फरिश्ता कौंप्लैक्स में ममता नगरनिगम के लाल, हरे, काले रंगों के कचरे के बड़े डब्बे लिए एकएक घर की घंटी बजाती कचरा इकट्ठा करने रोज की तरह आवाज लगाने लगी.
उसी समय बाकी कामवालियां भी अपनेअपने लगे घरों में साफसफाई करने को आजा रही थीं और कुछ रहवासी अपने कामधंधे के लिए घर से निकल रहे थे.
उस व्यस्त फ्लोर पर सभी ने एक बार में अपनेअपने कचरे खुद या अपने घर पर काम करने आई बाई के हाथ बाहर भिजवा दिए और कई सीधा उन डब्बों में अपने वेस्ट डाल अपने घरों के भीतर चले गए.
उस फ्लोर पर एक घर शेष था जिस में अभीअभी कोई नए लोग रहने आए थे. कल भी उन्होंने कचरा उस के जाने के बाद बाहर रखा और पूरा फ्लोर बदबूदार हो गया.
वह कल की तरह आज बिल्ंडिंग मैनेजर से डांट नहीं खाना चाहती थी, इसलिए ममता ने फिर घंटी बजाई. लेकिन कोई न आया. उस ने उस घर के सामने जा कर जोर से आवाज लगाई.
‘‘दीदी, कचरा हो तो अभी दे दीजिए.’’
सुबह के 9 बजे अपनी बदहवास नींद में चूर वे मेमसाहब अपनी नाकमुंह बिचका कर अपने घर के दरवाजे को आधा खोल, कचरे से पिलपिलाती थैली उस के पैर की ओर जोर से फेंक कर झट से अपना दरवाजा बंद कर लेती हैं.
‘ये कचरा बीनने वाले दो कौड़ी के लोग सुबहसुबह हमारी नींद खराब करने को मुंह उठा कर चले आते हैं, गंवार कहीं के,’ वे अपने घर के भीतर बड़बड़ाती रहीं और दरवाजे के इस पार खड़ी ममता उन की बातें सुन हतप्रभ रह गई.