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समाज सेवक : बृजलाल यादव ने कैसे जीता प्रधानी का चुनाव

बृजलाल यादव के लिए प्रधानी का चुनाव जीतना इतना आसान नहीं था. ठाकुरों से मिल कर ब्राह्मण यादवों पर भारी पड़ रहे थे. दलितों के वोट अपनी बिरादरी के अलावा किसी और को मिलने की उम्मीद नहीं थी, इसलिए कल्पनाथ गांव के सभी अल्पसंख्यकों को रिझा कर चुनाव जीतने का गुणाभाग लगा रहा था.

बृजलाल यादव किसी भी कीमत पर चुनाव नहीं हारना चाहता था, इसलिए वह हर हथकंडा अपना रहा था. अगर उसे ठाकुरों और ब्राह्मणों का समर्थन मिल जाए, तो उस की जीत पक्की थी. प्रभाकर चौबे भी अपनी जीत पक्की समझ कर जम कर प्रचारप्रसार कर रहा था.

बृजलाल बचपन से ही छोटेमोटे अपराध किया करता था. बलिया से शाम को दिल्ली जाने वाली बस में कारोबारियों की तादाद ज्यादा होती थी. उन को लूटने में मिली कामयाबी से बृजलाल का मनोबल बढ़ा, तो वह गिरोह बना कर बड़ी वारदातें करने लगा. इसी बीच बृजलाल की पहचान मोहित यादव से हो गई थी. जब से वह मोहित का शागिर्द बन गया था, तब से लोगों के बीच में उस की पहचान एक गुंडे के रूप में होने लगी थी.

मोहित यादव की भी इच्छा थी कि बृजलाल प्रधानी का चुनाव जीत जाए, इसलिए वह कभीकभार उस के गांव आ कर उस का कद ऊंचा कर जाता था. समाज में मोहित यादव की इमेज साफसुथरी नहीं थी. उस के ऊपर हत्या, लूट वगैरह के तमाम मुकदमे चल रहे थे, पर राजनीतिक दबाव के चलते जिस पुलिस को उसे गिरफ्तार करना था, वह उस की हिफाजत में लगी थी.

रोजाना शाम को बृजलाल का दरबार लग जाता था. एक घूंट शराब पाने के लालच में लोग उस की हां में हां मिला कर तारीफों की झड़ी लगा देते.

जैसेजैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही थी, वैसेवैसे लोगों के भीतर का कुतूहल बढ़ता जा रहा था. आज बृजलाल को आने में काफी देर हो रही थी. उस के घर के बाहर बैठे लोग बड़ी बेसब्री से उस का इंतजार कर रहे थे. गरमी का मौसम था. बरसात होने के चलते उमस बढ़ गई थी. जगन बोला, ‘‘बड़ी उमस है. अभी पता नहीं, कब तक आएंगे भैया?’’

‘‘आते होंगे… उन के जिम्मे कोई एक ही काम थोड़े ही न हैं. उन को अगले साल विधायक का चुनाव भी तो लड़ना है,’’ रामफल ने खीसें निपोरते हुए कहा.

सुबरन से रहा नहीं गया. वह रामफल की हां में हां मिलाते हुए बोला, ‘‘विधायक का चुनाव जिता कर भैया को मंत्री बनवाना है.’’

उन सब के बीच बैठे बृजलाल के पिता राम सुमेर इस बातचीत से मन ही मन खुश हो रहे थे. एकाएक जब तेज रोशनी के साथ गाड़ी की ‘घुर्रघुर्र’ की आवाज लोगों के कानों में पड़ी, तो वे एकसाथ बोले, ‘लो, भैया आ गए…’

बृजलाल जब उन सब के सामने आया, तो सभी लोग खड़े हो गए. जब वह बैठा, तो उस के साथ सभी लोग बैठ गए. बृजलाल ने लोगों से पूछा, ‘‘आज आप लोगों ने क्याक्या किया? प्रचारप्रसार का क्या हाल है? प्रभाकर और कल्पनाथ के क्या हाल हैं?’’

बृजलाल के इन सवालों पर संदीप तिवारी ने हंसते हुए कहा, ‘‘दुबे और पांडे के पुरवा से तो मैं सौ वोट जोड़ चुका हूं. दलितों में कोशिश चल रही है.’’ ‘‘दलितों में सोमारू की ज्यादा पकड़ है, आज मैं उस से मिला था. वह कह रहा था कि अगर बृजलाल भैया प्रधानी जीतने के बाद मुझे अपना सैक्रेटरी बना लें, तो मैं अपनी पूरी बस्ती के वोट उन्हें दिलवा दूं,’’ थोड़ा संजीदा होते हुए जब जगन ने कहा, तो बृजलाल बोला, ‘‘तो उसे बुलवा लिए होते, मैं उस से बात कर लेता.’’

‘‘ठीक है, मैं कल आप से मिलवा दूंगा.’’

फिर शराब की बोतलें खुलीं, नमकीन प्लेटों में रखी गई. सभी लोगों ने छक कर शराब पी और झूमते हुए चले गए. कल्पनाथ को भी अपनी जीत का पूरा भरोसा था. जहां एक ओर वह छोटी जातियों के लोगों की तरक्की की लड़ाई लड़ रहा था, वहीं दूसरी ओर प्रभाकर चौबे गांव की तरक्की के साथसाथ सभी की तरक्की की बात कर अपनी जीत के लिए वोट करने को कह रहा था.

कई गुटों में बंटे ब्राह्मण प्रभाकर का साथ खुल कर नहीं दे पा रहे थे. प्रभाकर को ठाकुरों का ही भरोसा था. ब्राह्मणों की आपसी लड़ाई का फायदा बृजलाल को मिल रहा था. चुनाव हुआ. सोमारू ने अपनी बस्ती वालों के ही नहीं, बल्कि अपनी पूरी बिरादरी को भरोसा दे कर बृजलाल को वोट दिलाने की पुरजोर कोशिश की.

चुनाव में धांधली भी हुई. शातिर दिमाग के बृजलाल ने धन, बल और फर्जी वोटों का खूब इस्तेमाल किया और चुनाव जीत गया. शाम से जश्न शुरू हुआ, तो रात के 12 बजे तक चला. शराब और मांस के सेवन से वहां का माहौल तामसी हो गया था. लोगों की भलाई, गांव की तरक्की, भरोसा देने वाला बृजलाल अब अपने असली रूप में आ गया था. समाजसेवा के नाम पर वह ग्राम सभा की तरक्की के लिए आए रुपए को दोनों हाथ से लूटने लगा था. सारे काम कागजों तक ही सिमट कर रह गए थे.

सोमारू की तो लौटरी खुल गई थी. ग्राम सभा की जमीन पर कब्जा करना, सरकारी योजना से तालाब खुदवा कर अपने परिवार या जानकार को मछली पालन के लिए दे देना, गांव की तरक्की के लिए आए पैसे को हड़प लेना उस की आदत बन गई थी.

मनरेगा के तहत कार्डधारकों को काम पर न लगा कर वह एक तालाब जेसीबी मशीन से खुदवा रहा था. इस की शिकायत जब ऊपर गई, तो जांच करने वाले आए और रिश्वत खा कर रात को जेसीबी चलवाने की सलाह दे कर चले गए. इस तरह से ग्राम पंचायत से संबंधित सभी अफसरों व मुलाजिमों को साम, दाम, दंड और भेद के जरीए चुप करा कर सारी योजनाओं का रुपया डकारा जा रहा था.

सोमारू बृजलाल का विश्वासपात्र ही नहीं, नुमाइंदा बन कर सारा काम कर रहा था. अपनी बिरादरी वालों व सभी लोगों से धोखा कर के विधवा पैंशन, वृद्धावस्था पैंशन, आवासीय सुविधा वगैरह सभी योजनाओं और कामों में जो भी कमीशन मिलता था, उस में सोमारू का भी हिस्सा तय रहता था.

22वीं सदी की शादी : तो क्या अब इस तरह होंगी शादियां

‘‘यह लो जी, हमारा लड़का आ गया,’’ मेरी तरफ इशारा कर के मेरी मां बोलीं. मैं हाथ में चाय की ट्रे थाम कर नपेतुले कदमों से आ रहा था. लड़की वालों ने भरपूर नजरों से मुझे घूरा, तो मेरे हाथपैर कांप उठे.

‘‘बेहद सुशील लड़का लगता है,’’ लड़की की भाभी मुसकराते हुए बोलीं. मैं ने नजाकत से अपनी नजरें नीची कर लीं.

‘‘चलो भाई, लड़के और लड़की को कुछ देर अकेले में बातें कर लेने दो,’’ लड़की की चाची सब को उठाते हुए बोलीं. मेरा दिल धकधक कर रहा था.

सब के वहां से हटते ही लड़की बोली, ‘‘तेरा धंधा क्या है बीड़ू?’’

‘‘देखिए, इस तरह की टपोरी जबान में बातें करते हुए आप अच्छी नहीं लगतीं,’’ मैं नजरें झुकाए अंगूठे से जमीन को कुरेदते हुए बोला.

‘‘ऐ… 19वीं सदी की शरमाती हीरोइन के माफिक नहीं, अपुन से आंख मिला कर बात कर. अपुन 22वीं सदी की लड़की है. तू क्या 20वीं सदी का मौडल ढूंढ़ रहा है?’’ लड़की तो मानो मेरी मिट्टी पलीद करने पर ही तुली थी. मगर मेरे

मन में तो लड्डू फूट रहे थे, ‘वह रमेश… अपनी बीवी की बहादुरी के किस्से सुनासुना कर कितना बोर करता था. उस की बीवी उसे शादी के मंडप से उठा कर भागी थी, क्योंकि रमेश का बाप उस की शादी अपने दोस्त की लड़की से करवा रहा था, जो वजन में उस से चौगुनी थी. अगर रमेश की बीवी इतनी हिम्मती थी, तो उस ने रमेश को शादी के मंडप तक पहुंचने ही क्यों दिया?’

अभी मैं कुछ और सोचता कि तभी उस लड़की की तेज आवाज ने मुझे यादों से वर्तमान में ला पटका, ‘‘अरे ओ फ्यूज बल्ब, यह बारबार तेरी लाइट किधर गुल हो जाती है?’’

मैं मन ही मन उस लड़की की इस अदा पर फिदा हुआ जा रहा था. साथ ही, मैं यही सोच रहा था कि अगर मर्द की मर्दानगी हो सकती है, तो औरत की औरतानगी क्यों नहीं हो सकती?

‘‘भाई लोगो, अंदर आ जाओ. अपुन को लड़का बहुत ही पसंद है. अभी अपुन भी ओल्ड मौडल का बड़ाच शौकीन है क्या… एक घंटा हो गया, अभी तक इस बीड़ू ने अपुन से नजर तक नहीं मिलाई. अबे ओए 1856 की मर्सिडीज, अभी भी अपुन कहरेला है कि अपन के थोबड़े पर एक निगाहीच मार. बाद में अपुन को लफड़ा नहीं मांगता,’’ वह लड़की बोली.

मैं ने अदा से नजरें और झुका लीं, मानो ऐसा करने से जो नंबर बाकी रह गए होंगे, वे भी मिल जाएंगे और मेरा स्कोर सौ फीसदी हो जाएगा.

‘‘बधाई हो जी, हमें आप का लड़का बहुत पसंद है. क्या सब्र है इस में, वरना 3 लड़कों ने तो हमारी लड़की की डांट से पैंट गीली कर दी थी. यह लो जी, मुंह मीठा करो,’’ लड़की की मां ने मेरी मां के मुंह में मिठाई का टुकड़ा जबरन ठूंसते हुए कहा.

मैं शरमा कर अपनी कमीज का कौलर दांतों में दबा कर तेजी से कमरे की ओर भागा. फटाफट शादी का मुहूर्त निकला. आखिरकार वह घड़ी भी आ गई, जब मैं बाबुल का घर छोड़ कर अपनी प्रियतमा के घर जाने लगा.

जी हां, यह 22वीं सदी की शादी थी. मुझे सजासंवार कर सेज कर बिठा दिया गया. पहले दुलहन संजीसंवरी घूंघट निकाले अपने प्रियतम का इंतजार करती थी, मगर 22वीं सदी में दूल्हा सजसंजवर कर सेहरा मुंह पर लगाए अपनी दुलहन का इंतजार करता है कि कब वह आए और घूंघट यानी सेहरा उठाए और अपने दूल्हे का दीदार करे.

मेरे इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं. आखिरकार मेरी दुलहनिया आ गई. क्या धमाकेदार ऐंट्री थी. दरवाजा ऐसे खोला, मानो तोड़ देने का इरादा हो. साथ में 2 लड़कियां और… मैं तो घबरा ही गया.

‘‘जानेमन…’’ वह पलंग पर बैठते हुए बोली, ‘‘क्या सेहरा लगा कर बैठा है,’’ इतना कह कर उस ने एक हाथ मारा, तो मेरा सेहरा gएक फुट दूर जा कर गिरा.

‘‘आई लव यू,’’ उस ने मुझे कहा, मगर उस की नजरें तो अपनी सहेली से बातें कर रही थीं.

‘‘क्या जी…’’ मैं ने अदा से शरमाते हुए कहा, ‘‘आप 2 बौडीगार्ड साथ ले आईं और अब सुहागिन रात पर मेरे बदले अपनी सहेली को ‘आई लव यू’ कह रही हैं. क्या आप फिल्म ‘फायर’ की शबाना…’’

‘‘ऐ ढक्कन, अपुन तेरे को ही ‘आई लव यू’ बोल रही है. तू कहां गलत ट्रैक पर जा रहा है…’’

‘‘मगर, आप तो अभी भी अपनी सहेली को ही देख रही हैं. ‘आई लव यू’ भी तो आप ने उस से ही कहा था.’’

‘‘अरे अक्ल के दुश्मन, तभी तो जिस दिन मैं तुम्हें देखने आई थी, तो मैं ने तुझ से कहा था कि मुझे ठीक से देख ले. तुम्हें अभी तक पता नहीं चला कि मैं ‘लुकिंग लंदन टाकिंग टोक्यो’ हूं.’’

‘‘क्या… नहीं… आप… तुम… ऐसी हो. मैं तो लुट गया… बरबाद हो गया…’’ मैं ने अपना हाथ दीवार पर मारते हुए कहा.

द लास्ट काल :ए सेंटीमेंटल फूल

लेखिका – अनुपमा श्रीवास्तव 

ट्रिनट्रिन, ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो 343549, तुहिन स्पीकिंग…’’ ‘‘आहा, तो आप ही हैं. मुझे यकीन था, फोन आप ही उठाएंगे.’’ ‘‘तुम फिर…’’ ‘‘हां, मैं फिर. क्या आप को मेरी आवाज पसंद नहीं है?’’ ‘‘देखो…’’ ‘‘क्या देखूं? मिस्टर स्मार्ट, सितम तो यही है कि फोन में कुछ दिखाई नहीं देता, सिर्फ और सिर्फ सुनाई देता है.’’ ‘‘देखो, तुम जो भी हो, मुझे क्यों परेशान करती हो? तुम्हारे घर वाले…अगर उन्हें खबर हो गई तो?’’ ‘‘खबर होती है तो हो जाए. मैं किसी से नहीं डरती. मेरे पापा यहां रहते नहीं, आर्मी में हैं और अम्मी को समाज सेवा से फुरसत नहीं. अकेली औलाद हूं जनाब, सरआंखों पर बिठाया जाता है मुझे. हर जिद पूरी की जाती है मेरी.

‘‘पापा ने टेलीफोन का एक कनेक्शन अलग से सिर्फ मेरे लिए लगवाया है ताकि मैं जब चाहूं उन से बात कर सकूं. पापा हर रात फोन करते हैं. मेरी पढ़ाई का हाल पूछते हैं, तबीयत का हाल पूछते हैं, ढेर सारी हिदायतें देते हैं, बहुत फिक्र करते हैं मेरी. वह यही चाहते हैं कि मैं खुश रहूं, हमेशा…अच्छा, यह सब छोडि़ए. कुछ अपने बारे में बताइए. क्या आप भी मेरी ही तरह इकलौते हैं? कौन से कालिज में पढ़…उफ, फिर काट दिया.

लानत…’’ ट्रिनट्रिन… अगले दिन फिर फोन की घंटी बजती है. दूसरी तरफ से फोन उठाए जाने पर आवाज आती है, ‘‘जनाब को मेरा सलाम, लेकिन सुनिए, आप को आप के घर वालों की कसम, आइंदा अगर मेरा फोन काटा तो.’’ ‘‘देखो…’’ ‘‘क्या देखूं? कल से कितनी बार यह नंबर डायल किया. कभी कोई उठाता है, कभी कोई. मेरी हालत पर जरा भी तरस नहीं आता आप को? अकेली हूं मैं. दोस्ती करना चाहती हूं आप से. फोन से निकल कर काट नहीं खाऊंगी आप को…’’ फोन से दूसरी तरफ जोरदार ठहाके की आवाज आती है.

‘‘अच्छा, तो आप हंस भी लेते हैं. क्या कविता का भी शौक रखते हैं? वह कविता पढ़ी है आप ने, ‘तुम नहीं तुम्हारी आवाज खींचती है मुझे तुम तक…’ उफ, दिल के अनकहे जज्बातों को लफ्जों की नाजुक डोर में इस कदर इतनी खूबसूरती से कैसे पिरो सकता है कोई?’’ ‘‘पगली हो तुम.’’ ‘‘हां, आप की पगली…’’ ‘‘तुम मेरे बारे में जानती ही क्या हो?’’ ‘‘कुछ जानने की जरूरत भी क्या है? क्या इतना ही काफी नहीं तुहिन कि मैं आप से बेइंतहा…’’ ‘‘पागल मत बनो लड़की. मैं तुम्हें समझा रहा हूं. तुम्हारी उम्र पढ़नेलिखने की है और मैं तुम से बहुत बड़ा हूं. शायद तुम से दोगुनी उम्र का. ’’ ‘‘झूठ…सरासर झूठ… एकदम झूठ.’’

