नगर निगम की सीमा से बाहर एक नई कालोनी ‘गृहनिर्माण सहकारी समिति’ के नाम से धंधेबाजों ने बसाई जिस का नामकरण हुआ ‘लक्ष्मी नगर.’ यह नामकरण विश्लेषणात्मक था. लक्ष्मी शब्द जहां धनसंपदा की दात्री का पर्याय था वहीं झांसी वाली मर्दानी रानी लक्ष्मीबाई का भी पर्याय था.
शहर से बाहर होने के कारण इस अविकसित कालोनी में प्लौटों के भाव शहर की अपेक्षा खासे कम थे, लिहाजा, नवधनाढ्यों ने यहां धड़ाधड़ प्लौट खरीद लिए. धंधेबाजों की पौबारह हो गई. उन्होंने सड़क, पुलिया आदि बनवा कर लोगों को आकर्षित करने का प्रयास किया, किंतु इन प्रयासों के बावजूद यहां मकान बनने धीरेधीरे शुरू हुए, क्योंकि संपर्क सड़क की बुरी हालत, कालोनी के मुख्य मार्ग से दूर होने एवं बिजलीपानी आदि बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण लोगों में निर्माण कार्य के प्रति उत्साह नहीं बढ़ा.
संपन्न लोगों ने तो इनकम टैक्स से बचने एवं फालतू पैसों को लगा कर प्लौट हथियाने भर का ही खयाल रखा, मगर जो मध्यमवर्गीय लोग शहर में मकान की किल्लत भुगत रहे थे, धीरेधीरे वे ही यहां मकान बनवाने आगे आए.
नूपुर ऐसे ही लोगों में थी. उसे शहर में 2 कमरे वाले फ्लैट में रहना पड़ रहा था. किराया भी ज्यादा था और मकान मालिक से उस की खटक गई थी इसलिए वह वहां रहने में दिक्कत महसूस कर रही थी. पास ही उस की अंतरंग सहेली नसरीन रह रही थी इसलिए यहां बनी रही वरना इस फ्लैट को छोड़ कर तो वह कभी की कहीं और रहने चली जाती.
इस अप्रिय स्थिति से मुक्ति पाने को नूपुर ने लक्ष्मीनगर के अपने प्लाट पर मकान बनवा कर अपना सपना साकार करने का निश्चय किया. अपने इस सपने में वह नित नएनए रंग भरती उसे साकार करने को बेचैन थी.
उस के पति सौरभ ने उसे बहुत समझाया, ‘‘देखो नूपुर, वहां जंगल में अभी बसने में खतरे हैं इसलिए जल्दबाजी मत करो.’’
‘‘खतरे कहां नहीं हैं?’’ नूपुर का यही जवाब होता.
पिछले दिनों शहर की इस पौश कालोनी में इन के पड़ोस में ही दिनदहाड़े ताले टूट गए थे. चोर काफी माल ले उड़े थे. नूपुर का संकेत किराए पर लिए अपने फ्लैट वाली कालोनी की तरफ था. सौरभ भी इस संकेत को समझ गया था, फिर भी बोला, ‘‘यहां की अपेक्षा वहां ज्यादा खतरे हैं. वहां अभी जंगल है. कुछ बसावट हो जाने दो, फिर हम भी कदम बढ़ाएंगे.’’
‘‘इसी तरह सभी सोचेंगे तो लक्ष्मीनगर कभी बसेगा ही नहीं. किसी को तो पहल करनी होगी,’’ नूपुर एकदम झल्ला पड़ी.
‘‘वह पहल हम ही क्यों करें, नूपुर?’’
‘‘तो फिर यह पहल हम ही क्यों न करें, सौरभ?’’
‘‘तुम सच में बहुत जिद्दी हो. खतरों से खेलना तुम्हारा स्वभाव है.’’
‘‘तुम्हें जब मेरे स्वभाव का पता है तो फिर मुझे क्यों रोक रहे हो? हमारा सपना साकार होने दो.’’
‘‘जानबूझ कर मुसीबत मोल लेनी है तो लो, करो अपने मन की. बाद में रोना मत…’’
‘‘ऐसा मौका ही नहीं आएगा, सौरभ. तुम चिंता मत करो, मैं सारी स्थिति से निबट लूंगी.’’
