अमेरिकी चुनावों में पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का हाल वैसा ही हो रहा है जैसा नरेंद्र मोदी का हो रहा है. जैसे 4 जून, 2024 तक नरेंद्र मोदी भारत में अकेले मनमरजी करने वाले प्रधानमंत्री बने हुए थे वैसे ही जब तक अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन नवंबर में होने वाले चुनावों के लिए कैंडिडेट बने हुए थे, रिपब्लिकन पार्टी के नौमिनी डोनाल्ड ट्रंप की जीत पक्की मानी जा रही थी और पश्चिमी देशों की राजधानियां आने वाले 4 वर्षों तक ट्रंप के पागलपन को झेलने की तैयारियां कर रही थीं.
जैसे 4 जून, 2024 को भारत में पासा पलटा वैसा ही अमेरिका में वर्तमान उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के जो बाइडन की जगह चुनाव लड़ाने का डैमोक्रेटिक पार्टी के फैसले से पलट गया. अब डोनाल्ड ट्रंप उत्साही और व्हाइट हाउस के इकलौते वारिस नजर नहीं आ रहे. वोटर और इलैक्टोरल कालेज सिस्टम अब कुछ और फैसला कर सकते हैं. कमला हैरिस के राष्ट्रपति चुने जाने के आसार ज्यादा दिख रहे हैं.
चुनावी प्रचार में डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी चर्च पर काफी जोर दे रहे हैं. चर्च का समर्थन आज भी गोरों को ही नहीं, उन लैटिनों और कालों को भी बहका सकता है जिन के खिलाफ ट्रंप खुल्लमखुल्ला बोलते हैं. विशुद्ध गोरों की पार्टी रिपब्लिकन पार्टी पर डोनाल्ड ट्रंप ने कट्टरवाद को थोप दिया है. अमेरिका को तथाकथित ग्रेट बनाने के चक्कर में उन्होंने उस की राजनीति को गटर में डाल दिया है.
डोनाल्ड ट्रंप ने अवैध वर्करों को अमेरिका के लिए चुनावों का मुद्दा बना डाला, वे वर्कर जो घुसपैठिए हैं पर अमेरिका की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं. लाखों घरों में हैल्प के तौर पर यही अवैध लैटिनों और फिलिपीनों हैं. इन के बिना लाखों एकड़ जमीन बिना जुते रह जाएगी. वर्षों से अमेरिका में रह रहे लगभग 1 करोड़ 20 लाख अनडौक्यूमैंटेड, बिना सही कागज वाले, लोगों पर डोनाल्ड ट्रंप की तलवार लटक रही है लेकिन फिर भी चर्च का प्रभाव ऐसा है कि इन के भाईबंद डोनाल्ड ट्रंप का समर्थन कर रहे हैं.
कमला हैरिस हिंदू मां और ईसाई पिता की संतान हैं जो ईसाई धर्म को अपना धर्म मानती हैं हालांकि वे धर्म में बहुत ज्यादा विश्वास नहीं रखतीं. वे कैलिफोर्निया से सीनेटर भी रही है और वहां प्रौसिक्यूटर रह कर उन्होंने बहुत से गुनाहगारों को जेल भिजवाया है.
डोनाल्ड ट्रंप का गुनाहों से बहुत वास्ता रहा है और एक मामले में तो उन्हें सजा भी हो चुकी है. पर जैसे हमारे यहां शुद्ध पूजापाठी हो कर आप जनता के प्रति अपने पापों को पुण्य में बदल सकते हो, कुछ वैसे ही अमेरिका में चर्च की बदौलत ऐसा कर सकते हो.
चर्च को डोनाल्ड ट्रंप पसंद हैं क्योंकि वे कट्टरवादी हैं, बेरहम हैं, घुसपैठियों के परिवारों को अलग कर उन को सताने में उन्हें हिचक नहीं होती. चर्च, मंदिर, मसजिद को ऐसा ही नेता चाहिए होता है जो हरेक को भयभीत रखे ताकि लोग पूजापाठ करने और दान करने के लिए धर्म की दुकान में जाते रहें.
अमेरिका सक्षम है. नंबर वन उस की अर्थव्यवस्था है. ओलिंपिक में भी मिलिट्री में भी, साइंस में भी, शिक्षा में भी वह पहलादूसरा स्थान पाता है. यह उस की विविधता का कमाल है. वहां भेड़चाल नहीं चलती, जिस का मलाल वहां के चर्च को सदियों से है.
कमला हैरिस बनाम डोनाल्ड ट्रंप चुनाव लोकतांत्रिक और कट्टरवाद के बीच का चुनाव है. जो बाइडन बूढ़े हो चुके थे, इसलिए जब तक वे मैदान में थे, ट्रंप की जीत पक्की थी. अब यह मामला राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी जैसा है.