‘‘झूठ नहीं, बिलकुल सच, एक बेटी भी है मेरी. तृषा, तीसरी कक्षा में पढ़ती है.’’ ‘‘फिर झूठ. देखिए, आप चाहे जितनी कोशिश कर लें, मैं आप के इस झूठ में कतई नहीं आने वाली. हां, ठीक है कि मैं ने बहुत लोगों से बात नहीं की, लेकिन आवाज से उम्र का अंदाजा तो लगा ही सकती हूं न.’’ ‘‘देखो, अगर तुम इस तरह की बातें करोगी तो मैं फोन काट दूंगा.’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, इट इज 343549.’’ ‘‘आह, लगता है आज तकदीर मेहरबान है इस नाचीज पर. आज पेपर भी अच्छा हुआ और फोन मिलाया तो पहली ही बार में आप ही ने उठा लिया. कहिए, कैसे हैं आप?’’ प्रत्युत्तर में एक खामोशी. ‘‘नहीं बोलेंगे? चलिए मैं ही बोलती हूं. आप अच्छे हैं. बहुत अच्छे. बेहद जहीन और नेकनीयत इनसान हैं आप.

यकीन मानिए, मैं ने कभी नहीं सोचा था कि फोन डायरेक्टरी से उलटेसीधे नंबर मिलातेमिलाते मेरी मुलाकात आप जैसे शख्स से हो जाएगी. चुप क्यों हैं आप? क्या कोई है वहां पर…’’ ‘‘नहीं…’’ ‘‘तो आप कुछ बोलते क्यों नहीं? कुछ कहिए न. अगर मेरी यह जादू की पुडि़या आप के पास भी होती तो आप भी पटपट बोलने लगते.’’ ‘‘जादू की पुडि़या? कौन सी जादू की पुडि़या?’’ ‘‘उफ, तुहिन छोडि़ए उसे. और कुछ कहिए न. प्लीज, कुछ भी.’’ ‘‘जो कहूंगा मानोगी तुम?’’ ‘‘हां, पक्का.’’ ‘‘तो मुझे फोन करना छोड़ दो. मैं अपनी और तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा हूं.’’ ‘‘इसे आप भलाई कहते हैं, इस से अच्छा होता कि आप मुझ से छत से कूद जाने के लिए कहते.

आप नहीं जानते, मैं आप से बात किए बिना, आप की आवाज सुने बिना जी नहीं सकती. जब आप बोलते हैं तो मेरे कानों में जैसे जलतरंग बज उठती है और मैं डूबती चली जाती हूं आप की आवाज की कशिश में. आप का एकएक लफ्ज…उफ, क्या कहूं? कभी सूरज की तपिश सा, कभी शाम की कशिश सा. कभी दिन की हलचल सा, तो कभी रात की गहरी खामोशी सा. जाने कितनेकितने रंग भरे होते हैं आप के एकएक लफ्ज में, शायद आप समझते होंगे. यह सब क्या होता है? क्यों होता है… ‘‘तुहिन, आप जानते हैं, जब मैं अकेली होती हूं…एकदम तनहा. तभी दूर टिमटिमाती शमा सी आप की आवाज मेरे अंधेरे दिल के करीब आ बैठती है. मेरा हाथ थाम लेती है. आह, आप की आवाज…कभी खिड़की पर झूलती बोगनवेलिया के सफेद गुच्छों में सिमटती जाती है और कभी रात की गहरी स्याही से ढके आकाश की बांहों में झूलते उस उजले चांद सी धीमेधीमे पास बुलाती है. लेकिन खयाल, सिर्फ खयाल… और जब ये खयाल टूटता है तो मेरी तनहाई की हकीकत और भी खौफनाक हो जाती है. उस समय मेरी उंगलियां खुद ब खुद फोन पर दौड़ने लगती हैं.

‘‘आप सुन रहे हैं न…शायद आप सुनना नहीं चाहते. मेरी बातों का कोई मतलब भी नहीं आप के लिए. मैं आगे कुछ भी नहीं कहूंगी. लेकिन एक बात जरूर सोचिएगा. आप के पास सबकुछ हो, आलीशान मकान, नौकर- चाकर, हर तरह की लग्जरी…लेकिन ये बेजान चीजें क्या उस वक्त आप के कंधे पर हाथ रख कर आप के साथ होने का दिलासा दे सकती हैं, जब अकेलेपन से टूट कर आप का दिल आंखों के रास्ते पिघलपिघल कर बह जाना चाहता हो…’’ ‘‘तुम मुझे गलत समझ रही हो. पत्थर दिल नहीं हूं मैं. तुम्हारे जज्बात समझ सकता हूं. अच्छा, नाम बताओगी अपना?’’ ‘‘जी, गुलमोहर.’’ ‘‘गुलमोहर. ओह, कितना सुंदर नाम है. अपने नाम का मतलब बता सकती हो तुम…सूरज की गरमी से जब हरेक शाख झुलस रही होती है. उस वक्त अपने चटख रंग और मदमाते रूप का जादू बिखेरता आसमान की ओर शान से देखता मुसकरा रहा होता है गुलमोहर. दुष्यंत कुमार की गजल सुनी है, ‘जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए…’’’

‘‘मेरी रूह कांप रही है तुहिन, क्या कहूं आप से? मेरे नाम का मतलब वाकई इतना खूबसूरत होता है…या आप ने उसे इतना खूबसूरत बना दिया है? तुहिन, कुछ और कहिए न.’’ ‘‘कुछ कहूं…सुनोगी तुम? गुलमोहर, मैं चाहता हूं कि तुम सचमुच गुलमोहर बनो…इनसान वह है जो हालात से लड़ना जानता है, जो अंधेरों को रोशनी बनाना जानता है. भटको मत गुलमोहर. हौसला रखो, अपनी मंजिल को देखो.’’ ‘‘अपनी मंजिल को ही तो देख रही हूं तुहिन. मेरी मंजिल, आप के 3 लफ्ज…’’ ‘‘पागल हो तुम. जस्ट इंपौसिबिल…’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, इज देयर तुहिन? उफ, फिर वही किलिंग सायलेंस…बट नो प्राब्लम. आप भले ही खामोश रहें लेकिन मैं ने कहा न कि मैं आप की खामोशी भी सुन सकती हूं. आज इतनी सुबहसुबह आप को डिस्टर्ब कर रही हूं. क्या करूं, रातभर नींद ही नहीं आई.

जाने क्याक्या सोचती रही. क्याक्या बुनती रही तुहिन, कल आप ने जो कुछ कहा उन बेशकीमती लफ्जों को मैं दिल में हमेशा महफूज रखूंगी. उस के बदले मैं क्या दूं आप को? कुछ कहना चाहती हूं, सुनेंगे आप? ‘‘कल रात तनहाई में उभरा एक खयाल. खयालों में …कोई एक ताबिंदा पेशानी, कुछ घनेरी अलकें दो पलकें दो होंठ और एक चेहरा कल…खयालों में. न कोई सिलवट न शिकन न कोई एहसास न चुभन, बस… थोड़ी हया, थोड़ा गुमान और एक चेहरा. कल…खयालों में. बहुत देर तक बहुत दूर तक खयाल, बुनते रहे यादों का दरीचा… खामोश सुनते रहे, आवाज, अपने ही गुमान की… फिर… बाकी न रहा कुछ, न वो. न मैं. रह गई तनहाई. …बस तनहाई. इस से ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी तुहिन. अब सिर्फ इंतजार करूंगी, रखती हूं.’’ ट्रिन, ट्रिनऽऽऽ. ‘‘हैलो? तुहिन, मैं तृप्ति.’’ ‘‘तृप्ति, इस समय…’’ ‘‘मुझे कुछ बात करनी है आप से. कुछ कहना है.’’ ‘‘उफ, बातें घर पर भी हो सकती हैं तृप्ति. आराम से.’’ ‘‘नहीं तुहिन. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं कि आप की नजरों में देखते हुए आप से यह प्रश्न कर सकूं. डरती हूं, अगर उन में मुझे वह दिख गया जो मैं देखना नहीं चाहती तो मैं मर जाऊंगी तुहिन. मुझे गलत मत समझना. मैं आप पर पूरा भरोसा करती हूं, अपने से भी ज्यादा. लेकिन वह फोन… काश, मैं ने फोन न सुना होता.

मैं कुछ नहीं पूछूंगी, वह कौन है? कैसी है? आप उसे कैसे और कब से जानते हैं? लेकिन तुहिन, मुझे सिर्फ इतना बता दीजिए. अगर कुछ है. थोड़ा सा भी, तो विश्वास कीजिए आप की खुशी के लिए मैं आप से…’’ ‘‘तुम रो रही हो तृप्ति? क्या तुम्हें वाकई लगता है कि मैं…मेरी बात सुनो तृप्ति. मैं ने कई बार तुम से कहना चाहा, तुम्हें बताना चाहा, लेकिन हर बार एक डर ने मुझे रोक दिया. पता नहीं तुम इस सब का क्या मतलब निकालतीं? कहीं मैं तुम्हें खो न दूं इसलिए मैं भीतर ही भीतर घुटता रहा. मैं उसे ठीक से जानता तक नहीं तृप्ति. न कभी उसे मिला, न देखा. हां, नाम जरूर जानता हूं उस का, गुलमोहर. अमीर मांबाप की इकलौती औलाद है.

पता नहीं उसे हमारा नंबर कहां से मिल गया? शायद डायरेक्टरी से. यही बताया था उस ने. वह पागल लड़की है तृप्ति. एकदम भावुक और भावुक भी नहीं, मूर्ख, ए सेंटीमेंटल फूल. ‘‘वह यही समझती है कि मैं कोई टीनएजर हूं. उसी की उम्र का. कालिज में पढ़ने वाला. मैं ने उसे साफसाफ बताया. बहुत समझाया. डांटा भी. लेकिन वह समझना ही नहीं चाहती. फोन पर जाने क्याक्या कहती है. फोन काटता हूं तो कसम दे कर रोक देती है. ‘‘तृप्ति, जब से यह फोन का सिलसिला शुरू हुआ है, मैं अपराधबोध से घुटता रहा हूं. कहीं न कहीं मैं गलत तो कर ही रहा हूं. तुम्हारे अतिविश्वास के साथ भी और उस के साथ भी. मैं तुम्हें कोई सफाई नहीं दे रहा हूं. तुम्हारे विश्वास के बल पर केवल अपना सच कहा है मैं ने, अब तुम खुद फैसला करो कि तुम्हें क्या करना है? क्या समझना है…’’ ‘‘तुहिन, समझ में नहीं आता. क्या कहूं. कैसे कहूं.

ओस की बूंदों के नीचे दबे किसी पत्ते को देखा है आप ने? किसी फूल की नाजुक पंखड़ी को जब तुहिन बिंदु आच्छादित कर लेते हैं तो उन के नीचे उन का अपना आकार और रूप अस्पष्ट सा हो जाता है. लेकिन तुहिन, बिंदु चाहे फूल पर आ कर ठहरें या घास पर, उन का अपना रूप, अपना आकार हमेशा उतना ही स्पष्ट और पारदर्शी रहता है…’’ ‘‘मैं यह कैसे भूल गई तुहिन कि आप भी तुहिन हो. अपने अस्तित्व से औरों को प्रभावित करने वाले. आप कोई भूल कर ही नहीं सकते तुहिन. आप की पारदर्शिता को कोई छू ही नहीं सकता. मुझे माफ करोगे तुहिन? क्योंकि कहीं न कहीं मैं भी वही हूं. उसी के जैसी पागल और भावुक. ए सेंटीमेंटल फूल.’’ ‘‘तृप्ति…’’ ‘‘कुछ मत कहिए तुहिन. मैं समझ सकती हूं आप को भी, उस को भी. मैं ने मनोविज्ञान पढ़ा है तुहिन. इस उम्र के नाजुक मोड़ों पर आत्मीयता की खास जरूरत होती है. एक आवेग होता है इस उम्र में. एक भावनात्मक उतारचढ़ाव. मार्गदर्शन की, संतुलन की, स्नेह की और सहारे की सब से ज्यादा जरूरत होती है इस उम्र को. शायद इसी के अभाव में वह भटक रही है, वह गलत राह पर भी बढ़ सकती है तुहिन.

हमें उस की मदद करनी चाहिए. सोचिए तुहिन, कल हमारी तृषा भी उम्र के इसी मोड़ पर खड़ी होगी… आप उस से बात कीजिए तुहिन. उसे समझाइए. रहा सवाल फोन नंबर का, तो वह एक्सचेज से पता चल जाएगा.’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, क्या मैं गुलमोहर से बात कर सकता हूं.’’ ‘‘जी, गुलमोहर बेबी तो कालिज गई हैं.’’ ‘‘तो क्या उन की मां से बात हो सकती है?’’ ‘‘मैडम से…ठहरिए देखता हूं.’’ ‘‘हैलो, मिसिज खान स्पीकिंग. हू इज देयर?’’ ‘‘नमस्कार. मेरा नाम तुहिन है. मैं एक जर्नलिस्ट हूं.’’ ‘‘ओह, अच्छा तो आप मेरा इंटरव्यू लेना चाहते हैं…’’ ‘‘जी नहीं, दरअसल, मुझे आप से गुलमोहर के बारे में कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’ ‘‘गुलमोहर के बारे में, पर आप उसे कब से जानते हैं?’’ ‘‘लगभग 3 महीने से. या तब से… जब से उस ने मुझे फोन करना शुरू किया. मैडम, मैं बड़ी हिम्मत जुटा कर आप से बात कर रहा हूं. प्लीज, गलत मत समझिएगा मुझे. मैं ने काफी कोशिश की कि गुलमोहर ही समझ जाए लेकिन वह कुछ समझना ही नहीं चाहती या शायद मैं ही उसे समझा नहीं पाया. लेकिन आखिर में समझना तो उसे ही होगा न.

‘‘पता नहीं मुझे ये सब आप से कहना चाहिए या नहीं, लेकिन मिसेज खान, क्या आप को नहीं लगता कि आप गुलमोहर के साथ कुछ गलत कर रही हैं? पैसा, आजादी, तमाम सुखसुविधाएं. ये सब चीजें उसे वह नहीं दे सकतीं जो उसे चाहिए…आप का साथ, आप का प्यार, आप का मार्गदर्शन. ‘‘आप की और आप के पति की बिजी लाइफ ने उसे बिलकुल अकेला कर दिया है. वह छटपटा रही है. कैसे भी, किसी भी तरह, किसी का भी हाथ थाम कर वह अकेलेपन की गहरी खाई से बाहर आ जाना चाहती है. वह नादान शायद यह भी नहीं समझती कि उस की यह कोशिश उसे बुराई और बदनामी के कहीं अधिक गहरे अंधेरों में फेंक सकती है. ‘‘उस दिन रात के करीब साढ़े 10 बजे थे, जब उस का पहला फोन आया. मेरी आवाज सुन कर उस ने जाने क्या अंदाजा लगाया. जाने क्या समझा…उसे लगता है कि मैं उस का हमउम्र हूं, कालिज में पढ़ने वाला, स्मार्ट, इंटैलीजेंट, इमोशनल. बहुत कुछ उस के सपनों के राजकुमार जैसा…

‘‘उस दिन मुझे अजीब जरूर लगा लेकिन यों ही समझ कर मैं उसे भूल गया. तीसरे या चौथे दिन उस ने मुझे फिर फोन किया. वह बोलती रही, मैं सुनता रहा. मेरी इसी खामोशी को शायद मेरी स्वीकृति समझ लिया उस ने. उस के बाद लगभग हर रोज बल्कि कभीकभी तो दिन में 15 बार तक उस के ब्लैंक काल्स आने लगे. मैं उठाता, तो उस की आवाज खनक उठती. मुझे ले कर वह दूसरी दुनिया में जीने लगी है. चमकीली, सुनहरी, सपनों की दुनिया में. मेरी जगह अगर कोई और होता तो शायद…लेकिन वह इतनी मासूम और भोली है मिसेज खान कि बुरे से बुरे इनसान को भी पाकसाफ बना दे. ‘‘मैं ने उसे बताया, समझाया, साफसाफ कहा, यहां तक कि कई बार झिड़का भी कि मैं शादीशुदा हूं. एक छोटा सा खुशहाल परिवार है मेरा और उस से उम्र में काफी बड़ा हूं, लेकिन वह यह सब मानने को तैयार ही नहीं. कभीकभी ऐसा भी लगता है…जैसे उस की आवाज लड़खड़ा रही हो.

वह बीचबीच में किसी ‘जादू की पुडि़या’ का जिक्र करती है. देखिए, बहुत पक्के तौर पर तो नहीं कहता पर अपने थोड़ेबहुत अनुभव के आधार पर मुझे लगता है कि वह कुछ नशीली दवा भी लेती है.’’ ‘‘शटअप मि. तुहिन. मैं इतनी देर से आप की बेहूदा बकवास खामोशी से सुने जा रही हूं. इस का मतलब आप यह कतई न निकालें कि मैं बोल नहीं सकती. आप जैसे लोगों को मैं बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. शोहरत पाने के लिए आप कुछ भी कर सकते हैं, किसी भी हद तक गिर सकते हैं. क्या कसूर है मेरी बेटी का? यही कि वह एक रुतबे वाले खानदान से वास्ता रखती है? उस की जिंदगी से यह फुजूल कहानी जोड़ कर कितना कमा लेंगे आप? 10 हजार? 20 हजार? 25 हजार…अपना मुंह खोलिए मिस्टर जर्नलिस्ट, मैं भी तो देखूं कि आप की औकात क्या है?’’

