहली बार देखा था. उस दिन ऐसा लगा था, जैसे तुम्हारी नजरों ने मेरी रूह तक को छू लिया हो. तब से आज तक हुई चंद मुलाकातें ही मेरे मौन प्रेम की साक्षी रही हैं. आधीअधूरी उन मुलाकातों में जो छोटीछोटी बातें हुईं, जैसे तुम ने मुझे देखा उन्हीं पर मेरा विश्वास टिका है. अब मुझे लगता है कि

इस पवित्र प्रेम को शब्दों की जरूरत नहीं है, बस अब हमारे मातापिता भी इस खूबसूरत रिश्ते को अपनी मंजूरी दे दें. घर पर मेरी शादी की बात चलने लगी है. तुम अपने मातापिता को इस बारे में बता दो, ताकि वह रिश्ते की बात करने घर आ सके.

दिल से सदा ही तुम्हारी,

“D”

न जाने वो खत राजन ने कितनी ही बार पढ़ डाला. पढ़तेपढ़ते ही उस की आंख लग गई. रात हो गई

थी. डाइनिंग टेबल पर नवीन ने राजन के बारे में पूछा, तो पूनम ने बताया कि “आज तो वह बिना

खाए ही सो गया है.”

“क्यों, ऐसा क्या हो गया?”

“वही, जो इस उम्र में हो जाया करता है.”

“पहेलियां ना बुझाओ. पहले पूरी बात बताओ.”

“हमें देविका के मातापिता से बात कर लेनी चाहिए. राजन और देविका एकदूसरे को चाहने लगे हैं.”

“यह कब हुआ…?”

“क्या आप भी… प्यार किया नहीं जाता हो जाता है.”

“जैसी मां वेसा ही बेटा. अरे, पहले कारोबार में मेरा हाथ बटाए, फिर प्यारमुहब्बत में पड़े. शादी तो दूर की बात है.”

“शादी होती है तो जिम्मेदारी का एहसास खुदबखुद जग जाता है और फिर राजन ने कौन सी नौकरी ढूंढ़नी है. अपना कारोबार ही तो संभालना है.”

वार्तालाप यहीं समाप्त हो गया.

इधर देविका बेहद परेशान हो रही थी. अपने कमरे की एकएक चीज… एकएक किताब… वह ढेरों बार छान चुकी थी. पर उस का खत उसे नहीं मिल रहा था. किताब में ही तो रखा था. अंत में थक कर वह पलंग पर बैठ गई. उस के सब्र का बांध टूट गया और वह फूटफूट कर रोने लगी. आखिर कहां गया खत. वह खत रितेश के लिए था.

रितेश और देविका की प्रेम कहानी राजन के जन्मदिन की पार्टी में आरंभ हुई थी. जब वे राजन के।घर पहुंची थी, तो सब से पहले उस की नजरें रितेश से ही मिली थीं. रितेश भी उसे ही देख रहा था.

फिर पूरी पार्टी में वह कभी खाना एकसाथ लेते हुए टकराते, तो कभी अपने परिजनों के साथ आपस

में हुए परिचय के दौरान एकदूजे को देखते रहे.

उस दिन शब्दों की सीमा चाहे “हैलो” में ही खत्म हो गई, पर दिल से दिल की बातें ऐसी थीं कि मानो लगता हो जैसे उन का अंत ही नहीं है.

पूनम के घर जब भी कोई महफिल जमती तो लता के साथ आशा भी शामिल होती थी. इस तरह आशा और लता की भी अच्छी बातचीत हो गई. पूनम सभी के सामने देविका की पाककला की खूब तारीफ करती थी. तो ऐसे में

लता एक दिन बोल उठी, “अरे तो कभी हमें भी खिलाओ ना.”

यह सुन कर आशा बोली, “क्यों नहीं, यह भी कोई कहने की बात है.”

फिर एक दिन देविका लता के घर पहुंची, तो शायद लता वहां नहीं थी. दरवाजा रितेश ने ही खोला था. दोनों एकदूसरे को देख कर मुसकरा दिए.

“आओ देविका.”

“आंटी नहीं हैं घर पर क्या?”

“नहीं, कहीं बाहर गई हैं. पर बस अभी आती ही होंगी.”

“यह मैं ने खीर बनाई थी. सो, मैं उन के लिए लाई हूं.”

“बस, आंटी के लिए, मेरे लिए नहीं.”

“नहीं, ऐसा नहीं है. तुम खा लो,” अचकचा कर बोल उठी वह.

उस की हालत देख और उस की बात सुन कर रितेश की हंसी छूट पड़ी.

“अरे, घबराओ मत. बैठो तो सही, मैं पानी लाता हूं.”

देविका ने कटोरा मेज पर रखा और सोफे पर बैठ गई. उस का दिल सीने में इस कदर धड़क रहा था, जैसे उछल कर बाहर आ जाएगा.

तभी रितेश पानी ले आया. देविका ने एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया.

“अच्छा, मैं चलती हूं,” कह कर वे तेजी से वहां से निकलने को हुई.

“अरे देविका, सुनो तो… रुको देविका.”

देविका के कदम वहीं जम गए. मुश्किल से उस ने पीछे घूम कर देखा.

रितेश सधे कदमों से देविका के पास पहुंचा.

देविका की पलकें मानो टनों भरी हो उठीं. वे खामोश पर खूबसूरत पल शायद उन दोनों के लिए उन अनमोल मोतियों के समान हो चुके थे, जिन्हें वे सदा सहेज कर रखना चाहते थे. ऐसा लग रहा था जैसे वक्त वहीं थम गया हो.

तभी रितेश ने खुद को संभाला.

“ओ, हां, ठीक है देविका, मम्मी आएंगी तो मैं उन्हें बता दूंगा कि तुम आई थी.”

यह सुन कर देविका की नजरें ऊपर उठीं, तो फिर वह मुसकरा कर वापस लौट गई.

एक दिन रितेश को रास्ते में देविका के पिता मोहन मिल गए थे. रितेश ने उन्हें घर छोड़ने के लिए अपने स्कूटर पर बिठा लिया.

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तब बातों ही बातों में उन्होंने रितेश से देविका की पढ़ाई में एक कठिन विषय का जिक्र किया, तो रितेश ने कहा कि वह एक दिन घर आ कर कुछ जरूरी नोट्स दे देगा, जिस से देविका की काफी मदद हो जाएगी.

तब 3-4 बार रितेश ने उस के घर जा कर उस की फाइल पूरी बनवा दी थी. इन्हीं कुछ मुलाकातों

में देविका उस के प्रति बहुत ज्यादा आकर्षित हो चुकी थी. एक दिन उस ने शरारत करते हुए रितेश की

चाय में नमक मिला दिया, सोचा था कि गुस्सा करेगा, पर वह बिना शिकायत करे जब पूरी चाय पी गया, तो देविका की आंखें भर आईं. अपने प्रति ग्लानि से और उस के प्रति प्यार से.

आज शाम को भी रितेश घर आने वाला था, इसलिए देविका ने अपने मनोभाव खत में उतार दिए थे और आज वह एक उपयुक्त मौका देख कर वह खत उसे देना चाहती थी.

शाम को रितेश घर आया, तो आशा ने उसे बिठा कर देविका को आवाज लगाई.

देविका का मुरझाया चेहरा देख कर रितेश असमंजस में पड़ गया.

“बेटा, सवेरे से अपनी फाइल ढूंढ़ रही है, मिल नहीं रही. तो देख कैसे रोरो कर अपनी आंखें सुजा ली हैं. तू जरा समझा, मैं चाय ले कर आती हूं,” आशा रसोई में गई तो रितेश ने पूछा, “कहां खो गई फाइल, क्या कालेज में?”

देविका की आंखों से फिर आंसू बहने लगे. तब धीरे से रितेश ने उस के हाथ पर हाथ रख कर बेहद आत्मीय स्वर में कहा, “रोओ मत, किताब ले आओ. कोशिश कर के दोबारा बना लेते हैं.”

अब देविका से रोका ना गया. उस ने धीमे स्वर में कहा, “आई लव यू. मैं तुम से प्यार करती हूं. तुम्हारे

बिना रह नहीं सकती. तुम भी मुझे चाहते हो ना…?”

रितेश उस की ओर हैरानपरेशान निगाहों से देख रहा था.

“तुम कुछ कहते क्यों नहीं. कुछ तो कहो?”

रितेश के मुंह से कोई बोल ना निकला.

देविका को जैसे उस का जवाब मिल गया. अपनी रुलाई रोकने के लिए उस ने दुपट्टा अपने मुंह में दबा लिया और तेज कदमों से वहां से चली गई.

रितेश अवाक खड़ा रह गया और कुछ पलों बाद वहां से चला गया.

अगले दिन उस ने देविका के घर फोन लगाया. ज्यादातर फोन आशा ही उठाती थी, पर उस दिन देविका ने उठाया.

“हैलो,” देविका की आवाज बेहद उदासीन थी.

“हैलो देविका,”  रितेश की आवाज गंभीर थी.

“रितेश तुम…” देविका एक अनजानी सी खुशी से भर उठी.

“देविका, जानता हूं, जो कल तुम पर बीती, जो कल तुम ने महसूस किया, पर देविका, मैं मजबूर हूं या

शायद तुम्हारे निश्चल प्रेम का मैं हकदार नहीं. तुम सुन रही हो देविका?”

“हां, सुन रही हूं,” देविका को अपनी ही आवाज जैसे एक कुएं से आती प्रतीत हुई.

“पापा अब बेहद कमजोर हो चुके हैं. उन्हें उन की जिंदगी की शाम में अब आराम देना है. अनु दी की

जिम्मेदारी से भी मैं मुंह नहीं मोड़ सकता.

“देविका, इस वक्त अपने सुनहरे सपने साकार करने का माद्दा मुझ में नहीं है. मुझे माफ कर देना, शायद मैं ही बदनसीब हूं.कोई बहुत खुशनसीब होगा जिस की जिंदगी में तुम उजाला करोगी…”

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फोन कट चुका था. देविका जड़वत हो कर रह गई. शायद अर्धविक्षिप्त सी हो कर नीचे ही गिर पड़ती, अगर आशा ने उस के

पीछे आ कर उसे संभाला नहीं होता.

“क्या हुआ देविका? तू पथरा सी क्यों गई है?” आशा ने घबराए स्वर में पूछा.

“मम्मी, शायद मैं अब इम्तिहान पास ना कर पाऊं. रितेश के साथ अब दोबारा फाइल तैयार करना मुमकिन नहीं है,” देविका शून्य में देखती हुई बोली.

“अरे बेटे, इस समय इम्तिहान को भूल जा और एक खुशखबरी सुन. पूनम का फोन आया था सवेरे,

उन्होंने तुझे राजन के लिए मांगा है बेटी.”

आशा का स्वर खुशी से सराबोर था.

“फिर आप ने क्या जवाब दिया मम्मी?” यह सुन कर देविका कुछ सुन्न सी पड़ गई थी.

‘यह कोई समय ले कर सोचने की बात है. मैं ने झट से हां कर दी.”

“यह क्या किया आप ने? मैं और राजन हम दोनों बिलकुल अलग हैं. मैं राजन से प्यार नहीं करती. मैं

यह शादी नहीं कर सकती,” देविका ने भर्राए स्वर में कहा.

“अरे, यह प्यारमुहब्बत फिल्मी कहानियों में ही अच्छे लगते हैं, हकीकत में नहीं. और फिर आखिर

क्या कमी है लड़के में, अच्छा परिवार है, राजन उन का इकलौता बेटा है और फिर सब से बड़ी बात,

पहल उन की तरफ से हुई है, और क्या चाहिए.”

देविका जैसे कुछ भी सोचनेसमझने की ताकत खो चुकी थी. सबकुछ जैसे हाथ में सिमटी रेत की

तरह फिसलता जा रहा था.

“देविका, हम तेरे मांबाप हैं. कभी तेरा बुरा नहीं सोच सकते. मुझे पूरा विश्वास है तू वहां बहुत खुश रहेगी. वे लोग तुझे बहुत प्यार देंगे,” आशा उस के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली.

उस के बाद कब रस्में निभाई गईं और कब वह दुलहन बन कर राजन के घर आई, यह सब जैसे उस के होशोहवास में नहीं था.

इस दौरान रितेश वहां उपस्थित नहीं था. वह सीधा राजन के घर पहुंचा था.

विदाई के बाद राजन के घर में हुई रस्मों में जब देविका ने रितेश को राजन के साथ हंसतेबोलते देखा, तो उस के दिल में एक हूंक सी उठी.

“क्या कोई एहसास नहीं है इसे मेरी भावनाओं का, मेरे

जज्बातों का, क्या कभी भी एक दिन के लिए, एक पल के लिए भी इस ने मुझे नहीं चाहा. मैं ने तो अपना सर्वस्व प्रेम इस पर अर्पित कर देना चाहा था, पर यह इस कदर निष्ठुर क्यों है, क्या मैं इस की जिम्मेदारियां निभाने में सहभागी नहीं बन सकती थी. इस ने मुझे इस काबिल भी नहीं समझा.

“उफ्फ, अगर यह मेरे सामने रहा तो मैं पागल हो जाऊंगी,” देविका और बरदाश्त ना कर सकी. संपूर्ण ब्रह्मांड जैसे उसे घूमता सा लग रहा था. अगले ही पल वह बेहोश हो चुकी थी.

आंखें खुलीं, तो एक सजेधजे कमरे में उस ने खुद को पाया. वह उठी तो चूड़ियों और पायलों की

आवाज से राजन भी जाग गया, जो उस के साथ ही अधलेटी अवस्था में था.

“अब कैसी हो? यह

रिश्तेदार भी ना, यह रस्में, वह रिवाज, ऐसा लगता है जैसे शादी इस जन्म में हुई है और साथ रहना अगले जन्म में नसीब होगा. सारी रस्में निभातेनिभाते तुम तो बेहोश हो गई थी.”

देविका बिलकुल मौन थी.

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“आराम से लेट जाओ. अभी सुबह होने में कुछ वक्त है. मैं लाइट बुझा देता हूं,” राजन ने प्यार से

कहा और लाइट बंद कर कमरे से बाहर चला गया.

सुबह तैयार हो कर देविका सीधे पूनम के पास रसोई में पहुंची.

“कैसी हो तुम? रात को थकावट की वजह से

तुम्हारी तबीयत ही बिगड़ गई थी,” पूनम ने लाड़ से कहा.

“जी, अब ठीक हूं,” देविका ने धीमे से जवाब दिया, “आप यह रहने दीजिए. मैं करती हूं.”

“अभी तो नाश्ता टेबल पर लग चुका है, तो अब बस यह चाय की ट्रे ले चलो.”

चाय ले कर देविका टेबल पर पहुंची. नवीन और राजन वहां बैठे थे. देविका ने नवीन के पैर छुए, तो

नवीन ने उस के सिर पर हाथ फेर दिया और मुसकराते हुए पूनम से बोले, ”बस उलझा दिया बहू को पहले ही दिन रसोई में. सास का रोल अच्छे से निभा रही हो.”

“अरे, ऐसा नहीं है. बहू नहीं यह तो बेटी है मेरी,” पूनम ने मुसकराते हुए कहा.

“देविका यह सब कहने की बातें हैं. अच्छा सुनो, अब सब से पहले अपने इम्तिहान की तैयारी करना.

मैं तो चाहता था, शादी परीक्षा होने के बाद ही हो, पर यह मांबेटी की जोड़ी कहां मानने वाली थी

भला,” नवीन सहज भाव से बोले.

“जी, पापा,” देविका हलके से मुसकरा के रह गई.

देविका ने पूरा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया था. इम्तिहान भी हो गए और देविका अच्छे नंबरों से पास भी हो गई.

तब नवीन और पूनम ने उन दोनों के बाहर जाने का प्रोग्राम बना दिया. ऊंटी की मनमोहक वादियों में भी जब देविका का चेहरा ना खिला तो शाम को राजन ने उस से पूछ ही लिया, “देविका, क्या बात

है? तुम शादी के बाद इतनी चुपचुप क्यों रहती हो? क्या तुम्हें मुझ से कोई शिकायत है?” राजन ने भोलेपन से पूछा.

यह सुन कर देविका कुछ पल उसे देखती रही. इस सब में राजन का क्या दोष है, उस ने तो सच्चे मन

से मुझ से प्यार किया है. क्यों मैं इस के प्यार का जवाब प्यार से नहीं दे सकती. मैं क्यों इसे वही

एहसास करवाऊं, जो मुझे हुआ है. नहीं, मैं इस का दिल नहीं तोड़ सकती. इसे जरूर एक खुशहाल जिंदगी का हक है.

देविका का दिलोदिमाग अब पूरी तरह से स्पष्ट था. राजन का हाथ उस के हाथ पर ही था. उस ने भी राजन के हाथ की पकड़ को और मजबूत करते हुए कहा, “ऐसी कोई बात नहीं है. मैं बहुत खुश हूं.”

देविका के चेहरे पर आंतरिक चमक थी. राजन को काफी हद तक संतुष्टि महसूस हुई और उस के

चेहरे पर एक निश्चल मुसकराहट आ गई. इस के बाद देविका ने राजन के सीने में अपना चेहरा छुपा

लिया.

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अगली सुबह वह बहुत हलका महसूस कर रही थी. शावर के नीचे जिस्म पर पड़ती पानी की फुहारों ने

जैसे उस का रोमरोम खिला दिया था. उस के नए जीवन की शुरुआत हो चुकी थी.

हनीमून से राजन और देविका काफी खुशहाल वापस लौटे. कुछ दिनों बाद रितेश के साथ एक अनहोनी घटना घट गई. एक रात आनंद बाबू की तबीयत काफी खराब हो गई. अस्पताल पहुंचने से

पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया. लता अब वहां रहना नहीं चाहती थी क्योंकि कुछ दिनों से आनंद अनु को बहुत याद कर रहे थे, इसलिए अब वो अनु से मिलने के लिए बेचैन हो उठी थी. उसे अपने

पास बुलाना चाहती थी. इस पर रितेश की बूआ ने कहा कि अभी अनु के लिए माहौल बदलना सही

नहीं है, क्यों ना वे लोग ही अब मकान बेच कर उन के पास आ जाएं. ऐसे हालात में लता को भी यही सही लगा. जल्दी ही रितेश का परिवार वहां से चला गया.

देविका शांत भाव से यह सब घटित होते देखती रही.

इस के बाद राजन और रितेश की दोस्ती सिर्फ फोन पर हुई बातों पर चलती रही और समय के साथ

साथ एक दिन सिर्फ दिल में ही बस गई. शायद रितेश का फोन नंबर बदल चुका था जो राजन के पास नहीं था.

देविका को लगभग डेढ़ वर्ष बाद पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. अपूर्व बहुत प्यारा था. राजन की जान बसती थी उस में. अपनी तोतली भाषा में जब वो राजन को ‘पापा’ पुकारता था, तो राजन का दिल बल्लियों उछलने लगता था. इस तरह 5 वर्ष बीत गए.

