नगर निगम की सीमा से बाहर एक नई कालोनी ‘गृहनिर्माण सहकारी समिति’ के नाम से धंधेबाजों ने बसाई जिस का नामकरण हुआ ‘लक्ष्मी नगर.’ यह नामकरण विश्लेषणात्मक था. लक्ष्मी शब्द जहां धनसंपदा की दात्री का पर्याय था वहीं झांसी वाली मर्दानी रानी लक्ष्मीबाई का भी पर्याय था.

शहर से बाहर होने के कारण इस अविकसित कालोनी में प्लौटों के भाव शहर की अपेक्षा खासे कम थे, लिहाजा, नवधनाढ्यों ने यहां धड़ाधड़ प्लौट खरीद लिए. धंधेबाजों की पौबारह हो गई. उन्होंने सड़क, पुलिया आदि बनवा कर लोगों को आकर्षित करने का प्रयास किया, किंतु इन प्रयासों के बावजूद यहां मकान बनने धीरेधीरे शुरू हुए, क्योंकि संपर्क सड़क की बुरी हालत, कालोनी के मुख्य मार्ग से दूर होने एवं बिजलीपानी आदि बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण लोगों में निर्माण कार्य के प्रति उत्साह नहीं बढ़ा.

संपन्न लोगों ने तो इनकम टैक्स से बचने एवं फालतू पैसों को लगा कर प्लौट हथियाने भर का ही खयाल रखा, मगर जो मध्यमवर्गीय लोग शहर में मकान की किल्लत भुगत रहे थे, धीरेधीरे वे ही यहां मकान बनवाने आगे आए.

नूपुर ऐसे ही लोगों में थी. उसे शहर में 2 कमरे वाले फ्लैट में रहना पड़ रहा था. किराया भी ज्यादा था और मकान मालिक से उस की खटक गई थी इसलिए वह वहां रहने में दिक्कत महसूस कर रही थी. पास ही उस की अंतरंग सहेली नसरीन रह रही थी इसलिए यहां बनी रही वरना इस फ्लैट को छोड़ कर तो वह कभी की कहीं और रहने चली जाती.

इस अप्रिय स्थिति से मुक्ति पाने को नूपुर ने लक्ष्मीनगर के अपने प्लाट पर मकान बनवा कर अपना सपना साकार करने का निश्चय किया. अपने इस सपने में वह नित नएनए रंग भरती उसे साकार करने को बेचैन थी.

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