सौरभ ने नूपुर को समझाना व्यर्थ जान कर और मगजपच्ची नहीं की. उस ने प्रवाह में पड़े तिनके की तरह खुद को मान लिया. फिर भी उसे यह चिंता तो थी ही कि नूपुर यह सारा काम कैसे संभालेगी. वह स्वयं तो हफ्ते में एक रोज इतवार के दिन ही इस शहर में आ पाता था, बाकी के दिन वह दूसरे शहर में अपनी नौकरी में व्यस्त रहता था.
वह सोचने लगा, घर में नूपुर के अलावा और कोई तो है नहीं. संतान होती तो वह सहायक होती. ऐसे में नितांत अकेली नूपुर यह काम कैसे पूरा कराएगी. यह काम कोई 1-2 दिन का तो है नहीं. महीनों लग जाते हैं, तब कहीं मकान का काम पूरा हो पाता है. ऐसे में नूपुर कैसे तो कालेज जाएगी और कैसे निर्माण कार्य की निगरानी रखेगी.
इतनी छुट्टी इसे कालेज से कैसे मिलेगी. घर शहर में, कालेज शहर की दूसरी दिशा में और यह लक्ष्मीनगर तीसरी दिशा में. ये तीनों जगहें कैसे भटकेगी. चकरघिन्नी बन जाएगी.
माना कि इस के पास स्कूटर है, मगर तीनों जगहों की दूरी कितनी है. स्कूटर तो खुद को ही चलाना पड़ता है, वह खुद थोड़े ही चलता है.
आनेजाने की इस मेहनत के अलावा कारीगर, ठेकेदार, बिल्डर, मजदूर आदि से मगजपच्ची करनी होगी. ये लोग परेशान करते ही हैं. निगरानी बारबार न होने पर आंख में धूल झोंक देते हैं. यह इन सब से कैसे निबटेगी? ज्यादा दौड़धूप करेगी तो बीमार पड़ जाएगी. मकान का काम सहज नहीं होता. जानकारों ने इसीलिए कहा है कि मकान बना कर और ब्याह कर के देख. मकान और विवाह दोनों कठिन काम हैं, मगर यह किसी की सुने तब न. यह तो अपने मन की ही करती है.
सौरभ की इन चिंताओं के बावजूद नूपुर ने लक्ष्मीनगर के अपने प्लौट पर अपने घर का सपना साकार करने का काम शुरू कर दिया. इस इलाके में अभी एक ही मकान सामने की पंक्ति में शैलेंद्रजी का बना था. उन्होंने तो अपना ताला लगा रखा था. वे अभी यहां रहने नहीं आए थे. नूपुर को काम शुरू कराते देख वह खुश हुए. उन्होंने उस का हौसला बढ़ाया था.
मगर नूपुर के हितचिंतकों ने तो उसे सचेत किया, ‘‘व्यर्थ की परेशानी में मत पडि़ए, मैडम. सुख की जान को दुख में मत डालिए. अभी रुकिए.’’
मगर नूपुर ने किसी की नहीं सुनी. उस ने बढ़ाए कदम पीछे नहीं हटाए. वह पूरे उत्साह एवं लगन से अपना सपना साकार करने में जुटी रही.
नूपुर साइट पर नजर रखने लगी. दिन में कई चक्कर साइट पर लगाने शुरू किए. घर, कालेज और साइट इसी त्रिभुज के बीच फिरकनी की तरह फिरने लगी. जरूरत पड़ने पर रात को भी चक्कर लगाती.
जिस रोज छत पड़ी उस रोज तो नूपुर आधी रात तक वहीं डटी रही. छत पड़ने के बाद ही दनदनाती हुई देर रात अपने घर, शहर लौटी. ठेकेदार, राजमिस्त्री, मजदूर आदि सभी उस के साहस पर चकित हुए.
सौरभ ने उस की सहायता के लिए आदिवासी युवा बुधसिंह को अपने यहां से भेज दिया. उसे स्कूटर पर बिठा कर वह दनदनाती हुई साइट पर आतीजाती रही.
नूपुर ने अपनी सहेली नसरीन से आग्रह किया कि वह भी अपने प्लौट पर निर्माण कार्य शुरू करा दे. वह उस के यहां की भी निगरानी रखेगी, मगर नसरीन के मित्रों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया. वे यही कहते रहे कि यह जंगल जब आबाद हो जाएगा तभी सोचेंगे. हमें अभी कोई जल्दी नहीं है. मगर नूपुर को तो जल्दी थी.