इस बीच बिजनैस की एक जरूरी मीटिंग के लिए एक बार राजन को एक हफ्ते के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा.

उस दिन वह वापस आने ही वाला था कि दरवाजे की डोरबेल बजी. दरवाजा देविका ने ही खोला. सामने रितेश खड़ा था. देविका जैसे बुत समान हो गई.

“रितेश…” देविका के पीछे से उसे देख कर पूनम के मुख से तेज स्वर में उस का नाम गूंजा. देविका झट से संभली. वह दरवाजे से एक तरफ हट गई.

रितेश भीतर आते ही पूनम के पैरों में झुका. पूनम ने उसे गले से लगा लिया, दोनों की आंखें भर आईं. ड्राइंगरूम में बैठे दोनों देर तक बातें करते रहे. इस

दौरान देविका रसोई में ही रही. रितेश अपूर्व के साथ खेलने में व्यस्त रहा. नवीन घर आए तो वह भी उसे देख कर बहुत खुश हुए. आनंद बाबू को भी बेहद याद किया नवीन और पूनम ने. तभी दोबारा डोरबेल बजी.

“पापा आ गए, पापा आ गए,” कहता हुआ अपूर्व दरवाजे की ओर भागा. वह गिर ना पड़े, इस के लिए

रितेश उस के पीछे गया. अपूर्व को गोद में ले कर दरवाजा रितेश ने खोला. राजन ही था सामने. एकदूसरे को देखते ही दोनों मौन हो कर रह गए.

कुछ पल यों ही बीत गए. तभी अपूर्व “पापा… पापा…” पुकारने लगा. राजन ने उसे अपनी गोद में ले कर प्यार किया और फिर नीचे उतारा. उस के हाथ में खिलौना था, जिसे देखते ही अपूर्व ने लपक कर वह छीन लिया.

“दादी दादी. देखो, पापा क्या लाए हैं,” अपूर्व पूनम की ओर भाग गया.

राजन और रितेश गले मिल कर जैसे दुनियाजहान को भूल गए. खाने की मेज पर भी उन्हीं की बात चलती रही. देर रात उन दोनों को छोड़ कर सभी सोने चले गए.

“पर यार तू ने अब तक शादी क्यों नहीं की? मैं तो सोचता था कि अब तक तो तू 2-3 बच्चों का बाप बन चुका होगा. कोई पसंद नहीं आई क्या?”

बरतन समेटती देविका के गले में जैसे कुछ अटक सा गया हो.

“अरे, तेरे जैसी किस्मत नहीं है मेरी. हमें तो कोई पसंद ही नहीं करता.”

“क्या कमी है मेरे यार में, वैसे, देविका की कोई छोटी बहन नहीं है, वरना अपनी आधी घरवाली को

तेरी पूरी बनवा देता. क्यों देविका,” यह कह कर राजन खुद ही हंस पड़ा.

देविका बरतन समेट कर रसोई में चली गई.

Hindi Story : भूली बिसरी यादें

रवि प्रोफेसर गौतम के साथ व्यवसाय प्रबंधन कोर्स का शोधपत्र लिख रहा था. उस का पीएच.डी. करने का विचार था. भारत से 15 महीने पहले उच्च शिक्षा के लिए वह मांट्रियल आया था. उस ने मांट्रियल में मेहनत तो बहुत की थी, परंतु परीक्षाओं में अधिक सफलता नहीं मिली.

मांट्रियल की भीषण सर्दी, भिन्न संस्कृति और रहनसहन का ढंग, मातापिता पर अत्यधिक आर्थिक दबाव का एहसास, इन सब कारणों से रवि यहां अधिक जम नहीं पाया था. वैसे उसे असफल भी नहीं कहा जा सकता, परंतु पीएच.डी. में आर्थिक सहायता के साथ प्रवेश पाने के लिए उस के व्यवसाय प्रबंधन की परीक्षा के परिणाम कुछ कम उतरते थे.

रवि ने प्रोफेसर गौतम से पीएच.डी. के लिए प्रवेश पाने और आर्थिक मदद के लिए जब कहा तो उन्होंने उसे कुछ आशा नहीं बंधाई. वे अपने विश्वविद्यालय और बाकी विश्वविद्यालयों के बारे में काफी जानकारी रखते थे. रवि के पास व्यवसाय प्रबंधन कोर्स समाप्त कर के भारत लौटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.

रवि प्रोफेसर गौतम से जब भी उन के विभाग में मिलता, वे उस को मुश्किल से आधे घंटे का समय ही दे पाते थे, क्योंकि वे काफी व्यस्त रहते थे. रवि को उन को बारबार परेशान करना अच्छा भी नहीं लगता था. कभीकभी सोचता कि कहीं प्रोफेसर यह न सोच लें कि वह उन के भारतीय होने का अनुचित फायदा उठा रहा है.

एक बार रवि ने हिम्मत कर के उन से कह ही दिया, ‘‘साहब, मुझे किसी भी दिन 2 घंटे का समय दे दीजिए. फिर उस के बाद मैं आप को परेशान नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम मुझे परेशान थोड़े ही करते हो. यहां तो विभाग में 2 घंटे का एक बार में समय निकालना कठिन है,’’ उन्होंने अपनी डायरी देख कर कहा, ‘‘परंतु ऐसा करो, इस इतवार को दोपहर खाने के समय मेरे घर आ जाओ. फिर जितना समय चाहो, मैं तुम्हें दे पाऊंगा.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. आप क्यों परेशान होते हैं,’’ रवि को प्रोफेसर गौतम से यह आशा नहीं थी कि वे उसे अपने निवास स्थान पर आने के लिए कहेंगे. अगले इतवार को 12 बजे पहुंचने के लिए प्रोफेसर गौतम ने उस से कह दिया था.

प्रोफेसर गौतम का फ्लैट विश्व- विद्यालय के उन के विभाग से मुश्किल से एक फर्लांग की दूरी पर ही था. उन्होंने पिछले साल ही उसे खरीदा था. पिछले 22 सालों में उन के देखतेदेखते मांट्रियल शहर कितना बदल गया था, विभाग में व्याख्याता के रूप में आए थे और अब कई वर्षों से प्राध्यापक हो गए थे. उन के विभाग में उन की बहुत साख थी.

सबकुछ बदल गया था, पर प्रोफेसर गौतम की जिंदगी वैसी की वैसी ही स्थिर थी. अकेले आए थे शहर में और 3 साल पहले उन की पत्नी उन्हें अकेला छोड़ गई थी. वह कैंसर की चपेट में आ गई थी. पत्नी की मृत्यु के पश्चात अकेले बड़े घर में रहना उन्हें बहुत खलता था. घर की मालकिन ही जब चली गई, तब क्या करते उस घर को रख कर.

18 साल से ऊपर बिताए थे उन्होंने उस घर में अपनी पत्नी के साथ. सुखदुख के क्षण अकसर याद आते थे उन को. घर में किसी चीज की कभी कोई कमी नहीं रही, पर उस घर ने कभी किसी बच्चे की किलकारी नहीं सुनी. इस का पतिपत्नी को काफी दुख रहा. अपनी संतान को सीने से लगाने में जो आनंद आता है, उस आनंद से सदा ही दोनों वंचित रहे.

पत्नी के देहांत के बाद 1 साल तक तो प्रोफेसर गौतम उस घर में ही रहे. पर उस के बाद उन्होंने घर बेच दिया और साथ में ही कुछ गैरजरूरी सामान भी. आनेजाने की सुविधा का खयाल कर उन्होंने अपना फ्लैट विभाग के पास ही खरीद लिया. अब तो उन के जीवन में विभाग का काम और शोध ही रह गया था. भारत में भाईबहन थे, पर वे अपनी समस्याओं में ही इतने उलझे हुए थे कि उन के बारे में सोचने की किस को फुरसत थी. हां, बहनें रक्षाबंधन और भैयादूज का टीका जब भेजती थीं तो एक पृष्ठ का पत्र लिख देती थीं.

प्रोफेसर गौतम ने रवि के आने के उपलक्ष्य में सोचा कि उसे भारतीय खाना बना कर खिलाया जाए. वे खुद तो दोपहर और शाम का खाना विश्वविद्यालय की कैंटीन में ही खा लेते थे.

शनिवार को प्रोफेसर भारतीय गल्ले की दुकान से कुछ मसाले और सब्जियां ले कर आए. पत्नी की बीमारी के समय तो वे अकसर खाना बनाया करते थे, पर अब उन का मन ही नहीं करता था अपने लिए कुछ भी झंझट करने को. बस, जिए जा रहे थे, केवल इसलिए कि जीवनज्योति अभी बुझी नहीं थी. उन्होंने एक तरकारी और दाल बनाई थी. कुलचे भी खरीदे थे. उन्हें तो बस, गरम ही करना था. चावल तो सोचा कि रवि के आने पर ही बनाएंगे.

रवि ने जब उन के फ्लैट की घंटी बजाई तो 12 बज कर कुछ सेकंड ही हुए थे. प्रोफेसर गौतम को बड़ा अच्छा लगा, यह सोच कर कि रवि समय का कितना पाबंद है. रवि थोड़ा हिचकिचा रहा था.

प्रोफेसर गौतम ने कहा, ‘‘यह विभाग का मेरा दफ्तर नहीं, घर है. यहां तुम मेरे मेहमान हो, विद्यार्थी नहीं. इस को अपना ही घर समझो.’’

रवि अपनी तरफ से कितनी भी कोशिश करता, पर गुरु और शिष्य का रिश्ता कैसे बदल सकता था. वह प्रोफेसर के साथ रसोई में आ गया. प्रोफेसर ने चावल बनने के लिए रख दिए.

‘‘आप इस फ्लैट में अकेले रहते हैं?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, मेरी पत्नी का कुछ वर्ष पहले देहांत हो गया,’’ उन्होंने धीमे से कहा.

रवि रसोई में खाने की मेज के साथ रखी कुरसी पर बैठ गया. दोनों ही चुप थे. प्रोफेसर गौतम ने पूछा, ‘‘जब तक चावल तैयार होंगे, तब तक कुछ पिओगे? क्या लोगे?’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं लूंगा. हां, अगर हो तो कोई जूस दे दीजिएगा.’’

प्रोफेसर ने रेफ्रिजरेटर से संतरे के रस से भरी एक बोतल और एक बीयर की बोतल निकाली. जूस गिलास में भर कर रवि को दे दिया और बीयर खुद पीने लगे. कुछ देर बाद चावल तैयार हो गए. उन्होंने खाना खाया. कौफी बना कर वे बैठक में आ गए. अब काम करने का समय था.

रवि अपना बैग उठा लाया. उस ने 89 पृष्ठों की रिपोर्ट लिखी थी. प्रोफेसर गौतम रिपोर्ट का कुछ भाग तो पहले ही देख चुके थे, उस में रवि ने जो संशोधन किए थे, वे देखे. रवि उन से अनेक प्रश्न करता जा रहा था. प्रोफेसर जो भी उत्तर दे रहे थे, रवि उन को लिखता जा रहा था.

रवि की रिपोर्ट का जब आखिरी पृष्ठ आ पहुंचा तो उस समय शाम के 5 बज चुके थे. आखिरी पृष्ठ पर रवि ने अपनी रिपोर्ट में प्रयोग में लाए संदर्भ लिख रखे थे. प्रोफेसर को लगा कि रवि ने कुछ संदर्भ छोड़ रखे हैं. वे अपने अध्ययनकक्ष में उन संदर्भों को अपनी किताबों में ढूंढ़ने के लिए गए.

प्रोफेसर को गए हुए 15 मिनट से भी अधिक समय हो गया था. रवि ने सोचा शायद वे भूल गए हैं कि रवि घर में आया हुआ है. वह अध्ययनकक्ष में आ गया. वहां किताबें ही किताबें थीं. एक कंप्यूटर भी रखा था. अध्ययनकक्ष की तुलना में प्रोफेसर के विभाग का दफ्तर कहीं छोटा पड़ता था.

प्रोफेसर ने एक निगाह से रवि को देखा, फिर अपनी खोज में लग गए. दीवार पर प्रोफेसर की डिगरियों के प्रमाणपत्र फ्रेम में लगे थे. प्रोफेसर गौतम ने न्यूयार्क से पीएच.डी. की थी. भारत से उन्होंने एम.एससी. (कानपुर से) की थी.

‘‘साहब, आप ने एम.एससी. कानपुर से की थी? मेरे नानाजी वहीं पर विभागाध्यक्ष थे,’’ रवि ने पूछा.

प्रोफेसर 3-4 किताबें ले कर बैठक में आ गए.

‘‘क्या नाम था तुम्हारे नानाजी का?’’

‘‘रामकुमार,’’ रवि ने कहा.

‘‘उन को तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. 1 साल मैं ने वहां पढ़ाया भी था.’’

‘‘तब तो शायद आप ने मेरी माताजी को भी देखा होगा,’’ रवि ने पूछा.

‘‘शायद देखा होगा एकाध बार,’’ प्रोफेसर ने बात पलटते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम ये पुस्तकें ले जाओ और देखो कि इन में तुम्हारे मतलब का कुछ है कि नहीं.’’

रवि कुछ मिनट और बैठा रहा. 6 बजने को आ रहे थे. लगभग 6 घंटे से वह प्रोफेसर के फ्लैट में बैठा था. पर इस दौरान उस ने लगभग 1 महीने का काम निबटा लिया था. प्रोफेसर का दिल से धन्यवाद कर उस ने विदा ली.

रवि के जाने के बाद प्रोफेसर को बरसों पुरानी भूलीबिसरी बातें याद आने लगीं. वे रवि के नाना को अच्छी तरह जानते थे. उन्हीं के विभाग में एम.एससी. के पश्चात वे व्याख्याता के पद पर काम करने लगे थे. उन्हें दिल्ली में द्वितीय श्रेणी में प्रवेश नहीं मिल पाया था. इसलिए वे कानपुर पढ़ने आ गए थे. उस समय कानपुर में ही उन के चाचाजी रह रहे थे. 1 साल बाद चाचाजी भी कानपुर छोड़ कर चले गए पर उन्हें कानपुर इतना भा गया कि एम.एससी. भी वहीं से कर ली. उन की इच्छा थी कि किसी भी तरह से विदेश उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाएं. एम.एससी. में भी उन का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं था, जिस के बूते पर उन को आर्थिक सहायता मिल पाती. फिर सोचा, एकदो साल तक भारत में अगर पढ़ाने का अनुभव प्राप्त कर लें तो शायद विदेश में आर्थिक सहायता मिल सकेगी.

उन्हीं दिनों कालेज के एक व्याख्याता को विदेश में पढ़ने के लिए मौका मिला था, जिस के कारण गौतम को अस्थायी रूप से कालेज में ही नौकरी मिल गई. वे पैसे जोड़ने की भी कोशिश कर रहे थे. विदेश जाने के लिए मातापिता की तरफ से कम से कम पैसा मांगने का उन का ध्येय था. विभागाध्यक्ष रामकुमार भी उन से काफी प्रसन्न थे. वे उन के भविष्य को संवारने की पूरी कोशिश कर रहे थे.

एक दिन रामकुमार ने गौतम को अपने घर शाम की चाय पर बुलाया.

रवि की मां उमा से गौतम की मुलाकात उसी दिन शाम को हुई थी. उमा उन दिनों बी.ए. कर रही थी. देखने में बहुत ही साधारण थी. रामकुमार उमा की शादी की चिंता में थे. उमा विभागाध्यक्ष की बेटी थी, इसलिए गौतम अपनी ओर से उस में पूरी दिलचस्पी ले रहा था. वह बेचारी तो चुप थी, पर अपनी ओर से ही गौतम प्रश्न किए जा रहा था. कुछ समय पश्चात उमा और उस की मां उठ कर चली गईं.

 

राजकुमार ने तब गौतम से अपने मन की इच्छा जाहिर की. वे उमा का हाथ गौतम के हाथ में थमाने की सोच रहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर गौतम चाहे तो वे उस के मातापिता से बात करने के लिए दिल्ली जाने को तैयार थे.

सुन कर गौतम ने बस यही कहा, ‘आप के घर नाता जोड़ कर मैं अपने जीवन को धन्य समझूंगा. पिताजी और माताजी की यही जिद है कि जब तक मेरी छोटी बहन के हाथ पीले नहीं कर देंगे, तब तक मेरी शादी की सोचेंगे भी नहीं,’ उस ने बात को टालने के लिए कहा, ‘वैसे मेरी हार्दिक इच्छा है कि विदेश जा कर ऊंची शिक्षा प्राप्त करूं, पर आप तो जानते ही हैं कि मेरे एम.एससी. में इतने अच्छे अंक तो आए नहीं कि आर्थिक सहायता मिल जाए.’

‘तुम ने कहा क्यों नहीं. मेरा एक जिगरी दोस्त न्यूयार्क में प्रोफेसर है. अगर मैं उस को लिख दूं तो वह मेरी बात टालेगा नहीं,’ रामकुमार ने कहा.

‘आप मुझे उमाजी का फोटो दे दीजिए, मातापिता को भेज दूंगा. उन से मुझे अनुमति तो लेनी ही होगी. पर वे कभी भी न नहीं करेंगे,’ गौतम ने कहा.

रामकुमार खुशीखुशी घर के अंदर गए. लगता था, जैसे वहां खुशी की लहर दौड़ गई थी. कुछ ही देर में वे अपनी पत्नी के साथ उमा का फोटो ले कर आ गए. उमा तो लाजवश कमरे में नहीं आई. उस की मां ने एक डब्बे में कुछ मिठाई गौतम के लिए रख दी. पतिपत्नी अत्यंत स्नेह भरी नजरों से गौतम को देख रहे थे.

अपने कमरे में पहुंचते ही गौतम ने न्यूयार्क के उस विश्वविद्यालय को प्रवेशपत्र और आर्थिक सहायता के लिए फार्म भेजने के लिए लिखा. दिल्ली जाने से पहले वह एक बार और उमा के घर गया. कुछ समय के लिए उन लोगों ने गौतम और उमा को कमरे में अकेला छोड़ दिया था, परंतु दोनों ही शरमाते रहे.

गौतम जब दिल्ली से वापस आया तो रामकुमार ने उसे विभाग में पहुंचते ही अपने कमरे में बुलाया. गौतम ने उन्हें बताया कि मातापिता दोनों ही राजी थे, इस रिश्ते के लिए. परंतु छोटी बहन की शादी से पहले इस बारे में कुछ भी जिक्र नहीं करना चाहते थे.

गौतम के मातापिता की रजामंदी के बाद तो गौतम का उमा के घर आनाजाना और भी बढ़ गया. उस ने जब एक दिन उमा से सिनेमा चलने के लिए कहा तो वह टाल गई. इन्हीं दिनों न्यूयार्क से फार्म आ गया, जो उस ने तुरंत भर कर भेज दिया. रामकुमार ने अपने दोस्त को न्यूयार्क पत्र लिखा और गौतम की अत्यधिक तारीफ और सिफारिश की.