‘‘मिसेज खान, पैसे का भूखा इनसान इस तरह आप को सच से अवगत कराने की बेवकूफी कभी नहीं करता. बेशक, यह मेरी बेवकूफी ही थी कि आप को आगाह करना मैं ने अपना फर्ज समझा. अब आप जानें और आप की गुलमोहर…’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, तुहिन, कहां हैं आप? साढ़े 8 हो रहे हैं. जल्दी आइए, और हां, आप की बात हुई उस से, अब तक उस ने 4-5 बार फोन किया पर मेरी आवाज सुन कर हर बार फोन काटती रही. अंत में मैं ने ही पूछ लिया, क्या आप गुलमोहर हैं? अगर हां, तो रात को 10 के बाद फोन कीजिए, साहब बाहर गए हैं. देर से लौटेंगे. उस ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया. आप चुप क्यों हैं?’’ ‘‘क्या बोलूं? यह सब झमेला तुम ने ही बढ़ाया है. तुम ने ही सीख दी थी न मुझे.’’ ‘‘ऐसा क्या हुआ, तुहिन?’’ ‘‘हुआ मेरा सर. जानती हो, क्याक्या सुनना पड़ा मुझे उस की मां से, उसे मेरी बात पर जरा भी यकीन नहीं हुआ. उलटा मुझे ही सुनाने लगी. अच्छा बनने का यह नतीजा तो मिलना ही था.’’ ‘‘ऐसा मत कहिए, तुहिन.

उस की मां की जगह अगर मैं होती तो क्या एक अनजाने फोन काल पर विश्वास कर लेती? मिसेज खान ने बिलकुल ठीक कहा, तुहिन. दरअसल, मुझे लगता है फोन से बात नहीं बनेगी. आप को गुलमोहर से मिल कर उसे समझाना होगा. प्लीज तुहिन, यह आखिरी कोशिश. मेरी खातिर…’’ ‘‘उस की मां की भलीबुरी सुनने के बाद मैं काफी अपसेट हो गया था. इसलिए तुम्हें कुछ बताए बिना मैं यहां आ गया. तुम जानती हो न तृप्ति, जबजब मेरे भीतर कुछ घुमड़ता है तो समंदर की इन उफनतीउछलती लहरों का शोर मुझे एकदम शांत और शीतल कर देता है. यहां ठंडी रेत पर बैठ कर मैं बड़ी देर तक सोचता रहा. ‘‘तब मुझे भी लगा कि एक आखिरी कोशिश मुझे करनी ही चाहिए. मैं ने गुलमोहर के घर फोन किया कि मैं तुम से मिलना चाहता हूं. क्या इसी वक्त तुम जुहू बीच पर आ कर मुझ से मिलोगी?

मेरी आवाज सुन कर वह कुछ बोल नहीं पाई. मुझे लगा शायद आश्चर्य से या खुशी से उस की आवाज गले में ही अटक गई होगी.’’ ‘‘फिर क्या वह आई?’’ ‘‘हां. उस का ड्राइवर बीच पर लोगों से मेरा नाम पूछता मुझे ढूंढ़ रहा था. अपना नाम सुन कर मैं खुद ही उस की ओर बढ़ गया. उस ने कहा, ‘सर, गुलमोहर बेबी उधर आप का इंतजार कर रही हैं. मैं ने देखा, सामने…एक लंबी शानदार कार खड़ी थी. मैं ड्राइवर के साथ कार के पास पहुंचा. खिड़की का काला शीशा धीरेधीरे नीचे की ओर सरका. कार में एक बेहद खूबसूरत और मासूम सी, 18-19 साल की लड़की बैठी थी. मैं अनायास ही मुसकरा उठा. शायद यह गुलमोहर ही थी.

लेकिन मुझे देख कर उस के चेहरे पर अजीब सी तटस्थता छा गई. करीब 3-4 मिनट तक वह मुझे देखती रही. नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे. ‘‘फिर उस की शून्य सी दृष्टि 2 मिनट तक अपलक मेरे चेहरे पर ठहरी रही. मैं कुछ कहने को हुआ. पर न जाने क्यों उस ने नजरें फेर लीं. बालों पर टिका चश्मा आंखों पर चढ़ा लिया और अगले ही पल…मेरे मुंह पर धुआं फेंकती उस की शानदार कार तेजी से आगे दौड़ गई. मैं कुछ समझ ही नहीं पाया. अवाक् सा खड़ा देखता रह गया.’’ ‘‘ओह तुहिन, अब मैं यही कहती हूं. छोडि़ए ये सब.

आखिर दूसरों के लिए हम अपनी लाइफ को इतना डिस्टर्ब क्यों कर रहे हैं? आप जल्दी से घर आ जाइए, बस.’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो 343549, तुहिन स्पीकिंग… हैलो तुहिन स्पीकिंग…हैलो…कौन गुलमोहर…मैं तुम से कुछ कहना…’’ ‘‘शटअप मिस्टर तुहिन. वह गुलमोहर मर चुकी, जो तुम से कुछ सुनना चाहती थी. अब आप चाहे कितना भी बोलिए, चीखिए, चिल्लाइए, कुछ भी कीजिए, इस गुलमोहर को अब कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि मैं जान गई हूं. यह सब धोखा है. जादू की वह सफेद पुडि़या भी और तुम भी. मेरी प्यारी अम्मी ने प्यार से मुझे सब समझाया. पढ़नेपढ़ाने की इस उम्र में मुझे बहकाने चले थे. यू चीप 38 साल के बुड्ढे…’’ यही उस की आखिरी

प्रकृति की माया वही जाने – पुल का जाना

प्रचंड गरमी के बीच राज्य से ऐसी खबर आई कि जनता से अभियंता तक सभी चिंतित हैं. चिंता लाजिमी है, एक बार फिर से विकास पानी में जो बह गया था. करोड़ों रुपए की लागत से तैयार होने वाला पुल उद्घाटन से पहले ही नदी में ढह गया.

गत वर्ष कभी पुल का स्ट्रक्चर हवा में उड़ गया, तो कभी अरबों रुपए का निर्माणाधीन पुल नदी के जल में ढह गया था. पुल की भ्रूणहत्या थी या आत्महत्या?

इस संदर्भ में निर्माण एजेंसी बचाव और सरकार बयान की तैयारी में जुट गए. रही बात जनता की, तो क्षेत्रीय जनता ने विकास न सही लेकिन पुल के सुपर स्ट्रक्चर के रूप में विकास का ट्रेलर तो देख ही लिया था. सदियों से बिना पुल के रह रहे हैं, दोतीन दशक और नाव-डेंगी से गुजारा कर लेंगे, तो कौन सा मंगल ग्रह पर जीवन का लोप होने वाला है.

वैसे भी, जनता नामक जीव की सहनशीलता एमआरएफ टायर की तरह मजबूत होती है. नेताओं के आश्वासन की हवा पर दोतीन पीढ़ियों का सफर तो ये आराम से काट ही लेते हैं.

जिस प्रकार समाज में विवाहोपरांत विदाई और सुहागरात की विधि होती है, वैसे ही हमारे देश में हादसा के बाद विपक्षविलाप और जांच आयोग का गठन अनिवार्य प्रक्रिया है.

करोड़ों रुपए का पुल गुल हो गया. मीडिया और विपक्ष का दबाव देख आननफानन माथा महतो और पच्ची सिंह की दो-सदस्यीय जांच समिति का गठन किया गया.

जांच आयोग घटनास्थल पर पहुंचता, उस से पहले ही संतरी से मंत्री तक निर्माण एजेंसी की तात्कालिक सेवा पहुंच गई. साथ ही, पुल का पाया जल में एवं माया माननीयों के महल में.

“यह तो हद हो गई माथा भाई, भारतीय मुद्रा और गठबंधन सरकार की तरह सारा पुल ही भरभरा कर गिर गया…” घटनास्थल का मुआयना करते हुए पच्ची सिंह ने अपनी उत्सुकता जाहिर की.

“सच कहते हो भाई, राजधानी में बेटियां और इस प्रदेश में पुल तो बिलकुल भी सुरक्षित नहीं हैं. लोहा का पुल हो तो चोरी होने में और कंक्रीट का हो तो गोताखोरी करने में विलंब नहीं करता भाई,” माथा महतो ने अपना अनुभव साझा किया.

घंटों स्थल एवं निर्माण मैटीरियल का निरीक्षण कर  माथा-पच्ची ने अपनी रिपोर्ट तैयार की. जांच आयोग एवं पदाधिकारियों द्वारा प्रैस कौन्फ्रैंस बुलाई गई.

“सर, अरबों रुपए का पुल स्ट्रक्चर आखिर कैसे गिर गया?” पहला प्रश्न बाल की खाल न्यूज चैनल के पत्रकार ने किया.

“देखिए, सृष्टि और संहार तो प्रकृति का नियम है, इंसानी जीवन का कोई भरोसा नहीं, यह तो कृत्रिम पुल मात्र है,” माथा महतो ने जवाब दिया.

“तो इस में सरकार दोषी है या निर्माण एजेंसी?” अगला प्रश्न कह के लूंगा मीडिया के रिपोर्टर का था.

पच्ची सिंह ने गहरी सांस ली और कहना शुरू किया, “आप लोग भी न, कमाल करते हैं. जब सरकार को पुल गिराना ही होता तो वह बनवाती ही क्यों? और कभी सुना है कि जन्म देने वाली मां बच्चे को जन्म देने से पहले ही मार डालना चाहती हो, तो फिर निर्माण करने वाले मासूम इंजीनियर भला क्यों बनने से पहले ही पुल गिराना चाहेंगे.”

“तब फिर पुल गिरा कैसे?” उपस्थित सभी पत्रकार एकसाथ पूछ बैठे.

“वही बताने के लिए आप लोगों को बुलाया है,” माथा-पच्ची संयुक्त स्वर में बोले, “देखिए, हम गहराई से तफतीश कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पुल न तो घटिया मैटीरियल और न ही निर्माण एजेंसी की गलती से गिरा है. ऐसा है कि घटना वाले दिन वातावरण का तापमान 52 डिग्री से ज्यादा था. प्रचंड गरमी के कारण पुल का पाया पिघल गया और उद्घाटन से पहले ही पुल भरभरा कर गिर गया.”
माथा-पच्ची की बात सुन सभी मीडियाकर्मी एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

“असंभव, गरमी की वजह से पुल का पिलर कैसे पिघल सकता है?” समाज तक का रिपोर्टर पूछ बैठा.

“भाई जी, जब थाना मालखाना से करोड़ों रुपए की शराब चूहा पी सकता है, चुनाव में कम सीट आने पर ईवीएम दोषी हो सकती है तो ग्लोबल वार्मिंग से पुल का पिलर नहीं पिघल सकता क्या!”

माथा-पच्ची के इस बयान के बाद प्रैस कौन्फ्रैंस और जांच की प्रक्रिया का संयुक्त रूप से आधिकारिक समापन कर दिया गया.

कल हमेशा रहेगा

‘‘अभि, मैं आज कालिज नहीं आ रही. प्लीज, मेरा इंतजार मत करना.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ वेदश्री. कोई खास समस्या है?’’ अभि ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हां, अभि. मानव की आंखों की जांच के लिए उसे ले कर डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘क्या हुआ मानव की आंखों को?’’ अभि की आवाज में चिंता घुल गई.

‘‘वह कल शाम को जब स्कूल से वापस आया तो कहने लगा कि आंखों में कुछ चुभन सी महसूस हो रही है. रात भर में उस की दाईं आंख सूज कर लाल हो गई है.

आज साढ़े 11 बजे का डा. साकेत अग्रवाल से समय ले रखा है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चलूं?’’ अभि ने प्यार से पूछा.

‘‘नहीं, अभि…मां मेरे साथ जा रही हैं.’’

डा. साकेत अग्रवाल के अस्पताल में मानव का नाम पुकारे जाने पर वेदश्री अपनी मां के साथ डाक्टर के कमरे में गई.

डा. साकेत ने जैसे ही वेदश्री को देखा तो बस, देखते ही रह गए. आज तक न जाने कितनी ही लड़कियों से उन की अपने अस्पताल में और अस्पताल के बाहर मुलाकात होती रही है, लेकिन दिल की गहराइयों में उतर जाने वाला इतना चित्ताकर्षक चेहरा साकेत की नजरों के सामने से कभी नहीं गुजरा था.

वेदश्री ने डाक्टर का अभिवादन किया तो वह अपनेआप में पुन: वापस लौटे. अभिवादन का जवाब देते हुए डाक्टर ने वेदश्री और उस की मां को सामने की कुरसियों पर बैठने का इशारा किया.

मानव की आंखों की जांच कर डा. साकेत ने बताया कि उस की दाईं आंख में संक्रमण हो गया है जिस की वजह से यह दर्द हो रहा है. आप घबराइए नहीं, बच्चे की आंखों का दर्द जल्द ही ठीक हो जाएगा पर आंखों के इस संक्रमण का इलाज लंबा चलेगा और इस में भारी खर्च भी आ सकता है.

हकीकत जान कर मां का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. वेदश्री मम्मी को ढाढ़स बंधाने का प्रयास करती हुई किसी तरह घर पहुंची. पिताजी भी हकीकत जान कर सकते में आ गए.

वेदश्री ने अपना मन यह सोच कर कड़ा किया कि अब बेटी से बेटा बन कर उसे ही सब को संभालना होगा.

मानव जैसे ही आंखों में चुभन होने की फरियाद करता वह तड़प जाती थी. उसे मानव का बचपन याद आ जाता.

उस के जन्म के 15 साल के बाद मानव का जन्म हुआ था. इतने सालों के बाद दोबारा बच्चे को जन्म देने के कारण मां को शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी. वह कहतीं, ‘‘श्री…बेटा, लोग क्या सोचेंगे? बुढ़ापे में पहुंच गई, पर बच्चे पैदा करने का शौक नहीं गया.’’

‘‘मम्मा, आप ऐसा क्यों सोचती हैं.’’ वेदश्री ने समझाते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे राखी बांधने वाला भाई दिया है, जिस की बरसों से हम सब को चाहत थी. आप की अब जो उम्र है इस उम्र में तो आज की आधुनिक लड़कियां शादी करती दिखाई देती हैं…आप को गलतसलत कोई भी बात सोचने की जरूरत नहीं है.’’

गोराचिट्टा, भूरी आंखों वाला प्यारा सा मानव, अभी तो आंखों में ढेर सारा विस्मय लिए दुनिया को देखने के योग्य भी नहीं हुआ था कि उस की एक आंख प्रकृति के सुंदरतम नजारों को अपने आप में कैद करने में पूर्णतया असमर्थ हो चुकी थी. परिवार में सब की आंखों का नूर अपनी खुद की आंखों के नूर से वंचित हुआ जा रहा था और वे कुछ भी करने में असमर्थ थे.

‘‘वेदश्रीजी, कीटाणुओं के संक्रमण ने मानव की एक आंख की पुतली पर गहरा असर किया है और उस में एक सफेद धब्बा बन गया है जिस की वजह से उस की आंख की रोशनी चली गई है. कम उम्र का होने के कारण उस की सर्जरी संभव नहीं है.’’

15 दिन बाद जब वह मानव को ले कर चेकअप के लिए दोबारा अस्पताल गई तब डा. साकेत ने उसे समझाते हुए बताया तो वह दम साधे उन की बातें सुनती रही और मन ही मन सोचती रही कि काश, कोई चमत्कार हो और उस का भाई ठीक हो जाए.

‘‘लेकिन उचित समय आने पर हम आई बैंक से संपर्क कर के मानव की आंख के लिए कोई डोनेटर ढूंढ़ लेंगे और जैसे ही वह मिल जाएगा, सर्जरी कर के उस की आंख को ठीक कर देंगे, पर इस काम के लिए आप को इंतजार करना होगा,’’ डा. साकेत ने आश्वासन दिया.

वेदश्री भारी कदमों और उदास मन से वहां से चल दी तो उस की उदासी भांप कर साकेत से रहा न गया और एक डाक्टर का फर्ज निभाते हुए उन्होंने समझाया, ‘‘वेदश्रीजी, मुझे आप से पूरी हमदर्दी है. आप की हर तरह से मदद कर के मुझे बेहद खुशी मिलेगी. प्लीज, मेरी बात को आप अन्यथा न लीजिएगा, ये बात मैं दिल से कह रहा हूं.’’

‘‘थैंक्स, डा. साहब,’’ उसे डाक्टर का सहानुभूति जताना उस समय सचमुच अच्छा लग रहा था.

मानव की आंख का इलाज संभव तो था लेकिन दुष्कर भी उतना ही था. समय एवं पैसा, दोनों का बलिदान ही उस के इलाज की प्राथमिक शर्त बन गए थे.

पिताजी अपनी मर्यादित आय में जैसेतैसे घर का खर्च चला रहे थे. बेटे की तकलीफ और उस के इलाज के खर्च ने उन्हें उम्र से पहले ही जैसे बूढ़ा बना दिया था. उन का दर्द महसूस कर वेदश्री भी दुखी होती रहती. मानव की चिंता में उस ने कालिज के अलावा और कहीं आनाजाना कम कर दिया था. यहां तक कि अभि जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी, से भी जैसे वह कट कर रह गई थी.

डा. साकेत अग्रवाल शायद उस की मजबूरी को भांप चुके थे. उन्होंने वेदश्री को ढाढ़स बंधाया कि वह पैसे की चिंता न करें, अगर सर्जरी जल्द करनी पड़ी तो पैसे का इंतजाम वह खुद कर देंगे. निष्णात डाक्टर होने के साथसाथ साकेत एक सहृदय इनसान भी हैं.