वह चाहती थी कि उस का सपना साकार हो जाए जिस से वह फ्लैट छोड़ कर यहां रहने आ जाए. मकान मालिक के सामने फ्लैट की चाबी फेंक कर उस से कहे कि संभाल अपनी धर्मशाला, हम तो अपने सपनों के महल में जा रहे हैं. अब तेरी तानाशाही हम पर नहीं चलेगी. हम अपनी मरजी के मालिक होंगे.
इस के विपरीत सौरभ यही चाह रहा था कि मकान का काम तेजी से न चले. इस में देरी हो तो ठीक रहेगा ताकि वहां रहने का मुहूर्त अभी न आए. मगर नूपुर की दिनरात की व्यस्तता और भागदौड़ के कारण वह यह भी चाहता था कि इस परेशानी से नूपुर को जल्दी छुटकारा मिले.
इस तरह सौरभ काम में देरी चाहता भी था और नहीं भी. वह बहुत ही असमंजस की स्थिति में था. लेदे कर खुद को यही कहकह कर समझता रहता था कि मकान का काम पूरा हो जाने पर भी हम अभी वहां रहने नहीं जाएंगे. अकेली नूपुर को वहां वीराने में नहीं छोडेंगे. वहां अभी सन्नाटे के सिवा है क्या? एक मकान यहां तो दूसरा उस कतार के सिरे पर. चारों ओर मैदान ही मैदान. लोगों ने अपनेअपने प्लौट की घेराबंदी कराकरा कर अपना कब्जा कर रखा है.
बीच कालोनी में ऊंचे गुंबद वाला महालक्ष्मी का भव्य मंदिर ही जैसे घोषणा करता है कि यह वीराना नहीं बस्ती है. न दुकान, न फेरी वाले. रात को सियार हुआंहुआं का डरावना शोर करते हैं. खासा डरावना माहौल है. ऐसे में तो बड़े परिवार वाले ही रहने का साहस कर सकते हैं. हमारा परिवार तो बिलकुल छोटा सा है. उस में भी मैं स्वयं तो हफ्ते में एक दिन ही यहां आ पाता हूं. नहींनहीं, हम अभी वहां रहने नहीं जाएंगे.
सौरभ ऐसा निश्चय तो मन ही मन कर रहा था, मगर वह जानता था कि नूपुर हमेशा की तरह इस बार भी उस की एक नहीं सुनेगी, वह अपने मन की करेगी. वह तो कब से पर तौल रही है. यहां से उड़ कर वहां जाने को बेताब है. बहुत ही जिद्दी औरत है. किसी बात का उसे खौफ ही नहीं.
वह स्वयं रात को वहां जाने में डरता है, मगर वह नहीं डरती. स्कूटर पर दनदनाती हुई रातबिरात चली जाती है. उस जिद्दी औरत को वह कैसे रोकेगा वहां जाने से. मकान का काम पूरा होते ही वह अपना मालअसबाब उठा कर वहां चल देगी. रस्सी तुड़ा रहे पशु की तरह हो रही है उस की हालत. इसी संभावना की आशंका से सौरभ ने कर्ज ले कर पुरानी मारुति कार खरीद ली. उस ने सोचा कि नूपुर यदि वहां चली गई तो स्कूटर के बजाय कार में उस वीराने में उस की सुरक्षा रहेगी.
कार पा कर नूपुर खुश तो हुई, मगर सोचने लगी कि यह रकम कार पर खर्च करने के बजाय मकान पर खर्च होती तो कितना अच्छा रहता. वह तो मकान को ही तरजीह दे रही थी. अपने नए निवास को सारी सुविधाओं वाला बनाने में ही वह जुटी हुई थी.
मकान का काम लगभग पूरा होते ही नूपुर ने अपने डेरेडंडे उखाड़ने शुरू किए तो सौरभ ने आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘‘अभी हम वहां नहीं जाएंगे.’’
‘‘क्यों?’’ नूपुर चौंकी.
‘‘अभी वहां बिजली का कनेक्शन नहीं हुआ है.’’
‘‘उस की चिंता मत करो. अस्थायी व्यवस्था हम ने कर रखी है.’’
‘‘मगर स्थायी व्यवस्था होने तक रुकने में क्या हर्ज है?’’
‘‘मुझे तो इस फ्लैट के मालिक की सूरत से नफरत है. मैं उस की परछाईं से दूर चली जाने को तड़पती रही हूं.’’
‘‘मैं जानता हूं, मगर कुछ रोज और अभी उसे सहन कर लो.’’
‘‘नहीं, हम तो अपने घर में जाएंगे, तुरंत जाएंगे.’’
