एक सवाल के जवाब में संसद में सरकार ने स्पष्ट किया कि 2018 के बाद 661 नए नियुक्त किए गए जजों में से 500 से ज्यादा ऊंची जातियों के पुरुष हैं. ये ही जज उच्च न्यायालयों में आमतौर पर गरीबों की जमानतों के, तलाकों के, जमीनों के, अपराधियों के मामलों को सुनेंगे जबकि वे न तो इन जमातों से आते हैं और न ही उन्हें इन का दर्द समझ आता है.

देश की जेलों में बंद लाखों कैदियों में से 75 फीसदी कैदी बिना अपराध साबित हुए सड़ रहे हैं और बिना किसी तरह की जातीय गणना किए कहा जा सकता है कि इन 75 फीसदी कैदियों में से 90 फीसदी से ज्यादा पिछड़ी, एससी, एसटी जातियों के या अल्पसंख्यक होंगे. संविधान जजों की नियुक्ति में किसी तरह के रिजर्वेशन का प्रावधान नहीं रखता.

जब से देश में ज्यूडीशियल नियुक्तियों को कौमन लौ एंट्रैंस टैस्ट के माध्यम से किया जाना शुरू कर दिया गया है, अमीर घरों के युवा ज्यादा इस क्षेत्र में आने लगे हैं क्योंकि अच्छे वेतन के साथ प्रतिष्ठा भी अच्छी होती है और रुतबा भी बढ़ा होता है. पर यह परीक्षा ऐसी है जिस में वही जा पा रहे हैं जिन्होंने 5 साल का किसी नैशनल लौ स्कूल या बहुत प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की हो. चूंकि इस में आरक्षण नहीं है, इन कोर्सों में केवल ऊंची जातियों के ही युवा जा रहे हैं. नतीजा यह है कि प्राथमिक न्यायालयों में अब ऊंची जातियों के युवा जज भर गए हैं और उन्हीं में से हाईकोर्ट के जज बनेंगे.

वकालत का 3 साल का कोर्स कर के आए ताल्लुका स्तर के वकीलों में कुछ बहुत अच्छे निकलते हैं पर हाईकोर्टों में उन की नियुक्तियों का कोई लंबाचौड़ा मापदंड नहीं है और यह उच्च न्यायालय के कोलैजियम और सरकार पर निर्भर करता है. सरकार चाहे कितना ही कहे, प्रशासन और व्यापारों की तरह न्यायपालिका पर कब्जा भी उन्हीं लोगों का रहने वाला है जिन्हें उन वर्गों की परेशानियों का एहसास नहीं जो महंगे वकील तक नहीं कर सकते.

यही नहीं, दिसंबर 2023 तक हाईकोर्ट के 790 जजों में से केवल 111 जज ही महिलाएं थीं चाहे उन की जाति या पृष्ठभूमि कुछ भी हो. आजकल अदालतों में औरतें अपने अधिकारों के लिए और ज्यादा आने लगी हैं पर पुरातनवादी पुरुष जज उन की अपेक्षाओं और विडंबनाओं को समझ नहीं पाते.

हमारे जैसे ही गरीब देश ग्वाटेमाला और पनामा में 50 फीसदी से ज्यादा महिला जज हाईकोर्टों में हैं. इंगलैंड में 37-38 फीसदी जज महिलाएं हैं. अमेरिका की फेडरल कोर्टों में भी 37-38 फीसदी जज महिलाएं हैं.

हमारे यहां लौ कालेजों में अब युवतियों की संख्या काफी है पर उन में से अधिकांश ऊंचे घरों की हैं क्योंकि कानून की पढ़ाई काफी महंगी है. जब तक महिलाओं और पिछड़ों को न्यायपालिका में सही जगह नहीं मिलेगी, औरतें अपनी सैंडिलें और गरीब अपनी मैली चप्पलें पहने अदालतों के आगे बैठे नजर आएंगे लेकिन उन्हें न्याय मिलेगा, इस में संदेह है.

शांत नहीं कश्मीर

सैनिक आंकड़ों के अनुसार, संविधान की धारा 370 को समाप्त कर दिए जाने के बाद भी कश्मीर शांत नहीं हुआ है. 6 और 7 जुलाई को आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में 2 सैनिकों की मृत्यु हो जाना इस बात की गवाह है कि कश्मीर पर थोपा गया संविधान संशोधन हिंदू जनता को चाहे पसंद आया हो पर मुसलिम कश्मीरियों ने इसे अभी सहज स्वीकारा नहीं है. ऐसी घटनाएं छिटपुट ही नहीं घट रहीं, बल्कि अकसर ही घट जाती हैं. अब जब सीमा पर पूरी तरह तारबंदी है, तो भी घटनाओं का होना यही बताता है कि इन को अंजाम देने वाले आतंकवादी स्थानीय ही हैं, कश्मीरी ही हैं.

यह असल में दिल्ली में बैठे लोगों की नीतियों की असफलता की निशानी है. हर काम को बंदूक के बल पर कराया जा सकता है, यही पाठ महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को दिया था और चाहे इस का अंत पूरे कुरुवंश का समाप्त हो जाना रहा हो, भारतीय नेता इसे दिल से लगाए बैठे हैं. गलती उन की भी नहीं क्योंकि दुनियाभर में हर राजा ने बल से ही लोगों का मन जीता है, तर्क या सेवा से नहीं.

कश्मीर का मामला अब एक तरह से गंभीर नहीं रह गया क्योंकि आर्थिक तौर पर कश्मीरियों को शह देने वाला पाकिस्तान बुरी तरह पिछड़ गया है, इतनी बुरी तरह कि वहां तो भारत को छोड़ें, बंगलादेश से भी ईर्ष्या की जाती है. पाकिस्तान कश्मीर में कुछ ज्यादा नहीं कर सकता, यह पक्का है.

भारत के लिए यह अवसर है कि वह कश्मीरियों को हर तरह की छूट दे कर उन का ध्यान राजनीति व धर्म से हटा कर उन की अपनी खुद की आर्थिक उन्नति की ओर लगाने को प्रेरित करे. कश्मीरियों को कश्मीर ही नहीं, पूरे देश में नौकरियों के अवसर मिलें. उन्हें अपना राज्य खुद चलाने की इजाजत दी जाए. उन्हें भरोसे में लिया जाए.

मुगलों और अंगरेजों ने देश पर सदियों राज किया तो सिर्फ बंदूक और तलवार पर नहीं बल्कि सुशासन के बल पर किया. उन्होंने जनता को बहुत रियायतें दीं. तभी तो आज भी इस देश में उन दोनों शासकों की भाषा, व्यवहार, खानपान, पहरावा जिंदा हैं. दिल्ली में बैठ कर कानून बदलने या दिल्ली वालों को वहां का शासक बना कर भेजने से बात नहीं बनती.

बच्चों से रोटीवसूली

सिर्फ धार्मिक जिद पूरी करने के लिए देश का न जाने कितना ही अनाज उन गायों को खिलाने के लिए बरबाद किया जा रहा है जिन की न आज जरूरत रह गई है, न भविष्य में होगी. हिंदू धर्म में गौदान का बड़ा महत्त्व है क्योंकि बैठेठाले ऋषिमुनि अपने आश्रमों में गाय पालने का कष्ट नहीं करते थे. उन्होंने मंत्रों को पढ़ कर यह भ्रांति फैला दी कि गौदान से पुण्य मिलता है. ऋषिमुनि उन गायों का सूखने के बाद क्या करते थे, यह जानकारी तो ज्यादा नहीं मिलती लेकिन गौदान में दी गई गायों के रातदिन दोहन किए जाने से कमजोर हो या सूख सी गई गायें देशभर के लिए आफत बनी हुई हैं.

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के लोकसभा चुनाव हारने में एक वजह ये छुट्टा सूखी गायें भी रही हैं जो किसानों के खेतों में घुस कर फसल नष्ट कर दिया करती हैं. अगर उन्हें डंडे मार कर भगाया जाए तो तथाकथित गौप्रेमी आगबबूला हो उठते हैं. प्लास्टिक थैलियों पर बैन केवल इसलिए लगाया जा रहा है क्योंकि उन में रख कर फेंका खाना गायें खा जाती हैं, थैलियों समेत.

अब रायपुर के एक स्कूल ने एक जबरन टैक्स थोपा है बच्चों पर कि वे हर रोज अपने टिफिन में एक रोटी अतिरिक्त लाएं जो स्कूल के बाहर रखे बौक्स में गायों के लिए डाली जाए. उस स्कूल, वीर छत्रपति शिवाजी स्कूल, के बच्चों को रोजाना धर्म की जिद पर ‘गाय टैक्स’ देना पड़ रहा है. ये रोटियां फिर किसी गौशाला में भेजी जाती हैं, जहां उन्हें उन पशुओं को खिलाया जाता है जो असल में कच्ची घास को खाने के आदी हैं, आलू भरे, घी में तर परांठे खाने के नहीं. इन 700-800 बच्चों की मांओं में से कुछ ही खुश होंगी और जो खुश न होंगी वे इस नई मुसीबत पर, धर्म के डर के कारण, कुछ बोलेंगी नहीं. धर्म के ठेकेदार उस घर में मारपीट कर सकते हैं जो इस जबरिया टैक्स को मानने से इनकार कर देगा.

गाय की पूजा का लाभ पहले केवल ब्राह्मणों को मिलता था, अब तो यह भगवा गुंडई का धंधा बन गया है. गौरक्षक सड़कों पर जमा हो कर हर तरह के मवेशी को लाने-ले जाने पर टैक्स वसूलने लगे हैं. इस टैक्स वसूली का पैसा कहां जाता है, वह नरेंद्र मोदी सरकार के पीएम केयर फंड की तरह गुप्त है, प्राइवेट है. यानी, दस लफंगे मिल कर गौरक्षा गैंग बना कर अच्छी कमाई कर सकते हैं. रायपुर का यह वीर छत्रपति शिवाजी स्कूल अपरोक्ष रूप से इस तरह के गैंगों का हिस्सेदार है क्योंकि उस का बच्चों से किसी तरह की उगाही करना उन गैंगों की करतूतों का महिमामंडन करना ही है.

(अन)सोशल पौलिसियां

अब अपनी गर्लफ्रैंड या पत्नी को हीरों से लादफांद कर दूसरों पर रोब जमाने का जमाना गया क्योंकि चाहे गर्लफ्रैंड हो या पत्नी, वह पुरुष की संपत्ति नहीं रही. बड़ा मकान, सही ऐड्रैस पर होना पैसा दिखाने की एक तरकीब है पर अब कितने लोग हैं जो किसी सहयोगी, साथी या अनजाने से घर का पता पूछते हैं या उस के घर जाते हैं. अब अपनी सक्सैस दिखाने का, मेल ईगो के एक्जीबिट करने का एक बड़ा तरीका बड़ी गाड़ी का दिखाना हो गया है.

भारत जैसे गरीब देश में भी, जहां 80 करोड़ों को खाना मुफ्त दिया जा रहा है, 40 करोड़ लोग ?ाग्गियों या स्लमनुमा ढहते से मकानों में रहते हैं, बड़ी गाडि़यों की बिक्री धड़ल्ले से हो रही है. 50 लाख से 2 करोड़ रुपए तक की गाडि़यां अब सड़कों पर दौड़ती नजर भी आ जाएंगी, सड़कों के किनारे धूल जमी खड़ी भी दिख जाएंगी क्योंकि उन्हें चलाया ही कम जाता है. गाड़ी, बड़ी गाड़ी, और भी बड़ी गाड़ी अब स्टेटस सिंबल हैं.

यही नहीं, एक रिपोर्ट के अनुसार महंगी गाडि़यों को कस्टमाइज कराने के औप्शन भी दिए जा रहे हैं. 70 लाख रुपए की औडी कार को 17 एक्स्ट्रा चीजों से अंदरबाहर से सिर्फ पैसा दिखाने के लिए सजाया जा सकता है जिस पर 30-35 लाख रुपए और लग सकते हैं.

कार्बन फाइबर रूफ, मैट्रिक्स डिजाइन के एलईडी हैडलैंप, स्टीयरिंग कवर, सभी सीटों के लिए सेपरेट स्क्रीनें, हैंडक्राफ्टेड लैदर सीटें, लैदर कुशन, स्पैशल कार नंबर, मिनी फ्रिज, इनसाइड लाइटें आदि कुछ ऐक्सेसरीज हैं जो एक्स जैनरेशन धड़ल्ले से महंगी गाडि़यों में लगवा रही है.

इस बढ़ते भेदभाव का एक कारण तो टैक्नोलौजी है कि इतने सारे औप्शन अब मिल रहे हैं लेकिन दूसरा बड़ा कारण सरकार की, खासतौर पर भगवा सरकार की, नीतियां हैं. पिछले 30-40 वर्षों के दौरान देश के समाजवाद, बराबरी, भेदभावरहित व्यवस्था, सभी को एकसमान अवसर जैसे विचार गंगा-सरयू में बहा दिए गए हैं. रामायण और महाभारत सीरियलों में जिस तरह से नकली, काल्पनिक भव्यता को रामानंद सागर ने दिखाया, वह आम आदमी के मन का हिस्सा बन गया है.

मानव का मकसद अब पूजापाठ कर, बेईमानी कर, जबरदस्ती कर, लूट कर अपना महल दशरथ के महल या कौरव पांडव के महल सा बनाना है. भगवा आंदोलन ने देशभर में सुंदरसुंदर मंदिर बनवा डाले जो आसपास की कच्ची बस्तियों में शान से सिर उठाए खड़े हैं.

अपनी एक्स्ट्रा ऐक्सेसरीज वाली कार ले जा कर कोई भी पुराने बड़े बाजार के ढहते खंडहरों में भी खड़ा कर सकता है. अब दूसरे ईर्ष्या नहीं करते बल्कि ज्यादा जोर से भजन करते हैं क्योंकि सब को यह मालूम है कि यह एक्स्ट्रा पैसा या तो सट्टा बाजार से आ रहा है या रिश्वतखोरी से या ऐसे व्यवसाय से जिस में सरकारी कौन्ट्रैक्ट हैं.

सोशल पौलिसियां ऐसी हो गई हैं कि अब अमीरों के प्रति गुस्सा नहीं है, उन की अमीरी को दैविक देन सम?ा जाता है. तभी तो देश के धनाढ्य उद्योगपति मुकेश अंबानी के बेटे की शादी पर गरीबों के नेता ममता बनर्जी और लालू प्रसाद यादव भी मोहर लगा आए कि वाह, क्या सही काम किया है हजारों करोड़ जनता से कमाए पैसे को बरबाद कर के. सो, कारों में अगर छोटा अंबानी कुछ खर्च कर रहा है, तो शिकायत कैसी?

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