दरअसल, साकेत उम्र में वेदश्री से 2-3 साल ही बड़े होंगे. जवान मन का तकाजा था कि वह जब भी वेदश्री को देखते उन का दिल बेचैन हो उठता. वह हमेशा इसी इंतजार में रहते कि कब वह मानव को ले कर उस के पास आए और वह उसे जी भर कर देख सकें. न जाने कब वेदश्री डा. साकेत के हृदय सिंहासन पर चुपके से आ कर बैठ गई, उन्हें पता ही नहीं चला. तभी तो साकेत ने मन ही मन फैसला किया था कि मानव की सर्जरी के बाद वह उस के मातापिता से उस का हाथ मांग लेंगे.

उधर वेदश्री डा. साकेत के मन में अपने प्रति उठने वाले प्यार की कोमल भावनाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वह अभिजीत के साथ मिल कर अपने सुंदर सहजीवन के सपने संजोने में मगन थी. उस के लिए साकेत एक डाक्टर से अधिक कुछ भी न थे. हां, वह उन की बहुत इज्जत करती थी क्योंकि उस ने महसूस किया था कि डा. साकेत एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथसाथ नेक दिल इनसान भी हैं.
समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते डेढ़ वर्ष का समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. एक दिन फोन की घंटी बजी तो अभिजीत का फोन समझ कर वेदश्री ने फोन उठा लिया और ‘हैलो’ बोली.

‘‘वेदश्रीजी, डा. साकेत बोल रहा हूं. मैं ने यह बताने के लिए आप को फोन किया है कि यदि आप मानव को ले कर कल 12 बजे के करीब अस्पताल आ जाएं तो बेहतर होगा.’’

साकेत चाहता तो अपनी रिसेप्शनिस्ट से फोन करवा सकता था, लेकिन दिल का मामला था अत: उस ने खुद ही यह काम करना उचित समझा.

‘‘क्या कोई खास बात है, डाक्टर साहब,’’ वेदश्री समझ नहीं पा रही थी कि डाक्टर ने खुद क्यों उसे फोन किया. उसे लगा जरूर कोई गंभीर बात होगी.

‘‘नहीं, कोई ऐसी खास बात नहीं है. मैं ने तो यह संभावना दर्शाने के लिए आप के पास फोन किया है कि शायद कल मैं आप को एक बहुत बढि़या खबर सुना सकूं, क्योंकि मैं मानव को ले कर बेहद सकारात्मक हूं.’’

‘‘धन्यवाद, सर. मुझे खुशी है कि आप मानव के लिए इतना सोचते हैं. मैं कल मानव को ले कर जरूर हाजिर हो जाऊंगी, बाय…’’ और वेदश्री ने फोन रख दिया.

वेदश्री की मधुर आवाज ने साकेत को तरोताजा कर दिया. उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

मानव का चेकअप करने के बाद डा. साकेत वेदश्री की ओर मुखातिब हुए.

‘‘क्या मैं आप को सिर्फ ‘श्री…जी’ कह कर बुला सकता हूं?’’ डा. साकेत बोले, ‘‘आप का नाम सुंदर होते हुए भी मुझे लगता है कि उसे थोड़ा छोटा कर के और सुंदर बनाया जा सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर वेदश्री भी हंस पड़ी.

‘‘श्रीजी, मेरे खयाल से अब मानव की सर्जरी में हमें देर नहीं करनी चाहिए और इस से भी अधिक खुशी की बात यह है कि एशियन आई इंस्टीट्यूट बैंक से हमें मानव के लिए योग्य डोनेटर मिल गया है.’’

‘‘सच, डाक्टर साहब, मैं आप का यह ऋण कभी भी नहीं चुका सकूंगी,’’ उस की आंखों में आंसू उभर आए.

डा. साकेत के हाथों मानव की आंख की सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न हुई. परिवार के लोग दम साधे उस की आंख की पट्टी खुलने का इंतजार कर रहे थे.

सर्जरी के तुरंत बाद डा. साकेत ने उसे बताया कि मानव की सर्जरी सफल तो रही लेकिन उस आंख का विजन पूर्णतया वापस लौटने में कम से कम 6 महीने का वक्त और लगेगा. यह सुन कर उसे तकलीफ तो हुई थी लेकिन साथसाथ यह तसल्ली भी थी कि उस का भाई फिर इस दुनिया को अपनी स्वस्थ आंखों से देख सकेगा.

‘‘श्री…जी, मैं ने आप से वादा किया था कि आप को कभी नाउम्मीद नहीं होने दूंगा…’’ साकेत ने उस की गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को दिया अपना वादा पूरा किया.’’

वेदश्री ने संकोच से अपनी पलकें झुका दीं.

‘‘फिर मिलेंगे…’’ कुछ निराश भाव से डा. साकेत ने कहा और फिर मुड़ कर चले गए.

उस दिन एक लंबे अरसे के बाद वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद खुश मन से अभिजीत से मिली. उसे तनावरहित और खुशहाल देख कर अभि को भी बेहद खुशी हुई.

‘‘अभि, कितने लंबे अरसे के बाद आज हम फिर मिल रहे हैं. क्या तुम खुश नहीं?’’ श्री ने उस का हाथ अपने हाथ में थाम कर ऊष्मा से दबाते हुए पूछा.

‘‘ऐसी बात नहीं, मैं तुम्हें अपने इतने नजदीक पा कर बेहद खुश हूं…खैर, मेरी बात जाने दो, मुझे यह बताओ, अब मानव कैसा है?’’

‘‘वह ठीक है. उसे एक नेक डोनेटर मिल गया, जिस की बदौलत वह अपनी नन्हीनन्ही आंखों से अब सबकुछ देख सकता है. आज मुझे लगता है जैसे उसे नहीं, मुझे आंखों की रोशनी वापस मिली हो. सच, उस की तकलीफ से परे, मैं कुछ भी साफसाफ नहीं देख पा रही थी. हर पल यही डर लगा रहता था कि यदि उस की आंखों की रोशनी वापस नहीं मिली तो उस के गम में कहीं मम्मी या पापा को कुछ न हो जाए. उस दाता का और डा. साकेत का एहसान हम उम्र भर नहीं भुला सकेंगे.’’

‘‘अच्छा, तुम बताओ, तुम्हारा भांजा प्रदीप किस तरह दुर्घटना का शिकार हुआ? मैं ने सुना था तो बेहद दुख हुआ. कितना हंसमुख और जिंदादिल था वह. उस की गहरी भूरी आंखों में हर पल जिंदगी के प्रति कितना उत्साह छलकता रहता…’’

अभि अपलक उसे देखता रहा. क्या वह कभी उसे बता भी सकेगा कि प्रदीप की ही आंख से उस का भाई इस दुनिया को देख रहा है? वह मरा नहीं, मानव की एक आंख के रूप में उस की जिंदगी के रहने तक जिंदा रहेगा.

वह बोझिल स्वर में वेदश्री को बताने लगा.

‘‘प्रदीप अपने दोस्त के साथ ‘कल हो न हो’ फिल्म देखने जा रहा था. हाई वे पर उन की मोटरसाइकिल फिसल कर बस से टकरा गई. उस का मित्र जो मोटरसाइकिल चला रहा था, वह हेलमेट की वजह से बच गया और प्रदीप ने सिर के पिछले हिस्से में आई चोट की वजह से गिरते ही वहीं उसी पल दम तोड़ दिया.

‘‘कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर वह मेरी बहन का बेटा था, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही हुआ…पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर ने रिपोर्ट में दर्शाया था कि अगर वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता…’’

‘‘इतना सबकुछ हो गया और तुम ने मुझे कुछ भी बताने योग्य नहीं समझा?’’ अभिजीत की बात बीच में काट कर श्री बोली.

‘‘श्री, तुम वैसे भी मानव को ले कर इतनी परेशान रहती थीं, तुम्हें यह सब बता कर मैं तुम्हारा दुख और बढ़ाना नहीं चाहता था.’’

कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन का साम्राज्य छाया रहा. दिल ही दिल में एकदूसरे के लिए दुआएं लिए दोनों जुदा हुए. अभि से मिल कर वेदश्री घर लौटी तो डा. साकेत को एक अजनबी युगल के साथ पा कर वह आश्चर्य में पड़ गई.

‘‘नमस्ते, डाक्टर साहब,’’ श्री ने साकेत का अभिवादन किया.

प्रत्युत्तर में अभिवादन कर डा. साकेत ने अपने साथ आए युगल का परिचय करवाया.

‘‘श्रीजी, यह मेरे बडे़ भैया आकाश एवं भाभी विश्वा हैं और आप सब से मिलने आए हैं. भाभी, ये श्रीजी हैं.’’

विश्वा भाभी उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आओ श्री, हमारे पास बैठो,’’ उन्हें भी श्री पहली ही नजर में पसंद आ गई.

‘‘अंकलजी, हम अपने देवर डा. साकेत की ओर से आप की बेटी वेदश्री का हाथ मांगने आए हैं,’’ भाभी ने आने का मकसद स्पष्ट किया. यह सुन कर श्री को लगा जैसे किसी ने उसे ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे खाई में धकेल दिया हो. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो वह सुन रही है वह सच है या फिर एक अवांछनीय सपना?

भाभी का प्रस्ताव सुनते ही श्री के मातापिता की आंखोंमें एक चमक आ गई. उन्होंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के लिए इतने बड़े घराने से रिश्ता आएगा.

‘‘क्या हुआ श्री, तुम हमारे प्रस्ताव से खुश नहीं?’’ श्री के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर भाभी ने पूछ लिया.

साकेत और आकाश दोनों ही उसे देखने लगे. साकेत का दिल यह सोच कर तेजी से धड़कने लगा कि कहीं श्री ने इस रिश्ते से मना कर दिया तो?

‘‘नहीं, भाभीजी, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, आप का प्रस्ताव मेरे लिए अप्रत्याशित है. इसीलिए कुछ पलों के लिए मैं उलझन में पड़ गई थी पर अब मैं ठीक हूं,’’ जबरन मुसकराते हुए वेदश्री ने कहा, ‘‘मैं ने तो साकेत को सिर्फ एक डाक्टर के नजरिए से देखा था.’’

‘‘सच तो यह है श्री कि जिस दिन तुम पहली बार मेरे अस्पताल में अपने भाई को ले कर आई थीं उसी दिन तुम्हें देख कर मेरे मन ने मुझ से कहा था कि तुम्हारे योग्य जीवनसाथी की तलाश आज खत्म हो गई. और आज मैं परिवार के सामने अपने मन की बात रख कर तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अब फैसला तुम्हारे ऊपर है.’’

‘‘साकेत, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त दीजिए, प्लीज. मैं ने आप को आज तक उस नजरिए से कभी देखा नहीं न, इसलिए उलझन में हूं कि मुझे क्या फैसला लेना चाहिए…क्या आप मुझे कुछ दिन का वक्त दे सकते हैं?’’ वेदश्री ने उन की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘जरूर,’’ आकाश जो अब तक चुप बैठा था, बोल उठा, ‘‘शादी जैसे अहम मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेना उचित नहीं होगा. तुम इत्मीनान से सोच कर जवाब देना. हम साकेत को भलीभांति जानते हैं. वह तुम पर अपनी मर्जी थोपना कभी भी पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘हम भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडें़गे, क्यों साकेत?’’ भाभी ने साकेत की ओर देखा.

‘‘जी, भाभी,’’ साकेत ने हंसते हुए कहा, ‘‘शतप्रतिशत, आप ने बड़े पते की बात कही है.’’

जलपान के बाद सब ने फिर एकदूसरे का अभिवादन किया और अलग हो गए.

आज की रात वेदश्री के लिए कयामत की रात बन गई थी. साकेत के प्रस्ताव को सुन वह बौखला सी गई थी. ये प्रश्न बारबार उस के मन में कौंधते रहे:

‘क्या मुझे साकेत का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? यदि मैं ने ऐसा किया तो अभि का क्या होगा? हमारे उन सपनों का क्या होगा जो हम दोनों ने मिल कर संजोए थे? क्या अभि मेरे बिना जी पाएगा और उस से वादाखिलाफी कर क्या मैं जी पाऊंगी? नहीं…नहीं…मैं अपने प्यार का दामन नहीं छोड़ सकती. मैं साकेत से साफ शब्दों में मना कर दूंगी. नए रिश्तों को बनाने के लिए पुराने रिश्तों से मुंह मोड़ लेना कहां की रीति है?’

सोचतेसोचते वेदश्री को साकेत याद आ गया. उस ने खुद को टोका कि श्री तुम डा. साकेत के बारे में क्यों नहीं सोच रहीं? तुम से प्यार कर के उन्होंने भी तो कोेई गलती नहीं की. कितना चाहते हैं वह तुम्हें? तभी तो एक इतना बड़ा डाक्टर दिल के हाथों मजबूर हो कर तुम्हारे पास चला आया. कितने नेकदिल इनसान हैं. भूल गईं क्या, जो उन्होंने मानव के लिए किया? यदि उन का सहारा न होता तो क्या तुम्हारा मानव दुनिया को दोनों आंखों से फिर से देख पाता? खबरदार श्री, तुम गलती से भी अपने दिमाग में इस गलतफहमी को न पाल बैठना कि साकेत ने तुम्हें पाने के इरादे से मानव के लिए इतना सबकुछ किया. आखिर तुम दुनिया की अंतिम खूबसूरत लड़की तो हो ही नहीं सकतीं न…दिल ने उसे उलाहना दिया.

साकेत के जाने के बाद पापामम्मी से हुई बातचीत का एकएक शब्द उसे याद आने लगा.

मां ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, ऐसे मौके जीवन में बारबार नहीं आते. समझदार इनसान वही है जो हाथ आए मौके को हाथ से न जाने दे, उस का सही इस्तेमाल करे. बेटी, हो सकता है ऐसा मौका तुम्हारी जिंदगी के दरवाजे पर दोबारा दस्तक न दे…साकेत बहुत ही नेक लड़का है, लाखों में एक है. सुंदर है, नम्र है, सुशील है और सब से अहम बात कि वह तुम्हें दिल से चाहता है.’

पापा ने भी मम्मी के साथ सहमत होते हुए कहा था, ‘बेटी, डा. साकेत ने हमारे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया, वह आज के जमाने में शायद ही किसी के लिए कोई करे. यदि उन्होंने हमारी मदद न की होती तो क्या हम मानव का इलाज बिना पैसे के करवा सकते थे?

‘यह बात कभी न भूलना बेटी कि हम ने मानव के इलाज के बारे में मदद के लिए कितने लोगों के सामने अपने स्वाभिमान का गला घोंट कर हाथ फैलाए थे, और हर जगह से हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी थी. जब अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब साकेत ने गैर होते हुए भी हमारा दामन थामा था.’

‘अभिजीत अगर तुम्हारा प्यार है तो मानव तुम्हारा फर्ज है. फर्ज निभाने में जिस ने तुम्हारा साथ दिया वही तुम्हारा जीवनसाथी बनने योग्य है, क्योंकि सदियों से चली आ रही प्यार और फर्ज की जंग में जीत हमेशा फर्ज की ही हुई है,’ दिमाग के किसी कोने से वेदश्री को सुनाई पड़ा.

कुरियर : रुखसार को कैसे हो गया कुरियर देने वाले लड़के से प्यार

मुंबई में जुलाई का मौसम. रुखसार सुबह उठ कर रसोईघर में चाय बना ही रही थी कि हलकी बारिश होने लगी. उस ने चाय के साथसाथ गरमागरम पकौड़े भी तल दिए. इस के बाद तौलिया और नहाने के बाद पहनने वाले अंदरूनी कपड़े बाथरूम में रख दिए. बैडरूम में टैलीविजन पर कोई म्यूजिक चैनल चल रहा था.

पकौड़े तलने के बाद रुखसार ने खिड़की बंद कर दी और टैलीविजन की आवाज तेज कर दी. वह डांस करने लगी और मस्ती में खुद को दीवार पर लगे बड़े आईने में देखने लगी.

रुखसार ने काले रंग की नाइटी पहनी हुई थी. 35 साल की विधवा होते हुए भी उस ने अपने बदन को काफी मेंटेन किया हुआ था.

रुखसार मस्ती में डांस कर ही रही थी कि तभी दरवाजे की बैल बजी. उस ने टीवी की आवाज कम कर दी और एक दुपट्टा सिर पर रख लिया.

रुखसार ने दरवाजा खोला. बाहर कूरियर वाला था. 25 साल का जवान लड़का. वह कहने लगा, ‘‘कूरियर है… रुखसार खान के नाम से.’’

रुखसार को याद आया कि उस ने औनलाइन शौपिंग साइट से अपने लिए एक मोबाइल फोन बुक किया था. वह बोली, ‘‘मेरा ही नाम रुखसार है.’’

लड़के ने दस्तखत करने के लिए उसे पैन दिया. पैन देते समय उस के हाथ रुखसार की उंगलियों को छू गए थे. रुखसार ने एक नजर उस की ओर देखा और दस्तखत कर दिए.

रुखसार ने 52 सौ रुपए दिए तो लड़के ने 2 सौ रुपए वापस कर दिए

और बोला, ‘‘2 सौ रुपए डिस्काउंट चल रहा है.’’

रुखसार ने उस लड़के को ध्यान से देखा, जिस ने आज के बेईमानी के जमाने में भी ईमानदारी से सच कहा और 2 सौ रुपए वापस कर दिए.

थोड़ी देर बाद वह लड़का बोला, ‘‘थोड़ा पानी मिलेगा?’’

रुखसार ने पूरा दरवाजा खोला और बोली, ‘‘तुम तो काफी भीग भी गए हो. अंदर आ जाओ.’’

रुखसार ने मोबाइल वाला डब्बा अलमारी में रखा और रसोईघर में पानी लेने चली गई. उस ने अपनी छाती से दुपट्टे को अलग कर दिया था.

