नीति ने अपना पर्स उठाया और औफिस से बाहर निकल गई. ‘‘ठंडे दिमाग से सोचना मैडम, ऐसी नौकरी आप को दूसरी नहीं मिलेगी. लौटने का विचार बने तो फोन कर देना.’’ मधुकर ने चलतेचलते उस से कहा.

नीति ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. पैर पटकती चली गई. बाहर आ कर औटो लिया और सीधे अपने कमरे पर आ गई. पर्स बिस्तर पर फेंक कर वहीं पसर गई और रोती रही. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई, पता नहीं चला.

अगले दिन निधि का फोन आया तो उठी. रोज निधि के साथ ही औफिस जाती थी. दोनों एक ही जगह से बस पकड़ती थीं. आज नीति को नहीं देखा तो निधि ने फोन कर के पूछा, ‘‘औफिस में नहीं आई है क्या? सब जगह देखा, सब से पूछा, कहीं मिली नहीं?’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं है, घर पर ही हूं,’’ कह कर नीति ने फोन काट दिया. वह जानती थी कि औफिस से निधि को पता चल जाएगा कि क्यों वह वहां नहीं है. पता लगते ही वह उस से मिलने जरूर आएगी. कल निधि छुट्टी पर थी नहीं तो शायद वह नीति को इस तरह नौकरी छोड़ कर न आने देती.

अब तक भी कल की बात दिमाग से उतरी नहीं थी. बाथरूम में जा कर मुंह धोया और चाय बनाने रसोई में चली गई. चाय भी अच्छी नहीं बनी. दिमाग में तो उधेड़बुन चल रही थी.

नई नौकरी ढूंढ़नी पड़ेगी. पता नहीं अनुभव प्रमाणपत्र भी मधुकर देगा या नहीं. जब तक नौकरी नहीं मिल जाती तब तक कैसे काम चलेगा? अकेली ही रहती है इस शहर में. दोस्त भी कोई इस हाल में नहीं है कि मदद कर पाए. सब उस के ही जैसे हैं.

चाय पी कर बिस्तर पर लेट गई. कब नींद आई, पता ही नहीं चला. दरवाजे की घंटी जोरजोर से बज रही थी. नीति ने नींद में ही जा कर दरवाजा खोला.

‘‘दिन में इतनी गहरी नींद में कौन सोता है, कब से घंटी बजा रही हूं? मुझे भी घर वापस जाना होगा,’’ निधि एक ही बार में सबकुछ बोल गई.

‘‘तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए दवाई ले कर नींद आ गई,’’ नीति ने बहाना बनाया.

‘‘दवाई तो तुम कभी इतनी जल्दी लेती नहीं हो. कल तो औफिस गई थी, फिर अचानक इतनी बीमार कैसे हो गई? बीमारी है या कोई और बात है जो बताना नहीं चाहती हो?’’ निधि ने सवाल किया.

‘‘तुम से क्या छिपा है?’’ नीति ने कहा और कल की पूरी घटना निधि को बताई.

‘‘तुझे क्या पड़ी है किसी को सुधारने की? लोग इतने अच्छे होते तो इन निकेतनों की जरूरत ही क्या होती? कुछ लोग पाप करते हैं. कुछ लोग उन के पाप को पनाह देते हैं.’’

नीति चुपचाप सब सुन रही थी. निधि की बातें व्यावहारिक थीं. लेकिन वह उस जगह वापस लौट कर नहीं जाना चाहती थी. निकेतन चलाने वालों का सच उस के सामने आ चुका था. वहां पल रहे अधिकतर बच्चों के अभिभावकों को वे जानते थे. बड़ी पहुंच वाले, पैसे वाले लोग थे और उस पैसे से ही सब का मुंह बंद कर दिया गया था. उसी पैसे के बलबूते पर कई लोगों के घर चल रहे थे. उन बच्चों के सहारे कुछ और बच्चों को भी जीवनदान मिला हुआ था. उन का जीवन भी चल रहा था. निकेतन में काम करने वाले सभी लोग इस बात को जानते हुए भी चुप रहते थे. नीति ने मुंह खोला तो नौकरी छोड़नी पड़ी.