इस घोषणा ने सौरभ को चिंतित किया. वह उस वीराने में नूपुर के अकेली रहने की कल्पना से ही सिहर उठा. उसे यही डर कचोटने लगा कि यदि उस वीराने में कुछ हो गया तो वह कहीं का नहीं रहेगा.
कुछ दिन पहले ही उस ने अखबारों में पढ़ा था कि एक रात शहर की एक मशहूर कालोनी में कच्छाबनियानधारी 10-12 चोर खिड़की तोड़ कर एक मकान में घुस गए और घर के सभी प्राणियों को एक कमरे में बंद कर लूटपाट की. टैलीफोन के तार काट दिए. घर में छोटेबड़े 15 व्यक्ति होते हुए भी वे चोरों का मुकाबला नहीं कर पाए.
इस घटना की जानकारी ने सौरभ को भीतर तक दहला दिया था. वह यही सोचसोच कर परेशान हो रहा था कि उस वीराने में तो खिड़की क्या, दरवाजे भी तोड़ कर चोर घुस सकते हैं. वहां चीखनेचिल्लाने पर भी कोई मदद को नहीं आएगा. पुलिस थाना भी दूर है. जिस गांव की सीमा में यह लक्ष्मीनगर बसाया गया वह भी दूर है. इन्हीं संभावनाओं के काल्पनिक चित्रों से सौरभ भयभीत रहने लगा, किंतु नूपुर उस के डर की खिल्ली उड़ाती कहती रही, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.’
तब सौरभ झल्ला पड़ता था, ‘तुम्हारा मन कितना ही बलशाली हो, मगर तन तो तुम्हारा औरत का है, नूपुर. जरा सोचो, दुस्साहस मत करो, बुद्धिमानी से काम लो. अभी उस जंगल में मत जाओ.’
इस पर नूपुर दोटूक शब्दों में कह देती, ‘मैं तो जाऊंगी, भले ही कुछ भी हो. मैं हर खतरे से जू?ांगी. खयाली डर से मैं नहीं डरती.’
उस के इस दृढ़ निश्चय से विचलित हो कर सौरभ ने पिस्तौल खरीदने का निश्चय किया. उस ने सोचा पिस्तौल नूपुर के लिए सुरक्षाकवच का काम करेगी. इस से उस का बल बढ़ेगा. आपातकाल में पिस्तौल से मुकाबला संभव हो सकेगा. पिस्तौल के नाम से ही चोर आतंकित रहेंगे.
आयकरदाता होने के कारण नूपुर के नाम से भी लाइसेंस बन जाएगा.
नूपुर ने जब पिस्तौल वाली बात सुनी तो झल्लाई, ‘‘तुम सच में बहुत डरपोक हो और मुझे भी डरपोक बना देते हो. जरा सोचो, पास में पिस्तौल बेशक हो मगर उसे चलाने की हिम्मत न हो तो वह किस काम की. इसलिए खास चीज तो हिम्मत है, जो मेरे पास है और खूब है.’’
सौरभ जानता था कि नूपुर बहुत हिम्मत वाली है. गांव की बेटी होने के कारण उस का बचपन जंगलों में भटकते हुए ही बीता था. एक बार बाल्यावस्था में ही उस ने गांव में रात में सेंध लगा रहे चोरों की आहट पा कर शोर मचा दिया था, इसीलिए चोर पकड़ में आ गए थे. भूतप्रेत, सांपबिच्छू से भी वह डरती नहीं थी. स्कूल में बास्केटबौल की वह खिलाड़ी रही थी. कालेज में आने पर एथलीट के रूप में उस की पहचान बनी थी.
उस ने कई इनाम पाए थे. प्राध्यापिका बन जाने पर भी वह तेजतर्रार रही थी. हर काम में अग्रणी भूमिका रहती थी उस की, इसीलिए कालेज में सहयोगियों ने उस का नाम ‘नेताजी’ रख दिया था. चुनाव में धांधली करने वाले एक छुटभैये नेताजी को इस नेताश्री ने अपनी ड्यूटी में मजे चखा दिए थे. नूपुर के ऐसे साहसिक कई कारनामे सौरभ को पता थे.
सब से ज्यादा चौंकाने वाली घटना उसे नूपुर की अंतरंग सहेली नसरीन के बारे में पता चली थी कि नसरीन और नूपुर आसपास ही रहती थीं.
