Download App

अबोला: मांंबेटे की भावुक करनेवाली कहानी

प्रफुल्ल ने बीमार मां की तीमारदारी में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी. अपने कर्तव्य के प्रति इतने सजग होने के बावजूद प्रफुल्ल मां से बात नहीं करता था. आखिर प्रफुल्ल की मां से ऐसी क्या नाराजगी थी कि उन से अबोला ही कर लिया था?

प्रफुल्ल की मम्मी अकसर बीमार रहती थीं. दमे की मरीज तो वे थीं ही, किंतु इस बार तो वे ऐसी बीमार पड़ीं कि उन्होंने बिस्तर ही न छोड़ा.  टायफाइड होने के बाद वे संभल ही नहीं पाईं कि फिर से बुखार हो गया. आंखें अंदर को धंस गईं, गाल पिचक गए, बिस्तर पर पड़ीपड़ी टुकुरटुकुर देखने लगीं.

प्रफुल्ल ने अपनी मम्मी के इलाज में जरा भी लापरवाही नहीं बरती थी. अच्छे चिकित्सक से उन का इलाज करवाया था. नर्सिंगहोम में भरती भी करा दिया था. दिनोंदिन हालत बिगड़ने पर उस ने एलोपैथिक पद्धति के बजाय होम्योपैथिक चिकित्सा का सहारा लिया था. एक वैद्यराज के निर्देशानुसार काढ़ा उबालउबाल कर भी मम्मी को दिया था. मम्मी की हालत गिरती ही गई थी. सारे नातेरिश्तेदार खबर लेने आने लगे. छोटी बहन आभा तो महीनेभर से मम्मी के पास ही थी.

 

प्रफुल्ल ने खर्चे की परवा नहीं की थी. अपनी पत्नी एवं बच्चों से भी उस ने यही आशा की थी. उन सभी को उस ने सजग रहने की सख्त हिदायत दे रखी थी. मम्मी को उन्होंने कभी अकेला नहीं छोड़ा था. अपने कर्तव्य के प्रति इतना सजग होने के बावजूद प्रफुल्ल मम्मी की बीमारी में उन से दूरदूर ही रहा था. उस ने कोई बात तक नहीं की थी. दूर रहते हुए वह सारे सूत्र संभालता रहा. प्रफुल्ल के इस अनोखे व्यवहार का कारण था अपनी मम्मी से लगभग एक वर्ष से चल रहा ‘अबोला.’ उस ने मम्मी से बातचीत बंद कर दी थी.

 

हुआ यों था कि सालभर पहले प्रफुल्ल के पापा के निधन के बाद पापा के स्थान पर प्रफुल्ल का नाम सरकारी कागजों में चढ़ाया जा रहा था. उस समय प्रफुल्ल की मम्मी ने प्रफुल्ल को सलाह दी थी कि आभा की माली हालत ठीक नहीं है, इसलिए उस की सहायता के लिए वह खेती की जमीन में से कुछ हिस्सा बहन को दे दे.

 

यह सलाह प्रफुल्ल को नहीं सुहाई क्योंकि आभा के पति ने अपनी पैतृक संपत्ति में से अपनी बहनों को कुछ नहीं दिया था. इसीलिए प्रफुल्ल ने दलील दी थी कि आभा ने अपनी ननदों को यदि पैतृक संपत्ति में से हिस्सा दिया होता तो वह अपने पिता की संपत्ति में से हिस्सा लेने की हकदार होती. उसे अपनी मम्मी की यह बात बनावटी लगी थी. उसे मम्मी की इस बात में बेटी के प्रति पक्षपात नजर आया.बे टे के बजाय उन्हें अपनी बेटी ही अधिक लाड़ली रही थी. उस के विवाह में भी उन्होंने प्रफुल्ल के विवाह से कहीं अधिक खर्च किया था, पापा जब हाथ खींचने लगे थे तो मम्मी ने उन्हें उदार बनने के लिए विवश किया था. पापा के न रहने पर भी उसी राह चलती रहीं, आभा को जमीन दिलवाने को आमादा रहीं.

 

प्रफुल्ल ने मम्मी की सलाह अनसुनी कर दी. मम्मी एवं आभा दोनों जब सहमतिपत्र पर हस्ताक्षर करने में थोड़ी झिझकी थीं तो उस ने साफ शब्दों में कह दिया था कि वह पूरी जमीनजायदाद का मालिक बनेगा, नहीं तो कुछ भी नहीं लेगा. तब मम्मी और आभा ने ?ां?ाला कर हस्ताक्षर कर दिए थे- मम्मी और बहन के इस व्यवहार ने उस के मन में गांठ लगा दी थी. सारी जमीनजायदाद का मालिक बन जाने पर भी वह उन के प्रति सहज नहीं हो पाया था. उसे एक फांस सी चुभती रही थी. उस ने ऐसी कौन सी अनुचित मांग की थी. वे दोनों सहज ढंग से सहमतिपत्र पर हस्ताक्षर कर देतीं तो उस के मन में फांस न चुभती, मगर उन दोनों ने ?ां?ाला कर पत्र पर हस्ताक्षर कर यह जताया था कि उन दोनों ने उस पर जैसे कोई एहसान किया है.

 

इस घटना के कुछ महीने बाद ही प्रफुल्ल के मन में पड़ी गांठ पर दूसरी गांठ भी पड़ गई थी. हुआ यों था कि एक असामी के आने पर प्रफुल्ल के पिताजी की तिजोरी खोली गई थी, जिस में रेहन रखे गए गहने रखे जाते थे. उस के पिताजी गहने रेहन रख कर कर्ज देते थे. लेनदेन का यह कारोबार उन के निधन के बाद बंद हो गया था, इसीलिए तिजोरी को खोलने की नौबत नहीं आई थी.

 

प्रफुल्ल का मन तो हुआ था कि इस तिजोरी को खोल कर लेनदेन का हिसाब साफ कर दिया जाए मगर तिजोरी की चाबी मम्मी के पास होने से वह तिजोरी खोल नहीं पाया था और मम्मी से चाबी मांगने में उसे संकोच हुआ था. कर्जदार असामी के आने से मम्मी को तिजोरी का ताला खोलना पड़ा था. इसी समय उन्होंने तिजोरी में रखे अन्य गहने निकलवा कर उन के हिसाबकिताब की जांच कराई थी. जांच करने पर रेहन रखे जिन गहनों की रेहन की अवधि समाप्त हो गई थी उन का बंटवारा उन्होंने भाईबहन में अपने हाथ से कर दिया था पर इस बार उन्होंने प्रफुल्ल की सहमति नहीं ली थी. उन्होंने खुद ही निर्णय लिया था. उन्होंने प्रफुल्ल से यही कहा था कि ये गहने तो पराए हैं, इन में से आभा को देने में कोई हर्ज नहीं है. गहनों के इस बंटवारे ने प्रफुल्ल के मन पर पड़ी गांठ को और भी मजबूत कर दिया था.

 

 

अपनी लाड़ली बेटी को उन्होंने गहनों में से बेटे के बराबर हिस्सा दे दिया. उन्होंने अपने बेटे पर अविश्वास किया, सोचा कि जिस तरह उस ने अचल संपत्ति में से आभा को हिस्सा नहीं दिया तो हो सकता है गहनों में से भी न दे, यही सोच कर उन्होंने एकतरफा फैसला किया.कुछ दिनों बाद प्रफुल्ल ने अपने पिताजी की लेनदेन की लिखतपढ़त की बारीकी से पड़ताल की तो उसे लगा कि बंटवारे में आए गहने लिखतपढ़त के हिसाब से मेल नहीं खा रहे हैं. उसे संदेह हुआ कि मम्मी ने बंटवारे से पहले ही कुछ गहने तिजोरी में से निकाल कर आभा को दे दिए होंगे, क्योंकि तिजोरी की चाबी तो उन्हीं के आंचल से बंधी रहती थी.

 

इस बीच आभा के रहनसहन में आए बदलाव से प्रफुल्ल को लगा था कि यह सब मम्मी के गुप्तदान का ही प्रताप है. इस अनुमान से एक और नई गांठ उस के मन पर पड़ गई थी. नतीजतन, वह उन दोनों से तंग आ गया था. उस ने उन से बातें करना बंद कर दिया था. प्रफुल्ल के इस व्यवहार से चकित हो कर मम्मी ने उसे यह कहते हुए ?िड़का भी था, ‘क्यों रे मुए, मांबेटे में भी कहीं ‘अबोला’ चलता है? और यह तो बता कि तू ने अबोला किया किसलिए. बहन को जरा से गहने क्या दे दिए, इसी में तेरा मुंह फूल गया? आभा के लिए तेरे मन में जगह क्यों नहीं है? वह तेरी सौतेली बहन है क्या?’ प्रफुल्ल ने मम्मी के इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया था, वह तना ही रहा था.

 

फिर कई दिन बीत जाने के बाद भी प्रफुल्ल का अबोला जब नहीं टूटा था तो मम्मी झल्लाई थीं, ‘प्रफुल्ल, साफसाफ कह कि तू चाहता क्या है? तू कहे तो आभा से गहने वापस ले लेती हूं. तू यह अनोखा व्यवहार बंद कर. लोग सुनेंगे तो बदनामी होगी,’ किंतु प्रफुल्ल ने मम्मी की इस ? झल्लाहट पर ध्यान नहीं दिया था कोई परिणाम न निकलने पर मम्मी ने एक रोज रोंआसी हो कर प्रफुल्ल से कहा था, ‘भैया, मुझ से यदि कोई अपराध हो गया है तो मुझे क्षमा कर दे. मैं तुझ से माफी मांगती हूं.’

 

मम्मी के ऐसा कहने से प्रफुल्ल की पत्नी एवं उस के बच्चों को दुख हुआ था. उन्होंने भी प्रफुल्ल से कहा कि मम्मी इतना ?ाक गई हैं, अब तो आप इस झगड़े को छोडि़ए. तभी एक रोज आभा ने आ कर घटनाक्रम को नया मोड़ दे दिया था. वह गहनों की पोटली ले कर आई और अपने भाई के सामने उसे पटकते हुए बोली थी, ‘ले दादा, अपनी छाती ठंडी कर ले. देख ले, सारे गहने वापस आ गए हैं या नहीं. कोई कमी रह गई हो तो बता दे.’आभा के इस धमाके ने प्रफुल्ल के ठंडे हो रहे मनमस्तिष्क को फिर गरमा दिया था. वह सहज होतेहोते फिर असहज हो गया था.

 

प्रफुल्ल की पत्नी ने अपनी ननद को वे गहने लौटा दिए थे. आभा गहने वापस लेने को तैयार नहीं हुई थी मगर प्रफुल्ल की पत्नी यही कह कर गहने छोड़ आई थी कि बहन को दिए गहने भाई वापस नहीं लेता है. प्रफुल्ल अपनी मम्मी से तना हीरहा था. मम्मी का स्वास्थ्य जब बिगडऩे लगा था तब प्रफुल्ल की पत्नी ने ही उसे ?िड़का था, ‘अमरसिंह राठौर मत बनो, मम्मी का खयाल करो?’ मम्मी की उदासी प्रफुल्ल को दुखी करती रही थी, इसीलिए उस का मन करता था कि वह अपना गुस्सा थूक दे मगर वह ऐसा कर नहीं पा रहा था.

 

किंतु इस विषम स्थिति में भी उसे अपनी मम्मी की चिंता बराबर रही थी. मम्मी के इलाज के बारे में वह सजग रहा था. मम्मी को टायफाइड होने पर आभा जब यहां आई हुई थी तब एक रोज वह प्रफुल्ल से झगड़ी थी. उस ने भाई को आड़े हाथों लेते हुए खरीखरी सुनाई थी. ? झल्ला कर यह तक कह दिया था, ‘दादा, तेरा दिल पत्थर का है.’ आभा की इस बात ने प्रफुल्ल को जैसे कठघरे में खड़ा कर दिया था. वह आत्मविश्लेषण करने लगा था और खुद से पूछने लगा था कि उस का क्या

 

दोष है. क्या मम्मी ने उसे कांटे चुभोए, इसीलिए उन के प्रति उस का मन खट्टा हुआ. ऐसे आत्मविश्लेषण से व्यथित हो कर प्रफुल्ल ने अबोला समाप्त करने का मन बनाया था. एक रात के सन्नाटे में वह मम्मी के कमरे में इसी हेतु गया भी था. उस की पदचाप से मम्मी जाग गई थीं. उन्होंने हौले से पूछा था, ‘कौन है?’ मगर तब तक तो वह उन के कमरे से बाहर आ गया था. मम्मी की आवाज सुन कर प्रफुल्ल की पत्नी भी जाग गई थी. उस ने मम्मी से पूछा था, ‘क्या है, मम्मी?’