‘‘एक बार वापस सोच लेना. देख, अकेले तेरे काम छोड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है. अभी अपने बारे में सोच. नौकरी के बिना तू इस शहर में नहीं रह पाएगी.’’

निधि जातेजाते भी अपनी सहेली को सम?ाते हुए गई. नीति ने ध्यान से उस की बात सुनी और सोचसमझ कर निर्णय लेने का वादा किया. लेकिन मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वापस लौट कर नहीं जाना है. उस में काबिलीयत है और काम करने का जनून भी. वह कोई दूसरी नौकरी ढूंढ़ ही लेगी. अपनी आंखों से सबकुछ देखते हुए गलत सहन नहीं करेगी.

10 दिन गुजर गए पर कहीं भी बात बनी नहीं. पैसे भी धीरेधीरे खत्म हो रहे थे. घर पर अभी कुछ भी बताया नहीं था पर हालात घर लौटने के ही हो रहे थे. वापस जाने के बाद मम्मी, पापा की वही रट कि शादी की उम्र निकली जा रही है.

एक दिन सो कर उठी तो फोन बज रहा था. किसी अनजान नंबर से कौल आ रहा था. इतनी जगह सीवी दिया है, शायद किसी कंपनी से ही हो.

‘‘मैडम, आप आज ही इंटरव्यू के लिए आ जाइए.’’ फोन पर एक लड़की बोल रही थी. नीति के कुछ पूछने से पहले ही फोन कट गया. जल्दी से उठ कर नहाने गई और तैयार हो कर फोन पर बताए ऐड्रैस पर पहुंची.

उम्मीद के विपरीत नौकरी मिल गई और अगले ही दिन से फिर वही पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई. नए औफिस में जैसे उस का इंतजार ही हो रहा था. समय ही नहीं लगा घुलनेमिलने में. काम कुछ विशेष नहीं था, बस, फ्रंट डैस्क संभालनी थी. बौस से रोज ही मिलना होता. बहुत शांत और सौम्य व्यक्तित्व. जितना जरूरी हो उतना ही बोलते, पूरे औफिस पर उन का राज था.

एक दिन मधुकर को औफिस में देखा तो नीति का दिमाग घूम गया.

‘शायद डोनेशन के लिए आए होंगे,’ उस ने मन ही मन सोचा. औफिस में उस ने सुना था कि अपने प्रौफिट का एक निर्धारित प्रतिशत बौस दान कर देते हैं. कितनी ही स्वयंसेवी संस्थाओं को उन से वार्षिक अनुदान मिलता था. मधुकर नीति को नहीं देख पाया, उस ने शुक्र मनाया. वह नहीं चाहती थी कि वह उस से बात करे या नए औफिस में कोई जान पाए कि वह मधुकर को जानती है.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. नीति मस्त हो गई थी. पुराने औफिस को, मधुकर को, यहां तक कि निधि को भी लगभग भूल चुकी थी. बौस का रंग उस पर भी चढ़ने लगा था. पूरे औफिस में कोई था ही नहीं जो बौस के बारे में कुछ भी उलटासीधा बोले या उन की बुराई करे. सभी जैसे उन के एहसान तले दबे हुए थे. उन के मोहक व्यक्तित्व का प्रभाव था या धन ऐश्वर्य का, जो भी संपर्क में आता था वही गुलाम हो जाता था. बौस की सैक्रेटरी राजी से भी नीति की अच्छी दोस्ती हो गई थी. राजी ने ही बताया था कि बौस अगले हफ्ते विदेश जाने वाले हैं एक मीटिंग के लिए.

औफिस से भी एकदो लोग उन के साथ जाएंगे.