दोनों में खूब घुटती थी. सहपाठी एवं पड़ोसी होने के कारण दोनों में घनिष्ठता बढ़ती ही गई थी, जो धीरेधीरे इतनी बढ़ गई कि दोनों एक ही कमरे में रहने लगी थीं. दोनों एक ही बिस्तर पर सोतीं, इसीलिए लोगों को उन में समलैंगिक संबंध का संदेह होने लगा था. इस संदेह की पुष्टि नसरीन के कथन से भी होती थी. वह जबतब कक्षा में अपनी सहपाठिनों से कहा करती थी कि वह नूपुर की बीवी है. वे दोनों विवाह करेंगी.
इस कथन से चौंक कर दोनों के परिवार वालों ने उन के विवाह की जल्दबाजी की थी. सौरभ के कानों तक जब यह बात आई थी तो वह इस रिश्ते से हिचकिचाया था. उस की यह हिचकिचाहट समझाने बुझाने के बाद ही दूर हुई थी, मगर विवाह के बाद भी उसे लगा था कि नूपुर सच में थोड़ी मर्दानी है. मगर उस मर्दानी पत्नी को औरतजात मान कर भी वह उस के लिए पिस्तौल की व्यवस्था करने में जुट गया था.
इधर नूपुर ने पिस्तौल आने तक रुकने का सौरभ का प्रस्ताव ठुकरा दिया. वह अपना फ्लैट खाली कर अपनी स्वप्नकुटी में, उस वीराने में चली गई. वहां जा कर उसे बेहद खुशी हुई. आदिवासी युवा बुधसिंह को सहायक के रूप में पा कर उस को सुविधा हुई. वह बहुत ही बेफिक्री से खुली हवा में सांस लेने लगी, पर सौरभ उस की निश्चिंतता एवं खुशी पर चकित हुआ.
नूपुर के वहां जा कर बसने से इलाके के एकमात्र पड़ोसी शैलेंद्रजी को भी खुशी हुई. वह इस सान्निध्य को सराहने लगे, नूपुर के साहस की दाद देने लगे.
धीरेधीरे इस लक्ष्मीनगर के अन्य विद्यार्थियों से भी नूपुर ने देखते ही देखते परिचय पा लिया. वह सब की सुध लेने लगी. उन की हिम्मत बंधाने लगी. उन से आग्रह करने लगी कि एकदूसरे के सुखदुख में सहभागी बनें. अपनेआप में सिमटेसिमटे न रहें. एकदूसरे के नजदीक आएं. हमारे घर बेशक दूरदूर हों मगर मन पासपास रहें.
इस अविकसित बस्ती में नई चेतना जगाने में नूपुर कामयाब रही. उस की प्रेरणा से यहां स्नेहसम्मेलन हुआ. सभी निवासी एकत्रित हुए. सहभोज हुआ. सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए. नूपुर का भाषण सब से ज्यादा सराहा गया.
नूपुर ने सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था के लिए संबंधित थाने से भी संपर्क साधा. क्षेत्रीय विधायक, गांव के पंच, सरपंच आदि सभी से मिली. लोगों की शिकायतों के समाधान में योगदान दिया.
नूपुर की इन गतिविधियों से प्रभावित हो कर क्षेत्रीय विधायक ने नूपुर की अध्यक्षता में एक सुरक्षा समिति गठित की. संबंधित शासकीय विभागों को इस समिति की सूचना दे कर आग्रह किया कि वे समिति से सहयोग करें. नतीजतन, लगभग एक माह में ही दरमियाने कद, उजले रंग, अच्छे नाकनक्श वाली हंसमुख नूपुर इस सारे क्षेत्र में पहचानी जाने लगी. स्लेटी रंग की कार को ऊबड़खाबड़ रास्तों पर दौड़ाने वाली इस नारी को राह चलते लोग तारीफ की नजरों से देखने लगे. लोगों ने उस का नाम रखा नई लक्ष्मीबाई.
इतना सबकुछ होते हुए भी दूर बैठे सौरभ को अपनी पत्नी की चिंता सताती रहती थी. पिस्तौल का विधिवत लाइसैंस बन जाने के बाद उस ने वह नूपुर को सौंप दी थी. फिर भी उस के मन में संशय बना ही रहता था. वह रोज रात को बारबार टैलीफोन पर उस से संपर्क साधता रहता था.