कुछ देर बाद रुखसार ने लड़के को पानी दिया. पानी देते समय जैसे ही वह थोड़ा झुकी, लड़के की नजर उस के उभारों पर जा टिकी. उस की आंखें बड़ीबड़ी हो गईं.

पानी पीतेपीते वह लड़का नजर बचा कर रुखसार के उभारों को देख रहा था कि अचानक उस ने छींक दिया.

रुखसार बोली, ‘‘तुम्हें तो सर्दी लग गई है. अभी बारिश भी तेज है. तुम चाहो तो थोड़ी देर यहां रुक सकते हो.

‘‘तुम्हारे कपड़े भी काफी भीग गए हैं. चाहो तो बाथरूम में जा कर फ्रैश हो सकते हो.’’

वह लड़का बाथरूम में चला गया. दरवाजा बंद कर के लाइट जलाई. वहां रुखसार ने नहाने के लिए तौलिया और अंदरूनी कपड़े पहले से ही रखे हुए थे.

लड़के ने कमीज निकाल कर उस तौलिए को पहले चूमा, फिर उसी से अपने बदन को पोंछा. उस ने रुखसार के ब्रा को अपने हाथ में लिया ही था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई.

उस ने ब्रा को वहीं पर रख दिया और थोड़ा सा दरवाजा खोला.

रुखसार ने उस को काले रंग का कुरता दिया और बोली, ‘‘यह लो, इसे पहन लेना.’’

लड़के ने वह कुरता पहन लिया और अपनी कमीज सूखने के लिए डाल दी.

वह बैडरूम में जा कर टैलीविजन देखने लगा. रुखसार रसोईघर से चाय और पकौड़े ले आई और उस से पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

लड़का बोला, ‘‘जुनैद.’’

‘‘कहां के रहने वाले हो तुम?’’

‘‘आजमगढ़.’’

‘‘मैं भी आजमगढ़ की रहने वाली हूं. आजमगढ़ में कहां से हो तुम?’’

‘‘लालगंज तहसील.’’

‘‘मैं निजामाबाद की रहने वाली हूं. लालगंज में हमारे काफी रिश्तेदार रहते हैं. अम्मीं की भी वहां की पैदाइश है.

‘‘और कौनकौन रहता है आप के साथ?’’

‘‘सिर्फ मैं.’’

‘‘और आप के शौहर?’’

‘‘उन की मौत हो गई है.’’

‘‘माफ करना, पर कैसे?’’

रुखसार ने बताया कि साल 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे में उस के शौहर के साथ ससुराल के सभी लोग मारे गए थे.

यह बताते हुए रुखसार की आंखें नम हो गईं. जुनैद ने उस का दुख बांटने की कोशिश की और अपने बारे में बताया कि उस ने आजमगढ़ से बीटैक की पढ़ाई की है और वह मालवणी में अपने चाचा के साथ पिछले एक साल से रह रहा है. जब उसे अपनी फील्ड मेकैनिकल इंजीनियरिंग में कोई नौकरी नहीं मिली, तो उस ने कूरियर कंपनी में नौकरी शुरू कर दी.

उन दोनों को बातें करतेकरते एक घंटा हो गया था. रुखसार जुनैद को अपने निकाह की तसवीरें दिखाने लगी.

जुनैद बोला, ‘‘तब आप किसी खूबसूरत अप्सरा से कम नहीं थीं.’’

रुखसार ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अच्छा…’’ और वह खाली प्लेट और कप ले कर रसोईघर में चली गई. अब वह नहाने की तैयारी कर रही थी.

जुनैद उस समय की खूबसूरती को निहार रहा था. वह नहाने के लिए जा ही रही थी कि तभी वापस बैडरूम में गई. जुनैद हैरान रह गया.

रुखसार ने पूछा, ‘‘कैसे लगी निकाह की अलबम?’’

जुनैद बोला, ‘‘बहुत खूबसूरत,’’

वह रुखसार के गले के नीचे देख रहा था, ‘‘वैसे अभी भी आप कुछ कम नहीं हैं.’’

यह सुन कर रुखसार एक खास अदा में मुसकरा दी. रुखसार नहाने चली गई. कुछ देर बाद बाथरूम से आवाज आई, ‘‘मैं अपना तौलिया लेना भूल गई हूं. दे दो मुझे.’’

जुनैद ने रुखसार को तौलिया दे दिया. कुछ देर बाद पानी की आवाज आने लगी. जुनैद ने सोचा कि रुखसार अब नहाने लगी है. वह अपने खूबसूरत बदन पर साबुन लगा रही होगी.

कुछ देर बाद पानी की आवाज धीमी हो कर बंद हो गई. रुखसार नहा कर बाहर आई. उस ने काले रंग का लहंगा और काले रंग की चोली पहनी थी. छाती पर दुपट्टा था और सिर पर तौलिया बंधा हुआ था.

जुनैद रुखसार को देख कर भी अनजान बना टीवी देख रहा था. रुखसार आईने के सामने खड़ी थी. उस ने अपने पूरे बाल खोल दिए थे. खुले हुए लंबे बाल उस की खूबसूरती को बढ़ा रहे थे.

जुनैद के मन में आया कि वह चुपके से उठ कर रुखसार की कमर पकड़ कर उसे पूरी तरह दबा दे. तभी रुखसार ने जुनैद की तरफ देखा. इस से जुनैद घबरा गया और अपनी चोर नजरों को टीवी पर लगा दिया.

कुछ देर बाद रुखसार ने अलमारी से वह मोबाइल निकाला, जो जुनैद ले कर आया था. वह उस के फीचर के बारे में जुनैद से पूछने लगी और उस के पास आ कर बैठ गई. जुनैद ने रुखसार को वह फोन चलाना सिखाया. वह अपनी उंगलियों से उस की मुलायम उंगलियों को पकड़ कर मोबाइल के अलगअलग फीचर बताने लगा.

बीचीबीच में जुनैद का हाथ रुखसार के हाथ को छू भी जाता था, पर रुखसार ने बुरा नहीं माना. इस से जुनैद हिम्मत की बढ़ गई. अब वह जानबूझ कर उस के हाथ को छूने लगा. धीरेधीरे उस की नजरें मोबाइल से हट कर रुखसार के गले के निचले हिस्से की तरफ गईं.

इसी तरह दोपहर के 2 बज गए. बारिश धीमी हो गई थी. वे दोनों खाना खाने लगे.

जुनैद ने पूछा, ‘‘आप दोबारा निकाह क्यों नहीं कर लेतीं?’’

रुखसार बोली, ‘‘तुम ने क्यों नहीं किया अभी तक निकाह?’’

‘‘अम्मी तो कई बार जिद करती रहती हैं निकाह के लिए, पर मैं ही टाल देता हूं कि अभी तक कोई लड़की पसंद नहीं आई. जब पसंद आएगी, तो कर लूंगा.’’

‘‘तो कैसी लड़की पसंद है तुम्हें?’’ रुखसार ने पूछा.

‘‘वही जो आप की तरह समझदार हो. घरेलू काम जानती हो. जो मुझे रोज गरमागरम चाय और बिलकुल आप जैसे पकौड़े बना कर खिला सके.’’

रुखसार उस का भाव समझते हुए बोली, ‘‘मैं तो तुम से 10 साल बड़ी हूं और विधवा भी हूं.’’

जुनैद बोला, ‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘पर क्या तुम्हारे अब्बू और अम्मी मानेंगे?’’

‘‘अरे, निकाह मुझे करना है या अम्मीअब्बू को. तुम ने वह कहावत नहीं सुनी कि जब मियांबीवी राजी, तो क्या करेगा काजी…’’

शाम के 5 बज चुके थे. तभी जुनैद का फोन आया. उस की अम्मी ने फोन किया था. वह बात करने के लिए रसोईघर में चला गया. रुखसार दीवार से कान लगाए जुनैद की बातें सुन रही थी. जुनैद ने भांप लिया था कि रुखसार पास ही है.

तभी जुनैद बोला, ‘‘नहीं अम्मी, अब लड़की देखने की जरूरत नहीं है. मुझे एक लड़की पसंद है.’’

यह सुन कर रुखसार शरमा गई और नजरें बचा कर जुनैद को देखने लगी. इस के बाद जुनैद ने फोन काट दिया. रुखसार पीछे से आ कर उस से लिपट गई. जुनैद ने उसे अपनी बांहों में भर लिया.

रुखसार बोली, ‘‘तुम ने तो अपनी अम्मी से बात कर ली है, मुझे भी अपने अम्मीअब्बू से बात करनी होगी. अच्छा, तुम्हें घर नहीं जाना क्या? रात के 7 बज चुके हैं.’’

जुनैद ने बताया, ‘‘चाचा किसी काम से आज ही बाहर गए हैं. घर में कोई नहीं है. खाना भी बाहर ही खाना होगा.’’

तभी बारिश दोबारा शुरू हो गई. रुखसार ने जुनैद को रोका. वह बोली, ‘‘अगर बुरा न मानो, तो आज यहीं रुक जाओ.’’

जुनैद का भी मन कर रहा था उस के साथ पूरी रात रुकने का. रुखसार ने खीर, पूरी और तरकारी बनाई थी. शायद इसी खुशी में कि उसे जुनैद जैसा जीवनसाथी मिला था.

जुनैद ने खाना खाते हुए कहा, ‘‘रुखसार, तुम खाना बहुत अच्छा बनाती हो, बिलकुल मेरी अम्मी की तरह.’’

रुखसार ने जुनैद के मुंह से पहली बार अपना नाम सुना. उसे बहुत अच्छा लगा. थोड़ी देर बाद रुखसार अपने अब्बू से फोन पर बात करने बाहर चली गई.

जब वह वापस आई, तो जुनैद बोला, ‘‘क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘उन्होंने कहा कि अगर लड़का हमारी बिरादरी का है, नेक है और अपने पैरों पर खड़ा है, तो उन्हें कोई एतराज नहीं,’’ इतना कह कर रुखसार के चेहरे पर शर्म वाली मुसकराहट आ गई.

रात के 10 बजे रुखसार बोली, ‘‘मैं रसोईघर में सो जाती हूं, तुम यहीं बैडरूम में सो जाओ.’’

‘‘नहीं, मैं वहां सो जाऊंगा. और तुम बैडरूम में सोना, क्योंकि यह घर तो तुम्हारा है.’’

‘‘पर निकाह के बाद तो तुम्हारा भी हो जाएगा,’’ रुखसार के मुंह से निकल गया.

यह सुन कर जुनैद ने उसे गले से लगा लिया और उस के गालों पर एक जोरदार चुंबन जड़ दिया. उस ने उस की छाती से दुपट्टा अलग कर दिया. रुखसार भी जुनैद से पूरी तरह लिपट गई. जुनैद ने अपने होंठ उस के गुलाबी होंठों पर रख दिए. रुखसार की आंखें बंद हो गईं. उस के बाद जुनैद ने कमरे की लाइट बंद कर दी.

एक वही लमहा

लेखिका – डा. कविता सिन्हा

धीरेधीरे मल्लिका का मन सौरभ के प्रति एक अजीब लिजलिजे एहसास से भरता चला गया था. उस सौरभ के प्रति जिसे कुछ ही दिनों में उस ने अपने जीवन की सब से बड़ी उपलब्धि मान लिया था. सचमुच, सौरभ ने क्या कुछ नहीं दिया था उसे. खूबसूरत बंगला, कारें, घर में टीवी, फ्रिज और जितनी भी ऐशोआराम की चीजें हो सकती थीं, सबकुछ.

उसे तो यह भी छूट थी कि जब जी चाहे अपनी इच्छा के अनुसार वह कोई भी चीज, कभी भी खरीद सकती थी. सिर्फ लाकर से पैसे निकालने की देर थी. और तत्काल लाकर में जरूरत भर पैसे उपलब्ध न हों तो क्रेडिट कार्ड तो था ही उस के पास.

किसी भी औरत को आखिर इस से अधिक चाहिए भी क्या था.

लेकिन मल्लिका ने तो ऐसी जिंदगी की कभी कल्पना भी नहीं की थी. वह तो अपने पति के साथ उस हवा में उड़ान भरना चाहती थी जिस में दुनिया भर के सारे सुगंधित फूलों की खुशबू का समावेश हो. जहां यदि भूखा भी रहना पड़े तो भी सांसों में भरी खुशबू से मन इस कदर भरा रहे कि भूख का एहसास ही न हो.

सौरभ से जब शादी तय हो गई तब वह कितना फूटफूट कर रोई थी. रहरह कर अमर टीस बन कर उस के अंतस को बेचैन करता रहा था. सच पूछे उस से कोई तो अमर के पास उस के लिए वह सारा कुछ था जिस की आकांक्षा उस ने पाल रखी थी और अगर कुछ नहीं था तो वह सारा कुछ जो सौरभ के पास था, यानी अमीरी भरा जीवन जीने का सामान.

अमर कालिज का सब से मेधावी छात्र था. देखने में औसत सौंदर्य के अमर का पहनावा भी साधारण ही था. किंतु उस के पास जो सब से बड़ी पूंजी थी वह थी उस का प्रेम से लबालब भरा हृदय. और स्वाभिमानी ऐसा कि अपने स्वाभिमान की कीमत पर यदि जरूरी हो तो मौत को भी गले लगा ले.

कई बार अभाव के क्षणों में मल्लिका ने उस की मदद करने की भी कोशिश की थी, मगर उलटे मल्लिका को ही वह खरीखोटी सुना गया था, ‘क्या समझती हो तुम खुद को? अगर इतनी ही दौलत है तुम्हारे पास तो जाओ, वातावरण में पसरी पूरी हवा को खरीद कर ला दो मेरे लिए. मैं ने बड़ेबड़े रईसों के बारे में सुना है कि जमाने भर की दौलत उन के पास थी फिर भी अपने लिए कतरा भर सांस का जुगाड़ नहीं कर पाए वे. कान खोल कर सुन लो मल्लिका, यह सच है कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता पर यह भी उतना ही सच है कि मेरा प्यार कभी भी तुम्हारी दौलत का मोहताज नहीं हो सकता.’

आज मल्लिका के पास दौलत का अंबार था. मगर नहीं था तो अमर जैसा साथी, जिस के बल पर वह अपने जीवन के उन सारे एहसासों को अपने जेहन में समेट सकती थी जिस के लिए आज उस का एकएक पल लालायित था.

उस के पिता ने जब सौरभ से उस की शादी की बात चलाई थी तब हठात वह तय नहीं कर पाई थी कि ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए…हां, मन में अमर का प्यार समुद्र की लहरों की तरह हिलोरे जरूर मार रहा था. इसी बुनियाद पर अपने भीतर पूरी शक्ति समेट कर उस ने तय किया था कि अपनी यह नई समस्या वह अमर के सामने रखेगी, इस पूरे भरोसे के साथ कि उस का अमर उसे इस समस्या से जरूर छुटकारा दिला देगा.

मल्लिका यह भी जानती थी कि उस के पापा को अपने अमीर होने का जबरदस्त गुमान है और गरीबोें के प्रति उन की संवेदना पूरी तरह शून्य है. कई बार बातोंबातों में वह कह भी चुके थे, ‘भई, यह गरीब लोग ठीक मदारी के हाथों में नाचने वाले बंदर की तरह होते हैं. बस, थोड़े सिक्के उछाल दो, फिर जैसा चाहो, नचवा लो.’

मल्लिका के उस भरोसे को तब जबरदस्त झटका लगा था जब अमर ने ऐन वक्त पर यह कह कर पासा पलट दिया था, ‘नहीं मल्लिका, अभी तो मैं बिलकुल भी इस स्थिति में नहीं हूं कि अपना घर बसा पाऊं. मेरी सब से पहली जरूरत तो अपनी पढ़ाई पूरी करना है, फिर कोई नौकरी, उस के बाद ही मैं अपने आगे के जीवन के बारे में कोई फैसला ले सकता हूं.’

मल्लिका का जी तो चाहा था कि सामने खड़े अमर का कालर पकड़ कर पूछे कि फिर मेरे साथ जो तुम ने वादे किए थे वे महज दिल्लगी थे तुम्हारे लिए? पर वह ऐसा नहीं कर सकी. वह तो भरोसा टूटने की पीड़ा से इस कदर आहत थी कि कुछ कहने का साहस ही उस में नहीं बचा था. वह कुछ पल खामोश आंखों से अमर को देखती रही फिर तेजी से भागती हुई सामने खड़ी टैक्सी में जा बैठी थी.

सौरभ के साथ विवाह के लिए मल्लिका ने मूक सहमति दे दी. उसे औरत की उस नियति को स्वीकार करना पड़ा था जिस के बारे में कहावत प्रचलित है कि औरत तो गाय होती है, उसे जिस खूंटे से चाहो बांध दो.

सौरभ की हो कर मल्लिका उस के साथ विदा हो गई और जब कुछ दिनों तक उस ने पति को पूरी तरह अपने मन के मुताबिक महसूस किया तो उसे लगा था कि सौरभ की पत्नी बन कर उस ने कोई भूल नहीं की थी. उन कुछ दिनों तक तो सौरभ चौबीसों घंटे सिर्फ और सिर्फ मल्लिका के सुपुर्द रहा था. मल्लिका अगर कह देती कि वह आकाश से तारे तोड़ लाए तो शायद हाथ तारों की ओर कर के सारी उम्र उछलता ही रह जाता.

उन चंद दिनों में सौरभ ने मल्लिका को निहाल कर के रख दिया था. अब तो जागती आंखों का सपना हो या बंद आंखों का सपना, जिस अमर को वह चौबीस घंटे अपनी धड़कनों में लिए फिरा करती थी उस की परछाईं तक कहीं नजर नहीं आती उसे.