 

‘कुछ नहीं बहूरानी,’ मम्मी ने कहा था. इस ‘कुछ नहीं’ ने प्रफुल्ल के कलेजे पर चोट सी की थी, मगर वह फिर दोबारा उन के कमरे में नहीं जा पाया था. मम्मी की हालत जब दिनोंदिन गिरने लगी थी तब प्रफुल्ल की पत्नी ने ही उसे चेताया था, ‘देखोजी, वक्त रहते मम्मी से बोल लो, नहीं तो बाद में जिंदगीभर पछताओगे.’ प्रफुल्ल के बच्चों ने भी अपने पापा से विनती की थी, ‘पापा, दादीमां आप को याद करती हैं, कहती हैं कि आप एक बार उन्हें मम्मी कह कर पुकार लें.’

 

आभा ने अपने भाई को ?िड़का था, ‘दादा, तू तो बैरी से भी ज्यादा हो गया रे. मां तेरे बोल के लिए तरस रही हैं और तू उन की यह आखिरी इच्छा भी पूरी नहीं कर रहा है. तुझे हो क्या गया है.’ इन वाक्यबाणों से व्यथित प्रफुल्ल अपने मन की जकड़न से मुक्त होने का प्रयास करने लगा था. तभी एक रोज संज्ञाशून्य हुई मम्मी की चेतना लौटने पर उन का करुण स्वर उस के कानों में पड़ा. वे कराहते हुए पुकार रही थीं, ‘बेटा प्रफुल्ल?’इस पुकार को प्रफुल्ल अनसुना नहीं कर पाया. मानो अंधी सुरंग में से जैसे किसी ने उसे खींच लिया, मन की जकड़न से जैसे किसी ने उसे मुक्त कर दिया, वह भागाभागा मम्मी के कमरे में गया. मां के पलंग के पास आ कर उस ने भीगे स्वर में कहा, ‘मम्मी…मम्मी?’

 

मम्मी ने अपनी बो पलकें खोलीं. बेटे को पास खड़ा देख वे जैसे निहाल हो गईं, मगर उन्हें अपनी आंखों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ. उन्हें लगा कि वे सपना देख रही हैं, इसीलिए उन्होंने पूछा, ‘कौन? प्रफुल्ल?’‘हां, मम्मी,’ प्रफुल्ल ने उन के पलंग पर बैठते हुए कहा. मम्मी ने अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘बेटा, एक बार मम्मी और कहो?’  प्रफुल्ल ने भर्राए स्वर में कहा, ‘मम्मी…’ तभी मांबेटे दोनों फूटफूट कर रो पड़े.

आखिर तुम्हें आना है जरा देर लगेगी

चेतनाजी सुबह से ही अनमनी सी थीं. कितनी खुश हो कर इतने दिनों से अपने बेटे के आने की तैयारियों में व्यस्त थीं. उन का बेटा विवान बहुत सालों पहले अमेरिका में जा कर रहने लगा था. एक बेटी थी नित्या, उस की भी शादी हो चुकी थी. जब से पता चला कि उन का बेटा विवान इतने सालों बाद अमेरिका से भारत आ रहा है, तब से उस की पसंद के बेसन के लड्डू, मठरी, उस की पसंद का कैरी का अचार और भी न जाने क्याक्या बना रही थीं. भले शरीर साथ नहीं देता पर बेटे के मोह में न जाने कहां से इतनी ताकत आ गई थी.

महेशजी, उन के पति उन को इतना उत्साहित और व्यस्त देख चिढ़ कर कहते भी, ‘‘मैं जब तुम से कुछ बनाने को कहता हूं तो कहती हो मेरे घुटनों में दर्द है. अब कहां से इतनी ताकत आ गई?’’ चेतनाजी बड़बड़ करती बोलीं, ‘‘अरे, अपनी उम्र और सेहत को तो देखो, जबान को थोड़ा लगाम दो. इस उम्र में सादा खाना ही खाना चाहिए.’’ पर आज सुबह उन के बेटे विवान का फोन आया, ‘‘पापा, मैं नहीं आ पाऊंगा. इतनी छुट्टियां नहीं मिल रहीं और जो थोड़ी बची हैं उन में बच्चे यहीं घूमना चाहते हैं.’

अपने बेटे की बात सुन महेशजी ने कहा भी, ‘‘बेटा, तुम्हारी मां तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रही है, उस को दुख होगा.’’ ‘‘ओह पापा, आप तो समझदार हो न, मां को समझ दो, अगली बार जरूर आ जाऊंगा,’’ कहते हुए विवान ने फोन रख दिया.इधर महेशजी खुद से ही बोले, ‘हां बेटा, मैं तो समझदार ही हूं, इसलिए तेरी मां को मना करता हूं पर वह बेवकूफ पता नहीं कब अपना मोह छोड़ेगी, कब अक्ल आएगी उसे.’

चेतनाजी ने सब सुन लिया था. महेशजी ने जैसे ही उन्हें देखा, वे कुछ कहते उस से पहले ही चेतनाजी अपने आंसुओं को छिपाती बोलीं, ‘‘अरे, काम होगा उसे, अब कोई फालतू थोड़ी न है, आखिर इतनी बड़ी कंपनी में है और वैसे भी, कोई पड़ोस में तो रहता नहीं, जो जब मन आया मुंह उठाए और चला आए.’’ वे नहीं चाहती थीं कि महेशजी अपने बेटे के खिलाफ कुछ भी बोलें. इसलिए वे कुछ कहते उस से पहले खुद ही उस की सफाई में बोले जा रही थीं. महेशजी बोले, ‘‘बन गई अपने बेटे की वकील, शुरू हो गई तुम्हारी दलील और तुम जो इतने दिनों से उस के लिए तैयारी कर रही थीं, कितनी बेचैन थीं तुम्हारी ये आंखें उसे देखने के लिए.’’

चेतनाजी फिर किसी कुशल वकील की तरह दलील देने लगीं, ‘‘अरे, मेरा क्या है, कुछ काम नहीं है इसलिए बना लिया, अब चुप रहो, काम करने दो मुझे.’’ यह कहती हुई वे बिना बात कमरे की अलमारियों को साफ करने लगीं. आदत थी उन की यह. जब भी दुखी होतीं, खुद को और ज्यादा व्यस्त कर लेतीं पर महेशजी से उन की उदासी, उन की छटपटाहट छिपी नहीं थी. उन्होंने चेतनाजी को कुछ नहीं बोला और खुद रसोई में जा कर 2 कप चाय बनाई और चेतनाजी को जबरदस्ती बुला कर कुरसी पर बैठाया व चाय का कप पकड़ाया. चेतनाजी महेशजी का सामना करने से कतरा रही थीं. डर था उन्हें, उन के अंदर जो गुबार था कहीं वह फट न पड़े. महेशजी उन की हालत समझ रहे थे. उन्होंने चाय पीते हुए कहा, ‘‘मुझसे छिपाओगी अपने आंसू, बहने दो इन्हें, कर लो अपने दिल को हलका.’’

महेशजी के इतना कहते ही चेतनाजी के सीने में दबा बांध टूट गया. वे बच्चों के जैसे फूटफूट कर रो पड़ीं. महेशजी ने अपनी चाय का कप टेबल पर रखा और चेतनाजी के हाथ में पकड़ा कप भी ले कर टेबल पर रख दिया और उन्हें सीने से लगा लिया, ‘‘कब तक अपने को दुखी करोगी.’’ चेतनाजी कुछ नहीं बोलीं, बस महेशजी के सीने में मुंह छिपाए सिसकती रहीं.

जाने कब तक वे आंसू बहा अपना मन हलका करने की कोशिश कर रही थीं. मन में भरा दुख कम भले न हो पर कुछ समय के लिए हलका तो होता ही है और जब आंसू बहाने को अपना कंधा हो तो कौन अपना दुख, अपना गम बांटना नहीं चाहेगा.

महेशजी ने भी आज उन्हें नहीं रोका, रो लेने दिया. काफी देर बाद जब चेतनाजी बहुत रो लीं, महेशजी ने उन्हें पानी पिलाया.

चेतनाजी पानी पी, गिलास को रखती हुई बोलीं, ‘‘मेरी तो हमेशा से पूरी दुनिया ही बच्चे हैं पर उन की व्यस्त दुनिया में हमारे लिए समय ही नहीं. आप मुझे कितना समझाते थे पर मैं ने आप की तरफ ध्यान ही नहीं दिया. सच कितनी खराब हूं मैं, कितने नाराज होंगे आप मुझसे. सब को प्यार देने के कारण आप को प्यार देने में भी कंजूसी की. आप को सब से बाद में रखा. कभी दो घड़ी आप के लिए फुरसत नहीं निकाली.’’ चेतनाजी मानो आज पछता रही थीं.

महेशजी हंसते हुए बोले, ‘‘अरे, क्या मैं जानता नहीं तुम कितनी खराब हो…’’ महेशजी के ऐसा बोलने से चेतनाजी ने उन्हें देखा तो उन की हंसी से समझ गईं कि वे अभी भी उन्हें परेशान कर रहे हैं. महेशजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘तुम मुझ कितना प्यार करती हो, यह बताने की जरूरत नहीं. हां, यह अलग बात है कि तुम ने कभी मुझेे आई लव यू नहीं बोला,’’ कहते हुए उन्होंने चेतनाजी को हलकी सी आंख मारी. चेतनाजी इस उम्र में भी शर्म से लाल हो गईं.

महेशजी उन की आंखों में देखते हुए बोले, ‘‘पर तुम्हारे प्यार और त्याग के आगे बोलने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई. हमारे रिश्ते की यही खासीयत तो इसे सब से अलग बनाती है, जहां कुछ कहने, सुनने, सफाई देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती.’’चेतनाजी को महेशजी की बात से थोड़ा सुकून मिला. कप में पड़ी चाय ठंडी हो चुकी थी. वे कप उठाती बोलीं, ‘‘आप बैठो, तब तक मैं दूसरी चाय बना कर लाती हूं.’’

जैसे ही वे उठने लगीं, एकदम से उन के घुटने में दर्द उठा. महेशजी ने उन्हें आंख दिखा चुपचाप बैठने को कहा और दर्द का तेल ले कर आए व उन के पास नीचे बैठ कर उन के घुटने पर मालिश करने लगे. चेतनाजी ने मना भी किया पर महेशजी के गुस्से में छिपे प्यार के कारण कुछ नहीं बोलीं. चेतनाजी उन को देख रही थीं तो महेशजी बोले, ‘‘क्या देख रही हो?’’ चेतनाजी गहरी सांस लेती हुई बोलीं, ‘‘यही कि सारे रिश्तों के लिए जिस रिश्ते की परवा नहीं की, फिर भी जिंदगी के हर मोड़ पर मेरा इतना साथ दिया.’’ महेशजी बोले, ‘‘पगली, तेरामेरा रिश्ता है ही ऐसा. चाहे इस को हम रोज सीचें या न सीचें, यह तो किसी जंगली पौधे की तरह अपनेआप फलताफूलता है.’’

महेशजी प्यार से चेतनाजी के घुटने की मालिश कर रहे थे. वे मालिश करते हुए बोले, ‘‘पूरी जिंदगी बच्चों और मेरे पीछे भागने का नतीजा है, जो आज इन घुटनों ने भी जवाब दे दिया.’’

महेशजी के ऐसा बोलने से चेतनाजी जैसे अपनी यादों में कहीं खो गईं. वे महेशजी से बोलीं, ‘‘आप को याद है जब विवान घुटनों पर चलना सीख ही रहा था, कितना परेशान करता था मुझे. एक पल यहां तो एक पल वहां. मैं तो उस के पीछे भागतीभागती परेशान हो जाती थी.’’चेतनाजी की आंखों में आज भी बिलकुल वही चमक आ गई जैसी तब आई होगी जब विवान घुटनों पर चलना सीख रहा था. महेशजी उन के घुटने में मालिश करते हुए बोले, ‘‘तभी तो उस के पीछे भागतेभागते खुद के घुटनों में दर्द करवा लिया और अब मालिश मुझसे करवा रही हो.’’चेतनाजी बनावटी गुस्से में बोलीं, ‘‘जाओ रहने दो, मालिश क्या कर रहे हो, आप तो एहसान जता रहे हो.’’ महेशजी हंसते हुए बोले, ‘‘गुस्सा तो तुम्हारी नाक पर बैठा रहता है पर आज भी सब का गुस्सा बस मुझ पर ही उतरता है. अरे बाबा, मैं तो मजाक कर रहा हूं. मेरा बस चले तो अपनी हीरोइन को पलकों पर बैठा कर रखूं.’’