एक रोज आधी रात को बुरा सपना देखने पर उस का मन उद्वेलित हुआ. तुरंत उस ने नूपुर से संपर्क साधा. काफी देर तक घंटी बजने के बाद नूपुर ने चोंगा उठाया. सौरभ ने घबराए से स्वर में पूछा, ‘‘क्यों नूपुर, क्या हाल है?’’
‘‘सब ठीक है,’’ नूपुर ने जम्हाई लेते हुए कहा.
‘‘फिर इतनी देर क्यों लगा दी? कितनी देर तक घंटी बजती रही.’’
‘‘मैं गहरी नींद में थी, पर तुम अभी तक जाग रहे हो?’’
‘‘नहीं, सो गया था, मगर खराब सपना आया इसलिए तुम्हें जगाया. सच, सब ठीक है न?’’
‘‘हां बाबा, विश्वास न हो तो आ कर देख लो. तुम सच में बहुत डरपोक हो.’’
चोंगा रखने के बाद भी सौरभ आश्वस्त नहीं हुआ. उसे लगा यह बुरा स्वप्न कहीं भावी अनिष्ट का सूचक न हो. इस आशंका ने उसे उद्वेलित
कर दिया.
वह बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. कुछ देर कमरे में टहलने के बाद उस का मन हुआ कि नूपुर के पास चला जाए. यहां नींद आएगी नहीं. उस ने घर को ताला लगाया. सर्वेंट क्वार्टर में सोए नौकर को जगाया और उसे जानकारी दी कि वह नए घर जा रहा है.
लगभग 4 घंटे बाद वह नए घर पहुंचा. इस समय सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. तभी उसे जाने क्या सूझ, जीप को शैलेंद्रजी के घर के सामने रोक कर वह दबेपांव अपने नए घर के सामने जा खड़ा हुआ. चारों ओर सन्नाटा था. वह लोहे के बड़े मेन गेट के भीतर उतर गया और भीतरी दरवाजे के सामने जा कर कुछ देख वहां खड़ा आहट लेता रहा. तभी उस ने कौलबेल का बटन दबा दिया. 2-3 बार बटन दबाने और दरवाजा खटखटाने पर भीतर से ही बुधसिंह ने पूछा, ‘‘कौन है?’’
सौरभ ने बदले स्वर में कहा, ‘‘तेरा बाप. उस लक्ष्मीबाई से कह कि सीधी तरह दरवाजा खोल दे वरना हम दरवाजा तोड़ देंगे. हल्ला मचाएगी तो जान ले लेंगे. खोल फाटक.’’
बुधसिंह ने सहमे स्वर में अंदर दरवाजा खटखटाते हुए कहा, ‘‘मैडम, लगता है चोर आ गए हैं. वे फाटक खोलने को कह रहे हैं.’’
‘‘मैं ने सब सुन लिया है. तू डर मत, मैं चोरों का मुकाबला करूंगी,’’ नूपुर बोली.
सांस रोके सौरभ दरवाजा खोलने का इंतजार करने लगा. उसे लगा कि नूपुर शोर मचाएगी. लोगों को मदद के लिए पुकारेगी. थाने में फोन करेगी. मगर उस की आशा के विपरीत अंदर शांति बनी रही.
इधर सौरभ का दिल धकधक करने लगा. तभी दरवाजा खुलने की चरमराहट हुई. सौरभ कार की आड़ में छिप गया. वह डरा कि नूपुर कहीं गोली न चला दे.
उधर दरवाजा खोल कर नूपुर दहाड़ी, ‘‘लो, खोल दिया दरवाजा. आओ सामने, बोलो क्या चाहिए?’’
कार के पीछे छिपे सौरभ ने घबराए से स्वर में कहा, ‘‘यह तो मैं हूं, पिस्तौल मत चलाना, नूपुर.’’
यह सुन कर नूपुर ठठा कर हंसती हुई बोली, ‘‘मेरी परीक्षा लेने आए थे.’’
तभी सौरभ ने पास आते हुए कहा, ‘‘हां, तुम सच में नई लक्ष्मीबाई हो.’’
इधर बुधसिंह अवाक सा खड़ा तमाशा देखता रहा.
बिस्तर पर जाने के बाद नूपुर ने सौरभ से शिकायती लहजे में कहा, ‘‘तुम्हें मेरे बारे में हमेशा संदेह ही रहा है.’’
तभी सौरभ उसे बांहों में भरता हुआ बोला, ‘‘तुम हो ही पहेली जैसी.’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मतलब यह कि तुम अब स्त्री के साथसाथ पुरुष भी बनती जा रही हो. तुम में पुरुषत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है.’’