डाक्टर चांडक आज सुबह से ही बहुत खुश थे, सरकारी मैडिकल कालेज हौस्पिटल में आ कर. इतने खुश थे जैसे किसी को चांद मिल गया हो या फिर पंछी को आसमां मिल गया हो. आज सुबह से ही बहुत ही अच्छा लग रहा था हौस्पिटल में, जैसे नौकरी का पहला दिन हो.

डाक्टर चांडक को देख कर उन के अधीनस्थ रैजिडेंट डाक्टर, नर्सिंग स्टाफ व दूसरे लोग उन्हें वापस यहां देख कर बहुत ही खुश थे.

‘‘सर, आप को वापस यहां देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है,’’ इंचार्ज सिस्टर आशा बोली.

‘‘हां, मुझे भी,’’ मुसकराते हुए उन्होंने नर्सिंग स्टाफ से कहा.

सब यही सोच रहे थे कि क्यों डाक्टर चांडक को आज बहुत ही अच्छा लग रहा है? ऐसी भी क्या खास बात है?

बात दरअसल कुछ महीने पहले की है. डा. चांडक इसी मैडिकल कालेज में प्रोफैसर थे, पिछले 25 सालों से. अब उन की उम्र 50 साल से ज्यादा हो गई है. मतलब उन का चिकित्सीय अनुभव 25 साल से ज्यादा का हो गया है. उन के बारे में कहा जाता है कि वे मरीज के कमरे में प्रवेश करते समय ही पहचान जाते हैं कि इस मरीज की तकलीफ क्या है? ऊपर से डा. चांडक का मधुर स्वभाव व निर्मल मुसकराता चेहरा मरीज ही नहीं नर्सिंग स्टाफ व जूनियर डाक्टर को भी प्रभावित और प्रोत्साहित करता है.

डा. चांडक की उपलब्धियां उन की मेहनत के साथसाथ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण भी थीं पर इन सब के बावजूद वे अपने प्राइवेट मित्रों जितना कमा नहीं पाते थे. हालांकि उन की लग्जरी लाइफ कोई खास कम नहीं थी. अच्छा बड़ा सरकारी क्वार्टर के साथ ही उन के पास अपने होम टाउन में 3 बीएचके फ्लैट था. 2 कारें जिन में एक खुद के लिए और एक बेटे के लिए. 2-3 सालों में विदेश में एक बार घूम कर आते थे और दूसरे बड़े शहरों में कालेज परीक्षा इंटरव्यू लेने जाते थे तो अपनी पत्नी को भी साथ में ले जाते थे.

कुल मिला कर डाक्टर चांडक अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक व सरकारी नौकरी से संतुष्ट थे. हालांकि उन की आर्थिक स्थिति अपने प्राइवेट डाक्टर्स जैसी अतिसंपन्न नहीं थी. उन के डाक्टर मित्र शहर की हर नई प्रौपर्टी में निवेश करते थे. साल में कम से कम 2 बार विदेश यात्राएं करते थे और उन के पास हर साल नई लग्जरी गाड़ी होती थी.

तभी उन की शांत जिंदगीरूपी तालाब में हलचल हुई, लहरें उठीं और तूफान बनी और समुद्रतट से जोरदार टकराई. उन का दोस्त सोनी, जो उन के साथ मैडिकल कालेज में पढ़ता था, और दूसरे शहर में प्रैक्टिस करता था. साथ में उन के साथ मैडिकल कालेज में डाक्टर बना था, शहर में ही कौन्फ्रैंस में मिला.

कालेज का सदाबहार टौपर और मैडिसिन में गोल्ड मैडलिस्ट, अपने दोस्त की आर्थिक हालत देख कर उसे बहुत दुख हुआ और वह डाक्टर चांडक से गुस्से में बोला, ‘तेरी प्रतिभा सरकारी तालाब में जंग खा रही है. अब तो प्राइवेट प्रैक्टिस के लिए तैयार हो जा. अब तो लगभग सारी जवाबदारियां भी पूरी हो चुकी हैं. अब रिस्क ले, सौरी रिस्क नहीं कमा ले.’

‘पर अपना हौस्पिटल, वह भी इस उम्र में शुरू करूं?’ उन्होंने आश्चर्य से अपने दोस्त को कहा.