3 महीने प्रतीक्षा करने के पश्चात वह पत्र न्यूयार्क से आया, जिस की गौतम कल्पना किया करता था. उस को पीएच.डी. में प्रवेश और समुचित आर्थिक सहायता मिल गई थी. वह रामकुमार का आभारी था. उन की सिफारिश के बिना उस को यह आर्थिक सहायता कभी न मिल पाती.

गौतम की छोटी बहन का रिश्ता बनारस में हो गया था. शादी 5 महीने बाद तय हुई. गौतम ने उमा को समझाया कि बस 1 साल की ही तो बात है. अगले साल वह शादी करने भारत आएगा और उस को दुलहन बना कर ले जाएगा.

कुछ ही महीने में गौतम न्यूयार्क आ गया. यहां उसे वह विश्वविद्यालय ज्यादा अच्छा न लगा. इधरउधर दौड़धूप कर के उसे न्यूयार्क में ही दूसरे विश्वविद्यालय में प्रवेश व आर्थिक सहायता मिल गई.

उमा के 2-3 पत्र आए थे, पर गौतम व्यस्तता के कारण उत्तर भी न दे पाया. जब पिताजी का पत्र आया तो उमा का चेहरा उस की आंखों के सामने नाचने लगा. पिताजी ने लिखा था कि रामकुमार दिल्ली किसी काम से आए थे तो उन से भी मिलने आ गए. पिताजी को समझ में नहीं आया कि उन की कौन सी बेटी की शादी बनारस में तय हुई थी.

उन्होंने लिखा था कि अपनी शादी का जिक्र करने के लिए उसे इतना शरमाने की क्या आवश्यकता थी.

गौतम ने पिताजी को लिख भेजा कि मैं उमा से शादी करने का कभी इच्छुक नहीं था. आप रामकुमार को साफसाफ लिख दें कि यह रिश्ता आप को बिलकुल भी मंजूर नहीं है. उन के यहां के किसी को भी अमेरिका में मुझ से पत्रव्यवहार करने की कोई आवश्यकता नहीं.

गौतम के पिताजी ने वही किया जो उन के पुत्र ने लिखा था. वे अपने बेटे की चाल समझ गए थे. वे बेचारे करते भी क्या.

उन का बेटा उन के हाथ से निकल चुका था. गौतम के पास उमा की तरफ से 2-3 पत्र और आए. एक पत्र रामकुमार का भी आया. उन पत्रों को बिना पढ़े ही उस ने फाड़ कर फेंक दिया था.

पीएच.डी. करने के बाद गौतम शादी करवाने भारत गया और एक बहुत ही सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर अपना जीवन सफल समझने लगा. उस के बाद उस ने शायद ही कभी रामकुमार और उमा के बारे में सोचा हो. उमा का तो शायद खयाल कभी आया भी हो, पर उस की याद को अतीत के गहरे गर्त में ही दफना देना उस ने उचित समझा था.

उस दिन रवि ने गौतम की पुरानी स्मृतियों को झकझोर दिया था. प्रोफेसर गौतम सारी रात उमा के बारे में सोचते रहे कि उस बेचारी ने उन का क्या बिगाड़ा था. रामकुमार के एहसान का उस ने कैसे बदला चुकाया था. इन्हीं सब बातों में उलझे, प्रोफेसर को नींद ने आ घेरा.

ठक…ठक की आवाज के साथ विभाग की सचिव सिसिल 9 बजे प्रोफेसर के कमरे में ही आई तो उन की निंद्रा टूटी और वे अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गए. प्रोफेसर ने उस को रवि के फ्लैट का फोन नंबर पता करने को कहा.

कुछ ही मिनटों बाद सिसिल ने उन्हें रवि का फोन नंबर ला कर दिया. प्रोफेसर ने रवि को फोन मिलाया. सवेरेसवेरे प्रोफेसर का फोन पा कर रवि चौंक गया, ‘‘मैं तुम्हें इसलिए फोन कर रहा हूं कि तुम यहां पर पीएच.डी. के लिए आर्थिक सहायता की चिंता मत करो. मैं इस विश्वविद्यालय में ही भरसक कोशिश कर के तुम्हें सहायता दिलवा दूंगा.’’

रवि को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह धीरे से बोला, ‘‘धन्यवाद… बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘बरसों पहले तुम्हारे नानाजी ने मुझ पर बहुत उपकार किया था. उस का बदला तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा पर उस उपकार का बोझ भी इस संसार से नहीं ले जा पाऊंगा. तुम्हारी कुछ मदद कर के मेरा कुछ बोझ हलका हो जाएगा,’’ कहने के बाद प्रोफेसर गौतम ने फोन बंद कर दिया.

रवि कुछ देर तक रिसीवर थामे रहा. फिर पेन और कागज निकाल कर अपनी मां को पत्र लिखने लगा.

आदरणीय माताजी,

आप से कभी सुना था कि इस संसार में महापुरुष भी होते हैं परंतु मुझे विश्वास नहीं होता था.

लेकिन अब मुझे यकीन हो गया है कि दूसरों की निस्वार्थ सहायता करने वाले महापुरुष अब भी इस दुनिया में मौजूद हैं. मेरे लिए प्रोफेसर गौतम एक ऐसे ही महापुरुष की तरह हैं. उन्होंने मुझे आर्थिक सहायता दिलवाने का पूरापूरा विश्वास दिलाया है.

प्रोफेसर गौतम बरसों पहले कानपुर में नानाजी के विभाग में ही काम करते थे. उन दिनों कभी शायद आप की भी उन से मुलाकात हुई होगी…

आप का रवि

Honeymoon : नाजायज प्‍यार

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘पर, क्या तुम्हें अब भी लगता है कि मैं ने तुम को धोखा दिया है और प्यार का नाटक कर के तुम्हारा बलात्कार किया है,‘‘ वीरेन की इस बात पर नमिता सिर्फ सिर झुकाए बैठी रही. उस की आंखों में बहुतकुछ उमड़ आया था, जिसे रोकने की कोशिश नाकाम हो रही थी.

नमिता के मौन की चुभन को अब वीरेन महसूस कर सकता था. उन दोनों के बीच अब दो कौफी के मग आ चुके थे, जिन्हें होठों से लगाना या न लगाना महज एक बहाना सा लग रहा था, एकदूसरे के साथ कुछ समय और गुजारने का.

‘‘तो इस का मतलब यह है कि तुम सिर्फ मुझे ही दोषी मानती हो… पर, मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की… हमारे बीच जो भी हुआ, वो दो दिलों का प्यार था और जवान होते शरीरों की जरूरत… और फिर संबंध बनाने से कभी तुम ने भी तो मना नहीं किया.‘‘

वीरेन की इस बात से नमिता को चोट पहुंची थी, तिलमिलाहट की रेखा नमिता के चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी.

पर, अचानक से एक अर्थपूर्ण मुसकराहट नमिता के होठों पर फैल गई.

‘‘उस समय तुम 20 साल के रहे होगे और मैं 16 साल की थी… उम्र के प्रेम में जोश तो बहुत होता है, पर परिपक्वता कम होती है और किए प्रेम की परिणिति क्या होगी, यह अकसर पता नहीं होता…

‘‘वैसे, सभी मर्द कितने स्वार्थी होते हैं… दुनिया को अपने अनुसार चलाना चाहते हैं और कुछ इस तरह से कि कहीं उन का दामन दागदार न हो जाए.‘‘

‘‘मतलब क्या है तुम्हारा?‘‘ वीरेन ने पूछा.‘‘आज से 16 साल पहले तुम ने प्रेम की आड़ ले कर मेरे साथ जिस्मानी संबंध बनाए, उस का परिणाम मैं आज तक भुगत ही तो रही हूं.‘‘‘थोड़ा साफसाफ कहो,‘‘ वीरेन भी चिहुंकने लगा था.

‘‘बस यही कि मेरे बच्चा ठहर जाने की बात मां को जल्द ही पता चल गई थी. वे तुरंत ही मेरा बच्चा गिराने अस्पताल ले कर गईं…”पर… पर, डाक्टर ने कहा कि समय अधिक हो गया है, इसलिए बच्चा गिरवाने में मेरी जान को भी खतरा हो सकता है,‘‘ दो आंसू नमिता की आंखों से टपक गए थे.

‘‘हालांकि पापा तो यही चाहते थे कि मुझे मर ही जाने दिया जाए, कम से कम मेरा चरित्र और उन की इज्जत दोनों नीलाम होने से बच जाएंगे… लेकिन, मां मुझे ले कर मेरठ से दिल्ली चली आईं और बाकी का समय हम ने उस अनजाने शहर में एक फ्लैट में बिताया, जब तक कि मैं ने एक लड़की को जन्म नहीं दे दिया,‘‘ कह कर नमिता चुप हो गई थी.

उस ने बोलना बंद किया.‘‘कोई बात नहीं नमिता, जो हुआ उसे भूल जाओ… अब मैं अपनी बेटी को अपनाने को तैयार हूं… कहां है मेरी बेटी?‘‘‘‘मुझे नहीं पता… पैदा होते ही उसे मेरा भाई किसी अनाथालय में छोड़ आया था,‘‘ नमिता ने बताया.

‘‘पर क्यों…? मेरी बेटी को एक अनाथालय में छोड़ आने का क्या मतलब था?‘‘‘‘तो फिर एक नाजायज औलाद को कौन पालता…? और फिर, हम लोगों से क्या कहते कि हमारे किराएदार ने ही हमारे साथ धोखा किया.‘‘‘‘पर, मैं ने कोई धोखा नहीं किया नमिता.‘‘

‘‘एक लड़की के शरीर से खिलवाड़ करना और फिर जब वह पेट से हो जाए तो उस को बिना सहारा दिए छोड़ कर भाग जाना धोखा नहीं तो और क्या कहलाता है वीरेन?‘‘

‘‘देखो, जहां से तुम देख रही हो, वह तसवीर का सिर्फ एक पक्ष है, बल्कि दूसरा पक्ष यह भी है कि तुम्हारे भाई और पापा मेरे कमरे में आए और मुझे बहुत मारा, मेरा सब सामान बिखेर दिया और मुझे लगा कि मेरी जान को भी खतरा हो सकता है, तब मैं तुम्हारा मकान छोड़ कर भाग गया…

“यकीन मानो, उस के बाद मैं ने अपने दोस्तों के द्वारा हर तरीके से तुम्हारा पता लगाने की कोशिश की, पर तुम्हारा कुछ पता नहीं चल सका.‘‘

‘‘हां वीरेन… पता चलता भी कैसे, पापा ने मुझे घर में घुसने ही नहीं दिया… मैं तो आत्महत्या ही कर लेती, पर मां के सहयोग से ही मैं दूसरी जगह रह कर पढ़ाई कर पाई और आज अपनी मेहनत से तुम्हारी बौस बन कर तुम्हारे सामने बैठी हूं.‘‘

नमिता के शब्द वीरेन को चुभ तो गए थे, पर मैं ने प्रतिउत्तर देना सही नहीं समझा.‘‘खैर, तुम बताओ, तुम्हारी शादी…? बीवीबच्चे…? सब ठीक तो होंगे न,‘‘ नमिता के स्वर में कुछ व्यंग्य सा था, इसलिए अब वीरेन को जवाब देना जरूरी लगा.

‘‘नहीं नमिता… तुम स्त्रियों के मन के अलावा हम पुरुषों के मन में भी भाव रहते हैं… हम लोगों को भी सहीगलत, ग्लानि और प्रायश्चित्त जैसे शब्दों का मतलब पता होता है…

“तुम्हारे घर से निकाले जाने के बाद मैं पढ़ाई पूरी कर के राजस्थान चला गया. वहां मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगा… मेरे मन में भी अपराधबोध था, जिस के कारण मैं ने आजीवन कुंवारा रहने का प्रण लिया… ‘‘

मेरे ‘कुंवारे‘ शब्द के प्रयोग पर नमिता की पलकें उठीं और मेरे चेहरे पर जम गईं.‘‘मेरा मतलब है… अविवाहित… मैं अब भी अविवाहित हूं.‘‘‘‘और मैं भी…‘‘ नमिता ने कहा.

उन दोनों की बातों का सफर लंबा होता देख वीरेन ने और दो कौफी का और्डर दे दिया.

 

‘‘पर, मेरी बेटी अनाथालय में है, यह बात मेरे पूरे व्यक्तित्व को ही कचोटे डाल रही है… मैं अपनी बेटी से मिलने के बाद उसे अपने साथ रखूंगा… मैं उसे अपना नाम दूंगा.‘‘‘पर, कहां ढूंढ़ोगे उसे?‘‘

‘‘अपने भाई का मोबाइल नंबर दो मुझे… मैं उस से पूछूंगा कि उस ने मेरी बेटी को किस अनाथालय में दिया है?‘‘ वीरेन ने कहा.‘‘वैसे, इस सवाल का जवाब तुम्हें कभी नहीं मिल पाएगा… क्योंकि इस बात का जवाब देने के लिए मेरा भाई अब इस दुनिया में नहीं है. एक सड़क हादसे में उस की मौत हो गई थी.‘‘

‘‘ओह्ह, आई एम सौरी,‘‘ मेरे चेहरे पर दुख और हताशा के भाव उभर आए.‘‘हम शायद अपनी बेटी से कभी नहीं मिल पाएंगे?‘‘‘‘नहीं नमिता… भला जो भूल हम ने की है, उस का खमियाजा हमारी बेटी क्यों भुगते… मैं अपनी बेटी को कैसे भी खोज निकालूंगा.’’

‘‘मैं भी इस खोज में तुम्हारा पूरा साथ दूंगी.‘‘नमिता का साथ मिल जाने से वीरेन का मन खुशी से झूम उठा था. शायद ये उन दोनों की गलती का प्रायश्चित्त करने का एक तरीका था.

अपनी नाजायज बेटी को ढूंढ़ने के लिए वीरेन ने जो प्लान बनाया, उस के अनुसार उन्हें दिल्ली जाना था और उस अस्पताल में पहुंचना था, जहां नमिता ने बेटी को जन्म दिया था.

वीरेन के हिसाब से उस अस्पताल के सब से निकट वाले अनाथालय में ही नमिता के भाई ने बेटी को दिया होगावीरेन की छुट्टी को पास कराने के लिए एप्लीकेशन पर नमिता के ही हस्ताक्षर होने थे, इसलिए छुट्टी मिलने या न मिलने का कोई अंदेशा नहीं था… नमिता को अपने अधिकारी से जरूर परमिशन लेनी थी.

वीरेन और नमिता उस की पर्सनल गाड़ी से ही दिल्ली के लिए रवाना हो लिए थे.वीरेन के नथुनों में नमिता के ‘डियोड्रेंट‘ की खुशबू समा गई. नमिता के बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे, निश्चित रूप से समय बीतने के साथ नमिता के रूप में और भी निखार आ गया था.

‘‘नमिता कितनी सुंदर है… कोई भी पुरुष नमिता को बिना देर किए पसंद कर लेगा, पर… ‘‘ वीरेन सोच रहा था.‘‘अगर जिंदगी में ‘इफ‘, ‘बट‘, ‘लेकिन’, ‘किंतु’, ‘परंतु’ नहीं होता, तो कितनी सुहानी होती जिंदगी… है न,‘‘ नमिता ने कहा, पर मुझे उस की इस बात का मतलब समझ नहीं आया.

नमिता की कार सड़क पर दौड़ रही थी. नमिता अपने साथ एक छोटा सा बैग लाई थी, जिसे उस ने अपने साथ ही रखा हुआ था.नमिता ‘व्हाट्सएप मैसेज‘ चेक कर रही थी.

वीरेन को याद आया कि पहले नमिता अकसर हरिवंशराय बच्चन की एक कविता अकसर गुनगुनाया करती थी, ‘जो बीत गई सो बात गई‘.

वीरेन ने तुरंत ही गूगल के द्वारा उस कविता को सर्च किया और नमिता के व्हाट्सएप पर भेज दिया.नमिता मैसेज देख कर मुसकराई और उसे पूरे ध्यान से पढ़ने लगी. कुछ देर बाद मैं ने अपने मोबाइल पर भी नमिता का एक मैसेज देखा, जो कि एक पुरानी फिल्म का गीत था, ‘दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा… जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा’.‘‘

उस के द्वारा इस तरह से एक गंभीर मैसेज भेजने के बाद और कोई मैसेज भेजने की वीरेन की हिम्मत नहीं हुई.नमिता खिड़की से बाहर देख रही थी. बाहर अंधेरे के अलावा सिर्फ बहुमंजिला इमारतों की जगमगाहट ही दिखती थी. हालांकि एसी औन था, फिर भी पसीने की चमक मैं नमिता के माथे पर देख सकता था.

‘‘तुम्हारा ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है क्या?‘‘ वीरेन ने पूछ ही लिया.‘‘नहीं. दरअसल, इस से पहले जब तुम साथ में थे, तो उस के बाद मेरे जीवन में एक भूचाल आया था और अब फिर से मैं तुम से मिल रही हूं… ऊपर वाला ही जाने कि अब क्या होगा,‘‘ नमिता के चेहरे पर फीकी मुसकराहट थी.

नमिता को अच्छी तरह पता था कि पीला कलर वीरेन को बहुत पसंद है… और आज उस ने पीली कलर की साड़ी पहनी थी.बीचबीच में वीरेन की नजर अपनेआप नमिता के चेहरे पर चली जाती थी.

‘‘मेरी वजह से नमिता कितना परेशान रही होगी. और न जाने कैसे उस ने अपने मांबाप के अत्याचारों और तानों को सहा होगा,‘‘ यह सोच कर वीरेन को गहरा अफसोस हो रहा था.गाड़ी हाईवे पर दौड़ रही थी. बाहर ढाबों और रैस्टोरैंट की कतार देख कर वीरेन ने कहा, ‘‘चलो, खाना खा लेते हैं.‘‘

वीरेन ने अपने लिए दाल फ्राई और चपाती मंगाई, जबकि नमिता ने सिर्फ सलाद और्डर किया… और धीरेधीरे खाने लगी.

वापस कार में बैठते ही नमिता ने कानों में हैडफोन लगा लिया था और कोई संगीत सुनने लगी. वीरेन समझ गया कि नमिता अब और ज्यादा बातें नहीं  करना चाहती है. लिहाजा, वीरेन भी अपने मोबाइल पर उंगलियों को सरकाने लगा.

कार सड़क पर मानो फिसल रही थी. बाहर रात गहरा रही थी. शहर पीछे छूटते जा रहे थे और नमिता का सिर वीरेन के कंधे पर आ गया था. उसे नींद आ गई थी. उस का मासूम सा चेहरा नींद में कितना खूबसूरत लग रहा था.

नमिता का वीरेन के कंधे पर सिर रख लेना उस के लिए सुखद अहसास से कम नहीं था.कुछ देर बाद ही नमिता जाग गई थी. वीरेन ने भी अपने उड़ते विचारों को थाम लिया था.वे दिल्ली पहुंच गए थे, और वे वहां से कैब ले कर नमिता के फ्लैट की तरफ चल दिए.

‘अमनचैन अपार्टमैंट्स‘ में ही नमिता आ कर रुकी थी और वहीं से कुछ ही दूरी पर एक नर्सिंगहोम था, जहां पर नमिता ने बेटी को जन्म दिया था. यहां पहुंच कर उन्हें सब से पास का अनाथालय ढूंढ़ना था, जिस के लिए वीरेन ने तकनीक की मदद ली और गूगल मैप की सहायता से उसे अनाथालय ढूंढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई. उन्होंने अनाथालय में जा कर वहां के मैनेजर से मुलाकात की.

‘‘जी कहिए… आप कितना डोनेशन देने आए हैं सर,‘‘ गंजे सिर वाले मैनेजर ने पूछा.‘‘डोनेशन…? हम तो एक बच्चे को ढूंढ़ने आए हैं, जिसे आज से 15 साल पहले आप के ही अनाथालय में कोई आ कर दे गया था.‘‘

मैनेजर ने आंखें सिकोड़ीं, मानो वो बिना बताए ही सबकुछ समझने की कोशिश कर रहा था.‘‘अरे साहब, कोई जरूरी नहीं कि वह बच्चा अब भी यहां हो या उसे कोई आ कर गोद ले गया हो… इतने साल पुरानी बात आप आज क्यों पूछ रहे हैं… हालांकि मुझे इस बात से कोई लेनादेना नहीं है… पर, अब पुराने रिकौर्ड भी इधरउधर हो गए हैं… और फिर हम किसी अजनबी को अपनी कोई जानकारी भला दे भी क्यों?‘‘ मैनेजर ने अपनी हथेली खुजाते हुए कहा.

नमिता अपने बच्चे को देखने के लिए अधीर हो रही थी. उस ने अपने पर्स से सौ के नोट की एक गड्डी निकाली और मैनेजर की ओर बढ़ाई.

‘‘जी, ये लीजिए डोनेशन… और इस की रसीद भी हमें आप मत दीजिए. उसे आप ही रख लीजिएगा… बस आज से 15 साल पहले 10 अगस्त को एक लड़की को कोई आप के यहां दे गया था. आप हमें उस बच्ची से मिलवा दीजिए… हम उसे गोद लेना चाहते हैं.‘‘

नोटों की गड्डी को जेब के हवाले करते हुए मैनेजर ने अपना सिर रजिस्टर में झुका लिया और कुछ ढूंढ़ने का उपक्रम करने लगा.‘‘जी, आप जिस बच्ची की बात कर रही हैं… वह कहां है… देखता हूं…‘‘

कुछ देर बाद मैनेजर ने उन लोगों को बताया कि 10 अगस्त के दिन एक लड़की को कोई छोड़ तो गया था, पर अब वह लड़की उन के अनाथालय में नहीं है.‘‘तो कहां है मेरी बेटी?‘‘ किसी अनिष्ट की आशंका से डर गई थी नमिता.

‘‘जी, घबराइए नहीं. आप की बेटी जहां भी है, सुरक्षित है. आप की बेटी को कोई निःसंतान दंपती आ कर गोद ले गए थे.‘‘‘‘कौन दंपती? कहां हैं वो? आप हमें उन का पता दीजिए… हम अपनी बेटी उन से जा कर मांग लेंगे,‘‘ वीरेन ने कहा.

‘‘जी नहीं सर… उस दंपती ने पूरी कानूनी कार्यवाही कर के उस बच्ची को गोद लिया है… अब कोई भी उन से बच्ची को छीन नहीं सकता है,‘‘ मैनेजर ने कहा.

‘‘पर, आप हमें बता तो सकते हैं न कि किस ने उसे गोद लिया है… हम एक बार अपनी बेटी से मिल तो लें,‘‘ नमिता परेशान हो उठी थी.

‘‘मैं चाह कर भी उन लोगों की पहचान आप को नहीं बता सकता हूं… ये हमारे नियमों के खिलाफ है,‘‘ मैनेजर ने कहा.

अब बारी वीरेन की थी. उस ने भी मैनेजर को पैसे पकड़ाए, तो कुछ ही देर में उस ने उस दंपती का पूरा पता एक कागज पर लिख कर मेरी ओर बढ़ा दिया.

ये बरेली के सिविल लाइंस में रहने वाले मिस्टर राजीव माथुर का पता था.‘‘अब हमें वापस चलना चाहिए,‘‘ वीरेन ने नमिता से कहा.‘‘नहीं, मैं अपनी बेटी से जरूर मिलूंगी और अपने साथ ले कर आऊंगी,‘‘ नमिता ने कहा, तो वह उस के चेहरे पर कठोरता का भाव साफ देख सकता था.

वीरेन के समझाने पर भी नमिता नहीं मानी, तो वे बरेली की तरफ चल दिए और वहां पहुंच कर दिए गए पते को खोजते हुए राजीव माथुर के घर के सामने खड़े हुए थे. वह एक सामान्य परिवार था. उन का घर देख कर तो ऐसा ही लग रहा था.

राजीव माथुर के घर की घंटी बजाई, तो उन के नौकर ने दरवाजा खोला. सामने ही मिस्टर माथुर थे. मिस्टर माथुर की उम्र कोई 70 साल के आसपास होगी, पर उन्हें व्हीलचेयर पर बैठा देख वीरेन को एक झटका सा जरूर लगा, मिस्टर माथुर के साथ ही उन की पत्नी भी खड़ी थीं. उन दोनों को देख कर नमिता और वीरेन के चेहरे पर कई प्रश्नचिह्न आए.

पर, फिर भी उन्होंने एक महिला को देख कर उन्हें ड्राइंगरूम में बिठाया और अपने नौकर को 2 कप चाय बनाने को कहा.

‘‘जी, दरअसल, हम लोग दिल्ली से आए हैं और आप लोग जिस अनाथालय से एक लड़की को गोद ले कर आए थे… वो दरअसल में हमारी बेटी है,‘‘ नमिता ने एक ही सांस में मानो सबकुछ कह डाला था और बाकी का अनकहा मिस्टर माथुर बखूबी समझ गए थे.

‘तो आज इतने सालों के बाद मांबाप का प्यार जाग उठा है… अब आप लोग मुझ से क्या चाहते हैं?‘‘‘देखिए, मैं जानता हूं कि आप ने कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद ही हमारी बेटी को गोद लिया है… पर, फिर भी…‘‘ वह आगे कुछ कह न पाया, तो मिस्टर माथुर ने वीरेन की मदद की.

‘‘पर, फिर भी… क्या… बेहिचक कहिए…‘‘‘‘दरअसल, हम हमारी बेटी को वापस चाहते हैं.‘‘वीरेन भी हिम्मत कर के अपनी बात कह गया था.

कुछ देर चुप रहने के बाद मिस्टर माथुर ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखिए, यह तो संभव नहीं है. आज का युवा मजे करता है, जब फिर बच्चे पैदा होते हैं,  फिर अनाथालय में छोड़ देता है और फिर एक दिन अचानक उन का प्यार जाग पड़ता है और वे औलाद को ढूंढ़ने चल पड़ते हैं.

‘‘आप जैसे लोगों की वजह से ही अनाथालयों में बच्चों की भीड़ लगी रहती है और कई नवजात बच्चे कूड़े के ढेर में पड़े हुए मिलते हैं… और मुझे लग रहा है कि आप दोनों अब भी अविविवाहित हैं?‘‘ मिस्टर माथुर का पारा बढ़ने लगा था. उन की अनुभवशाली आंखें काफीकुछ समझ गई थीं.

कुछ देर खामोशी छाई रही, फिर मिस्टर माथुर ने अपनेआप को संयत करते हुए कहा, ‘‘खैर जो भी हो, अब वह हमारी बेटी है और वह हमारे ही पास रहेगी… अगर आप चाय पीने में दिलचस्पी रखते हों तो पी सकतें हैं, नहीं तो आप लोग जा सकते हैं.‘‘

कुछ कहते न बना वीरेन और नमिता से, वे दोनों अपना सा मुंह ले कर मिस्टर माथुर के घर से निकल आए.माथुर दंपती ने जब अनाथालय से बच्ची को गोद लिया था, तब उन की उम्र 55 साल के आसपास थी, एक बच्ची को गोद लेने की सब से बड़ी वजह थी कि मिस्टर माथुर के भतीजों की नजर उन की संपत्ति पर थी और माथुर दंपती के निःसंतान होने के नाते उन के भतीजे उन की दौलत को जल्दी से जल्दी हासिल कर लेना चाहते थे.

मिस्टर माथुर ने बच्ची को गोद लेने के बाद उस का नाम ‘सिया‘ रखा और उसे खूब प्यारदुलार दिया. उन्होंने सिया के थोड़ा समझदार होते ही उसे ये बात बता दी थी कि सिया के असली मांबाप वे नहीं हैं, बल्कि कोई और हैं और वे लोग उसे अनाथालय से लाए हैं.

इस बात को सिया ने बहुत ही सहजता से लिया और वह माथुर दंपती से ही अपने असली मांबाप की तरह प्यार करती रही.आज माथुर दंपती के इस प्रकार के रूखे व्यवहार से नमिता बुरी तरह टूट गई थी. वह होटल में आ कर फूटफूट कर रोने लगी. वीरेन ने उसे हिम्मत दी, “तुम परेशान मत हो नमिता… मैं माथुर साहब से एक बार और मिल कर उन से प्रार्थना करूंगा, उन के सामने अपनी झोली फैलाऊंगा. हो सकता है कि उन्हें दया आ जाए और वे हमारी बेटी से हमें मिलने दें,” वीरेन ने कहा.

अगले दिन वीरेन एक बार फिर मिस्टर माथुर के सामने खड़ा था. उसे देखते ही मिस्टर माथुर अपना गुस्सा कंट्रोल करते हुए बोले, “अरे भाई, क्यों बारबार चले आते हो हमें डिस्टर्ब करने…? क्या कोई और काम नहीं है तुम्हारे पास? हम तुम्हें अपनी बेटी से नहीं मिलवाना चाहते… अब जाओ यहां से?”

एक बार फिर वीरेन अपना सा मुंह ले कर वापस आ गया था.वीरेन को बारबार सिया से मिलने के लिए परेशान और मिस्टर माथुर के रूखे व्यवहार को देख कर मिस्टर माथुर की पत्नी ने उन से कहा, “आप उन लोगों को सिया से मिला क्यों नहीं देते?”

“आज को तुम बेटी को मिलाने को कह रही हो, कल को उसे उन लोगों के साथ जाने को कहोगी… और क्या पता कि ये लोग भला उस के असली मांबाप हैं भी या नहीं,” मिस्टर माथुर ने अपनी पत्नी से कहा.

“वैसे, अपनी सिया की शक्ल उस युवक से काफी हद तक मिलती तो है,” मिसेज माथुर ने कहा, तो मिस्टर माथुर ने भी अपनी आंखें कुछ इस अंदाज में सिकोड़ीं, जैसे वे वीरेन और सिया की शक्लें मिलाने का प्रयास कर रहे हों और कुछ देर बाद वे भी मिसेज माथुर की बात से संतुष्ट ही दिखे.

“अब यहां रुके रहने से क्या फायदा वीरेन? हम ने जो गलत काम किया है, उस की सजा हमें इस रूप में मिल रही है कि हम अपनी बेटी के इतने करीब आ कर भी उस से नहीं मिल पाएंगे,” नमिता ने दुखी स्वर में कहा.

“हां नमिता… पर, एक बार मुझे और कोशिश करने दो. हो सकता है कि उन का मन पसीज जाए… और फिर तुम ने ही तो एक बार किसी कवि की चंद पंक्तियां सुनाई थीं न… ‘फैसला होने से पहले मैं भला क्यों हार मानूं… जग अभी जीता नहीं है… मैं अभी हारा नहीं हूं’,” वीरेन ने कहा.

“तो फिर मैं भी तुम्हारे साथ हूं,” नमिता ने भी दृढ़ता से कहा.एक बार फिर से वीरेन और नमिता माथुर दंपती के सामने बैठे हुए थे. मिस्टर माथुर का लहजा भी थोड़ा नरम लग रहा था.

“तो वीरेनजी, हम आप को आप की बेटी से मिलने तो देंगे, पर हम ये कैसे मान लें कि आप ही सिया के असली मांबाप हैं?”“जी, मैं किसी भी तरह के टैस्ट के लिए तैयार हूं,” वीरेन का स्वर अचानक से चहक उठा था.

“तो फिर ठीक है, आप लोग अपना डीएनए टेस्ट करवा लाइए और आज मैं आप लोगों को सिया से मिलवा देता हूं.”मिसेज माथुर अपने साथ सिया को ले कर आईं, 15 साल की सिया कितनी भोली लग रही थी, उस के चेहरे पर वीरेन की झलक साफ नजर आ रही थी.नमिता ने दौड़ कर सिया को अपनी बांहों में भर लिया और उसे चूमने लगी. वीरेन तो सिर्फ सिया को निहारे जा रहा था. उन का इस तरह से अपनी बेटी से मिलना देख कर माथुर दंपती की आंखें भी भर आई थीं.

कुछ दिनों बाद डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट से यह साफ हो गया था कि सिया ही नमिता और वीरेन की बेटी है.

“देखो गलती हर एक से होती है, पर अपनी गलती का अहसास हो जाए तो वह गलती नहीं कहलाती… सिया तुम्हारी ही बेटी है, ये तो टैस्ट से साबित हो गया है, पर अब कानूनन हम ही उस के उस के मांबाप हैं और हम अपनी बेटी को अब किसी को गोद नहीं देंगे… तुम लोगों को भी नहीं…

“पर, मैं तुम दोनों से सब से पहले तो ये गुजारिश करूंगा कि तुम दोनों शादी कर लो और आगे का जीवन प्यार से बिताओ.‘‘

मिस्टर माथुर की ये बात सुन कर नमिता के गालों पर अचानक शर्म की लाली घूम गई थी. साथ ही साथ ये भी कहूंगा कि तुम दोनों अपनी सारी संपत्ति सिया के नाम करो, तभी मुझे ये लगेगा कि तुम लोगों का अपनी बेटी के प्रति यह प्रेम कहीं  क्षणभंगुर तो नहीं…, कहीं यह कोई दिखावा तो नहीं है, जैसे वक्तीतौर का प्यार होता है…” मिस्टर माथुर ने मुसकराते हुए कहा.

मिस्टर माथुर की किसी भी बात से वीरेन और नमिता को कोई गुरेज नहीं था. वीरेन ने नमिता की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा, नमिता खामोश थी, पर उस की मुसकराती हुई खामोशी ने वीरेन को जवाब दे दिया था.

“माथुर साहब, आप ने हमें हमारी बेटी से मिलने की अनुमति दे कर हम पर बहुत बड़ा अहसान किया है, भले ही हम सिया को दुनिया में लाने का माध्यम बने हैं, पर उस को मांबाप का प्यार तो आप लोगों ने ही दिया है… सिया आप की बेटी बन कर ही रहेगी… इसी में हम लोगों की खुशी है,” वीरेन ने कहा.

“और हम लोगों की खुशी तुम दोनों को दूल्हादुलहन के रूप में देखने की है… अब जल्दी करो शादी तुम लोग…” मिसेज माथुर ने मुसकराते हुए कहा. कमरे में सभी के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ गई थी.

नमिता और वीरेन दोनों ने एक मंदिर में एकदूसरे को जयमाल पहना कर शादी कर ली. दोनों बहुत सुंदर लग रहे थे. सिया अपने वीडियो कैमरे से वीरेन और नमिता को शूट कर रही थी, जो उस के जैविक मातापिता थे.

वीरेन और नमिता ने आगे बढ़ कर माथुर दंपती के पैर छू कर आशीर्वाद लिया.“माथुर साहब, आप ने मेरी इतनी बातें मानीं, इस के लिए आप का शुक्रिया, पर, मैं अब एक निवेदन और करना चाहता हूं कि आप दोनों और सिया हमारे साथ शिमला चलें, जहां हम सब मानसिक रूप से रिलेक्स कर सकें,” वीरेन ने कहा.

“अरे भाई, शिमला तो लोग हनीमून मनाने जाते हैं… हम लोग तो बूढ़े हो चुके हैं.” हंसते हुए मिस्टर माथुर ने कहा.

‘‘माथुर साहब, उम्र तो सिर्फ एक नंबर है… और फिर हम भी हनीमून ही तो मनाने जा रहें हैं, जिस में आप लोग हमारे साथ होंगे और हमारी बेटी सिया भी हमारे साथ होगी… होगा न यह एक एक अनोखा हनीमून.”माथुर दंपती ने मुसकरा कर हामी भर ली.

कुछ दिनों बाद माथुर दंपती, सिया और नमिता और वीरेन शिमला में अपना अनोखा हनीमून मना रहे थे और सिया अपने वीडियो कैमरे में नजारे कैद कर रही थी.

Police : फर्जी IFS कैसे नचाती रही पुलिस को

नोएडा के एसएसपी वैभव कृष्ण अपने औफिस में बैठे थे. वह एसपी (देहात) विनीत जायसवाल के साथ अपराधों की रोकथाम के सिलसिले में बैठक कर रहे थे. उन के दफ्तर के बाहर अर्दली और कुछ पुलिस अफसर बैठे थे. वे सभी पुलिस अफसर एसएसपी साहब से मिलने आए थे.

इसी दौरान अर्दली ने देखा कि पुलिस एस्कार्ट के साथ एक मर्सिडीज वहां आई. मर्सिडीज पर लालबत्ती लगी हुई थी. मर्सिडीज से आगे चालक के पास वाली सीट से एक खूबसूरत नौजवान फुरती से उतरा. उस नौजवान के हाथ में लैपटौप बैग था. उस नौजवान ने मर्सिडीज के पीछे का गेट खोला. कार से एक महिला तेजी से बाहर निकली. महिला की उम्र करीब 32-33 साल थी. उस ने जींस और पूरी आस्तीन की टीशर्ट पहन रखी थी.

पुलिस की एस्कार्ट गाड़ी और मर्सिडीज पर लगी लालबत्ती देख कर अर्दली समझ गया कि आगंतुक महिला कोई बड़ी अफसर हैं. अर्दली अपने साहब को महिला के बारे में बताने जाता, उस से पहले ही वह महिला तेज कदमों से चलती हुई आई और उस से बोली कि एसएसपी बैठे हैं क्या. अर्दली ने कहा, ‘‘यस मैम, साहब चैंबर में मीटिंग कर रहे हैं.’’

आगंतुक महिला अर्दली से बिना कुछ कहे सीधे चैंबर का गेट खोल कर अंदर जाने लगी, तो अर्दली ने आगे बढ़ कर गेट खोल दिया. महिला ने चैंबर में घुस कर सामने सीट पर बैठे एसएसपी की ओर अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘हैलो वैभव, आई एम जोया खान, औफिसर औफ  इंडियन फौरेन सर्विस.’’

‘‘जोया मैम, आप से मिल कर खुशी हुई.’’ एसएसपी वैभव कृष्ण ने अपनी सीट से खड़े हो कर जोया से हाथ मिलाते हुए कहा.

एसएसपी ने जोया का किया स्वागत

एसएसपी ने जोया को कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘मैम, अभी तक तो आप के ईमेल ही मिले थे या एकदो बार फोन पर बात हुई थी. मुलाकात आज पहली बार हो रही है.’’

‘‘वैभव, यार तुम को तो पता है कि इंडियन फौरेन सर्विस में कितनी मारामारी रहती है. हमें आधा समय तो विदेशों में और आधा समय भारत में रहना पड़ता है.’’

जोया ने एसएसपी पर अपनी रुतबे वाली नौकरी के बारे में बताते हुए कहा, ‘‘मैं विदेश मंत्रालय में जौइंट सेक्रेटरी लेवल की औफिसर हूं. आजकल मेरी पोस्टिंग यूनाइटेड नेशंस में है.’’

‘‘मैडम, बाई द वे, आप कौन से बैच की आईएफएस औफिसर हैं?’’ पास ही दूसरी कुरसी पर बैठे एसपी (देहात) विनीत जायसवाल ने जोया से पूछा.

जोया ने एसपी (देहात) की ओर नजर उठा कर देखा. फिर उन की वरदी पर लगा आईपीएस का बैज देख कर संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘2007 बैच.’’

‘‘विनीत, आप भी यार हर जगह पुलिस की अपनी इनक्वायरी शुरू कर देते हो.’’ एसएसपी वैभव कृष्ण ने अपने साथी एसपी (देहात) से कहा. फिर जोया खान की ओर मुखातिब हो कर बोले, ‘मैडम, क्या लेंगी? चायकौफी या ठंडा?’

‘‘वैभव, ऐसी कोई औपचारिकता नहीं है. फिर भी पहली बार मुलाकात हुई है, इसलिए आप के साथ कौफी पीने में कोई हर्ज नहीं है.’’ जोया ने खिलखिला कर हंसते हुए कहा.

एसएसपी ने घंटी बजा कर अर्दली से पहले पानी और इस के बाद कौफी लाने को कहा. अर्दली पानी के गिलास रख गया. इस बीच जोया और एसएसपी वैभव कृष्ण कई मुद्दों पर बातें करते रहे. बीचबीच में वहां बैठे एसपी (देहात) विनीत जायसवाल भी अपनी बात कह देते थे.

कुछ ही देर में अर्दली कौफी ले आया. एसएसपी, एसपी (देहात) और जोया खान बातें करते हुए कौफी सिप करने लगे. कौफी पीते हुए जोया ने एसएसपी से कहा, ‘‘वैभव, मेरी गाड़ी में तोड़फोड़ हो गई थी. इस की रिपोर्ट भी मैं ने बिसरख थाने में दर्ज करा दी थी, लेकिन आप की पुलिस ने अब तक इस मामले में कोई काररवाई नहीं की. आप जरा एक बार अपने स्तर पर इस केस को दिखवाना.’’

एसएसपी ने जोया को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘मैडम, मैं इस केस को दिखवा लूंगा.’’

जोया ने कौफी की आखिरी सिप लेते हुए कप खाली किया और कुरसी से उठते हुए एसएसपी से कहा, ‘‘वैभव, आप से पहली मुलाकात अच्छी रही.’’

एसएसपी वैभव कृष्ण ने अपनी कुरसी से खड़े हो कर जोया से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘नाइस टू मीट यू.’’

जोया एसएसपी से मिल कर तेजी से उन के चैंबर से बाहर निकली और फुरती से अपनी गाड़ी के पास पहुंची. वहां पहले से ही लैपटौप बैग लिए खड़े नौजवान ने तेजी से आगे बढ़ कर गाड़ी का पीछे का गेट खोल दिया. जोया बैठ गई, तो उस की गाड़ी सायरन बजाती चल रही पुलिस की एस्कार्ट गाड़ी के पीछेपीछे चली गई.

जोया के जाने पर एसपी (देहात) विनीत जायसवाल ने एसएसपी साहब से कहा, ‘‘सर, आप बुरा नहीं मानें, तो एक बात कहना चाहता हूं.’’

एसपी (देहात) को जोया लगी संदिग्ध

एसएसपी वैभव ने एसपी (देहात) विनीत की ओर सवालिया नजरों से देखकर कहा, ‘‘हां, बताओ क्या कहना चाहते हो.’’

‘‘सर, मुझे जोया मोहतरमा पर शक है.’’ एसपी (देहात) ने संदेह जताते हुए कहा, ‘‘जोया मैडम खुद को 2007 बैच की इंडियन फौरेन सर्विस की औफिसर बता रही हैं और उन की उम्र करीब 32-33 साल लगती है. इस का मतलब क्या वे 20-21 साल की उम्र में ही आईएफएस औफिसर बन गईं.’’

‘‘विनीत, मुझे भी जोया के हावभाव और बात करने का अंदाज देख कर संदेह हो रहा है. तुम्हारी बात में भी दम नजर आता है.’’ एसएसपी ने कहा, ‘‘मैं जोया खान की असलियत का पता लगवा लेता हूं. सारी सच्चाई सामने आ जाएगी.’’

एसएसपी वैभव कृष्ण ने उसी दिन अपने कुछ मातहतों को जोया खान की असलियत का पता लगाने का जिम्मा सौंप दिया. साथ ही उन्होंने साइबर एक्सपर्ट टीम को जोया खान के भेजे एक ईमेल की जांच करने को कहा.

यह ईमेल जोया ने एसएसपी से मुलाकात से कुछ दिन पहले पुलिस एस्कार्ट उपलब्ध कराने के लिए भेजा था.

साइबर एक्सपर्ट टीम ने जोया खान की ओर से भेजे ईमेल के संबंध में जांच की, तो पता चला कि यूनाइटेड नेशंस की असली वेबसाइट सिर्फ  222.ह्वठ्ठ.शह्म्द्द है. इसी से मिलतेजुलते नामों से भी कई ईमेल आईडी मिलीं.

असलियत जानने के लिए डोमेन नेम की जांच कराई गई. इस में पता चला कि जोया ने खुद अपने लैपटौप से बैंक अकाउंट के माध्यम से शह्म्द्द नामक वेबसाइट खरीद कर उस से ईमेल बनाया था.

इस के अलावा दूसरी पुलिस टीम को जोया खान के बारे में कई ऐसी बातें पता चलीं, जिन से यह बात पुख्ता हो रही थी कि जोया खान फरजी आईएफएस अफसर बन कर घूमती है.

फरजी होने के मिले सबूत

सभी तरफ  से जोया खान के बारे में फरजी अफसर होने की पुष्टि होने पर नोएडा पुलिस ने जोया खान को हिरासत में ले कर पूछताछ की, तो उस की जालसाजी की सारी पोल खुल गई. पुलिस ने पूछताछ के बाद जोया खान और उस के पति हर्षप्रताप सिंह को 4 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया.

पुलिस ने जोया के पास से यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट का फरजी डिप्लोमैटिक आईडी कार्ड, 2 लैपटौप, पिस्टलनुमा लाइटर गन, वाकीटाकी वायरलैस सेट, 4 मोबाइल फोन, एटीएम कार्ड, पैन कार्ड, फरजी ड्राइविंग लाइसैंस सहित यूएन का लोगो लगी मर्सिडीज कार और नीली बत्ती लगी एसयूवी महिंद्रा कार सहित कई अन्य सामान भी बरामद किए.

फरजी आईएफएस औफिसर जोया खान और उस के पति से पुलिस की पूछताछ के आधार पर जो कहानी उभर कर सामने आई, वह इस प्रकार है—

जोया मूलरूप से उत्तर प्रदेश के मेरठ की रहने वाली है. मेरठ के कैंट इलाके में सदर बाजार स्थित तिवारी कंपाउंड में उस के पिता का आलीशान बंगला है. उस के पिता ए. खान एमबीबीएस डाक्टर हैं. उन का मेरठ के लालकुर्ती बड़ा बाजार में क्लीनिक है. जोया के पिता डा. ए. खान की इस इलाके में अच्छी शोहरत है. डाक्टरी के पेशे से उन्होंने अच्छीखासी कमाई भी की है.

डा. ए. खान की 2 बेटियां हैं. बड़ी बेटी जोया ने मेरठ के प्रतिष्ठित स्कूल से प्रारंभिक पढ़ाई की थी. इस के बाद उस ने दिल्ली से ग्रैजुएशन किया. दिल्ली यूनिवर्सिटी से जोया ने पौलिटिकल साइंस में एमए किया. सन 2007 में वह दिल्ली में रह कर सिविल सर्विसेज परीक्षा की तैयारी करने लगी. इस के लिए उस ने कोचिंग वगैरह भी की. बाद में उस ने यूपीएससी की ओर से आयोजित सिविल सर्विसेज परीक्षा भी दी, लेकिन कामयाब नहीं हो सकी.

करीब 6-7 साल पहले जोया ने एक बार मेरठ जाने पर अपनी मां को बताया था कि वह हर्षप्रताप सिंह से शादी करेगी. इस पर पिता डा. खान व मां ने बेटी को हर्ष और उस के परिवार से मुलाकात कराने को कहा था, लेकिन जोया ने कभी उन से मुलाकात नहीं कराई.

जोया ने हर्ष से की थी कोर्टमैरिज

जोया ने नवंबर 2013 में हर्षप्रताप सिंह से कोर्टमैरिज की थी. हर्षप्रताप सिंह उस समय स्टेट बैंक औफ  इंडिया में प्रोबेशनरी अफसर की नौकरी छोड़ कर सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी कर रहा था. शादी के बाद हर्ष प्रताप सिंह ने सिविल सर्विस परीक्षा भी दी, लेकिन वह सफल नहीं हो सका. हर्ष प्रताप के पिता उत्तर प्रदेश में एक सरकारी विभाग में जौइंट कमिश्नर हैं.

जोया खान ने अच्छीखासी पढ़ाई की थी. उस की तमन्ना प्रशासनिक अफसर बनने की थी. लेकिन वह परीक्षा में सफल नहीं हो सकी, तो उसे अपने सपनों पर पानी फिरता नजर आया. पति हर्ष प्रताप भी सिविल सर्विस परीक्षा में पास नहीं हो सका था.

करीब 2 साल पहले जोया ने अपने सपनों को पूरा करने और अफसरों जैसा रुतबा हासिल करने के लिए फरजीवाड़ा करने की योजना बनाई. उस ने इंटरनेट पर यूनाइटेड नेशंस सिक्युरिटी से संबंधित सारी जानकारियां जुटाईं. इस के बाद उस ने ‘गो डैडी’ डोमेन से फरजी ईमेल आईडी सिक्युरिटी चीफ  यूनाइटेड नेशन सिक्युरिटी काउंसिल डौट ओआरजी के नाम से बनवाई और इसे रजिस्टर्ड करवाया.

इस के लिए जोया ने यूनाइटेड नेशंस आर्गनाइजेशन के लोगो व अन्य सूचनाएं फरजीवाड़े से हासिल कर उपलब्ध करवाईं. इस के बाद जोया ने खुद का यूनाइटेड नेशंस आर्गनाइजेशन सिक्युरिटी काउंसिल का आईडी कार्ड और विजिटिंग कार्ड बनवाए.

जोया ने खुद का एक डिप्लोमेटिक आईडी कार्ड भी बनवाया. इस में खुद को न्यूक्लियर पौलिसी अफसर बताया गया. वाशिंगटन से जारी इस आईडी कार्ड में जोया की तैनाती अफगानिस्तान में बताई गई थी.

इस के बाद जोया ने उत्तर प्रदेश के एक जिले के एसपी को यूनाइटेड नेशंस और्गनाइजेशन सिक्युरिटी काउंसिल के नाम से ईमेल भेज कर पुलिस एस्कार्ट मांगी.

जोया को इस ईमेल पर पुलिस एस्कार्ट सुविधा मिल गई. पुलिस की सुरक्षा में इधरउधर आनाजाना, हर चौराहे पर पुलिसकर्मियों की ओर से सैल्यूट देने का रुतबा जोया खान को पसंद आ गया.

फरजी अधिकारी बन कर दिखाती थी रुतबा

जोया ने खुद को भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया. मेरठ में भी वह खुद को आईएफएस अफसर बताने लगी. वह किसी को भारतीय विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव बताती, किसी को वह यूनाइटेड नेशंस की सिक्युरिटी काउंसिल की न्यूक्लियर पौलिसी अफसर बताती. जोया ने अपनी मर्सिडीज गाड़ी पर यूनाइटेड नेशंस का लोगो भी लगवा लिया था. एसयूवी कार पर नीली बत्ती लगवा ली थी.

भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी के रूप में जोया खान मेरठ, गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव, अलीगढ़, मथुरा, मुरादाबाद आदि जिलों के एसपी या एसएसपी को यूनाइटेड नेशंस सिक्युरिटी काउंसिल के सिक्युरिटी चीफ की ओर से ईमेल भेज कर पुलिस सुरक्षा की मांग करती थी.

जोया खान ने अपने मोबाइल में वाइस कनवर्टर ऐप डाउनलोड कर रखा था. वह इस ऐप के जरिए अधिकारियों से कभी पुरुष और कभी महिला की आवाज में बात करती थी. किसी जिले के एसपी या एसएसपी को ईमेल भेजने के बाद जोया खान उस अधिकारी को फोन करती और ऐप के जरिए आवाज बदल कर पुरुष की आवाज में कहती कि मैं विदेश मंत्रालय की जौइंट सेक्रेटरी जोया खान का पीए बोल रहा हूं, मैडम आप से बात करना चाहती हैं.

इस के तुरंत बाद जोया खान महिला की आवाज में उस अधिकारी से बात करती. वह धाराप्रवाह अंगरेजी बोलते हुए कई बार फोन पर अधिकारियों को फटकार भी देती थी.

पत्नी जोया के रुतबे के इस खेल में पति हर्ष को भी मजा आने लगा था. जोया इस खेल में पति को साथ रखना चाहती थी. इसलिए दोनों ने मिल कर एक रास्ता निकाला. इस के मुताबिक जोया आईएफएस अधिकारी बन कर कार में पीछे की सीट पर बैठती थी और हर्ष उस क ा कमांडो बन कर कार चलाता था. हर्ष अपने पास लाइटर पिस्टल और वाकीटाकी रखता था.

कार से उतर कर जोया जब किसी अधिकारी से मिलने जाती थी, तो हर्ष उस का लैपटौप और डायरी उठा कर चलता था. पुलिस की एस्कार्ट के सामने जोया और हर्ष किसी को यह जाहिर नहीं होने देते कि वे पतिपत्नी हैं. इस दौरान हर्ष जोया को मैडम कह कर कहता था.

अपनी पोल न खुल सके, इस के लिए जोया अपनी कार चलाने के लिए किसी ड्राइवर को नहीं रखती थी. ड्राइवर को रखने से जोया का फरजीवाड़ा उजागर हो सकता था. इसलिए जोया जब भी आईएफएस अफसर बन कर जाती, तो हर्ष ही कार चलाता था. जोया अपने घर में भी किसी पुलिसकर्मी को नहीं आने देती थी.

इस बीच, जोया अपने पति हर्ष के साथ ग्रेटर नोएडा वेस्ट की प्रिस्टीन एवेन्यू सोसायटी में फ्लैट ले कर रहने लगे. यह फ्लैट जोया ने 6500 रुपए महीने किराए पर ले रखा था. इस सोसायटी में भी जोया ने खुद को आईएफएस अफसर ही बता रखा था.

जोया हर महीने मेरठ भी आतीजाती रहती थी. मेरठ में भी जोया पुलिस एस्कार्ट लेती थी. इस के लिए वह पहले ही एसएसपी को यूनाइटेड नेशंस का ईमेल भेज देती थी. इसी 26 मार्च को भी जोया मेरठ गई थी और पुलिस सुरक्षा ली थी. इसी दिन वह मेरठ के एसएसपी नितिन तिवारी से भी मिली थी. वह विभिन्न जिलों के पुलिस अधिकारियों को फोन कर अपने निजी काम, किसी मुकदमे की पैरवी आदि के लिए कहती थी.

सुरक्षा एजेंसियों ने की पूछताछ

इसी साल जनवरी में ग्रेटर नोएडा वेस्ट की प्रिस्टीन एवेन्यू सोसायटी में रात के समय जोया की कार के शीशे किसी ने तोड़ दिए थे. इस पर जोया ने नोएडा के एसएसपी वैभव कृष्ण से शिकायत की थी. इस संबंध में जोया ने मुकदमा भी दर्ज कराया था. पुलिस की ओर से कोई काररवाई नहीं करने पर वह 30 मार्च को इसी सिलसिले में एसएसपी वैभव कृष्ण से मिलने उन के औफिस में गई थी.

जोया का फरजीवाड़ा उजागर होने के बाद पुलिस अब दूसरी सुरक्षा एजेंसियां जांचपड़ताल में जुटी हुई हैं. जोया खान से बरामद लैपटौप और मोबाइल के डेटा की जांच नोएडा एटीएस टीम कर रही है.

पुलिस यह भी जांच कर रही है कि जोया का संबंध अफगानिस्तान या अन्य किसी देश से तो नहीं है. यह बात भी सामने आई थी कि गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले जोया ने मेरठ में हुई प्रधानमंत्री की रैली के लिए पुलिस से एस्कार्ट मांगी थी. हालांकि पुलिस इस बात से इनकार कर रही है. नोएडा में गिरफ्तारी के बाद जोया के खिलाफ  मेरठ में भी मुकदमा दर्ज किया गया है. इस के अलावा हरियाणा और उत्तर प्रदेश के उन जिलों में भी जोया के खिलाफ  मुकदमा दर्ज करने की तैयारी चल रही है, जहां जोया ने फरजीवाड़े से पुलिस सुरक्षा हासिल की थी.

कहा जाता है कि जोया के मातापिता और हर्षप्रताप के पिता को पता चल गया था कि जोया फरजी आईएफएस अफसर बन कर घूमती है. हर्ष के पिता ने बेटे को समझाया भी था, लेकिन सरकारी अफसर का रुतबा और पुलिस वालों के सैल्यूट के आगे उन की समझाइश का कोई मतलब नहीं निकला. कथा लिखे जाने तक दोनों पतिपत्नी जेल में थे.

Filmstars के ठुमकों पर बरसतें हैं करोड़ों

वाकया अब से कोई 8 साल पहले का है. मशहूर बौलीवुड अभिनेता शाहरुख खान एक शादी में शामिल होने के लिए दुबई गए थे. विवाहस्थल था नामी मेडिनाट जुमैराह होटल, मेजबान थे अहमद हसीम खूरी और मरियम ओथमन, जिन की गिनती खाड़ी के बड़े रईसों में शुमार होती है.

मौका था इन दोनों के बेटे की शादी का, जो इतने धूमधाम से हुई थी कि ऐसा लगा था कि इस में पैसा खर्च नहीं किया गया बल्कि फूंका और बहाया गया है. इस की वजह भी है कि शायद ही खुद अहमद हसीम खूरी को मालूम होगा कि उन के पास कितनी दौलत है.

एक आम पिता की तरह इस खास शख्स की यह ख्वाहिश थी कि बेटे की शादी इतने धूमधाम से हो कि दुनिया याद रखे और ऐसा हुआ भी, जिस में शाहरुख खान का वहां जा कर नाच का तड़का लगाना एक यादगार लम्हा बन गया था.

चूंकि खूरी शाहरुख के अच्छे परिचित हैं, इसलिए यह न सोचें कि वे संबंध निभाने और शिष्टाचारवश इस शादी में शिरकत करने गए थे, बल्कि हकीकत यह कि वह वहां किराए पर नाचने गए थे. आधे घंटे नाचने की कीमत शाहरुख ने 8 करोड़ रुपए वसूली थी और मेजबानों ने खुशीखुशी दी भी थी.

रियल एस्टेट से ले कर एयरलाइंस तक के कारोबार के किंग अहमद हसीम खूरी जो दरजनों छोटीबड़ी कंपनियों के मालिक हैं, के लिए यह वैसी ही बात थी जैसे किसी भेड़ के शरीर से 8-10 बाल झड़ जाना. लेकिन शाहरुख के लिए यह पैसा पूरी तरह से बख्शीश तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन बोनस जरूर था.

यह डील राशिद सैय्यद ने करवाई थी, जो दुबई में शाहरुख के इवेंट आयोजित करवाते हैं. इस डील में भी उन्हें तगड़ा कमीशन मिला था. यह वह दौर था जब शाहरुख खान अपनी बीमारी की वजह से निजी आयोजनों में जाने से परहेज करते थे, पर आधे घंटा ठुमका लगाने के एवज में मिल रही 8 करोड़ की रकम का लालच वह छोड़ नहीं पाए थे. क्योंकि सौदा कतई घाटे का न हो कर तगड़े मुनाफे का था.

ऐसा नहीं है कि शाहरुख देश की शादियों में नाचनेगाने की फीस चार्ज न करते हों. हां, वह कम जरूर होती है. आजकल वह शादियों में शामिल होने के 2 करोड़ लेते हैं और मेजबान अगर उन्हें नचाना भी चाहे तो यह फीस 3 करोड़ हो जाती है.

लेकिन समां ऐसा बंधता है कि लड़की या लड़के वाले के पैसे वसूल हो जाते हैं. शान से शादी करना हमेशा से ही लोगों की फितरत रही है और इस के लिए वे ज्यादा से ज्यादा दिखावा और खर्च करते हैं, जिस का बड़ा हिस्सा मनोरंजन पर खर्च होता है.

करोड़ों के ठुमके

एक दौर था जब अमीरों और जमींदारों के यहां की शादियों में नामी रंडियां, बेड़नियां और तवायफें दूरदूर से नाचने के लिए बुलाई जाती थीं. इन का नाच देखने और मुजरा सुनने के लिए खासी भीड़ इकट्ठी होती थी.

प्रोग्राम के बाद लोग मान जाते थे कि वाकई मेजबान इलाके का सब से बड़ा रईस और दिलदार आदमी है, जिस ने 11 बेड़नियां नचा कर फलां को मात दे दी, जो अपने बेटे की शादी में केवल 5 तवायफें ही ला पाया था.

5 हों या 7 या फिर 11, इन पेशेवर नचनियों को खूब मानसम्मान दिया जाता था और उन की खातिर खुशामद में कोई कमी नहीं रखी जाती थी. इन की फीस भी तब के हिसाब से तौलें तो किसी शाहरुख, सलमान, रितिक रोशन, अक्षय कुमार, कटरीना कैफ, अनुष्का शर्मा, रणवीर सिंह या प्रियंका चोपड़ा से कम नहीं होती थी.

ये सभी फिल्म स्टार शादियों और दूसरे निजी आयोजनों में हिस्सा लेने में अपनी और मेजबान की हैसियत के हिसाब से फीस लेते हैं, जो फिल्मों के अलावा इन की अतिरिक्त आमदनी होती है. हालांकि पैसों के लिए ये अब उद्घाटन के अलावा शपथ ग्रहण समारोहों तक में शामिल होने लगे हैं और विज्ञापनों व ब्रांड प्रमोशन से भी अनापशनाप कमाते हैं. लेकिन शादियों की बात कुछ अलग हटकर है.

वक्त के साथ शादियों के पुराने तौरतरीके बदले तो बेड़नियों और तवायफों की जगह फिल्म स्टार्स ने ले ली. शादियों में खासतौर से इन की मांग ज्यादा होती है, क्योंकि खुशी के इस मौके को लोग यादगार बना लेना चाहते हैं. ऐसे में अगर कोई फिल्मी सितारा वे अफोर्ड कर सकते हैं तो उसे बुलाने से चूकते नहीं.

ये डील सीधे भी होती हैं, पीआर एजेंसी और इवेंट कंपनियों के जरिए भी. और किसी जानपहचान वाले का फायदा भी उठाया जाता है. हालांकि अधिकांश बड़े सितारों ने इस बाबत अपने खुद के भी बिजनैस मैनेजर नियुक्त कर रखे हैं.

शाहरुख खान वक्त की कमी के चलते साल में 3-4 से ज्यादा शादियों में नहीं जाते. इस से ही उन्हें कोई 10 करोड़ की सालाना कमाई हो जाती है. शाहरुख की तरह ही सलमान खान भी साल में 3-4 शादियों में ही शिरकत करते हैं. हां, उन की फीस थोड़ी कम 2 करोड़ रुपए है.

सलमान शादियों में दिल से नाचते हैं और घरातियों और बारातियों को भी खूब नचाते हैं. शाहरुख के बाद सब से ज्यादा मांग उन्हीं की रहती है. आप जान कर हैरान हो सकते हैं कि इन दोनों के पास साल में ऐसे यानी पेड डांस के कोई 200 न्यौते आते हैं, लेकिन ये जाते सिर्फ 3 या 4 में ही हैं.

अक्षय नहीं दिखाते ज्यादा नखरे

जिन्हें शाहरुख या सलमान खान से मंजूरी नहीं मिलती, वे अक्षय कुमार जैसे स्टार की तरफ दौड़ लगा देते हैं जो आसानी से मिल जाते हैं और इन की फीस भी उन से कम होती है. आजकल अक्षय कुमार डेढ़ करोड़ में नाचने को तैयार हो जाते हैं क्योंकि उन का बाजार ठंडा चल रहा है.

अक्षय कुमार की यह खूबी है कि बेगानी शादी में यह दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे वर या वधु पक्ष के बहुत अजीज हैं. अब यह और बात है कि समझने वाले समझ जाते हैं कि वे आए तो किराए पर नाचने हैं.

अक्षय कुमार से भी सस्ते पड़ते हैं रणवीर सिंह, जिन की शादी में नाचने की फीस सिर्फ एक करोड़ रुपए है और केवल शादी में शामिल होना हो यानी नाचना न हो तो वे 50 लाख में भी मुंह दिखाने को तैयार हो जाते हैं.

‘कहो न प्यार है’ फिल्म से रातोंरात स्टार बन बैठे रितिक रोशन शादी में शामिल होने के लिए एक करोड़ फीस चार्ज करते हैं और नाचना भी हो तो इस अमाउंट में 50 लाख रुपए और जुड़ जाते हैं. यानी डेढ़ करोड़ रुपए

कपूर खानदान के रणबीर कपूर कभीकभार ही ऐसे न्यौते स्वीकारते हैं, उन की फीस डेढ़ करोड़ रुपए है.

सस्ती पड़ती हैं एक्ट्रेस

नायकों के मुकाबले शादियों में नचाने को नायिकाएं सस्ती पड़ती हैं जबकि उन में आकर्षण ज्यादा होता है. सब से ज्यादा डिमांड कटरीना कैफ की रहती है, जिन की फीस बड़े नायकों के बराबर ढाई करोड़ रुपए है.

कटरीना को अपनी शादी में नाचते देखने का लुत्फ वही उठा सकता है, जो घंटा आधा घंटा के एवज में यह भारीभरकम रकम खर्च कर सकता हो. हालांकि ऐसे शौकीनों की कमी भी नहीं. कटरीना के बराबर ही मांग प्रियंका चोपड़ा की रहती है. उन की फीस भी ढाई करोड़ है, जिसे अदा कर उन से ठुमके लगवाए जा सकते हैं.

इन दोनों को टक्कर देने वाली करीना कपूर डेढ़ करोड़ में शादी को यादगार बनाने के लिए तैयार हो जाती हैं और नाचती भी दिल से हैं. तय है कपूर खानदान की होने के नाते वे भारतीय समाज और उस की मानसिकता को बारीकी से समझती हैं कि लोग बस इस मौके को जीना चाहते हैं जिस में उन का रोल एक विशिष्ट मेहमान का है.

उन के दादा राजकपूर की हिट फिल्म ‘प्रेम रोग’ में अचला सचदेव नायिका पद्मिनी कोल्हापुरे की शादी में बहैसियत तवायफ ही आई थीं. इस दृश्य के जरिए राजकपूर ने दिखाया था कि ठाकुरों और जमींदारों के यहां शादियों में नाचगाना 7 फेरों से कम अहमियत नहीं रखता और इस पर वे खूब पैसे लुटाते हैं.

रणवीर सिंह की पत्नी दीपिका पादुकोण भी सस्ते में शादी में जाने तैयार हो जाती हैं उन की फीस महज एक करोड़ रुपए है. नामी अभिनेत्रियों में सब से किफायती अनुष्का शर्मा हैं, जो शादी में शामिल होने के 50 लाख और नाचना भी हो तो एक करोड़ रुपए लेती हैं. क्रिकेटर विराट कोहली से शादी करने के बाद भी उन की फीस बढ़ी नहीं है.

वजह कुछ भी हो, शादी को रंगीन और यादगार बनाने के लिए अभिनेत्रियां कम पैसों में मिल जाती हैं. मसलन, सोनाक्षी सिन्हा जो मोलभाव करने पर 25 लाख में भी नाचने को राजी हो जाती हैं, जबकि वह भारीभरकम फीस वाली अभिनेत्रियों से उन्नीस नहीं और उन के मुकाबले जवान और ताजी भी हैं.

युवाओं में उन का खासा क्रेज है. सोनाक्षी से भी कम रेट में उपलब्ध रहती हैं दीया मिर्जा, सेलिना जेटली और गुजरे कल की चर्चित ऐक्ट्रेस प्रीति झिंगयानी और एक वक्त का बड़ा नाम अमीषा पटेल, जिन्होंने रितिक रोशन के साथ ही ‘कहो न प्यार है’ फिल्म से डेब्यू किया था.

इमेज है बड़ा फैक्टर

अपने बजट को ही नहीं बल्कि लोग इन कलाकारों को बुलाते समय अपनी प्रतिष्ठा और उन की इमेज को भी ध्यान में रखते हैं. क्या कोई अरबपति उद्योगपति राखी सावंत को अपने यहां शादी में बुलाएगा, जबकि उस की फीस महज 10 लाख रुपए है? जबाब है बिलकुल नहीं बुलाएगा, क्योंकि राखी की इमेज कैसी है यह सभी जानते हैं.

राखी सावंत को बुलाया तो जाता है और वह हर तरह से नाचती भी हैं लेकिन उन के क्लाइंट आमतौर पर वे नव मध्यमवर्गीय होते हैं जो अपनी धाक समाज में जमाना चाहते हैं.

यही हाल केवल 25 लाख में नाचने वाली पोर्न स्टार सनी लियोनी का है, जिन की क्लाइंटल रेंज उन्हीं की तरह काफी कुछ हट कर है.

राखी और सनी जैसी दरजन भर छोटी अभिनेत्रियों की आमदनी का बड़ा जरिया ये शादिया हैं, जिन में शिरकत करने और नाचने को वे एक पांव पर तैयार रहती हैं. इसी क्लब में मलाइका अरोड़ा भी शामिल हैं, जिन की फीस भी कम 15 लाख है.

हरियाणवी डांसर सपना चौधरी के धमाकेदार डांस और बेबाक अंदाज को तमाम लोग पसंद करते हैं. स्टेज शो के अलावा शादी समारोह में जाने के लिए वह एक लाख रुपए में ही तैयार हो जाती हैं. लेकिन वह 50 प्रतिशत एडवांस लेती हैं.

बड़े नायक और नायिकाएं अपने यहां शादियों में नचवा कर लोग न केवल अपनी रईसी झाड़ लेते हैं बल्कि धाक भी जमा लेते हैं. लेकिन कोई कभी खलनायकों को नहीं बुलाता. कभीकभार शक्ति कपूर शादियों में 10 लाख रुपए में ठुमका लगाने चले जाते हैं पर अब उन की इमेज कामेडियन और चरित्र अभिनेता की ज्यादा बन चुकी है. वैसे भी वह जिंदादिल कलाकार हैं जिस का बाजार और कीमत अब खत्म हो चले हैं.

बदलता दौर बदलते लोग

शादी में हंसीमजाक, नाचगाना न हो तो वह शादी कम एक औपचारिकता ज्यादा लगती है. इसलिए इन में हमेशा कुछ न कुछ नया होता रहता है.

60-70 के दशक में बेड़नियां और तवायफें नचाना उतने ही शान की बात होती थी, जितनी कि आज नामी स्टार्स को नचाना होती है. जरूरत बस जेब में पैसे होने की है. शादियों में नाचने से फिल्मी सितारों को आमदनी के साथसाथ पब्लिसिटी भी मिलती है.

इन के दीगर खर्च और नखरे भी आमतौर पर मेजबान को उठाने पड़ते हैं मसलन हवाई जहाज से आनेजाने का किराया, 5 सितारा होटलों में स्टाफ सहित ठहरने का खर्च और कभीकभी तो कपड़ों तक का भी. बशर्ते मेजबान ने यदि कोई ड्रेस कोड रखा हो तो नहीं तो ये लोग अपनी पसंद की पोशाक पहनते हैं.

शादियों में फिल्मी सितारों का फीस ले कर नाचने और ठुमकने का कोई ज्ञात इतिहास नहीं है, लेकिन इस की शुरुआत का श्रेय उन छोटीबड़ी आर्केस्ट्रा पार्टियों को जाता है, जिन्होंने 80 के दशक से शादियों में गीतसंगीत के स्टेज प्रोग्राम देने शुरू किए थे.

बाद में इन में धीरेधीरे छोटे और फ्लौप कलाकार भी नजर आने लगे. आइडिया चल निकला तो देखते ही देखते नामी सितारों ने इसे धंधा ही बना डाला.

शादियों में इस दौर में महिला संगीत और हल्दी मेहंदी का चलन भी तेजी से समारोहपूर्वक मनाने का बढ़ा था, जिस में रंग इन स्टार्स ने भरना शुरू कर दिया. थीम वेडिंग के रिवाज से भी इन की मांग बढ़ी.

इस के बाद भी यह बाजार बहुत बड़ा नहीं है क्योंकि इन की फीस बहुत ज्यादा है, जिसे कम लोग ही अफोर्ड कर पाते हैं. हां, सपना हर किसी का होता है कि उन के यहां शादी में कोई सलमान, शाहरुख, अक्षय, कटरीना या प्रियंका नाचें, लेकिन यह बहुत महंगा सपना है.

Romantic Poem : भीगते रहे हम, कमरे में बरसात हुई

जब तेरे बारे में दीवारों से कुछ बात हुई

भीगते रह गए हम, कमरे में बरसात हुई

गुल खिले, शाख झुकी और करामात हुई

तू नहीं आई तो खुशबू से बहुत बात हुई

मैं कई बार तेरे जिस्म के घर आया हूं

मगर तुम से अब तक न मुलाकात हुई

कब तेरा आना हुआ, कब बढ़ी है रौनक

कब मुकम्मल महफिल-ए-जज्बात हुई

तीन चीजों के अलावा न नजर आया कुछ

दिन निकला, ढली शाम, जिगर रात हुई.

– जिगर जोशी

online hindi story : कशमकश

 “तुम्हारे पापा नहीं रहे.” उस के फोन उठाते ही मां ने कहा और फफकफफक कर रो पड़ीं.

“क्या कह रही हैं आप? कल ही तो मैं ने उन से बात की थी. अचानक ऐसा क्या हुआ?” अनामिका ने खुद को संभालते हुए कहा.

“बेटा, रात में जब वे सोए थे तब तो ठीक थे. सुबह अपने समय पर नहीं उठे तो मैं ने सोचा शायद रात में ठीक से नींद न आई होगी. 7 बजे जब मैं नीबूपानी ले कर उन्हें जगाने गई तो देखा…” वाक्य अधूरा छोड़ कर वे फिर फफक पड़ीं.

“मां, संभालो खुद को, मैं आती हूं,” कह कर उस ने फोन रख दिया.

उस ने राजीव अंकल, जो उन के पड़ोसी व पापा के अच्छे मित्र थे, को फोन मिलाया. उन्होंने तुरंत फोन उठा लिया. वह कुछ कहने ही वाली थी कि उन्होंने कहा, “बेटा, तुम चिंता मत करना, मैं और तुम्हारी आंटी तुम्हारी मां के पास ही हैं.”

“अंकल, मैं शाम तक ही पहुंच पाऊंगी, चाहती हूं कि पापा का अंतिम संस्कार मेरे सामने हो.”

“ठीक है बेटा, मैं दिनेश के पार्थिव शरीर को बर्फ की सिल्ली पर रखवा देता हूं.”

“थैंक यू अंकल.”

अनामिका फ्लाइट का टिकट बुक करा कर पैकिंग करने लगी. 3 घंटे बाद उस की फ्लाइट थी. बेंगलुरु का ट्रैफिक, 2 घंटे उसे एयरपोर्ट पहुंचने में लगने थे. वह तो गनीमत थी कि बेंगलुरु से लखनऊ के लिए डायरैक्ट फ्लाइट मिल गई थी वरना समय पर पहुंचना मुश्किल हो जाता. टैक्सी में बैठते ही उस ने छुट्टी के लिए मेल कर, अपने बचपन के मित्र पल्लव, जो सीतापुर में रहता था, को फोन कर के पिता के बारे में बताया. उस की बात सुनकर वह स्तब्ध रह गया. कुछ देर बाद उस ने कहा, “मैं तुरंत सीमा के साथ आंटीजी के पास जाता हूं. तुम परेशान न होना, धैर्य रखना.” उस से बात कर उस ने अपने टीममेट अभिजीत को फोन कर वस्तुस्थिति से अवगत कराया. उस ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि वह यहां की चिंता न करे, काम का क्या, वह तो चलता ही रहेगा.

‘काम का क्या, वह तो चलता ही रहेगा’ अभिजीत के शब्द उस के कानों में गूंज रहे थे लेकिन इसी काम के लिए वह पिछले 2 वर्षों से घर नहीं जा पाई है. मां बारबार उस से आने के लिए कहतीं पर उस पर काम का प्रैशर बहुत अधिक था या वही अपना सर्वश्रेष्ठ परफौर्मैंस देने के लिए घर जाना टालती रही. माना आईटी क्षेत्र के जौब में पैसा अधिक है पर यह व्यक्ति का खून भी चूस लेता है. न खाने का कोई समय, न घूमने का, ऊपर से सिर पर छंटनी की तलवार अलग लटकी रहती है.

दस वर्ष हो गए उस को यह जौब करते हुए. मांपापा चाहते थे कि वह विवाह कर ले. विभव उसे चाहता है व उस से विवाह भी करना चाहता है लेकिन अपने औफिस में काम करने वाली अपनी सखियों नमिता और सुहाना की स्थिति देख कर उसे विवाह से डर लगने लगा है. परिवार बढ़ाने के लिए उन का नित्य अपने पतियों से झगड़े की बात सुन कर उसे लगने लगा था कि यदि वह अपने काम के साथ घरपरिवार को समय नहीं दे पाई तो उस के साथ भी यही होगा. वह 2 नावों की सवारी एकसाथ नहीं कर सकती. उस के लिए उस का कैरियर मुख्य है. यह सब सोचतेसोचते वह 32 वर्ष की हो गई लेकिन अपनी मनोस्थिति के कारण वह कोई भी फैसला लेने में खुद को असमर्थ पा रही है. अब तो पापा भी नहीं रहे. मां की जिम्मेदारी भी अब उस पर है. क्या विभव उस की मां की जिम्मेदारी लेने को तैयार होगा? वह विचारों के भंवर में डूबी ही थी कि एयरपोर्ट आ गया. उस ने जल्दी से टैक्सी का पैसा चुकाया और एयरपोर्ट के अंदर गई. बोर्डिग पास ले कर, सिक्यूरिटी चैक के बाद वह वेटिंगलाउंज में जा कर बैठी ही थी कि विभव का फोन आ गया.

“तुम ने बताया नहीं कि अंकल नहीं रहे,” विभव ने कहा.

वह समझ नहीं पा रही थी कि उस के प्रश्न का क्या उत्तर दे, तभी उस ने फिर कहा, “तुम कुछ कह क्यों नहीं रही हो, तुम ठीक तो हो न? बुरा न मानना यार, मुझे अभी पल्लव से पता चला तो मुझे लगा कि तुम ने उसे तो बता दिया पर मुझे नहीं.”

“विभव, मैं अभी बात करने के मूड नहीं हूं. वैसे भी, बोर्डिंग शुरू हो गई है,” कहते हुए अनामिका ने फोन काट दिया. विभव की यही बात उसे अच्छी नहीं लगती थी. हमेशा शिकायतें ही शिकायतें. और समय तो ठीक है पर आज…ऐसे समय में भी वह यह नहीं सोच पा रहा है कि मैं कितनी परेशान हूं. सांत्वना के दो शब्द कहने के बजाय आज भी सिर्फ शिकायत.

जिस्म एयरपोर्ट पर था लेकिन मन घर पहुंच गया था. पापा के पार्थिव शरीर को पकड़ कर मां के फफकफफक कर रोने की छवि आंखों के सामने आते ही उस की आंखों से आंसू निकल पड़े. उसे सदा से ही आंसू कमजोरी की निशानी लगते थे किंतु आज उस ने उन्हें बहने दिया. आज उसे लग रहा था कि ये आंसू ही तो हैं जो इंसान के दर्द को कम करने में सहायक होते हैं. मां अब पापा के बिना कैसे अकेले रहेंगी? वे तो दो जिस्म एक जान रहे हैं. कभी काम से पापा के बाहर जाने की बात यदि छोड़ दें तो मांपापा कभी अलग नहीं रहे. बोर्डिंग का एनाउंसमैंट होते ही उस ने बरसती आंखों को पोंछा व सब से पहले बोर्डिंग गेट पर जा कर खड़ी हो गई. मानो उस के बैठते ही प्लेन चल पड़ेगा. सच, कभीकभी मन तो तुरंत पहुंचना चाहता है और शायद पहुंच भी जाता है पर तन को बहुत सारे बंधनों व नियमों को मानना ही पड़ता है, बहुत सारी बाधाओं को झेलना पड़ता है.

आखिर प्लेन ने उड़ान भर ही ली. उस ने आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों में अतीत के पल चलचित्र की तरह मंडराने लगे. उसे वह दिन याद आया जब उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ शहर में उस का दाखिला होने के बाद पापा उसे होस्टल छोड़ने गए थे.

पापा के जाने के बाद उस की आंखें बरसने को आतुर थीं लेकिन आंसुओं को आंखों में ही रोक कर वह अपने कमरे में आ कर निशब्द एक ही जगह बैठी रह गई थी. मन में द्वंद चल रहा था. आखिर वह दुखी क्यों है? उस की ही इच्छा तो उस के पापा ने उस की मां के विरुद्ध जा कर पूरी की है. उस के मन के प्रश्न का उस के पास कोई उत्तर ही न था. वह एक छोटे कसबे से आई थी. जहां यहां आने से पहले वह खुश थी वहीं अब यहां आ कर न जाने क्यों मन में द्वन्द था, चिंताएं थीं, आशंका थी कि क्या वह इस बड़े शहर में खुद को एडजस्ट भी कर पाएगी. पापा की कपड़े की दुकान थी. वे खुद तो अधिक पढ़ेलिखे नहीं थे लेकिन मनमस्तिष्क से आधुनिक विचारधारा के पोषक थे. वे चाहते थे उन की बेटी इतनी सक्षम बने कि अगर कभी जीवन में कोई कठिनाई आए तो वह उस का सामना कर सके पर उस की मां उस के दूर जाने की आशंका मात्र से ही परेशान थीं. उन्हें लगता था कि उन की भोलीभाली बेटी शहर में अकेली कैसे रह पाएगी.

मां की आशंका गलत भी नहीं थी. पापा के विपरीत उन्होंने शुरू से ही दुनिया की कुत्सित नजरों से बचाने के लिए उसे इतने बंधन में रखा था कि वह किसी से भी बात करने या अकेले कहीं भी जाने में डरने लगी थी. स्कूल भेजना तो मां की मजबूरी थी. घर से स्कूल, स्कूल से घर ही उस की दुनिया थी. मां का अनुशासन या कहें रोकटोक उसे कोई स्वप्न देखने का अधिकार ही नहीं देती थी.

एक बार वह बूआ के घर गई. सीमा दीदी, बूआ की बेटी, जो उस समय डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, को देख कर उस के नन्हें मन में भी एक नन्हा सपना तिर आया था. उस ने सुना था कि डाक्टर बनने के लिए बहुत अच्छे नंबर आने चाहिए. उस ने मन लगा कर पढ़ना शुरू कर दिया था. मैट्रिक में उस के 95 प्रतिशत अंक आए तो उस की बूआ ने के पापा से उस का शहर के अच्छे कालेज में दाखिला करवाने के लिए कहा. पापा को भी अपनी बहन की बात अच्छी लगी. सो, पापा ने इस शहर के अच्छे कालेज में दाखिला करवा कर, स्कूल के पास स्थित महिला होस्टल में उस के रहने की व्यवस्था कर दी है. पापा के जाते समय वह फूटफूट कर रोने लगी थी.

‘बेटा, रो मत. तेरे भविष्य के लिए ही तुझे यहां छोड़ रहे हैं. बस, अपना खयाल रखना. तुझे तो पता है तेरी मां तुझे ले कर कितनी पजेसिव है,’ कहते हुए पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरा था व बिना उस की ओर देखे चले गए.

अपने आंसुओं को रोक कर वह अपने कमरे में आ गई पर उसे बारबार ऐसा लग रहा था कि उसे छोड़ कर जाते हुए पापा की आंखों में भी आंसू थे जिस की वजह से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. यह विचार आते ही वह और उदास हो गई.

‘मैं अंजली, और तुम?’ अंजली ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा.

‘मैं अनामिका,’ अपने विचारों के कवच से बाहर निकलते हुए उस ने कहा.

‘बहुत प्यारा नाम है, क्या करने आई हो?’

‘मैं ने यहां जयपुरिया कालेज में 11वीं में एडमिशन लिया है.’

‘जयपुरिया, उस में तो मैं भी पढ़ रही हूं.’

‘क्या 11वीं में?’

‘नहीं, 12वीं में.’

‘ओह,’ कहते हुए अनामिका के चेहरे पर उदासी झलक आई.

‘क्यों, क्या हुआ? अरे क्लास एक नहीं है तो क्या हुआ, हमारा आनाजाना तो साथ होगा,’ अंजली ने उस के चेहरे की उदासी देख कर कहा.

‘वह बात नहीं, मांपापा की याद आ गई,’ अनामिका ने रोंआसी आवाज में कहा.

‘मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूं. जब भी कोई पहली बार घर छोड़ता है, उस की मनोदशा तुम्हारी तरह ही होती है. पर धीरेधीरे सब ठीक हो जाता है. आखिर, हम अपना कैरियर बनाने के लिए यहां आए हैं. अच्छा, बेसन के लड्डू खाओ. मैं भी कल ही आई हूं, मां ने साथ में रख दिए थे,’ अंजली ने अनामिका का मूड ठीक करने का प्रयास करते हुए कहा.

‘बहुत अच्छे बने हैं,’ अनामिका ने लड्डू खाते हुए कहा.

‘अच्छे तो होंगे ही, इन में मां का प्यार जो मिला है. अच्छा, अब मैं चलती हूं. थोड़ा फ्रैश हो लूं. अपने कमरे में जा रही थी, यह कमरा खुला देख कर तुम्हारी ओर नजर गई तो सोचा मिल लूं अपनी नई आई सखी से. मेरा कमरा तुम्हारे कमरे के बगल वाला है रूम नंबर 205. रात में 8 बजे खाने का समय है, तैयार रहना और हां, अपना यह बिखरा सामान आज ही समेट लेना, कल से तो कालेज जाना है,’ अंजली ने कहा.

अंजली के जाते ही अनामिका अपना सामान अलमारी में लगाने लगी कि तभी मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन मां का था.

“बेटा, तू ठीक है न? सच तेरे बिना यहां हमें अच्छा नहीं लग रहा है. बहुत याद आ रही है तेरी.’

‘मां, मुझे भी,’ कह कर वह रोने लगी.

‘तू लौट आ,’ मां ने रोते हुए कहा.

‘अनामिका, क्या हुआ? अगर तू ऐसे कमजोर पड़ेगी तो पढ़ेगी कैसे? बेटा, रोते नहीं हैं. तेरी मां तो ऐसे ही कह रही है. अगर तुझे नहीं पढ़ना तो आ जा, मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं लेकिन कोई भी फैसला लेने से पहले यह मत भूलना कि पढ़ाई के बिना जीवन बेकार है. चाहे लड़का हो या लड़की, जीवन के रणसंग्राम में खुद को स्थापित करने के लिए शिक्षा बेहद आवश्यक है. क्षणिक निर्णय सदा आत्मघाती होते हैं बेटा. सो, जो भी निर्णय लेना सोचसमझ कर लेना क्योंकि इंसान का सिर्फ एक निर्णय उस के जीवन को बना भी सकता है और बिगाड़ भी,’ पापा ने मां के हाथ से फोन ले कर कहा.

‘अरे, तुम अभी बात ही कर रही हो, खाना खाने नहीं चलना,’ अंजली ने कमरे में आ कर कहा.

‘पापा, मैं खाना खाने जा रही हूं, आ कर बात करती हूं.’

वह अंजली के साथ मेस में गई. वहां उस की तरह ही लगभग 15 लड़कियां थीं. सभी ने उस का बेहद अपनेपन से स्वागत किया. सब से परिचय करते हुए उस ने खाना खाया. रेखा और बबीता नौकरी कर रही थीं जबकि अन्य लड़कियां पढ़ रही हैं. खाना घर जैसा तो नहीं लेकिन ठीकठाक लगा.

खाना खा कर जब वह अपने कमरे में जाने लगी तो उस के साथ चलती रेखा ने उस के पास आ कर कहा, ‘अनामिका, तुम नईनई आई हो, इसलिए कह रही हूं, हम सब यहां एक परिवार की तरह रहते हैं. तुम खुद को अकेला मत समझना. कभी मन घबराए या अकेलापन महसूस हो, तो मेरे पास आ जाना. मेरे कमरे का नंबर 208 है.’

रेखा की बात सुन कर एकाएक उसे लगा कि जब ये लोग रह सकती हैं तो वह क्यों नहीं. मन में चलता द्वन्द ठहर गया था. अंजली ने बताया था कि सुबह 8 बजे नाश्ते का समय है. अपने कमरे में आ कर अब वह काफी व्यवस्थित हो गई थी. मां का फोन आते ही उस ने सारी घटनाओं के बारे में बताते हुए कहा, ‘मां, चिंता मत करो, मैं ठीक हूं, यहां सब लोग अच्छे हैं.’

‘ठीक है बेटा, ध्यान से रहना. आज के जमाने में किसी पर भरोसा करना ठीक नहीं है. कल तेरा स्कूल का पहला दिन है, अपना खयाल रखना. स्कूल से सीधे होस्टल आना और मुझे फोन करना.’

‘जी मां.’

ढेरों ताकीदें दे कर मां ने फोन रख दिया था. मां उस के लिए चिंतित जरूर रहती थीं लेकिन उन्होंने उसे कभी किसी ढोंग या ढकोसले, रूढ़ियों, बेड़ियों व परंपराओं में नहीं बांधा था.

समय पंख लगा कर उड़ता गया, पता ही नहीं चला. हायर सैकंडरी के साथ उस ने इंजीनियरिंग की कोचिंग शुरू कर दी. उस की खुशी की सीमा न रही जब वह जेईई मेंस में क्लियर हो गई. आईआईटी में दाखिले के लिए उसे जेईई एडवांस की परीक्षा देनी थी. उस की मेहनत का परिणाम था कि वह प्रथम बार में ही इस में भी सफल हो गई. आखिरकार, उसे आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया. मांपापा की खुशी का ठिकाना न था. उन के परिवार में वह लड़के, लड़कियों में पहली थी जो इंजीनियरिंग पढ़ेगी. उस के बाद उस ने मुड़ कर नहीं देखा. मां कभी विवाह के लिए कहतीं तो वह कह देती ‘मुझे समय नहीं है’ या ‘जौब के साथ घरपरिवार’ मुझ से न हो पाएगा. वैसे भी, उसे कभी लगा ही नहीं कि उसे विवाह करना चाहिए. पिछले 10 वर्षो में वह कई लोगों के संपर्क में आई. कुछ लोगों ने उस से विवाह की इच्छा जताई पर वह आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि कुछ ही दिनों में उस पर उन की पुरुषवादी मानसिकता प्रभावी होने लगती और उसे अपने आगे बढ़े कदमों को पीछे खींचना पड़ता. इस के साथ ही उसे यह भी लगता कि वह अपने मातापिता की अकेली लड़की है, अगर कभी उन्हें उस की आवश्यकता पड़ी तो क्या उस से विवाह करने वाला पुरुष उस की भावनाओं को समझेगा.

जब वह छोटी थी तो अकसर मांपापा के हितैषी उन से परिवार के वारिस की बात करते तो पापा कहते कि मेरी अनामिका मेरे लिए पुत्र और पुत्री दोनों है. आजकल न पुत्र पास में रहता है और न पुत्री. फिर किसी से आस क्यों? माना मांपापा उस से आस नहीं करते हैं और न ही कभी करेंगे लेकिन उम्र की भी तो अपनी बंदिशें होती हैं.

“अब हम लखनऊ के चौधरी चरण सिंह एयरपोर्ट पर उतर रहे हैं” की आवाज ने उसे अतीत से वर्तमान में ला दिया. प्लेन की खिड़की से उसे नजर आते छोटेछोटे घरों, पेड़पौधों तथा पतली धार में दिखती गोमती नदी को देखना बहुत अच्छा लगता था पर आज उस को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. प्लेन के लैंड करते ही उस ने मोबाइल औन कर मां को फोन मिलाया. फोन चाचाजी ने उठाया. उस की बात सुन कर उन्होंने कहा, “बेटा, सब तेरा ही इंतजार कर रहे हैं.”

उस ने प्लेन में बैठेबैठे ही कैब बुक करवा दी जिस से बाहर निकलते ही वह चल सके. जैसे ही वह एयरपोर्ट से बाहर निकली, कैब मिल गई और वह तुरंत चल पड़ी. वह कुछ तो मिस कर रही थी, शायद पापा को. दरअसल जबजब भी वह घर आती थी, पापा का न जाने कितनी बार फोन आ जाता था, ‘बेटा, तू कहां तक पहुंची है, अभी आने में कितना समय और लगेगा.’

जब वह घर पहंचती, मांपापा गेट के पास खड़े उस का इंतजार करते मिलते. उस के पहुंचते ही गरमागरम जलेबियां और खस्ता मिल जाती थीं क्योंकि उसे जलेबियां बहुत पसंद थीं. आज इस समय वह सब से अधिक पापा के फोन को मिस कर रही थी.

लगभग डेढ़ घंटे में वह सीतापुर अपने घर पहुंची. सभी उस का इंतजार कर रहे थे. पल्लव और सीमा भी वहां उपस्थित थे. अंतिमक्रिया की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. उस के घर पहुंचते ही परिवार के सदस्यों ने पिताजी के पार्थिव शरीर को श्मशान घाट ले जाने की तैयारी शुरू कर दी. उन को उठाने को चार लोग बढ़े तो उस ने कहा, “पिताजी को कंधा मैं भी दूंगी.”

“यह कैसी बात कर रही है बिटिया? हमारे घर की लड़कियां शवयात्रा में सम्मिलित नहीं होतीं. तेरा भाई अमित है न, वह बेटे की जिम्मेदारी निभाएगा,” उस के चाचा अविनाश ने उसे रोकते हुए कहा.

“बेटा, तेरे चाचा ठीक कह रहे हैं. अमित और रोमेश तो हैं ही,” उस के मामा जितेंद्र ने कहा. उन के पीछे खड़ा उन का पुत्र रोमेश भी उन का समर्थन करता प्रतीत हो रहा था.

“चाचाजी, प्लीज मुझे पापा के प्रति अपना कर्तव्य निभाने दीजिए,” उस ने मामा की बात को अनसुना करते हुए चाचाजी से कहा.