जहर और कहर
टैक्नोलौजी के सहारे सोशल मीडिया पूरी दुनिया में कोविड की तरह फैला हुआ है. जहां टैक्नोलौजी की पिछली उपलब्धियों, जैसे बिजली, कार, एरोप्लेन, लिफ्ट, ऊंचे भवन, एक्ट, सैटेलाइट, बीमारियों के इलाज, रोबोट्स आदि सैकड़ों चीजों ने जीवन को सुखी बनाया वहीं इंटरनैट की संपर्क की सुविधा में सोशल मीडिया की जबरन घुसपैठ ने पूरी दुनिया के जीवन में जहर घोल दिया है.
आज दुनिया का कोई हिस्सा नहीं है जो सोशल मीडिया के दुरुपयोग से बचा हो. सोशल मीडिया पर मौजूद प्लेटफौर्म आज विज्ञान का उपयोग एटम बमों के विस्फोट का सा कर रहे हैं और हर मोबाइल एक छोटा सा एटम बम सा है जो कुछ वैसा ही नुकसान पहुंचा रहा है जैसा हिरोशिमा और नागासाकी में गिराए गए एटम बमों ने पहुंचाया था.
सोशल मीडिया दूसरे मीडिया को कुतरकुतर कर न केवल खा गया है बल्कि यह सभी, खासतौर पर छोटों व युवाओं, को इस तरह का नशेड़ी बना रहा है जैसा ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18वीं-19वीं सदी में चीन में चीनियों को अफीम खिला कर बनाया था.
अफीम और एटम बमों की तरह आज सोशल मीडिया ने दुनियाभर के नागरिक समाज में जहर घोल दिया है. अब सरकारें इस पर शिकंजा कसने की तैयारी में लगी हैं, जो बहुत जरूरी भी है. ब्राजील में एक्स, जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था, पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.
फ्रांस ने टैलीग्राम के मालिक पावेल डुरोव को गिरफ्तार कर लिया कि उस का प्लेटफौर्म चाइल्ड पौर्नोग्राफी को प्रोत्साहन दे रहा है. आस्ट्रेलिया के नए प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीस ने अनाउंस किया है कि सोशल मीडिया बच्चों के हाथों में न पहुंचे, इस पर पूरे आस्ट्रेलिया में प्रतिबंध लगाया जाएगा.
कुछ सालों से सोशल मीडिया प्लेटफौर्म विज्ञापनदाताओं के बल पर हर किसी को मुफ्त जगह दे रहे थे और ज्यादा से ज्यादा यूजर्स पाने की होड़ में लोग नंगाई और बेहूदगी को बुरी तरह सोशल मीडिया पर उड़ेल रहे हैं. इन प्लेटफौर्म पर गंदे कैक्टस इस बुरी तरह उगा दिए गए हैं कि उन्होंने खुशबूदार फूलों की पूरी पौध को जला डाला है.
विचारों की आजादी के नाम पर बकवास फैलाने की आजादी वैसी ही है जैसी हमारे यहां धर्म की आजादी के नाम पर कांवड़ वाले रास्तेभर कहर मचाते चलते हैं. टैक्नोलौजी को सुख के लिए नहीं, कुछ क्षणों के आनंद के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है. ये क्षण एकदो मिनट नहीं, घंटों में बदल चुके हैं.
बच्चे, किशोर बजाय स्कूली ज्ञान के तोड़फोड़, सैक्स, झाठ का ज्ञान पा रहे हैं. विज्ञापनदाताओं के साथ देशों के डिक्टेटर और धर्म के दुकानदार भी इस में कूद गए हैं और इसे पैसा दे रहे हैं क्योंकि काफी विज्ञापन झाठे होते हैं. डिक्टेटर झाठ पर आधारित सोच के चलते राज कर सकते हैं और धर्मों का आधार तो है ही कपोलकल्पित कहानियों का.
ब्राजील, फ्रांस, यूरोप के अन्य देश, आस्ट्रेलिया अगर इस जहर की वैक्सीन वाले कानून बना रहे हैं, तो यह जरूरी है. सोशल मीडिया को विचारों की आजादी के नाम पर बिना निमंत्रण, बिना किसी फेस, बिना किसी पते के चलने का हक देना खतरनाक है.
बिना जिम्मेदारी लिए ऐसी सड़कें बना देने का हक, जो चलने वालों को गहरे काले पानी में धकेल दें, किसी को नहीं दिया जा सकता. समाज को बचाने व उसे सुखी बनाने के लिए टैक्नोलौजी का इस्तेमाल करना जरूरी है. एटम बम आतंकवादियों के हाथों में न पड़ें, यह देखना जरूरी है. आम पैसेंजर हवाईजहाजों को मिसाइलों की तरह उपयोग किया जा सकता है, यह ओसामा बिन लादेन न्यूयौर्क के ट्विन टावर्स को 11 सितंबर, 2001 के दिन तोड़ कर साबित कर चुका है.
