लेखिका – डा. कविता सिन्हा
धीरेधीरे मल्लिका का मन सौरभ के प्रति एक अजीब लिजलिजे एहसास से भरता चला गया था. उस सौरभ के प्रति जिसे कुछ ही दिनों में उस ने अपने जीवन की सब से बड़ी उपलब्धि मान लिया था. सचमुच, सौरभ ने क्या कुछ नहीं दिया था उसे. खूबसूरत बंगला, कारें, घर में टीवी, फ्रिज और जितनी भी ऐशोआराम की चीजें हो सकती थीं, सबकुछ.
उसे तो यह भी छूट थी कि जब जी चाहे अपनी इच्छा के अनुसार वह कोई भी चीज, कभी भी खरीद सकती थी. सिर्फ लाकर से पैसे निकालने की देर थी. और तत्काल लाकर में जरूरत भर पैसे उपलब्ध न हों तो क्रेडिट कार्ड तो था ही उस के पास.
किसी भी औरत को आखिर इस से अधिक चाहिए भी क्या था.
लेकिन मल्लिका ने तो ऐसी जिंदगी की कभी कल्पना भी नहीं की थी. वह तो अपने पति के साथ उस हवा में उड़ान भरना चाहती थी जिस में दुनिया भर के सारे सुगंधित फूलों की खुशबू का समावेश हो. जहां यदि भूखा भी रहना पड़े तो भी सांसों में भरी खुशबू से मन इस कदर भरा रहे कि भूख का एहसास ही न हो.
सौरभ से जब शादी तय हो गई तब वह कितना फूटफूट कर रोई थी. रहरह कर अमर टीस बन कर उस के अंतस को बेचैन करता रहा था. सच पूछे उस से कोई तो अमर के पास उस के लिए वह सारा कुछ था जिस की आकांक्षा उस ने पाल रखी थी और अगर कुछ नहीं था तो वह सारा कुछ जो सौरभ के पास था, यानी अमीरी भरा जीवन जीने का सामान.
अमर कालिज का सब से मेधावी छात्र था. देखने में औसत सौंदर्य के अमर का पहनावा भी साधारण ही था. किंतु उस के पास जो सब से बड़ी पूंजी थी वह थी उस का प्रेम से लबालब भरा हृदय. और स्वाभिमानी ऐसा कि अपने स्वाभिमान की कीमत पर यदि जरूरी हो तो मौत को भी गले लगा ले.
कई बार अभाव के क्षणों में मल्लिका ने उस की मदद करने की भी कोशिश की थी, मगर उलटे मल्लिका को ही वह खरीखोटी सुना गया था, ‘क्या समझती हो तुम खुद को? अगर इतनी ही दौलत है तुम्हारे पास तो जाओ, वातावरण में पसरी पूरी हवा को खरीद कर ला दो मेरे लिए. मैं ने बड़ेबड़े रईसों के बारे में सुना है कि जमाने भर की दौलत उन के पास थी फिर भी अपने लिए कतरा भर सांस का जुगाड़ नहीं कर पाए वे. कान खोल कर सुन लो मल्लिका, यह सच है कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता पर यह भी उतना ही सच है कि मेरा प्यार कभी भी तुम्हारी दौलत का मोहताज नहीं हो सकता.’
आज मल्लिका के पास दौलत का अंबार था. मगर नहीं था तो अमर जैसा साथी, जिस के बल पर वह अपने जीवन के उन सारे एहसासों को अपने जेहन में समेट सकती थी जिस के लिए आज उस का एकएक पल लालायित था.
उस के पिता ने जब सौरभ से उस की शादी की बात चलाई थी तब हठात वह तय नहीं कर पाई थी कि ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए…हां, मन में अमर का प्यार समुद्र की लहरों की तरह हिलोरे जरूर मार रहा था. इसी बुनियाद पर अपने भीतर पूरी शक्ति समेट कर उस ने तय किया था कि अपनी यह नई समस्या वह अमर के सामने रखेगी, इस पूरे भरोसे के साथ कि उस का अमर उसे इस समस्या से जरूर छुटकारा दिला देगा.
मल्लिका यह भी जानती थी कि उस के पापा को अपने अमीर होने का जबरदस्त गुमान है और गरीबोें के प्रति उन की संवेदना पूरी तरह शून्य है. कई बार बातोंबातों में वह कह भी चुके थे, ‘भई, यह गरीब लोग ठीक मदारी के हाथों में नाचने वाले बंदर की तरह होते हैं. बस, थोड़े सिक्के उछाल दो, फिर जैसा चाहो, नचवा लो.’
मल्लिका के उस भरोसे को तब जबरदस्त झटका लगा था जब अमर ने ऐन वक्त पर यह कह कर पासा पलट दिया था, ‘नहीं मल्लिका, अभी तो मैं बिलकुल भी इस स्थिति में नहीं हूं कि अपना घर बसा पाऊं. मेरी सब से पहली जरूरत तो अपनी पढ़ाई पूरी करना है, फिर कोई नौकरी, उस के बाद ही मैं अपने आगे के जीवन के बारे में कोई फैसला ले सकता हूं.’