चेतनाजी उन्हें ? झिड़कते हुए बोलीं, ‘‘कुछ तो शर्म करो, बुढ़ापा आ गया और यहां इन को दीवानगी सूझ रही है. अरे, किसी ने सुन लिया तो कहेगा कि बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम.’’महेशजी बोले, ‘‘बोलता है तो बोलने दो. अब मुझे किसी की परवा नहीं. जवानी के दिन तो हम ने घरगृहस्थी और जिम्मेदारियों में बिता दिए, अब दो घड़ी फुरसत मिली तो ये पल भी गंवा दूं? सब की परवा करते पहले ही बहुतकुछ गंवा चुका, अब गंवाने की भूल नहीं कर सकता,’’ कहते हुए वे चेतनाजी की गोद में किसी बच्चे के जैसे सिर रख लेट गए.

चेतनाजी को भी उन पर किसी बच्चे की ही तरह प्यार आया. वे उन के बालों में हाथ फिराने लगीं. महेशजी उन की गोद में लेटेलेटे ही बोले, ‘‘पता है, जब तुम विवान और बेटी नित्या में व्यस्त रहतीं, कितनी ही दफा मैं ने मूवी के टिकट, जो मैं कितना खुश हो ले कर आता था, बिना तुम्हें बताए फाड़ देता. घर पर मूड बना कर आता आज कैंडल लाइट डिनर करेंगे पर घर आता तो देखता कभी तुम बेटे की नैपी बदलने में व्यस्त हो तो कभी बेटी की पढ़ाई में.’’ चेतनाजी को उन की आवाज में उन अनमोल पलों को खोने की कसक महसूस हो रही थी. उन्होंने उन के सिर को अपनी गोद से हटाया तो महेशजी बोले, ‘‘कभी तो 2 घड़ी मेरे पास बैठा करो, तुम को तो मेरे लिए फुरसत ही नहीं, अब कहां चल दीं?’’

पर चेतनाजी बिना उन की सुने चल दीं. महेशजी तुनकते रहे. चेतनाजी जब आईं तो उन के हाथों में तेल था, महेशजी से बोलीं, ‘‘आप को तो उलटा पढ़ने की आदत है. इधर आओ,’’ और वे कुरसी पर बैठ महेशजी के बालों में मालिश करने लगीं.

महेशजी बोले, ‘‘अरे, क्या कर रही हो, मुझे जरूरत नहीं. अभी तुम्हारे हाथों में दर्द हो जाएगा.’’

चेतनाजी बोलीं, ‘‘अरे बाबा, मैं तो तुम्हारा कर्ज चुका रही हूं, नहीं तो सुनाते रहोगे.’’

महेशजी रूठते हुए बोले, ‘‘बस, क्या इतना ही समझ मुझे?’’

चेतनाजी उन्हें मनाती हुई बोलीं, ‘‘तुम भी न, मजाक भी नहीं सम?ाते. हर बात को गंभीरता से ले लेते हो और बच्चों के जैसे रूठ जाते हो. अब क्या बच्चों के जैसे मनाऊं भी.’’

दोनों पतिपत्नी किसी बच्चे की तरह बेसाख्ता हंसने लगे. चेतनाजी उन के बालों में मालिश करती बोलीं, ‘‘याद है, जब मैं दोनों बच्चों के बालों में मालिश करती तो तुम कभीकभी गुस्सा हो कहते कि कभी तो मेरे बालों में भी कर दिया करो मालिश और मु?ो मलाल भी होता. मन बनाती आज तो इन की शिकायत दूर करूंगी और दोनों बच्चों से फ्री हो कर जब तुम्हारे पास तुम्हारे बालों में मालिश करने आती, तब तक तुम मेरे इंतजार में घोड़े बेच कर सो चुके होते. सच, जब  तुम्हें देखती तो खुद पर गुस्सा भी आता.’’

वे दोनों अपनी यादों में खोए थे, इतने में काली घटाएं छा गईं. चेतनाजी  लड़खड़ाते कदमों से बाहर कपड़े उठाने को भागीं. मसाले भी धूप लगाने को रखे थे, वे भी उठाने थे. तब तक महेशजी रसोई में चाय बनाने लगे, साथ में विवान के लिए बनाए लड्डू और मठरी भी ले आए. अब तो चेतनाजी भी कुछ नहीं कहेंगी, नहीं तो उन को हाथ भी नहीं लगाने देतीं, कहतीं कि सब तुम ही खा जाओगे, कुछ विवान के लिए भी छोड़ोगे? पर अब जब विवान ही नहीं आ रहा तो किस के लिए बचातीं. महेशजी ने  चेतनाजी को चाय पकड़ाई और दोनों बरामदे में रखे झूले पर बैठ गए. बाहर बारिश शुरू हो गई थी.

महेशजी बोले, ‘‘याद है, तुम्हारा कितना मन था इस झूले को घर लाने का? इस पर हम दोनों बैठे, गप्पें लड़ाएं, चाय पिएं. मैं कितनी खुशी से यह झूला लाया था, तुम भी इसे देख कितना खुश थीं पर कसक मन में ही रह गई. कभी तुम बच्चों के टिफिन में व्यस्त, कभी चूल्हेचौके में. मैं अकेला चाय पी लेता और तुम भी ठंडी चाय एक घूंट में खत्म कर जातीं और यह झूला हमारा और हमारी फुरसत में बिताए पलों का इंतजार ही करता रह गया.’’

महेशजी मठरी खाते बोले, ‘‘तुम्हारे हाथों में तो आज भी जादू है,’’ कह उन्होंने चेतनाजी के हाथ चूम लिए. आज चेतनाजी ने भी अपना हाथ नहीं छुड़ाया. महेशजी उन के हाथों को अपने हाथ में ले बोले, ‘‘बेटे के बहाने सही, कम से कम मु?ो लड्डू और मठरी तो खाने को मिल रहे हैं. नहीं तो मैं तो स्वाद ही भूल गया था.’’

भले महेशजी ने यह बात मजाक में कही थी पर आज चेतनाजी को भी बहुत दुख हुआ. आज उन्होंने भी महेशजी को खाने से नहीं रोका. उन को तो आज महेशजी को यों खाते देख तसल्ली सी मिल रही थी, साथ ही दुख भी था कि उन्होंने हमेशा बच्चों की पसंद के आगे उन की पसंद पर ध्यान ही नहीं दिया. वे कुछ बनाने को कहते तो बस यही कहती कि बच्चों को यह सब पसंद नहीं और महेशजी भी बच्चों की पसंद में ही खुश हो जाते.

बाहर बारिश जोर पकड़ चुकी थी. इधर महेशजी और चेतनाजी अपनी यादों में डूब चाय की चुसकियां ले रहे थे. चेतनाजी बोलीं, ‘‘मुझ से ही क्या कह रहे हो, इधर जब बच्चे बड़े हो रहे थे, अपनीअपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए और जब मुझे थोड़ा समय मिला तो तुम अधिकतर काम से बाहर रहने लगे.’’

महेशजी भी उन दिनों को याद करते हुए बोले, ‘‘क्या करता चेतना, बच्चों के भविष्य के लिए काम भी तो ज्यादा करना था. उन की पढ़ाई, उन की शादियां वगैरह.’’चेतनाजी चाय के खाली कप और प्लेट रखते हुए बोलीं, ‘‘सच, आप के बिना न जाने कितनी रातें तकिए पर करवटें बदलते बिताईं. बच्चों के पास जाती तो वे बेचारे अपनी पढ़ाई में व्यस्त. सच, कितनी बातें होतीं तुम से साझा करने को और ये बातें भी तो दगाबाज होती हैं.

‘‘जब आप होते तो या तो याद ही नहीं रहती या बताने को समय नहीं होता और जब आप नहीं होते तो सोचती आप आओगे तो यह कहूंगी, आप आओगे तो वह कहूंगी और जब आप आते तो या तो मैं व्यस्त या आप व्यस्त. सच, जिंदगी के कितने ही अनगिनत पल यों ही गंवा दिए. हर रिश्ते को संवारने में अपने रिश्ते को बेतरतीब कर दिया.’’

महेशजी को चेतनाजी की आंखों में कसक और नमी साफ दिख रही थी. वे चेतनाजी का हाथ अपने हाथों में ले बोले, ‘‘फिर भी देखो, जब सारे रिश्ते बेतरतीब हो गए तो हमारा रिश्ता ही सब से ज्यादा संवर गया. पहले तुम कितना भिनभिनाती थीं. एक कप चाय भी

नहीं बनाती थीं और अब हमारी महारानीजी को बैड टी के बिना उठने की आदत नहीं.’’

दोनों बातों में मशगूल थे कि तभी चेतनाजी शरमाती हुई बोलीं, ‘‘पता है, आज गाने की ये पंक्तियां बिलकुल हमारे रिश्ते पर सटीक बैठती हैं…’’

महेशजी ने आंखों से ही जैसे पूछा, कौन सा गाना?

चेतनाजी महेशजी को देख कर गुनगुनाने लगीं, ‘‘आखिर तुम्हें आना है, जरा देर लगेगी…’’

उस गाने को आगे बढ़ाते महेशजी बोले, ‘‘बारिश का बहाना है, जरा देर लगेगी…’’

दोनों एकदूसरे से सिर सटा कर हंसने लगे. महेशजी हंसते हुए बोले, ‘‘सही कहा, देरसवेर ही सही, हमें एकदूसरे के पास ही आना है. इसी बात पर आज तो प्याज के पकौड़े हो जाएं. बारिश में मजा आ जाएगा.’’

वे उठ कर रसोई में जा ही रही थीं कि तभी उन की बेटी नित्या का फोन आ गया, ‘‘पापा, मैं कल आ रही हूं, कुछ दिन आप के पास ही रहूंगी, मां से कहना कि अब रोज उन के हाथों का स्वादिष्ठ खाना चाहिए.’’ फोन स्पीकर पर ही था. महेशजी अपनी बेटी से बोले, ‘‘बेटा, तेरी मां सब सुन रही है, तू खुद ही बोल दे.’’नित्या बोली, ‘‘मां, तुम्हें तो मेरी पसंदनापसंद पता ही है न?’’चेतनाजी हंसती हुई बोलीं, ‘‘हां बेटा, तू बस जल्दी आजा, सब तेरी पसंद का बनेगा.’’

फोन कट चुका था, चेतनाजी बोलीं, ‘‘सुनोजी, अब कोई पकौड़े नहीं. मैं कुकर में खिचड़ी चढ़ा रही हूं. कल से वैसे ही सब आप की बेटी की पसंद का खाना बनेगा और दोनों बापबेटी मेरी सुनोगे नहीं. थोड़ा अपनी सेहत का भी सोचो. और हां, अब काम करने दो, आप को तो कोई काम नहीं पर यहां तो सत्तर काम हैं,’’ यह कहती वे रसोई की तरफ बढ़ गईं. बेटी की आने की खुशी उन के चेहरे के साथ उन की चाल में भी ?ालक रही थी.

महेशजी चेतनाजी को जाते देख गाने लगे, ‘‘आखिर तुम्हें आना है…’’

उन की बात काटती चेतनाजी बोलीं, ‘‘तुम्हें नहीं… हमें, आखिर हमें आना है… जरा देर लगेगी…’’

दोनों की हंसी की आवाज से पूरा घर खनक रहा था. जो घर बेटे के नहीं आने से कुछ देर पहले उदास था, वही घर अब बेटी के आने से खुश था. इधर महेशजी के मोबाइल पर विवान का मैसेज आया, ‘‘पापा, अब तो मां खुश है न, दीदी को बताया तो वे बोलीं कि चिंता मत कर मैं  हूं न.’’

महेशजी ने विवान को खुश रहने का आशीर्वाद दिया और दिल की इमोजी भेजी. सच, बच्चों के इतनाभर करने से मांबाप ?ाट से सब भूल जाते हैं. तभी रसोई से चेतनाजी बोलीं, ‘‘अब यह मोबाइल में क्या खिचड़ी पका रहे हो, इधर आ कर जरा हाथ बंटा दो.’’

महेशजी उठते हुए बोले, ‘‘खिचड़ी मैं नहीं तुम पका रही हो,’’ और दोनों फिर हंसने लगे.

इलैक्ट्रोलाइट वाटर पीने के फायदे

आज के समय में हर इंसान खुद को फिट रखने के लिए बहुत सी चीजें ट्राई करता है फिर चाहे वह जिम जाना हो या फिर अपने खानपान में बदलाव लाना हो.

आजकल बाजार में नौर्मल वाटर के साथ साथ ब्लैक वाटर, इलैक्ट्रोलाइट वाटर, और भी कई तरीके के वाटर मिलते हैं जो हमें फिट रखने के लिए बनाए गए हैं. जैसाकि आप सब को पता है कि पानी पीना हमारे शरीर के लिए कितना फायदेमंद है पर जब नौर्मल वाटर के साथसाथ और भी ज्यादा फायदेमंद वाटर मिलने लग जाए तो इस से अच्छी और क्या बात हो सकती है.

किसे जरूरी किसे नहीं

ज्यादातर क्रिकेटर्स और स्पोर्ट्समैन इलैक्ट्रोलाइट वाटर और ब्लैक वाटर पीना ज्यादा पसंद करते हैं ताकी वे खुद को और भी ज्यादा फिट रख सकें और अपना स्टैमिना बढ़ा सकें.