‘भाई, अब कोई भी नया डाक्टर अपना हौस्पिटल खुद शुरू नहीं करता है. ऊपर से पुराने जमेजमाए बड़ेबड़े डाक्टर भी अपने हौस्पिटल बेच रहे हैं और कौरपोरेट हौस्पिटल में जा रहे हैं बड़ेबड़े पैकेज के साथ. अपने हौस्पिटल के इनवैस्टमैंट व मैनेजमैंट का झंझट नहीं. बहुत सारा बड़ा पैकेज दे रहे हैं और तुम तो अनुभवी हो और मैडिकल कालेज के प्रोफैसर हो. तुम को तो बहुत बड़ा पैकेज मिलेगा. तुम अपनेआप को कुएं से बाहर निकालो और समुद्र नहीं तो तालाब में ही आ जाओ. देखो, दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है,’ उस ने अपने दोस्त को समझाने के लिए कहा.

डा. चांडक की पत्नी शुरू से ही उन्हें प्राइवेट में कुछ करने को कह रही थीं. दूसरों को छोड़ो जब उन की मैडिकल की पढ़ाई चल रही थी तभी उन्होंने प्राइवेट का ही सोचा था पर पासआउट होते ही उन को तुरंत ही दूसरे दिन अपने ही मैडिकल कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर की नियुक्ति मिली और प्राइवेट हौस्पिटल खोलने के लिए निवेश भी बड़ा चाहिए था. उन्होंने सोचा कि कुछ समय नौकरी करूंगा और बाद में अपना प्राइवेट क्लीनिक खोल लूंगा पर जवाबदारियां बढ़ती गईं और दूसरा उन्हें सरकारी कालेज में मरीज देखने के साथसाथ स्टूडैंट्स को पढ़ाने का भी मजा आ रहा था पर अब बेटा बैंक की जौब में सैटल हो चुका था और बेटी की शादी हो चुकी थी. अब उन्होंने दूसरे दोस्तों व परिवार के साथ सलाहमशविरा किया. ज्यादातर का मंतव्य प्राइवेट प्रैक्टिस करने का था.

हिम्मत कर के एक दिन सरकार को इस्तीफा दे दिया और उसी शहर में ही नया खुला कौरपोरेट हौस्पिटल जो अभी 1 साल पहले ही उस की नई ब्रांच खुली थी, अच्छाखासा पैकेज और इंसैंटिव दे रही थी, उन्होंने अपनी नई नौकरी जौइन कर ली.

यहीं से उन की जीवन की चिकित्सक तरीके की दूसरी पारी शुरू होती है. पहले दिन वह थोड़ी उत्सुकता और थोड़ी झिझक के साथ अस्पताल पहुंचे. अस्पताल के जगहजगह पर सिक्योरिटी गार्ड थे और हर जगह उन को पूछ कर अंदर जाना पड़ा क्योंकि यहां के सिक्योरिटी गार्ड्स उन को पहचानते नहीं थे. उन की चैंबर बेसमैंट में थी जो दूसरे डाक्टर के साथ थी.

उन के चैंबर के बाहर काले रंग की मंहगी प्लेट पर गोल्डन रंग में नाम के साथ डिग्री व पूर्व प्रोफैसर, मैडिकल कालेज टंगी हुई थी. बाहर सिस्टर नर्स बहुत छोटी सी टेबल पर बैठी थी. वेटिंगरूम बहुत बड़ा था और सरकारी हौस्पिटल की लकड़ी की बैंचों की जगह बड़ेबड़े सोफे रखे थे जिस में आदमी बैठते ही धंस जाता है. बीच में कांच की बड़ी डिजाइनर सैंटर टेबल थी जिस पर मैडिकल की पत्रिकाएं पड़ी हुई थीं जो हिंदी भाषा में और कौमन मैन को सम?ा में आए, ऐसी भाषा में थीं. यहां डाक्टर की जगह, ज्यादातर बड़ा स्थान मरीज व उन के रिश्तेदारों के लिए था. उन की चैंबर और उस की छत छोटी थी जबकि सरकारी हौस्पिटल में उन के कक्ष में ऐग्जामिनेशन टेबल से ज्यादा उन की खुद की टेबल थी.

उन्होंने बाहर सरसरी तौर पर नजर डाली फिर अपने कक्ष में प्रवेश किया. कुछ समय बाद सिस्टर एक चार्ट पेपर ले कर अंदर आई, ‘सर, आप के आज के पेशेंट्स की ओपीडी लिस्ट है,’ पेपर मेज पर रखते हुए उस ने कहा.

‘कितने मरीज हैं?’

‘सर, 7 मरीज अभी हैं और 5 शाम को हैं,’ नर्स ने नाम के साथ बताया.

‘क्या सिर्फ इतने ही पेशेंट? डाक्टर को हैरतअंगेज आश्चर्य हुआ. इतने मरीज तो वे अपने चैंबर से वार्ड तक जातेजाते रास्ते में ही देख लेते थे. वहां उन की रोजाना ओपीडी 100 से ज्यादा ही थी,’ उन्होंने मन ही मन बुदबुदाते कहा.

‘डा. चांडक, आप ने आज तक सरकारी हौस्पिटल में ही अभी तक काम किया है. यह शायद प्राइवेट हौस्पिटल में आप का पहला अनुभव है.

आप को बुरा न लगे तो मैं कुछ महत्त्वपूर्ण बातें आप को बताना चाहता हूं,’ सूटेडबूटेड मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने उन से कहा. चपरासी दोनों के लिए कौफी रख कर गया.

‘यहां मरीज व उन के रिलेटिव्स को ज्यादा प्रश्न पूछने की आदत होती है क्योंकि हमारे ज्यादातर मरीज पढ़ेलिखे व संभ्रांत घर के होते हैं और यहां आने से पहले इंटरनैट में काफी कुछ सर्च कर के आते हैं. हमारा मूल उद्देश्य मरीजों की संतुष्टि है. जब तक वे प्रश्न पूछें उन्हें संतोषजनक जवाब देते रहना है. भले ही इस में आप को झल्लाहट हो, भले ही आप को अच्छा नहीं लगे. सर, यहां व सरकारी हौस्पिटल में यही महत्त्वपूर्ण अंतर है,’ मुख्य पब्लिक रिलेशन औफिसर ने कौरपोरेट हौस्पिटल की संस्कृति से परिचय कराया.

‘डाक्टर का मूल कर्तव्य दर्दी की संतुष्टि से ज्यादा दर्दी का दर्द तकलीफ मूलरूप से मिटाना होता है न कि दर्दी और उस के संबंधियों को खुश करना होता है,’ उन्होंने मन ही मन कहा पर आज पहला दिन था इसलिए उन्होंने बहस करने की जगह चुपचाप सुना.

पहला मरीज शहर के बाहर का था. अनेक अस्पतालों में उस का इलाज चल चुका था और कई डाक्टरों से सलाह ले चुका था पर ठीक नहीं हुआ. डा. चांडक ने उस की फाइल देखी और मरीज का परीक्षण किया. देखा कि मरीज लंबे समय से बीमार है. उस की जांच कर के उन्होंने एक टैस्ट के लिए लेबोरेटरी में उसे भेजा. लेबोरेटरी से डाक्टर का फोन आया और आश्चर्य के साथ बोला, ‘‘सर, सिर्फ एक ही टैस्ट?’’

‘बाकी सारे टैस्ट मरीज के किए हुए हैं,’ उन्होंने शांत मन से कहा.

‘वह बात आप की सही है, सर. पर यहां आए हर मरीज के सारे टैस्ट कराए जाते हैं, भले ही वह एक दिन पहले ही दूसरी जगह क्यों न कराए हों,’ किसी डा. नीरज ने यहां के सिस्टम को बताते हुए कहा.

2 घंटे बाद रिपोर्ट आई. उन्हें पता था कि रिपोर्ट पौजिटिव ही आएगी.

‘देखिए, आप को पेट की टीबी है. इसीलिए पेट लंबे समय से दर्द कर रहा है.

6 महीने दवा लेनी पड़ेगी, मैं 1 महीने की दवा लिखता हूं. आप चाहें तो यह दवा अपने शहर में सरकारी हौस्पिटल से भी ले सकते हैं. चाहें तो यहां महीने में एक बार आ कर मेरे से लिखा कर ले जा सकते हैं,’ उन्होंने पेपर पर दवा लिखते हुए दर्दी को औप्शन दिए.

‘धन्यवाद डाक्टर साहब. एक साल से परेशान हो गए थे, कोई पक्का निदान नहीं हो रहा था. अब तो हम आप से ही दवा लेंगे,’ मरीज को अभी तक दूसरे डाक्टर पर विश्वास नहीं था.

‘सर, आप को इस मरीज को ऐडमिट करना था,’ मैनेजर ने हलकी नाराजगी से कहा.

‘यह तो एक डाक्टर को तय करना है कि मरीज के साथ क्या करना चाहिए?’ उन्होंने गुस्से को दबा कर कहा.

डा. चांडक की ओपीडी दिनोंदिन बढ़ रही थी क्योंकि उन का निदान, टैस्ट और दवाई कम से कम. कोई बिना जरूरत के ऐडमिशन व टैस्ट नहीं.

इस कारण हौस्पिटल का स्टाफ तक अपनी जानपहचान वालों को डा. चांडक को बताने को कहता था. उन की ओपीडी तो बढ़ रही थी पर इस तुलना में हौस्पिटल में ऐडमिशन नहीं हो रहे थे. दूसरे टैस्ट बहुत ही कम हो रहे थे.

एक बार हौस्पिटल संचालक ने उन्हें बुलाया, ‘डा. चांडक, आप की ओपीडी काफी अच्छी हो गई है पर उन की तुलना में ऐडमिशन क्यों नहीं हो रहे हैं? अब आप को 3 महीने हो गए. हम सभी को टारगेट देते हैं. आप को अगले महीने यह टारगेट पूरे करने होंगे,’ कहते हुए एक प्रिंट पेपर उन की ओर बढ़ा कर कहा.

‘टारगेट? यह तो कंपनियां अपने सेल्समैन को देती हैं. यह कैसे संभव है कि पहले से ही बता सकते हैं कि किस मरीज को दवा देनी है कि किस को ऐडमिट करना है?’ उन्हें आज का दिन बहुत ही खराब लगा पूरी जिंदगी में.

जब वे कालेज में राउंड लेते थे तब 2 असिस्टैंट प्रोफैसर और रेजिडैंट डाक्टर उन के साथ झुंड की तरह चलते थे. उन का मरीज पर 1-1 वाक्य बोलना महत्त्वपूर्ण होता था. उन की जब क्लीनिकल क्लास लेते थे तब पिन ड्रौप साइलैंस होता था. वह माहौल यहां नहीं था. पूरी रात घर पर भी चिंतामग्न थे पर पहले महीने उन्हें फीस के रूप में 5 लाख से भी ज्यादा का चैक मिला जो उन की 3 महीने की सैलरी के बराबर थी तो उन्हें लगा कि क्यों उन के सारे साथी प्राइवेट की ओर भागते हैं.

‘सर, डाक्टर निशांत आप से मिलना चाहते हैं,’ रिसैप्शनिस्ट ने इंटरकौम पर कहा.

‘मैं यूरोलौजिस्ट हूं. मैं यहां 1 साल पहले काम करता था. अभी अपने शहर में खुद का हौस्पिटल शुरू किया है. यहां मेरा दोस्त राजेश आप के वार्ड में ही भरती है. बस, उस का डायग्नोसिस व प्रोग्नोसिस जानने आया हूं,’ अपना परिचय दे कर दोस्त की तबीयत के बारे में उन्होंने मैडिकल भाषा में पूछा.

उन्होंने अच्छी तरह से पूरा केस बताया और कब डिस्चार्ज करना है वह भी बताया. डाक्टर निशांत इतने सीनियर डाक्टर के संयम व सादगी से बहुत ही प्रभावित हुए. चाय पीतेपीते बातों ही बातों में चांडक ने हौस्पिटल के टारगेट के बारे में पूछा तो डाक्टर निशांत यह सुन कर हंसने लगे.

‘सर, इस हौस्पिटल में 200 करोड़ से भी ज्यादा निवेश हुआ है. ऊपर से हर महीने का मैंटेनैंस खर्च, 100 से ज्यादा सिक्योरिटी गार्ड्स, 200 से ज्यादा स्टाफ, 10-10 लिफ्ट और सैंट्रली वातानुकूलित एसी का लाखों रुपए का बिल, इन सब का अंतिम बो?ा मरीज पर ही पड़ता है.’

‘इतना सारा खर्च व मुनाफे के लिए न सिर्फ बहुत सारे मरीज बल्कि ढेर सारे ऐडमिशन, टैस्ट आदि भी चाहिए. इसलिए न चाहते हुए भी मैनेजमैंट को टारगेट देना ही पड़ता है और डाक्टर्स को वे टारगेट पूरे करने पड़ते हैं. नहीं तो हौस्पिटल चल ही नहीं पाएगा.’

‘ओहो,’ डाक्टर चांडक को प्राइवेट हौस्पिटल का अर्थशास्त्र समझ में आया.

डाक्टर चांडक मरीजों को भरती तो करते थे पर बिना जरूरत ऐडमिशन उन की आत्मा को गंवारा नहीं था. ऐसा नहीं था कि मरीज भरती के लिए मना करते थे या बिल देने से मना करते थे. ज्यादातर मरीज संभ्रांत घर के होते थे. साथ में लगभग सभी के पास मैडिक्लेम पौलिसी भी थी.

कालेज में भी उन्हें कई कंपनी वाले अच्छी औफर करते थे, खासकर दवा व टैस्ट के लिए पर उन्होंने वही किया जो सही था और मन को गंवारा था. इस कारण वे अपने जूनियर डाक्टर, स्टाफ व मरीजों में प्रिय थे. सब लोग दिल से उन का सम्मान करते थे.

जब पहले महीने उन्हें 5 लाख से भी से ज्यादा राशि का चैक मिला, जिस में इंसैंटिव नहीं था तो वह फूले नहीं समाए. सरकार में 25 साल की नौकरी के बाद भी उन की सैलरी प्राइवेट हौस्पिटल से कई गुना कम थी. अब उन्हें समझ में आया कि ज्यादातर डाक्टर साथी क्यों प्राइवेट की ओर रुख करते हैं. शायद घर वाले भी इसलिए प्राइवेट करने को कहते थे. भविष्य में यह चैक की राशि बढ़ने वाली थी, रौकेट की तरह.

पर वे येनकेनप्रकारेण टारगेट पूरा करने में सक्षम नहीं थे. इसीलिए ऐडमिनिस्ट्रेशन का उन पर दबाव बढ़ता ही जा रहा था. वे धर्मसंकट में फंस गए. ढेर सारी प्राइवेट कमाई या फिर आत्मा की संतुष्टि. इस कारण वे तनाव में रहने लगे और उन का सदा हंसमुख निर्मल चेहरा चिंताग्रस्त हो गया.

‘पापा, क्या बात है, आजकल बहुत तनाव में लग रहे हो?’ बेटे ने पास आ कर उन से आदरभाव से पूछा.

‘हां बेटा, बहुत चिंताग्रस्त हूं,’ फिर उन्होंने अपने मन का द्वंद्व बताया, ‘समझ में नहीं आ रहा है, बेटा कि मैं क्या करूं?’

‘पापा, आप हमेशा ही कहते हो कि जो दिल को सही लगे वही करो. दिमाग का क्या है वह तो स्वार्थी है, हमेशा नफेनुकसान के बारे में सोचता है. इसलिए आप ने मुझे बोर्ड मैरिट में आने के बाद भी साइंस की जगह मेरा मनपसंद कौमर्स विषय लेने दिया, सब के साइंस के जोर देने पर भी मैं डाक्टर का बेटा हूं तो मुझे डाक्टर बनना चाहिए.’

‘पापा, आप जो भी निर्णय लेंगे, हम सब आप के साथ हैं,’ बेटे ने पिता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘थैंक्यू बेटा,’ बेटे ने उन की मन की गांठ खोल दी.

‘दूसरे दिन सुबह ही कालेज में पहुंच गए. डीन सर उन के 2 साल सीनियर थे, मैडिकल स्टूडैंट के समय में. उन्होंने आने का कारण पूछा तो बोले,’ मैं कालेज वापस जौइन करना चाहता हूं, उन्होंने धीरे से जैसे शर्मिंदगी के भाव से कहा.

‘अरे वापस क्यों,’’ मुसकराते हुए डीन सर ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारा इस्तीफा सरकार ने मंजूर ही कब किया था? यह देखो सरकार का कल ही पत्र आया है जिस में लिखा है कि सरकार में डाक्टरों की भारी कमी है और प्रोफैसरों की तो और भी ज्यादा कमी है और प्रोफैसर के कारण मैडिकल कालेज को हर साल 3 रैजिडैंट डाक्टर्स की सीट्स मिलती हैं जिस के कारण सरकार को विशेषज्ञ डाक्टर मिलते हैं. इसलिए उन का इस्तीफा नामंजूर किया जाता है,’ पत्र पढ़ कर वे बहुत खुश हुए.

‘सर, मैं कब जौइन करूं?’ उन्होंने झोंपते हुए पूछा.

‘कल ही आ जाओ. वापस आना है तो देरी क्यों?’ कहते हुए उन्होंने मुसकराते हुए कौफी मंगवाई.

‘डा. चांडक, मनुष्य मिट्टी जैसा होता है. इसलिए तुम उस माहौल में रह नहीं सके,’ डीन सर ने वैसे ही समझाया जैसे पहले दिन मैडिकल कालेज में ऐडमिशन के समय समझाया था कि जितना प्रैक्टिकल सीखोगे उतना ही जिंदगी में अच्छे डाक्टर बनोगे.

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