वह सारा सुख और वे सारी खुशियां उस के जीवन में जैसे किसी मेहमान की तरह आई थीं. काश, उन लमहों को अपने संपूर्ण जीवन के लिए मल्लिका संजो कर रख पाती. पर नहीं, मेहमान तो मेहमान ही होते हैं, कुछ दिनों के लिए घर की रौनक, उस के बाद मेला के उजड़ जाने के बाद की स्थिति.

सचमुच, सौरभ उस के जीवन से ऐसे गुम हुआ जैसे मुंडेर पर बैठा कोई पक्षी. गाहेबगाहे मन हुआ तो आ कर मुंडेर पर चहचहा जाए और मन नहीं तो उस का दर्शन भी दुर्लभ.

सौरभ अपने कारोबार में इस तरह जुट गया कि उसे अपने घर या मल्लिका की कोई सुध ही नहीं रही. हां, उस ने इतना इंतजाम जरूर किया था कि मल्लिका यदि आधी रात को भी किसी वस्तु की इच्छा जाहिर करे तो वह वस्तु उस के सामने उपस्थित हो जाए. लेकिन एक औरत के जीवन में जो स्थान पुरुष का होता है वह दुनियाजहान के भौतिक साधन पूरा नहीं कर सकते.

दरअसल, शादी के पहले मल्लिका को इस बात की जानकारी थी कि सौरभ व्यवसाय जगत का बादशाह है और वह मुकाम उस की दिनरात की मेहनत का नतीजा था. आज वह एक ऐसे खिलौनों की फैक्टरी का मालिक है जिस की पहचान देश भर में है. सैकड़ों मजदूर और कर्मचारी उस की फैक्टरी में काम करते हैं.

शादी के बाद एक दिन मल्लिका को अपनी बांहों में भर कर सौरभ ने कहा था, ‘डार्लिंग, शादी के बाद मैं तुम्हें कोई खास तोहफा नहीं दे पाया. बस, एक नई फैक्टरी का छोटा सा उपहार तुम्हें दे रहा हूं जिस का नाम मैं ने ‘मल्लिका इंटरप्राइजेज’ रखा है.’’

अपने नाम से फैक्टरी खोले जाने की बात सौरभ के मुंह से सुन कर वह एकबारगी किलक भरे शब्दों में बोल पड़ी थी, ‘सच, इतना बड़ा तोहफा? ओह सौरभ, आई कांट विलीव इट.’

‘ठीक है, कल हम साइट पर चल रहे हैं. जब अपनी आंखों से देख लोगी तब तो तुम्हें भरोसा हो जाएगा न.’’

उन दिनों उसे जो फैक्टरी या अन्य तरह के तोहफे सौरभ से प्राप्त होते थे, तत्काल तो रोमांचित करने के लिए काफी हुआ करते थे लेकिन साल दो साल बीततेबीतते ही उसे ऐसा महसूस होने लगा कि जितने भी भौतिक सुखों से सराबोर तोहफे उसे सौरभ से प्राप्त हुए थे सभी बस, एक इंद्रजाल की भूमिका में थे.

अब सौरभ अपने कारोबार के सिलसिले में जब भी घर से बाहर निकलता तो कब दोबारा लौट कर आएगा इस का कोई निश्चित समय नहीं होता. कभीकभी तो बगैर बताए ही वह कईकई दिनों तक घर से गायब रहता था. जैसे उस के लिए मल्लिका महज घर में सजाई जाने वाली खूबसूरत सी गुडि़या जितनी ही हैसियत रखती हो कि जब चाहा, जिस तरह दिल चाहा उस से खेल लिया, फिर घर में सजा कर निश्ंचिंत हो गए.

कई बार खिन्न मन से मल्लिका ने कहा भी, ‘‘सौरभ, आखिर आप जिस दौलत को कमाने के लिए दिनरात भाग- दौड़ कर रहे हैं वह किस के लिए? मुझे कोई फैक्टरी नहीं चाहिए. मुझे तो सिर्फ आप की जरूरत है. सुकून की जिंदगी जीने के लिए जरूरी तो नहीं कि इनसान दुनिया भर की दौलत जमा करने के लिए पागलों की तरह उस के पीछे भागता फिरे.’’

सौरभ धैर्य से मल्लिका की बातों को सुनता रहा फिर मुसकरा कर बोला, ‘‘देखो, मल्लिका, आज का युग प्रतियोगिता का है और इस में आगे बढ़ने के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ती है. तुम समझती क्यों नहीं कि दो रोटी, तन ढकने के लिए कपड़े और सिर छिपाने के लिए छप्पर तो एक भिखारी को भी नसीब हो जाता है. तुम क्या यही चाहती हो कि हमारा जीवन भी उन भिखारियों जैसा हो? अरे, मैं तो इतनी ऊंचाई तक पहुंचना चाहता हूं, जहां से हाथ बढ़ा कर तारों को भी अपनी मुट्ठी में कैद कर लूं. चाहे इस के लिए मुझे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.’’
‘‘इस का मतलब यह तो नहीं कि आप अपनी बीवी और घरगृहस्थी से भी दूर हो जाएं.’’

‘‘बीवी…घरगृहस्थी…अरे, बीवी तुम नहीं होती तो कोई और भी हो सकती थी. और फिर पत्नी होती ही क्या है? पति को देहसुख देने वाली एक वस्तु ही न. वह जब भी मुझे फुरसत होती है, तुम उपलब्ध करा ही देती हो. बदले में जितना तुम्हें मिलना चाहिए उस से कहीं अधिक तो दे ही रखा है मैं ने तुम्हें.’’

इतना सुनना था कि मल्लिका के बदन में जैसे आग लग गई. वह फुफकारती हुई बोली, ‘‘तो तुम्हारी नजर में पत्नी और एक रखैल में कोई अंतर नहीं?’’

अचानक सौरभ का लहजा बदल गया, ‘‘अब तुम तो बेवजह बात को तूल दे रही हो. देखो, मैं मर्द हूं और मर्दों के लिए घरपरिवार से अलग भी एक दुनिया होती है, जिस में उस की अपनी समझ और सोच तथा समाज में कैसे वह अधिक से अधिक तरक्की कर सके, इस की चिंता होती है. खैर, यह सब बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी. अभी मेरे पास 5 घंटे का समय है…आओ, इन सब बातों को भूल कर हम समय का सदुपयोग कर लें.’’

मल्लिका ने घड़ी की ओर देखा था. रात के 10 बज रहे थे. अभी घंटा भर पहले तो सौरभ आया था और सुबह 5 बजे की फ्लाइट से उसे वापस भी जाना था. उस ने सौरभ से पूछा था, ‘‘तो आ कब रहे हो?’’

‘‘डार्लिंग, तुम तो ऐसे पूछ रही हो जैसे मेरे बारे में कुछ जानती ही नहीं हो,’’ सौरभ मुसकराते हुए बोला, ‘‘तुम जानती तो हो ही कि न कहीं मेरा जाना निश्चित होता है और न ही लौटना.’’

इस के बाद सौरभ अपनी लिजलिजी मर्दानगी से मल्लिका को परिचित कराने की कोशिश करता रहा. फिर उस ने बिस्तर पर जो खर्राटे लेने शुरू किए तो सुबह के 4 बजे ही अलार्म की आवाज पर अलसाए ढंग से उठ पाया था.

आज के हालात देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि मल्लिका को अब उस की कल्पना तक से कितनी नफरत होने लगी थी. शुरूशुरू में तो सौरभ ऐसा बिलकुल भी नहीं था लेकिन जैसेजैसे समय बीतता गया वह मल्लिका के लिए महज एक पति की औपचारिकता भर बन कर रह गया था कई बार मल्लिका के मन में यही आता कि वह घर छोड़ कर ही भाग जाए, पर जाए भी तो कहां. औरत के लिए तो 2 ही जगह होती हैं, या तो मायका या फिर ससुराल. रही बात मायके की तो वहां भी वह चंद दिन ही रह सकती थी. ऐसे में नियति तो उस की ससुराल से ही जुड़ी होती है.

उस दिन मल्लिका अपनी कार से शौपिंग के लिए बाजार की ओर जा रही थी कि तभी सड़क के किनारे टैक्सी से उतर रहे अमर पर उस की नजर पड़ी. कुछ पल के लिए तो वह अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं कर पाई थी कि वह उस का वही अमर है जिस के साथ कभी कितनी तरह के सपने उस ने संजोए थे.

कार रोक कर मल्लिका, अमर को आवाज लगाती हुई उस की ओर चल दी. उधर अपने नाम के संबोधन के साथ ही अमर चौंक कर मल्लिका की ओर देखने लगा. इस के साथ ही उस के होंठों से निकला, ‘‘अरे, मल्लिका, तुम?’’

फिर तो दोनों आमनेसामने खड़े कुछ पल तक निशब्द एकदूसरे को आश्चर्य से देखते ही रह गए. आखिर चुप्पी मल्लिका ने ही तोड़ी थी, ‘‘अमर, भई वाह, तुम तो पहचान में ही नहीं आ रहे हो. लगता है कोई लाटरीवाटरी निकल आई है तुम्हारी.’’

‘‘हां, यही समझ लो,’’ अमर बोला, ‘‘दरअसल, सेल टैक्स आफिसर के पद पर यहां मेरी नौकरी लग गई है, अभी एक सप्ताह ही तो हुआ है ज्वाइन किए.’’

‘‘आई सी, तो रहनासहना कहां हो रहा है?’’

‘‘अभी तो बस, फुटपाथी हूं. एक होटल में शरण ले रखी है और किसी किराए के मकान की खोज में हूं.’’

‘‘लो, इस शहर में मेरे रहते तुम किराए के मकान में रहोगे? चलो, आओ, मेरी गाड़ी में बैठो.’’

‘‘अभी? अभी तो मैं ड्यूटी पर जा रहा हूं. वैसे पता बता दो, मैं शाम तक किसी वक्त आ जाऊंगा.’’

‘‘वेल, तो मैं इंतजार करूंगी. हां, यह मेरा विजिटिंग कार्ड है, गेट पर दरवान को दिखा देना, वह तुम्हें मेरे पास ले आएगा.’’

शाम को आफिस से निकल कर अमर सीधे मल्लिका के बंगले पर पहुंच गया. उसे खाली हाथ आया देख मल्लिका शिकायती लहजे में बोल पड़ी, ‘‘यह क्या? और तुम्हारा सामान?’’

‘‘सामान क्या, एक ब्रीफकेस भर है. होटल में पड़ा है.’’

‘‘मैं ने तो तुम्हारे रहने का यहां इंतजाम कर दिया है. चाहो तो देख लो,’’ और इसी के साथ अमर का हाथ पकड़ कर वह खींचती हुई उसे आउट हाउस में ले गई.

अंदर प्रवेश करने के साथ ही अमर भौचक रह गया. बस, कहने को ही वह आउट हाउस था वरना तो एक पूरे परिवार की सारी सुविधाओं से लैस था. उसे देख कर अमर बोला था, ‘‘सौरी मल्लिका, इस का किराया तो मैं अफोर्ड नहीं कर पाऊंगा. वैसे भी मैं अकेली जान हूं, इतने बड़े फ्लैट की मुझे क्या जरूरत. खैर, बताओ, चाय पिला रही हो या…’’

अमर की बात बीच में ही काट कर मल्लिका ने अपने ड्राइवर सुलेमान को बुलाया और बोली, ‘‘साहब को ले कर इन के होटल जाओ और इन का सामान ले कर फौरन वापस आओ.’’

इस के बाद अमर की ओर मुड़ कर मल्लिका बोली, ‘‘मैं तुम्हें चाय भी पिलाऊंगी, नाश्ता भी कराऊंगी और खाना भी, लेकिन पहले तुम सुलेमान के साथ जा कर अपना सामान ले आओ. रही बात किराए की तो मैं तुम से उतना ही चार्ज करूंगी जितना तुम अफोर्ड कर सको.’’

मल्लिका के आलीशान ड्राइंगरूम में दोनों आमनेसामने बैठे चाय पी रहे थे. तभी मल्लिका बोल पड़ी, ‘‘अमर, तुम कह रहे थे न कि तुम्हारी अकेली जान के लिए आउट हाउस बहुत बड़ा है. अब यह बताओ कि मेरे इस बंगले के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं,’’ अमर बोला था.

‘‘अरे बुद्धू, जब मैं इतने बड़े बंगले में औरत हो कर अकेली रह सकती हूं, फिर तुम इस आउट हाउस में कैसे नहीं रह सकते.’’

‘‘क्या कहा…तुम और अकेली. और तुम्हारे पति? वह भी तो रहते हैं यहां.’’

‘‘हां, मगर किसी मेहमान की तरह. खैर, तुम चाय पिओ, धीरेधीरे सब समझ जाओगे. रही बात किराए की, तो जब मुझे पैसे की जरूरत होगी ले लूंगी.’’

इस के बाद देर तक दोनों आपस में बातें, हंसीठिठोली करते रहे थे. रात का भोजन भी दोनों ने साथ ही लिया था. खाने के बाद भी वे एकदूसरे से बीते दिनों की बातें करते रहे. आहिस्ताआहिस्ता जब दोनों की ही आंखों में नींद की खुमारी उतरने लगी तो मल्लिका उठ कर अपने बंगले में चली गई. फिर तो यह सिलसिला रोज की दिनचर्या ही हो गया. पर मल्लिका के मन में हर क्षण यह संशय भी बना रहता कि सौरभ को पता चलेगा तो पता नहीं उन की क्या प्रतिक्रिया हो.

एक सप्ताह बाद सौरभ लौट कर आया तो मल्लिका ने डरतेडरते अमर के बारे में बताया. तब सौरभ चहक कर बोला, ‘‘चलो, अच्छा हुआ. अब तो तुम्हें यह शिकायत नहीं रहेगी कि तुम से कोई बातचीत करने वाला नहीं है. मैं भी अब निश्ंिचत हो कर अपना काम कर सकूंगा. यह चिंता तो नहीं रहेगी कि घर में अकेली तुम असुरक्षित हो.’’

सौरभ की टिप्पणी पर मल्लिका हैरान रह गई थी. वह समझ नहीं पाई कि उस का पति आखिर किस मिट्टी का बना है. सौरभ को इस बात की भी फिक्र नहीं कि अपनी पत्नी को वह किसी गैर मर्द के सुपुर्द कर के चहक रहा है.

अभी मल्लिका इसी सोच में उलझी थी कि सौरभ बोल पड़ा था, ‘‘अरे भई, अपने दोस्त से मिलवाओ तो सही.’’

‘‘क्या? इस समय?’’

‘‘तो क्या हुआ, साढ़े 10 ही तो बजे हैं न,’’ सौरभ बोला, ‘‘अरे भई, हम मर्दों के लिए तो यही समय होता है कुछ सोचने, कुछ करने का. अच्छा, तुम रहने दो, मैं ही जा कर तुम्हारे दोस्त को बुला लाता हं.’’

सौरभ जब लौटा तो अमर उस के साथ था.

आते ही बड़े उल्लास भरे शब्दों में मल्लिका से सौरभ बोला, ‘‘लो भई, आ गए तुम्हारे अमर साहब. अब जल्दी से कुछ खानेपीने का इंतजाम करो.’’

मगर मल्लिका अपनी जगह ज्यों की त्यों खड़ी ही रह गई थी.

‘‘क्यों, क्या सोचने लगीं. अरे, आज हमें अपनी दोस्ती को सेलीबे्रट करने दो और सेलीब्रेशन के लिए शराब से अच्छा साथी और क्या हो सकता है? क्यों अमर साहब?’’

‘‘पर अमर तो शराब पीता ही नहीं है,’’ अमर के बोलने से पहले ही मल्लिका बोल पड़ी.

‘‘क्या, शराब नहीं पीते?’’ और जोर का ठहाका लगाया था सौरभ ने, फिर बोला, ‘‘चलिए, कोई बात नहीं. इन के लिए गरम दूध और मेरे लिए…’’

मल्लिका बगैर कोई हस्तक्षेप किए वहां से हट गई और जब दोबारा वहां आई तो ह्विस्की की ट्रे के साथ. उस का मन धड़क रहा था कि पता नहीं शराब पीने के बाद सौरभ, अमर के साथ कैसा सुलूक करे, इसलिए एहतियातन वह भी वहीं बैठ गई थी.

लेकिन जैसा उस ने सोचा था वैसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि जैसेजैसे शराब घूंट के रूप में हलक से नीचे उतरती गई वैसेवैसे सौरभ की जबान मीठी होती चली गई. पहले उस ने अमर का पूरा परिचय लिया था फिर अंतिम पैग के साथ अपना दोस्त मान लिया और कहा कि अब आप को मैं आप नहीं तुम कहूंगा. आज से हम दोस्त जो हो गए. हां, एक अनुरोध मैं जरूर आप से करूंगा कि मेरी गैरमौजूदगी में बेचारी मल्लिका बोर होती रहती है. तुम इस का खयाल रखना.

मल्लिका या अमर के मन में सौरभ से मिलने से पहले जो एक अनजाना खौफ था, वह पूरी तरह निकल गया था. इस के बाद तो जैसे अमर और मल्लिका स्वच्छंद आकाश में विचरण करने वाले पक्षी के जोड़े ही हो गए. लेकिन ऐसा भी नहीं कि उन की अपनी जो सीमा थी, उस का कुछ खयाल ही न हो उन्हें.

सौरभ आता भी तो वह कभी कुछ नहीं बोलता. दरवान के बताने पर कि मेम साहब तो अमर बाबू के साथ कहीं गई हैं, उस पर कोई असर नहीं होता. एक तरह से अमर के आ जाने से सौरभ को सुकून ही मिला था.

अमर की नौकरी लगे अभी 6 महीने भी नहीं बीते थे कि एक दिन जब वह आफिस से लौटा तो एक चमचमाती लाल रंग की मारुति में सवार हो कर आया. कार को ले जा कर सीधे मल्लिका के पोर्टिको में पार्क कर, वहीं से उस ने जोरजोर से हार्न बजाना शुरू कर दिया और वह तब तक हार्न बजाता रहा जब तक कि मल्लिका भागती हुई बाहर नहीं आ गई.

मल्लिका ने अमर को ड्राइविंग सीट पर बैठे देखा तो बोल पड़ी, ‘‘भाई, बहुत सुंदर गाड़ी है. कहां से उड़ा लाए?’’

ड्राइविंग सीट पर बैठेबैठे ही अमर का ठहाका गूंज पड़ा था, ‘‘भई वाह, अब मैं आप को चोर भी लगने लगा हूं. खैर, कार चोरी की ही सही, जाइए, जल्दी से तैयार हो जाइए. थोड़ा सैरसपाटा हो जाए.’’

‘‘पहले उतरो तो सही. चल कर बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’

‘‘नो, आज तो घूमनाफिरना और चायखाना सब बाहर ही होगा.’’

‘‘ओके,’’ बोल कर अभी मल्लिका मुड़ने को हुई ही थी कि अमर की आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘मैं घड़ी देख रहा हूं. बस, 5 मिनट में आ जाओ.’’

और सचमुच मल्लिका 5 मिनट भी नहीं बीते कि आ कर आगे की सीट पर बैठ गई थी. उस के कार में बैठते ही अमर ने कार स्टार्ट कर दी और फिर कुछ ही देर में कार हाइवे पर तेज रफ्तार से दौड़ने लगी.

‘‘हां अमर, तुम ने बताया नहीं कि यह कार किस की है?’’

‘‘अपनी है यार, और किस की हो सकती है. एक क्लाइंट ने गिफ्ट की है. उस का करोड़ों का मामला मेरे पास रुका हुआ था. उसे क्लियर करवा दिया और बस, उस ने यह कार गिफ्ट कर दी.’’

‘‘गिफ्ट या रिश्वत?’’

‘‘अब तुम जो समझो लेकिन आज का जमाना इन गिफ्टों का ही तो है.’’

मल्लिका आश्चर्य से बोली, ‘‘यह तुम कह रहे हो अमर. मैं तो सोच भी नहीं सकती कि तुम्हारे जैसा आदर्श- वादी कभी रिश्वत की बात सोच भी सकता है.’’

‘‘आदर्शवादी, माई फुट. अब रहने भी दो इन बातों को मल्लिका, इतने अच्छे माहौल को फुजूल की बातों में जाया करने से बेहतर है कि हम दोनों कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं,’’ और फिर पास के ही एक बड़े से रेस्तरां में गाड़ी रोक दी थी अमर ने.

रात 9 बजे के आसपास दोनों सैरसपाटे के बाद वापस लौटे थे. फिर मल्लिका, अमर से यह कह कर कि वह फ्रेश हो कर उस के पास आ जाए, आज खाना दोनों साथ ही खाएंगे, अपने बंगले में चली गई.

अंदर किचन में अमर की पसंद की चीजें बनातेबनाते मल्लिका इस बदले हुए अमर के बारे में सोचती रही. प्रत्यक्ष अपनी आंखों से सबकुछ देखने के बावजूद मल्लिका को यह यकीन कर पाने में कठिनाई हो रही थी कि उस के अपने अमर ने सचमुच में रिश्वत ली है.

10 बजतेबजते खाना बन कर तैयार हो गया था लेकिन अमर अभी तक वापस नहीं आया था. फिर भी वह बैठ कर उस की प्रतीक्षा करने लगी थी.

घड़ी की सुई अपनी रफ्तार में बढ़ती हुई 11 पर पहुंची तो मल्लिका के सब्र का बांध टूट गया और वह तेजी से आउट हाउस की ओर बढ़ गई.
आउट हाउस का दरवाजा खुला हुआ था. अमर पर नजर पड़ने के साथ ही मल्लिका को लगा जैसे वह आकाश से जमीन पर आ गिरी हो. अमर ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठा आराम से शराब की चुस्की ले रहा था और उस की उंगलियों के बीच जलती सिगरेट फंसी थी.

अमर की नजर मल्लिका पर पड़ी तो एक पल को वह हड़बड़ा गया, लेकिन तुरंत खुद को सामान्य करता खड़ा हो कर बोला, ‘‘अरे, मल्लिका, मैं तो खुद आने वाला था…खैर, आ ही गई हो तो आओ, बैठो न. तुम लोगों की सोसाइटी में शराब पीना तो आम बात है. इस समय तुम मेरा साथ दो तो यह मेरे लिए बेहद खुशी की बात होगी.’’

मल्लिका ने घूरते हुए उस की ओर देखा था, फिर बोल पड़ी थी, ‘‘छी, तुम्हें शर्म नहीं आती, मेरे पास ऐसा घटिया प्रस्ताव रखते हुए. अमर, तुम बदल गए हो…पूरी तरह बदल गए हो. मुझे तो लगता ही नहीं कि तुम वही पहले वाले अमर हो.’’

‘‘हां, मल्लिका, तुम ठीक कह रही हो,’’ होंठों पर व्यंग्य भरी मुसकान ला कर अमर बोला, ‘‘मैं सचमुच वह पहले वाला अमर नहीं रहा. पर सच बात तो यह है कि अगर मैं ने खुद को बदला नहीं होता तो आज यह अमर तुम्हारे सामने भी नहीं होता, सड़कों पर एडि़यां रगड़रगड़ कर दम तोड़ चुका होता,’’ और फिर अपने साथ हुए एकएक अत्याचार को मल्लिका के सामने वह उगलता चला गया था…

‘‘जानती हो, मेरी योग्यता पर्याप्त हो कर भी मेरा साथ नहीं निभा पाई थी. हर बार मैं प्रतियोगिता परीक्षाओं में भाग लेता, लिखित में सफल भी होता लेकिन साक्षात्कार में छांट दिया जाता. धीरेधीरे समय गुजरता गया और मेरी सरकारी नौकरी की उम्र भी उसी गति से पीछे छूटती जा रही थी. हार कर मैं ने चपरासी पद के लिए भी आवदेन किया पर वहां भी पता चला कि उस पद पर नियुक्ति के लिए 25 से 30 हजार रुपए की मांग की जा रही है.

‘‘मैं एक गरीब किसान का बेटा ठहरा, सो उतने रुपए भी कहां से दे सकता था. जायदाद के नाम पर मात्र 2 एकड़ जमीन और एक झोंपड़ीनुमा घर था. मैं चाहता तो कुछ जमीन बेच कर उस नौकरी को हासिल कर सकता था लेकिन बारबार मेरा आदर्श आड़े आ जाता था. इस के बाद भी संघर्षों का लंबा सिलसिला जारी रहा था. इसी दौरान मैं ने सेल टैक्स अफसर के लिए लिखित परीक्षा पास कर ली और जब मौखिक परीक्षा में शामिल होने का बुलावा आया तो मेरे एक दोस्त ने समझाया था, ‘देख अमर, अपने आदर्श के सहारे तो तू जीवन में कभी भी नौकरी प्राप्त नहीं कर सकेगा. अरे, 2 एकड़ जमीन तो है न तेरे पास. उसे बेच कर ढाई 3 लाख रुपए तो आ ही जाएंगे. मेरे एक दोस्त के चाचा बोर्ड के मेंबर हैं. तू कहे तो मैं उन से बात कर के देखता हूं लेकिन इतना तय है कि बगैर रिश्वत के नौकरी मिलने से रही.’

‘‘‘तो तू क्या चाहता है, मैं रिश्वत दे कर नौकरी प्राप्त करूं? क्या इसीलिए मैं ने दिनरात मेहनत कर के पढ़ाई की है? मेरे इन प्रमाणपत्रों का कोई मूल्य ही नहीं?’

‘‘‘अमर, हमारे देश का आज जो सिस्टम है उस में तेरे इन कागज के टुकड़ों का सचमुच कोई मूल्य नहीं है. अगर मूल्य है तो सिर्फ कागज के नोटों का. देख यार, समझने की कोशिश कर. आज दौड़ का जमाना है और इस दौड़ में वही जीत सकता है जिस की जेब में खनक हो. अरे, तेरे बाबूजी ने कितने सपने देखे होंगे, तुझे पढ़ाने के क्रम में. सोचा होगा कि कल को मेरा बेटा जब किसी अच्छी नौकरी में आ जाएगा तब सारी दुखतकलीफ समाप्त हो जाएंगी. क्या तू नहीं चाहता कि तेरे बाबूजी का सपना पूरा हो?

‘‘‘मेरी राय है कि तुझे किसी भी तरह इस नौकरी को हासिल कर ही लेना चाहिए. यार, धारा के विरुद्ध तैरने वाले लोग अधिकतर डूब जाया करते हैं, इसलिए समझदारी इसी में है कि धारा के साथ तैरते हुए खुद को किनारे लगा ले. अरे, एक बार यह नौकरी तेरे हाथ आ गई न, तो समझ ले कि कुछ ही दिनों में अपनी गई हुई जमीन से कई गुना अधिक जमीन हासिल कर लेगा.’

‘‘इस नौकरी के चक्कर में मेरी 2 एकड़ जमीन तो बिक ही गई साथ में घर भी गिरवी रख दिया. अब जब मैं ने अपने पिता की सारी जायदाद इस नौकरी के लिए दांव पर लगा दी तो उस को वापस लाने के लिए इस भ्रष्ट सिस्टम से मुझे हाथ तो मिलाना ही था.’’

इस प्रकार अपने अतीत को शब्द दर शब्द मल्लिका के सामने बयान कर आवेश में अमर बोला था, ‘‘मैं क्या था मल्लिका और क्या हो गया. मेरे पास एक ही तो पूंजी थी, आदर्श और ईमानदारी की. उस पूंजी को भी मैं ने इस सिस्टम के दलालों के हाथों बेच दिया. आज जो अमर तुम्हारे सामने खड़ा है, यह वह अमर नहीं है जो कभी खुद को सितारों के बीच स्थापित करने के लिए ऊंची छलांग लगाया करता था. मैं मर चुका हूं मल्लिका, पूरी तरह मर चुका हूं और तुम्हारे सामने जो यह हाड़मांस का अमर खड़ा है उस के सीने में न तो दिल है न धड़कन और न ही कोई संवेदना. बस, एक लाश बन कर रह गया हूं मैं.’’

उस की कहानी सुन कर मल्लिका की आंखें भी सजल हो गईं. जब उस ने देखा कि अमर फिर से पैग बनाने जा रहा है तो आगे बढ़ कर उस ने उस से गिलास छीन लिया और मेज पर रखती हुई बोल पड़ी, ‘‘नहीं, मैं तुम्हें अब एक बूंद भी पीने नहीं दूंगी. तुम अपना गम भुलाने के लिए शराब का सहारा लेते हो तो लो, आज मैं तुम्हारा सहारा बनने को तैयार हूं. मैं हर तरह से खुद को तुम्हारे आगे समर्पित करती हूं,’’ और इस के साथ वह किसी बेल की तरह अमर से लिपट गई थी.

अमर अपने होशोहवास में नहीं था. ऊपर से वर्षों की उस की चाहत मल्लिका सदेह उस के आगोश में थी. मौका भी था और माहौल भी. एक बार संयम का बांध टूटा तो दोनों उस के प्रवाह में दूर तक बहते चले गए. जब तंद्रा टूटी तो अमर को लगा कि जैसे उस के आदर्श के दामन पर एक और धब्बा लग गया. एक ऐसा धब्बा जिसे शायद कई जन्म ले कर भी वह मिटा नहीं पाएगा. फिर तो एक झटके से मल्लिका की देह से अलग हो कर वह सीधे अपने बेडरूम में चला गया और बिना कुछ बोले अंदर से दरवाजा बंद कर लिया.

इधर मल्लिका को ऐसा लग रहा था जैसे जीवन में पहली बार उस ने कोई बड़ी जीत हासिल की है. अचानक जब दरवाजा बंद होने की आवाज उस के कानों में समाई तो जैसे उस के प्राण ही हलक को आ गए थे, एक तो अमर नशे में था, ऊपर से ठहरा वह घोर संवेदनशील इनसान. कहीं ऐसा तो नहीं कि अभी थोड़ी देर पहले वाली घटना को अपना गुनाह मान कर किसी प्रायश्चित्त को अंजाम देने की ठान ले.

इस सोच के साथ ही भाग कर मल्लिका उस के बेडरूम के दरवाजे को बेतहाशा पीटने लग गई. तभी उस के कानों में बाहर से आती कार के हार्न की आवाज समाई. वह समझ गई कि सौरभ लौट आया है. तत्काल किसी फैसले की स्थिति पर न पहुंचते हुए भी उस के पैर अपने आप बंगले की ओर दौड़ पडे़ थे.

मल्लिका एक पत्नी की जिम्मेदारी को किसी मशीन की तरह पूरी करती रही. देह से वह सौरभ के पास थी लेकिन उस का मन अमर में अटका रहा. सारी रात आंखों ही आंखों में कट गई. वह जानती थी कि सुबह का सूरज सौरभ के लिए अकसर निमंत्रण समान ही होता है. सचमुच, सुबह जल्दीजल्दी तैयार हो कर सौरभ निकल गया.

इस के बाद अभी वह अमर के पास जाने की सोच ही रही थी कि तभी दरवाजे से अंदर आते अमर पर उस की नजर पड़ी. उसे देख कर राहत की सांस ली मल्लिका ने कि चलो, अमर सहीसलामत तो है.

अमर के उतरे हुए चेहरे को देख कर किसी अनहोनी की आशंका से मल्लिका का मन कांप उठा था. अमर के चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई फैसला कर के आया है.

जमीन की तरफ घूरते हुए अमर ने बगैर होंठ खोले एक चाबी मल्लिका की ओर बढ़ा दी थी. मल्लिका की नजर जब चाबी पर पड़ी तो जैसे एक तरह का पागलपन उस पर सवार हो गया और वह चीखचीख कर बोली, ‘‘हांहां, चले जाओ यहां से, अभी चले जाओ, पर एक बात मैं जरूर पूछना चाहूंगी कि तुम अपने मुंह से सिर्फ इतना कह दो कि मुझे प्यार नहीं करते.’’

अमर मायूस आंखों से सिर्फ उस का चेहरा ही देखता रह गया.

‘‘अमर, कल वाले जिस हादसे को तुम पाप समझ रहे हो, मेरे लिए तो बस, वे ही चंद लमहे पूरे जीवन की उपलब्धि हैं. नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी तुम्हें यहां लाने की या तुम से पुन: वही कालिज के दिनों वाली आत्मीयता बढ़ाने की. खैर, तुम जाना चाहते हो तो जाओ पर याद रखना, तुम मेरे भीतर हमेशा जीवित रहोगे.’’

इस के बाद अमर खुद पर काबू नहीं रख पाया और उस ने मल्लिका को ऐसे अपनी बांहों में जकड़ लिया जैसे अब शायद मौत भी उन दोनों को जुदा नहीं कर पाएगी.

Vascular Day : वैस्कुलर डिजीज से बचना है तो पैरों को सुरक्षित रखें

भारत में जिस रफ्तार से डायबिटीज की संख्या बढ़ रही है, वह चिंता की बात है. लोग अकसर शरीर के बाकी अंगों का ध्यान रखते हैं और पैरों की देखभाल को भूल जाते हैं, तो ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए.

 

शरीर है तो बीमारियां भी होंगी. बीमारियां भी ऐसीऐसी कि नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. ऐसी ही एक बीमारी है वैस्कुलर डिजीज. वैस्कुलर डिजीज से बचने के लिए ही वैस्कुलर सोसाइटी औफ इंडिया की तरफ से दिल्ली के मेजर ध्यानचंद नैशनल स्टेडियम में राष्ट्रव्यापी वाकथोन का आयोजन किया गया, जिस में लोगों को वैस्कुलर से संबंधित बीमारियों के बारे में बताया गया. कुल मिला कर संदेश यही था कि इस डिजीज के बारे में लोग जानें और जागरूक रहें व लोगों को जागरूक करें भी.

 

क्या है वैस्कुलर डिजीज
वैस्कुलर डिजीज रक्त वाहिनियों (आर्टरी और नसों) की बीमारियों को संदर्भित करता है. आर्टरी खून को दिल से दूर और नसें खून को वापस दिल तक पहुंचाती हैं. कार्डियोवैस्कुलर सिस्टम का काम शरीर में कोशिकाओं और अंगों को पोषक तत्व, औक्सीजन, हार्मोन व अन्य महत्वपूर्ण पदार्थ पहुंचाना है.

 

Closeup side view of female doctor massaging legs and calves of a senior female patient with visible varicose veins.

वैस्कुलर डिजीज के लक्षण
वैस्कुलर डिजीज के लक्षण कई प्रकार के हो सकते हैं, जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि किस अंग में रक्त संचार बाधित हो रहा है. पैरों में दर्द या ऐंठन, चलने या गतिविधि करने पर दर्द, जिसे इंटरमिटेंट क्लोडिकेशन कहा जाता है ,पैरों में ठंडापन या सुन्नता जो रक्त प्रवाह कम होने के कारण होता है, पैरों में घाव या अल्सर जो ठीक नहीं हो रहे हैं. पैरों में नीलापन या काला पड़ना जो रक्त संचार में कमी के कारण होता है. नसों में सूजन जिसे वैरिकोज वेन्स कहते हैं. यदि आप को ऐसे लक्षण दिखें तो तुरंत किसी डाक्टर को दिखाने की जरूरत है.