आज हम आप को बताएंगे कि इलैक्ट्रोलाइट वाटर पीने के कितने फायदे हैं और इलैक्ट्रोलाइट वाटर और नौर्मल वाटर में कितना अंतर है.

इलैक्ट्रोलाइट वाटर में अलग से इलैक्ट्रीकली चार्ज्ड इलैक्ट्रोलाइट्स और मिनरल्स डाले जाते हैं जोकि हमारे शरीर के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं. इस प्रकार का पानी उन लोगों के लिए सब से अच्छा है जो ज्यादा ऐक्सरसाइज करते हैं, क्योंकि इस में हमारे शरीर में मौजूद सब से आम इलैक्ट्रोलाइट्स ज्यादा क्वांटिटी में होते हैं. ये इलेक्ट्रोलाइट्स सोडियम, पोटैशियम, क्लोराइड, फौस्फेट, कैल्सियम, मैग्नीशियम और बाइकार्बोनेट हैं.

गजब के हैं फायदे

कुछ ब्रैंड्स कार्ब्स के साथसाथ मिनरल्स की क्वांटिटी का खास खयाल रखते हैं और अपने पानी को स्पोर्ट्स ड्रिंक के रूप में बेचते हैं, जबकि कई ब्रैंड्स केवल स्वाद का ध्यान रख इसे तैयार करते हैं.

इलैक्ट्रोलाइट वाटर आप के ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने में, आप की बौडी में फ्लूइड बैलैंस कंट्रोल करने के साथसाथ मसल्स को भी स्ट्रौंग बनाने में फायदेमंद है.

किसी भी चीज़ की आदत डालना या किसी भी चीज को जरूरत से ज्यादा लेना भी गलत साबित हो सकता है तो आप को इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि इलैक्ट्रोलाइट वाटर भी आप को ज्यादा नहीं पीना चाहिए और इस प्रकार का पानी उन लोगों के लिए है जो हैवी ऐक्सरसाइज करते हैं या फिर स्पोर्ट्सपर्सन हैं.

यूएसए यूएसए

देश के बुजुर्गों का स्टैमिना आजकल बढ़ती उम्र के साथ महंगाई की तरह चढ़ता ही जा रहा है. हमारी कालोनी के एक सभ्य बुजुर्ग से हमारी मुलाकात हुई तो उन की बातें सुन कर हम दंग रह गए.   

आजकल इन पेरैंट्स के पास एक ही काम है. गंगाधर उन पेरैंट्स की बात कर रहा है जिन के पुत्रपुत्री नौकरी के वास्ते सात समुंदर पार अमेरिका जा बैठे हैं. बेटे के साथ बहू, बेटी के साथ दामाद भी हैं. हमारी या आप की भी जितने ऐसे लोगों से फोन पर बात होती है या आमनेसामने की मुलाकात, उन में से न्यूनतम आधे थोड़ी ही देर बाद वार्त्तालाप को अमेरिका पर मोड़ लाते हैं. वे कहेंगे कि यूएसए जा रहे हैं या वहां हैं/थे या वहां से आए हैं जस्ट. 

कल बाजार में परिचित शर्माजी मिल गए. अब सेवानिवृत्त अधिकारी हैं. हायहैलो हुई. यहांवहां की बातें हुईं. उन्होंने मुझ से कहा कि इस समय तो स्थानीय निकाय चुनाव के कारण व्यस्त होंगे. चूंकि वे गले तक यूएसए से भरे हुए थे, इसलिए मेरे जवाब देने तक उन से रहा न गया. वे बोले, ‘‘मुझे भी औब्जर्वर का काम दे रहे थे पर मैं ने मना कर दिया क्योंकि अगले सप्ताह यूएसए जाना था.’’ मैं ने कहा, ‘‘क्यों जा रहे हैं?’’ बोले, ‘‘बस, बेटीदामाद हैं. उन के पास जा रहे हैं. यही तो एक काम हम लोगों के पास बचा है. कभी बेटीदामाद तो कभी बेटेबहू के पास.’’ परसों की बात है. भोपाल साहित्य संस्थान की आगामी काव्य गोष्ठी में एक मूर्धन्य साहित्यकार बेधड़कजी को मुझे आमंत्रित करना था. इसलिए हम ने फोन किया पर लगा नहीं. हम ने व्हाट्सऐप पर मैसेज डाला. तुरंत ही जवाब आ गया क्योंकि बहुतायत लोगों की तरह वे भी व्हाट्सऐप पर नजरें गड़ाए हुए थे. मैसेज था कि अभी बच्चे के पास यूएसए में हैं. कोई जा रहा है यूएसए. कोई पहले से गया हुआ है. कोई बस पिछले सप्ताह ही वापस लौटा है, जैसे भूत, वर्तमान व भविष्य सब अमेरिका में ही बस सुरक्षित हैं.

हां, याद आया कि पिछले सप्ताह की ही तो बात है. साहित्यिक पत्रिका अभिलाषा के कार्यालय यों ही जाना हुआ. वहां के संपादक मेरे परिचित हैं. वे वहां उस दिन मिले नहीं. वहां एक खरेजी हैं. उन से पता चला कि अभी कल ही यूएसए से लौटे हैं,  24 घंटे की यात्रा के बाद थकेमांदे हैं, इसलिए 1-2 दिन बाद कार्यालय आएंगे.

खरेजी ने आगे यह भी फरमाया कि अब उन को यूएसए जाना है, बेटीदामाद अगले सप्ताह के टिकट बुक कर रहे हैं. जिन के बेटेबिटिया अमेरिका में हैं, उन मांबाप को उतार की आयु में घडी़घड़ी यूएसए जाने का काम ही शेष रह जाता है क्या? जब देखो तब वे यूएसए जा रहे हैं या वहां पहले से हैं या कि अभीअभी लौटे हैं.   बेटाबहू या बेटीदामाद टिकट पहले से बुक करवा कर भेज देते हैं. क्यों नहीं भेजेंगे, दोनों कामकाजी जो हैं. अब अमेरिका कोई भारत तो है नहीं कि वहां 5-10 हजार रुपए में घरेलू काम करने वाला मिल जाए. वहां तो झाड़ू लगाने वाला भी कार मैंटेन करता है. वैसे, आज के यहां के माहौल से अच्छा है कि आप परदेश में ही रहें. न जाने कब कौन आप का गला व्हाट्सऐप की किसी पोस्ट पर रेत दे.  एक और फायदा है कि उतने दिन आप यहां के टीवी चैनलों की अंतहीन निरर्थक बहसों से भी और नेताओं के ऊलजलूल बयानों से भी बचे रहेंगे. यह सब स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होगा. वैसे, सौ बात की एक बात तो यह है कि मांबाप, सासससुर से अच्छा देखभाल करने वाला कोई दूसरा मिल भी नहीं सकता. नातीनातिन, पोतेपोतियों के सुख का आकर्षण अपनी जगह है ही.

मांबाप, सासससुर की आजकल बल्लेबल्ले है जो यूएसए पहले कभी जा नहीं पाए. वे सब बेटे या दामाद के नौकरीशुदा होने पर यूएसए पर्यटन की ड्यूटी तो बजाते ही हैं, रिजल्टैंट थोड़ा घूमनाफिरना तो होना भी है. अब यार, इतनी ड्यूटी पूरी करोगे तो बेटेबहू, बेटीदामाद को घूमनेफिरने की व्यवस्था की ड्यूटी करना तो बनता ही है.   जब बूढ़ेबुढि़या पोतेपोती की सब तरह की देखभाल करते हैं तो ऐसा प्रेम और ज्यादा पल्लवित व पुष्पित होता ही है. आश्चर्यजनक मगर सत्य है कि हिंदुस्तानी मांबाप का स्टैमिना बढ़ती उम्र के साथ महंगाई की तरह चढ़ता ही जाता है. यदि ऐसा नहीं होता तो कैसे घुटनों, पीठ व कंधे के दर्द से सराबोर घिसट के चलने वाले, बीपी, मधुमेह से पीडि़त 20-24 घंटे की उड़ान हेतु खुशीखुशी तैयार हो जाते हैं. पहले अपने कसबाई शहर से प्रादेशिक राजधानी आओ. वहां से मुंबईदिल्ली आओ. फिर वहां से फ्लाइट अमेरिका के एक शहर की पकड़ो. आखिरकार, बेटे या बेटी के शहर की दूसरी कनैक्टिंग फ्लाइट. 

अब तो ऐसे पेरैंट्स भी हो गए हैं जो ताल ठोंक कर कहते हैं कि यह उन की 7वीं या 11वीं यूएसए विजिट है या थी. गिनीज बुक इस बात का भी रिकौर्ड दर्ज करने के लिए रिकौर्ड पर ले सकती है. गंगाधर को लगता है कि इस देश में बुजुर्ग पेरैंट्स की 2 श्रेणियां बन गई हैं. एक जिन के बच्चे यूएसए में नौकरी कर रहे हैं, दूसरे जिन के नहीं कर रहे हैं. जब बातबात पर बंटवारा है तो इन के भी दोफाड़ होने में कौन सी नई चीज है. देश तो और भी हैं जिन में बच्चे गए होते हैं लेकिन उन देशों के नाम से वह यूएसए वाला भाव कहां आता है. जब पेरैंट्स मूंछों पर ताव दे कर (यदि कोई हो तो) कहता है कि यूएसए जा रहा हूं या यूएसए में हूं या 2 माह के बाद जस्ट लौटा हूं. 

नरसों की ही बात है, अलसुबह कालोनी के पार्क में कुछ वरिष्ठ रोज की तरह टौकमय वाक कर रहे थे. चड्ढाजी ने जब कहा कि उन का बेटा पिछले सप्ताह सिंगापुर चला गया है तो किसी ने कान तक नहीं दिया. लेकिन जैसे ही तिवारीजी ने कहा कि बेटा यूएसए आने को दो टिकटें अगले माह की भेज रहा है तो सब के कान खडे़ हो गए. अब जिन के बच्चे यूएसए में नही हैं वे हीन महसूस न करें तो और क्या करें, आप ही सुझाएं,  अपने एक कजिन से सालभर पहले हुई बात याद आ रही है. लौकडाउन था न. सब एकदूसरे से बात करने को उतावले रहते थे. सब को एकदूसरे के बारे में अंदेशा जो था कि बात कर लो, पता नहीं फिर मिलें कि नहीं. कजिन न यूएसए जा रहा था न वहां था. और न ही वहां से जस्ट लौटा था.  फिर भी परेशान यूएसए के नाम से ही था. असल में उस की बेटी वहां लौकडाउन के कारण 2 साल से फंसी थी. उस से जब भी बात करो तो 10 मिनट की बात में 9 मिनट यूएसए का ही जिक्र आ जाता था.

‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की तरह यूएसए बच्चे वाले एक पेरैंट्स श्रेष्ठ पेरैंट्स. आखिर भले ही वहां स्कूलों, मौलों, सार्वजनिक स्थानों में आएदिन गोलीबारी हो कर दर्जनों निर्दोषों को मार दिया जाता हो. अश्वेत की हत्या पुलिस ज्यादती से हो जाती हो. एयरपोर्ट पर पूरे कपडे़ उतरवा कर जांच करवाता हो फिर भी वहां जा कर आदमी गौरवान्वित होता है.  शाहरुख खान के जब कपडे़ उतरवा कर उन के हमनाम किसी आतंकवादी के कारण जांच के नाम पर काफी समय के लिए रोका गया था तो उन्होंने कहा था, ‘‘मुझे जब हीरोगीरी चढ़ती है तो मैं यूएसए की ओर भागता हूं पर वे हर बार मेरी हीरोगीरी निकाल देते हैं.’’ यूएसए की बात छिपती नहीं. ऐसे पेरैंट्स यूएसए को स्वर्ग बताने की पोस्ट फेसबुक, इंस्टा पर बराबर डालते रहते हैं. अरे भैया, जिन के बच्चे नही हैं यूएसए में या जो जा नहीं पाए तो उन के जले में नमक क्यों छिड़कते हो. ऐसे पेरैंट्स पर ऐसी पोस्ट देख कर क्या बीतती है, उन से कभी पूछो भी तो. ऐसे पेरैंट्स फिर कहते हैं कि सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा.

उस का गणित : लक्ष्मी का गणित सुन हैरान रह गया मनोज

मनोज हर दिन जिस मिनी बस में बैठता था, उसी जगह से लक्ष्मी भी बस में बैठती थी. आमतौर पर वे एक ही बस में बैठा करते थे, मगर कभीकभार दूसरी में भी बैठ जाते थे.

उन दिनों उन के बस स्टौप से सिविल लाइंस तक का किराया 4 रुपए लगता था, मगर लक्ष्मी कंडक्टर को 3 रुपए ही थमाती थी. इस बात को ले कर उस की रोज कंडक्टर से बहस होती थी, मगर उस ने एक रुपया कम देने का जैसे नियम बना ही लिया था.