‘अच्छा होता अगर मेरा नंबर लग जाता,’ नीति ने मन ही मन सोचा और अगले ही दिन पता चला कि बौस के साथ राजी और नीति का ही जाना तय हुआ है. पूरे दिन नीति खयालों में ही उड़ रही थी. उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि किसी दिन अपने बलबूते पर वह विदेश यात्रा करने के काबिल बन पाएगी. अभी तक सुनती ही आई थी कि औफिस की मीटिंग के लिए लोग विदेश यात्रा करते हैं. जिस में अपना कुछ भी खर्च नहीं होता उलटे दोगुनी तनख्वाह मिलती है. घर पर बताने का मन हुआ लेकिन फिर खयाल आया जाने के दिन ही बता कर चौंकाएगी. पहले से बता दिया तो मम्मीपापा की हिदायतें शुरू हो जाएंगी. शंकाएं उमड़ने लगेंगी. औफिस से अकेली वही क्यों जा रही है? इन सभी खयालों के आते ही उस ने अभी नहीं बताने का पक्का इरादा बना लिया.

शाम को अपने कमरे पर पहुंची ही थी कि मधुकर का फोन आया. अनमने से उस ने फोन उठाया.

‘‘नीति, आप से एक बात कहनी है अगर आप फोन न काटें तो.’’ नीति कुछ समझ नहीं पाई, इसलिए उस ने कह दिया, ‘‘जल्दी बोलो जो बोलना है, अभी औफिस से आई हूं, ज्यादा लंबा भाषण मत देना.’’

‘‘ठीक है, सीधे ही कह देता हूं. आप इस विदेश यात्रा के लिए मना कर दीजिए.’’ मधुकर ने कहा तो नीति लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘पहले तो यह बताओ तुम्हें कैसे पता कि मैं विदेश जा रही हूं?’’

मधुकर ने गुस्सा नहीं किया.

‘‘नीतिजी, यह स्वयंसेवी संस्था भी आप के बौस की ही है. उन के पिताजी ने शुरू की थी लेकिन वे रिटायर हो कर अपने गांव चले गए तो अब आप के बौस ही कर्ताधर्ता हैं.’’

‘‘तुम्हें क्या समस्या है मेरे विदेश जाने से?’’ नीति अब भी गुस्से में ही बोल रही थी.

‘‘समस्या मुझे नहीं, आप को होने वाली है. हर साल एक विदेश यात्रा होती है आप के बौस की. औफिस में पता करना. राजी तय करती है कि बौस किस के साथ जाएंगे?’’

मधुकर की बात बीच में ही काट कर नीति बोली, ‘‘वह सैक्रेटरी है बौस की. उस का काम है यह. तुम्हें क्या परेशानी है? मेरी इतनी चिंता क्यों हो रही है?’’

नीति फोन काटने ही वाली थी कि मधुकर ने बात पूरी सुनने का आग्रह किया.

‘‘नीतिजी, अभी आप को कुछ नहीं बता पाऊंगा, बस, इतना कह सकता हूं कि कोई बहाना बना कर मना कर देंगी तो आप का ही फायदा होगा.’’

फोन कट गया पर नीति के दिमाग में हलचल मचा गया. पलंग पर बैठ गई. जिस दिन से मधुकर से मिली थी उस दिन से ले कर नौकरी छोड़ देने तक उसे उस के विरुद्ध कुछ भी ऐसा नहीं याद आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास नहीं करे. रातभर दिमाग में द्वंद्व चलता रहा. सो भी नहीं पाई. सुबह उठते ही राजी को मैसेज किया.

‘‘मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गई तो रात में ही घर के लिए निकलना पड़ा. अभी आईसीयू में हैं. जब तक तबीयत संभल नहीं जाती तब तक औफिस नहीं आ पाऊंगी.’’

राजी का लगातार फोन आ रहा था लेकिन नीति ने बात नहीं की. घर तो नहीं गई लेकिन जब तक विदेश जाने की तारीख नहीं निकल गई, औफिस नहीं गई. कोई फोन भी नहीं किया. एक हफ्ते बाद औफिस गई तो माहौल बदलाबदला सा लग रहा था. राजी खुद को कुछ ज्यादा ही व्यस्त दिखाने में लगी हुई थी. बाकी लोग भी जैसे खिंचेखिंचे से लग रहे थे. पहली बार बौस ने किसी बात को ले कर डांट लगाई. कुल मिला कर सबकुछ बदल गया था. कोई भी ठीक से बात करने को तैयार नहीं था. नीति ने राजी को सम?ाना चाहा अपने नहीं जाने की वजह पर उस ने कोई ध्यान ही नहीं दिया.

‘‘नीति आज बौस का मूड उखड़ा हुआ है और काम भी बहुत है. तुम नहीं गईं, कोई बड़ी बात नहीं. वह मीटिंग वैसे भी कैंसिल हो गई थी.’’

नीति ने और कुछ नहीं पूछा. अपने काम में व्यस्त हो गई. बौस के किसी काम को मना करने का क्या मतलब होता है, उसे समझ आ गया था.

मधुकर से मैसेज कर के पूछा कि उस ने मना क्यों किया तो उस ने टाला नहीं, बस, छुट्टी वाले दिन मिल कर बताने को कहा.

‘‘फोन पर कही हुई या लिखी गई बात कभी भी सब के सामने आ सकती है, इसलिए बेहतर है कि आमनेसामने बात हो. कई बातों का मतलब तो मैसेज या कौल में गलत ही मान लिया जाता है क्योंकि कहने वाले के चेहरे के भाव छिप जाते हैं.’’ आने वाले रविवार को मिलना तय हुआ.

इस मुलाकात ने मधुकर के प्रति जो गुस्सा था उसे खत्म कर दिया. मुलाकात एक स्वयंसेवी संस्था में ही हुई. जगह मधुकर ने ही बताई थी. वहां उस ने महिमा से मिलवाया. उस के गांव की ही लड़की थी. इस शहर में अपना कैरियर बनाने आई थी मगर एक दुर्घटना ने उसे अवसादग्रत बना दिया और नारी निकेतन पहुंचा दिया था. मधुकर उस से मिलने जाता रहता था. महिमा से मिल कर अच्छा लगा लेकिन कुछ ऐसा था जो नीति को नहीं बताया गया था. नीति बारबार यही सोच रही थी.

‘यह पूरी जानकारी नहीं है. बहुतकुछ छिपा है महिमा के चेहरे के पीछे,’ अपने मन की इस बात पर विश्वास कर के नीति ने ठान लिया था कि पता लगा कर रहेगी कि क्यों मधुकर ने महिमा से उसे मिलवाया?

अगले रविवार को फिर से नीति उसी निकेतन में जा पहुंची जहां महिमा रहती थी. वह जानती थी कि मधुकर इतनी जल्दी महिमा से मिलने नहीं जाएगा, इसलिए समय मिलते ही निकल गई. महिमा से इस बार और भी बातें हुईं और उसे पता चल गया कि वह यहां कैसे पहुंची. महिमा मधुकर के साथ उस से मिली थी, इसलिए नीति पर उसे विश्वास हो गया था. दूसरे, नीति ने अपने आने की सूचना मधुकर को भी नहीं दी थी, इसलिए बिना किसी रोकटोक या सलाह के वह खुल कर नीति से बात कर पाई. वह सबकुछ बता दिया जो मधुकर जानते हुए भी उस से छिपा
गया था.

‘‘महिमा तुम्हारी बहन है और व्योम उसी का बेटा है. यही कारण था कि उस का बाकी बच्चों से ज्यादा खयाल रखा जाता था. तुम ने अधिराज से इस बारे में बात क्यों नहीं की?’’ शाम को फोन पर नीति ने मधुकर से सीधे पूछा. कई महीनों से वह इन बातों के चंगुल में फंसी हुई थी. बाल निकेतन को छोड़ने पर भी उस की जड़ों ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था.

‘‘अभी समय नहीं आया है सीधे बात करने का. जब आ जाएगा, जरूर करूंगा. मैं तो इस शहर में आया ही उस से बात करने के लिए हूं.’’
मधुकर ने दृढ़ता से उत्तर दिया. नीति ने एक और सवाल पूछा.

‘‘मुझ से क्या चाहते हो?’’

‘‘अधिराज के मुंह से कबूलनामा कि उस ने मेरी बहन की जिंदगी बरबाद की है और व्योम की परवरिश.’’

मधुकर ने तुरंत उत्तर दिया.

‘‘यह कैसे संभव होगा?’’ कुछ सोचते हुए नीति ने पूछा.

‘‘जल्दी ही तुम्हें बताऊंगा कि तुम्हारी जरूरत कहां पड़ेगी. तब तक निश्चय कर लो कि तुम इस लड़ाई में महिमा और व्योम के साथ हो.’’

कह कर मधुकर ने फोन काट दिया. नीति सोच रही थी कि कैसे बौस के असली चेहरे को देखे क्योंकि मधुकर की योजना में शामिल होने से पहले वह तय करना चाहती थी कि क्या मधुकर सही है? उस ने जो कहानी बताई और दिखाई है वह सच है या फिर अधिराज से मधुकर की कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है.

नए साल की शुरुआत के साथ ही औफिस में नए कर्मचारियों की नियुक्तियां शुरू हो गईं. एक लड़की भी आई, सृष्टि. बला की खूबसूरत और बिंदास. उस के आते ही औफिस के पुरुष कर्मचारियों की कार्यक्षमता दोगुनी हो गई. पहले समय पर औफिस पहुंचना और पहले ही निकल जाना एक आम बात थी लेकिन अब सब जल्दी औफिस आते और जब तक सृष्टि नहीं चली जाती, कोई भी नहीं जाता था. पूरे औफिस का माहौल बदल गया था. थोड़े ही दिन बीते कि राजी को कंपनी के दूसरे औफिस में भेज दिया गया और उस की जगह सृष्टि ने ले ली. अब बौस से उस का सीधा संपर्क होने लगा तो औफिस में कानाफूसी भी बढ़ने लगी. वह कुछ देर बौस के केबिन में रुक जाती तो सब घडि़यां देखने लगते. एकएक मिनट का हिसाब रखा जाता. जब बाहर आती तो ऐसी नजरों से उसे देखते जैसे कोई अपराध कर के आई हो.

कई बार नीति का मन होता कि इस माहौल से खुद को निकाल ले पर दूसरी नौकरी मिले बिना, इसे छोड़ नहीं सकती थी. पहली नौकरी छोड़ने के बाद की हालत उसे अभी भी भूली नहीं थी.

मधुकर का फोन आया और सृष्टि पर नजर रखने के लिए बोला. कारण, अभी नहीं बता सकता. अगले दिन बौस ने केबिन में बुलाया. उन्होंने भी सृष्टि पर नजर रखने के लिए ही कहा. एक बार तो नीति को शक हुआ कहीं अधिराज और मधुकर मिले हुए तो नहीं हैं? पर उस का भी कोई सबूत उस के पास नहीं था. दोनों का जितना चरित्र उस के सामने आया था उस में ऐसा कुछ भी नहीं था कि उन दोनों पर शक किया जा सके.

फिर गुत्थी क्या है? बाल निकेतन, नारी निकेतन और यह औफिस जिस में वह काम करती है, कैसे एकदूसरे से जुड़े हुए हैं? महिमा, राजी और सृष्टि की क्या भूमिका है? व्योम क्यों बाल निकेतन में रह रहा है? दूसरे बच्चों से ज्यादा खयाल उस का क्यों रखा जाता है? बहुत सारे प्रश्न थे जिन के जवाब नीति चाहती थी लेकिन जितना इन सब के बारे में सोचती उतना ही उल?ाती जाती थी. नौकरी करनी है तो इस असमंजस की स्थिति में रहना सीखना ही होगा. शायद समय आने पर इन सवालों के जवाब मिल जाएं. इसी उम्मीद में वह काम कर रही थी. साथ ही, दूसरी नौकरी के लिए भी तलाश जारी थी.

नए साल का पहला दिन तो और भी चौंका गया. महिमा भी औफिस में वापस आ गई. वापस इसलिए कि पहले वह इसी औफिस में काम करती थी. फिर उस के साथ कुछ दुखद हुआ और वह 2 साल नारी निकेतन में थी. क्या हुआ था, यह कोई भी खुल कर नहीं बोलता था. उस के आने से औफिस में 2 दल बन गए थे. एक था जो समय मिलते ही उस की आलोचना करता और दूसरा जिस में एकदो लोग ही थे या तो चुप रहते या उस के काम की तारीफ किया करते. नीति ने महिमा को पहचान लिया था लेकिन उस ने ऐसा ही दिखाया जैसे नीति से वह पहली बार ही मिल रही हो. नीति को थोड़ा अजीब लगा लेकिन उस ने यही सम?ा लिया कि आजकल सबकुछ अजीब ही घट रहा है उस के जीवन में.

मधुकर के फोन आते और वही चुप रह कर सभी पात्रों पर दृष्टि गड़ाए रखने के निर्देश दिए जाते. बौस से भी अब लगभग रोज ही मिलना होता. औफिस के काम के सिवा सृष्टि क्या करती है दिनभर, यह भी रिपोर्ट देनी पड़ती. सृष्टि अभी तक बिंदास फुदकती थी. काम तो दूसरे लोगों से करवा लेती और खुद सजधज, गपशप में व्यस्त रहती. बाकी की कसर बौस की तारीफों के पुल बांध कर पूरी कर लेती. उस का रुतबा बढ़ता ही जाता था.

औफिस में कोई ऐसा नहीं था जो दिन में एक बार सृष्टि से मिल न लेता हो. औफिस की महिलाएं भी उस से जरूर मिलतीं और बात भी करतीं. यह अलग बात है कि पीठपीछे उस की हमेशा बुराई ही करतीं. सृष्टि को चर्चाओं में बने रहना बखूबी आता था. इस के पीछे उस का क्या मकसद था, यह नीति नहीं सम?ा पा रही थी. उसे मधुकर और बौस के कहने पर सृष्टि पर नजर बना कर रखनी पड़ती थी.

नौकरी अब दूसरों पर नजर रखने की ही हो गई थी. कोई विशेष काम उसे नहीं करना पड़ता था. महीने के अंत में तनख्वाह मिल जाती थी. बस, यही एक मकसद बचा था इस नौकरी का. न सीखने को कुछ था और न ही करने को. लगातार दूसरी कंपनियों में आवेदन दे रही थी लेकिन कहीं से भी कोई बुलावा नहीं आता था. उसे कई बार लगता कि इस कंपनी की कोई न कोई नीति ऐसी है कि जब तक कंपनी कर्मचारी को नहीं निकाल देती तब तक दूसरी कंपनी उस के रिज्यूमे पर नजर नहीं डालती है.

दूसरे शहर में आवेदन करने का भी कई बार खयाल आता था पर फिर से नई शुरुआत करने से मन पीछे हट जाता था. मम्मीपापा हर बार बोलते कि सरकारी नौकरी के लिए भी आवेदन करो. थोड़ी तैयारी होगी तो कोई न कोई परीक्षा पास हो ही जाएगी. औफिस के साथ तैयारी का समय ही नहीं बचता था. बड़ी दुविधा में पड़ गई थी नीति.

‘‘नीति, फौरेन इन्वैस्टर्स के साथ एक मीटिंग है. तुम्हें कंपनी में आए हुए एक साल से ज्यादा का समय हो चुका है. कंपनी के बारे में काफीकुछ जान चुकी हो. तुम्हारा नाम भी औफिस से भेजा गया है. तैयार रहना. इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा.’’

बौस ने सुबहसुबह बुला कर साफ शब्दों में आदेश दिया. न कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी. एक बार तो बहुत गुस्सा आया, किसी भी आदेश को बिना जांचेपरखे कैसे माना जा सकता है? पहले से कोई बात नहीं. अचानक से तलवार सिर पर रख दी.

‘इस बार चल कर देखते हैं. ऐसा क्या है इन विदेशी दौरों में?’ इस खयाल ने दिमाग को थोड़ा शांत किया.

