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क्या रोबोटिक कैंसर सर्जरी एक भरोसेमंद विकल्प है ?

डा. राज नगरकर एचसीजी मानवता कैंसर सेंटर (एचसीजीएमसीसी) के प्रबंध निदेशक और सर्जिकल औन्कोलौजी और रोबोटिक सेवाओं के प्रमुख हैं. डा. नगरकर को 23+ वर्षों का अनुभव है और उन्होंने 1100 से भी अधिक रोबोटिक असिस्टेड सर्जरीज किए हैं, 2,00,000 से अधिक कैंसर रोगियों की जांच और उपचार किए हैं, 65000 से अधिक प्रमुख और अति-प्रमुख कैंसर सर्जरी, 1500 चाइल्डहुड कैंसर पेशेंट्स और ऑन्कोलॉजी में 300 से अधिक बहुराष्ट्रीय क्लीनिकल ट्रायल्स किए हैं.

अपने देश में कैंसर के मरीजों की संख्या में वृद्धि हो रही है इसकी क्या वजह है?

शरीर पर होने वाले पर्यावर्णिक घटकों के प्रभाव के कारण कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है. इस रोग से संबंधित बढ़ती जानकारी की उपलब्धता के कारण कैंसर से पीडि़त मरीज हौस्पिटल्स जाकर जाँच करा रहे हैं.

इस बीमारी के कुछ शुरुआती संकेत और लक्षण क्या हैं?

कैंसर अपने शरीर में उपलब्ध सेल्स में होने वाले बदलाव के कारण होता है. अंदरुनी सेल्स में होने वाले बदलाव इतने धीमी गति से बढ़ते हैं कि इस रोग के बारे में तुरंत पता नहीं चल पाता है. कैंसर के आम तौर पर चार स्टेजेस बताए जाते हैं. प्राथमिक स्टेज में जो कैंसर रहता है ये अपने शरीर में शुरु होकर जब तक इसकी लक्षण पता चले तब तक कई वर्ष बीत जाते हैं. अगर शरीर पर कोई गांठ पंद्रह दिनों से ज्यादा वक्त तक है और दर्द नहीं हो रहा हो तो उसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, खास करके महिलाओं में स्तन में होने वाली गांठ. अगर मुंह में छाला है या कोई ज़ख्म पंद्रह दिनों से ज्यादा अवधी तक ठीक नहीं हो रहा हो, आवाज बदल रही है, खाना निगलने में दिक्कत हो रही है, कफ में से खून निकल रहा है, बार-बार खांसी हो रही है, पाचनशक्ति में बदलाव आया है, खून जा रहा है, अगर पेशाब में से खून जा रहा है या पेशाब की समस्या आ रही है तो ये सारे उन अंगों के संबंधित कैंसर के संभावित लक्षण हैं.

आपने आज तक 1000 से ज्यादा रोबोटिक कैंसर सर्जरीज किए हैं. ट्रेडिशनल कैंसर सर्जरी और रोबोटिक कैंसर सर्जरी में क्या फर्क है?

ट्रेडिशनल कैंसर सर्जरी में कैंसर के हिस्से को, मतलब जरूरत पड़ने पर उस अवयव को शरीर से हटा देते हैं. रोबोटिक्स सर्जरी या रोबोटिक्स असिस्टेड लेप्रोस्कॉपीक सर्जरी के कारण मरीज के अवयव को बचाकर कैंसर की सर्जरी करना आसान हो गया है.

क्या रोबोटिक कैंसर सर्जरी भरोसेमंद है? क्या ट्रेडिशनल कैंसर सर्जरी की तुलना में ऐसी सर्जरी में एक्सपेंस ज्यादा होते हैं?

रोबोटिक्स कैंसर सर्जरी ज्यादा भरोसेमंद है, इस में कोई संदेह नहीं. एक इंटेस्टाइनल कैंसर के मरीज के बारे में सोचें जिसे रोबोटिक सर्जरी के कारण पेट से मल निकालने के रास्ते की ज़रूरत पड़े या जिसकी किडनी सर्जरी के लिए, बिना किडनी निकाले ऑपरेशन संभव हो और ऑपरेशन के बाद उसका आईसीयू या अस्पताल में ठहरना कम हो जाए तो इन सब की तुलना में रोबोटिक असिस्टेड सर्जरी का जो थोड़ा सा ज्यादा खर्च है, वास्तव में वह इन सब परेशानियों के मुकाबले बहुत कम हो जाता है.

सरकार ने कैंसर इलाज की दवाओं पर सीमा शुल्क से छूट दी है. क्या इससे इलाज के एक्सपेंस में कुछ राहत होगी?

सरकार के निर्णय अनुसार कुछ टार्गेटेड थेरैपी जैसे ट्रास्टुजुमैब और कुछ इम्यूनोथेरेपी के इंजेक्शंस की कीमतें घटा दी गई हैं. सरकार के इस निर्णय से मरीजों को उन्नत इलाज की सुविधा प्राप्त होगी.

अफवाह के चक्कर में : पत्नी साहिबा ने कर दी गड़बड़

जैसे ही बड़े साहब के कमरे में छोटे साहब दाखिल हुए, बड़े साहब हत्थे से उखड़ पड़े, ‘‘इस दीवाली पर प्रदेश में 2 अरब की मिठाई बिक गई, आप लोगों ने व्यापार कर वसूलने की कोई व्यवस्था ही नहीं की. करोड़ों रुपए का राजस्व मारा गया और आप सोते ही रह गए. यह देखिए अखबार में क्या निकला?है? नुकसान हुआ सो हुआ ही, महकमे की बदनामी कितनी हुई? पता नहीं आप जैसे अफीमची अफसरों से इस मुल्क को कब छुटकारा मिलेगा?’’ बड़े साहब की दहाड़ सुन कर स्टेनो भी सहम गई. उस के हाथ टाइप करतेकरते एकाएक रुक गए. उस ने अपनी लटें संभालते हुए कनखियों से छोटे साहब के चेहरे की ओर देखा, वह पसीनेपसीने हुए जा रहे थे. बड़े साहब द्वारा फेंके गए अखबार को उठा कर बड़े सलीके से सहेजते हुए बोले, ‘‘वह…क्या है सर? हम लोग उस से बड़ी कमाई के चक्कर में पड़े हुए?थे…’’

उन की बात अभी आधी ही हुई थी कि बड़े साहब ने फिर जोरदार डांट पिलाई, ‘‘मुल्क चाहे अमेरिका की तरह पाताल में चला जाए. आप से कोई मतलब नहीं. आप को सिर्फ अपनी जेबें और अपने घर भरने से मतलब है. अरे, मैं पूछता हूं यह घूसखोरी आप को कहां तक ले जाएगी? जिस सरकार का नमक खाते हैं उस के प्रति आप का, कोई फर्ज बनता है कि नहीं?’’ यह कहतेकहते वह स्टेनो की तरफ मुखातिब हो गए, ‘‘अरे, मैडम, आप इधर क्या सुनने लगीं, आप रिपोर्ट टाइप कीजिए, आज वह शासन को जानी है.’’

वह सहमी हुई फिर टाइप शुरू करना ही चाहती थी कि बिजली गुल हो गई. छोटे साहब और स्टेनो दोनों ने ही अंधेरे का फायदा उठाते हुए राहत की कुछ सांसें ले डालीं. पर यह आराम बहुत छोटा सा ही निकला. बिजली वालों की गलती से इस बार बिजली तुरंत ही आ गई. ‘‘सर, बात ऐसी नहीं थी, जैसी आप सोच बैठे. बात यह थी…’’ छोटे साहब ने हकलाते हुए अपनी बात पूरी की.

‘‘फिर कैसी बात थी? बोलिए… बोलिए…’’ बड़े साहब ने गुस्से में आंखें मटकाईं. स्टेनो ने अपनी हंसी को रोकने के लिए दांतों से होंठ काट लिए, तब जा कर हंसी पर कंट्रोल कर पाई. ‘‘सर, हम लोग यह सोच रहे थे कि मिठाई की बिक्री तो 1-2 दिन की थी, जबकि फल और सब्जियों की बिक्री रोज होती है, पापी पेट भरने के लिए सब्जियां खरीदा जाना आम जनता की विवशता है. तो क्यों न उस पर…’’

इतना सुनना था कि बड़े साहब की आंखों में चमक आ गई, वह खुशी से उछल पडे़, ‘‘अरे, वाह, मेरे सोने के शेर. यह बात पहले क्यों नहीं बताई? अब आप बैठ जाइए, मेरी एक चाय पी कर ही यहां से जाएंगे,’’ कहतेकहते फिर स्टेनो की तरफ मुड़े, ‘‘मैडम, जो रिपोर्ट आप टाइप कर रही?थीं, उसे फाड़ दीजिए. अब नया डिक्टेशन देना पड़ेगा. ऐसा कीजिए, चाय का आर्डर दीजिए और आप भी हमारे साथ चाय पीएंगी.’’ अगले दिन से शहर में सब्जियों पर कर लगाने की सूचना घोषित कर दी गई और उस के अगले दिन से धड़ाधड़ छापे पड़ने लगे. अमुक के फ्रिज से 9 किलो टमाटर निकले, अमुक के यहां 5 किलो भिंडियां बरामद हुईं. एक महिला 7 किलो शिमलामिर्च के साथ पकड़ी गई?थी, पर 2 किलो के बदले में उसे छोड़ दिया. जब आईजी से इस बाबत बात की गई तो पता चला कि वह सब्जी बेचने वाली थी, उस ने लाइसेंस के लिए केंद्रीय कार्यालय में अरजी दी हुई है. शहर में सब्जी वालों के कोहराम के बावजूद अच्छा राजस्व आने लगा. बड़े साहब फूले नहीं समा रहे थे.

एक दिन बड़े साहब सपरिवार आउटिंग पर थे. आफिस में सूचना भेज दी थी कि कोई पूछे तो मीटिंग में जाने की बात कह दी जाए. छोटे साहब और स्टेनो, दोनों की तो जैसे लाटरी लग गई. उस दिन सिवा चायनाश्ते के कोई काम ही नहीं करना पड़ा. अभी हंसीमजाक शुरू ही हुआ था कि चपरासी ने उन्हें यह कह कर डिस्टर्ब कर दिया कि कोई मिलने आया है.

छोटे साहब ने कहा, ‘‘मैं देख कर आता हूं,’’ बाहर देखा तो एक नौजवान अच्छे सूट और टाई में सलाम मारता मिला. उसे कोई अधिकारी जान छोटे साहब ने अंदर आने का निमंत्रण दे डाला. उस ने हिचकिचाते हुए अपना परिचय दिया, ‘‘मैं छोटामोटा सब्जी का आढ़ती हूं. इधर से गुजर रहा था तो सोचा क्यों न सलाम करता चलूं,’’ यह कहते हुए वह स्टेनो की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘मैडम, यह 1 किलो सोयामेथी आप के लिए?है और ये 6 गोभी के फूल और 2 गड्डी धनिया, छोटे साहब आप के लिए.’’ छोटे साहब ने इधरउधर देखा और पूछा, ‘‘बड़े साहब के लिए?’’

उस ने दबी जबान से बताया, ‘‘एक पेटी टमाटर उन के घर पहुंचा आया हूं.’’ बड़े साहब की रिपोर्ट शासन से होती हुई जब अमेरिका पहुंची तो वहां के नए राष्ट्रपति ने ऐलान किया कि अगर लोग हिंदुस्तान की सब्जी मार्किट में इनवेस्ट करना शुरू कर दें तो वहां के स्टाक मार्किट में आए भूचाल को समाप्त किया जा सकता है.

एक अखबार ने हिंदुस्तान की फुजूलखर्ची पर अफसोस जताते हुए खबर छापी, ‘‘अगर चंद्रयान के प्रक्षेपण पर खर्च किए धन को सब्जी मार्किट में लगा दिया जाता तो उस के फायदे से लेहमैन जैसी 100 कंपनियां खरीदी जा सकती थीं.’’ जैसे आयकर के छापे पड़ने से बड़े लोगों के सम्मान में चार चांद लगते हैं, बड़ेबड़े घोटालों के संदर्भ में छापे पड़ने से राजनीतिबाज गर्व का अनुभव करते हैं, आपराधिक मुकदमों की संख्या देख कर चुनावी टिकट मिलने की संभावना बढ़ती है वैसे ही सब्जी के संदर्भ में छापे पड़ने से सदियों से त्रस्त हम अल्पआय वालों को भी सम्मान मिल सकता है, यह सोच कर मैं ने भी अपने महल्ले में अफवाह उड़ा दी कि मेरे घर में 5 किलो कद्दू है.

छापे के इंतजार में कई दिन तक कहीं बाहर नहीं निकला. अपनी गली से निकलने वाले हर पुलिस वाले को देख कर ललचाता रहा कि शायद कोई आए. मेरा नाम भी अखबारों में छपे. 15 दिन की प्रतीक्षा के बाद जब मैं यह सोचने को विवश हो चुका था कि कहीं कद्दू को बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) में तो नहीं रख दिया गया? तभी एक पुलिस वाला आ धमका. मेरी आंखों में चमक आ गई. मैं ने बीवी को बुलाया, ‘‘सुनती हो, इन को कद्दू ला के दिखा दो.’’ बीवी मेरे द्वारा बताए गए दिशा- निर्देशों के अनुसार पूरे तौर पर सजसंवर कर…बड़े ही सलीके से 250 ग्राम कद्दू सामने रखती हुई बोली, ‘‘बाकी 15 दिन में खर्च हो गयाजी.’’

पुलिस वाले ने गौर से देखा कि न तो चायपानी की कोई व्यवस्था थी और न ही मेरी कोई मुट्ठी बंद थी. उस की मुद्रा बता रही थी कि वह मेरी बीवी के साजशृंगार और मेरे व्यवहार, दोनों ही से असंतुष्ट था. वह मेरी तरफ मुखातिब हो कर बोला, ‘‘आप को अफवाह फैलाने के अपराध में दरोगाजी ने थाने पर बुलवाया है.’’

डिग्री : शादी का रोड़ा तो नहीं

रोहन दोपहर के खाने के बाद औफिस में सुस्ता रहा था. औफिस का कामधंधा तो बढि़या टनाटन चल रहा है, फिर भी सोच उन की पुत्री नेहा पर अटक गई.

नेहा 32 वर्ष की हो गई है. रोहन की सोच नेहा के विवाह की थी. इस उम्र तक पुत्री का विवाह हो जाना चाहिए.

हुआ कुछ यों, पहले नेहा ने विवाह के लिए इनकार कर दिया. जब तक उस की पढ़ाई समाप्त नहीं हो जाती, वह विवाह नहीं करेगी. नेहा पढ़ने में होशियार थी. बीकौम के साथ चार्टर्ड अकाउंटैंसी की पढ़ाई कर रही थी. बीकौम फर्स्ट डिवीजन में पास कर ली. सीए इंटर भी पास हो गया.

सीए फाइनल में अटक गई. नेहा ने ठान लिया जब तक सीए नहीं बन जाती, शादी नहीं करेगी. एक ग्रुप अटका हुआ था, आखिर 2 वर्ष बाद सफलता मिल ही गई. नेहा सीए बन गई और नौकरी भी करने लगी.

रोहन ने पत्नी रिया के माध्यम से नेहा से कहना आरंभ कर दिया. विवाह कर ले. नेहा ने अपनी पसंद से विवाह की बात की.

कालेज के दिनों में नेहा की मित्रता नयन से गाढ़ी हो गई थी. नयन के पिता का अपना व्यापार था. नेहा और नयन एकदूसरे के घर आतेजाते रहते थे. रिया को ऐसा महसूस हुआ, नेहा की पहली और अंतिम पसंद नयन ही है.

रोहन और रिया को नयन के साथ रिश्ते में कोई आपत्ति नहीं थी. उन्हें नेहा की हरी झंडी की प्रतीक्षा थी.

जहां नेहा ने फर्स्ट डिवीजन में बी कौम किया, नयन थर्ड डिवीजन में पास हुआ. उस ने भी सीए में दाखिला तो लिया लेकिन इंटर में लुढ़क गया और सीए की पढ़ाई छोड़ कर अपने पिता के व्यापार में सैट हो गया.

नेहा के सीए बनने पर रोहन और रिया ने एक शानदार पार्टी का आयोजन किया और अपने दिल की बात नयन के पिता को बता ही दी. नयन के पिता ने एक सप्ताह बाद बातचीत करने को कहा.

एक रैस्तरां में रोहन और रिया नयन के मातापिता से मिले. कुछ औपचारिक कुशलक्षेम की बातें हुईं और फिर रोहन सीधे मुद्दे की बात पर आए.

‘‘नेहा और नयन कालेज के दिनों से घनिष्ठ मित्र हैं और मेरी इच्छा है हम दोनों के विवाह के लिए सहमत हो जाएं.’’

नयन के मातापिता का जवाब सुन कर रोहन का माथा घूम गया.

‘‘माना दोनों बहुत वर्षों से दोस्त हैं. दोस्ती का यह मतलब नहीं होता, वे आपस में विवाह भी करें.’’

‘‘अच्छी दोस्ती का सीधा अर्थ होता है, वे एकदूसरे को अच्छी तरह सम झते हैं. विवाह सफल रहेगा,’’ रोहन ने अपना मत रखा.

‘‘देखिए, नयन बीकौम है और हमारे पारिवारिक व्यवसाय में रचबस गया है. उस के लिए कई व्यापारिक घरानों से रिश्ते आ रहे हैं. हम उन रिश्तों पर भी विचार कर रहे हैं.’’

‘‘मेरा भी अपना व्यापार है. दादाजी ने एक दुकान से काम आरंभ किया था, अब 2 फैक्ट्री हैं,’’ रोहन ने नयन के पिता को प्रभावित किया.

‘‘वह तो ठीक है लेकिन हमें अधिक पढ़ीलिखी लड़की बहू के रूप में स्वीकार्य नहीं है.’’

‘‘शादी का पढ़ाई से क्या संबंध है. लड़का और लड़की जब एकदूसरे को पसंद करते हैं तब पढ़ाई आड़े नहीं आती.’’

‘‘हम आप की बात से सहमत नहीं हैं. आप की लड़की हमारे लड़के से अधिक पढ़ी है. स्वाभाविक रूप से वह अपनी पढ़ाई का रोब डाल कर लड़के से ऊपर रहेगी. नयन कुंठा में नहीं जीना चाहता. हमें सिर्फ बीकौम पास लड़की ही चाहिए, जो नयन की बराबरी करे लेकिन ऊपर रहने का रौब न डाले,’’ नयन के पिता ने दोटूक कह दिया.

रोहन ने बात संभालने का प्रयास किया, ‘‘नेहा और नयन एकसाथ घूमफिर रहे हैं. दोनों खुश हैं. मु झे तो कभी एहसास नहीं हुआ, नेहा को अपने सीए होने का घमंड हो या नयन को कभी ताना मारा हो. जब अच्छे मित्र पतिपत्नी बनते हैं तब उन का प्यार और निखरता है. नेहा सीए है, उस की पढ़ाई आप के काम आएगी. उस के ज्ञान और टैक्स की जानकारी से आप को फायदा होगा, आप के व्यापार को फायदा होगा.’’

‘‘फिर तो हमारे ऊपर भी रौब डालेगी, हमें कुछ नहीं आता. सब ज्ञान उसी को है. हम जिस सीए से काम कराते हैं वह हमें सलाम मारता है और झुक कर काम करता है. उस को मालूम है अधिक बोला तो किसी और सीए से काम करवा लेंगे. अगर नेहा ने हमारा काम संभाला तब वह बहू नहीं, हमारा बाप बन जाएगी जो हम नहीं चाहते.’’

रोहन नयन के पिता के तर्क सुन कर चुप हो गया. उस ने कभी सोचा नहीं था आज के आधुनिक युग में भी पुरानी सोच के लोग जी रहे हैं.

नेहा और नयन अच्छे मित्र तो थे लेकिन पतिपत्नी नहीं बन सके. जो सपने संजोए थे उन्होंने, धाराशायी हो गए.

कुछ दिनों बाद नयन की शादी का समाचार मिला. एक बार फिर रिया ने बात छेड़ी.

‘‘तेरी कोई पसंद हो तो बता. कोई औफिस सहपाठी या फिर कोई मित्र?’’

नेहा ने कुछ समय मांगा. अभी नौकरी बदलनी है. कुछ समय बाद सोचेगी. लड़की सीए है, अच्छी नौकरी है. सैलरी बढि़या है. रिश्तेदारों ने भी अपने लड़कों के लिए रिश्ते भेजने बंद नहीं किए थे. रोहन औफिस में यही सोच रहा था. लड़की हो या लड़का, हर किसी को शारीरिक जरूरतों के लिए विवाह के बंधन में बंधना होता है. कुदरत के नियम पर समाज ने अपनी मोहर लगाई है. नयन की शादी हो गई. नेहा को कुछ सोचना चाहिए. जब उसे खुली छूट दी है, जिस लड़के को पसंद करेगी उसी से विवाह करा देंगे. इसी उधेड़बुन में रिया को फोन लगाया.

‘‘मैं आज रात फाइनल बात करती हूं. आज भी मेरे पास 2 रिश्ते आए हैं, क्या जवाब दूं. कब तक मना करती रहूं. एक समय बाद तो रिश्ते आने भी बंद हो जाएंगे.’’

रात को नेहा ने कह दिया, ‘‘नयन के बाद कोई लड़का उस के जीवन में नहीं है. आप के सु झाए लड़के पर वह विचार करेगी.’’

रोहन और रिया को इस जवाब पर प्रसन्नता हुई. आए रिश्तों पर चर्चा होने लगी. कुछ लड़के नेहा की 32 वर्ष उम्र देखते ही पीछे हट गए, हमें अपने से बड़ी उम्र की लड़की नहीं चाहिए.

बिरादरी के होली मिलन पर रोहन, रिया और नेहा हंसमिल कर सभी से बातें कर रहे थे. कुछ आंखें संभावित बहू और वर की तलाश में थीं.

‘‘और रिया, अपने को खूब मैंटेन कर रखा है,’’ सुकन्या ने हायहैलो करते हुए पूछा.

‘‘थैंक्यू, और बता, क्या चल रहा है?’’

‘‘इस से तो मिलवा,’’ नेहा को देख कर पूछा.

‘‘अब वर्षों बाद मिल रही है, भूल गई क्या. मेरा एक ही तो बच्चा है, नेहा.’’

‘‘हाऊ स्वीट, बड़ी प्यारी बच्ची है. शादी का कोई इरादा है क्या?’’

‘‘सीए बन गई है. गुरुग्राम में नौकरी कर रही है. कोई लड़का हो तो बताना,’’ रिया ने सुकन्या के कान में बात डाल दी.

‘‘नेकी और पूछपूछ. वह सामने देख लड़का, जंचे तो बता. अभी मिलवा देती हूं.’’

‘‘कौन है?’’

‘‘मेरी भाभी का लड़का है. गुरुग्राम में सौफ्टवेयर इंजीनियर है.’’

सुकन्या रिया का हाथ पकड़ कर अपनी भाभी से मिलवाने ले गई. लड़के का नाम यश था. रिया और यश को मिलवाया. खैर, मिलने का पहला अवसर था. बस, हायहैलो हुई.

रिया ने यह अवसर लपक लिया. सुकन्या और उस की भाभी से पूरी जानकारी प्राप्त कर ली. नेहा खूबसूरत थी. यश भी हैंडसम था. पहली नजर में दोनों एकदूसरे के परिवार को पसंद आ गए. 2 दिनों बाद रविवार था. सुकन्या के घर मिलने का कार्यक्रम तय हुआ. रोहन का पहला अनुभव खट्टा रहा था, इसलिए उस ने एक रैस्तरां में मिलने का कार्यक्रम तय किया.

रैस्तरां में नेहा और यश अलग टेबल पर बैठ कर बातचीत करने लगे.

रोहन ने यश के परिवार को स्पष्ट कर दिया. नेहा सीए है और यश सिर्फ बीटैक है.