कभीकभार कोई बदतमीज कंडक्टर मिलता, तो लक्ष्मी को बस से उतार देता था. वह पैदल आ जाती थी, पर एक रुपया नहीं देती थी.

लक्ष्मी मनोज के ही महकमे के किसी दूसरे सैक्शन में चपरासी थी. एक साल पहले ही अपने पति की जगह पर उस की नौकरी लगी थी.

लक्ष्मी का पति शंकर मनोज के महकमे में ड्राइवर था. सालभर पहले वह एक हादसे में गुजर गया था. लक्ष्मी की उम्र महज 25 साल थी, मगर उस के 3 बच्चे थे. 2 लड़के और एक लड़की.

एक दिन मनोज पूछ ही बैठा, ‘‘लक्ष्मी, तुम रोज एक रुपए के लिए कंडक्टर से झगड़ती हो. क्या करोगी इस तरह एकएक रुपया बचा कर?’’

‘‘अपनी बेटी की शादी करूंगी.’’

‘‘एक रुपए में शादी करोगी?’’ मनोज हैरान था.

‘‘बाबूजी, यों देखने में यह एक रुपया लगता है, मगर रोजाना आनेजाने के बचते हैं 2 रुपए. महीने के हुए 60 रुपए और सालभर के 730 रुपए. 10 साल के 7 हजार, 3 सौ. 20 साल के 14 हजार, 6 सौ.

‘‘5 सौ रुपए इकट्ठे होते ही मैं किसान विकास पत्र खरीद लेती हूं. साढ़े 8 साल बाद उस के दोगुने पैसे हो जाते हैं. 20 साल बाद शादी करूंगी, तब तक 40-50 हजार रुपए तो हो ही जाएंगे.’’

मनोज उस का गणित जान कर हैरान था. उस ने तो इस तरह कभी सोचा ही नहीं था. भले ही गलत तरीके से सही, मगर पैसा तो बच ही रहा था.

लक्ष्मी को खूबसूरत कहा जा सकता था. कई मनचले बाबू और चपरासी उसे पाने को तैयार रहते, मगर वह किसी को भाव नहीं देती थी.

लक्ष्मी का पति शराब पीने का आदी था. दिनभर नशे में रहता था. यही शराब उसे ले डूबी थी. जब वह मरा, तो घर में गरीबी का आलम था और कर्ज देने वालों की लाइन.

अगर लक्ष्मी को नौकरी नहीं मिलती, तो उस के मासूम बच्चों का भूखा मर जाना तय था.पैसे की तंगी और जिंदगी की जद्दोजेहद ने लक्ष्मी को इतनी सी उम्र में ही कम खर्चीली और समझदार बना दिया था.

एक दिन लक्ष्मी ने न जाने कहां से सुन लिया कि 10वीं जमात पास करने के बाद वह क्लर्क बन सकती है. बस, वह पड़ गई मनोज के पीछे, ‘‘बाबूजी, मुझे कैसे भी कर के 10वीं पास करनी है. आप मुझे पढ़ालिखा कर 10वीं पास करा दो.’’

वह हर रोज शाम या सुबह होते ही मनोज के घर आ जाती और उस की पत्नी या बेटाबेटी में से जो भी मिलता, उसी से पढ़ने लग जाती. कभीकभार मनोज को भी उसे झेलना पड़ता था.

मनोज के बेटाबेटी लक्ष्मी को देखते ही इधरउधर छिप जाते, मगर वह उन्हें ढूंढ़ निकालती थी. वह 8वीं जमात तक तो पहले ही पढ़ी हुई थी, पढ़नेलिखने में भी ठीकठाक थी. लिहाजा, उस ने गिरतेपड़ते 2-3 सालों में 10वीं पास कर ही ली.

कुछ साल बाद मनोज रिटायर हो गया. तब तक लक्ष्मी को लोवर डिविजनल क्लर्क के रूप में नौकरी मिल गई थी. उस ने किसी कालोनी में खुद का मकान ले लिया था. धीरेधीरे पूरे 20 साल गुजर गए.

एक दिन लक्ष्मी अचानक मनोज के घर आ धमकी. उस ने मनोज और उस की पत्नी के पैर छुए. वह उसे पहचान ही नहीं पाया था. वह पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई थी. उस का शरीर भी भराभरा सा लगने लगा था.

लक्ष्मी ने चहकते हुए बताया, ‘‘बाबूजी, मैं ने अपनी बेटी की शादी कर दी है. दामादजी बैंक में बाबू हैं. बेटी बहुत खुश है.

‘‘मेरे बड़े बेटे राजू को सरकारी नौकरी मिल गई है. छोटा बेटा महेश अभी पढ़ रहा है. वह पढ़ने में बहुत तेज है. देरसवेर उसे भी नौकरी मिल ही जाएगी.’’

‘‘क्या तुम अब भी कंडक्टर को एक रुपया कम देती हो लक्ष्मी?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘नहीं बाबूजी, अब पूरे पैसे देती हूं…’’ लक्ष्मी ने हंसते हुए बताया, ‘‘अब तो कंडक्टर भी बस से नहीं उतारता, बल्कि मैडम कह कर बुलाता है.’’थोड़ी देर के बाद लक्ष्मी चली गई, मगर मनोज का मन बहुत देर तक इस हिम्मती औरत को शाबाशी देने का होता रहा.

पहलवान विनेश फोगाट हुईं ओलिंपिक से बाहर, ससुर ने लगाए गंभीर आरोप

पहलवान विनेश फोगाट 100 ग्राम वजन बढ़ने के चलते ओलिंपिक से बाहर हो गई हैं. यह मामला राजनीतिक रुख लेने लगा है. विनेश फोगाट के ससुर ने इस मामले पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं.

फ्रांस की राजधानी पेरिस में चल रहे ओलिंपिक 2024 में बुधवार, 7 अगस्त का दिन एक ऐसी निराशा लाया है जिस की किसी भी भारतीय खेलप्रेमी ने कल्पना भी न की होगी. कल तक अपनी विरोधी पहलवानों को अपनी चपलता और दांवपेंच से धूल चटाने वाली 29 साल की भारतीय पहलवान विनेश फोगाट, जो 50 किलोग्राम भारवर्ग में अमेरिका की पहलवान सारा हिल्डेब्रांट के साथ गोल्ड मैडल के लिए मैट पर दोदो हाथ करने वाली थीं, मुकाबले से पहले ही बाहर हो गई हैं.

दरअसल, विनेश फोगाट का वजन 50 किलोग्राम से लगभग 100 ग्राम अधिक पाया गया है. अपना वजन मेन्टेन रखने की कोशिश विनेश फोगाट ने पूरी रात की, इस के लिए उन्होंने कई व्यायाम भी किए लेकिन निराशा ही उन के हाथ लगी. नियमों के मुताबिक, खिलाड़ी को अपना वजन बनाए रखना पड़ता है और अगर ऐसा नहीं होता है तो उसे मुकाबले से बाहर कर दिया जाता है.

भारतीय प्रतिनिधि मंडल ने ओलिंपिक कमेटी से विनेश फोगाट को कुछ समय देने की बात कही थी, किंतु उन की अपील नकार दी गई. यही वजह है कि वे इस ओलिंपिक से खाली हाथ घर आएंगी.

सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? क्या इस के पीछे राजनीति का हाथ है? ऐसा कहने की वजह यह है कि विनेश फोगाट के ससुर राजपाल राठी ने आरोप लगाया है कि महिला पहलवान के साथ राजनीतिक साजिश रची जा रही है. उन्होंने सरकार, भारतीय कुश्ती महासंघ और इस महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर आरोप लगाया है. उन्होंने यह भी कहा है कि विनेश फोगाट की सपोर्ट टीम ने उन की मदद नहीं की.

याद रहे कि बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन शोषण के मामले में हुए विरोध प्रदर्शन में विनेश फोगाट की अहम भूमिका रही थी. हालांकि, बृजभूषण के बेटे करण भूषण, जो उत्तर प्रदेश कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष हैं, ने इस मुद्दे पर कहा कि इस से देश को नुकसान हुआ है. भारतीय निशानेबाज रहे अभिनव बिंद्रा ने विनेश फोगाट मामले में बयान देते हुए इसे ‘अत्यंत निराशाजनक’ बताया.

ध्यान रहे, विनेश फोगाट उन पहलवानों में शामिल थीं जो दिल्ली के जंतर मंतर पर अपने साथी पहलवानों के साथ 5 महीने से अधिक धरना प्रदर्शन में शामिल रहीं. उस दौरान उन के साथ पहलवान साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया आंदोलन को लीड कर रहे थे. इन का आंदोलन भाजपा नेता व भारतीय कुश्ती महासंघ बृजभूषण सिंह के खिलाफ था, जिन पर यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए गए.

इस मामले में पहलवान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दखल देने की मांग कर रहे थे. इस मामले में कुछ न कहने के चलते तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी काफी आलोचना हुई थी. पहलवान विनेश फोगाट के ओलिंपिक से बाहर होने के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है, “विनेश, आप चैंपियनों की चैंपियन हैं. आप भारत का गौरव हैं और प्रत्येक भारतीय के लिए प्रेरणा हैं. चुनौतियों का डट कर मुकाबला करना हमेशा से आप का स्वभाव रहा है. मजबूत हो कर वापस आओ. हम सब आप के साथ हैं.”

सच तो यह है कि विनेश फोगाट के बाहर हो जाने पर देश को एक बड़ा झटका लगा है. उन का मुकाबले से बाहर होने का मतलब है कि इस भारवर्ग का सिल्वर मैडल अब किसी भी खिलाड़ी को नहीं दिया जाएगा.

जिन, तावीज और बाबा : अंधविश्वास का शिकार होते युवाओं की कहानी

किशन अपने पड़ोसी अली के साथ कोचिंग सैंटर में पढ़ने जाता था. उस दिन अली को देर हो गई, तो वह अकेला ही घर से निकल पड़ा. सुनसान सड़क के फुटपाथ पर बैठे एक बाबा ने उसे आवाज दी, ‘‘ऐ बालक, तुझे पढ़ालिखा कहलाने का बहुत शौक है. पास आ और फकीर की दुआएं लेता जा. कामयाबी तेरे कदम चूमेगी.’’

 

किशन डरतेडरते बाबा के करीब आ कर चुपचाप खड़ा हो गया. ‘‘किस जमात में पढ़ता है?’’ बाबा ने पूछा. ‘‘जी, कालेज में…’’ किशन ने बताया. ‘‘बहुत खूब. जरा अपना दायां हाथ दे. देखता हूं, क्या बताती हैं तेरी किस्मत की रेखाएं,’’ कहते हुए बाबा ने किशन का दायां हाथ पकड़ लिया और उस की हथेली की आड़ीतिरछी लकीरें पढ़ने लगा, ‘‘अरे, तुझे तो पढ़नेलिखने का बहुत शौक है. इसी के साथ तू निहायत ही शरीफ और दयालु भी है.’’ तारीफ सुन कर किशन मन ही मन खुश हो उठा. इधर बाबा कह रहा था, ‘‘लेकिन तेरी किस्मत की रेखाएं यह भी बताती हैं कि तुझे अपनेपराए की समझ नहीं है. घर के कुछ लोग तुझे बातबात पर झिड़क दिया करते हैं और तेरी सचाई पर उन्हें यकीन नहीं होता.’’ किशन सोचने लगा, ‘बाबा ठीक कह रहे हैं. परिवार के कुछ लोग मुझे कमजोर छात्र होने के ताने देते रहते हैं, जबकि ऐसी बात नहीं है. मैं मन लगा कर पढ़ाई करता हूं.’ बाबा आगे बताने लगा, ‘‘तू जोकुछ भी सोचता है, वह पूरा नहीं होता, बल्कि उस का उलटा ही होता है.’’

 

यह बात भी किशन को दुरुस्त लगी. एक बार उस ने यह सोचा था कि वह गुल्लक में खूब पैसे जमा करेगा, ताकि बुरे समय में वह पैसा मम्मीपापा के काम आ सके, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अभी किशन कुछ ही पैसे जमा कर पाया था कि एक दिन मोटे चूहे ने टेबल पर रखे उस की गुल्लक को जमीन पर गिरा कर उस के नेक इरादे पर पानी फेर दिया था.इसी तरह पिछले साल उसे पूरा यकीन था कि सालाना इम्तिहान में वह अच्छे नंबर लाएगा, लेकिन जब नतीजा सामने आया, तो उसे बेहद मायूसी हुई. बाबा ने किशन के मन की फिर एक बात बताई, ‘भविष्य में तू बहुत बड़ा आदमी बनेगा. तुझे क्रिकेट खेलने का बहुत शौक है न?’’