आखिर वह दिन भी आया जब नीति एयरपोर्ट पर पहुंच गई. आज मन में डर नहीं था बल्कि खुशी थी. उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि उस के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. प्लेन में बोर्ड करने की घोषणा हो चुकी थी. जैसे ही नीति बैग उठा कर आगे बढ़ी, फोन बजने लगा. मधुकर का फोन था. वापस आना था क्योंकि अंतिम समय पर मीटिंग कैंसिल होने की सूचना मिली थी.

एयरपोर्ट पर ही एक हौल में पूरी टीम इकट्ठा थी. पुलिस भी आई हुई थी. एकएक कर के सब से पूछताछ चल रही थी. सृष्टि और बौस महिमा और मधुकर.

‘‘हुआ क्या है?’’ नीति ने मधुकर के पास जा कर पूछा.

‘‘कल पेपर में पढ़ लेना. अभी पुलिस की कार्यवाही पूरी हो जाए तो घर चले जाना.’’

रात जागतेजागते बीती. बहुत दिनों बाद निधि से भी बात की. बारह बजते ही गूगल पर देखा. कुछ नहीं था. सुबह उठते ही पड़ोस वाली आंटी से पेपर ले कर आई.

‘‘स्वयंसेवी संस्था का अध्यक्ष गिरफ्तार.’’

नीति पूरी खबर तेजी से पढ़ रही थी लेकिन बौस का नाम नहीं था. किसी वीरेन का नाम लिखा था.

‘शायद नाम बदल दिया है,’ उस ने सोचा. औफिस के ग्रुप में कोई मैसेज नहीं था. डरतेडरते औफिस पहुंची लेकिन सब सामान्य था.

‘‘शुक्रिया नीति मेरी मदद करने के लिए,’’ महिमा पास आ कर बोली.

‘‘पर किया क्या है मैं ने?’’ नीति ने थोड़ा दूर हट कर पूछा.

‘‘मधुकर की बात मान कर औफिस में रुकने के लिए,’’ महिमा ने कृतज्ञता के भाव से कहा.

लेकिन नीति के चेहरे पर शिकन बरकरार थी. उस ने शिकायती लहजे में कहा, ‘‘मैं ने तो कुछ किया नहीं. क्या हुआ है, यह भी अभी तक पता नहीं है.’’

‘‘वीरेन को पकड़वाने के लिए यह सब चाल चली गई थी. एक नंबर का ऐयाश है. वह संस्था जिस में तुम काम करती थीं उस की और उस के जैसे कुछ ऐयाशों की औलादों को ही पाल रही थी.’’

बौस कब आए, नीति को पता ही नहीं चला. उन्होंने आगे कहा, ‘‘महिमा उस के चंगुल में फंसी तो हम ने उस की चाल से ही उसे मात दी. कोई भी कांड कर के विदेश भाग जाता था. सृष्टि के जाल में फंस गया और नशे में सबकुछ बोल गया.’’

अब नीति को कुछकुछ समझ आ रहा था. सृष्टि पहले चली गई थी. उसी होटल में थी जिस में वीरेन ठहरा हुआ था. उसी ने उस की असलियत उजागर की.

‘‘मुझे आप सृष्टि पर नजर रखने के लिए क्यों बोलते थे?’’ नीति ने सीधे पूछ ही लिया.

‘‘यह जानने के लिए कि औफिस में किसी को कुछ पता तो नहीं चला है कि सृष्टि कौन है? वह मेरी दोस्त है, मेरी मदद कर रही थी. अब उस के पापा ने इस कंपनी को खरीद लिया है.’’

नीति के दिमाग में एक और प्रश्न था उस स्वयंसेवी संस्था को ले कर.

‘‘पापा रिटायर हो गए हैं तो उस संस्था को संभालेंगे. वीरेन के जाल को हम सब ने मिल कर काट दिया है,’’ सृष्टि चहकती हुई बोली.

‘‘मैं भी वहीं हूं. वापस आना चाहो तो आ जाना,’’ यह मधुकर की आवाज थी.

नीति सारी जानकारी जोड़ कर उसे घटना से मिलाने की कोशिश कर रही थी. जो गुनाहगार था वह चेहरा तो देख ही नहीं पाई थी वह.

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