वैस्कुलर डिजीज से बचाव के उपाय
स्वास्थ्यवर्धक आहार: फलों, सब्जियों, साबुत अनाज और कम वसा वाले प्रोटीन से भरपूर संतुलित आहार लें. कोलेस्ट्रोल और संतृप्त वसा की मात्रा कम करें.
धूम्रपान से बचें: धूम्रपान धमनियों को सख्त कर सकता है और रक्त संचार को प्रभावित कर सकता है. इसे छोड़ना वस्कुलर स्वास्थ्य में सुधार के लिए महत्वपूर्ण है.
नियमित व्यायाम: नियमित शारीरिक गतिविधि रक्त प्रवाह को बेहतर बनाने और धमनियों में रुकावट को कम करने में मदद कर सकती है.
स्वास्थ्य की निगरानी: यदि डायबिटीज, उच्च रक्तचाप या उच्च कोलेस्ट्रोल है तो नियमित रूप से स्वास्थ्य जांच कराएं और डाक्टर द्वारा सुझाई गई दवाएं समय पर लें.
स्ट्रैस मैनेजमैंट: तनाव को नियंत्रित करना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि तनाव रक्तचाप को बढ़ा सकता है.
दवाएं और उपचार: वैस्कुलर बीमारियों के उपचार में एंटीप्लेटलेट, एंटीकोएगुलेंट, और कोलेस्ट्रोल कम करने वाली दवाएं शामिल हो सकती हैं. कुछ मामलों में सर्जरी या एंजियोप्लास्टी की आवश्यकता हो सकती है.
वजन नियंत्रण: स्वस्थ वजन बनाए रखना महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिक वजन और मोटापा वैस्कुलर समस्याओं का जोखिम बढ़ा सकते हैं.
वैस्कुलर डिजीज के कारण शरीर के किसी अंग को भी काटना पड़ सकता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार हर वर्ष वैश्विक स्तर पर एक मिलियन यानी 10 लाख से अधिक अंग विच्छेदन होते हैं. ऐसी स्थिति में सही समय पर इलाज और देखभाल कर के इसे रोका जा सकता है. भारत में लगभग 40-50 प्रतिशत अंग विच्छेदन डायबिटीज की जटिलताओं के कारण होते हैं. डायबिटीज, उच्च रक्तचाप और उच्च कोलेस्ट्रोल जैसी बीमारियां दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं और इन बीमारियों के बढ़ने का एक बड़ा कारण खराब जीवनशैली बताया जा रहा है.

क्या कहते हैं विशेषज्ञ
वैस्कुलर सोसाइटी औफ इंडिया के अध्यक्ष डाक्टर पी सी गुप्ता कहते हैं, “समय रहते यदि इस बीमारी का पता चल जाए तो लोगों को अंग विच्छेदन से बचाया जा सकता है. इस के लिए सब से पहले खुद को जागरूक रखना पड़ेगा और थोड़ा भी लक्षण दिखे तो इसे नजरअंदाज न करें.
वैस्कुलर सोसाइटी औफ इंडिया के सचिव व वैस्कुलर सर्जन डा. तपिस साहू ने बताया, “भारत में जिस रफ्तार से डायबिटीज की संख्या बढ़ रही है, वह चिंता की बात है. लोग अकसर शरीर के बाकी अंगों का ध्यान रखते हैं और पैरों की देखभाल को भूल जाते हैं, तो ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए. आईसीएमआर के 5 साल के डेटा देखें तो 15 से 30 मिलियन लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं. वैस्कुलर डिजीज से बचने के लिए जीवनशैली में सुधार और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता आवश्यक है. समय पर सही इलाज और देखभाल कर के वैस्कुलर डिजीज की जटिलताओं से बचा जा सकता है और अंग विच्छेदन की संभावना को कम किया जा सकता है.”

डा. तपिस साहू आगे कहते हैं,” पैरों को स्वस्थ रखें और चलनाफिरना न छोड़ें. डायबिटीज, धूम्रपान, उच्च रक्तचाप और कोलेस्ट्रोल को नियंत्रण में रखें क्योंकि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पैरों का सुरक्षित होना बहुत जरूरी है. वैस्कुलर डिजीज से बचने के लिए जीवनशैली बहुत महत्वपूर्ण है. आप अपनी जीवनशैली में बदलाव लाएं, फलों, सब्जियों और साबुत अनाज से भरपूर संतुलित आहार लें. धूम्रपान और शराब का सेवन बिल्कुल न करें. जो लोग डायबिटीज, उच्च रक्तचाप या उच्च कोलेस्ट्रोल से पीड़ित हैं उन्हें संतुलित आहार लेना चाहिए और अपनी दवाइयां नियमित रूप से लेनी चाहिए ताकि धमनियों की रुकावटों से उत्पन्न होने वाली जटिलताओं से बचा जा सके”.

जुलाई माह के चौथे सप्ताह में कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार

बौलीवुड के लिए आज भी दक्षिण भारतीय सिनेमा के साथ ही हौलीवुड सिनेमा हौव्वा बना हुआ है. जिस सप्ताह दक्षिण की कोई बड़ी फिल्म हिंदी में भी प्रदर्शित होने वाली होती है या जिस सप्ताह हौलीवुड की कोई फिल्म प्रदर्शित होने वाली होती है, उस सप्ताह हिंदी की कोई फिल्म प्रदर्शित नहीं होती, यानी कि उस सप्ताह बौलीवुड पलायन कर जाता है.

जुलाई माह के चौथे सप्ताह यानी कि 26 जुलाई को हौलीवुड फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ प्रदर्शित हुई तो बौलीवुड ने अपनी फिल्में नहीं प्रदर्शित की. केवल निर्माता कुलदीप उमर सिंह ओस्तवाल ने अपनी नीरज सहाय निर्देशित फिल्म ‘द यूपी फाइल्स’ ही प्रदर्शित की. इस फिल्म में योगी आदित्यनाथ यानी कि अभय सिंह का किरदार मनोज जोशी ने निभाया है. वह भी इसलिए कि इन्हें डर नहीं था. यह फिल्म उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बायोपिक फिल्म ही है, जिस में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से उन के कामों का महिमा मंडन किया गया है.

निर्माता को यकीन था कि उत्तर प्रदेश सरकार से मिली सब्सिडी पर बनी उन की इस सरकार परस्त फिल्म को हर दर्शक देखना चाहेगा. मगर अफसोस ऐसा कुछ नहीं हुआ. सच तो यह है कि इस फिल्म में सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर इस कदर गलतियां हैं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद इस फिल्म को देखने के बाद अपना माथा पीट लिया होगा.

ऐसे में इस फिल्म को दर्शक कहां से मिलते?  जानकारी के अनुसार फिल्म ‘द यूपी फाइल्स’ पूरे सप्ताह भर में एक करोड़ रुपए भी बौक्स औफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाई. यों तो फिल्म के पीआर ने खबर भेजी थी कि फिल्म ने 3 दिन में ही 9 करोड़ कमा लिए. मगर फिल्म के निर्माता ने फिल्म की लागत और बौक्स औफिस के आंकड़ों पर चुप्पी साध रखी है. यह पहली बार है जब किसी फिल्म के निर्माता ने विक्कीपीडिया पर अपनी फिल्म के पेज पर फिल्म की लागत व बौक्स औफिस की कमाई न बताई हो.

26 जुलाई को ही मार्वल स्टूडियो की फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ प्रदर्शित हुई. भारत में यह फिल्म अंग्रेजी के साथ ही हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम व कन्नड़ भाषा में प्रदर्शित हुई. सभी को पता है कि फिल्म ‘द एंड’ के बाद से मार्वल स्टूडियो की सभी फिल्में बौक्स औफिस पर असफल होती रही हैं. प्राप्त आंकड़ों के अनुसार मार्वल स्टूडियो फिलहाल 500 करोड़ बिलियन के नुकसान में है. इसलिए इस बार उस ने दो अलगअलग सीरीज के लोकप्रिय किरदारों ‘डेडपुल’ और वुल्वरिन’ को एक साथ ला कर नई फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ ले कर आए.

इस फिल्म की लागत 200 मिलियन डौलर है. मार्वल स्टूडियो के अनुसार उन की फिल्म ने पूरे विश्व में एक सप्ताह के अंदर 630 मिलियन डौलर कमा लिए. भारत में यह फिल्म सिर्फ 94 करोड़ रूपए ही कमा सकी. इस फिल्म में एक्शन दृश्यों और गालीगलौज के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म में कहानी का घोर अभाव है.

सरकार परस्त फिल्म ‘एक्सीडेंट आर कौंसपिरेसीः गोधरा’ 15 दिन में सिर्फ एक करोड़ 47 लाख ही बौक्स औफिस पर कमा सकी. सैक्स व एक्शन से भरपूर फिल्म ‘बैड न्यूज’ भी 15 दिन में सिर्फ 57 करोड़ कमा सकी. इस में से निर्माता की जेब में 25 करोड़ ही जाएंगे जबकि फिल्म की लागत 80 करोड़ रुपए है. फिल्म डिजास्टर हो चुकी है.

इसी के चलते ‘बैड न्यूज’ के निर्माता करण जोहर ने निर्माणाधीन दो एक्शन फिल्मों को हमेशा के लिए बंद कर दिया. करण जोहर एक फिल्म सलमान खान और एक फिल्म कार्तिक आर्यन के साथ बना रहे थे. यह दोनों ही फिल्में एक्शन प्रधान थीं, पर अब यह फिल्में नहीं बनेंगी. भारतीय दर्शक सैक्स व एक्शन नहीं देखना चाहता. इसी का खामियाजा हौलीवुड फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ को भी भुगतना पड़ रहा है.

जब मिले व्हाट्सऐप पर इन्विटेशन कार्ड तो क्या करें

भेज रहे हैं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को आजकल के वैवाहिक आमंत्रण पत्रों में आउटडेटेड बना दी गईं ये मधुर पंक्तियां कम ही दिखती हैं, क्यों ? इस सवाल का सीधा सा जबाब यह है कि अब बुलावे में पहली सी आत्मीयता और लगाव नहीं रह गए हैं. शादी में बुलाना कम से कम 80 फीसदी मामलों में बेहद व्यावहारिक व्यावसायिक और औपचारिक होता जा रहा है और लगभग से अब सबकुछ डिजिटल हो गया है. पहले वैवाहिक आमंत्रण पत्रिका जिन को दी या भेजी जाती थी वे सलैक्टेड होते थे यानी उन्हें बुलाना ही होता था.

वैवाहिक आमंत्रण पत्रिका आते ही घर में हलचल सी मच जाती थी. वरवधू के मातापिता और दादादादी और दर्शानाभिलाशियों सहित स्वागत को उत्सुक लोगों के नाम पढ़ कर उन के पारिवारिक इतिहास और भूगोल के चीरफाड़ की रनिंग कमैंट्री होती थी, उन से खुद के रिश्ते संबंध या परिचय जो भी हो, का बहीखाता खुलता था और फिर तय होता था कि इस शादी में कौनकौन जाएगा और मेजबान के अपने यानी मेहमान के प्रति किए गए और दिए गए व्यवहार के हिसाब से क्या गिफ्ट दिया जाएगा. यानी बात जैसे को तैसा या ले पपडि़या तो दे पपडि़या वाली कहावतों को फौलो करती हुई होती थी कि अगर उन के यहां से कोई हमारे यहां की शादी में आया था तो हमें भी जाना चाहिए और उन के यहां से जो व्यवहार या तोहफा आया था लगभग उसी मूल्य और हैसियत का हमें भी देना चाहिए.

बढ़ते शहरीकरण और सिमटती रिश्तेदारी के चलते अब और भी बहुत सी चीजें गुम हो गई हैं. उन की व्याख्या करने को यही एक पहलू पर्याप्त है कि 20 फीसदी अपवादों को छोड़ दिया जाए तो शादी का कोई भी इन्विटेशन जाने की बाध्यता नहीं रह गई है. अब घर पर कार्ड देने वही आता है जो वाकई में आप की गरिमामयी उपस्थिति आशीर्वाद समारोह में चाहता है. यह जाहिर है नजदीकी रिश्तेदार या अभिन्न मित्र होता है जिस से एक नियमित संपर्क भी आप का होता है. वह आप को डिजिटली तो कार्ड भेजेगा ही साथ में एक बार से ज्यादा फोन कर याद भी दिलाएगा और मुमकिन है कार्ड कूरियर से भी भेजे और उस के साथ में मिठाई का डब्बा भी हो तो यहां जाने के लिए आप को सोचना नहीं पड़ता. लेकिन अगर डिजिटली बुलाने वाले चाहे वे नए हों या पुराने के निमंत्रण में न नेह हैं और न ही उस ने रूबरू हो कर मानस के राजहंस और प्रियवर जैसा कोई आत्मीय संबोधन देते भूल न जाना जैसा मार्मिक और भावनात्मक आग्रह किया हुआ होता है तो जाहिर है उस ने एक औपचारिकता भर निभा दी है.

नया कोई ऐसा करे तो बात ज्यादा अखरती नहीं लेकिन कोई पुराना करे तो ईगो आड़े आना स्वाभाविक बात है. बुलाने के साथसाथ जाने न जाने के पैमाने भी बदल रहे हैं. मसलन अब इन्विटेशन कार्ड में सिर्फ वेन्यू गौर से देखा जाता है कि घर से कितने किलोमीटर दूर किस डायरैक्शन में जाना पड़ेगा. कार्ड के बाकी मसौदे से कोई खास मतलब जाने वाले को नहीं रहता. यानी यह उत्साहहीनता और औपचारिकता दोतरफा है जो एक उल?ान तो मन में पैदा कर ही देती है कि जाएं या न जाएं और जाएं तो गिफ्ट क्या ले जाएं. हालांकि जमाना नगदी वाले लिफाफों का है इसलिए यह सिरदर्दी कम तो हुई है.

अहम सवाल जाएं या नहीं इस का फैसला इन पौइंट्स से तय करें –

१. अगर सिर्फ व्हाट्सऐप पर कार्ड डाल दिया गया है तो जाना कतई जरूरी नहीं क्योंकि बुलाने वाले की मंशा अगर वाकई बुलाने की होती तो वह कार्ड पोस्ट करने के पहले या बाद में एक बार फोन करता या मैसेज में छोटा ही सही आग्रह जरूर करता.

२. मुमकिन यह भी है वह वाकई बुलाना चाह रहा हो लेकिन भूल गया हो या इतनी समझ और व्यावहारिकता उस में न हो कि फोन भी कर ले. ऐसे में यह देखें कि आप के उस से संबंध कैसे हैं. कई बार संबंध बेहद औपचारिक और परिचय तक ही सीमित होते हैं और केवल इसी आधार पर बेटे या बेटी की शादी का इन्विटेशन कार्ड दे दिया जाता है. मसलन बुलाने वाला आप की कालोनी या अपार्टमैंट का बाशिंदा हो सकता है जिस से कभीकभार चलतेफिरते दुआसलाम या बातचीत हो जाती है जिस के बारे में आप यह तो जानते हैं कि ये थर्ड फ्लोर पर कहीं रहने वाले शर्माजी हैं लेकिन पीएन शर्मा हैं या एनपी शर्मा हैं इस में कन्फ्यूज हों तो ऐसी शादी में जाना जरूरी नहीं.

३. औफिस कुलीग भी अकसर इसी तरह कार्ड देते हैं कि आप आएं न आएं इस से उस की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. यहां आप को तय करना है कि आप उस से कैसे संबंध रखना चाहते हैं. अगर बढ़ाना चाहते हैं तो जाना हर्ज की बात नहीं. यह भी अहम है कि कार्ड देते वक्त उस ने आग्रह कैसे किया था और दोबारा कभी याद दिलाया या नहीं. ४. जाने न जाने का एक पैमाना यह भी सटीक है कि पिछले एक साल में आप उस के घर कितनी दफा गए या वह कितनी बार आप के घर आया था. अगर इस का जवाब एक बार भी नहीं में है तो जाना बाध्यता नहीं.

५. बुलाने वाले से आप की कितनी बार फोन पर बात हुई या होती है इस से भी जाने न जाने की उलझन हल हो सकती है. इस के अलावा इस बात से भी तय कर सकते हैं कि आप उस के घर में किसकिस को जानते हैं और उस के अलावा किसी मैंबर को जानते भी हैं या नहीं. ठीक यही बात उस पर भी लागू होती है. पारिवारिक परिचय प्रगाढ़ हो यह भी आजकल जरूरी नहीं है लेकिन इतना तो हो कि जब आप जाएं तो असहज महसूस न करें कि घर के मुखिया के सिवा किसी को जानते ही नहीं. असल में नई दिक्कत यह खड़ी हो रही है कि जानपहचान और रिश्तेदारी का दायरा सिमट रहा है.

शादी के आमंत्रण पहले की तरह थोक में और आत्मीयता से नहीं आते हैं लेकिन जैसे भी आएं, जब आ ही जाते हैं तो मन में जाने न जाने को ले कर दुविधा पैदा हो जाती है. यही कार्ड जब व्हाट्सऐप पर आते हैं तो तय करना मुश्किल हो जाता है कि मेजबान सचमुच आमंत्रित कर रहा है या सिर्फ सूचना दे रहा है जिस के कोई माने आप के लिए नहीं होते. जमाना ज्यादा से ज्यादा शेयर और लाइक का है. अकसर फेसबुक और व्हाट्सऐप ग्रुप में कोई भी शादी का कार्ड डाल देता है कि आप सभी पधारना और वरवधू को आशीर्वाद देना.

इस तरह के बुलावे पर हालांकि कोई ध्यान नहीं देता. हां, बधाई आशीर्वाद और शुभकामनाओं की झड़ी ऐसे लग जाती है मानो ग्रुप के सदस्यों ने उस भतीजी या भतीजे को गोद में खिलाया हो. यह सब आभासी और बनावटी है. इस से बचना ही बेहतर होता है. लेकिन बुलाने वाला नया हो या पुराना उसे व्हाट्सऐप पर ही शुभकामनाएं देने की औपचारिकता और शिष्टाचार निभाना न भूलें.

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