 

‘‘जी बहुत…’’ किशन चहक कर बोला.

‘‘तभी तो तेरी किस्मत की रेखाएं दावा कर रही हैं कि आगे जा कर तू भारतीय क्रिकेट टीम का बेहतरीन खिलाड़ी बनेगा. दुनिया की सैर करेगा, खूब दौलत बटोरेगा और तेरा नाम शोहरत की बुलंदी पर होगा,’’ इस तरह बाबा ने अपनी भविष्यवाणी से किशन को अच्छी तरह से संतुष्ट और खुश कर दिया, फिर थैले से एक तावीज निकाल कर उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह तावीज अपने गले में अभी डाल ले बालक. यह तुझे फायदा ही फायदा पहुंचाएगा.’’

 

‘‘तू जोकुछ भी सोचेगा, इस तावीज में छिपा जिन उसे पूरा कर देगा. यकीन नहीं हो रहा, तो यह देख…’’ इन शब्दों के साथ बाबा उस तावीज को मुट्ठी में भींच कर बुदबुदाने लगा, ‘‘ऐ तावीज के गुलाम जिन, मुझे 2 हजार रुपए का एक नोट अभी चाहिए,’’ फिर बाबा ने मुट्ठी खोल दी, तो हथेली पर उस तावीज के अलावा 2 हजार रुपए का एक नोट भी नजर आया, जिसे देख कर किशन के अचरज का ठिकाना नहीं रहा. वह बोला, ‘‘बड़ा असरदार है यह तावीज…’’ ‘‘हां, बिलकुल. मेरे तावीज की तुलना फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के बटुक महाराज से बिलकुल मत करना बालक. फिल्मी फार्मूलों का इनसानी जिंदगी की सचाई से दूरदूर का रिश्ता नहीं होता है.’’‘‘बाबा, इस तावीज की कीमत क्या है?’’ किशन ने पूछा. ‘‘महज 5 सौ रुपए बेटा,’’ बाबा ने कहा.

 

तावीज की इतनी महंगी कीमत सुन कर किशन गहरी सोच में डूब गया, फिर बोला, ‘‘बाबा, 5 सौ रुपए तो मेरे पास जरूर हैं, लेकिन यह रकम पापा ने कोचिंग सैंटर की फीस जमा करने के लिए दी है. पर कोई बात नहीं, आप से तावीज खरीद लेने के बाद मैं इस के चमत्कार से ऐसे कितने ही 5 सौ रुपए के नोट हासिल कर लूंगा,’’ यह कह कर किशन ने 5 सौ रुपए का नोट निकालने के लिए जेब में हाथ डाला ही था कि तभी अली पीछे से आ धमका और बोला, ‘‘किशन, यह तुम क्या कर रहे हो?’’ ‘‘तावीज खरीद रहा हूं अली. बाबा कह रहे हैं कि इस में एक जिन कैद है, जो तावीज खरीदने वाले की सभी मुरादें पूरी करता है,’’ किशन बोला. ‘‘क्या बकवास कर रहे हो. ऐसी दकियानूसी बात पर बिलकुल भरोसा मत करो. क्या हम लोग झूठे अंधविश्वास की जकड़न में फंसे रहने के लिए पढ़ाईलिखाई करते हैं या इस से छुटकारा पा कर ज्ञान, विज्ञान और तरक्की को बढ़ावा देने के लिए पढ़ाईलिखाई करते हैं?’’ अली ने किशन से सवाल किया.

 

तभी बाबा गुर्रा उठा, ‘‘ऐ बालक, खबरदार जो ज्ञानविज्ञान की दुहाई दे कर जिन, तावीज और बाबा के चमत्कार को झूठा कहा. जबान संभाल कर बात कर.’ ‘‘चलो, मैं कुछ देर के लिए मान लेता हूं कि तुम्हारा तावीज चमत्कारी है, लेकिन इस का कोई ठोस सुबूत तो होना चाहिए,’’ अली बोला. बाबा के बजाय किशन बोला, ‘‘अली, मेरा यकीन करो. यह तावीज वाकई चमत्कारी है. बाबा ने अभी थोड़ी देर पहले इस में समाए जिन को आदेश दे कर उस से 2 हजार रुपए का एक नोट मंगवाया था.’’अली बोला, ‘‘अरे नादान, तेरी समझ में नहीं आएगा. यह सब इस पाखंडी बाबा के हाथ की सफाई है. तुम रोजाना घर से निकलते हो ट्यूशन पढ़ कर ज्ञानी बनने के लिए, लेकिन यह क्या… आज तो तुम एक सड़कछाप बाबा से अंधविश्वास और नासमझी का पाठ पढ़ने लगे हो.’’अली के तेवर देख कर बाबा को यकीन हो गया था कि वह उस की चालबाजी का परदाफाश कर के ही दम लेगा, इसलिए उस ने अली को अपने चमत्कार से भस्म कर देने की धमकी दे कर शांत करना चाहा, लेकिन अली डरने के बजाय बाबा से उलझ पड़ा, ‘‘अगर तुम वाकई चमत्कारी बाबा हो, तो

 

मुझे अभी भस्म कर के दिखाओ, वरना तुम्हारी खैर नहीं.’’अली की ललकार से बौखला कर बाबा उलटासीधा बड़बड़ाने लगा. ‘‘क्या बाबा, तुम कब से बड़बड़ा रहे हो, फिर भी मुझे अब तक भस्म न कर सके? अरे, सीधी सी बात है कि तुम्हारी तरह तुम्हारा जंतरमंतर भी झूठा है.’’ अली की बातों से खिसिया कर बाबा अपना त्रिशूल हवा में लहराने लगा. इस पर अली डरे हुए किशन को खींच कर दूर हट गया और जोरजोर से चिल्लाने लगा, ताकि सड़क पर चल रहे मुसाफिर उस की आवाज सुन सकें, ‘‘यह बाबा त्रिशूल का इस्तेमाल हथियार की तरह कर रहा है…’’ अली की आवाज इतनी तेज थी कि सादा वरदी में सड़क से गुजर रहे 2 कांस्टेबल वहां आ गए और मामले को समझते ही उन्होंने बाबा को धर दबोचा, फिर उसे थाने ले गए. ‘‘आखिर तुम इतने नासमझ क्यों

 

हो किशन?’’ भीड़ छंटने के बाद अली ने किशन पर नाराजगी जताई, तो वह बोला, ‘‘मैं हैरान हूं कि बाबा अगर गलत इनसान थे, तो फिर उन्होंने मेरे हाथ की लकीरें पढ़ कर मेरे मन की सच्ची बातें कैसे बता दीं?’ अली बोला, ‘‘बाबा ने यह भविष्यवाणी की होगी कि तुम पढ़नेलिखने में तेज हो, तुम बहुत अच्छे बालक हो, लेकिन लोग तुम्हें समझने की कोशिश नहीं करते, तुम जोकुछ सोचते हो, उस का बिलकुल उलटा होता है.’’ ‘‘कमाल है, मेरे और बाबा के बीच की बातें तुम्हें कैसे मालूम हुईं अली?’’ पूछते हुए किशन अली को हैरान नजरों से देखने लगा. अली बोला, ‘‘यह कमाल नहीं, बल्कि आम बात है. बाबा जैसे पाखंडी लोग अपने शिकारी का शिकार करने के लिए इसी तरह की बातों का सहारा लिया करते हैं.’’ ‘‘अच्छा, एक बात बताओ अली, बाबा ने मुझ से कहा था कि मुझे क्रिकेट का खेल बेहद पसंद है. एक दिन मैं भारतीय क्रिकेट टीम का बेहतरीन खिलाड़ी बनूंगा और ऐसा मेरा दिल भी कहता है. लेकिन मेरे दिल की यह बात भी बाबा को कैसे मालूम हो गई?’’

 

‘‘दरअसल, भारत में क्रिकेट एक मशहूर खेल है. इसे बच्चे, बूढ़े, जवान सभी पसंद करते हैं. तभी तो उस पाखंडी ने तुम्हें यह सपना दिखाया कि एक दिन तुम भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी बनोगे.’’ किशन अली की बातें गौर से सुनतेसुनते बोला, ‘‘अच्छा, एक बात बताओ दोस्त, क्या मैं वाकई कभी बड़ा आदमी नहीं बन सकूंगा?’’

 

‘‘क्यों नहीं बन सकते हो. बड़ा आदमी कोई भी बन सकता है, लेकिन सपने देख कर नहीं, बल्कि सच्ची मेहनत, लगन और ज्ञानविज्ञान के सहारे. आइंदा से तुम ऐसे धोखेबाज लोगों से बिलकुल खबरदार रहना. ‘‘किशन, तुम खुद सोचो कि अगर बाबा का तावीज चमत्कारी होता, तो फिर वह फुटपाथ पर बैठा क्यों नजर आता? तावीज के चमत्कार से पहले तो वह खुद ही बड़ा आदमी बन जाता.’’‘‘तुम ठीक कह रहे हो अली,’’ किशन ने अपनी नादानी पर शर्मिंदा होने के अलावा यह मन ही मन तय किया कि अब वह कभी किसी के झांसे में नहीं आएगा.

रिश्वत पर निबंध : सरकारी मुलाजिम का नौकरी में आने का ये है कारण

कल शाम थकाहारा, रिश्वत का मारा सहीसलामत घर लौटने की खुशी में मैं इतरा ही रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं परेशान हो कर कुछ सोचने लगा. दिमाग पर दबाव डाला, तो काफी राहत मिली कि जिसजिस ने कुछ दिया था, उन सब का काम तो कर ही आया हूं. अब कौन हो सकता है? शायद कोई घर आ कर सेवा करना चाहता हो? तो आ जाओ भैया.

हम सरकारी मुलाजिम तो नौकरी में आते ही हैं चौबीसों घंटे रिश्वत लेने के लिए, वरना मुफ्त में क्या पागल कुत्ते ने काट रखा है, जो फाइलों में उलझेउलझे सिर गंजा करा लें.

मैं ने थकने के बाद भी हिम्मत न हारी. दरवाजा खोला, तो पड़ोसन का बेटा सामने नजर आया. सोचा था कि थोड़ा और माल बना लूंगा, लेकिन उसे देखते ही सारा का सारा जोश धरा रह गया.

‘‘कहो बेटे, क्या बात है?’’ मैं ने बेमन से पूछा.

‘‘अंकल, आप के पास टाइम है क्या?’’

कोई बड़ा आदमी होता, तो साफ कह देता कि हम सरकारी लोगों के पास टाइम के सिवा सबकुछ होता है, पर बच्चा था इसलिए कहा, ‘‘हांहां. बेटे कहो, क्या करना है?’’

‘‘मम्मी ने मुझे आप के पास निबंध लिखवाने के लिए भेजा?है,’’ बच्चे की कमर से निकर बारबार यों छूट रही थी, जैसे पाकिस्तान के हाथ से कश्मीर छूट रहा है.

‘‘मुझ से…’’ मैं ने ताज्जुब से कहा.

नकल मार कर तो मैं ने 10वीं पास की थी और पापा के दोस्त की पैरवी से यहां लग गया था, वरना कोई होटल पर बरतन मांजने को भी न रखता… अब यह निबंध, वह तो चाहे अंगरेजी का होता या हिंदी का, उसे क्या पढ़ना और क्या याद करना.

5-7 निबंध फाड़ कर परीक्षा भवन में ले जाते थे और जो आ गया, चिपका दिया. पर शायद समय आने पर आदमी बुद्धिमान भी हो जाता है और पड़ोसी उसे पहचान भी लेते हैं. जैसे आज मेरी पहचान हुई थी. मैं ने अपनी बुद्धिमानी को शाबाशी दी और पड़ोसन के बेटे से कहा, ‘‘आओ बेटे, अंदर आओ. मैं तुम्हें निबंध जरूर लिखवाऊंगा. पर निबंध लिखने की कौन सी जरूरत आ पड़ी, अभी तो परीक्षा भी नजदीक नहीं है?’’

‘‘स्कूल में निबंध प्रतियोगिता है न,’’ बच्चे ने बताया.

‘‘तो किसी अच्छी सी गाइड में से लिख लेते.’’

‘‘मौलिक चाहिए था अंकल. अगर आप लिखवा देंगे, तो मैं पहला इनाम जीत जाऊंगा.’’

‘‘सच,’’ मुझे लगा कि बच्चा मुझे पहचानने में गलती कर रहा है. पर बच्चे मन के सच्चे होते हैं, इसलिए यह गलती नहीं हो सकती थी. मैं खुशी के मारे फूलने लगा, तो मुझे ब्रह्मांड भी फूलने के लिए कम लगा.

पता नहीं क्यों मैं आज तक अपनेआप को ‘अंडरऐस्टीमेट’ करता रहा. मैं ने बच्चे को कुरसी पर बिठाया, ‘‘अच्छा बेटे, तो तुम्हें कौन से विषय पर निबंध लिखना है?’’