सुप्रीम कोर्ट एवं निचली अदालतें
लगभग नीति परिवर्तन के मूड में सुप्रीम कोर्ट ने अब पिछले कुछ महीनों से जमानत के लिए आने वाले मामलों में जेल नहीं बेल, कैद नहीं जमानत का राग अलापना शुरू किया है. जो भी मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचता है कि जमानत दी जाए, वह पहले महीनों नहीं सालों तक निचली अदालतों, जिन में हाईकोर्ट भी शामिल हैं, में लटका रहता है, जो जमानत देने से इनकार कर चुकी होती हैं.
दिल्ली के आम आदमी पार्टी के तथाकथित शराब घोटाले में भारतीय राष्ट्रीय समिति पार्टी की के कविता को जमानत देते हुए एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट को फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वे मनमाने ढंग से किसी को भी बिना सही व पक्के सुबूत के महीनों जेल में नहीं रख सकते. यह जमानत उस ने तब के कविता को दी जब सत्येंद्र जैन को अभी भी इसी घोटाले में कैद कर रखा हुआ है.
एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट ने जुलाई 2022 में दिल्ली मुख्य सचिव की शिकायत पर उपराज्यपाल के आदेश पर एकएक कर के कई लोगों को 580 करोड़ के राजस्व की जांच के नाम पर गिरफ्तार किया था पर अभी तक किसी के खिलाफ कोई गवाही शुरू नहीं हुई और ईडी अभी तक जांच ही कर रही है, तथ्य ढूंढ़े जा रहे है. ईडी के पास कोई कागजी सुबूत या बैंक अकाउंट का खुलासा नहीं हुआ है.
आम आदमी पार्टी को कौर्नर करने में तो ये गिरफ्तारियां बड़े काम की रही हैं पर गुनाहगारों को भारत में जेलों में सजा देने के काम में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ी हैं. अभी तक यह अपराध का नहीं, राजनीति का मामला है. भारतीय जनता पार्टी को यह बिलकुल गवारा नहीं कि उस दिल्ली से जहां से वह 3 बार से लोकसभा की सभी सातों सीटें जीत रही है, अरविंद केजरीवाल विधानसभा में इतने बहुमत से जीत रहे हैं कि लेदे कर दलबदल करवाना भी संभव नहीं हो पाता. वह ईडी के जरिए पूंछ पकड़ कर सूई की नोंक से हाथी को निकालने के चक्कर में है.
जहां तक सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जेल नहीं बेल अपराध कानूनों की नीति होना चाहिए, यह कहीं भी माना जा रहा हो, ऐसा नहीं लगता. हर पुलिस अफसर और हर पहला मजिस्ट्रेट इस सिद्धांत को मानता है कि जेल हां हां, बेल न न. छोटेछोटे मामलों में भी और ऐसे मामलों तक में जहां आरोपी का अपराध से सीधा संबंध न हो, किसी पर भी आरोप लगा कर जेल में ठूंस देने को वे कानून मानते हैं.
दिसंबर 2022 के आंकड़ों के अनुसार, 6 लाख के करीब जेलों में बंद कैदियों में साढ़े 4 लाख कैदी अभी तक सजा नहीं पाए हैं और कुछ तो 8-10 सालों से बंद हैं, बिना अपराध साबित हुए. केवल वे ही जमानत पा पाते हैं जिन के पास वकीलों पर खर्च करने का बड़ा पैसा होता है.
सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में जेल नहीं बेल कहा है पर न तो पुलिस अफसर और न ही मजिस्ट्रेट और हाईकोर्ट इस को तवज्जुह दे रहे हैं. केवल उन्हें जमानत मिल रही है जहां पुलिस की मामलों में रुचि न हो रही हो क्योंकि हर आरोपी से कुछ न कुछ मिल ही जाता है.
सुप्रीम कोर्ट को अपनी बात मनवानी है तो उसे हर जिले में एक मौनिटरिंग कमेटी बनानी चाहिए जो हर जमानत इनकार किए मामले की तुरंत जांच करे ताकि मजिस्ट्रेट व सरकारी वकील और पुलिस को कठघरे में खड़ा किया जा सके. असल में हमारे यहां न्याय पौराणिक अन्याय की सोच पर निर्भर है जिस में सजा को पापों का अनिवार्य फल माना जाता है जब तक कि दानदक्षिणा दे कर या ईश्वर या देवता के पैर छू कर वरदान न मिल जाए. जो गिरफ्तार होता है वह कितना ‘दान’ देता है, क्या बताना पड़ेगा?