“बेटा, लेकिन…”

“राकेशजी, प्लीज, अनामिका ठीक कह रही है. दिनेशजी के लिए वह बेटी नहीं, बेटा ही थी. उन्होंने इसे उसी तरह काबिल और आत्मनिर्भर बनाया जैसा वे अपने बेटे को बनाते. इसे अपने पिता के प्रति कर्तव्य निभाने दीजिए.” राजीव अंकल का सहयोग मिलते ही उपस्थित सभी लोगों के सुर धीमे पड़ गए. उस ने शुरू से अंत तक सारे कर्तव्य निभाए. उस का बचपन का मित्र पल्लव और उस की पत्नी सीमा भी लगातार उसे सहयोग देते रहे. चाचाजी को उस की छोटी जाति के कारण उस का आना बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन वे चुप ही रहे क्योंकि वे जानते थे कि उन के कहने का अनामिका पर कोई असर नहीं होगा. भाभी को तो होश ही नहीं है.

मां की स्थिति देख कर अनामिका सोच रही थी कि सच एक स्त्री का सारा मानसम्मान, साजश्रृंगार पति ही होता है. पति के बिना उस की ज़िंदगी अधूरी है. पापा थे भी ऐसे, उन्होंने सदा अपनी पत्नी के मानसम्मान को सर्वोपरि रखा था. उस ने कभी उन दोनों को झगड़ते नहीं देखा, न ही अपनी इच्छा को दूसरे पर थोपते देखा था. उस की नजरों में वे आदर्श पतिपत्नी थे.

मां की हालत देख कर उस ने छुट्टी बढ़ा ली. साथ ही, उसे वर्क फ्रौम होम की इजाजत मिल गई थी. लेकिन ऐसा कब तक चलेगा, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? नौकरी उस का पैशन है जबकि मां जिम्मेदारी. एक दिन उसे लैपटौप पर काम करते देख कर उस की मां ने कहा, “बेटा, तेरे काम में हर्जा हो रहा होगा. अब तू अपने काम पर लौट जा, मेरी चिंता मत कर. मैं अब ठीक हूं.”

“नहीं मां, आप की खुशी से ज्यादा मेरा काम नहीं है. मैं आप के लिए अपना जौब छोड़ सकती हूं पर आप को अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती.”

“बेटा, मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हूं कि अपनी खुशी के लिए तेरी खुशियां छीन लूं. माना तेरे पापा के जाने के कारण मैं दुखी हूं लेकिन अब मुझे उन के बिना जीने की आदत डालनी ही होगी. बेटा, हम सब इस दुनिया में अपनेअपने किरदार निभा रहे हैं. जब किसी किरदार का रोल खत्म हो जाता है तो उसे जाना ही पड़ता है. बेटा, तेरे पिता का इस संसार में किरदार खत्म हो गया था, इसलिए उन्हें जाना पड़ा. अब मुझे अपना और तुझे अपना किरदार निभाना है,” मां ने उस की ओर देखते हुए कहा.

“किरदार, आप क्या कह रही हैं मां? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है?” अनामिका ने कहा.

“बेटा, अब हमें अपनेअपने किरदार अर्थात अपने कर्तव्य निभाने होंगे. मुझे तेरे पापा की दुकान को संभालना होगा और तुझे अपना काम फिर जौइन करना होगा जिस के लिए तूने इतनी मेहनत की है.”

“मां, दुकान आप संभालोगी?” अनामिका ने आश्चर्य से पूछा.

“क्यों, क्या हुआ? जब तुम बाहर जा कर काम कर सकती हो तो मैं क्यों नहीं? वैसे भी, तुम्हारे पापा मुझ से दुकान की हर बात शेयर करते रहे हैं. मुझे विश्वास है मैं सब संभाल लूंगी. वैसे, भोला तो है ही, तुम्हारे पापा के कहीं जाने पर वही दुकान संभालता था. तेरे पापा को उस पर बहुत विश्वास था. कल जब तू सो रही थी तब वह आया था. वह कह रहा था कि मालकिन, जो होना था वह तो हो गया पर आप इस दुकान को बंद मत कीजिएगा. सदा मालिक का नमक खाया है. छोटा मुंह बड़ी बात मलकिन, मैं झूठ नहीं बोलूंगा. आप तो जानती ही हैं मालकिन कि इस दुकान में मालिक की यादें हैं.

“बेटा, मुझे उस की बात ठीक लगी. वह छोटा था, तभी तेरे पापा उसे गांव से ले कर आए थे. उस का विवाह भी हम ने ही करवाया था. अब इस उम्र में वह बालबच्चों को ले कर कहां जाएगा. तेरे पापा द्वारा छोड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना अब मेरा कर्तव्य ही नहीं, दायित्व भी है,” कहते हुए मां की आंखें भर आई थीं.

“आप का सोचना ठीक है मां, पर मां, आप अकेली कैसे रहोगी?” अनामिका की आंखों में चिंता झलक रही थी.

“मैं अकेली कहां हूं बेटा, मेरे साथ तेरे पापा की यादें हैं, अड़ोसीपड़ोसी हैं, भोला है. फिर, जब चाहूं, तुम से बात कर सकती हूं. इस मोबाइल की वजह से दुनिया बहुत छोटी हो गई है. बस, एक रिक्वैस्ट है, तू अब विवाह कर ले. देख, कोई बहाना मत करना. मातापिता के जीवन की यही सब से बड़ी खुशी है कि उन की संतान अपने घरपरिवार में खुश रहे,” मां ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए, उसे समझाते हुए कहा.

“मां, विवाह करना आसान नहीं है. लेकिन आप को विश्वास दिलाती हूं कि जब भी मुझे समझने वाला लड़का मिल जाएगा, उसे आप से जरूर मिलवाऊंगी.”

“ठीक है बेटा, मेरी चिंता छोड़ कर अब तू अपने काम पर जा. तेरी खुशी ही मेरी खुशी है.”

आखिर मां की जिद के आगे अनामिका को हथियार डालने ही पड़े. वह बेंगलुरु लौटते हुए सोच रही थी कि उस की मां समय के साथ चलने का जज्बा ही नहीं रखतीं, बहादुर भी हैं.

अभी उसे बेंगलुरु आए हुए महीनाभर ही हुआ था कि भोला का फोन आया.

“दीदी, अब हम क्या कहें, कहने में अच्छा तो नहीं लग रहा है लेकिन अगर हम नहीं कहेंगे तो हम मालिक के प्रति अपना फर्ज नहीं निभा पाएंगे.”

“क्या हुआ भोला, खुल कर कहो?”

“दीदी, आप के आने के बाद रोमेश भैया दुकान पर आ कर बैठने लगे हैं. कभीकभी मामाजी भी आ जाते हैं. हिसाबकिताब के 2 रजिस्टर बना लिए हैं. मालिक का तो एक ही रजिस्टर था. हमें उन की नीयत ठीक नहीं लग रही है.”

“क्या, और मां?”

“रोमेश भैया के यहां आने के बाद उन्होंने दुकान पर आना बंद कर दिया है.”

“वे रहते कहां हैं?”

“मालकिन के घर में ही सब आ गए हैं.”

“अच्छा किया जो तुम ने हमें बता दिया. हम देखते हैं.”

“दीदी, मालकिन को न बताइएगा कि हम ने आप को बताया है वरना अगर मामाजी को पता चल गया तो वे हमें नौकरी से निकाल देंगे.”

“हम किसी को कुछ नहीं बताएंगे, तुम निश्चिंत रहो.”

रोमेश दुकान पर बैठने लगा है, सुन कर वह अचंभित थी. मामाजी अपने कार्य के प्रति कभी समर्पित नहीं रहे. पिता से विरासत में मिले व्यवसाय को उन्होंने सुरासुंदरी में गंवा दिया. मामीजी ने उन्हें उन के दुर्व्यसन से मुक्ति दिलवाने की बहुत कोशिश की लेकिन वे उन की हर कोशिश को अपने शक्ति बल से नाकाम कर देते थे. मामी यह सब सह नहीं पाईं. आखिरकार, एक दिन उन्होंने मौत को गले लगा लिया. मामाजी तब भी नहीं सुधरे. मां ने उन्हें समझाने की कोशिश की तो वे उन के साथ भी अभद्र व्यवहार करने लगे. पापा ने उन से दूरी बना ली थी. उन के स्वभाव के कारण मां भी उन से कतराने लगीं. मां को दुख था कि 10 वर्षीय रोमेश उचित देखभाल न होने के कारण आवारा लड़कों की संगत में पड़ कर बिगड़ता जा रहा है.

उसे कुछ समझ नहीं आया तो उस ने मां को फोन मिलाया. फोन उठाते ही मां ने कहा, “बेटा, तुम मेरी चिंता न किया करो. तेरे मामाजी और रोमेश मेरे पास आ गए हैं. रोमेश ने सब संभाल लिया है.”

“लेकिन मां…”

“वे सब भूलीबिसरी बातें हैं. मैं भूल चुकी हूं, तू भी भूल जा. वे दोनों मेरा बहुत खयाल रखते हैं.”

मां की बात सुन कर वह क्या कहती. उस ने फोन रख दिया. मां की बातों से उसे लगा, भोला सच कह रहा है. मामाजी ने मां को अपने मोहजाल में फंसा लिया है. फोन से उन्हें समझाना संभव नहीं है, क्योंकि यह बात इस समय वे समझ ही नहीं पाएंगी. अब उसे ही उन के इस तिलिस्म को तोड़ना पड़ेगा.

उस ने छुट्टी के लिए अप्लाई कर, टिकट बुक करवाया. जैसे भी वह लखनऊ पहुंची, अपने मित्र पल्लव को सारी बातें बताते हुए, उस से दुकान पहुंचने का आग्रह किया. दरअसल, वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए उस ने घर न जा कर, सीधे दुकान जाना उचित समझा. तब तक पल्लव भी वहां पहुंच चुका था. दुकान में प्रवेश करते ही उस ने देखा कि रोमेश दुकान में अपने मित्र के साथ शराब पीते हुए ताश खेल रहा है. दुकान के अन्य कर्मचारी उन की खातिरदारी में लगे हैं. बस, भोला ही कस्टमर को अटेंड कर रहा है. उसे देख कर एक खरीदार ने कहा, “हम तो वर्षों से यहीं से खरीदते आ रहे हैं. अब न वैसा सामान है न वैसा माहौल. अब कोई दूसरी दुकान ढूंढनी पड़ेगी.”

“चलो जी,, शराब की महक के कारण यहां बैठना भी मुश्किल हो रहा है,” उसी समय खरीदारी करने आई महिला ने उठते हुए अपने पति से कहा.

भोला उसे देख कर चौंक गया जबकि अपने खेल में मस्त रोमेश को उस के आने का पता ही नहीं चला.

“भोला, यहां क्या हो रहा है. तुम तो पुराने कर्मचारी हो, तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?”

उस की कड़क आवाज सुन कर रोमेश उठ खड़ा हुआ, बोला, “दीदी, आप अचानक, यहां  कैसे?”

“मैं अचानक यहां आई, तभी तो तुम्हारी करतूतों का पता चला. अभी यहां से 2 ग्राहक असंतुष्ट हो कर गए हैं. तुम तो अपनी हरकतों से पापा का नाम डुबोने में लगे हो.”

“सौरी दीदी, अब ऐसा नहीं होगा.”

“तुम ठीक कह रहे हो, अब ऐसा नहीं होगा. चाबी मुझे दो और निकल जाओ दुकान से. और तुम लोग ग्राहकों की सेवा के लिए नियुक्त किए गए हो न कि इन की सेवा के लिए. अब से भोला इस दुकान को संभालेगा तथा तुम सब को उस की बात माननी होगी,” अनामिका ने कड़क आवाज में रोमेश की ओर देखते हुए अन्य कर्मचारियों से कहा.

रोमेश उसे चाबी दे कर चला गया. अनामिका ने चाबी पल्लव को पकड़ाई तो वह झिझका लेकिन जब अनामिका ने कहा कि पापा के बाद इस शहर में वह सिर्फ उस पर ही भरोसा कर सकती है, तब उस ने चाबी ले ली. इस के बाद उस ने कहा, “भोला, तुम इन का मोबाइल नंबर नोट कर लो. अगर तुम्हें कोई परेशानी हो तो इन्हें फोन कर लेना. दुकान की एक चाबी तुम रखो तथा एक इन के पास रहेगी.”

वह पल्लव से फिर मिलने की बात कह कर अपने घर पहुंची. उसे देख कर मां चौंकीं, बोलीं, “बेटी, तू अचानक, सब ठीक तो है न.”

“सब ठीक है. मामा, आप यहां कैसे?” उस ने चौंकते हुए कहा.

“बेटी, तेरे भाई रोमेश ने दुकान का काम अच्छे से संभाल लिया है. तेरे मामा उसे गाइड करते रहते हैं.”

“मां, तुम्हें मामा और रोमेश के बारे में सब पता है, फिर भी…”

“अब वे बहुत बदल गए है,” मां ने अपने भाई की ओर देखते हुए कहा.

“मां, कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती,” कहते हुए उस ने मामा की ओर देखते हुए दुकान पर घटित सारी घटना उन्हें बताई तथा यह भी कि दुकान के इस माहौल के कारण ग्राहक भी असंतुष्ट हैं.

मामा जब तक कुछ कहते, रोमेश आ गया. रोमेश की हालत देख कर मामा कुछ कह नहीं पाए.

“मामा, आप मां के भाई हैं. मेरा आप को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है लेकिन क्या आप चाहते हैं कि मां भी आप की तरह बरबाद हो जाए. मेरी आप से विनती है कि आप मां को सम्मान से जीने दीजिए. उन से उन के अधिकार मत छीनिए,” कह कर वह अपने कमरे में चली गई.

वह अपने कमरे से बाहर तभी आई जब उसे महसूस हुआ कि मामा चले गए हैं. मां को उदास बैठा देख कर उस ने कहा, “मां, तुम मुझ से नाराज होंगी लेकिन मैं क्या करती? भोला ने मुझे फोन कर के बताया. वह बेहद चिंतित था. मैं सीधे घर न आ कर पहले दुकान इसीलिए गई थी जिस से कि वास्तविक स्थिति का पता लगा सकूं. जैसाकि मैं ने आप को बताया, स्थिति सचमुच भयावनी थी. अगर कुछ दिन और ऐसा चलता तो दुकान ही बंद करवानी पड़ जाती. तुम भोला पर विश्वास कर सकती हो, तो ठीक है, वरना हम दुकान को बेच देते हैं. तुम मेरे साथ में रहो.”

“नहीं बेटी, मैं तेरे पापा की अमानत को अपने जीतेजी नहीं बेचने दूंगी. तेरे मामा पर विश्वास कर मैं ने गलत किया. अब मैं खुद दुकान पर बैठूंगी.”

“ठीक है मां, जैसी तुम्हारी इच्छा. दुकान की एक चाबी तो भोला के पास है, दूसरी चाबी मैं ने पल्लव को दे दी है. मैं तो हूं ही, फिर भी अगर कभी कोई समस्या हो तो पल्लव या सीमा से बात कर लेना. बहुत ही भले हैं दोनों. तुम उन पर विशवास कर सकती हो,” मन की कशमकश को विराम देते हुए अनामिका ने उन की गोद में लेटते हुए कहा.

वे उस का सिर सहलाते हुए सोच रही थीं कि अनामिका के बाहर जाते ही दिनेशजी ने कहा था, सावित्री हर इंसान को समर्थ होना चाहिए जिस से वक्तजरूरत पर उसे किसी के सहारे की आवश्यकता न पड़े. अब वह किसी पर अंधविश्वास नहीं करेगी. वह खुद अपनी ज़िम्मेदारी उठाएगी. अपनी बेटी को व्यर्थ परेशान न करो, उसे अपनी ज़िंदगी जीने दो.

 

 

5 Awesome Love Stories : 5 गहरे प्‍यार की कहानियां

यहां पांच ऐसी बेहतरीन प्रेम कहानियां दी जा रही है, जिसे पढ़ कर आपको अहसास होगा कि किस तरह प्‍यार आज भी सबसे अनमोल है, यह भावना बेशकीमती है, जो हमारे मन की गहराइयों में रह कर हमें सबसे अपने से जोड़े रखती है, पढ़े 5 Awesome Love Stories : 5 गहरे प्‍यार की कहानियां

1. मौसमी बुखार: पति के प्यार को क्या समझ बैठी माधवी?

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‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

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2. कहां हो तुम: क्या सच्चे दोस्त थे ऋतु और पिनाकी

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ऋतु अपने कालेज के गेट के बाहर निकली तो उस ने देखा बहुत तेज बारिश हो रही है. ‘ओ नो, अब मैं घर कैसे जाऊंगी?’ उस ने परेशान होते हुए अपनेआप से कहा. इतनी तेज बारिश में तो छाता भी नाकामयाब हो जाता है और ऊपर से यह तेज हवा व पानी की बौछारें जो उसे लगातार गीला कर रही थीं. सड़क पर इतने बड़ेबड़े गड्ढे थे कि संभलसंभल कर चलना पड़ रहा था. जरा सा चूके नहीं कि सड़क पर नीचे गिर जाओ. लाख संभालने की कोशिश करने पर भी हवा का आवेग छाते को बारबार उस के हाथों से छुड़ा ले जा रहा था. ऐसे में अगर औटोरिक्शा मिल जाता तो कितना अच्छा होता पर जितने भी औटोरिक्शा दिखे, सब सवारियों से लदे हुए थे.

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3. उस रात: क्या सलोनी और राकेश की शादी हुई?

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राकेश की उम्र 35 साल थी. सांवला रंग, तीखे नैननक्श. वह यमुनानगर में अपने परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी बबीता, 2 बेटे 8 साला राजू और 5 साला दीपू थे. राकेश प्रोपर्टी डीलर था. सलोनी बबीता के दूर के रिश्ते के मामा की बेटी थी. वह जगतपुरा गांव में रहती थी. उस के पिताजी की 2 साल पहले खेत में सांप के काटने से मौत हो गई थी. परिवार में मां और छोटा भाई राजन थे. राजन 10वीं जमात में पढ़ रहा था. गांव में उन की जमीन थी. फसल से ठीकठाक गुजारा हो रहा था.

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4. प्यार के काबिल: जूही और मुकुल के बीच क्या हुआ

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मुकुल और जूही दोनों सावित्री कालोनी में रहते थे. उन के घर एकदूसरे से सटे हुए थे. दोनों ही हमउम्र थे और साथसाथ खेलकूद कर बड़े हुए थे.

दोनों के परिवार भी संपन्न, आधुनिक और स्वच्छंद विचारों के थे, इसलिए उन के परिवार वालों ने कभी भी उन के मिलनेजुलने और खेलनेकूदने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया था. इस प्रकार मुकुल और जूही साथसाथ पढ़तेलिखते, खेलतेकूदते अच्छे अंकों के साथ हाईस्कूल पास कर गए थे.

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5. जुगाड़: आखिर वह लड़की अमित से क्या चाहती थी?

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मैं ठीक 10 बजे पूर्व निर्धारित स्थान पर पहुंच गया था. वह दूर से आती हुई दिखी. मैं ने मन ही मन में कहा ‘जुगाड़’ आ गई. हम ने फिर साथ में रिकशा लिया. इस बार मैं पहले की अपेक्षा अधिक चिपक कर बैठा शायद उसे आजमाना चाहता था.

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