‘‘रिश्वत पर,’’ बच्चे ने कहा, तो अब पैंट सरकने की बारी मेरी थी.

बच्चे को मेरी पैंट सरकने का पता न चले, इसलिए मैं ने बैठते हुए कहा, ‘‘बेटे, पड़ोस वाले पटवारी अंकल के पास जा कर लिख लेते, तो बहुत अच्छा रहता.’’

‘‘अंकल, वे हरिद्वार गए हैं.’’

‘‘तो सामने वाले ऐक्साइज अंकल के पास लिख लेते?’’

‘‘अंकल, उन की बेटी की शादी है. वे ओवर टाइम कर रहे हैं और कई दिनों से घर नहीं आ रहे हैं.’’

‘‘तो बगल वाले पुलिस अंकल भी तो हैं?’’

‘‘अंकल, उन की ड्यूटी चैक पोस्ट पर है. वे रात को भी घर नहीं आते.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटे. तुम्हें मैं ही निबंध लिखवाऊंगा. ऐसा निबंध कि

तुम अव्वल आओगे. पर… तुम्हारे पापा तो गुरुजी हैं न… उन्होंने… चलो… उन्हें ट्यूशन से फुरसत नहीं होगी…’’

‘‘समय तो है, पर वे भी किताबी निबंध ही लिखवा सकते हैं, व्यावहारिक नहीं. मौलिक तो आप ही लिखवासकते हैं.’’

‘पता नहीं, वे लोग बच्चे पैदा क्यों करते हैं, जिन के पास अपने बच्चों को निबंध लिखवाने के लिए व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता? बेकार में मास्टर बने फिरते हैं. जब निबंध लिखवाने की बारी आती है, तो बोलती बंद हो जाती है,’ मैं ने सोचा, फिर उस से कहा, ‘‘तो बेटे, तैयार हो जाओ.’’

‘‘मैं तैयार हूं अंकल,’’ बच्चे ने खुश हो कर कहा.

बच्चे के हां कहने पर स्कूल के दिनों का नालायक एकाएक जानकार हो गया. मैं उसे लिखाने लगा, ‘‘हमारा देश पहले कृषि प्रधान देश था, अब रिश्वत प्रधान देश है. रिश्वत की खेती में हमारा देश दुनियाभर में आगे है. यहां दफ्तर के गेट से ले कर चिमनी तक में रिश्वत ली जाती है. इस देश में पैदा होने से ले कर मरने तक में रिश्वत ली जाती है.

‘‘रिश्वत हमारी संस्कृति की सौगात है. रिश्वत के बिना हमारा जीवन भी अधूरा है और संस्कृति भी.

‘‘रिश्वत हमारी पहचान है. रिश्वत हमारा राष्ट्रीय धर्म है. हम देश के लिए नहीं, रिश्वत के लिए मरते हैं. धन्य हैं

वे रिश्वतखोर, जिन्होंने डट कर रिश्वत ली, मगर कभी पकड़े नहीं गए. ऐसे रिश्वतखोर ही दुनिया में हमारे देश का नाम रोशन करते हैं.

‘‘रिश्वत देना और लेना भी एक कला है. जो इस कला में माहिर होते हैं, वे आराम से जिंदगी बिताते हैं. रिश्वत देने और लेने के तमाम तरीके हैं.

‘‘इस दुनिया में हर चीज के फायदे और नुकसान दोनों हैं. मगर रिश्वत देने और लेने के फायदे ही फायदे हैं. रिश्वत लेने वाले के लिए भी मुनाफे का सौदा है और देने वाले के लिए भी.

‘‘रिश्वत ले कर फाइलों में पंख लग जाते हैं और रिश्वत दे कर समय की बहुत बचत होती है. मैं तो कहता हूं कि 5-7 सौ रुपए कीमती समय से ज्यादा कीमती तो नहीं हैं.

‘‘रिश्वत लेना और देना एक नेक काम है. रिश्वत ही पूजा है. रिश्वत हमें नियमकानूनों से नजात दिलाती है. आज जो यह नेक काम नहीं करता, वह निकम्मा है. वह अमीर होने के बाद भी दीनहीन है.

‘‘यह सरकारी कामों में तेजी के लिए एक आजमाया टौनिक है. रिश्वत पाने के बाद सरकारी मुलाजिमों की सुस्ती कोसों दूर भाग जाती है.

‘‘रिश्वत न होती, तो गैरकानूनी काम न होते. रिश्वत न होती, तो चपरासियों के महलमकान न होते. रिश्वत न होती, तो बिकने वाले इनसान न होते.

‘‘रिश्वत पर जितना लिखा जाए, कम है. रिश्वत हमारा तन, मन और धन है. हमारे सारे काम रिश्वत पर ही टिके हैं.

‘‘इस देश में मूल्यों, आदर्शों, नैतिकताओं ने तमाम हमले किए, मगर वे अपना एकछत्र राज्य स्थापित नकर सके. अगर इस देश में किसी का एकछत्र राज्य स्थापित हुआ है, तो वह है रिश्वत का.

‘‘रिश्वत बड़ेबड़ों को उसूलों से गिरा देती है. रिश्वत न्याय को नचा देती है. रिश्वत घरबार बनवा देती है.

‘‘अगर हम देश की चहुंमुखी तरक्की चाहते हैं, तो बस एक ही रास्ता है कि रिश्वत का लेनदेन आसान बनाया जाए…’’

‘‘अंकल, मुझे नींद आ रही है,’’ बच्चे ने बोर होते हुए टोका.

‘‘अच्छा तो आखिर में लिखो… मैं यही प्रार्थना करता हूं कि रिश्वत देने वाले भी सलामत रहें और लेने वाले भी. जय देश, जय रिश्वत.’’

इस में बुरा क्या है : एक जवान लड़की का खूबसूरत होना क्या गुनाह है

एक जवान लड़की का खूबसूरत होना उस के लिए इतना घातक भी हो सकता है… और अगर वह दलित हो, तो कोढ़ में खाज जैसी हालत हो जाती है. आज बेला इस बात को शिद्दत से महसूस कर रही थी. बौस के चैंबर से निकलतेनिकलते उस की आंखें भर गई थीं.

भरी आंखों को स्टाफ से चुराती बेला सीधे वाशरूम में गई और फूटफूट कर रोने लगी. जीभर कर रो लेने के बाद वह अपनेआप को काफी हलका महसूस कर रही थी. उस ने अपने चेहरे को धोया और एक नकली मुसकान अपने होंठों पर चिपका कर अपनी सीट पर बैठ गई.

बेला टेबल पर रखी फाइलें उलटनेपलटने लगी, फिर उकता कर कंप्यूटर चालू कर ईमेल चैक करने लगी, मगर दिमाग था कि किसी एक जगह ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा था. रहरह कर बौस के साथ कुछ देर पहले हुई बातचीत पर जा कर रुक रहा था.

तभी बेला का मोबाइल फोन बज उठा. देखा तो रमेश का मैसेज था. लिखा था, ‘क्या सोचा है तुम ने… आज रात के लिए?’

बेला तिलमिला उठी. सोचा, ‘हिम्मत कैसे हुई इस की… मुझे इस तरह का वाहियात प्रस्ताव देने की… कैसी नीच सोच है इस की… रसोईघर और पूजाघर में घुसने पर दलित होना आड़े आ जाता है, मगर बिस्तर पर ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता…’

मगर यह कोई नई बात तो है नहीं… यह तो सदियों से होता आया है… और बेला के साथ भी बचपन से ही… बिस्तर पर आतेआते मर्दऔरत में सिर्फ एक ही रिश्ता बचता है… और वह है देह का…

बेला अपनेआप से तर्क करते हुए तकरीबन 6 महीने पहले के उस रविवार पर पहुंच गई, जब वह अपने बौस रमेश के घर उन की पत्नी को देखने गई थी.

बौस की 3 महीने से पेट से हुई पत्नी सीमा सीढि़यों से नीचे गिर गई थी और खून बहने लगा था. तुरंत डाक्टरी मदद मिलने से बच्चे को कोई नुकसान नहीं हुआ था, मगर डाक्टर ने सीमा को बिस्तर पर ही आराम करने की सलाह दी थी, इसीलिए बेला उस दिन सीमा से मिलने उन के घर चली गई थी.

रमेश ने बेला के सामने चाय का प्रस्ताव रखा, तो वह टाल नहीं सकी.

बौस को रसोईघर में जाते देख बेला ने कहा था, ‘सर, आप मैडम के पास बैठिए. मैं चाय बना कर लाती हूं.’

रमेश ने सीमा की तरफ देखा, तो उन्होंने आंखों ही आंखों में इशारा करते हुए उन की तरफ इनकार से सिर हिलाया था, जिसे बेला ने महसूस कर लिया था.

खैर… उस ने अनजान बनने का नाटक किया और चाय रमेश ही बना

कर लाए. बाद में बेला ने यह भी देखा कि रमेश ने उस का चाय का जूठा कप अलग रखा था.

हालांकि दूसरे ही दिन दफ्तर में रमेश ने बेला से माफी मांग ली थी.

उस के बाद धीरेधीरे रमेश ने उस से नजदीकियां बढ़ानी भी शुरू कर दी थीं, जिन का मतलब अब बेला अच्छी तरह समझने लगी थी.

उन्हीं निकटताओं की आड़ ले कर आज रमेश ने उसे बड़ी ही बेशर्मी से रात में अपने घर बुलाया था, क्योंकि सीमा अपनी डिलीवरी के लिए पिछले एक महीने से मायके में थी.

क्या बिस्तर पर उस का दलित होना आड़े नहीं आएगा? क्या अब उसे छूने से बौस का धर्म खराब नहीं होगा?

बेला जितना ज्यादा सोचती, उतनी ही बरसों से मन में सुलगने वाली आग और भी भड़क उठती.

सिर्फ रमेश ही क्यों, स्कूलकालेज से ले कर आज तक न जाने कितने ही रमेश आए थे, बेला की जिंदगी में… जिन्होंने उसे केवल एक ही पैमाने पर परखा था… और वह थी उस की देह. उस की काबिलीयत को दलित आरक्षण के नीचे कुचल दिया गया था.

बेला की यादों में अचानक गांव वाले स्कूल मास्टरजी कौंध गए. उन दिनों वह छठी जमात में पढ़ती थी. 5वीं जमात में वह अपनी क्लास में अव्वल आई थी.

बेला खुशीखुशी मिठाई ले कर स्कूल में मास्टरजी को खिलाने ले गई थी. मास्टरजी ने मिठाई खाना तो दूर, उसे छुआ तक नहीं था.

‘वहां टेबल पर रख दो,’ कह कर उसे वापस भेज दिया था.

बेला तब बेइज्जती से गड़ गई थी, जब क्लास के बच्चे हंस पड़े थे.

बेला चुपचाप वहां से निकल आई थी, मगर दूसरे ही दिन मास्टरजी ने उसे स्कूल की साफसफाई में मदद करने के बहाने रोक लिया था.

बेला अपनी क्लास में खड़ी अभी सोच ही रही थी कि शुरुआत कहां से की जाए, तभी अचानक मास्टरजी ने पीछे से आ कर उसे दबोच लिया था.

बेला धीरे से बोली थी, ‘मास्टरजी, मैं बेला हूं…’

‘जानता हूं… तू बेला है… तो क्या हुआ?’ मास्टरजी कह रहे थे.

‘मगर, आप मुझे छू रहे हैं… मैं दलित हूं…’ बेला गिड़गिड़ाई थी.

‘इस वक्त तुम सिर्फ एक लड़की का शरीर हो… शरीर का कोई जातधर्म नहीं होता…’ कहते हुए मास्टरजी ने उस का मुंह अपने होंठों से बंद कर दिया था और छटपटाती हुई उस मासूम कली को मसल डाला था.

बेला उस दिन आंसू बहाने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकी थी. बरसों पुरानी यह घटना आज जेहन में आते ही बेला का पूरा शरीर झनझना उठा. वह दफ्तर के एयरकंडीशंड चैंबर में भी पसीने से नहा उठी थी.

स्कूल से जब बेला कालेज में आई, तब भी यह सिलसिला कहां रुका था. उस का सब से पहला विरोध तो गांव की पंचायत ने किया था.

पंचायत ने उस के पिता को बुला कर धमकाया था, ‘भला बेला कैसे शहर जा कर कालेज में पढ़ सकती है? जो पढ़ना है, यहीं रह कर पढ़े… वैसे भी अब लड़की सयानी हो गई है… इस के हाथ पीले करो और गंगा नहाओ…’ पंचों ने सलाह दी, तो बेला के पिता अपना सा मुंह ले कर घर लौट आए थे.

उस दोपहर जब बेला अपने पिता को खेत में खाना देने जा रही थी, तब रास्ते में सरपंच के बेटे ने उस का हाथ पकड़ते हुए कहा था, ‘बेला, तेरे शहर जा कर पढ़ने की इच्छा मैं पूरी करवा सकता हूं… बस, तू मेरी इच्छा पूरी कर दे.’