मल्लिका का जी तो चाहा था कि सामने खड़े अमर का कालर पकड़ कर पूछे कि फिर मेरे साथ जो तुम ने वादे किए थे वे महज दिल्लगी थे तुम्हारे लिए? पर वह ऐसा नहीं कर सकी. वह तो भरोसा टूटने की पीड़ा से इस कदर आहत थी कि कुछ कहने का साहस ही उस में नहीं बचा था. वह कुछ पल खामोश आंखों से अमर को देखती रही फिर तेजी से भागती हुई सामने खड़ी टैक्सी में जा बैठी थी.
सौरभ के साथ विवाह के लिए मल्लिका ने मूक सहमति दे दी. उसे औरत की उस नियति को स्वीकार करना पड़ा था जिस के बारे में कहावत प्रचलित है कि औरत तो गाय होती है, उसे जिस खूंटे से चाहो बांध दो.
सौरभ की हो कर मल्लिका उस के साथ विदा हो गई और जब कुछ दिनों तक उस ने पति को पूरी तरह अपने मन के मुताबिक महसूस किया तो उसे लगा था कि सौरभ की पत्नी बन कर उस ने कोई भूल नहीं की थी. उन कुछ दिनों तक तो सौरभ चौबीसों घंटे सिर्फ और सिर्फ मल्लिका के सुपुर्द रहा था. मल्लिका अगर कह देती कि वह आकाश से तारे तोड़ लाए तो शायद हाथ तारों की ओर कर के सारी उम्र उछलता ही रह जाता.
उन चंद दिनों में सौरभ ने मल्लिका को निहाल कर के रख दिया था. अब तो जागती आंखों का सपना हो या बंद आंखों का सपना, जिस अमर को वह चौबीस घंटे अपनी धड़कनों में लिए फिरा करती थी उस की परछाईं तक कहीं नजर नहीं आती उसे.
वह सारा सुख और वे सारी खुशियां उस के जीवन में जैसे किसी मेहमान की तरह आई थीं. काश, उन लमहों को अपने संपूर्ण जीवन के लिए मल्लिका संजो कर रख पाती. पर नहीं, मेहमान तो मेहमान ही होते हैं, कुछ दिनों के लिए घर की रौनक, उस के बाद मेला के उजड़ जाने के बाद की स्थिति.
सचमुच, सौरभ उस के जीवन से ऐसे गुम हुआ जैसे मुंडेर पर बैठा कोई पक्षी. गाहेबगाहे मन हुआ तो आ कर मुंडेर पर चहचहा जाए और मन नहीं तो उस का दर्शन भी दुर्लभ.
सौरभ अपने कारोबार में इस तरह जुट गया कि उसे अपने घर या मल्लिका की कोई सुध ही नहीं रही. हां, उस ने इतना इंतजाम जरूर किया था कि मल्लिका यदि आधी रात को भी किसी वस्तु की इच्छा जाहिर करे तो वह वस्तु उस के सामने उपस्थित हो जाए. लेकिन एक औरत के जीवन में जो स्थान पुरुष का होता है वह दुनियाजहान के भौतिक साधन पूरा नहीं कर सकते.
दरअसल, शादी के पहले मल्लिका को इस बात की जानकारी थी कि सौरभ व्यवसाय जगत का बादशाह है और वह मुकाम उस की दिनरात की मेहनत का नतीजा था. आज वह एक ऐसे खिलौनों की फैक्टरी का मालिक है जिस की पहचान देश भर में है. सैकड़ों मजदूर और कर्मचारी उस की फैक्टरी में काम करते हैं.
शादी के बाद एक दिन मल्लिका को अपनी बांहों में भर कर सौरभ ने कहा था, ‘डार्लिंग, शादी के बाद मैं तुम्हें कोई खास तोहफा नहीं दे पाया. बस, एक नई फैक्टरी का छोटा सा उपहार तुम्हें दे रहा हूं जिस का नाम मैं ने ‘मल्लिका इंटरप्राइजेज’ रखा है.’’
अपने नाम से फैक्टरी खोले जाने की बात सौरभ के मुंह से सुन कर वह एकबारगी किलक भरे शब्दों में बोल पड़ी थी, ‘सच, इतना बड़ा तोहफा? ओह सौरभ, आई कांट विलीव इट.’
‘ठीक है, कल हम साइट पर चल रहे हैं. जब अपनी आंखों से देख लोगी तब तो तुम्हें भरोसा हो जाएगा न.’’
उन दिनों उसे जो फैक्टरी या अन्य तरह के तोहफे सौरभ से प्राप्त होते थे, तत्काल तो रोमांचित करने के लिए काफी हुआ करते थे लेकिन साल दो साल बीततेबीतते ही उसे ऐसा महसूस होने लगा कि जितने भी भौतिक सुखों से सराबोर तोहफे उसे सौरभ से प्राप्त हुए थे सभी बस, एक इंद्रजाल की भूमिका में थे.
अब सौरभ अपने कारोबार के सिलसिले में जब भी घर से बाहर निकलता तो कब दोबारा लौट कर आएगा इस का कोई निश्चित समय नहीं होता. कभीकभी तो बगैर बताए ही वह कईकई दिनों तक घर से गायब रहता था. जैसे उस के लिए मल्लिका महज घर में सजाई जाने वाली खूबसूरत सी गुडि़या जितनी ही हैसियत रखती हो कि जब चाहा, जिस तरह दिल चाहा उस से खेल लिया, फिर घर में सजा कर निश्ंचिंत हो गए.
कई बार खिन्न मन से मल्लिका ने कहा भी, ‘‘सौरभ, आखिर आप जिस दौलत को कमाने के लिए दिनरात भाग- दौड़ कर रहे हैं वह किस के लिए? मुझे कोई फैक्टरी नहीं चाहिए. मुझे तो सिर्फ आप की जरूरत है. सुकून की जिंदगी जीने के लिए जरूरी तो नहीं कि इनसान दुनिया भर की दौलत जमा करने के लिए पागलों की तरह उस के पीछे भागता फिरे.’’
सौरभ धैर्य से मल्लिका की बातों को सुनता रहा फिर मुसकरा कर बोला, ‘‘देखो, मल्लिका, आज का युग प्रतियोगिता का है और इस में आगे बढ़ने के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ती है. तुम समझती क्यों नहीं कि दो रोटी, तन ढकने के लिए कपड़े और सिर छिपाने के लिए छप्पर तो एक भिखारी को भी नसीब हो जाता है. तुम क्या यही चाहती हो कि हमारा जीवन भी उन भिखारियों जैसा हो? अरे, मैं तो इतनी ऊंचाई तक पहुंचना चाहता हूं, जहां से हाथ बढ़ा कर तारों को भी अपनी मुट्ठी में कैद कर लूं. चाहे इस के लिए मुझे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.’’
‘‘इस का मतलब यह तो नहीं कि आप अपनी बीवी और घरगृहस्थी से भी दूर हो जाएं.’’
‘‘बीवी…घरगृहस्थी…अरे, बीवी तुम नहीं होती तो कोई और भी हो सकती थी. और फिर पत्नी होती ही क्या है? पति को देहसुख देने वाली एक वस्तु ही न. वह जब भी मुझे फुरसत होती है, तुम उपलब्ध करा ही देती हो. बदले में जितना तुम्हें मिलना चाहिए उस से कहीं अधिक तो दे ही रखा है मैं ने तुम्हें.’’
इतना सुनना था कि मल्लिका के बदन में जैसे आग लग गई. वह फुफकारती हुई बोली, ‘‘तो तुम्हारी नजर में पत्नी और एक रखैल में कोई अंतर नहीं?’’
अचानक सौरभ का लहजा बदल गया, ‘‘अब तुम तो बेवजह बात को तूल दे रही हो. देखो, मैं मर्द हूं और मर्दों के लिए घरपरिवार से अलग भी एक दुनिया होती है, जिस में उस की अपनी समझ और सोच तथा समाज में कैसे वह अधिक से अधिक तरक्की कर सके, इस की चिंता होती है. खैर, यह सब बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी. अभी मेरे पास 5 घंटे का समय है…आओ, इन सब बातों को भूल कर हम समय का सदुपयोग कर लें.’’
मल्लिका ने घड़ी की ओर देखा था. रात के 10 बज रहे थे. अभी घंटा भर पहले तो सौरभ आया था और सुबह 5 बजे की फ्लाइट से उसे वापस भी जाना था. उस ने सौरभ से पूछा था, ‘‘तो आ कब रहे हो?’’
‘‘डार्लिंग, तुम तो ऐसे पूछ रही हो जैसे मेरे बारे में कुछ जानती ही नहीं हो,’’ सौरभ मुसकराते हुए बोला, ‘‘तुम जानती तो हो ही कि न कहीं मेरा जाना निश्चित होता है और न ही लौटना.’’
इस के बाद सौरभ अपनी लिजलिजी मर्दानगी से मल्लिका को परिचित कराने की कोशिश करता रहा. फिर उस ने बिस्तर पर जो खर्राटे लेने शुरू किए तो सुबह के 4 बजे ही अलार्म की आवाज पर अलसाए ढंग से उठ पाया था.
आज के हालात देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि मल्लिका को अब उस की कल्पना तक से कितनी नफरत होने लगी थी. शुरूशुरू में तो सौरभ ऐसा बिलकुल भी नहीं था लेकिन जैसेजैसे समय बीतता गया वह मल्लिका के लिए महज एक पति की औपचारिकता भर बन कर रह गया था कई बार मल्लिका के मन में यही आता कि वह घर छोड़ कर ही भाग जाए, पर जाए भी तो कहां. औरत के लिए तो 2 ही जगह होती हैं, या तो मायका या फिर ससुराल. रही बात मायके की तो वहां भी वह चंद दिन ही रह सकती थी. ऐसे में नियति तो उस की ससुराल से ही जुड़ी होती है.
उस दिन मल्लिका अपनी कार से शौपिंग के लिए बाजार की ओर जा रही थी कि तभी सड़क के किनारे टैक्सी से उतर रहे अमर पर उस की नजर पड़ी. कुछ पल के लिए तो वह अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं कर पाई थी कि वह उस का वही अमर है जिस के साथ कभी कितनी तरह के सपने उस ने संजोए थे.
कार रोक कर मल्लिका, अमर को आवाज लगाती हुई उस की ओर चल दी. उधर अपने नाम के संबोधन के साथ ही अमर चौंक कर मल्लिका की ओर देखने लगा. इस के साथ ही उस के होंठों से निकला, ‘‘अरे, मल्लिका, तुम?’’
फिर तो दोनों आमनेसामने खड़े कुछ पल तक निशब्द एकदूसरे को आश्चर्य से देखते ही रह गए. आखिर चुप्पी मल्लिका ने ही तोड़ी थी, ‘‘अमर, भई वाह, तुम तो पहचान में ही नहीं आ रहे हो. लगता है कोई लाटरीवाटरी निकल आई है तुम्हारी.’’
‘‘हां, यही समझ लो,’’ अमर बोला, ‘‘दरअसल, सेल टैक्स आफिसर के पद पर यहां मेरी नौकरी लग गई है, अभी एक सप्ताह ही तो हुआ है ज्वाइन किए.’’
‘‘आई सी, तो रहनासहना कहां हो रहा है?’’
‘‘अभी तो बस, फुटपाथी हूं. एक होटल में शरण ले रखी है और किसी किराए के मकान की खोज में हूं.’’
‘‘लो, इस शहर में मेरे रहते तुम किराए के मकान में रहोगे? चलो, आओ, मेरी गाड़ी में बैठो.’’
‘‘अभी? अभी तो मैं ड्यूटी पर जा रहा हूं. वैसे पता बता दो, मैं शाम तक किसी वक्त आ जाऊंगा.’’
‘‘वेल, तो मैं इंतजार करूंगी. हां, यह मेरा विजिटिंग कार्ड है, गेट पर दरवान को दिखा देना, वह तुम्हें मेरे पास ले आएगा.’’
शाम को आफिस से निकल कर अमर सीधे मल्लिका के बंगले पर पहुंच गया. उसे खाली हाथ आया देख मल्लिका शिकायती लहजे में बोल पड़ी, ‘‘यह क्या? और तुम्हारा सामान?’’
‘‘सामान क्या, एक ब्रीफकेस भर है. होटल में पड़ा है.’’
‘‘मैं ने तो तुम्हारे रहने का यहां इंतजाम कर दिया है. चाहो तो देख लो,’’ और इसी के साथ अमर का हाथ पकड़ कर वह खींचती हुई उसे आउट हाउस में ले गई.
अंदर प्रवेश करने के साथ ही अमर भौचक रह गया. बस, कहने को ही वह आउट हाउस था वरना तो एक पूरे परिवार की सारी सुविधाओं से लैस था. उसे देख कर अमर बोला था, ‘‘सौरी मल्लिका, इस का किराया तो मैं अफोर्ड नहीं कर पाऊंगा. वैसे भी मैं अकेली जान हूं, इतने बड़े फ्लैट की मुझे क्या जरूरत. खैर, बताओ, चाय पिला रही हो या…’’
अमर की बात बीच में ही काट कर मल्लिका ने अपने ड्राइवर सुलेमान को बुलाया और बोली, ‘‘साहब को ले कर इन के होटल जाओ और इन का सामान ले कर फौरन वापस आओ.’’
इस के बाद अमर की ओर मुड़ कर मल्लिका बोली, ‘‘मैं तुम्हें चाय भी पिलाऊंगी, नाश्ता भी कराऊंगी और खाना भी, लेकिन पहले तुम सुलेमान के साथ जा कर अपना सामान ले आओ. रही बात किराए की तो मैं तुम से उतना ही चार्ज करूंगी जितना तुम अफोर्ड कर सको.’’
मल्लिका के आलीशान ड्राइंगरूम में दोनों आमनेसामने बैठे चाय पी रहे थे. तभी मल्लिका बोल पड़ी, ‘‘अमर, तुम कह रहे थे न कि तुम्हारी अकेली जान के लिए आउट हाउस बहुत बड़ा है. अब यह बताओ कि मेरे इस बंगले के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’’
‘‘मैं कुछ समझा नहीं,’’ अमर बोला था.
‘‘अरे बुद्धू, जब मैं इतने बड़े बंगले में औरत हो कर अकेली रह सकती हूं, फिर तुम इस आउट हाउस में कैसे नहीं रह सकते.’’
‘‘क्या कहा…तुम और अकेली. और तुम्हारे पति? वह भी तो रहते हैं यहां.’’
‘‘हां, मगर किसी मेहमान की तरह. खैर, तुम चाय पिओ, धीरेधीरे सब समझ जाओगे. रही बात किराए की, तो जब मुझे पैसे की जरूरत होगी ले लूंगी.’’
इस के बाद देर तक दोनों आपस में बातें, हंसीठिठोली करते रहे थे. रात का भोजन भी दोनों ने साथ ही लिया था. खाने के बाद भी वे एकदूसरे से बीते दिनों की बातें करते रहे. आहिस्ताआहिस्ता जब दोनों की ही आंखों में नींद की खुमारी उतरने लगी तो मल्लिका उठ कर अपने बंगले में चली गई. फिर तो यह सिलसिला रोज की दिनचर्या ही हो गया. पर मल्लिका के मन में हर क्षण यह संशय भी बना रहता कि सौरभ को पता चलेगा तो पता नहीं उन की क्या प्रतिक्रिया हो.
एक सप्ताह बाद सौरभ लौट कर आया तो मल्लिका ने डरतेडरते अमर के बारे में बताया. तब सौरभ चहक कर बोला, ‘‘चलो, अच्छा हुआ. अब तो तुम्हें यह शिकायत नहीं रहेगी कि तुम से कोई बातचीत करने वाला नहीं है. मैं भी अब निश्ंिचत हो कर अपना काम कर सकूंगा. यह चिंता तो नहीं रहेगी कि घर में अकेली तुम असुरक्षित हो.’’
सौरभ की टिप्पणी पर मल्लिका हैरान रह गई थी. वह समझ नहीं पाई कि उस का पति आखिर किस मिट्टी का बना है. सौरभ को इस बात की भी फिक्र नहीं कि अपनी पत्नी को वह किसी गैर मर्द के सुपुर्द कर के चहक रहा है.
अभी मल्लिका इसी सोच में उलझी थी कि सौरभ बोल पड़ा था, ‘‘अरे भई, अपने दोस्त से मिलवाओ तो सही.’’
‘‘क्या? इस समय?’’
‘‘तो क्या हुआ, साढ़े 10 ही तो बजे हैं न,’’ सौरभ बोला, ‘‘अरे भई, हम मर्दों के लिए तो यही समय होता है कुछ सोचने, कुछ करने का. अच्छा, तुम रहने दो, मैं ही जा कर तुम्हारे दोस्त को बुला लाता हं.’’
सौरभ जब लौटा तो अमर उस के साथ था.
आते ही बड़े उल्लास भरे शब्दों में मल्लिका से सौरभ बोला, ‘‘लो भई, आ गए तुम्हारे अमर साहब. अब जल्दी से कुछ खानेपीने का इंतजाम करो.’’
मगर मल्लिका अपनी जगह ज्यों की त्यों खड़ी ही रह गई थी.
‘‘क्यों, क्या सोचने लगीं. अरे, आज हमें अपनी दोस्ती को सेलीबे्रट करने दो और सेलीब्रेशन के लिए शराब से अच्छा साथी और क्या हो सकता है? क्यों अमर साहब?’’
‘‘पर अमर तो शराब पीता ही नहीं है,’’ अमर के बोलने से पहले ही मल्लिका बोल पड़ी.
‘‘क्या, शराब नहीं पीते?’’ और जोर का ठहाका लगाया था सौरभ ने, फिर बोला, ‘‘चलिए, कोई बात नहीं. इन के लिए गरम दूध और मेरे लिए…’’
मल्लिका बगैर कोई हस्तक्षेप किए वहां से हट गई और जब दोबारा वहां आई तो ह्विस्की की ट्रे के साथ. उस का मन धड़क रहा था कि पता नहीं शराब पीने के बाद सौरभ, अमर के साथ कैसा सुलूक करे, इसलिए एहतियातन वह भी वहीं बैठ गई थी.
लेकिन जैसा उस ने सोचा था वैसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि जैसेजैसे शराब घूंट के रूप में हलक से नीचे उतरती गई वैसेवैसे सौरभ की जबान मीठी होती चली गई. पहले उस ने अमर का पूरा परिचय लिया था फिर अंतिम पैग के साथ अपना दोस्त मान लिया और कहा कि अब आप को मैं आप नहीं तुम कहूंगा. आज से हम दोस्त जो हो गए. हां, एक अनुरोध मैं जरूर आप से करूंगा कि मेरी गैरमौजूदगी में बेचारी मल्लिका बोर होती रहती है. तुम इस का खयाल रखना.
मल्लिका या अमर के मन में सौरभ से मिलने से पहले जो एक अनजाना खौफ था, वह पूरी तरह निकल गया था. इस के बाद तो जैसे अमर और मल्लिका स्वच्छंद आकाश में विचरण करने वाले पक्षी के जोड़े ही हो गए. लेकिन ऐसा भी नहीं कि उन की अपनी जो सीमा थी, उस का कुछ खयाल ही न हो उन्हें.
सौरभ आता भी तो वह कभी कुछ नहीं बोलता. दरवान के बताने पर कि मेम साहब तो अमर बाबू के साथ कहीं गई हैं, उस पर कोई असर नहीं होता. एक तरह से अमर के आ जाने से सौरभ को सुकून ही मिला था.
अमर की नौकरी लगे अभी 6 महीने भी नहीं बीते थे कि एक दिन जब वह आफिस से लौटा तो एक चमचमाती लाल रंग की मारुति में सवार हो कर आया. कार को ले जा कर सीधे मल्लिका के पोर्टिको में पार्क कर, वहीं से उस ने जोरजोर से हार्न बजाना शुरू कर दिया और वह तब तक हार्न बजाता रहा जब तक कि मल्लिका भागती हुई बाहर नहीं आ गई.
मल्लिका ने अमर को ड्राइविंग सीट पर बैठे देखा तो बोल पड़ी, ‘‘भाई, बहुत सुंदर गाड़ी है. कहां से उड़ा लाए?’’
ड्राइविंग सीट पर बैठेबैठे ही अमर का ठहाका गूंज पड़ा था, ‘‘भई वाह, अब मैं आप को चोर भी लगने लगा हूं. खैर, कार चोरी की ही सही, जाइए, जल्दी से तैयार हो जाइए. थोड़ा सैरसपाटा हो जाए.’’
‘‘पहले उतरो तो सही. चल कर बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’
‘‘नो, आज तो घूमनाफिरना और चायखाना सब बाहर ही होगा.’’
‘‘ओके,’’ बोल कर अभी मल्लिका मुड़ने को हुई ही थी कि अमर की आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘मैं घड़ी देख रहा हूं. बस, 5 मिनट में आ जाओ.’’
और सचमुच मल्लिका 5 मिनट भी नहीं बीते कि आ कर आगे की सीट पर बैठ गई थी. उस के कार में बैठते ही अमर ने कार स्टार्ट कर दी और फिर कुछ ही देर में कार हाइवे पर तेज रफ्तार से दौड़ने लगी.
‘‘हां अमर, तुम ने बताया नहीं कि यह कार किस की है?’’
‘‘अपनी है यार, और किस की हो सकती है. एक क्लाइंट ने गिफ्ट की है. उस का करोड़ों का मामला मेरे पास रुका हुआ था. उसे क्लियर करवा दिया और बस, उस ने यह कार गिफ्ट कर दी.’’
‘‘गिफ्ट या रिश्वत?’’
‘‘अब तुम जो समझो लेकिन आज का जमाना इन गिफ्टों का ही तो है.’’
मल्लिका आश्चर्य से बोली, ‘‘यह तुम कह रहे हो अमर. मैं तो सोच भी नहीं सकती कि तुम्हारे जैसा आदर्श- वादी कभी रिश्वत की बात सोच भी सकता है.’’
‘‘आदर्शवादी, माई फुट. अब रहने भी दो इन बातों को मल्लिका, इतने अच्छे माहौल को फुजूल की बातों में जाया करने से बेहतर है कि हम दोनों कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं,’’ और फिर पास के ही एक बड़े से रेस्तरां में गाड़ी रोक दी थी अमर ने.
रात 9 बजे के आसपास दोनों सैरसपाटे के बाद वापस लौटे थे. फिर मल्लिका, अमर से यह कह कर कि वह फ्रेश हो कर उस के पास आ जाए, आज खाना दोनों साथ ही खाएंगे, अपने बंगले में चली गई.
अंदर किचन में अमर की पसंद की चीजें बनातेबनाते मल्लिका इस बदले हुए अमर के बारे में सोचती रही. प्रत्यक्ष अपनी आंखों से सबकुछ देखने के बावजूद मल्लिका को यह यकीन कर पाने में कठिनाई हो रही थी कि उस के अपने अमर ने सचमुच में रिश्वत ली है.
10 बजतेबजते खाना बन कर तैयार हो गया था लेकिन अमर अभी तक वापस नहीं आया था. फिर भी वह बैठ कर उस की प्रतीक्षा करने लगी थी.
घड़ी की सुई अपनी रफ्तार में बढ़ती हुई 11 पर पहुंची तो मल्लिका के सब्र का बांध टूट गया और वह तेजी से आउट हाउस की ओर बढ़ गई.
आउट हाउस का दरवाजा खुला हुआ था. अमर पर नजर पड़ने के साथ ही मल्लिका को लगा जैसे वह आकाश से जमीन पर आ गिरी हो. अमर ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठा आराम से शराब की चुस्की ले रहा था और उस की उंगलियों के बीच जलती सिगरेट फंसी थी.
अमर की नजर मल्लिका पर पड़ी तो एक पल को वह हड़बड़ा गया, लेकिन तुरंत खुद को सामान्य करता खड़ा हो कर बोला, ‘‘अरे, मल्लिका, मैं तो खुद आने वाला था…खैर, आ ही गई हो तो आओ, बैठो न. तुम लोगों की सोसाइटी में शराब पीना तो आम बात है. इस समय तुम मेरा साथ दो तो यह मेरे लिए बेहद खुशी की बात होगी.’’
मल्लिका ने घूरते हुए उस की ओर देखा था, फिर बोल पड़ी थी, ‘‘छी, तुम्हें शर्म नहीं आती, मेरे पास ऐसा घटिया प्रस्ताव रखते हुए. अमर, तुम बदल गए हो…पूरी तरह बदल गए हो. मुझे तो लगता ही नहीं कि तुम वही पहले वाले अमर हो.’’
‘‘हां, मल्लिका, तुम ठीक कह रही हो,’’ होंठों पर व्यंग्य भरी मुसकान ला कर अमर बोला, ‘‘मैं सचमुच वह पहले वाला अमर नहीं रहा. पर सच बात तो यह है कि अगर मैं ने खुद को बदला नहीं होता तो आज यह अमर तुम्हारे सामने भी नहीं होता, सड़कों पर एडि़यां रगड़रगड़ कर दम तोड़ चुका होता,’’ और फिर अपने साथ हुए एकएक अत्याचार को मल्लिका के सामने वह उगलता चला गया था…
‘‘जानती हो, मेरी योग्यता पर्याप्त हो कर भी मेरा साथ नहीं निभा पाई थी. हर बार मैं प्रतियोगिता परीक्षाओं में भाग लेता, लिखित में सफल भी होता लेकिन साक्षात्कार में छांट दिया जाता. धीरेधीरे समय गुजरता गया और मेरी सरकारी नौकरी की उम्र भी उसी गति से पीछे छूटती जा रही थी. हार कर मैं ने चपरासी पद के लिए भी आवदेन किया पर वहां भी पता चला कि उस पद पर नियुक्ति के लिए 25 से 30 हजार रुपए की मांग की जा रही है.
‘‘मैं एक गरीब किसान का बेटा ठहरा, सो उतने रुपए भी कहां से दे सकता था. जायदाद के नाम पर मात्र 2 एकड़ जमीन और एक झोंपड़ीनुमा घर था. मैं चाहता तो कुछ जमीन बेच कर उस नौकरी को हासिल कर सकता था लेकिन बारबार मेरा आदर्श आड़े आ जाता था. इस के बाद भी संघर्षों का लंबा सिलसिला जारी रहा था. इसी दौरान मैं ने सेल टैक्स अफसर के लिए लिखित परीक्षा पास कर ली और जब मौखिक परीक्षा में शामिल होने का बुलावा आया तो मेरे एक दोस्त ने समझाया था, ‘देख अमर, अपने आदर्श के सहारे तो तू जीवन में कभी भी नौकरी प्राप्त नहीं कर सकेगा. अरे, 2 एकड़ जमीन तो है न तेरे पास. उसे बेच कर ढाई 3 लाख रुपए तो आ ही जाएंगे. मेरे एक दोस्त के चाचा बोर्ड के मेंबर हैं. तू कहे तो मैं उन से बात कर के देखता हूं लेकिन इतना तय है कि बगैर रिश्वत के नौकरी मिलने से रही.’
‘‘‘तो तू क्या चाहता है, मैं रिश्वत दे कर नौकरी प्राप्त करूं? क्या इसीलिए मैं ने दिनरात मेहनत कर के पढ़ाई की है? मेरे इन प्रमाणपत्रों का कोई मूल्य ही नहीं?’
‘‘‘अमर, हमारे देश का आज जो सिस्टम है उस में तेरे इन कागज के टुकड़ों का सचमुच कोई मूल्य नहीं है. अगर मूल्य है तो सिर्फ कागज के नोटों का. देख यार, समझने की कोशिश कर. आज दौड़ का जमाना है और इस दौड़ में वही जीत सकता है जिस की जेब में खनक हो. अरे, तेरे बाबूजी ने कितने सपने देखे होंगे, तुझे पढ़ाने के क्रम में. सोचा होगा कि कल को मेरा बेटा जब किसी अच्छी नौकरी में आ जाएगा तब सारी दुखतकलीफ समाप्त हो जाएंगी. क्या तू नहीं चाहता कि तेरे बाबूजी का सपना पूरा हो?
‘‘‘मेरी राय है कि तुझे किसी भी तरह इस नौकरी को हासिल कर ही लेना चाहिए. यार, धारा के विरुद्ध तैरने वाले लोग अधिकतर डूब जाया करते हैं, इसलिए समझदारी इसी में है कि धारा के साथ तैरते हुए खुद को किनारे लगा ले. अरे, एक बार यह नौकरी तेरे हाथ आ गई न, तो समझ ले कि कुछ ही दिनों में अपनी गई हुई जमीन से कई गुना अधिक जमीन हासिल कर लेगा.’
‘‘इस नौकरी के चक्कर में मेरी 2 एकड़ जमीन तो बिक ही गई साथ में घर भी गिरवी रख दिया. अब जब मैं ने अपने पिता की सारी जायदाद इस नौकरी के लिए दांव पर लगा दी तो उस को वापस लाने के लिए इस भ्रष्ट सिस्टम से मुझे हाथ तो मिलाना ही था.’’
इस प्रकार अपने अतीत को शब्द दर शब्द मल्लिका के सामने बयान कर आवेश में अमर बोला था, ‘‘मैं क्या था मल्लिका और क्या हो गया. मेरे पास एक ही तो पूंजी थी, आदर्श और ईमानदारी की. उस पूंजी को भी मैं ने इस सिस्टम के दलालों के हाथों बेच दिया. आज जो अमर तुम्हारे सामने खड़ा है, यह वह अमर नहीं है जो कभी खुद को सितारों के बीच स्थापित करने के लिए ऊंची छलांग लगाया करता था. मैं मर चुका हूं मल्लिका, पूरी तरह मर चुका हूं और तुम्हारे सामने जो यह हाड़मांस का अमर खड़ा है उस के सीने में न तो दिल है न धड़कन और न ही कोई संवेदना. बस, एक लाश बन कर रह गया हूं मैं.’’
उस की कहानी सुन कर मल्लिका की आंखें भी सजल हो गईं. जब उस ने देखा कि अमर फिर से पैग बनाने जा रहा है तो आगे बढ़ कर उस ने उस से गिलास छीन लिया और मेज पर रखती हुई बोल पड़ी, ‘‘नहीं, मैं तुम्हें अब एक बूंद भी पीने नहीं दूंगी. तुम अपना गम भुलाने के लिए शराब का सहारा लेते हो तो लो, आज मैं तुम्हारा सहारा बनने को तैयार हूं. मैं हर तरह से खुद को तुम्हारे आगे समर्पित करती हूं,’’ और इस के साथ वह किसी बेल की तरह अमर से लिपट गई थी.
अमर अपने होशोहवास में नहीं था. ऊपर से वर्षों की उस की चाहत मल्लिका सदेह उस के आगोश में थी. मौका भी था और माहौल भी. एक बार संयम का बांध टूटा तो दोनों उस के प्रवाह में दूर तक बहते चले गए. जब तंद्रा टूटी तो अमर को लगा कि जैसे उस के आदर्श के दामन पर एक और धब्बा लग गया. एक ऐसा धब्बा जिसे शायद कई जन्म ले कर भी वह मिटा नहीं पाएगा. फिर तो एक झटके से मल्लिका की देह से अलग हो कर वह सीधे अपने बेडरूम में चला गया और बिना कुछ बोले अंदर से दरवाजा बंद कर लिया.
इधर मल्लिका को ऐसा लग रहा था जैसे जीवन में पहली बार उस ने कोई बड़ी जीत हासिल की है. अचानक जब दरवाजा बंद होने की आवाज उस के कानों में समाई तो जैसे उस के प्राण ही हलक को आ गए थे, एक तो अमर नशे में था, ऊपर से ठहरा वह घोर संवेदनशील इनसान. कहीं ऐसा तो नहीं कि अभी थोड़ी देर पहले वाली घटना को अपना गुनाह मान कर किसी प्रायश्चित्त को अंजाम देने की ठान ले.
इस सोच के साथ ही भाग कर मल्लिका उस के बेडरूम के दरवाजे को बेतहाशा पीटने लग गई. तभी उस के कानों में बाहर से आती कार के हार्न की आवाज समाई. वह समझ गई कि सौरभ लौट आया है. तत्काल किसी फैसले की स्थिति पर न पहुंचते हुए भी उस के पैर अपने आप बंगले की ओर दौड़ पडे़ थे.
मल्लिका एक पत्नी की जिम्मेदारी को किसी मशीन की तरह पूरी करती रही. देह से वह सौरभ के पास थी लेकिन उस का मन अमर में अटका रहा. सारी रात आंखों ही आंखों में कट गई. वह जानती थी कि सुबह का सूरज सौरभ के लिए अकसर निमंत्रण समान ही होता है. सचमुच, सुबह जल्दीजल्दी तैयार हो कर सौरभ निकल गया.
इस के बाद अभी वह अमर के पास जाने की सोच ही रही थी कि तभी दरवाजे से अंदर आते अमर पर उस की नजर पड़ी. उसे देख कर राहत की सांस ली मल्लिका ने कि चलो, अमर सहीसलामत तो है.
अमर के उतरे हुए चेहरे को देख कर किसी अनहोनी की आशंका से मल्लिका का मन कांप उठा था. अमर के चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई फैसला कर के आया है.
जमीन की तरफ घूरते हुए अमर ने बगैर होंठ खोले एक चाबी मल्लिका की ओर बढ़ा दी थी. मल्लिका की नजर जब चाबी पर पड़ी तो जैसे एक तरह का पागलपन उस पर सवार हो गया और वह चीखचीख कर बोली, ‘‘हांहां, चले जाओ यहां से, अभी चले जाओ, पर एक बात मैं जरूर पूछना चाहूंगी कि तुम अपने मुंह से सिर्फ इतना कह दो कि मुझे प्यार नहीं करते.’’
अमर मायूस आंखों से सिर्फ उस का चेहरा ही देखता रह गया.
‘‘अमर, कल वाले जिस हादसे को तुम पाप समझ रहे हो, मेरे लिए तो बस, वे ही चंद लमहे पूरे जीवन की उपलब्धि हैं. नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी तुम्हें यहां लाने की या तुम से पुन: वही कालिज के दिनों वाली आत्मीयता बढ़ाने की. खैर, तुम जाना चाहते हो तो जाओ पर याद रखना, तुम मेरे भीतर हमेशा जीवित रहोगे.’’
इस के बाद अमर खुद पर काबू नहीं रख पाया और उस ने मल्लिका को ऐसे अपनी बांहों में जकड़ लिया जैसे अब शायद मौत भी उन दोनों को जुदा नहीं कर पाएगी.