देखा जाए तो नेहा की डिग्री बड़ी है और दूसरी बात यह है कि नेहा की उम्र 32 वर्ष है और यश की आप ने 30 वर्ष बताई है. मु झे और रिया को कोई फर्क नहीं पड़ता. भारतीय समाज में आज भी कुछ पुरानी सोच के व्यक्ति हैं जो विवाह के समय लड़की का कम पढ़ा होना और छोटी उम्र का होना पसंद करते हैं.

यश के पिता ने रोहन का हाथ पकड़ा और एक अलग टेबल पर ले गए. रोहन को कुछ सम झ नहीं आया. आखिर, एकांत में क्या कहना चाहते हैं.

‘‘देखो, एक अंदर की बात बताता हूं. मैं इन बातों पर विश्वास नहीं रखता हूं.’’

‘‘यह तो आप का बड़प्पन है,’’ रोहन ने यश के पिता का शुक्रिया अदा किया कि वे दकियानूस नहीं हैं.

‘‘पहले नेहा और यश अपनी पसंद बताएं. उन की पसंद मिल जाए तो आप को वह बात बताऊंगा जिस के लिए मैं आप को अलग टेबल पर लाया हूं.’’

कुछ बातें हुईं. खाना हुआ और सभी अपने घर वापस आ गए. रोहन उस बात को सम झने की कोशिश कर रहा था, यश के पिता क्या कहना चाहते थे, कहीं बेवकूफ तो नहीं बना रहे.

रात को नेहा और यश ने अपनीअपनी स्वीकृति प्रदान की. रोहन और रिया के चेहरे पर रौनक आ गई. अगले रविवार शगुन की थाली ले कर रोहन यश के घर पहुंचे. रिश्ता पक्का हुआ.

मुसकराते हुए यश के पिता रोहन को फिर एकांत में ले गए.

‘‘वह एक बात रह गई जो उस दिन रैस्तरां में बतानी थी.’’

‘‘जी, कहिए.’’

‘‘शादी के समय मैं सिर्फ 12वीं पास था. 33 फीसदी के साथ पास हुआ. कालेज में एडमिशन के लिए कम से कम 40 फीसदी नंबर चाहिए होते हैं. मैं तो स्टौकब्रोकर बन गया. यश की मां एमए पास है. जब मु झे मालूम हुआ, नेहा सीए है तब सब से बड़ी खुशी मु झे हुई. नेहा से कहना, नौकरी छोड़ कर मेरे औफिस में हाथ बंटाए.’’

रोहन मुसकरा दिया. यश के पिता को गले लगाया. मुड़ कर देखा, नेहा और यश दूसरे कमरे में बतिया रहे थे. उन दोनों को डिग्री से अधिक एकदूसरे के विचारों से मतलब था.

अपराधबोध : हम बेवफा हरगिज न थे

शहर के व्यस्ततम बाजार से गुजर रहा था. पहले तो इस शहर में लगभग हर वर्ष आता था. धीरेधीरे अंतराल बढ़ता गया. अब एक लंबे अंतराल के बाद आया था. हर गुजरने वाले को बड़े गौर से देख रहा था इस आशा के साथ कि शायद वह भी दिख जाए. अचानक उस पर नजर ठहर गई. वही तो थी जिसे मैं वर्षों से ढूंढ़ रहा था. उस की नजर भी मु झ पर पड़ गई तो वह भी ठिठक गई.

पता नहीं अचानक मु झे क्या हुआ. बिना कुछ देखे मैं उस की ओर लपक लिया. गुजरती हुई एक कार ने उठा के मुझे एक ओर पटक दिया. पता नहीं मु झे क्या हुआ, शायद बेहोश हो गया था. आंखें खोलीं तो देखा, मेरे चारों ओर एक भीड़ थी और एक व्यक्ति मेरे मुंह पर पानी के छींटे मार रहा था. मैं हड़बड़ा कर उठा और चारों ओर देखने लगा. वह मु झे भीड़ के पीछे चिंतित हो देख रही थी.

‘‘मरने का इतना ही शौक है तो किसी रेलगाड़ी के नीचे आ जाओ, मेरी गाड़ी के आगे क्यों कूद गए,’’ एक सूटेडबूटेड व्यक्ति क्रोध में बोल रहा था. वह कार मालिक था. मैं ने उस से हाथ जोड़ कर क्षमा मांगी और वह बुदबुदाता हुआ चला गया और भीड़ भी छंट गई. वह हाथों में भरेभरे 2 थैले लिए वहीं मु झे घूर रही थी. माथे पर चिंता की लकीरें दृष्टिगोचर थीं और आंखों में पानी.

मैं धीमेधीमे कदमों से चलता हुआ उस के समीप गया. चाह कर मेरे मुंह से दो शब्द न निकल सके. शायद, उस की भी यही हालत थी. बस, देखते रहे एकदूसरे को. जब भीड़ के एकदो धक्के लगे तो सचेत हुए.

‘‘कैसे हो?’’ चुप्पी उसी ने तोड़ी. मेरे होंठ फड़फड़ा कर रह गए. मु झे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं उस के सामने खड़ा था जिसे वर्षों से मिलना चाहता था. गला भी रुंध गया था.

‘‘कहीं चोट तो नहीं लगी? उस ने फिर पूछा.

मैं ने न में सिर हिला दिया.

फिर एक खामोशी छा गई. बोल रहीं थीं तो केवल आंखें. एक बार फिर कोई मु झ से टकराया तो मैं सजग हुआ.

‘‘तुम कैसी हो?’’ मैं ने पूछा तो उस ने भी सिर हिला कर उत्तर दे दिया कि ठीक है.

‘‘चलो, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं,’’ मैं ने सु झाया.

‘‘मिलन रैस्तरां चलते हैं,’’ वह बोली.

मेरे दिल में एक चुभन सी हुई. हम अकसर यहीं मिलबैठ चाय आदि पीते हुए बातें करते थे. रैस्तरां अधिक दूर नहीं था. उस के एक कोने में हम बैठ गए.

‘‘लगता है ढेर सारी शौपिंग हो रही है,’’ बात चलाने के लिए मैं बोला.

‘‘हां, शादी है बेटी की.’’

‘‘अकेले ही शौपिंग कर रही हो?’’

‘‘नहीं, नमिता अपने डैडी के साथ गई है दूसरी मार्केट और मैं घर के लिए वापस निकली थी.’’

‘‘कितने बच्चे हैं?’’

‘‘तीन, दो बेटे और एक बेटी.’’

‘‘पति?’’

‘‘रिटायर होने वाले हैं?’’

इतने में वेटर चाय आदि ले आया.

‘‘अपने बारे में बताओ,’’ उस ने पूछा.

‘‘सब बच्चे सैटल हो गए हैं. अपनी फैमिली के साथ मस्त हैं. बस, हम दोनों ही हैं,’’ एक सांस में मैं ने सब बता दिया और पूछ बैठा, ‘‘तुम बताओ, कैसी चल रही है तुम्हारी लाइफ?’’

‘‘सब ठीक है, पति बहुत खुले विचारों वाले हैं. बच्चे भी बहुत अच्छे हैं. अभी जमाने की ज्यादा हवा नहीं लगी है,’’ वह हंस कर बोली.

उस के बाद फिर एक सन्नाटा पसर गया. हम चाय की चुसकियां लेते हुए एकदूसरे को देखते रहे.

‘‘मैं अकसर शहर में आया करता था, लेकिन वह कभी भी नहीं दिखी, जिस की तलाश में आता था,’’ मैं ने ही चुप्पी तोड़ी. मैं ने साफ महसूस किया कि उस ने ठंडी सांस भरी थी.

‘‘मैं ने 10 वर्ष प्रतीक्षा की,’’ वह भरे गले से बोली.

‘‘मैं जानता हूं,’’ मैं ने स्वीकार किया.

‘‘कैसे?’’

‘‘लवली ने बताया था.’’

‘‘अरे हां, तुम्हारी बहन लवली मिली थी एक बार रास्ते में. उस ने बताया था कि तुम्हारा तलाक हो गया है,’’ उस की आवाज में एक दर्द था.

‘‘तलाक के बाद मैं अकसर यहां आता था. तुम्हारा पता नहीं चला. जहां तुम रहा करती थीं, वहां से पता चला कि तुम परिवार सहित शिफ्ट हो गई हो. कोई तुम्हारा नया एैड्रेस नहीं बता पाया.’’

‘‘जब सब खत्म ही हो गया था तो फिर क्यों मिलना चाहते थे. तुम ने दूसरी शादी कर ली, मैं ने भी अपना घर बसा लिया,’’ इस बार उस की आवाज में तल्खी थी.

एकाएक मुझ से कुछ कहते न बन सका. बस, उस के चेहरे को ताकता रहा, जिस पर गुस्सा नजर आ रहा था. वह भी मु झे घूर रही थी.

‘‘वेल, रश्मि,’’ पहली बार मैं ने उसे नाम से पुकारा. वैसे मैं उसे रूषी कह कर बुलाया करता था. मेरे मन पर एक बो झ था और अभी भी है- ‘अपराधबोध’.

वह चुप ही रही.

‘‘मैं तुम्हें बताना चाहता था कि मैं ने ऐसा क्यों किया.’’

वह अब भी कुछ न बोली.

‘‘मैं अच्छी नौकरी करता था. रहता अकेला ही था दूसरे शहर में. तुम्हारे व तुम्हारे परिवार का पूरा सपोर्ट था. स्टैंड ले लेता तो कोई मुझे रोक नहीं सकता था,’’ मैंने अपनी बात आगे बढ़ाई.

‘‘मुझे इसी बात का तो दुख हुआ था,’’ वह अब भी गुस्से में थी.

‘‘यह 50 वर्ष पुरानी बात है. आज का युग होता तो शायद मैं भी अपने पेरैंट्स, अपनी बहनों की परवा न करता. तुम जानती हो, वह जमाना और था जब सब जज्बातों की कदर करते थे, बड़ों की पूरी इज्जत करते थे, समाज से डरते थे कि लोग क्या कहेंगे. उसूलन मु झे तुम्हारे साथ किया वादा निभाना चाहिए था लेकिन मैं ने अपने जज्बात निभाए. घर में कोई तुम्हारे फेवर में न था, यह तुम्हें पता ही है. फिर आना तो तुम्हें इसी घर में था. क्या लाभ होता तुम्हें वहां ला कर जहां तुम्हारा तिरस्कार होता. बहनों की भी अभी शादी होनी थी, इसलिए मैं अपना परिवार नहीं छोड़ सकता था.’’ मेरे भीतर से वह सबकुछ निकल गया जिसे मैं बरसों से मन में दबाए बैठा था, जिस का मेरे मन पर बोझ था.

‘‘एक बार मु झ से बात तो की होती?’’ वह लगभग चिल्लाते हुए बोली तो आसपास की टेबल पर बैठे लोग हमारी ओर देखने लगे.

‘‘मैं तुम्हें फेस नहीं कर सकता था. इसे मेरी कमजोरी सम झ लो या कायरता,’’ मैं मन में शर्मिंदगी अनुभव कर रहा था.

‘‘तुम नहीं मिले, एक बार भी नहीं सोचा कि मेरे ऊपर क्या बीतेगी. एक बार बात तो करते. मैं तुम से प्रेम नहीं करती थी बल्कि पूजती थी. तुम्हें भी याद होगा कि एक बार जब हम एकांत में बैठे थे तो मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाई तो तुम ने ही मु झे सम झाया था और तुम ने संयम नहीं खोया और मु झे जबरदस्ती रोका. इसलिए तुम्हें पूजती थी,’’ उस की आंखों में छिपे आंसू उस के गालों पर लुढ़कने लगे. मैं चाह कर भी उस के आंसू न पोंछ सका.

तभी उस के फोन की घंटी बजने लगी. वह बात करने लग गई. मैं ने अंदाजा लगाया कि फोन पर पति से बात कर रही थी.

‘‘उन का फोन था. पिक करने के लिए कह रहे थे. मैं ने उन से कहा है कि वे घर जाएं, मैं भी आ रही हूं.’’ मेरा अनुमान ठीक था.

उस ने मेरा फोन ले कर अपने फोन पर एक नंबर डायल किया और बताया कि यह उस का फोन नंबर है. वह औटो ले कर बिना अपने घर का पता दिए या मेरा लिए चली गई. मैं वहीं खड़ा देखता रहा जब तक कि औटो आंखों से ओ झल नहीं हो गया. आज मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा था. वर्षों से जो मन पर एक अपराधबोध महसूस कर रहा था, वह निकल गया.

सुबह जब मैं वापस जाने के लिए तैयार हो रहा था तो मेरे फोन पर एक अजनबी फोन नंबर से कौल आई. मैं ने अटैंड की तो हक्काबक्का रह गया. यह रश्मि के पति सौरभ की कौल थी. वह मिलना चाहता था. मैं असमंजस में पड़ गया. कोई और चारा न देख मैं ने उस से बसस्टैंड पर मिलने के लिए कह दिया क्योंकि एक घंटे बाद मेरी बस निकलने वाली थी.

हम एकदूसरे को नहीं जानते थे, देखा ही नहीं था कभी. बसस्टैंड पहुंचते ही मैं ने उस के फोन पर कौल की तो उस ने तुरंत अटैंड की.
देखा तो वह बस के समीप ही फोन कान पर लगाए बात कर रहा था. उस ने भी मु झे देख लिया. उस के हाथ में एक डब्बा था.

हाथ मिलाने की औपचारिकता के बाद वह डब्बा मु झे पकड़ाते हुए बोला, ‘‘यह रश्मि ने भेजा है, कह रही थी कि आप को खीर बहुत पसंद है. इस के साथ ही मैं आप का धन्यवाद करना चाहता हूं कि आप से मिलने के बाद वह आज वर्षों बाद गहरी और चैन की नींद सोई है. नहीं तो वह आधी रात के बाद करवटें ही बदलती रहती थी. आज पहली बार मैं ने उस के चेहरे पर एक शांति देखी है. यह कार्ड भी भेजा है. हमारी बेटी की शादी है, आना अवश्य.’’

मैं डब्बा और कार्ड लिए हुए किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया. बस कंडक्टर ने सीटी बजाई तो चेता और बस पर चढ़ते हुए केवल उस का धन्यवाद ही कर सका. मन में गाना बजने लगा, ‘हम बेवफा हरगिज न थे, पर हम वफा कर न सके…’

अनोखा अरेंज मैरिज : नए जमाने की अनूठी पहल

‘‘पा पा, कल संडे है न?’’ मेरे घर आते ही पलक ने पूछा.

‘‘हां बेटे, संडे है तो क्या हुआ?’’ मैं ने उस के पास बैठते हुए सवाल किया.

‘‘आप का संडे का दिन मेरे नाम होता है न, पापा,’’ उस ने प्यार से कहा.

‘‘हां बेटा, मेरा संडे आप के नाम ही होता है.’’

‘‘तो इस संडे हम गुलशन के घर जा रहे हैं.’’

‘‘गुलशन कौन है?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘अरे बाबा, वही मेरी बैस्ट फ्रैंड. आप उसे कैसे भूल सकते हो?’’

पलक ने नाराज होने का नाटक करते हुए कहा.

‘‘ओके, ओके. लेकिन मैं क्यों जा रहा हूं तुम्हारी फ्रैंड के घर?’’ मैं ने चौंकते हुए अगला सवाल किया.

‘‘इसलिए पापा क्योंकि कल गुलशन का बर्थडे है.’’

‘‘मगर बर्थडे में तो बच्चे जाते हैं न. आप की दोस्त है तो आप जाओ. मैं क्यों जाऊं आप के साथ?’’

‘‘क्योंकि गुलशन की मम्मी चाहती हैं कि आप भी आओ. उन्होंने आप को स्पैशली इनवाइट किया है,’’ पलक ने बात क्लियर की.

‘‘मगर, मु झे क्यों इनवाइट किया है उन्होंने? मैं ने अचरज से पूछा.

‘‘क्योंकि गुलशन की मम्मी आप को बहुत पहले से जानती हैं.’’

‘‘बहुत पहले से जानती हैं, मगर मैं तो नहीं जानता.’’

‘‘अरे पापा, मामला कुछ यह है कि उस दिन हम घूमने गए थे न. बस, उस की तसवीरें मैं ने अपने व्हाट्सऐप पर लगाई थीं और वे तसवीरें जब गुलशन देख रही थी तो उस की मम्मी भी उस के पास बैठी थी. उन्होंने भी तसवीरें देखीं और आप को देखते ही पहचान लिया. आप उन के पुराने क्लासमेट हो न,’’ पलक ने विस्तार से सारी बात बताई.

‘‘क्लासमेट, मगर क्या नाम है तुम्हारी फ्रैंड की मम्मी का?’’ मु झे अभी भी बात क्लियर नहीं हुई थी.

‘‘उन का नाम तो मु झे नहीं पता मगर अब चलो, बस. यह देखो उन की तसवीर,’’ पलक ने उन की तसवीर दिखाई मगर मैं पहचान नहीं सका.

पलक बोली, ‘‘हो सकता है वे बदल गई हों. कितने साल हो गए. शक्ल बदल भी जाती है न. आप उन्हें देखोगे तो पहचान जाओगे.’’

मैं तैयार तो हो गया मगर मन में कई सवाल थे कि पता नहीं कौन है, जो मु झे पहचानती है. मेरी क्लासमेट के रूप में बहुत से नाम मेरे जेहन में आए मगर मैं सम झ नहीं पाया कि वह कौन है?

फिर अगले दिन यानी संडे को मैं पलक के साथ उस की फ्रैंड गुलशन के घर पहुंचा. उस की मां ने बहुत प्यार से हमारा स्वागत किया. मगर अब भी अपनी क्लासमेट यानी उस की मां को सामने देख कर भी मैं पहचान नहीं पा रहा था.

मेरी हालत देख कर वह हंसने लगी. उस के गालों पर डिंपल पड़ा तो मु झे थोड़ाथोड़ा ऐसा लगा जैसे मैं इस चेहरे को पहचानता हूं.

गुलशन की मां ने फिर हमारी क्लास 8 की ग्रुप फोटो दिखाते हुए बताया, ‘‘यह तुम हो और यह हूं मैं.’’

‘‘अरे रजनीगंधा,’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘जी हां, रजनीगंधा. यही हमारा निकनेम था. यानी मेरा और रजनी का जौइंट निकनेम,’’ गुलशन की मम्मी ने कहा.

‘‘हां, याद है मु झे. तुम दोनों की दोस्ती इतनी प्यारी थी कि सारे स्कूल के बच्चों ने प्यार से तुम्हारे यानी सुगंधा और रजनीबाला के नाम को मिला कर रजनीगंधा नाम रखा था तो तुम सुगंधा हो.’’ अब सारा मामला मेरे सामने क्लियर हो गया था.

‘‘हां, मैं सुगंधा हूं और मानती हूं कि मैं थोड़ी बदल गई हूं. दरअसल सूरत में तो ज्यादा परिवर्तन नहीं आया मगर बच्चे हुए, उस दौरान मैं थोड़ी मोटी हो गई और इसी वजह से मेरी शक्ल भी बदलती गई.’’

‘‘वैसे, तुम अब ज्यादा अच्छी लग रही हो. अब ज्यादा सुंदर हो गई हो,’’ मैं अपने जज्बात रोक नहीं पाया.

‘‘सही कह रहे हो?’’ शरमाते हुए सुगंधा ने पूछा.

‘‘बिलकुल हंड्रैड परसैंट. पहले तो तुम ज्यादा ही दुबली हुआ करती थीं और बाल भी छोटे थे. अब काफी मैच्योर और खूबसूरत लग रही हो.’’

गुलशन और पलक एकदूसरे को देख कर मुसकरा पड़ीं.

‘‘तो फिर आप दोनों की दोस्ती पक्की,’’ गुलशन ने दोनों के हाथ मिलाते हुए कहा तो मैं थोड़ा सकपका गया.

‘‘आप दोनों की दोस्ती ऐसी ही बनी रहे,’’ कहते हुए पलक भी मुसकराई.

मैं ने मौका देख कर गुलशन की मां यानी सुगंधा से पूछा, ‘‘घर में और कौनकौन हैं? आप के पति क्या करते हैं और इनलौज कहां हैं?’’
वह थोड़ी गंभीर हो गई और बोली, ‘‘मैं अपने पति से अलग हो चुकी हूं. बड़ी बेटी उन के साथ है और गुलशन मेरे साथ. मैं जौब करती हूं और खुद के बल पर ही अपनी और अपनी बेटी की जिंदगी संवार रही हूं.’’

‘‘ओह, ओके,’’ कह कर मैं चुप हो गया.

मु झे पूछने की इच्छा तो हुई कि तलाक की वजह क्या थी मगर कुछ पूछ नहीं सका क्योंकि इस तरह किसी की निजी जिंदगी में झांकना मुझे उचित नहीं लगा. मैं खुद भी तो अकेला ही था. मेरी पत्नी की इस कोरोना काल में मृत्यु हो चुकी थी.

मैं बोल पड़ा, ‘‘मैं भी अकेले ही अपनी बेटी पलक की जिम्मेदारी उठा रहा हूं और इस में कोई परेशानी नहीं. बस, दुख जरूर है कि मेरी जीवनसाथी मेरे साथ नहीं है. लेकिन मैं भी आप की तरह ही अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह निभा रहा हूं.’’

‘‘जरूर, यह बात मैं सम झ सकती हूं विशाल, कि आप अपनी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से निभा रहे हैं. तभी तो पलक इतनी सयानी और प्यारी बच्ची है. वह बहुत अच्छे से अपनी जिंदगी को एक दिशा दे रही है,’’ सुगंधा ने पलक की तारीफ की.

‘‘जी, मु झे और क्या चाहिए भला? मैं बस इतना ही चाहता हूं कि पलक पढ़लिख कर कुछ बन जाए और फिर एक अच्छे से लड़के के साथ उस के हाथ पीले कर मैं उस की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊं. वैसे, आप की गुलशन भी बहुत प्यारी और सम झदार है बिलकुल आप की तरह,’’ मैं ने कहा. सुन कर सुगंधा मुसकरा उठी.

सुगंधा अब मेरे साथ थोड़ी कंफर्टेबल होने लगी थी. समय के साथ गुलशन और पलक की दोस्ती तो पक्की होती ही गई, साथ ही, मेरी और सुगंधा की दोस्ती भी थोड़ीथोड़ी अच्छी होती गई. दरअसल इस के पीछे पलक और गुलशन का हाथ था. वे दोनों अकसर मु झे और सुगंधा को मिलाने की कोशिश करतीं. मैं पलक के इरादों से वाकिफ होने लगा था मगर मु झे सम झ नहीं आ रहा था कि वह ऐसा कर क्यों रही है? हमारी बच्चियां हमें मिलाने की कोशिश में क्यों हैं?

एक दिन पलक सुबहसुबह उठी और बताया कि संडे यानी कल हम फिल्म देखने जा रहे हैं.

मैं फिर से थोड़ा सकपकाया और पूछने लगा, ‘‘मगर बेटा, फिल्म देखने क्यों?’’

‘‘क्योंकि गुलशन भी आ रही है. पापा प्लीज.’’

‘‘तो गुलशन आ रही है न. तुम उस के साथ जाओ,’’ मैं ने बात साफ करनी चाही.

‘‘पापा, आप भूल रहे हो कि हम अभी इतने बड़े नहीं जो फिल्म देखने अकेले चले जाएं.’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. अच्छा चलो, ठीक है. मैं गार्जियन की तरह तुम दोनों के साथ चलूंगा,’’ मैं ने सहमति दी.

‘‘सिर्फ आप ही नहीं, गुलशन की मम्मा भी आ रही हैं,’’ पलक ने बताया.

‘‘वह आ रही है तो मेरी क्या जरूरत?’’ मैं फिर पीछे हटने लगा.

मगर पलक ने आंखें तरेरीं, ‘‘उस की मां आ सकती है तो मेरे पापा क्यों नहीं आ सकते? मेरी खुशी के लिए आप इतना भी नहीं कर सकते हो?’’

मैं ने हथियार डाल दिए. अपनी बेटी को प्यार से गले लगाया और हंसता हुआ बोला, ‘‘चलो ठीक है. हर बार की तरह यह संडे भी तुम्हारे ही नाम.’’

‘‘ओफकोर्स, मेरे ही नाम क्योंकि मैं ही हूं आप की इकलौती वारिस,’’ कह कर वह हंसने लगी.

बेटी के साथ मेरी ट्यूनिंग शुरू से ही बहुत अच्छी थी. इसलिए उसे अकेले पालने की जिम्मेदारी उठाना मेरे लिए कठिन नहीं रहा. वह मु झे सम झती थी और हर तरह से मेरी हैल्प करती थी और कोशिश करती थी कि उस की किसी बात से मुझे तकलीफ न हो. यही वजह थी कि पलक मुझे अपनी उम्र से कहीं ज्यादा सम झदार लगती थी.

पलक और गुलशन ने पहले से ही औनलाइन टिकट बुक कर रखे थे. हम दोनों सिनेमाहौल में पहुंचे तो सुगंधा से मेरी नजरें मिलीं और मु झे अच्छा सा महसूस हुआ.

वह काफी स्मार्ट और आकर्षक लग रही थी. उस ने अपने लंबे बालों को खुला छोड़ा हुआ था और एक लाइट ब्लू कलर की खूबसूरत सी ड्रैस पहनी हुई थी.

मुझे याद है जब वह छोटी थी यानी स्कूल में हम दोनों साथ थे तब मैं सुगंधा पर कभी गौर भी नहीं करता था. उस समय हमारी उम्र भी कम थी और उस के बाल भी बहुत छोटे थे. वह इतनी खूबसूरत भी नहीं थी. साधारण सी थी और लड़कों जैसा व्यवहार करती थी. 8वीं के बाद उस ने स्कूल चेंज कर लिया था. इसलिए मैं ने कभी उस के लिए कोई आकर्षण महसूस नहीं किया था. आकर्षण अभी भी मु झे ऐसा कुछ महसूस नहीं हो रहा था. मगर वह मु झे अच्छी लग रही थी और उस का साथ भी मु झे भाने लगा था.

अब तो अकसर ही हर संडे किसी न किसी बहाने हम चारों कहीं घूमने चले जाते.

कभी एकदूसरे के घर, कभी कहीं बाहर या कभी फिल्म देखने, कभी कोई इवैंट तो कभी यों ही.

गुलशन और पलक काफी खुश रहने लगी थीं क्योंकि उन्हें भी अब घूमने में मजा आता था. एक दिन गुलशन की मम्मी यानी सुगंधा का बर्थडे था और इस के लिए पलक मु झे 4 दिन पहले से ही तैयार करने लगी थी. मु झे क्या पहनना है, पार्टी के लिए क्या गिफ्ट ले कर जाना है, किस तरह से पेश आना है वगैरह.

वह मुझे इस तरह से हिदायतें दे रही थी जैसे कोई पेरैंट्स अपने बच्चों को हिदायत देते हैं.

हंसी तो मु झे तब आई जब वह मु झे सम झाने लगी, ‘‘सुगंधा आंटी से आप जरा प्यार से बात किया करो और उन से कहना कि वह बेहद खूबसूरत लग रही हैं.’’

मैं ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘अच्छा, मगर ऐसा क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे वाकई खूबसूरत लगती हैं न, पापा.’’

‘‘हां, ठीक है पर मैं भी तो अच्छा लगता हूं न,’’ मैं ने उस की आंखों में झांका.

‘‘अरे पापा, मेरी आंखों में क्यों झांक रहे हो, उन की आंखों में झांक कर पूछना कि क्या आप उन्हें अच्छे लगते हैं?’’ दादी अम्मा की तरह पलक ने सम झाया.

‘‘उस से मुझे क्या करना है? मैं उन्हें अच्छा लगूं या नहीं, उस से क्या फर्क पड़ेगा? मु झे तो यह देखना है कि मैं अपनी बेटी को अच्छा लगता हूं या नहीं,’’ मैं अपनी बेटी की बात का मतलब अच्छे से सम झ रहा था मगर उस की टांग खींचने में मजा आ रहा था.

‘‘क्या पापा, आप भी बच्चों जैसी बातें करते हो. चलो, तैयार हो जाओ. मैं भी तैयार हो रही हूं,’’ पलक ने और्डर दिया.

‘‘पलक, आप भूल गए हो कि अभी हमें जाने में 2 घंटे हैं.’’

‘‘तो आप को तैयार करने में भी मु झे 2 घंटे लगेंगे, पापा. चलो, जल्दी से तैयार होना शुरू हो जाओ.’’

मैं सोचने लगा कि यह पलक भी कितनी बड़ी हो गई है और मु झे कितना तेवर दिखाने लगी है. जैसे कि वह मेरी बेटी नहीं, मेरी मम्मी बन गई हो और आजकल तो कुछ ज्यादा ही बदले हुए अंदाज हैं इस के. ऐसा लगता है जैसे पलक और गुलशन मिल कर कुछ न कुछ खिचड़ी पका रही हैं.

उस दिन बर्थडे पार्टी में सिर्फ सुगंधा और गुलशन ने मु झे और पलक को इनवाइट किया था. केक वगैरह काटने के बाद पलक और गुलशन अपने कमरे में घुस गईं. मैं और सुगंधा अकेले रह गए. मु झे थोड़ा अजीब भी लग रहा था और मैं सम झ नहीं पा रहा था कि सुगंधा से क्या बात करूं.

सुगंधा ही मेरी उल झन सम झती हुई बोली, ‘‘हमारे दोनों बच्चे न, ज्यादा ही सम झदार बन रहे हैं. ये कहीं न कहीं हमें एकदूसरे के करीब लाने की कोशिश में लगे हैं.’’

‘‘क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बिलकुल लगता है. मैं तो खुद ही सोच में हूं कि ये दोनों चाहते क्या हैं?’’ तभी अंदर से दोनों बेटियां निकलीं और हंसती हुई बोलीं, ‘‘हम चाहते हैं कि आप दोनों शादी करें.’’

‘‘क्या, शादी, और हम दोनों?’’ हम दोनों ही अचरज से एकदूसरे की तरफ देखने लगे.

सुगंधा के चेहरे पर थोड़ी सी  झिझक और शर्म की रेखाएं आईं और फिर वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘यह सब क्या है गुलशन?’’

‘‘सही तो है न, मम्मा. आप अकेली हो. मु झे अगर अंकल जैसे पापा मिल जाएं तो क्या प्रौब्लम है?’’

‘‘सही बात है. मैं भी तो अकेली कितनी बोर हो जाती हूं. मम्मी के बगैर जिंदगी अच्छी नहीं लगती. मु झे मम्मी और पापा दोनों चाहिए. प्लीज मेरे लिए एक मम्मी ला दो, पापा. और जब सुगंधा आंटी जैसी मम्मी सामने हैं तो इन के अलावा मु झे कोई और चाहिए ही नहीं,’’ पलक ने भी गुलशन की हां में हां मिलाते हुए कहा.

मैं और सुगंधा एकदूसरे की तरफ देखते रह गए. मु झे सम झ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दूं. सुगंधा भी पसोपेश में थी क्योंकि हम दोनों के मन में ऐसा कुछ नहीं था पर हमारी बेटियों के मन में बहुतकुछ चल रहा था. यह आभास तो हमें बहुत समय से हो रहा था पर क्या यह उचित होगा? क्या सही में बच्चों की इन कोशिशों को बेकार नहीं जाने देना चाहिए? क्या हम एकदूसरे के साथ मिल कर बेहतर जीवन जी सकते हैं?

कहीं न कहीं मेरे मन में भी यह बात आने लगी थी. वाकई पिछले कुछ दिनों में मैं ने अपनी जिंदगी का सही अर्थों में आनंद लिया. पलक भी उतनी ही खुश नजर आती है क्योंकि सुगंधा आंटी साथ होती हैं. मु झे भी सुगंधा के साथ अच्छा ही लगता है. मैं ने सुगंधा की तरफ देखा. उस की आंखों में स्वीकृति नजर आ रही थी.

मैं ने पलक और गुलशन को सम झाते हुए कहा, ‘‘देखो, हमें थोड़ा समय चाहिए सोचने के लिए.’’

‘‘ठीक है, हम आप को 2 दिनों का समय देते हैं और उस के बाद मैं दादाजी के पास जाऊंगी आप दोनों का रिश्ता ले कर. अगर वे स्वीकृति देते हैं तो बात पक्की हो जाएगी और इस तरह आप दोनों की अरेंज मैरिज हम दोनों बेटियां करवा देंगे,’’ पलक की बात सुन कर मैं और सुगंधा काफी जोर से हंस पड़े.

वाकई बात बहुत मजेदार थी. आज हमारी बेटियां हमारी अरेंज मैरिज करा रही थीं. हमें एकदूसरे से मिलवाने की कोशिशों में लगी थीं. क्यों न उन की कोशिशों को एक खूबसूरत मोड़ दे कर हम एक नई जिंदगी की शुरुआत करें.

मैं ने अचानक हामी में सिर हिलाया, ‘‘ठीक है, ऐसा ही होगा.’’

हम दोनों ने हामी भर दी तो हमारी बेटियां हमें ले कर मेरे पिताजी के पास पहुंचीं. पिताजी यों ही मुसकरा रहे थे. उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी.

उन्होंने प्यार से दोनों के सिर पर हाथ फेरा और हमारी शादी पक्की हो गई.

प्राइवेट हौस्पिटल : कशमश भरी नौकरी

डाक्टर चांडक आज सुबह से ही बहुत खुश थे, सरकारी मैडिकल कालेज हौस्पिटल में आ कर. इतने खुश थे जैसे किसी को चांद मिल गया हो या फिर पंछी को आसमां मिल गया हो. आज सुबह से ही बहुत ही अच्छा लग रहा था हौस्पिटल में, जैसे नौकरी का पहला दिन हो.

डाक्टर चांडक को देख कर उन के अधीनस्थ रैजिडेंट डाक्टर, नर्सिंग स्टाफ व दूसरे लोग उन्हें वापस यहां देख कर बहुत ही खुश थे.

‘‘सर, आप को वापस यहां देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है,’’ इंचार्ज सिस्टर आशा बोली.

‘‘हां, मुझे भी,’’ मुसकराते हुए उन्होंने नर्सिंग स्टाफ से कहा.

सब यही सोच रहे थे कि क्यों डाक्टर चांडक को आज बहुत ही अच्छा लग रहा है? ऐसी भी क्या खास बात है?

बात दरअसल कुछ महीने पहले की है. डा. चांडक इसी मैडिकल कालेज में प्रोफैसर थे, पिछले 25 सालों से. अब उन की उम्र 50 साल से ज्यादा हो गई है. मतलब उन का चिकित्सीय अनुभव 25 साल से ज्यादा का हो गया है. उन के बारे में कहा जाता है कि वे मरीज के कमरे में प्रवेश करते समय ही पहचान जाते हैं कि इस मरीज की तकलीफ क्या है? ऊपर से डा. चांडक का मधुर स्वभाव व निर्मल मुसकराता चेहरा मरीज ही नहीं नर्सिंग स्टाफ व जूनियर डाक्टर को भी प्रभावित और प्रोत्साहित करता है.

डा. चांडक की उपलब्धियां उन की मेहनत के साथसाथ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण भी थीं पर इन सब के बावजूद वे अपने प्राइवेट मित्रों जितना कमा नहीं पाते थे. हालांकि उन की लग्जरी लाइफ कोई खास कम नहीं थी. अच्छा बड़ा सरकारी क्वार्टर के साथ ही उन के पास अपने होम टाउन में 3 बीएचके फ्लैट था. 2 कारें जिन में एक खुद के लिए और एक बेटे के लिए. 2-3 सालों में विदेश में एक बार घूम कर आते थे और दूसरे बड़े शहरों में कालेज परीक्षा इंटरव्यू लेने जाते थे तो अपनी पत्नी को भी साथ में ले जाते थे.

कुल मिला कर डाक्टर चांडक अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक व सरकारी नौकरी से संतुष्ट थे. हालांकि उन की आर्थिक स्थिति अपने प्राइवेट डाक्टर्स जैसी अतिसंपन्न नहीं थी. उन के डाक्टर मित्र शहर की हर नई प्रौपर्टी में निवेश करते थे. साल में कम से कम 2 बार विदेश यात्राएं करते थे और उन के पास हर साल नई लग्जरी गाड़ी होती थी.

तभी उन की शांत जिंदगीरूपी तालाब में हलचल हुई, लहरें उठीं और तूफान बनी और समुद्रतट से जोरदार टकराई. उन का दोस्त सोनी, जो उन के साथ मैडिकल कालेज में पढ़ता था, और दूसरे शहर में प्रैक्टिस करता था. साथ में उन के साथ मैडिकल कालेज में डाक्टर बना था, शहर में ही कौन्फ्रैंस में मिला.

कालेज का सदाबहार टौपर और मैडिसिन में गोल्ड मैडलिस्ट, अपने दोस्त की आर्थिक हालत देख कर उसे बहुत दुख हुआ और वह डाक्टर चांडक से गुस्से में बोला, ‘तेरी प्रतिभा सरकारी तालाब में जंग खा रही है. अब तो प्राइवेट प्रैक्टिस के लिए तैयार हो जा. अब तो लगभग सारी जवाबदारियां भी पूरी हो चुकी हैं. अब रिस्क ले, सौरी रिस्क नहीं कमा ले.’

‘पर अपना हौस्पिटल, वह भी इस उम्र में शुरू करूं?’ उन्होंने आश्चर्य से अपने दोस्त को कहा.

‘भाई, अब कोई भी नया डाक्टर अपना हौस्पिटल खुद शुरू नहीं करता है. ऊपर से पुराने जमेजमाए बड़ेबड़े डाक्टर भी अपने हौस्पिटल बेच रहे हैं और कौरपोरेट हौस्पिटल में जा रहे हैं बड़ेबड़े पैकेज के साथ. अपने हौस्पिटल के इनवैस्टमैंट व मैनेजमैंट का झंझट नहीं. बहुत सारा बड़ा पैकेज दे रहे हैं और तुम तो अनुभवी हो और मैडिकल कालेज के प्रोफैसर हो. तुम को तो बहुत बड़ा पैकेज मिलेगा. तुम अपनेआप को कुएं से बाहर निकालो और समुद्र नहीं तो तालाब में ही आ जाओ. देखो, दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है,’ उस ने अपने दोस्त को समझाने के लिए कहा.

डा. चांडक की पत्नी शुरू से ही उन्हें प्राइवेट में कुछ करने को कह रही थीं. दूसरों को छोड़ो जब उन की मैडिकल की पढ़ाई चल रही थी तभी उन्होंने प्राइवेट का ही सोचा था पर पासआउट होते ही उन को तुरंत ही दूसरे दिन अपने ही मैडिकल कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर की नियुक्ति मिली और प्राइवेट हौस्पिटल खोलने के लिए निवेश भी बड़ा चाहिए था. उन्होंने सोचा कि कुछ समय नौकरी करूंगा और बाद में अपना प्राइवेट क्लीनिक खोल लूंगा पर जवाबदारियां बढ़ती गईं और दूसरा उन्हें सरकारी कालेज में मरीज देखने के साथसाथ स्टूडैंट्स को पढ़ाने का भी मजा आ रहा था पर अब बेटा बैंक की जौब में सैटल हो चुका था और बेटी की शादी हो चुकी थी. अब उन्होंने दूसरे दोस्तों व परिवार के साथ सलाहमशविरा किया. ज्यादातर का मंतव्य प्राइवेट प्रैक्टिस करने का था.

हिम्मत कर के एक दिन सरकार को इस्तीफा दे दिया और उसी शहर में ही नया खुला कौरपोरेट हौस्पिटल जो अभी 1 साल पहले ही उस की नई ब्रांच खुली थी, अच्छाखासा पैकेज और इंसैंटिव दे रही थी, उन्होंने अपनी नई नौकरी जौइन कर ली.

यहीं से उन की जीवन की चिकित्सक तरीके की दूसरी पारी शुरू होती है. पहले दिन वह थोड़ी उत्सुकता और थोड़ी झिझक के साथ अस्पताल पहुंचे. अस्पताल के जगहजगह पर सिक्योरिटी गार्ड थे और हर जगह उन को पूछ कर अंदर जाना पड़ा क्योंकि यहां के सिक्योरिटी गार्ड्स उन को पहचानते नहीं थे. उन की चैंबर बेसमैंट में थी जो दूसरे डाक्टर के साथ थी.

उन के चैंबर के बाहर काले रंग की मंहगी प्लेट पर गोल्डन रंग में नाम के साथ डिग्री व पूर्व प्रोफैसर, मैडिकल कालेज टंगी हुई थी. बाहर सिस्टर नर्स बहुत छोटी सी टेबल पर बैठी थी. वेटिंगरूम बहुत बड़ा था और सरकारी हौस्पिटल की लकड़ी की बैंचों की जगह बड़ेबड़े सोफे रखे थे जिस में आदमी बैठते ही धंस जाता है. बीच में कांच की बड़ी डिजाइनर सैंटर टेबल थी जिस पर मैडिकल की पत्रिकाएं पड़ी हुई थीं जो हिंदी भाषा में और कौमन मैन को सम?ा में आए, ऐसी भाषा में थीं. यहां डाक्टर की जगह, ज्यादातर बड़ा स्थान मरीज व उन के रिश्तेदारों के लिए था. उन की चैंबर और उस की छत छोटी थी जबकि सरकारी हौस्पिटल में उन के कक्ष में ऐग्जामिनेशन टेबल से ज्यादा उन की खुद की टेबल थी.

उन्होंने बाहर सरसरी तौर पर नजर डाली फिर अपने कक्ष में प्रवेश किया. कुछ समय बाद सिस्टर एक चार्ट पेपर ले कर अंदर आई, ‘सर, आप के आज के पेशेंट्स की ओपीडी लिस्ट है,’ पेपर मेज पर रखते हुए उस ने कहा.

‘कितने मरीज हैं?’

‘सर, 7 मरीज अभी हैं और 5 शाम को हैं,’ नर्स ने नाम के साथ बताया.

‘क्या सिर्फ इतने ही पेशेंट? डाक्टर को हैरतअंगेज आश्चर्य हुआ. इतने मरीज तो वे अपने चैंबर से वार्ड तक जातेजाते रास्ते में ही देख लेते थे. वहां उन की रोजाना ओपीडी 100 से ज्यादा ही थी,’ उन्होंने मन ही मन बुदबुदाते कहा.

‘डा. चांडक, आप ने आज तक सरकारी हौस्पिटल में ही अभी तक काम किया है. यह शायद प्राइवेट हौस्पिटल में आप का पहला अनुभव है.

आप को बुरा न लगे तो मैं कुछ महत्त्वपूर्ण बातें आप को बताना चाहता हूं,’ सूटेडबूटेड मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने उन से कहा. चपरासी दोनों के लिए कौफी रख कर गया.

‘यहां मरीज व उन के रिलेटिव्स को ज्यादा प्रश्न पूछने की आदत होती है क्योंकि हमारे ज्यादातर मरीज पढ़ेलिखे व संभ्रांत घर के होते हैं और यहां आने से पहले इंटरनैट में काफी कुछ सर्च कर के आते हैं. हमारा मूल उद्देश्य मरीजों की संतुष्टि है. जब तक वे प्रश्न पूछें उन्हें संतोषजनक जवाब देते रहना है. भले ही इस में आप को झल्लाहट हो, भले ही आप को अच्छा नहीं लगे. सर, यहां व सरकारी हौस्पिटल में यही महत्त्वपूर्ण अंतर है,’ मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने कौरपोरेट हौस्पिटल की संस्कृति से परिचय कराया.

‘डाक्टर का मूल कर्तव्य दर्दी की संतुष्टि से ज्यादा दर्दी का दर्द तकलीफ मूलरूप से मिटाना होता है न कि दर्दी और उस के संबंधियों को खुश करना होता है,’ उन्होंने मन ही मन कहा पर आज पहला दिन था इसलिए उन्होंने बहस करने की जगह चुपचाप सुना.

पहला मरीज शहर के बाहर का था. अनेक अस्पतालों में उस का इलाज चल चुका था और कई डाक्टरों से सलाह ले चुका था पर ठीक नहीं हुआ. डा. चांडक ने उस की फाइल देखी और मरीज का परीक्षण किया. देखा कि मरीज लंबे समय से बीमार है. उस की जांच कर के उन्होंने एक टैस्ट के लिए लेबोरेटरी में उसे भेजा. लेबोरेटरी से डाक्टर का फोन आया और आश्चर्य के साथ बोला, ‘‘सर, सिर्फ एक ही टैस्ट?’’

‘बाकी सारे टैस्ट मरीज के किए हुए हैं,’ उन्होंने शांत मन से कहा.

‘वह बात आप की सही है, सर. पर यहां आए हर मरीज के सारे टैस्ट कराए जाते हैं, भले ही वह एक दिन पहले ही दूसरी जगह क्यों न कराए हों,’ किसी डा. नीरज ने यहां के सिस्टम को बताते हुए कहा.

2 घंटे बाद रिपोर्ट आई. उन्हें पता था कि रिपोर्ट पौजिटिव ही आएगी.

‘देखिए, आप को पेट की टीबी है. इसीलिए पेट लंबे समय से दर्द कर रहा है.

6 महीने दवा लेनी पड़ेगी, मैं 1 महीने की दवा लिखता हूं. आप चाहें तो यह दवा अपने शहर में सरकारी हौस्पिटल से भी ले सकते हैं. चाहें तो यहां महीने में एक बार आ कर मेरे से लिखा कर ले जा सकते हैं,’ उन्होंने पेपर पर दवा लिखते हुए दर्दी को औप्शन दिए.

‘धन्यवाद डाक्टर साहब. एक साल से परेशान हो गए थे, कोई पक्का निदान नहीं हो रहा था. अब तो हम आप से ही दवा लेंगे,’ मरीज को अभी तक दूसरे डाक्टर पर विश्वास नहीं था.

‘सर, आप को इस मरीज को ऐडमिट करना था,’ मैनेजर ने हलकी नाराजगी से कहा.

‘यह तो एक डाक्टर को तय करना है कि मरीज के साथ क्या करना चाहिए?’ उन्होंने गुस्से को दबा कर कहा.

डा. चांडक की ओपीडी दिनोंदिन बढ़ रही थी क्योंकि उन का निदान, टैस्ट और दवाई कम से कम. कोई बिना जरूरत के ऐडमिशन व टैस्ट नहीं.

इस कारण हौस्पिटल का स्टाफ तक अपनी जानपहचान वालों को डा. चांडक को बताने को कहता था. उन की ओपीडी तो बढ़ रही थी पर इस तुलना में हौस्पिटल में ऐडमिशन नहीं हो रहे थे. दूसरे टैस्ट बहुत ही कम हो रहे थे.

एक बार हौस्पिटल संचालक ने उन्हें बुलाया, ‘डा. चांडक, आप की ओपीडी काफी अच्छी हो गई है पर उन की तुलना में ऐडमिशन क्यों नहीं हो रहे हैं? अब आप को 3 महीने हो गए. हम सभी को टारगेट देते हैं. आप को अगले महीने यह टारगेट पूरे करने होंगे,’ कहते हुए एक प्रिंट पेपर उन की ओर बढ़ा कर कहा.

‘टारगेट? यह तो कंपनियां अपने सेल्समैन को देती हैं. यह कैसे संभव है कि पहले से ही बता सकते हैं कि किस मरीज को दवा देनी है कि किस को ऐडमिट करना है?’ उन्हें आज का दिन बहुत ही खराब लगा पूरी जिंदगी में.

जब वे कालेज में राउंड लेते थे तब 2 असिस्टैंट प्रोफैसर और रेजिडैंट डाक्टर उन के साथ झुंड की तरह चलते थे. उन का मरीज पर 1-1 वाक्य बोलना महत्त्वपूर्ण होता था. उन की जब क्लीनिकल क्लास लेते थे तब पिन ड्रौप साइलैंस होता था. वह माहौल यहां नहीं था. पूरी रात घर पर भी चिंतामग्न थे पर पहले महीने उन्हें फीस के रूप में 5 लाख से भी ज्यादा का चैक मिला जो उन की 3 महीने की सैलरी के बराबर थी तो उन्हें लगा कि क्यों उन के सारे साथी प्राइवेट की ओर भागते हैं.

‘सर, डाक्टर निशांत आप से मिलना चाहते हैं,’ रिसैप्शनिस्ट ने इंटरकौम पर कहा.

‘मैं यूरोलौजिस्ट हूं. मैं यहां 1 साल पहले काम करता था. अभी अपने शहर में खुद का हौस्पिटल शुरू किया है. यहां मेरा दोस्त राजेश आप के वार्ड में ही भरती है. बस, उस का डायग्नोसिस व प्रोग्नोसिस जानने आया हूं,’ अपना परिचय दे कर दोस्त की तबीयत के बारे में उन्होंने मैडिकल भाषा में पूछा.

उन्होंने अच्छी तरह से पूरा केस बताया और कब डिस्चार्ज करना है वह भी बताया. डाक्टर निशांत इतने सीनियर डाक्टर के संयम व सादगी से बहुत ही प्रभावित हुए. चाय पीतेपीते बातों ही बातों में चांडक ने हौस्पिटल के टारगेट के बारे में पूछा तो डाक्टर निशांत यह सुन कर हंसने लगे.

‘सर, इस हौस्पिटल में 200 करोड़ से भी ज्यादा निवेश हुआ है. ऊपर से हर महीने का मैंटेनैंस खर्च, 100 से ज्यादा सिक्योरिटी गार्ड्स, 200 से ज्यादा स्टाफ, 10-10 लिफ्ट और सैंट्रली वातानुकूलित एसी का लाखों रुपए का बिल, इन सब का अंतिम बो?ा मरीज पर ही पड़ता है.’

‘इतना सारा खर्च व मुनाफे के लिए न सिर्फ बहुत सारे मरीज बल्कि ढेर सारे ऐडमिशन, टैस्ट आदि भी चाहिए. इसलिए न चाहते हुए भी मैनेजमैंट को टारगेट देना ही पड़ता है और डाक्टर्स को वे टारगेट पूरे करने पड़ते हैं. नहीं तो हौस्पिटल चल ही नहीं पाएगा.’

‘ओहो,’ डाक्टर चांडक को प्राइवेट हौस्पिटल का अर्थशास्त्र समझ में आया.

डाक्टर चांडक मरीजों को भरती तो करते थे पर बिना जरूरत ऐडमिशन उन की आत्मा को गंवारा नहीं था. ऐसा नहीं था कि मरीज भरती के लिए मना करते थे या बिल देने से मना करते थे. ज्यादातर मरीज संभ्रांत घर के होते थे. साथ में लगभग सभी के पास मैडिक्लेम पौलिसी भी थी.

कालेज में भी उन्हें कई कंपनी वाले अच्छी औफर करते थे, खासकर दवा व टैस्ट के लिए पर उन्होंने वही किया जो सही था और मन को गंवारा था. इस कारण वे अपने जूनियर डाक्टर, स्टाफ व मरीजों में प्रिय थे. सब लोग दिल से उन का सम्मान करते थे.

जब पहले महीने उन्हें 5 लाख से भी से ज्यादा राशि का चैक मिला, जिस में इंसैंटिव नहीं था तो वह फूले नहीं समाए. सरकार में 25 साल की नौकरी के बाद भी उन की सैलरी प्राइवेट हौस्पिटल से कई गुना कम थी. अब उन्हें समझ में आया कि ज्यादातर डाक्टर साथी क्यों प्राइवेट की ओर रुख करते हैं. शायद घर वाले भी इसलिए प्राइवेट करने को कहते थे. भविष्य में यह चैक की राशि बढ़ने वाली थी, रौकेट की तरह.

पर वे येनकेनप्रकारेण टारगेट पूरा करने में सक्षम नहीं थे. इसीलिए ऐडमिनिस्ट्रेशन का उन पर दबाव बढ़ता ही जा रहा था. वे धर्मसंकट में फंस गए. ढेर सारी प्राइवेट कमाई या फिर आत्मा की संतुष्टि. इस कारण वे तनाव में रहने लगे और उन का सदा हंसमुख निर्मल चेहरा चिंताग्रस्त हो गया.

‘पापा, क्या बात है, आजकल बहुत तनाव में लग रहे हो?’ बेटे ने पास आ कर उन से आदरभाव से पूछा.

‘हां बेटा, बहुत चिंताग्रस्त हूं,’ फिर उन्होंने अपने मन का द्वंद्व बताया, ‘समझ में नहीं आ रहा है, बेटा कि मैं क्या करूं?’

‘पापा, आप हमेशा ही कहते हो कि जो दिल को सही लगे वही करो. दिमाग का क्या है वह तो स्वार्थी है, हमेशा नफेनुकसान के बारे में सोचता है. इसलिए आप ने मुझे बोर्ड मैरिट में आने के बाद भी साइंस की जगह मेरा मनपसंद कौमर्स विषय लेने दिया, सब के साइंस के जोर देने पर भी मैं डाक्टर का बेटा हूं तो मुझे डाक्टर बनना चाहिए.’

‘पापा, आप जो भी निर्णय लेंगे, हम सब आप के साथ हैं,’ बेटे ने पिता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘थैंक्यू बेटा,’ बेटे ने उन की मन की गांठ खोल दी.

‘दूसरे दिन सुबह ही कालेज में पहुंच गए. डीन सर उन के 2 साल सीनियर थे, मैडिकल स्टूडैंट के समय में. उन्होंने आने का कारण पूछा तो बोले,’ मैं कालेज वापस जौइन करना चाहता हूं, उन्होंने धीरे से जैसे शर्मिंदगी के भाव से कहा.

‘अरे वापस क्यों,’’ मुसकराते हुए डीन सर ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारा इस्तीफा सरकार ने मंजूर ही कब किया था? यह देखो सरकार का कल ही पत्र आया है जिस में लिखा है कि सरकार में डाक्टरों की भारी कमी है और प्रोफैसरों की तो और भी ज्यादा कमी है और प्रोफैसर के कारण मैडिकल कालेज को हर साल 3 रैजिडैंट डाक्टर्स की सीट्स मिलती हैं जिस के कारण सरकार को विशेषज्ञ डाक्टर मिलते हैं. इसलिए उन का इस्तीफा नामंजूर किया जाता है,’ पत्र पढ़ कर वे बहुत खुश हुए.

‘सर, मैं कब जौइन करूं?’ उन्होंने झोंपते हुए पूछा.

‘कल ही आ जाओ. वापस आना है तो देरी क्यों?’ कहते हुए उन्होंने मुसकराते हुए कौफी मंगवाई.

‘डा. चांडक, मनुष्य मिट्टी जैसा होता है. इसलिए तुम उस माहौल में रह नहीं सके,’ डीन सर ने वैसे ही समझाया जैसे पहले दिन मैडिकल कालेज में ऐडमिशन के समय समझाया था कि जितना प्रैक्टिकल सीखोगे उतना ही जिंदगी में अच्छे डाक्टर बनोगे.

1947 के बाद कानूनों से रेंगती सामाजिक बदलाव की हवाएं

15 अगस्त, 1947 को भारत को जो आजादी मिली वह सिर्फ गोरे अंगरेजों के शासन से थी. असल में आम लोगों, खासतौर पर दलितों व ऊंची जातियों की औरतों, को जो स्वतंत्रता मिली जिस के कारण सैकड़ों समाज सुधार हुए वह उस संविधान और उस के अंतर्गत 70 वर्षों में बने कानूनों से मिली जिन का जिक्र कम होता है जबकि वे हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं. नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का सपना इस आजादी का नहीं, बल्कि देश को पौराणिक हिंदू राष्ट्र बनाने का रहा है. लेखों की श्रृंखला में स्पष्ट किया जाएगा कि कैसे इन कानूनों ने कट्टर समाज पर प्रहार किया हालांकि ये समाज सुधार अब धीमे हो गए हैं या कहिए कि रुक से गए हैं.

15 अगस्त, 2024 को लालकिले से सैक्युलर सिविल कोड और उस के जुड़वां भाई कम्युनल सिविल कोड शब्दों का जन्म हुआ है वरना तो इन शब्दों का जिक्र किसी शब्दकोष, कानूनी किताब या संविधान में नहीं मिलता. 15 अगस्त, 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन शब्दों का इस्तेमाल करते कहा, हम ने कम्युनल सिविल कोड में 75 साल बिताए हैं, अब हमें सैक्युलर सिविल कोड में जाना होगा, तभी हम धर्म के आधार पर भेदभाव से मुक्त हो सकेंगे.

बस, इतना सुनना था कि जल्द ही इन शब्दों के माने और मंशा सामने आ गए कि दरअसल नरेंद्र मोदी यूनिफौर्म सिविल कोड की बात कर रहे हैं. यह बात रत्तीभर भी नई नहीं है, बल्कि यह भाजपा के सनातनी एजेंडे का सनातनी हिस्सा है जिस का मकसद सिर्फ और सिर्फ कट्टर हिंदुओं को खुश करना, पौराणिक एवं धर्म राज स्थापित करना और मुसलमानों को कानूनी डंडा दिखा कर डराना व परेशान करना है, ठीक वैसे ही जैसे तीन तलाक कानून और जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया था और जीएसटी कानून ला कर राज्य सरकारों का संघीय अधिकार कम करना था.

यूनिफौर्म सिविल कोड या सैक्युलर सिविल कोड का समाज के सामाजिक सुधारों से कोई लेनादेना नहीं है. यह बहुसंख्यक हिंदुओं को विवाह या विरासत के कानूनों में कोई छूट देने के लिए बनाया जाने वाला प्रस्ताव नहीं है, यह सिर्फ मुसलिम और ईसाई विवाह, विरासत, तलाक कानूनों में दखलंदाजी का उद्देश्य लिए है.

आज भी हिंदू औरतें पतियों के जुल्मों की मारी हैं. तलाक के लिए वर्षों उन की चप्पलें अदालतों में घिसती हैं. हिंदू समाज विवाह के विषय में जाति और दहेज से मुक्त नहीं हुआ है. विरासत में बेटियों को पराया माना जा रहा है. हिंदू संयुक्त परिवार कानून के कारण रामायण और महाभारत काल से भाईभाई में जो विवाद होता था, आज भी होता है क्योंकि जो सुधार कानूनों ने किए उन्हें लागू करने में लोगों, सरकारों, अदालतों और भगवा गैंग ने स्पीडब्रेकर लगा कर धीमा कर दिया.

संविधान का तुलनात्मक अध्ययन

भगवाई प्रधानमंत्री मोदी के यूनिफौर्म सिविल कोड या सैक्युलर सिविल कोड पर वरिष्ठ कांग्रेसी जयराम रमेश ने, यह कहते कि यह भीमराव अंबेडकर का अपमान है, एतराज जताया है. अफसोस यह है कि उन सहित किसी कांग्रेसी नेता को यह एहसास ही नहीं कि आजादी के बाद से ही कांग्रेस के राज में बिना वोटों की चिंता किए समाज सुधार के जो कानून बने हैं उन्हें गिना कर कभी हल्ला नहीं मचाया गया. कांग्रेस की स्थिति हनुमान जैसी हो गई है जिसे अपनी ताकत का अंदाजा या स्मरण नहीं.

नरेंद्र मोदी की और उन की पार्टी भारतीय जनता पार्टी की हकीकत इस से परे कुछ और है जो बरबस ही जवाहरलाल नेहरू और भीमराव अंबेडकर व उन के बनाए संविधान को तो आरक्षण के कारण कोसती है लेकिन हिंदू कोड बिल की याद नहीं दिलाती कि इसी के बलबूते सैक्युलर सिविल कोड की बात संभव हुई.

आज तक कट्टर हिंदूवादियों के दिमाग से नासूर बन कर हिंदू कोड बिल रिसता है क्योंकि इस का विरोध श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संसद में पुरजोर तरीके से किया था और यहां तक कह दिया था कि यह बिल हिंदू संस्कृति को टुकड़ों में बांट देगा. जनसंघ इसी कोड बिल के कारण पैदा हुआ जिस के आधार पर आज नरेंद्र मोदी सैक्युलर सिविल कोड की बात कर रहे हैं.

आखिर ऐसा क्या था हिंदू कोड बिल में जिसे 75 साल बाद कम्युनल कहा जा रहा है, इसे समझने के लिए जरूरी है कि उस दौर में झांका जाए और तब के बने संविधान और उस के अंतर्गत बने कानूनों को परखा जाए जिन्होंने समाज सुधारों की एक मजबूत बुनियाद रखी चाहे उन पर बनी इमारतें टेढ़ीमेढ़ी ही हों.

पहले एक नजर पाकिस्तान और बंगलादेश के संविधानों पर डाली जाए तो बहुत सी समानताएं होते हुए भी एक बड़ा फर्क सामने आता है. अविभाजित पाकिस्तान में 3 बार संविधान यानी दस्तूर ए पाकिस्तान बना और तीनों ही बार अल्लाह के नाम पर बना. इसलाम पाकिस्तान का राजकीय धर्म है और तमाम कानून शरीयत के मुताबिक बने. मार्च 1949 में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने पाकिस्तानी संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव पेश करते कहा था कि पूरे ब्रह्मांड पर संप्रभुता अल्लाह की है. मुसलमानों को व्यक्तिगत और सामूहिक क्षेत्रों में इसलाम की शिक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुसार अपने जीवन को व्यवस्थित करने में सक्षम बनाया जाएगा जैसा कि पवित्र कुरान और सुन्ना में निर्धारित किया गया है.

यह प्रस्ताव 1956, 1962 और 1973 के संविधानों में यथावत रहा. तब से ले कर अब तक पाकिस्तान अल्लाह और इसलाम के नाम पर चल रहा है जिस के चलते लोग भूख और अभावों से बिलबिला रहे हैं लेकिन क्या मजाल कि वे एक शब्द भी इन के बारे में बोल पाएं कि ऊपरवाला हमारी सुध क्यों नहीं लेता. यानी, पाकिस्तानियों ने गोरों के हाथों से सत्ता ले कर या तो मौलानाओं को दे दी या रजवाड़ों की तरह रह रहे अशरफ मुसलमानों के हाथों में दे दी.

इंदिरा गांधी के कारण बने बंगलादेश का संविधान भी हालांकि सभी धर्मों को समान दर्जा और सम्मान देने की बात करता है लेकिन हकीकत कुछ और है जो 22 मार्च, 2014 को शेख हसीना ने इसलामिक फाउंडेशन के एक जलसे में इन शब्दों में बयां की थी कि देश मदीना चार्टर और पैगंबर मुहम्मद के अंतिम उपदेश व निर्देशों के अनुसार चलेगा. देश में कभी भी पवित्र कुरान और सुन्नत के खिलाफ कानून नहीं बनेगा. लेकिन 5 अगस्त, 2024 को न तो पवित्र कुरान उन्हें बचा पाया, न अल्लाह कुछ कर पाया और न ही मदीना चार्टर काम आया.

सार यह है कि इन दोनों देशों में भारत जैसा संविधान और कानून नहीं बने तो इस की इकलौती वजह कठमुल्लाओं के हाथों नाचते नेता थे जिन में जवाहरलाल नेहरू की तरह दूरदर्शिता और सख्ती नहीं थी, जिन्होंने कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर के साथ बनाए संविधान और कानून लागू किए और जिन के चलते आज कोई भी भारतीय गर्व से कह सकता है कि हम औरों से कहीं बेहतर हैं और सुकून से जी रहे हैं.

संविधान निर्माण और उठापटक

15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ तब हर किसी के मन में यह सवाल था कि अब देश चलेगा कैसे? समाज और देश का भविष्य इसी सवाल के जवाब से तय होना था. 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश पार्लियामैंट में एक अधिनियम पारित हुआ था जिस का नाम था- इंडियन इंडिपैंडैंस एक्ट यानी भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 जिसे मंजूरी 18 जुलाई, 1947 को मिली थी. इस के मुताबिक, ब्रिटेन शासित भारत को 2 भागों- भारत तथा पाकिस्तान – में विभाजित किया गया था. इस काम के लिए लौर्ड माउंटबेटन को नियुक्त किया गया था.

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के प्रावधानों के तहत आजादी कई शर्तों पर मिली थी जिन्हें सभी राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया था. लेकिन दोनों देशों के सामने तमाम तरह की मुसीबतें सिर उठाए खड़ी थीं. पाकिस्तान घोषिततौर पर इसलामिक राष्ट्र बन गया और मोहम्मद अली जिन्ना वहां के गवर्नर जनरल बने. भारत की कमान संभालने की जिम्मेदारी पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिली.

जिन्ना नेहरू की तरह पेशे से वकील थे और नेहरू की तरह लिबास से ही नहीं, बल्कि विचारों से भी आधुनिक थे. कांग्रेस छोड़ कर मुसलिम लीग जौइन कर वे मुसलमानों के सर्वमान्य नेता बन गए थे और मुसलिम हितों की दुहाई देते मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बनाए जाने की जिद पर अड़ गए थे. इस के पीछे उन की दलील यह थी कि हिंदूबाहुल्य भारत में मुसलमान अमनचैन से नहीं रह पाएंगे.

उन की जिद पूरी तरह नाजायज नहीं थी हालांकि कहीं न कहीं इस के पीछे पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बन जाने की उन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी थी. पाकिस्तान बनने के बाद वे वहां के राष्ट्रपिता करार दिए गए और कायदे आजम की उपाधि भी उन्हें मिली. जिन्ना कानून से चलने वाला पाकिस्तान चाहते थे लेकिन उन का यह सपना पूरा नहीं हो पाया क्योंकि आजादी के एक साल बाद ही टीबी की बीमारी के चलते उन की मौत हो गई. जिन्ना के बाद पाकिस्तान कट्टरवादी मुसलमानों के हाथों में जो पड़ा तो आज तक उन की गिरफ्त में है और इसीलिए दुर्गति का शिकार भी है.

इधर भारत में कानून के राज को ले कर एक और महाभारत छिड़ गया था क्योंकि संविधान का मसौदा हिंदुत्व से यानी मनुस्मृति से मेल नहीं खाता था. विनायक दामोदर सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेता मनुस्मृति को भारत का संविधान बनाना चाहते थे जिस में ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ स्थान जन्म से ही मिलता और अछूतों, जो आज एससीएसटी कहलाए जाते हैं, को शहरों व गांवों के बाहरी क्षेत्र में रहने की जगह मिलती है. हर व्यक्ति को वोट का अधिकार तो इस प्रणाली में सपना होता.

अविभाजित भारत के लिए संविधान बनाने की प्रक्रिया 1946 में शुरू हो गई थी जब प्रोविंसों के चुने प्रतिनिधियों से एक तरह की संसद का गठन हुआ था. 389 सदस्यों वाली संविधान सभा ने 3 वर्षों में संविधान बनाया था और इसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया. बहुत से सामाजिक सुधार उसी दस्तावेज की देन हैं जिस पर कांग्रेस और नेहरू की छाप है.

कांग्रेस उस समय भारी बहुमत में थी और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री पर कट्टर हिंदूवादियों से उन्हें दोदो मोरचों पर लड़ना पड़ रहा था. एक तरफ कांग्रेस विरोधी हिंदूवादी गुट और दल थे, मसलन आरएसएस, हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद और मंदिरों व मठों में बैठे तमाम साधुसंत तो दूसरी तरफ वे सवर्ण कांग्रेसी नेता थे जो हिंदू राष्ट्र चाहते थे. इन में वल्लभभाई पटेल, डा. राधाकृष्णन, डा. राजेंद्र प्रसाद भी थे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे, जिन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देते भारतीय जनसंघ बनाया था. अब इसे भाजपा के नाम से जाना जाता है.

नेहरू अंबेडकर की जोड़ी

अंगरेज तो चले गए लेकिन हिंदुत्व का मसला या सनातनी विवाद ज्यों का त्यों रहा. नेहरू सोशलिस्ट डैमोक्रैसी चाहते थे लेकिन हिंदूवादी, जिन में कुछ कांग्रेसी भी शामिल थे, एक धार्मिक राष्ट्र की जिद पर अड़े थे जो हिंदू धर्मग्रंथों के मुताबिक चले यानी वर्णव्यवस्था के तहत कानून बनें.

नेहरू ने कहा था, ‘‘जीवन ताश के एक खेल की तरह है. आप को जो हाथ दिया जाता है, वह नियतिवाद है पर जिस तरह से आप इसे खेलते हैं, वह स्वयं इच्छा है.’’ नेहरू ने हर व्यक्ति को अपनी इच्छा से चलने की स्वतंत्रता संविधान से ले कर हिंदू कोड बिल और जमींदारी उन्मूलन से दी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी, जिस की जड़ में हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद हैं, के नरेंद्र मोदी ने 2014 में केंद्र की सत्ता में आते ही इसे नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानूनों, लैटरल एंट्री, चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को समाप्त कर छीन ली जिन से आम लोगों के अधिकार कम होने लगे. राज्यों की संघीय शक्तियां भी पिछले 10 वर्षों में कम हुईं.

नेहरू ने जो लड़ाई लड़ी, नई लड़ाई नहीं थी बल्कि आजादी के पहले से चली आ रही थी. दोटूक कहें तो यह लड़ाई सवर्ण उच्च पुरुष बनाम दलित, आदिवासी मुसलमान और सवर्ण औरतें थी. लेकिन इन औरतों की भूमिका अदृश्य थी जिन्हें भीमराव अंबेडकर ने सब से पहले कानूनी तौर पर बराबरी का हक दिया था. हैरत की बात तो यह है कि इन औरतों का अंबेडकर से सीधे कोई लेनादेना ही नहीं था. लेकिन नेहरू और अंबेडकर को उन की चिंता थी कि अगर इन के हक में कानून नहीं बने तो ये पौराणिक युग की महिलाओं जैसे पुरुषों की गुलामी ढोती रहेंगी जिस का असर देश की तरक्की पर भी पड़ेगा. 1937 में चुनाव हुए थे जिन में महज 3 करोड़ वोटर थे जो तब की आबादी के 6ठे हिस्से थे. कुछ ही औरतों को वोट डालने का हक मिला था. प्रोविंसों के चुनावों से चुने लोगों ने कौंस्टीट्युएंट असैंबली चुनी थी जिस ने भारत का संविधान बनाया जिस में हर नागरिक को वोट देने का अधिकार मिला. शूद्रों, दलितों, उन की औरतों और सवर्ण औरतों को पहली बार वोट डालने का मौका मिला.

हिंदू कोड बिल और कट्टरपंथियों का विरोध

वह 11 अप्रैल, 1947 का दिन था जब अंबेडकर ने चुनावों से पहले बनी संविधान सभा के सामने हिंदू कोड बिल का मसौदा पेश किया. तब तक भारत को आजादी भी नहीं मिली थी पर यह पक्का था कि ब्रिटिश भारत का विभाजन होगा. इस बिल के एक प्रावधान के मुताबिक अगर कोई हिंदू पुरुष बिना वसीयत किए मर जाता है तो मृतक की विधवा, पुत्र और पुत्री को उस की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलेगा. अलावा इस के, बेटियों को भी बेटों की तरह जायदाद में बराबर का हक देने की बात कही गई थी. इतना ही नहीं, हिंदू कोड बिल हिंदू पुरुषों को एक से ज्यादा शादी करने को भी प्रतिबंधित करने की बात कह रहा था और हैरतअंगेज तरीके से महिलाओं को भी तलाक का अधिकार देने की वकालत कर रहा था.

इस के बाद क्या हुआ, यह जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि आजादी के वक्त तक औरतों को, सवर्णों की औरतों को भी, कोई हक ही हासिल नहीं था. उन की हालत घर के आंगन में बंधे मवेशियों सरीखी हुआ करती थी. पति दो, तीन या चार या 16,000 शादियां कर ले तो वे विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं क्योंकि इस का अंजाम होता अहल्या या सीता जैसी श्रापित जिंदगी जीना या फिर घरपरिवार, समाज से निष्काषित हो कर किसी तीर्थस्थल या आश्रम में भीख मांगना व हर कभी शारीरिक शोषण के लिए तैयार रहना. तब की तथाकथित सभ्य ऊंची सवर्ण जातियों के शिक्षित और अभिजात्य समाज में औरतों की यह बदहाली आम थी. उस की हैसियत एक दासी और पांव की जूती जैसी ही हुआ करती थी.

सवर्ण हिंदू समाज औरतों के प्रति कितना क्रूर और बर्बर था (और एक हद तक आज भी है), सतीप्रथा इस का बेहतर उदाहरण है, जिस पर अंगरेजों ने साल 1829 में कानून बना कर रोक लगाई थी. लेकिन इस से समस्या पूरी तरह हल नहीं हो पाई. विधवाएं, खासतौर से सवर्ण विधवाएं, आज भी पारिवारिक, सामाजिक और उस से भी ज्यादा धार्मिक तिरस्कार की शिकार हैं. उन्हें मनहूस की उपाधि मिली हुई है. इस स्थिति से बचने के लिए कई महिलाएं पति की मौत के बाद आत्महत्या कर लेती हैं क्योंकि वे इस अनदेखी को बरदाश्त नहीं कर पातीं. बारबार करवाचौथ को शानोशौकत से मनाना इसी मानसिकता की निशानी है. मंगलसूत्र के नाम पर आज वोट मांगने/लेने की कोशिश वही मानसिकता है.

हिंदू कोड बिल में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देने का अंबेडकर का मकसद यही था कि महिलाएं आत्मसम्मान और स्वाभिमान की जिंदगी जिएं. एक हद तक वे अपने मकसद में कामयाब भी रहे हैं. यानी, कानून बना कर ही समाज सुधार किया जा सकता है. यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह जाती.

हिंदू समाज या धर्मसत्तात्मक समाज का लाभ पुरुषों को मिलता है. यह हकीकत सम?ाते हुए अंबेडकर ने जो कानून बनाए उन्हें देख कट्टरवादी इतना तिलमिलाए थे कि एक दफा तो उन का विरोध देख नेहरू ने इस्तीफे तक की पेशकश कर डाली थी. हिंदू कोड बिल चूंकि कई कुरीतियों को दूर कर रहा था इसलिए कट्टरपंथियों ने जम कर बवाल काटा था. दरअसल इस से ब्राह्मणों, पंडेपुजारियों, पेशवाओं और सामंतों का कारोबार भी खतरे में पड़ रहा था और समाज पर से उन का दबदबा भी खत्म हो रहा था.

तब हिंदूवादियों ने एक दलील यह दी थी कि संसद सदस्यों को जनता ने नहीं चुना है, इसलिए इतने बड़े विधेयक को पारित करने का संसद को अधिकार नहीं है. उधर संसद के बाहर करपात्री महाराज यानी हरिहरानंद उर्फ हरिनारायण ओझा धरनाप्रदर्शनों के जरिए विरोध जता रहे थे.

राम राज्य परिषद के संस्थापक इस संत ने तो यहां तक कह दिया था कि हम एक अछूत का लिखा संविधान नहीं मानेंगे. यह बिल हिंदू धर्म में हस्तक्षेप है. यह हिंदू रीतिरिवाजों, परंपराओं और धर्मशास्त्रों के खिलाफ है. उसी वक्त आरएसएस भी देशभर में प्रदर्शन कर हिंदू कोड बिल की मुखालफत कर रहा था.

निर्णायक कदम

नेहरू ने सियासी जोखिम उठाते साफ कर दिया था कि अगर पहले आम चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला तो ही वे हिंदू कोड बिल वाले कानून बनाएंगे. कांग्रेस को बहुमत मिला तो उन्होंने अपना कहा पूरा भी किया क्योंकि मुसलमानों, दलित, आदिवासियों और महिलाओं ने भी कांग्रेस पर भरोसा जताते इन सुधारवादी कानूनों की बाबत अपनी सहमति नेहरू की अगुआई वाली कांग्रेस को दी थी.

1950 में लागू संविधान का बनाया जाना, उस की एकएक धारा पर लंबी, गंभीर और बेहद सार्थक बहस होना एक उदार नेता की देन है. जवाहरलाल नेहरू इस मामले में महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसे नेताओं से अलग थे. उन्हें राजनीति में क्यों सर्वसहमति का स्थान मिल गया, यह एक रहस्य सा ही है क्योंकि वे कट्टरपंथियों के बीच तार्किक शक्ति थे और बेहद अल्पमत में होते हुए भी अपनी मंशा चला पा रहे थे.

जनता का अधिकार

जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के जरिए देश का समाज पूरी तरह हिला डाला हालांकि उन्हें न तो इस का श्रेय मिला, न उन्होंने नरेंद्र मोदी और भाजपा की तरह इस का ढोल पीटा. उस समय उन्हें छूट थी कि वे 1947 में गवर्नर इन काउंसिल जैसी शासन पद्धति देश पर थोप देते यानी 1935 के गवर्मेंट औफ इंडिया एक्ट, जो ब्रिटिश पार्लियामैंट ने पास किया था, की तरह की सरकार बनाते जिस में न तो हरेक को बराबर माना जाता न ही हरेक को वोट का अधिकार मिलता, न मौलिक स्वतंत्रताएं होतीं. भारत की स्थिति इंगलैंड और अमेरिका से अलग थी. इन दोनों देशों में जनता ने या तो राज्य से या अपने मूल देश से लड़ कर आम जनता के लिए अधिकार हासिल किए थे पर वहां प्लेट में रख कर दिए गए, कांग्रेस की बदौलत.

भारत में आजादी की लड़ाई जनता के मौलिक अधिकारों के लिए हुई ही नहीं थी, तिलक से ले कर नेहरू तक का स्वतंत्रता संग्राम केवल इंगलैंड के शासन से मुक्ति पाने के लिए था. इस का सुबूत है कि तब 1947 में बने पाकिस्तान का शासन सिर्फ गोरे साहबों को हटा कर पंजाबी उर्दूभाषी मुसलमानों के हाथ में आया और मौलिक अधिकार वहां आज तक, असल में, नहीं हैं.

26 जनवरी, 1950 से लागू भारत के संविधान का हर शब्द एक राज्य की प्रभुसत्ता से ले कर जनता को अधिकार देता है. हर आर्टिकल में शासक के हाथ बांधे गए हैं. देश के समाज में जो बदलाव आया है, चाहे वह आधाअधूरा हो, इसी संविधान के कारण आया है और इसे जनता ने लिया नहीं, नेहरू ने दिया. इन अधिकारों के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी गई.

आज कहा जा सकता है कि हिंदूहिंदू चिल्लाने से समाज का सुधार नहीं होगा. समाज का सुधार या तो जमीनी बदलाव से होता है या कानूनों से जिस के दर्शन पिछले 10 वर्षों से कहीं नहीं हो रहे हैं.

संविधान सहित जो कानून कांग्रेस ने बनाए उन से समाज में भारी बदलाव हुआ पर यह विटामिन की गोलियों की तरह का सा रहा, एंटीबोयोटिक इंजैक्शन का नहीं. दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के बाद मौर्फिन के इंजैक्शन लगा कर समाज सुधारों और जनता के अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी और इसलिए लगता है कि नेहरू-गांधी और आज के मोदी युग में जो हुआ उसे परखा जाना चाहिए. कई भागों में प्रकाशित किए जाने वाले इस लेख में यही प्रयास किया गया है.

सरिता पत्रिका शासन की हर गलती के लिए अपनी आवाज बुलंद करती रहेगी, चाहे सरकार किसी की भी हो. सरिता का विश्वास है कि पत्रकारिता का अर्थ सत्ता में बैठे लोगों, चाहे वह सत्ता शासन की हो, धर्म की हो, समाज की हो, परिवार की हो, हर गलती को उजागर करे, जम कर उस से संघर्ष करे.

जमींदारी प्रथा का उन्मूलन

कांग्रेस सरकार ने 1950 से कानूनों के जरिए जमींदारी प्रथा भी खत्म करने का काम शुरू कर दिया था. तब जमीनें रसूखदारों की हुआ करती थीं. दलित, आदिवासी और पिछड़े तो बैल की तरह उन में जुते रहते थे. अलगअलग राज्यों ने अपनी सहूलियत से जमींदारी खत्म की तो निचले तबके के लोगों को मालिकाना हक मिलने लगा. आज जो ताकत ओबीसी, एससी के पास है वह जमींदारी प्रथा समाप्त होने के कारण मिली थी. उस ने गांवों में मिल्कीयत को बदला, कुछ जातियों का प्रभाव कम किया.

भारत में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने के लिए साल 1950 में जमींदारी उन्मूलन कानून बनाया गया था. यह कानून 1 जुलाई, 1952 से लागू हुआ था. इस कानून के तहत, 7 जुलाई, 1949 के बाद किसी भी संपत्ति का हस्तांतरण मान्य नहीं होगा. अगर कोई संपत्ति हस्तांतरित की जाती है तो उसे संपदा हस्तांतरक माना जाएगा. इस कानून के लागू होने के बाद, कृषकों को जमीन का स्वत्वाधिकार वापस मिल गया. इस से कृषकों और राज्य के बीच सीधा संबंध बन गया.

इस कानून को लागू करने से पहले साल 1946 में हुए चुनावों के बाद कांग्रेस के मंत्रिमंडल ने जमींदारी प्रथा खत्म करने के लिए विधेयक पेश किए थे. ये विधेयक साल 1950 से 1955 के बीच अधिनियम बन कर लागू हो गए. कुछ राज्यों, जैसे कि उत्तर प्रदेश और बिहार ने साल 1949 में ही जमींदारी उन्मूलन बिल लागू कर दिया था. अब लोगों को मालिकाना हक मिलने लगा.

भारत में जमीन की मिल्कीयत का कानून हमेशा स्पष्ट रहा है. जब अंगरेज भारत में आए और उन्होंने व्यापार करना शुरू किया तो उन्हें समझ आया कि यहां तो संपत्ति का कोई कानून न हिंदुओं का है न मुसलिम शासकों का. जमीन से लगान मिलना ही राजा की आय थी, इसलिए यह जिम्मा पंचायतों पर छोड़ रखा गया था जो मनमाने ढंग के फैसले करती थीं. अंगरेजों ने 1793 में परमानैंट सैटलमैंट के तहत एकमुश्त रकम के बदले हजारों एकड़ जमीन एक जने को दे दी कि वह जैसे चाहे लगान वसूल करे पर एक तय राशि ईस्ट इंडिया कंपनी को दे.

जमीन का वितरण

यह परमानैंट सैटलमैंट कुछ समय तो चला क्योंकि गोरे या गोरों की दी गई वरदी में भारतीय सैनिकों को लगान वसूल करने के लिए घरघर नहीं जाना पड़ता था. यह परमानैंट सैटलमैंट के अंतर्गत नियुक्त को मिला जो एक तरह से अपने इलाकों के राजा बन गए और उन्होंने हर जुल्म ढाह कर लगान वसूला. उन की शान देखते बनती थी. वे गोरे अफसरों से भी ज्यादा अमीर होने लगे. आजादी की लड़ाई के दौरान ही जमींदारी प्रथा को हटाने की मुहिम शुरू हो गई थी पर अधिकतर जमींदार ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ थे. पहले वे अंगरेजभक्त थे, बाद में धर्मभक्त बन गए.

श्यामाप्रसाद मुखर्जी (जो कांग्रेस छोड़ कर आए थे), बलराज मधोक व दीनदयाल उपाध्याय की बनाई गई भारतीय जनसंघ को इन जमींदारों का पूर्ण समर्थन मिला. जवाहरलाल नेहरू ने ही सभी कांग्रेस राज्य सरकारों के मारफत जमींदारों की जमीनों का अधिग्रहण करा डाला और राजसी समाज को लोकतांत्रिक समाज में बदलने की नींव डाल दी. जमींदारों के लठैतों की शक्ति छीन कर जमीन जोतने वालों को दे दी गई. जमीदारों के लठैतों की लाठी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आज भी प्रतीक है. जमींदारों ने पहले हिंदू भावना, फिर भारतीय जनसंघ और बाद में उन की संतानों ने भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया.

भारत की कृषि क्रांति जमींदार उन्मूलन के बिना संभव न हो पाती. स्वतंत्रता के पहले दशक में भारत में अनाज की भारी कमी हुई क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, स्कूलों में शिक्षा मिलने और जमींदारी उन्मूलन के कारण आबादी तो बढ़ी पर जमीन पर पूंजी लगाने का पैसा उन किसानों के पास नहीं था जिन्हें जमींदारों से मुक्ति तो मिल गई पर हाथ में कोरी जमीन के अलावा कुछ न था.

जमींदारी उन्मूलन के बाद ही गांवों में समाज सुधार चालू हुआ. जातिबंधन टूटने लगे. गांवों में पुश्तों से राज करने वाले ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों ने शहरों का रुख किया जहां सरकारी और गैरसरकारी नौकरियां मिल रही थीं. गांवों का समाज अगर बदला तो जमींदारी उन्मूलन कानूनों के कारण.

हिंदू कोड बिल का विरोध

कांग्रेस सरकार ने बीच में छोड़े गए हिंदू कोड बिल वाला काम पूरा करने के लिए 1955 में एचएमए विशेष विवाह अधिनियम 1954 और फिर 1955 में भारतीय दंड संहिता में धारा 498ए व आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 198ए की शुरुआत कर के हिंदू विवाह को बदला. विवाह, उत्तराधिकार और गोद लेने के लिए कांग्रेस सरकार द्वारा कानून में जो संशोधन किए गए, उन का विपक्षी पार्टियों द्वारा भयंकर विरोध हुआ. पंडोंपुजारियों ने भी हिंदू समाज को उद्वेलित कर खूब धार्मिक प्रतिरोध किया.

सब से बड़ा विरोध तलाक के प्रावधान को ले कर था, जो हिंदू धर्म के लिए अभिशाप माना जाता था. तब तक बेटियों को उन के मातापिता द्वारा यही कह कर ससुराल के लिए विदा किया जाता था कि अब वही उन का घर है और वहां से ही उन की अर्थी उठेगी. मतलब बेटी अपनी ससुराल में कितनी भी प्रताडि़त हो, मारीपीटी जाए या उस की जान ही क्यों न ले ली जाए मगर वह अपने पति से तलाक ले कर अपने मायके वापस नहीं आ सकती थी. यह स्त्रियों के प्रति हिंदू पितृसत्तात्मक समाज की सब से बड़ी क्रूरता थी, जिस से कांग्रेस ने मुक्ति दिलाई.

चाहे बेटी विवाहित हो या अविवाहित, बेटे और बेटियों को समान उत्तराधिकार के सिद्धांत का भी हिंदू पितृसत्तात्मक समाज द्वारा जम कर विरोध किया गया. विपक्षी पार्टियां और धर्म के ठेकेदार बेटियों को संपत्ति पर हक नहीं देना चाहते थे. वे उन्हें हमेशा पुरुषों पर निर्भर रखना चाहते थे. मगर कांग्रेस पार्टी ने बेटियों को आर्थिक रूप से मजबूत और स्वावलंबी बनाने के लिए घोर विरोध के बावजूद कानून में संशोधन किया.

संविधान के निर्माण और समाज सुधारों में जमींदारी उन्मूलन के बाद सब से बड़ा सुधार 1955 में बना हिंदू मैरिज एक्ट है जिस ने हिंदू समाज को बदल डाला. इन कानूनों के चलते आज के युवा बिना किसी व्यवधान के मनपसंद पार्टनर से शादी कर पा रहे हैं. जातियों का जाल भी अंतर्जातीय शादियों से टूट रहा है. 1955 के मैरिज एक्ट में एक से ज्यादा शादियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. यह उन सवर्ण महिलाओं के लिए किसी वरदान से कम नहीं था जो बातबेबात पर देखते ही देखते अपनी ही सौत का दरवाजे पर स्वागत और आरती उतारने को मजबूर हो जाती थीं. यह मर्दों की मनमानी पर रोक थी लेकिन औरतों की गैरत इसी से सलामत है.

इस एक्ट ने तलाक को कानूनी दर्जा दे कर भी उन की गैरत सलामत रखी और महिलाओं को भी तलाक मांगने का हक मिला जिस से वे कई दुश्वारियों से बच गईं.

एक वक्त में हिंदू पुरुष कभी भी पत्नी को घर से बाहर निकाल देने का अधिकार रखता था जो खत्म हो गया तो विवाह संस्था के सही माने भी सामने आए. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसों ने इस का सख्त विरोध किया. वे संस्कार के नाम पर विवाह को दैविक मानते थे जबकि उन के सामने लाखों विधवाएं जानवरों से बदतर जीवन जी रही थीं.

हिंदू परिवारों में यह एक्ट क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जिस के तहत पत्नी दोयम दरजे की और आसानी से छोड़ देने या भगा देने की आशंका से मुक्त हो गई. इस कानून में जो कमियां रह गई थीं उन्हें नेहरू सरकार ने स्पैशल मैरिज एक्ट 1954 बना कर दूर किया. जिस में अंतर्धर्मीय शादियों को कोई सामाजिक और कानूनी मान्यता नहीं थी जो इस कानून के जरिए मिली. इस से पहले विधर्मी से शादी करने के लिए सब को धर्म बदलना होता था.

अधिनियम की खासीयत

इस अधिनयम की खासीयत यह है कि 2 अलगअलग धर्मों के स्त्रीपुरुष कुछ सामान्य शर्तों का पालन करते शादी कर सकते हैं और उस में धर्म व उस के ठेकेदारों का कोई दखल नहीं, रजिस्टर ही काफी है. यह और बात है कि धर्म के धंधे और मकड़जाल के अलावा लोगों का शादी को एक संस्कार समझने से यह लोकप्रिय नहीं हो पाया, नहीं तो इस से बड़ा सैक्युलर कानून शायद ही कोई और हो. फिर मोदी का यह कहना कि हम कम्युनल सिविल कोड में जी रहे हैं, एक भड़ास और कुंठा ही लगती है, जिसे वे यूसीसी या अब नए शब्द एससीसी के जरिए निकाल रहे हैं. सैक्युलर सिविल कोड तो नेहरू स्पैशल मैरिज एक्ट, इंडिया सक्सैशन एक्ट के जरिए पहले ही बना चुके हैं.

पौराणिक कानूनों की चाहत

240 पर अटकी भाजपा के लिए यह नामुमकिन सा काम है क्योंकि उस के सहयोगी दल जब लैटरल एंट्री और वक्फ जायदाद कानून पर ही सहमत नहीं तो एससीसी पर क्या राजी होंगे. एक सैकंड को मान भी लिया जाए कि ऐसा हो गया तो सब से ज्यादा नुकसान भगवाई दुशाले में लिपटे नए प्रभावित एक्ट से महिलाओं के हिस्से में आना तय दिख रहा है क्योंकि उन से शादी, तलाक और जायदाद सहित कई दूसरे अधिकार व सहूलियतें छिन जाएंगी और वे धीरेधीरे 1950 के पहले के युग में पहुंच जाएंगी. भाजपा सरकार ने अपराध कानूनों में जो बदलाव किए हैं, वे बहुत से मौलिक हकों को छीनने वाले हैं. यह उस की मानसिकता का नमूना है.

नरेंद्र मोदी शायद थक गए हैं. गठबंधन को वे ज्यादा ढो पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा, इसलिए मुमकिन है अभी से उस की तैयारी यह जताते कर रहे हैं कि अगर हिंदू अपना हित चाहते हैं, मनुस्मृति वाले पौराणिक कानूनों यानी सिर्फ सवर्ण पुरुषों का राज चाहते हैं तो मुझे 400 पार कराएं नहीं तो वे इसी तरह याद दिलाते रहेंगे कि देखो, आजादी के पहले का दौर कितना सुनहरा था कि किसी गरीब, दलित की जमीनजायदाद छीन लो, कुछ नहीं होगा. जब जी करे, उस की पीठ पर कोड़े बरसाओ, वह कहीं नहीं जाएगा क्योंकि उस की सुनवाई के लिए कोई थाना, अदालत और कानून नहीं. जब चाहो दूसरी या तीसरी शादी कर लो. कोई पुलिस वाला समन या वारंट ले कर नहीं आएगा. बीवी से अनबन हो तो तलाक के लिए अदालत तो दूर की बात है पंचायत तक भी जाने की जहमत आप को नहीं उठानी पड़ेगी क्योंकि इस बाबत भी कोई कानून वजूद में नहीं होगा.

इस की वजह यह कि पिछले जन्म के पुण्यों और दानदक्षिणा के प्रताप से इस जन्म में आप ऊंची जाति के मर्द हैं. अब नेहरू सरकार ने 1955 में आप के ये ठाटबाट छीन लिए तो हम क्या करें. हमारी कोशिश तो धर्मराज की वापसी की है.

यहां एक दिलचस्प और गौरतलब बात यह भी है कि यूसीसी या एससीसी की एक मंशा उत्तराखंड की तरह देशभर में मुसलिमों से एक से ज्यादा शादी के मौके या हक छीनने की है जो बिलाशक वक्त की मांग है लेकिन इस का असर इसलाम से ज्यादा दूसरे धर्मों पर पड़ेगा.

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के एक ताजा सर्वे में उजागर हुआ है कि बहुविवाह की दर मुसलिमों में महज 1.9 फीसदी है जबकि ईसाईयों में उस से ज्यादा 2.1 फीसदी है. हिंदू इस मामले में मुसलमानों से 1.9 फीसदी की दर के साथ थोड़े ही पीछे हैं. बौद्ध समुदाय में यह दर 1.5 तो आदिवासियों में 2.4 फीसदी है. दलितों में यह दर 1.5 फीसदी है. यह और बात है कि इसलाम में दूसरी, तीसरी और चौथी शादी करने की अनुमति है लेकिन यह जरा भी आसान नहीं है. उस के लिए कड़ी शर्तें तय हैं.

महिलाओं को हक

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 व स्पैशल मैरिज एक्ट 1954 अधिनियमों के बाद अगले ही साल हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 भी अस्तित्व में आ गया जिस ने महिलाओं को संपत्ति संबंधी वे बहुत सारे हक दिए जो पहले केवल पुरुषों को हासिल थे. यह अधिनियम स्पष्ट करता है कि हिंदू महिला के पास जो भी संपत्ति है उसे उस के पास पूर्ण संपत्ति के रूप में रखा जाना चाहिए और इस से निबटने व अपनी मरजी से इसे निबटाने का महिला को पूरा हक है. हर पुरुष की अपनी कमाई संपत्ति में पत्नी, मां व बेटियों को बराबर का हिस्सा दिया गया. यह अद्भुत था. अचानक कानून ने औरतों के लिए हकों का सैलाब बना दिया.

यह एक अकल्पनीय बात महिलाओं के लिए थी क्योंकि सनातनियों का संविधान और कानून मनुस्मृति तो उसे संपत्ति का अधिकार देता ही नहीं. उलटे, उसे ही पुरुषों की संपत्ति करार देता है. आज की नौकरीपेशा और व्यवसायी महिला को जो आत्मविश्वास और सम्मान हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने दिया है वह सामाजिक क्रांति साबित हुई है. आज भारत में जो आजादी औरतों में दिख रही है, वह उसी की देन है.

उसी साल पास हुआ हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरणपोषण अधिनियम 1956 गोद लिए बच्चे के अधिकार जैविक संतान की तरह सुनिश्चित करता है बल्कि कुछ शर्तों के साथ गोद लेने की प्रक्रिया को भी परिभाषित करता है. अलावा इस के, यह एक्ट विधवा बहुओं और मातापिता के भरणपोषण की जिम्मेदारी भी तय करता है. यानी, अब विधवा का हक कोई हड़प नहीं सकता. आज भी आएदिन ऐसे समाचार सुर्खियों में रहते हैं कि बूढ़े अशक्त मांबाप ने बेटे या बेटी पर भरणपोषण का दावा किया.

ये मामले बताते हैं कि मांबाप की महिमा का राग अलापते रहने वाले धर्म की हकीकत दरअसल क्या है और कैसे कानून के जरिए उसे सुधारा गया. हिंदू धर्म ने कभी औरतों की सुध नहीं ली. आज भी कोई हिंदू धर्म की सुधार की बात नहीं कर रहा. भगवा गैंग उन्हें मंदिरों में धकेल रहा है और अंधविश्वासी बना रहा है.

इसी तरह हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1956 नाबालिगों के संपत्ति संबंधी अधिकारों को परिभाषित करता है. अवयस्कों के अधिकार किसी भी समाज में वयस्कों जितने ही अहम होते हैं. उन के अधिकारों के लिए बना यह अधिनियम भी मील का पत्थर साबित हुआ.

दहेज निषेध अधिनियम 1961

दहेज निषेध अधिनियम के बावजूद देश में दहेज की प्रथा को रोकना असंभव माना गया. इस के अतिरिक्त दहेज की मांग को पूरा करने के लिए ससुराल पक्ष और पति स्त्री के साथ विभिन्न प्रकार की क्रूरताएं करता और कहींकहीं तो स्त्री को जान से भी मार दिया जाता. महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए कांग्रेस सरकार ने कानून में संशोधन किया.

1984 में कानून में बदलाव करते हुए, जो 2 अक्तूबर 1985 को लागू हुआ, कहा गया कि शादी के समय दुलहन या दूल्हे को उपहार देने की अनुमति है मगर प्रत्येक उपहार, उस का मूल्य, इसे देने वाले व्यक्ति की पहचान और विवाह में किसी भी पक्ष के साथ व्यक्ति के संबंध का वर्णन करते हुए एक सूची बनाई जानी आवश्यक है. दहेज संबंधी हिंसा की पीडि़त महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की प्रासंगिक धाराओं में और संशोधन किए गए.

दहेज निषेध अधिनियम, भारतीय कानून? 1 मई, 1961 को अधिनियमित किया गया, जिस का उद्देश्य दहेज देने या लेने को रोकना है. दहेज निषेध अधिनियम के तहत, विवाह के किसी भी पक्ष द्वारा या विवाह के संबंध में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई संपत्ति, सामान या धन दहेज में शामिल है. दहेज निषेध अधिनियम भारत में सभी धर्मों के व्यक्तियों पर लागू होता है.

एक और कानून संविधान के संशोधन के साथ लाया गया जिस में आर्टिकल 45 जोड़ा गया जिस के अनुसार 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान करने का निर्देश था (बाद में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया गया). 1950 से 1960 के बीच सरकारी प्राइमरी स्कूलों, जिन में हर जाति, हर धर्म के बच्चे जा सकते थे, की संख्या 2,09,700 बढ़ने लगी. 1988 तक 5,48,100 स्कूल हो गए थे जिन्होंने असल में समाज को बदला. 1950 में शहरी बच्चे तो 90 फीसदी स्कूलों में जा रहे थे जो ब्रिटिश सरकार ने म्यूनिसिपल बौडीज से खुलवाए थे पर गांवों में केवल 20 फीसदी पढ़ रहे थे. स्कूलों की शिक्षा का देश पर बड़ा प्रभाव पड़ा जिसे आज गिनाने की जरूरत नहीं है. उस समय केवल कुछ क्रिश्चियन स्कूल ही प्राइवेट स्कूल थे. अधिकांश नेता सरकारी शिक्षा प्राप्त कर के ही आए थे.

समाज सुधार का एक बड़ा कदम असल में संविधान में आरक्षण से कर दिया गया. कांस्टीट्यूशनल एसैंबली (संविधान सभा) ने न केवल नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की, उस ने लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 1932 के पूना पैक्ट के अनुसार आरक्षण दे दिया. इस सुधार के कारण अछूतों जिन्हें, एससी, एसटी कहा जा रहा है, की एक पौध पैदा हो गई जो अब तक चाहे पूरे समाज को बदल न पाई हो पर अब इज्जत से जी सकती है. यह संविधान संसद की उस गोल बिल्डिंग से निकला जिसे मोदी सरकार ने नए संसद भवन की शास्त्रीय हिंदू धार्मिक पूजापाठ किए जाने के बाद छोड़ दिया. शायद उन की हिम्मत गोल भवन को गंगाजल से धोने की नहीं हुई और उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपए का खर्च नए संसद भवन के लिए जनता के सिर पर मढ़ दिया.

वैज्ञानिक सोच पर जोर

जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति के सार को आंतरिक विकास, दूसरों के प्रति व्यवहार, दूसरों को समझने की क्षमता और सभी को स्वयं को सम?ाने की क्षमता के रूप में लिया. इस के जरिए नेहरू ने विज्ञान एवं वैज्ञानिक सोच पर बल दिया. इस का भारत की संस्कृति पर एक नवीनीकरणकारी प्रभाव पड़ा. उन्होंने तानाशाही, रूढि़वाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ देश में एक माहौल बनाने का काम किया था. उसी दौरान भारतीय जनसंघ का परिवार अपना काम करता रहा और हिंदू की रक्षा के बहाने उसे इन सुधारों से उलट दिशा में ले जाने वाले कदम उठाता रहा.

नेहरू का मानना था कि वैज्ञानिक ज्ञान और तकनीकी प्रगति भारत और उस के लोगों की वृद्धि के लिए आवश्यक हैं. नेहरू ने नवाचार को बढ़ावा देने और आर्थिक विकास को चलाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान, शिक्षा और बुनियादी ढांचे पर जोर दिया था. वे वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष थे जिस ने राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और ?अन्य वैज्ञानिक संस्थानों को बनाने में अहम भूमिका अदा की.

विज्ञान की शिक्षा का असर गुरुकुलों की शिक्षा से अलग होता है. विज्ञान न धर्म देखता है, न जाति, न देश, न रंग, न जैंडर, न आयु. नेहरू की वैज्ञानिक शिक्षा जिस के स्कूलों में दिए जाने से एक नई चेतना आई हालांकि उसी समय हिंदूमुसलमान, गौपूजा, पूजापाठ, संस्कार, अखंड भारत का प्रचार कर के समाज के अग्रणी, पढ़ेलिखे वर्ग के कुछ लोग हिंदू महासभा व भारतीय जनसंघ के मारफत पुरातनवादी विचार भी थोप रहे थे. पाकिस्तान में बढ़ती कट्टरता के कारण हिंदू भयभीत भी थे कि कहीं फिर से मुगलों जैसा राज भारत में न हो जाए.

भारत जैसे देश में ही नहीं, शिक्षित अमेरिका में भी गुलामी के लिए हुए गृहयुद्ध के 150 वर्षों बाद भी वहां मौजूद 13-14 फीसदी अश्वेत आज भी बराबरी का स्थान नहीं पा पाए हैं. अश्वेत बराक ओबामा 8 वर्ष राष्ट्रपति रहे, अब अश्वेत कमला हैरिस राष्ट्रपति पद के लिए डैमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हैं पर जमीनी तथ्य यह है कि अश्वेतों का दर्जा आज भी दोयम है, उन्हें जेलों में मारा जाता है. 20 डौलर के नोट के ?ागड़े को ले कर एक अश्वेत की गोरे पुलिसमैन द्वारा टांग से गरदन दबा कर हत्या तक कर दी जाती है.

यही भारत में हुआ है. शुरुआती दशकों में कानूनों से समाज सुधार और समाज बदलाव का प्रयास किया गया पर साथ ही, ठीक उलटी दशा में चलने वाला हिंदू गौरव का ढोल और जोर से बजने लगा. 80 फीसदी हिंदू जनसंख्या वाले देश में इस ढोल की कर्कश आवाज बंद करना असंभव था और नतीजा था कि बहुत से समाज सुधार, जो कानूनों से लाए गए, कानूनी किताबों के पन्नों में बस फड़फड़ा रहे हैं. फिर भी संतोष है कि आज कानूनी ढांचा ऐसा है कि कट्टरपंथी एक हद तक ही जा पाते हैं.

इस के बाद के दशकों में किन कानूनों में क्या हुआ, इस बारे में अगले अंकों में पढ़ें.

अगले अंक में जारी…

रीता सा शजर-ए-बहार

मोबाइल में समय देखते ही एकाएक अगले मैट्रो स्टेशन पर बिना कुछ सोचे वह उतर गया. ग्रीन पार्क मैट्रो स्टेशन से निकल कर धीरेधीरे चलते हुए ग्रीन पार्क इलाके की छोटी सी म्युनिसिपल मार्केट की ओर निकल आया, यह सोच कर कि वहीं रेहड़ीपटरी से कुछ ले कर खा लेगा. लेकिन आसपास कोई रेहड़ीपटरी वाला नहीं था तो वहीं एक छोटे से तिकोने पार्क की मुंडेर पर बैठ गया यह सोचते हुए कि इतनी जल्दी वापस जा कर भी क्या करेगा. कुछ देर यों ही इधरउधर देखता रहा और आतीजाती गाडि़यों को गिनने लगा. वापस घर जाने की कोई तो वजह होनी ही चाहिए हर इंसान के पास. मगर उस के पास कोई वजह ही नहीं है.

बहुत मुश्किल है 50 की उम्र में फिर से काम की तलाश में यहांवहां भटकना और मायूसी में आ कर बिस्तर पर पड़ जाना. दिल्ली की गरमी जूनजुलाई में अपने पूरे शबाब पर होती है मगर आज बादल छाए हुए हैं तो हवा में तपिश नहीं है. फिर वह उठ कर टहलने लगा. इस के दाहिने ओर सड़क के उस तरफ एक ऊंची दीवार दूर तक जाती दिखाई दे रही थी और उस के बाएं थोड़ी दूर पर ऊंची रिहायशी इमारतें.

चलतेचलते उस की निगाह सामने बड़े से गेट के ऊपर स्पास्टिक सोसाइटी औफ नौर्दर्न इंडिया के बोर्ड पर पड़ी तो वह सड़क पार कर वहां पहुंचा कि शायद इन्हें किसी वौलंटियर की जरूरत हो. पता करने में क्या हर्ज.

वह गेट की ओर बढ़ गया. गेट की सलाखों से भीतर झांका तो दूर तक हरियाली फैली हुई थी. उसे ऐसे झांकते देख कर गार्ड दौड़ता हुआ आया. उस से बात करने पर मालूम हुआ कि दोपहर 2 बजे तक ही मैडम मिलती हैं जो यहां की सर्वेसर्वा हैं. उसे शुक्रिया कहते हुए वह मायूस हो कर वहीं लौट आया.

भूख तो लग रही थी. उस ने छोटी सी मार्केट पर नजर डाली. एक पर आयशा बुटीक का बोर्ड था, एक बार्बर शौप और एक अन्नपूर्णा स्वीट. यार, यह तो महंगी दुकान है, कुछ खाया तो बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे, सारा मसला तो पैसे का ही है.

यही सोचते वह वहीं उसी मुंडेर पर आ कर बैठ गया. कुछ ही पल बीते थे कि एक अधेड़ उम्र की महिला कार से उतर कर उस के नजदीक आ कर बैठ गई. उस ने देखा कि पकी उम्र के बावजूद वह खूबसूरत दिख रही थी. बस, खिचड़ी बाल उस की उम्र की चुगली कर रहे थे, शायद खिजाब का इस्तेमाल नहीं करती.

‘‘सिगरेट है तुम्हारे पास?’’ उस के इस अप्रत्यक्ष सवाल से हतप्रभ सा वह उसे ही देखता रह गया.

‘‘क्यों, क्या तुम स्मोक नहीं करते?’’

‘‘जी, अब नहीं.’’

‘‘मतलब; पहले करते थे तो छोड़ क्यों दी?’’

‘‘जी, दिल की वजह से.’’

‘‘मतलब इश्क?’’

‘‘नहीं, स्टंट,’’ कह कर वह मुसकरा दिया.

‘‘मतलब कि दिल के ही मरीज हो, दोनों एक ही बात है,’’ और वह खिलखिला कर हंस दी. हवा में थोड़ी ठंडक सी बढ़ती महसूस हुई.

‘‘कमबख्त मु झ से छूटती ही नहीं. डाक्टर भी वार्निंग दे चुके हैं. मगर लगता है मु झे भी दिल का दर्द लेना होगा सिगरेट जैसी बुरी लत को छोड़ने के लिए.’’

‘‘आप के साथ ऐसा न हो,’’ एकदम उस की जबान से निकला.

उस ने नजरें उठा कर उसे गौर से देखा और बोली, ‘‘मेरे लिए सिगरेट ला दोगे और 2 ले कर आना.’’

‘‘2,’’ उस ने उठते हुए सवालिया निगाह से देखा.

‘‘अकेला होना सिगरेट को भी तो बुरा लगता होगा न?’’ और वह फिर खिलखिला दी. आसमान में बादल थोड़े से और काले पड़ने लगे.

थोड़ा आगे चल कर कोने में बनी छोटी सी पानबीड़ी की दुकान पर पहुंच कर उस ने सिगरेट मांगी.

‘‘कौन सी सिगरेट बाबू?’’

‘धत्त तेरी, यह पूछा ही नहीं उस से,’ उस ने मन ही मन खुद को लताड़ा. लड़कियों को मोर ब्रैंड की सिगरेट बहुत पसंद होती है, लगभग 30 वर्ष पहले कही गई उस की कालेजफ्रैंड नीलिमा की बात अचानक याद आ गई.

‘‘मोर की सिगरेट है तुम्हारे पास?’’ उस की बात सुन कर दुकानदार ने मुसकरा कर उसे गौर से देखा और बोला, ‘‘मिल तो जाएगी बाबू, डेढ़ सौ की एक पड़ेगी.’’

उस ने बिना कुछ कहे 300 रुपए उसे दिए और 2 सिगरेट ले कर मुड़ा तो दुकानदार आवाज लगा कर उसे माचिस देते हुए बोला, ‘‘बाबू यह भी लेते जाओ, जलाने के लिए किस से मांगोगे?’’

दुकानदार की इस सम झदारी और दयालुता की मन ही मन तारीफ करता हुआ वह वापस अपनी जगह लौट आया लेकिन महिला वहां नहीं थी. इधरउधर नजरें दौड़ाईं तो उस की औडी भी वहां नहीं थी. कुछ मिनट इधरउधर देखने के बाद वह फिर उसी मुंडेर पर बैठ गया.

कहां चली गई सिगरेट मंगा कर? खामखां मु झे हैरान किया. अब इन सिगरेट्स का मैं क्या करूं? दुकानदार को वापस कर दूं? नहीं यार, उसे बुरा लगेगा. उसे क्या हर दुकानदार को बुरा लगेगा बिकी हुई चीज के पैसे वापस करना और फिर यह दुकानदार तो भला मानस है. वरना कौन इस बात की परवा करता है कि सिगरेट ले जाने के बाद कोई उसे जलाएगा कैसे. वह तो सब ठीक है मगर अब इन का करूं क्या?

इसी उधेड़बुन में था कि किसी के हाथ कंधे पर महसूस हुए. उस ने थोड़ा घूम कर देखा तो वह खड़ी मुसकरा रही थी.

‘‘मुझे मिस कर रहे हो न?’’ कहती हुई उस के नजदीक बैठ गई.

‘‘जी, लीजिए आप की सिगरेट.’’

‘‘तुम्हें लड़कियों की पसंद की काफी नौलेज है,’’ उस ने सिगरेट लेते हुए कहा.

‘‘जी, ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन आप ऐसा क्यों कह रही हैं?’’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया. बस, चुपचाप सिगरेट जलाने के साथ एक गहरा कश लगा कर धुआं नाक से छोड़ती हुई बोली, ‘‘लो, एक कश तुम भी लगा लो.’’

‘‘नहीं,’’ उस ने उस के चेहरे को गौर से देखते हुए इनकार किया.

‘‘लो, ले लो, एक सुट्टे से कुछ नहीं होता,’’ और उस ने सिगरेट उस के हाथ में पकड़ा दी. वैसे भी, नशा करने का मजा अकेले नहीं लिया जाता.

‘‘एक्चुअली मैं गाड़ी पीछे पार्किंग में लगाने चली गई थी तुम्हें बिना बताए, बुरा मत मानना.’’

‘‘क्यों, क्या कोई फर्क पड़ता है?’’ सिगरेट अभी उस की उंगलियों में ही थी.

‘‘तुम इतने उखड़े से क्यों हो? देखने में तो सोफेस्टिकेटिड लग रहे हो और तुम्हारी लैंग्वेज व अंदाज बता रहा है कि एजुकेटेड भी हो. सबकुछ खो चुके हो?’’

उस के सवाल से उस की गरदन हलकी सी झुक गई.

‘‘मर्दों के कंधे और गरदन हमेशा सीधे ही अच्छे लगते हैं, सीधे हो कर बैठो,’’ उस की आवाज में नायकों जैसी खनक थी.

उस ने अपनी उंगलियों में फंसी सिगरेट उसे वापस पकड़ा दी.

‘‘किसी से प्रौमिस किया है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘नहीं, बस यों ही.’’

‘‘सोफेस्टिकेटिड लगना क्या नकलीपन नहीं है?’’

‘‘सोफेस्टिकेटिड होना जरूरी है और होना भी चाहिए.’’

‘‘मैं केवल सोफेस्टिकेटिड लग भर रहा हूं, शायद, हूं नहीं.’’

वह बहुत देर तक उस के चेहरे को पढ़ती सी रही, फिर एकाएक बोली, ‘‘एक अजनबी लड़की के सामने ऐब करते हुए शरमा रहे हो,’’ और वह फिर खिलखिला कर हंस दी. हवा में ठंडक और नमी बढ़ने लगी. ‘‘तुम्हें अजीब सा नहीं लग रहा है कि एक अजनबी लड़की इतनी बेतकल्लुफी से बातें कर रही है और सिगरेट मंगा कर पी रही है?’’

‘‘नहीं, इस में क्या अजीब? बस, यही अलग सा लग रहा है कि एक औडी वाली महिला अपनी एयरकंडीशंड गाड़ी से उतर कर यों गरमी में मुझ अजनबी से क्यों…’’

‘‘ओय, महिला मत बोल,’’ वह सीधे तू पर आ गई.

‘‘तो?’’

‘‘लड़की बोल, गर्ल्स बोलते हुए मौत आती है?’’

उस की इस बात पर वह मुसकरा कर रह गया.

‘‘क्या सुबह से कुछ नहीं खाया?’’ उस ने सवालिया निगाह से उसे देखा, ‘‘इतनी फीकी मुसकान सिर्फ भूखे पेट वालों की होती है. चल, कुछ खा कर आते हैं,’’ वह उठते हुए बोली.

लेकिन वह बैठा ही रहा.

‘‘ओए, चल न. क्यों भैंस की तरह पसरा है? चल, खड़ा हो,’’ उस ने उस का हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश की.

‘‘अरे, सुनिए तो,’’ उस ने झिझकते हुए कहा, ‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं.’’

उस की यह बात सुन कर वह अपनी ऐड़ी पर थ्रीसिक्सटी डिग्री घूम गई और ठहाका लगा कर हंसती हुई बोली, ‘‘यार, अपनी 47 की एज में पहली बार एक लड़के को एक लड़की से यह कहते हुए सुन कर मजा आ गया.’’ फिर एकाएक धीरे से बोली, ‘‘बीवी छोड़ कर चली गई?’’ फिर उस का हाथ पकड़ कर ग्रीन पार्क की मेन मार्केट की ओर बढ़ चली.

वह बिना कुछ कहे सम्मोहित सा उस के साथ चल दिया, यह सोचते हुए कि क्या यह कोई जादूगरनी है अथवा ब्रेन रीडर. जो भी है, है बिलकुल निश्च्छल. अपने मस्तिष्क में ढेर सारे सवाल लिए उस के कदम से कदम मिला कर चलता रहा और वह उसे ले कर बर्गर शौप में एक टेबल के सामने बैठ गई. 2 बर्गर और 2 सौफ्ट ड्रिंक वेटर उन के सामने रख कर हट गया.

‘‘चलो, अब शुरू करो,’’ और वह खाने में मशगूल हो गई. लेकिन उस की निगाह उसी के चेहरे पर टिकी रह गई.

‘‘ज्यादा सोचने से कुछ हासिल नहीं होता. बस, ब्लडप्रैशर बढ़ जाता है. मैडिसन तो लेते होगे हार्ट के लिए? वैसे, बीपी की मैडिसन तो मैं भी लेती हूं, फिर हार्ट की मैडिसन तो और भी कौस्टली आती है, फिर?’’

‘‘जी, मैं कुछ सम झा नहीं.’’

‘‘या फिर सम झना नहीं चाहते? सैंसिटिव लोग हमेशा तकलीफ में रहते हैं.’’

‘‘आप भी सैंसिटिव हो?’’

‘‘हां, थोड़ी तो हूं, लेकिन इतनी नहीं कि सबकुछ गंवा दूं.’’

‘‘जी, प्रैक्टिकल होना अच्छी बात है.’’

‘‘तुम क्यों नहीं हुए? जबकि पुरुष सच में प्रैक्टिकल होते हैं. यह पूरी दुनिया उन्हीं की रचाई हुई है. स्त्रियों ने क्या किया बच्चे जनने के सिवा. तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’

‘‘शायद, आप ज्यादा पर्सनल हो रही हैं.’’

‘‘तो एक?’’ इतनी हैरानी से मेरा मुंह मत देखो. खाते रहो. हम खाते हुए भी बात कर सकते हैं.’’

‘‘चलिए, फिनिश हो गया,’’ उस ने उठते हुए कहा.

‘‘बेटे से इतना प्यार करते हो? वह अपनी मां के साथ है?’’

‘‘मु झ भूखे को खाना खिलाने के लिए थैंक्यू.’’

‘‘थैंक्यू मत कहो,’’ फिर उस की वही नायिकाओं वाली खनक गूंज गई और उस का हाथ पकड़ कर पेमैंट करती हुई बाहर चली आई.

‘‘मैं ने तो तुम्हें थैंक्यू नहीं कहा, मियां.’’

उस ने जल्दी से हाथ छुड़ा कर सामने आते हुए कहा, ‘‘आप यह सब कैसे…’’

‘‘अरे मस्तक पर सजदे का इतना बड़ा निशान ले कर घूम रहे हो, अंधा भी जान जाएगा कि… अबे तुम सच में इतने ही भोले हो?’’ और वह फिर खिलखिला दी. चलते हुए बाजार में सभी की निगाहें उस पर आ कर रुक गईं.

‘‘अब तुम वही फौरमैलिटी वाले सवाल मत पूछना कि तुम कौन हो और इतना सब कैसे जानती हो?’’ उस ने फिर से उस का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आओ चलें,’’ चलते हुए अपनी गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए बोली, ‘‘कार तो चला लेते होगे?’’

‘‘जी, मगर मेरा लाइसैंस रिन्यू नहीं हुआ है.’’

‘‘क्यों, यही सोच कर कि अब गाड़ी नहीं रही तो ड्राइविंग लाइसैंस का क्या, यही न? चलो, मेरे साथ बैठो, ड्राइविंग मैं करती हूं. तुम भी याद रखोगे कि एक शानदार पायलट के साथ लौंग ड्राइव पर गए थे.’’

‘‘लौंग ड्राइव?’’

‘‘क्यों डर गए क्या?’’ वह फिर खिलखिला कर हंस दी.

‘‘घर पर कोई इंतजार तो नहीं करेगा?’’

‘‘कोई नहीं.’’

‘‘फिर ठीक है. आओ बैठो, चलते हैं,’’ और उस ने कार आगे बढ़ा दी.

‘‘मकान किराए का है या…?’’

‘‘जी, बस वही बचा रहा. मकान नहीं, फ्लैट है. पुश्तैनी है तो बच गया.’’

‘‘हूं.’’ और वह बिना कुछ बोले गाड़ी चलाती रही.

‘‘दोबारा जीरो से शुरू करना बहुत मुश्किल होता है, है न?’’ और वह कनखियों से देखती इंतजार करती रही कि शायद वह कुछ बोले, लेकिन वह चुप बाहर खिड़की से झांकता रहा.

‘‘तुम्हें डर तो नहीं लग रहा?’’

‘‘डर, कैसा डर?’’

‘‘कुछ नहीं. बस यों ही पूछ लिया.’’

कुछ ही देर में गाड़ी महरौली की पहाडि़यों में किसी मकबरे के दरवाजे पर थी. उस ने सवालिया निगाहों से उसे देखा तो वह उतरते हुए बोली, ‘‘आओ चलें.’’ फिर उस ने गाड़ी में से स्कार्फ निकाल कर सिर पर बांध लिया और वहीं नजदीक एक दुकान से फूलों की टोकरी ले कर उस का हाथ थामे दरवाजे की ओर बढ़ गई. अंदर जा कर उस ने बड़ी तन्मयता से फूल बिछाए और हाथ जोड़ कर होंठों ही होंठों में बुदबुदाने लगी.

वह उसे ऐसा करते देख विस्मित था. कुछ देर बाद वह माथा टेक कर आते ही उस का हाथ पकड़ एक तरफ ले जा कर आंखें तरेरते हुए बोली, ‘‘तुम ने न दुआ मांगी और न ही सिर ढका? क्यों?’’

उस के इस तरह से झिड़कने पर वह सिर्फ मुसकरा दिया.

‘‘जवाब दो, क्या तुम वहाबी हो?’’

‘‘आप यह सब जानती हैं?’’

‘‘मेरे जानने या न जानने से कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है.’’

‘‘फिर यह सब जानने में इतना इंट्रैस्ट क्यों?’’

‘‘मतलब, कम्युनिस्ट हो?’’

‘नहीं, हो तो तुम मजहबी ही,’ वह खुद से खुद ही बोली.

उस ने उस की कलाई पकड़ी और दूर ले जा कर बैठ गया.

‘‘क्या तुम राइटर हो या पेंटर?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हारे हाथ बहुत सौफ्ट हैं.’’

‘‘आप का इंट्यूशन क्या कहता है?’’

‘‘यही कि मुझे तुम से प्यार होता जा रहा है.’’

‘‘आप की इस बात पर हंसा जा सकता है.’’

‘‘तो हंसो, रोका किस ने है? मैं भी देखना चाहती हूं कि हंसते हुए तुम कैसे दिखते हो.’’

‘‘आप ने तो कहा था कि आप प्रैक्टिकली स्ट्रौंग हैं?’’

‘‘क्या यथार्थवादी प्रेम नहीं कर सकते?’’

‘‘कर सकते हैं मगर मु झ जैसे फटीचर से नहीं.’’

‘‘खुद को फटीचर मत कहो,’’ उस की फिर वही नायिकाओं वाली खनक गूंज गई.

कुछ देर वह उस के चेहरे को यों ही देखता रहा, फिर बोला, ‘‘मैं बालों को खिजाब से रंगता हूं.’’

‘‘उम्र बालों से नहीं, चेहरे से दिखती है.’’

‘‘मेरा तात्पर्य उम्र से नहीं, बल्कि सचाई से है, मैं सच्चा नहीं हूं जबकि आप सच्ची हैं.’’

‘‘हर वक्त गहरा सोचना जरूरी तो नहीं.’’

‘‘जी, आदत हो जाती है. आप भी अकेली हैं?’’

‘‘मुझ में इंट्रैस्ट ले रहे हो?’’

‘‘शायद. लेकिन सम झने की कोशिश जरूर कर रहा हूं.’’

‘‘पहले खुद को तो सम झ लो.’’

‘‘यहां क्यों ले कर आई हैं आप मुझे?’’

‘‘यहां सुकून है, मैं अकसर आती हूं यहां.’’

‘‘जी, कब्रिस्तान में सुकून के सिवा और कुछ होता भी नहीं.’’

‘‘कब्रिस्तान, तुम इस जगह को कब्रिस्तान कहते हो?’’

‘‘और फिर क्या कहें? जमीन के नीचे सोए हुए लोगों के ऊपर इमारत तामीर कर दी गई और क्या, बस.’’

‘‘मालूम नहीं, इन सोए हुए लोगों को आदमी जगाने की कोशिश क्यों करता है जबकि वहां कोई सुनने वाला नहीं होता.’’

‘‘जब इंसान अकेला था तो भीड़ तलाशता रहा और अब जब भीड़ है तो एकांत तलाश रहा है.’’

‘‘ऐसा नहीं है जैसा तुम सोचते हो.

इंसान दुनिया के छल, प्रपंच और आपाधापी से मुक्त होने के लिए ऐसी जगह पर आता है. बेशक, कुछ वक्त के लिए ही सही, साथसाथ अपने जज्बात भी कह जाता है.’’

‘‘आप सुल झी हुई बात कह रही हैं लेकिन सभी आप के जैसा नहीं सोचते.’’

‘‘और सभी तुम्हारे जैसा भी नहीं सोचते, रियलिस्टिक बंदे,’’ उस के होंठों पर मुसकान सी खिली हुई थी. दूर कहीं बादलों के गरजने की आवाज हुई और ठंडी हवा बहने लगी.

‘‘तो फिर सुकून मिला?’’

‘‘तुम जैसा साथी साथ में हो तो सुकून मिल सकता है क्या?’’ इस बार वह, बस, हंस दी. ‘‘तुम इतने रूखे तो लगते नहीं हो, लेकिन तुम्हारी सैंसिटिविटी ने तुम्हारी लचक को हाईजैक कर लिया है.’’

‘‘नहीं. नाकामी ने.’’

‘‘नाकामी का अर्थ पैसे से लगाया जाए या परिवार से?’’

‘‘आप स्वतंत्र हैं सम झने के लिए.’’

‘‘तुम इतने ईजी क्यों हो, यार?’’

‘‘ईजी मतलब? मैं सम झा नहीं?’’

‘‘यही कि दूसरों की बातों को आसानी से मान जाना, उन्हें तवज्जुह देना और साथ ही स्पेस देना. और देखो न, मेरी भी सभी बातें तुम ने आसानी से मान लीं जबकि हम एकदूसरे के लिए अजनबी हैं.’’

‘‘अजनबी?’’

‘‘हां, अजनबी.’’

‘‘मैं ने तो ऐसा सोचा ही नहीं.’’

‘‘मैं, कनुप्रिया श्वेताम्बर, प्रोफैसर कनुप्रिया. और तुम?’’

‘‘छोडि़ए, क्या करेंगी जान कर? चलिए चलते हैं,’’ उस ने कलाई छोड़ कर उठते हुए कहा.

‘‘मुझ से भाग रहे हो या खुद से?’’

‘‘शायद, दोनों से.’’

‘‘नाम नहीं बताओगे?’’

‘‘वैसे, आप लगभग सभी कुछ तो जानती हैं.’’

‘‘कह सकते हो लेकिन जानती नहीं, सिर्फ अनुमान लगाती हूं जो अकसर सही होते हैं. तुम अकेले रहते हो,’’ उस ने उठते हुए कहा, ‘‘खाना तो खुद बनाते होगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘कैसा बनाते हो?’’

‘‘बस, खाया जा सके, वैसा.’’

‘‘तो फिर चलो, आज से मु झे खाना बना कर खिलाओ,’’ और उस ने अपनी बाईं कलाई उस के दाएं हाथ में पकड़ा कर खंडहर से बाहर कदम बढ़ाया. हलकीहलकी बारिश की फुहारें उन के स्वागत को तत्पर थीं.

जब वह उस के घर पहुंचा तो उसे लगा कि यह घर कुछ जानापहचाना सा है. कनुप्रिया ने कहा, ‘‘जनाब, अब याद आया कि नहीं, हम जब चौथी कक्षा में थे तो तुम मेरी क्लास में ही थे और एकदो बार घर भी आए थे. मैं जब पार्किंग में गाड़ी में बैठी सोच रही थी कि कैसे दिन गुजारा जाए, तुम्हारे बालों के ठीक करने के स्टाइल से तुम्हें पहचान लिया. इतनी बातें पक्का करने के लिए कीं कि तुम वही हो न?’’

वह भौचक्का रह गया पर लगा कि जिंदगी को अब एक राह मिलेगी.

पुरुष होती नारी

नगर निगम की सीमा से बाहर एक नई कालोनी ‘गृहनिर्माण सहकारी समिति’ के नाम से धंधेबाजों ने बसाई जिस का नामकरण हुआ ‘लक्ष्मी नगर.’ यह नामकरण विश्लेषणात्मक था. लक्ष्मी शब्द जहां धनसंपदा की दात्री का पर्याय था वहीं झांसी वाली मर्दानी रानी लक्ष्मीबाई का भी पर्याय था.

शहर से बाहर होने के कारण इस अविकसित कालोनी में प्लौटों के भाव शहर की अपेक्षा खासे कम थे, लिहाजा, नवधनाढ्यों ने यहां धड़ाधड़ प्लौट खरीद लिए. धंधेबाजों की पौबारह हो गई. उन्होंने सड़क, पुलिया आदि बनवा कर लोगों को आकर्षित करने का प्रयास किया, किंतु इन प्रयासों के बावजूद यहां मकान बनने धीरेधीरे शुरू हुए, क्योंकि संपर्क सड़क की बुरी हालत, कालोनी के मुख्य मार्ग से दूर होने एवं बिजलीपानी आदि बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण लोगों में निर्माण कार्य के प्रति उत्साह नहीं बढ़ा.

संपन्न लोगों ने तो इनकम टैक्स से बचने एवं फालतू पैसों को लगा कर प्लौट हथियाने भर का ही खयाल रखा, मगर जो मध्यमवर्गीय लोग शहर में मकान की किल्लत भुगत रहे थे, धीरेधीरे वे ही यहां मकान बनवाने आगे आए.

नूपुर ऐसे ही लोगों में थी. उसे शहर में 2 कमरे वाले फ्लैट में रहना पड़ रहा था. किराया भी ज्यादा था और मकान मालिक से उस की खटक गई थी इसलिए वह वहां रहने में दिक्कत महसूस कर रही थी. पास ही उस की अंतरंग सहेली नसरीन रह रही थी इसलिए यहां बनी रही वरना इस फ्लैट को छोड़ कर तो वह कभी की कहीं और रहने चली जाती.

इस अप्रिय स्थिति से मुक्ति पाने को नूपुर ने लक्ष्मीनगर के अपने प्लाट पर मकान बनवा कर अपना सपना साकार करने का निश्चय किया. अपने इस सपने में वह नित नएनए रंग भरती उसे साकार करने को बेचैन थी.

उस के पति सौरभ ने उसे बहुत समझाया, ‘‘देखो नूपुर, वहां जंगल में अभी बसने में खतरे हैं इसलिए जल्दबाजी मत करो.’’

‘‘खतरे कहां नहीं हैं?’’ नूपुर का यही जवाब होता.

पिछले दिनों शहर की इस पौश कालोनी में इन के पड़ोस में ही दिनदहाड़े ताले टूट गए थे. चोर काफी माल ले उड़े थे. नूपुर का संकेत किराए पर लिए अपने फ्लैट वाली कालोनी की तरफ था. सौरभ भी इस संकेत को समझ गया था, फिर भी बोला, ‘‘यहां की अपेक्षा वहां ज्यादा खतरे हैं. वहां अभी जंगल है. कुछ बसावट हो जाने दो, फिर हम भी कदम बढ़ाएंगे.’’

‘‘इसी तरह सभी सोचेंगे तो लक्ष्मीनगर कभी बसेगा ही नहीं. किसी को तो पहल करनी होगी,’’ नूपुर एकदम झल्ला पड़ी.

‘‘वह पहल हम ही क्यों करें, नूपुर?’’

‘‘तो फिर यह पहल हम ही क्यों न करें, सौरभ?’’

‘‘तुम सच में बहुत जिद्दी हो. खतरों से खेलना तुम्हारा स्वभाव है.’’

‘‘तुम्हें जब मेरे स्वभाव का पता है तो फिर मुझे क्यों रोक रहे हो? हमारा सपना साकार होने दो.’’

‘‘जानबूझ कर मुसीबत मोल लेनी है तो लो, करो अपने मन की. बाद में रोना मत…’’

‘‘ऐसा मौका ही नहीं आएगा, सौरभ. तुम चिंता मत करो, मैं सारी स्थिति से निबट लूंगी.’’

सौरभ ने नूपुर को समझाना व्यर्थ जान कर और मगजपच्ची नहीं की. उस ने प्रवाह में पड़े तिनके की तरह खुद को मान लिया. फिर भी उसे यह चिंता तो थी ही कि नूपुर यह सारा काम कैसे संभालेगी. वह स्वयं तो हफ्ते में एक रोज इतवार के दिन ही इस शहर में आ पाता था, बाकी के दिन वह दूसरे शहर में अपनी नौकरी में व्यस्त रहता था.

वह सोचने लगा, घर में नूपुर के अलावा और कोई तो है नहीं. संतान होती तो वह सहायक होती. ऐसे में नितांत अकेली नूपुर यह काम कैसे पूरा कराएगी. यह काम कोई 1-2 दिन का तो है नहीं. महीनों लग जाते हैं, तब कहीं मकान का काम पूरा हो पाता है. ऐसे में नूपुर कैसे तो कालेज जाएगी और कैसे निर्माण कार्य की निगरानी रखेगी.

इतनी छुट्टी इसे कालेज से कैसे मिलेगी. घर शहर में, कालेज शहर की दूसरी दिशा में और यह लक्ष्मीनगर तीसरी दिशा में. ये तीनों जगहें कैसे भटकेगी. चकरघिन्नी बन जाएगी.

माना कि इस के पास स्कूटर है, मगर तीनों जगहों की दूरी कितनी है. स्कूटर तो खुद को ही चलाना पड़ता है, वह खुद थोड़े ही चलता है.

आनेजाने की इस मेहनत के अलावा कारीगर, ठेकेदार, बिल्डर, मजदूर आदि से मगजपच्ची करनी होगी. ये लोग परेशान करते ही हैं. निगरानी बारबार न होने पर आंख में धूल झोंक देते हैं. यह इन सब से कैसे निबटेगी? ज्यादा दौड़धूप करेगी तो बीमार पड़ जाएगी. मकान का काम सहज नहीं होता. जानकारों ने इसीलिए कहा है कि मकान बना कर और ब्याह कर के देख. मकान और विवाह दोनों कठिन काम हैं, मगर यह किसी की सुने तब न. यह तो अपने मन की ही करती है.

सौरभ की इन चिंताओं के बावजूद नूपुर ने लक्ष्मीनगर के अपने प्लौट पर अपने घर का सपना साकार करने का काम शुरू कर दिया. इस इलाके में अभी एक ही मकान सामने की पंक्ति में शैलेंद्रजी का बना था. उन्होंने तो अपना ताला लगा रखा था. वे अभी यहां रहने नहीं आए थे. नूपुर को काम शुरू कराते देख वह खुश हुए. उन्होंने उस का हौसला बढ़ाया था.

मगर नूपुर के हितचिंतकों ने तो उसे सचेत किया, ‘‘व्यर्थ की परेशानी में मत पडि़ए, मैडम. सुख की जान को दुख में मत डालिए. अभी रुकिए.’’

मगर नूपुर ने किसी की नहीं सुनी. उस ने बढ़ाए कदम पीछे नहीं हटाए. वह पूरे उत्साह एवं लगन से अपना सपना साकार करने में जुटी रही.
नूपुर साइट पर नजर रखने लगी. दिन में कई चक्कर साइट पर लगाने शुरू किए. घर, कालेज और साइट इसी त्रिभुज के बीच फिरकनी की तरह फिरने लगी. जरूरत पड़ने पर रात को भी चक्कर लगाती.

जिस रोज छत पड़ी उस रोज तो नूपुर आधी रात तक वहीं डटी रही. छत पड़ने के बाद ही दनदनाती हुई देर रात अपने घर, शहर लौटी. ठेकेदार, राजमिस्त्री, मजदूर आदि सभी उस के साहस पर चकित हुए.

सौरभ ने उस की सहायता के लिए आदिवासी युवा बुधसिंह को अपने यहां से भेज दिया. उसे स्कूटर पर बिठा कर वह दनदनाती हुई साइट पर आतीजाती रही.

नूपुर ने अपनी सहेली नसरीन से आग्रह किया कि वह भी अपने प्लौट पर निर्माण कार्य शुरू करा दे. वह उस के यहां की भी निगरानी रखेगी, मगर नसरीन के मित्रों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया. वे यही कहते रहे कि यह जंगल जब आबाद हो जाएगा तभी सोचेंगे. हमें अभी कोई जल्दी नहीं है. मगर नूपुर को तो जल्दी थी.

वह चाहती थी कि उस का सपना साकार हो जाए जिस से वह फ्लैट छोड़ कर यहां रहने आ जाए. मकान मालिक के सामने फ्लैट की चाबी फेंक कर उस से कहे कि संभाल अपनी धर्मशाला, हम तो अपने सपनों के महल में जा रहे हैं. अब तेरी तानाशाही हम पर नहीं चलेगी. हम अपनी मरजी के मालिक होंगे.

इस के विपरीत सौरभ यही चाह रहा था कि मकान का काम तेजी से न चले. इस में देरी हो तो ठीक रहेगा ताकि वहां रहने का मुहूर्त अभी न आए. मगर नूपुर की दिनरात की व्यस्तता और भागदौड़ के कारण वह यह भी चाहता था कि इस परेशानी से नूपुर को जल्दी छुटकारा मिले.

इस तरह सौरभ काम में देरी चाहता भी था और नहीं भी. वह बहुत ही असमंजस की स्थिति में था. लेदे कर खुद को यही कहकह कर समझता रहता था कि मकान का काम पूरा हो जाने पर भी हम अभी वहां रहने नहीं जाएंगे. अकेली नूपुर को वहां वीराने में नहीं छोडेंगे. वहां अभी सन्नाटे के सिवा है क्या? एक मकान यहां तो दूसरा उस कतार के सिरे पर. चारों ओर मैदान ही मैदान. लोगों ने अपनेअपने प्लौट की घेराबंदी कराकरा कर अपना कब्जा कर रखा है.

बीच कालोनी में ऊंचे गुंबद वाला महालक्ष्मी का भव्य मंदिर ही जैसे घोषणा करता है कि यह वीराना नहीं बस्ती है. न दुकान, न फेरी वाले. रात को सियार हुआंहुआं का डरावना शोर करते हैं. खासा डरावना माहौल है. ऐसे में तो बड़े परिवार वाले ही रहने का साहस कर सकते हैं. हमारा परिवार तो बिलकुल छोटा सा है. उस में भी मैं स्वयं तो हफ्ते में एक दिन ही यहां आ पाता हूं. नहींनहीं, हम अभी वहां रहने नहीं जाएंगे.

सौरभ ऐसा निश्चय तो मन ही मन कर रहा था, मगर वह जानता था कि नूपुर हमेशा की तरह इस बार भी उस की एक नहीं सुनेगी, वह अपने मन की करेगी. वह तो कब से पर तौल रही है. यहां से उड़ कर वहां जाने को बेताब है. बहुत ही जिद्दी औरत है. किसी बात का उसे खौफ ही नहीं.

वह स्वयं रात को वहां जाने में डरता है, मगर वह नहीं डरती. स्कूटर पर दनदनाती हुई रातबिरात चली जाती है. उस जिद्दी औरत को वह कैसे रोकेगा वहां जाने से. मकान का काम पूरा होते ही वह अपना मालअसबाब उठा कर वहां चल देगी. रस्सी तुड़ा रहे पशु की तरह हो रही है उस की हालत. इसी संभावना की आशंका से सौरभ ने कर्ज ले कर पुरानी मारुति कार खरीद ली. उस ने सोचा कि नूपुर यदि वहां चली गई तो स्कूटर के बजाय कार में उस वीराने में उस की सुरक्षा रहेगी.

कार पा कर नूपुर खुश तो हुई, मगर सोचने लगी कि यह रकम कार पर खर्च करने के बजाय मकान पर खर्च होती तो कितना अच्छा रहता. वह तो मकान को ही तरजीह दे रही थी. अपने नए निवास को सारी सुविधाओं वाला बनाने में ही वह जुटी हुई थी.

मकान का काम लगभग पूरा होते ही नूपुर ने अपने डेरेडंडे उखाड़ने शुरू किए तो सौरभ ने आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘‘अभी हम वहां नहीं जाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ नूपुर चौंकी.

‘‘अभी वहां बिजली का कनेक्शन नहीं हुआ है.’’

‘‘उस की चिंता मत करो. अस्थायी व्यवस्था हम ने कर रखी है.’’

‘‘मगर स्थायी व्यवस्था होने तक रुकने में क्या हर्ज है?’’

‘‘मुझे तो इस फ्लैट के मालिक की सूरत से नफरत है. मैं उस की परछाईं से दूर चली जाने को तड़पती रही हूं.’’

‘‘मैं जानता हूं, मगर कुछ रोज और अभी उसे सहन कर लो.’’

‘‘नहीं, हम तो अपने घर में जाएंगे, तुरंत जाएंगे.’’

इस घोषणा ने सौरभ को चिंतित किया. वह उस वीराने में नूपुर के अकेली रहने की कल्पना से ही सिहर उठा. उसे यही डर कचोटने लगा कि यदि उस वीराने में कुछ हो गया तो वह कहीं का नहीं रहेगा.

कुछ दिन पहले ही उस ने अखबारों में पढ़ा था कि एक रात शहर की एक मशहूर कालोनी में कच्छाबनियानधारी 10-12 चोर खिड़की तोड़ कर एक मकान में घुस गए और घर के सभी प्राणियों को एक कमरे में बंद कर लूटपाट की. टैलीफोन के तार काट दिए. घर में छोटेबड़े 15 व्यक्ति होते हुए भी वे चोरों का मुकाबला नहीं कर पाए.

इस घटना की जानकारी ने सौरभ को भीतर तक दहला दिया था. वह यही सोचसोच कर परेशान हो रहा था कि उस वीराने में तो खिड़की क्या, दरवाजे भी तोड़ कर चोर घुस सकते हैं. वहां चीखनेचिल्लाने पर भी कोई मदद को नहीं आएगा. पुलिस थाना भी दूर है. जिस गांव की सीमा में यह लक्ष्मीनगर बसाया गया वह भी दूर है. इन्हीं संभावनाओं के काल्पनिक चित्रों से सौरभ भयभीत रहने लगा, किंतु नूपुर उस के डर की खिल्ली उड़ाती कहती रही, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.’

तब सौरभ झल्ला पड़ता था, ‘तुम्हारा मन कितना ही बलशाली हो, मगर तन तो तुम्हारा औरत का है, नूपुर. जरा सोचो, दुस्साहस मत करो, बुद्धिमानी से काम लो. अभी उस जंगल में मत जाओ.’

इस पर नूपुर दोटूक शब्दों में कह देती, ‘मैं तो जाऊंगी, भले ही कुछ भी हो. मैं हर खतरे से जू?ांगी. खयाली डर से मैं नहीं डरती.’

उस के इस दृढ़ निश्चय से विचलित हो कर सौरभ ने पिस्तौल खरीदने का निश्चय किया. उस ने सोचा पिस्तौल नूपुर के लिए सुरक्षाकवच का काम करेगी. इस से उस का बल बढ़ेगा. आपातकाल में पिस्तौल से मुकाबला संभव हो सकेगा. पिस्तौल के नाम से ही चोर आतंकित रहेंगे.

आयकरदाता होने के कारण नूपुर के नाम से भी लाइसेंस बन जाएगा.

नूपुर ने जब पिस्तौल वाली बात सुनी तो झल्लाई, ‘‘तुम सच में बहुत डरपोक हो और मुझे भी डरपोक बना देते हो. जरा सोचो, पास में पिस्तौल बेशक हो मगर उसे चलाने की हिम्मत न हो तो वह किस काम की. इसलिए खास चीज तो हिम्मत है, जो मेरे पास है और खूब है.’’

सौरभ जानता था कि नूपुर बहुत हिम्मत वाली है. गांव की बेटी होने के कारण उस का बचपन जंगलों में भटकते हुए ही बीता था. एक बार बाल्यावस्था में ही उस ने गांव में रात में सेंध लगा रहे चोरों की आहट पा कर शोर मचा दिया था, इसीलिए चोर पकड़ में आ गए थे. भूतप्रेत, सांपबिच्छू से भी वह डरती नहीं थी. स्कूल में बास्केटबौल की वह खिलाड़ी रही थी. कालेज में आने पर एथलीट के रूप में उस की पहचान बनी थी.

उस ने कई इनाम पाए थे. प्राध्यापिका बन जाने पर भी वह तेजतर्रार रही थी. हर काम में अग्रणी भूमिका रहती थी उस की, इसीलिए कालेज में सहयोगियों ने उस का नाम ‘नेताजी’ रख दिया था. चुनाव में धांधली करने वाले एक छुटभैये नेताजी को इस नेताश्री ने अपनी ड्यूटी में मजे चखा दिए थे. नूपुर के ऐसे साहसिक कई कारनामे सौरभ को पता थे.

सब से ज्यादा चौंकाने वाली घटना उसे नूपुर की अंतरंग सहेली नसरीन के बारे में पता चली थी कि नसरीन और नूपुर आसपास ही रहती थीं.

दोनों में खूब घुटती थी. सहपाठी एवं पड़ोसी होने के कारण दोनों में घनिष्ठता बढ़ती ही गई थी, जो धीरेधीरे इतनी बढ़ गई कि दोनों एक ही कमरे में रहने लगी थीं. दोनों एक ही बिस्तर पर सोतीं, इसीलिए लोगों को उन में समलैंगिक संबंध का संदेह होने लगा था. इस संदेह की पुष्टि नसरीन के कथन से भी होती थी. वह जबतब कक्षा में अपनी सहपाठिनों से कहा करती थी कि वह नूपुर की बीवी है. वे दोनों विवाह करेंगी.

इस कथन से चौंक कर दोनों के परिवार वालों ने उन के विवाह की जल्दबाजी की थी. सौरभ के कानों तक जब यह बात आई थी तो वह इस रिश्ते से हिचकिचाया था. उस की यह हिचकिचाहट समझाने बुझाने के बाद ही दूर हुई थी, मगर विवाह के बाद भी उसे लगा था कि नूपुर सच में थोड़ी मर्दानी है. मगर उस मर्दानी पत्नी को औरतजात मान कर भी वह उस के लिए पिस्तौल की व्यवस्था करने में जुट गया था.

इधर नूपुर ने पिस्तौल आने तक रुकने का सौरभ का प्रस्ताव ठुकरा दिया. वह अपना फ्लैट खाली कर अपनी स्वप्नकुटी में, उस वीराने में चली गई. वहां जा कर उसे बेहद खुशी हुई. आदिवासी युवा बुधसिंह को सहायक के रूप में पा कर उस को सुविधा हुई. वह बहुत ही बेफिक्री से खुली हवा में सांस लेने लगी, पर सौरभ उस की निश्चिंतता एवं खुशी पर चकित हुआ.

नूपुर के वहां जा कर बसने से इलाके के एकमात्र पड़ोसी शैलेंद्रजी को भी खुशी हुई. वह इस सान्निध्य को सराहने लगे, नूपुर के साहस की दाद देने लगे.

धीरेधीरे इस लक्ष्मीनगर के अन्य विद्यार्थियों से भी नूपुर ने देखते ही देखते परिचय पा लिया. वह सब की सुध लेने लगी. उन की हिम्मत बंधाने लगी. उन से आग्रह करने लगी कि एकदूसरे के सुखदुख में सहभागी बनें. अपनेआप में सिमटेसिमटे न रहें. एकदूसरे के नजदीक आएं. हमारे घर बेशक दूरदूर हों मगर मन पासपास रहें.

इस अविकसित बस्ती में नई चेतना जगाने में नूपुर कामयाब रही. उस की प्रेरणा से यहां स्नेहसम्मेलन हुआ. सभी निवासी एकत्रित हुए. सहभोज हुआ. सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए. नूपुर का भाषण सब से ज्यादा सराहा गया.

नूपुर ने सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था के लिए संबंधित थाने से भी संपर्क साधा. क्षेत्रीय विधायक, गांव के पंच, सरपंच आदि सभी से मिली. लोगों की शिकायतों के समाधान में योगदान दिया.

नूपुर की इन गतिविधियों से प्रभावित हो कर क्षेत्रीय विधायक ने नूपुर की अध्यक्षता में एक सुरक्षा समिति गठित की. संबंधित शासकीय विभागों को इस समिति की सूचना दे कर आग्रह किया कि वे समिति से सहयोग करें. नतीजतन, लगभग एक माह में ही दरमियाने कद, उजले रंग, अच्छे नाकनक्श वाली हंसमुख नूपुर इस सारे क्षेत्र में पहचानी जाने लगी. स्लेटी रंग की कार को ऊबड़खाबड़ रास्तों पर दौड़ाने वाली इस नारी को राह चलते लोग तारीफ की नजरों से देखने लगे. लोगों ने उस का नाम रखा नई लक्ष्मीबाई.

इतना सबकुछ होते हुए भी दूर बैठे सौरभ को अपनी पत्नी की चिंता सताती रहती थी. पिस्तौल का विधिवत लाइसैंस बन जाने के बाद उस ने वह नूपुर को सौंप दी थी. फिर भी उस के मन में संशय बना ही रहता था. वह रोज रात को बारबार टैलीफोन पर उस से संपर्क साधता रहता था.

एक रोज आधी रात को बुरा सपना देखने पर उस का मन उद्वेलित हुआ. तुरंत उस ने नूपुर से संपर्क साधा. काफी देर तक घंटी बजने के बाद नूपुर ने चोंगा उठाया. सौरभ ने घबराए से स्वर में पूछा, ‘‘क्यों नूपुर, क्या हाल है?’’

‘‘सब ठीक है,’’ नूपुर ने जम्हाई लेते हुए कहा.

‘‘फिर इतनी देर क्यों लगा दी? कितनी देर तक घंटी बजती रही.’’

‘‘मैं गहरी नींद में थी, पर तुम अभी तक जाग रहे हो?’’

‘‘नहीं, सो गया था, मगर खराब सपना आया इसलिए तुम्हें जगाया. सच, सब ठीक है न?’’

‘‘हां बाबा, विश्वास न हो तो आ कर देख लो. तुम सच में बहुत डरपोक हो.’’

चोंगा रखने के बाद भी सौरभ आश्वस्त नहीं हुआ. उसे लगा यह बुरा स्वप्न कहीं भावी अनिष्ट का सूचक न हो. इस आशंका ने उसे उद्वेलित
कर दिया.

वह बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. कुछ देर कमरे में टहलने के बाद उस का मन हुआ कि नूपुर के पास चला जाए. यहां नींद आएगी नहीं. उस ने घर को ताला लगाया. सर्वेंट क्वार्टर में सोए नौकर को जगाया और उसे जानकारी दी कि वह नए घर जा रहा है.

लगभग 4 घंटे बाद वह नए घर पहुंचा. इस समय सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. तभी उसे जाने क्या सूझ, जीप को शैलेंद्रजी के घर के सामने रोक कर वह दबेपांव अपने नए घर के सामने जा खड़ा हुआ. चारों ओर सन्नाटा था. वह लोहे के बड़े मेन गेट के भीतर उतर गया और भीतरी दरवाजे के सामने जा कर कुछ देख वहां खड़ा आहट लेता रहा. तभी उस ने कौलबेल का बटन दबा दिया. 2-3 बार बटन दबाने और दरवाजा खटखटाने पर भीतर से ही बुधसिंह ने पूछा, ‘‘कौन है?’’

सौरभ ने बदले स्वर में कहा, ‘‘तेरा बाप. उस लक्ष्मीबाई से कह कि सीधी तरह दरवाजा खोल दे वरना हम दरवाजा तोड़ देंगे. हल्ला मचाएगी तो जान ले लेंगे. खोल फाटक.’’

बुधसिंह ने सहमे स्वर में अंदर दरवाजा खटखटाते हुए कहा, ‘‘मैडम, लगता है चोर आ गए हैं. वे फाटक खोलने को कह रहे हैं.’’

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. तू डर मत, मैं चोरों का मुकाबला करूंगी,’’ नूपुर बोली.

सांस रोके सौरभ दरवाजा खोलने का इंतजार करने लगा. उसे लगा कि नूपुर शोर मचाएगी. लोगों को मदद के लिए पुकारेगी. थाने में फोन करेगी. मगर उस की आशा के विपरीत अंदर शांति बनी रही.

इधर सौरभ का दिल धकधक करने लगा. तभी दरवाजा खुलने की चरमराहट हुई. सौरभ कार की आड़ में छिप गया. वह डरा कि नूपुर कहीं गोली न चला दे.

उधर दरवाजा खोल कर नूपुर दहाड़ी, ‘‘लो, खोल दिया दरवाजा. आओ सामने, बोलो क्या चाहिए?’’

कार के पीछे छिपे सौरभ ने घबराए से स्वर में कहा, ‘‘यह तो मैं हूं, पिस्तौल मत चलाना, नूपुर.’’

यह सुन कर नूपुर ठठा कर हंसती हुई बोली, ‘‘मेरी परीक्षा लेने आए थे.’’

तभी सौरभ ने पास आते हुए कहा, ‘‘हां, तुम सच में नई लक्ष्मीबाई हो.’’

इधर बुधसिंह अवाक सा खड़ा तमाशा देखता रहा.

बिस्तर पर जाने के बाद नूपुर ने सौरभ से शिकायती लहजे में कहा, ‘‘तुम्हें मेरे बारे में हमेशा संदेह ही रहा है.’’

तभी सौरभ उसे बांहों में भरता हुआ बोला, ‘‘तुम हो ही पहेली जैसी.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तुम अब स्त्री के साथसाथ पुरुष भी बनती जा रही हो. तुम में पुरुषत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है.’’

बेसहारा

“किस की बात कर रहे हो, वह मेरा दर्द कैसे समझेगी? वह पराया खून है, हमेशा पराया ही रहेगा.”

अपनी सास ममता के कमरे के पास से गुजरते हुए रिंकी को ये शब्द सुनाई दे रहे थे जो वे अपने बेटे विवेक से कह रही थीं. हालांकि, विवेक अपनी मां की बातों का विरोध कर रहा था, “तुम हमेशा रिंकी को पराया क्यों समझती हो, मां? वह भी तो इसी घर की सदस्य है. पता नहीं क्यों तुम उस के पीछे पड़ी रहती हो?”

“तुम क्या जानो, मांबेटे के बीच जो सहज रिश्ता होता है, उस की जगह बहू नहीं ले सकती. तुम हमारे अपने खून हो, वह तो पराया खून है. पराए कभी अपने नहीं हो सकते.”

रिंकी का मन हुआ कि वह उन से पूछे कि पिछले चारपांच सालों से उस की निश्च्छल सेवा और प्यार में ऐसी क्या कमी रह गई थी कि वे आज भी उसे पराई ही समझती हैं. लेकिन मजबूर थी, चाह कर भी वह उन के साथ कभी सख्ती नहीं बरत सकी.

ममता को जब भी किसी सलाह की जरूरत होती तो वे अपने तीनों बेटों विवेक, तुषार और नैतिक को बुलातीं. गलती से भी अपनी दोनों बहुओं को उस में शामिल न करतीं. उन के दोनों बेटे शादीशुदा थे और दोनों अलगअलग बैंकों में मैनेजर थे. छोटे बेटे नैतिक की अभी शादी नहीं हुई थी. वह मेरठ से इंजीनियरिंग कर रहा था.

रिंकी का दिल हमेशा अपनी सास के भावनात्मक सहारे और प्यार के लिए तरसता था. लेकिन प्यार के बदले में सास के ताने और कठोर शब्द उस के दिल को चुभते थे. उसे समझ में नहीं आता था कि वह सास से क्या कहे, उन्हें कैसे समझाए? उन के व्यवहार से वह नाराज हो कर मायके चली जाती थी. लेकिन मायके में भी कितने दिन तक रह पाती. बेटियां आज भी बोझ ही समझी जाती हैं. मायके में भी खुशियों का कोई भंडार नहीं था.

जब 10 दस साल की थी तभी उस के पिता की मृत्यु हो गई. इकलौते भाई श्यामसुंदर की शादी हो गई. उस के बाद उसे दादादादी के पास भेज दिया गया क्योंकि भाभी नहीं चाहती थी कि वह उस के साथ रहे. जब थोड़ी और बड़ी हुई तो होस्टल में डाल दी गई. बीए पास करते ही उस की शादी हो गई. मांबाप का प्यार तो उसे कभी मिला ही नहीं.

शादी के बाद उसे अपनी सास का अपने बेटों के प्रति उमड़ता प्यार देख कर बहुत अच्छा लगा. उसे वे अपनी मां के प्यार की प्रतिमूर्ति लगीं और उन का प्यार पाने की हर संभव कोशिश की. लेकिन न जाने क्यों, वे कभी भी उसे अपनी बेटेबेटियों की तरह स्वीकार नहीं कर पाईं. उन्हें केवल अपने खून पर भरोसा था. उन्हें लगता था कि एक मां के दिल का दर्द उस के बेटों से ज़्यादा कोई नहीं समझ सकता. जब भी वे किसी परेशानी में होतीं तो अपने बेटों से ही अपना दर्द साझा करतीं. उन की बहू हमेशा उन के लिए एक अजनबी सी रहती थी, जिस से वे बस काम लेतीं, लेकिन कभी अपने दिल के करीब नहीं आने देतीं.

उन की 3 बेटियां भी थीं जो अलगअलग शहरों में रहती थीं. जब भी वे आतीं, अपनी मां से मीठीमीठी बातें कर के उन से बहुत प्यार जताती थीं.

रिचा अपनी मां की कुछ ज्यादा ही लाडली थी, इसलिए वह उन का दिमाग ज्यादा चाटती, ‘मां, आप की जगह कौन ले सकता है. आप हैं तो हमारा मायका है. आप के बाद हमें इतना प्यार कौन देगा? मैं हमेशा यही चाहती हूं कि आप का प्यार, स्नेह और आशीर्वाद हम बहनों पर हमेशा बना रहे. मैं अपने घर में जरूर रहती हूं, लेकिन हमेशा आप की चिंता करती हूं. तुम कितनी दुबली हो गई हो. अपना खयाल रखना.

आजकल तो बहुएं अपनी सास को घर में रहने दें, यही बड़ी बात है. उन्हें मां मानना तो दूर की बात है आदिआदि.’

इस तरह वह मां के दिल में बहू के प्रति नफरत भर कर चली जाती और रिंकी को मां का खयाल रखने की खूब नसीहत देती. ममता को लगता कि उन की तीनों बेटियां ही उन का सब से ज्यादा खयाल रखती हैं, बहू तो सिर्फ अपना फर्ज निभाती है. इसीलिए वे हर सुखदुख में बहूओं को नजरअंदाज कर बेटियों को तरजीह देतीं.

ममता का अर्थ तो हम सभी जानते हैं, यही न कि एक मां का अपने बच्चों के प्रति स्नेह. पर बहुत सारे लोगों को लगता होगा, प्यार महोब्बत ओर ममता में क्या अंतर है. मैं तो कहूंगा अंतर तो कुछ नहीं,पर जो स्नेह मां अपनी ममता के भाव से जाहिर करती वह दूसरा कोई नहीं कर पाता. प्यार-मोहब्बत तो सब करते है, पिता से ले कर प्रिय या प्रेयसी तक पर इन में वह मां वाला स्नेह नहीं होता.

यह भी सच है कि मां का अपने बच्चों के लिए प्यार अनमोल होता है, खासकर बेटी संग का रिश्ता बहुत खूबसूरत होता है. मां बेटी में अपने बचपन को देखती है. वह अपने सपने बेटेबेटियों के जरिए पूरा करने की चाह रखती है. उम्र बढ़ने के साथ मां और बेटी का रिश्ता सहेलियों जैसा हो जाता है. मां अपने बच्चों को हर खुशी देना चाहती है, तो वहीं बेटी भी मां से अपने दिल की हर बात शेयर करती है. एक बेटी के लिए मां परिवार का वह सदस्य है जो उस के दिल की बात को सुनती है और सब से पहले समझती है. लेकिन ऐसा बहू के साथ नहीं होता, क्योंकि सास के दिल में कहीं न कहीं यह बात जरूर रहती कि यह दूसरे परिवार से आई है.

जब हम बेटी और बहू की बात करते हैं तो रिश्ते का दूसरा छोर मातापिता या सासससुर होते हैं. दोनों छोर एकदूसरे के बिना पूरे नहीं हो सकते. एक बहू वो सब कुछ कर सकती है जो एक बेटी कर सकती है, बस, फर्क इतना है कि बहू को उस घर को वंश देने का मौका मिलता है, जो एक बेटी अपने घर को कभी नहीं दे सकती क्योंकि उस का जन्म किसी और घर का वंश बढ़ाने के लिए होता है.

मदर्स डे,फादर्स डे मनाए जाते हैं. मां का प्यार दिल की गहराई से उतर कर इंटरनैट पर आ गया है. ममता देवी की बेटियां अपनी मां के लिए तरहतरह की तारीफें लिखतीं, ‘आप जैसी मां कहां मिल सकती है. आप का निस्वार्थ प्यार पा कर हम बहनों का जीवन सफल हो गया. आप से बात करने मात्र से ही मेरा सारा कष्ट दूर हो जाता है. मां, सारी दुनिया आप की तरह क्यों नहीं है आदिआदि.’

मां भी उतना ही भावुक हो कर जवाब देतीं.

रिंकी समझ न पाती थी कि वाट्सऐप पर मांबेटी के बीच प्यार दिखाना कितना सच था. हर मां का प्यार निस्वार्थ होता है, चाहे वह बेटी की मां हो या बेटे की या फिर बहू की. मां तो मां होती है, उस की नजर में सभी बच्चे बराबर होते हैं. वैसे भी, प्यार एक एहसास है, जिसे खुशबू की तरह महसूस किया जाता है. इसे सिर्फ मां पर अपना दबदबा दिखाने के लिए नहीं दिखाया जाता. लेकिन वह अपनी दोनों भाभियों के सामने कुछ भी कह कर अपने लिए मुसीबत खड़ी नहीं करना चाहती थी.

धीरेधीरे समय बीतता गया. नैतिक की भी शादी हो गई. उस की पत्नी माया डाक्टर थी. उस ने जल्दी ही अपना घर बसा लिया, क्योंकि उसे अस्पताल जाने में परेशानी होती थी. फिर भी उस की सास ममता को लगता था कि अगर जरूरत पड़ी तो वह उसे यमराज के हाथों से छीन लेगी.

दरअसल इंसानी ज़िंदगी एक इम्तिहान है. कइयों की ज़िंदगी में कई इम्तिहान आते हैं. कई पास होते हैं तो कोई फेल. लेकिन डाक्टरी ऐसा पेशा है जिस में हर दिन हर डाक्टर के लिए एक नहीं, कई इम्तिहान होते हैं. हर मरीज़ डाक्टर के लिए एक इम्तिहान होता है. डाक्टर इम्तिहान में कामयाब है, तो मरीज़ की हालत सुधरेगी और नाकामयाब है, तो मरीज़ की हालत बिगड़ेगी. हर मरीज़ डाक्टर के सामने एक चुनौती पेश करता है जिसे उस को स्वीकार करना पड़ता है.

एक दिन सुबहसुबह ममता देवी बाथरूम में गिर पड़ीं और सिर में चोट लग गई. उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती कराया गया. पूरी रात बेहोश पड़ी रहीं. अगले दिन उन्हें होश आया. वे थोड़ाबहुत बोल पाईं, पर उन का बायां हाथ और पैर लकवाग्रस्त हो गया. स्थिति गंभीर थी, घर में सभी को इस की जानकारी दी गई. ममता की तीनों बेटियां भी आ गईं. अपनी बेटियों को देख कर उन का चेहरा खिल उठा. तीनों बहनें कुछ देर वहीं बैठी रहीं.

सब से पहले उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि आखिर उस की मां की इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है. वे उस की समीक्षा करते हुए आंसू बहाती रहीं. उन की आलोचना को अनदेखा करते हुए जब रिंकी ने घर की बढ़ती जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए कम से कम एक बहन को घर या अस्पताल में रहने के लिए कहा तो कोई भी रुकने को तैयार नहीं हुई. तीनों ने ही किसी जरूरी काम का बहाना बना कर वहां रहने में असमर्थता जताई और मां को जल्दी आने का आश्वासन दे कर चली गईं.

उस दिन ममता की आंखें भर आईं. शायद उस ने सोचा हो कि बेटियों के लिए मृत्युशैया पर पड़ी अपनी मां की देखभाल से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कोई काम हो सकता है क्या? ममता के बीमार दिल पर यह पहला आघात था.

छोटी बहू माया डाक्टर थी, इसलिए आसानी से उन के इलाज की सारी व्यवस्था अच्छे ढंग से कर दी गई. पर उस के पास भी इतना समय नहीं था कि ममता देवी के पास कुछ देर बैठ सके. उन की देखभाल और उन के पास रहने की सारी ज़िम्मेदारी रिंकी पर आ गई थी.

समय के साथ पेरैंट्स बूढ़े हो जाते हैं और उन्हें अपने बच्चों की जरूरत होती है. जिस तरह बचपन में मांबाप अपने बच्चों की परवरिश करते हैं, उसी तरह बच्चों को भी अपने मांबाप को उन के बुढ़ापे में संभालना चाहिए. लेकिन बड़े होने पर ये बच्चे सब भूल जाते हैं.

कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद ममता देवी घर आ गई थीं. रिंकी ने उन की देखभाल में दिनरात एक कर दिया था. ऐक्सरसाइज कराने में वह मदद करती थी जिस से वे तेज़ी से ठीक हो रही थीं. काम इतना बढ़ गया था कि उसे हर पल किसी अपने की ज़रूरत महसूस होती थी. जब भी उस की ननदें ममता से मिलने आती थीं, तो वह उन से कुछ दिन अपनी मां के पास रहने का अनुरोध करती थी, क्योंकि बेटियों के साथ रहने से ममता देवी के जल्दी ठीक होने की संभावना थी. इस से उसे कुछ मदद भी मिल जाती. लेकिन तीनों बहनें कोई न कोई बहाना बना कर चली जाती थीं.

ममता देवी भी चाहती थीं कि ऐसे मुश्किल समय में उन्हें अपनी बेटियों का साथ मिले और वे अपना दर्द उन से साझा कर सकें. एक दिन उन्होंने खुद ही सब से छोटी बेटी से कहा, ‘बेटी, कुछ दिन मेरे पास ही रहो. तुम तीनों बहनों से ज़्यादा मेरे करीब और कौन है जो मेरा दुखदर्द समझ सके?’ यह बोलतेबोलते उन का गला भर आया और वे सिसकियां भरने लगीं.

‘हां मां, क्या यह कहने लायक बात है? एक मां अपनी बेटियों से ज्यादा किसी के करीब नहीं हो सकती. पर क्या करूं मां, बच्चों के स्कूल खुल गए हैं, वरना मैं खुद ही तुम्हारे पास रहने को बेचैन रहती हूं,’ यह कह कर वह घर की जिम्मेदारियां गिनाते हुए चली गई. ममता के बीमार दिल पर यह दूसरा झटका था.

रिंकी को हैरानी हुई कि वह ममता की बेटी नहीं थी, पर इतने दिनों से साथ रहने के कारण वह उस से इतना जुड़ गई थी कि वह उन्हें दर्द में देख नहीं सकती थी और उसे सांत्वना देने की पूरी कोशिश करती थी. ममता अब पूरी तरह से अपनी बहू रिंकी पर निर्भर थी. उन की गंभीर हालत में भी उन के बच्चों के पास उन के लिए समय नहीं था. उन की बहू, जिसे वे हमेशा एक अजनबी की तरह समझती थीं, अब उन लोगों से भी ज्यादा उस का खयाल रख रही थी जिन्हें वे अपना मानती थीं.

रिंकी के प्रयासों से वे धीरेधीरे ठीक हो रही थीं. एक महीने के भीतर ही वे अपने पैरों पर खड़ी होने लगीं और चलने लगीं. आज उन्हें किसी के सहारे की जरूरत नहीं थी. ममता उसी बहू के सहारे जिंदा थीं जिस का वे अकसर तिरस्कार किया करती थीं. कैसा जमाना आ गया है, जिस मांबाप के सहारे बच्चे बड़े होते हैं उसी को अंत में बेसहारा कर देते हैं.

लेखिका – पूनम

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