बेला बड़ी मुश्किल से उस से पीछा छुड़ा पाई थी. तब उस ने पिता के सामने आगे पढ़ने की जिद की थी और ऊंची पढ़ाई से मिलने वाले फायदे गिनाए थे.

बेटी की बात पिता को समझ आ गई और पंचायत के विरोध के बावजूद उन्होंने उस का दाखिला कसबे के महिला कालेज में करवा दिया और वहीं उन के लिए बने होस्टल में उसे जगह भी मिल गई थी.

हालांकि इस के बाद उन्हें पंचायत की नाराजगी भी झेलनी पड़ी थी. मगर बेटी की खुशी की खातिर उन्होंने सब सहन कर लिया था.

शहर में भी होस्टल के वार्डन से ले कर कालेज के क्लर्क तक सब ने उस

का शोषण करने की कोशिश की थी. हालांकि उसे छूने और भोगने की उन की मंशा कभी पूरी नहीं हुई थी, मगर निगाहों से भी बलात्कार किया जाता है, इस कहावत का मतलब अब बेला को अच्छी तरह से समझ आने लगा था.

फाइनल प्रैक्टिकल में प्रोफैसर द्वारा अच्छे नंबर देने का लालच भी उसे कई बार दिया गया था. उस के इनकार करने पर उसे ताने सुनने पड़ते थे.

‘इन्हें नंबरों की क्या जरूरत है… ये तो पढ़ें या न पढ़ें, सरकारी सुविधाएं इन के लिए ही तो हैं…’

ऐसी बातें सुन बेला तिलमिला जाती थी. उस की सारी काबिलीयत पर एक झटके में ही पानी फेर दिया जाता था.

मगर बेला ने हार नहीं मानी थी. अपनी काबिलीयत के दम पर उस ने सरकारी नौकरी हासिल कर ली थी.

पहली बार जब बेला अपने दफ्तर में गई, तो उस ने देखा कि उस का पूरा स्टाफ एकसाथ लंच कर रहा है, मगर उसे किसी ने नहीं बुलाया था.

बेला ने स्टाफ के साथ रिश्ता मजबूत करने के लिहाज से एक बार तो खुद ही उन की तरफ कदम बढ़ाए, मगर फिर अचानक कुछ याद आते ही उस के बढ़ते कदम रुक गए थे.

बेला के शक को हकीकत में बदल दिया था उस के दफ्तर के चपरासी ने. वह नादान नहीं थी, जो समझ नहीं सकती थी कि उस के चपरासी ने उसे पानी डिस्पोजल गिलास में देना शुरू क्यों किया था.

क्याक्या याद करे बेला… इतनी सारी कड़वी यादें थीं उस के इस छोटे से सफर में, जिन्हें भूलना उस के लिए नामुमकिन सा ही था. मगर अब उस ने ठान लिया था कि वह अब और सहन नहीं करेगी. उस ने तय कर लिया था कि वह अपनी सरकारी नौकरी छोड़ देगी और दुनिया को दिखा देगी कि उस में कितनी काबिलीयत है. अब वह सिर्फ प्राइवेट नौकरी ही करेगी और वह भी बिना किसी की सिफारिश या मदद के.

बेला के इस फैसले को बचकाना फैसला बताते हुए उस के पिता ने बहुत खिलाफत की थी. उन का कहना भी सही था कि अगर दलित होने के नाते सरकार हमें कोई सुविधा देती है, तो इस में इतना असहज होने की कहां जरूरत है… हम अपना हक ही तो ले रहे हैं.

मगर, बेला ने किसी की नहीं सुनी और सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया.

बेला को ज्यादा भागदौड़ नहीं करनी पड़ी थी. उस का आकर्षक बायोडाटा देख कर इस कंपनी ने उसे अच्छे सालाना पैकेज पर असिस्टैंट मैनेजर की पोस्ट औफर की थी. रमेश यहां मैनेजर थे. उन्हीं के साथ रह कर बेला को कंपनी का काम सीखना था.

शुरूशुरू में तो रमेश का बरताव बेला के लिए अच्छा रहा था, मगर जब से उन्होंने कंपनी में उस की पर्सनल फाइल देखी थी, तभी से उन का नजरिया बदल गया था. पहले तो वह समझ नहीं सकी थी, मगर जब से उन के घर जा कर आई थी, तभी से उसे रमेश के बदले हुए रवैए की वजह समझ में आ गई थी.

औरत के शरीर की चाह मर्द से कुछ भी करवा सकती है, यह सोच अब बेला की निगाहों में और भी ज्यादा मजबूत हो चली थी. पत्नी से जिस्मानी दूरियां रमेश से सहन नहीं हो रही थीं, ऐसे में बेला ही उसे आसानी से मिलने वाली चीज लगी थी. बेला का सालभर का प्रोबेशन पीरियड बिना रमेश के अच्छे नोट के क्लियर नहीं हो सकता और इसी बात का फायदा रमेश उठाना चाहते हैं.

‘जब यहां भी मेरी काबिलीयत की पूछ नहीं है, तो फिर सरकारी नौकरी कहां बुरी थी? कम से कम इस तरह के समझौते तो नहीं करने पड़ते थे वहां… नौकरी छूटने का मानसिक दबाव तो नहीं झेलना पड़ेगा… ज्यादा से ज्यादा स्टाफ और अफसरों की अनदेखी ही तो झेलनी पड़ेगी… वह तो हम आजतक झेलते ही आए हैं… इस में नई बात क्या होगी…

‘वैसे भी जब आम सोच यही है कि दलितों को सरकारी नौकरी उन की काबिलीयत से नहीं, बल्कि आरक्षण के चलते मिलती है, तो यही सही…

‘इस सोच को बदलने की कोशिश करने में मैं ने अपने कीमती 2 साल बरबाद कर दिए… अब और नहीं… यह भी तो हो सकता?है कि सरकारी पावर हाथ में होने से मैं अपनी जैसी कुछ लड़कियों की मदद कर सकूं,’ बेला ने अब अपनी सोच को एक नई दिशा दी.

इस के बाद बेला ने अपने आंसू पोंछे… आखिरी बार रमेश के चैंबर की तरफ देखा और इस्तीफा लिखने लगी.

बंगलादेश: शेख हसीना की तानाशाही का अंत और भारत

बंगलादेश की प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना का तख्ता वहां की जनता ने पलट दिया है. बताया जा रहा है कि शेख हसीना भारत में शरण ले चुकी हैं. मगर सवाल अब गहरा गया है कि बंगलादेश का अब क्या होगा?

कहते हैं न, बुरे का बुरा ही अंत होता है. बंगलादेश में तानाशाही का राज देखते ही देखते खत्म हो गया. बगावत का आगाज हुआ तो सैन्यशक्ति भी साथ छोड़ कर अलग हो गई औरप्रधानमंत्री को सिर्फ 45 मिनट का समय देश को छोड़ने के लिए दे दिया गया. यहां तक कि एक प्रधानमंत्री होने के बाद भी शेख हसीना देश को संबोधित नहीं कर पाईं.
शेख हसीना ने लोकतंत्र को जिस तरह खत्म कर के अपना वर्चस्व कायम किया था उस का हश्र यही होना था. हाल ही में बंगलादेश में आमचुनाव संपन्न हुए जिस में विपक्षी पार्टियों के नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया और बिना विपक्ष, शेख हसीना प्रधानमंत्री बन गई थीं. दूसरी तरफ भारत ने जिस तरह शेख हसीना को मेहमान बनाया है वह नरेंद्र मोदी सरकार की कूटनीतिक विफलता की एक नजीर है. जिसे इतिहास कभी माफ नहीं करेगा क्योंकि शेख हसीना को लोकतंत्र की प्रहरी नहीं कहा जा सकता. उन का चरित्र एक तानाशाह का था.

आइए देखते हैं शेख हसीना के राजनीतिक उतारचढ़ाव को. बंगलादेश में लगातार चौथी बार और अब तक 5वीं बार प्रधानमंत्री निर्वाचित हुईं शेख हसीना को उन के समर्थक ‘आयरन लेडी’ के रूप में याद करते हैं. लेकिन अब उन के 17 साल के शासन व अंतिम कार्यकाल की तानाशाही का अंत हो गया है.
शेख हसीना ने एक समय सैन्यशासित बंगलादेश में स्थिरता प्रदान की थी. लेकिन आगे वे उसी रास्ते पर चल पड़ीं और एक ‘निरंकुश’ नेता बन कर शासन चलाने लगीं. शेख हसीना (76 वर्ष) किसी देश में सब से लंबे समय तक शासन करने वाली दुनिया की कुछ महिलाओं में से एक हैं.

 

बंगलादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान की बेटी

 

शेख हसीना का उज्ज्वल पक्ष यह है कि वे बंगलादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान की बेटी हैं. हसीना 2009 से सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण इस दक्षिणएशियाई देश की बागडोर संभाले हुए थीं. और 2024 की जनवरी में हुए 12वें आम चुनाव में लगातार चौथी बार प्रधानमंत्री चुनी गईं. मगर दुनिया ने देखा कि किस तरह चुनाव से पहले उन्होंने विपक्षी पार्टियों के नेताओं को जेल में डाल दिया और संवैधानिक संस्थानों पर अंकुश रखने लगीं.

यह भी एक बड़ा सच है किहसीना ने पिछले 17 सालों में दुनिया की सब से तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक राष्ट्र का नेतृत्व किया और देश के जीवनस्तर में सुधार लाईं. 1960 के दशक के अंत में शेख हसीना ढाका विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई के दौरान राजनीति में सक्रिय हुईं. पाकिस्तानी सरकार द्वारा अपने पिता की कैद के दौरान उन्होंने उन के राजनीतिक संपर्क सूत्र के रूप में कार्य किया. बंगलादेश को 1971 में पाकिस्तान से स्वतंत्रता मिलने के बाद उन के पिता मुजीबुर रहमान देश के राष्ट्रपति और फिर प्रधानमंत्री बने. हालांकि, अगस्त 1975 में मुजीबुर रहमान, उन की पत्नी और उन के 3 बेटों की सैन्य अधिकारियों द्वारा उन के घर में ही हत्या कर दी गई.

हसीना और उन की छोटी बहन शेख रेहाना विदेश में थीं, इसलिए बच गईं. हसीना ने भारत में 6 साल निर्वासन में बिताए, बाद में उन्हें उन के पिता द्वारा स्थापित पार्टी अवामी लीग का नेता चुना गया. शेख हसीना 1981 में स्वदेश लौट आई थीं. बंगलादेश में 1991 के आम चुनाव में हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग बहुमत हासिल करने में विफल रही. उन की प्रतिद्वंदी बीएनपी की खालिदा जिया प्रधानमंत्री बनीं. 5 साल बाद, 1996 के आम चुनाव में आखिर हसीना प्रधानमंत्री चुनी गईं.

हसीना को 2001 के चुनाव में सत्ता से बाहर कर दिया गया था, लेकिन 2008 के चुनाव में वे भारी जीत के साथ सत्ता में लौट आईं. 2004 में एक दफा हसीना की हत्या की कोशिश की गई थी जब उन की रैली में एक ग्रेनेड विस्फोट हुआ था. हसीना ने 2009 में सत्ता में आने के तुरंत बाद 1971 के युद्ध अपराधों के मामलों की सुनवाई केलिए एक न्यायाधिकरण की स्थापना की. न्यायाधिकरण ने विपक्ष के कुछ वरिष्ठ नेताओं को दोषी ठहराया, जिस के कारण हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए. इसलामिस्ट पार्टी और बीएनपी की प्रमुख सहयोगी जमात ए इसलामी को 2013 में चुनाव में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. बीएनपी प्रमुख खालिदा जिया को भ्रष्टाचार के आरोप में 17 साल की जेल की सजा सुनाई गई थी.

बीएनपी ने 2014 के चुनाव का बहिष्कार किया था, लेकिन 2018 में वह चुनाव में शामिल हुई. इस चुनाव के बारे में बाद में पार्टी नेताओं ने कहा, यह एक गलती थी और आरोप लगाया कि मतदान में व्यापक धांधली और धमकी दी गई थी. अब जब शेख हसीना भारत आ गई हैं, दूसरी तरफ बंगलादेश आगे कब लोकतंत्र के रास्ते पर आएगा, यह समय बताएगा मगर एक संदेश दुनिया में चला गया कि तानाशाही का आखिरकार अंजाम यही होता है. मगर अब सब से बड़ा सवाल यह है कि एक बार फिर भारत में शरणार्थी बन कर शेख हसीना का अवतरण हुआ है, क्या इसे बंगलादेश की नई लोकतांत्रिक सरकार और दुनिया सकारात्मक दृष्टि से देखेगी या फिर…
*

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें