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क्वार्टर : धीमा को क्या मिल पाया सरकारी क्वार्टर

कुंजू प्रधान को घर आया देख कर धीमा की खुशी का ठिकाना न रहा. धीमा की पत्नी रज्जो ने फौरन बक्से में से नई चादर निकाल कर चारपाई पर बिछा दी. कुंजू प्रधान पालथी मार कर चारपाई पर बैठ गया. ‘‘अरे धीमा, मैं तो तुझे एक खुशखबरी देने चला आया…’’ कुंजू प्रधान ने कहा, ‘‘तेरा सरकारी क्वार्टर निकल आया है, लेकिन उस के बदले में बड़े साहब को कुछ रकम देनी होगी.’’ ‘‘रकम… कितनी रकम देनी होगी?’’ धीमा ने पूछा. ‘‘अरे धीमा… बड़े साहब ने तो बहुत पैसा मांगा था, लेकिन मैं ने तुम्हारी गरीबी और अपना खास आदमी बता कर रकम में कटौती करा ली थी,’’ कुंजू प्रधान ने कहा. ‘‘पर कितनी रकम देनी होगी?’’ धीमा ने दोबारा पूछा. ‘‘यही कोई 5 हजार रुपए,’’ कुंजू प्रधान ने बताया. ‘‘5 हजार रुपए…’’ धीमा ने हैरानी से पूछा, ‘‘इतनी बड़ी रकम मैं कहां से लाऊंगा?’’

‘‘अरे भाई धीमा, तू मेरा खास आदमी है. मुझे प्रधान बनाने के लिए तू ने बहुत दौड़धूप की थी. मैं ने किसी दूसरे का नाम कटवा कर तेरा नाम लिस्ट में डलवा दिया था, ताकि तुझे सरकारी क्वार्टर मिल सके. आगे तेरी मरजी. फिर मत कहना कि कुंजू भाई ने क्वार्टर नहीं दिलाया,’’ कुंजू प्रधान ने कहा. ‘‘लेकिन मैं इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगा?’’ धीमा ने अपनी बात रखी. ‘‘यह गाय तेरी है…’’ सामने खड़ी गाय को देखते हुए कुंजू ने कहा, ‘‘क्या यह दूध देती है?’’ ‘‘हां, कुंजू भाई, यह मेरी गाय है और दूध भी देती है.’’ ‘‘अरे पगले, यह गाय मुझे दे दे. इसे मैं बड़े साहब की कोठी पर भेज दूंगा. बड़े साहब गायभैंस पालने के बहुत शौकीन हैं. तेरा काम भी हो जाएगा.’’ कुंजू प्रधान की बात सुन कर धीमा ने रज्जो की तरफ देखा, मानो पूछ रहा हो कि क्या गाय दे दूं? रज्जो ने हलका सा सिर हिला कर रजामंदी दे दी.

रज्जो की रजामंदी का इशारा पाते ही कुंजू प्रधान के साथ आए उस के एक चमचे ने फौरन गाय खोल ली. रास्ते में उस चमचे ने कुंजू प्रधान से पूछा, ‘‘यह गाय बड़े साहब की कोठी पर कौन पहुंचाएगा?’’ ‘‘अरे बेवकूफ, गाय मेरे घर ले चल. सुबह ही बीवी कह रही थी कि घर में दूध नहीं है. बच्चे परेशान करते हैं. अब घर का दूध हो जाएगा… समझा?’’ कुंजू प्रधान बोला. ‘‘लेकिन बड़े साहब और क्वार्टर?’’ उस चमचे ने सवाल किया. ‘‘मुझे न तो बड़े साहब से मतलब है और न ही क्वार्टर से. क्वार्टर तो धीमा का पहली लिस्ट में ही आ गया था. यह सब तो ड्रामा था.’’ कुंजू प्रधान दलित था. जब गांव में दलित कोटे की सीट आई, तो उस ने फौरन प्रधानी की दावेदारी ठोंक दी थी, क्योंकि अपनी बिरादरी में वही तो एक था, जो हिंदी में दस्तखत कर लेता था. उधर गांव के पहले प्रधान भगौती ने भी अपने पुराने नौकर लालू, जो दलित था, का परचा भर दिया था, क्योंकि भगौती के कब्जे में काफी गैरकानूनी जमीन थी.

उसे डर था, कहीं नया प्रधान उस जमीन के पट्टे आवंटित न करा दे. इस जमीन के बारे में कुंजू भी अच्छी तरह जानता था, तभी तो उस ने चुनाव प्रचार में यह खबर फैला दी थी कि अगर वह प्रधान बन गया, तो गांव वालों के जमीन के पट्टे बनवा देगा. जब यह खबर भगौती के कानों में पड़ी, तो उस ने फौरन कुंजू को हवेली में बुलवा लिया था, क्योंकि भगौती अच्छी तरह जानता था कि अगला प्रधान कुंजू ही होगा. कुंजू और भगौती में समझौता हो गया था. बदले में भगौती ने कुंजू को 50 हजार रुपए नकद व लालू की दावेदारी वापस ले ली थी. लिहाजा, कुंजू प्रधान बन गया था. आज धीमा के क्वार्टर के लिए नींव की खुदाई होनी थी. रज्जो ने अगरबत्ती जलाई, पूजा की. धीमा ने लड्डू बांट कर खुदाई शुरू करा दी थी. नकेलु फावड़े से खुदाई कर रहा था, तभी ‘खट’ की आवाज हुई. नकेलु ने फौरन फावड़ा रोक दिया.

फिर अगले पल कुछ सोच कर उस ने दोबारा उसी जगह पर फावड़ा मारा, तो फिर वही ‘खट’ की आवाज आई. ‘‘कुछ है धीमा भाई…’’ नकेलु फुसफुसाया, ‘‘शायद खजाना है.’’ नकेलु की आंखों में चमक देख कर धीमा मुसकराया और बोला, ‘‘कुछ होगा तो देखा जाएगा. तू खोद.’’ ‘‘नहीं धीमा भाई, शायद खजाना है. रात में खोदेंगे, किसी को पता नहीं चलेगा. अपनी सारी गरीबी खत्म हो जाएगी,’’ नकेलु ने कहा. ‘‘कुछ नहीं है नकेलु, तू नींव खोद. जो होगा देखा जाएगा.’’ नकेलु ने फिर फावड़ा मारा. जमीन के अंदर से एक बड़ा सा पत्थर निकला. पत्थर पर एक आकृति उभरी हुई थी. ‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति लगती है,’’ सड़क से गुजरते नन्हे ने कहा. फिर क्या था. मूर्ति वाली खबर गांव में जंगल की आग की तरह फैल गई और वहां पर अच्छीखासी भीड़ जुट गई. ‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति है…’’ नदंन पंडित ने कहा, ‘‘देवी की मूर्ति धोने के लिए कुछ ले आओ.’’ नदंन पंडित की बात का फौरन पालन हुआ. जुगनू पानी की बालटी ले आया. बालटी में पानी देख कर नदंन पंडित चिल्लाया, ‘‘अरे बेवकूफ, पानी नहीं गाय का दूध ले कर आ.’’ नदंन पंडित का इतना कहना था कि जिस के घर पर जितना गाय का दूध था, फौरन उतना ही ले आया. गांव में नदंन पंडित की बहुत बुरी हालत थी.

उस की धर्म की दुकान बिलकुल नहीं चलती थी. आज से उन्हें अपना भविष्य संवरता लग रहा था. नंदन पंडित ने मूर्ति को दूध से अच्छी तरह से धोया, फिर मूर्ति को जमीन पर गमछा बिछा कर 2 ईंटों की टेक लगा कर रख दिया. उस के बाद 10 रुपए का एक नोट रख कर माथा टेक दिया. इस के बाद नंदन पंडित मुुंह में कोई मंत्र बुदबुदाने लग गया था. लेकिन उस की नजर गमछे पर रखे नोटों पर टिकी थी. गांव वाले बारीबारी से वहां माथा टेक रहे थे. धीमा और रज्जो यह सब बड़ी हैरानी से देख रहे थे. उन की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा. ‘‘यह देवी की जगह है, यहां पर मंदिर बनना चाहिए,’’ भीड़ में से कोई बोला. ‘हांहां, मंदिर बनना चाहिए,’ समर्थन में कई आवाजें एकसाथ उभरीं. दूसरे दिन कुंजू प्रधान के यहां सभा हुई. सभा में पूरे गांव वालों ने मंदिर बनाने का प्रस्ताव रखा और आखिर में यही तय हुआ कि मंदिर वहीं बनेगा, जहां मूर्ति निकली है और धीमा को कोई दूसरी जगह दे दी जाएगी. धीमा को गांव के बाहर थोड़ी सी जमीन दे दी गई, जहां वह फूंस की झोंपड़ी डाल कर रहने लगा था.

धीमा अब तक अच्छी तरह समझ चुका था कि सरकारी क्वार्टर के चक्कर में उस की पुश्तैनी जमीन भी हाथ से निकल चुकी है. मंदिर बनने का काम इतनी तेजी से चला कि जल्दी ही मंदिर बन गया. गांव वालों ने बढ़चढ़ कर चंदा दिया था. आज मंदिर में भंडारा था. कई दिनों से पूजापाठ हो रहा था. नंदन पंडित अच्छी तरह से मंदिर पर काबिज हो चुका था. खुले आसमान के नीचे फूंस की झोंपड़ी के नीचे बैठा धीमा अपने बच्चों को सीने से लगाए बुदबुदाए जा रहा था, ‘‘वाह रे ऊपर वाले, इनसान की जमीन पर इनसान का कब्जा तो सुना था, मगर कोई यह तो बताए कि जब ऊपर वाला ही इनसान की जमीन पर कब्जा कर ले, तो फरियाद किस से करें?’’

मैया मोरी गांव सहा न जाए : जब बेटा दिल्ली चला गया

लो जी, फिर मुझ दुखियारी के फोन पर बेटे की काल आ गई. सच कहूं, जबजब मेरे बेटे का गांव से फोन आता है, तबतब मेरा तो यह फटा कलेजा सुनने से पहले ही मुंह को आ जाता है. मेरा बेटा दिल्ली छोड़ कर जब से गांव गोद लेने गया है न, अपनी तो भूखप्यास सब खत्म हो गई है. दिनभर में चारचार बार फोन रीचार्ज कराना पड़ रहा है. वाह रे बेटा, जवानी में ऐसे दिन भी तुझे देखने थे. अभी तो चुनाव होने में 5 साल हैं. पता नहीं, तब तक और क्याक्या दिन देखने पड़ेंगे. बुरा हो इस सरकार का, जो मन में आए किए जा रही है. हम विपक्ष वालों तक के हाथों में कभी झाड़ू पकड़वा देती है, तो कभी फावड़ा. कल को न जाने क्या हाथ में पकड़वा दे.

अब देखो न, मेरे फूल से बेटे को गांव गोद लेना पड़ा. मैं ने उसे यह करते हुए बहुत समझाया कि बेटा, उन्हें लेने दे 4-4 गांव गोद. तेरे दिन तो अभी मां की गोद में बैठने के हैं. मैं तेरी जगह एक के बदले 2 गांव गोद ले लेती हूं, पर बेटा नहीं माना तो नहीं माना. लाड़ला है, सो जिद्दी है. बड़ा भी हो गया है. पर मां के लिए तो बेटा कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, जब तक उस की शादी नहीं हो जाती, तब तक वह बच्चा ही रहता है. अब सरकार को कोई कैसे समझाए कि उस के भी तो अभी गोद में बैठनेखेलने के दिन हैं. आज तक वह किसी न किसी की गोद में ही लोटता रहा. उसे आज तक हम ने गोद से उतारा ही कब? उस ने उतरना भी चाहा, तो हम ने उतरने न दिया. उसे क्या पता कि किसी को गोद में कैसे बैठाते हैं? वह तो पड़ोसियों तक के बच्चों को गोद में लेने से मना करता है.

डरता है कि कहीं उस पर किसी बच्चे ने शूशू कर दिया तो… बेचारा, पता नहीं गोद में गांव ले कर कैसे रह रहा होगा? हाय रे यह जनसेवा, उसे तो ठीक से अभी गोद में बैठना भी नहीं आता और बेचारा वह. अब जा कर कोई उन से पूछे कि कल तक जो मेरी गोद में रहा, उसे क्या आता है किसी को अपनी गोद में लेना? पर नहीं. वे सुनने वाले कहां. उन के तो आजकल कहने के दिन हैं और सुनने के अपने. ‘अरे, क्या हाल है बेटा? गांव में सब ठीक तो है?’ ‘मांमां, फिर दिक्कत आ गई है.’ ‘अब क्या दिक्कत आ गई मेरे फूल से लाल को?’ ‘मां, गांव में बिजली नहीं है. यहां तो सरकारी मुलाजिम तो दिखते ही नहीं, पर सूरज भी अपनी मरजी का है. बिजली वालों ने बस बिजली की तारें ही पेड़ों से बांध रखी हैं और उन पर गांव वाले अपने कपड़े सूखने के लिए डालते हैं. ‘गांव में पानी के लिए पाइप तो है, पर उन में पानी नहीं आता.

गांव वाले उन में गागरों से पानी डाल कर फिर नल से भरते हैं.’ ‘यह गागर कैसी होती है बेटा?’ ‘मां, मेरे पास उसे समझाने के लिए शब्द नहीं हैं. मैं मोबाइल पर फोटो भेज दूंगा, तो किसी से पूछ लेना. पर इस अंधेरे का क्या करूं मां? ‘यहां तो रात को तो अंधेरा रहता ही है, पर दिन में भी अंधेरा ही रहता है. आप के बिना बहुत डर लग रहा है. मन कर रहा है कि गांव किसी और की गोद में बैठा कर दिल्ली आ जाऊं.

‘बस, मुझे नहीं बनना अब कुछ… ऐसा नहीं हो सकता मां कि हम मोदी अंकल की दिल्ली वाली गली ही गोद ले लें? यहां तो कोई मेरी गोद में आ कर शूशू कर देता है, तो कोई…’ ‘चिंता मत कर मेरे लाल. कुरिअर से अभी हगीज भिजवा रही हूं. हर पैकेट के साथ 10 रुपए का मोबाइल रीचार्ज फ्री.’ ‘पर मां, क्या करना फ्री रीचार्ज का. यहां तो मोबाइल सिगनल पेड़ की चोटी पर चढ़ कर ही आता है. वहीं से चढ़ कर आप को फोन किया है मां. अब हम से यह गांव और नहीं. सहा जाता. हम बस अभी बैलगाड़ी से…’

क्या करें कि दिल दिमाग रहे जवां

21वीं सदी में इंसान की जीवन प्रत्याशा काफी बढ़ गई है. विज्ञान और तकनीक के विकास के साथसाथ हमारी आयु का विकास भी हुआ है. पहले जहां औसत आयु 45-50 के बीच होती थी, वहीं आज मनुष्य 80-90 साल तक आराम से जी रहा है और उस का स्वास्थ्य भी बेहतर है. एक हालिया रिपोर्ट की माने तो उत्तर प्रदेश में हुए एक सर्वे में सामने आया है कि वहां उम्र के साई बरस पूरा करने वाले लोगों में 62 फ़ीसदी महिलाएं हैं. प्रदेश के सभी जिलों में 100 – 150 साल के कुल 19378 मतदाता हैं. इन में 7347 पुरुष और 12030 महिलाएं हैं. यह सिर्फ एक राज्य का आंकड़ा है जो बताता है कि जीवन प्रत्याशा चार दशक पहले के मुकाबले लगभग दुगनी हो गई है. यह मानव जाति के लिए हर्ष की बात है.

पहले अनेक ऐसी बीमारियां थीं जिन का इलाज नहीं मिला था, इस कारण बीमारियों से लोगों की मृत्यु हो जाती थी, आज उन अनेकानेक बीमारियों के इलाज मौजूद हैं जो कभी जानलेवा थीं. ट्यूबर्क्युलोसिस (टीबी), हेपेटाइटिस, मलेरिया, दिमागी बुखार, कैंसर जैसे रोग जो जानलेवा कहे जाते थे, आज इन के मरीज दवाओं और विभिन्न थेरैपी से स्वस्थ हो जाते हैं. इस से जीवन के प्रति लोगों की सोच में भी बदलाव आया है. अब अधेड़ उम्र के लोग भी ज्यादा से ज्यादा साल तक जवान दिखने की कोशिश करते हैं. जिस में महिलाएं आगे हैं.

पहले 60 साल की उम्र में व्यक्ति नौकरी से रिटायर हो जाता था और उस के बाद ज्यादा से ज्यादा वह अगले दस बारह साल तक जीवित रहता था. इन दस-बारह सालों में वह मौत का इंतज़ार करते हुए धर्म कर्म के काम में लगा रहता था, तीर्थ यात्रा पर निकल जाता था या बीमारी से जूझता था और फिर मर जाता था. परन्तु अब जब जीवन प्रत्याशा अस्सी-नब्बे या सौ साल तक जा पहुंची है तो रिटायरमेंट के बाद तीस चालीस साल तक का समय उस के पास है. लिहाजा वह मौत का इंतज़ार नहीं करता बल्कि अधिक स्वस्थ और अधिक क्रियाशील बना रहना चाहता है.

आजकल सुबहशाम पार्क में बच्चों की संख्या कम और पचास पार कर चुके लोगों की संख्या ज्यादा नजर आती है. इस में पुरुष और महिला दोनों हैं. वे वहां वाक करते हैं, ओपन जिम में कसरत करते हैं, योगा मैट पर योग करते दिखते हैं या आपस में गपशप करते ठहाके लगाते नजर आते हैं. सिर की सफेदी छुपाने के लिए बालों में कलर लगा कर, हाफ पेंट, बरमूडा, टीशर्ट, स्पोर्ट्स शूज पहन कर पार्कों में आने वाले पचास पार के लोग पहली नजर में युवा ही दिखाई पड़ते हैं. पहले जिस उम्र में महिलाएं दादी नानी बन जाती थीं आज उस उम्र की महिलाएं नए जीवनसाथी ढूंढते, बढ़िया कैरियर बनाते दिख रही हैं. किसी दूर दराज के गांव की पचास साल की महिला को देखें और किसी पचास साल की शहरी महिला को देखें आप को दोनों की उम्र में पंद्रह बीस साल का फर्क महसूस होगा. इस की वजह है सोच और वातावरण.

आसपास का वातावरण और आप की अपनी सोच का सीधा असर आप के स्वास्थ्य पर पड़ता है. यदि आप मन से खुद को जवान महसूस करते हैं, जवानों जैसा आचरण करते हैं, खुश रहते हैं, पार्टी करते हैं, दोस्तों के साथ घूमते हैं, मौडर्न ड्रैसेस पहनते हैं, युवा लोगों के साथ रहते हैं, हेल्दी भोजन करते हैं और शरीर को फिट रखने के लिए व्यायाम करते हैं तो आप भले पचास या साठ या सत्तर के हो जाएं पर जवान ही नजर आएंगे. अब राहुल गांधी को देख लीजिए, प्रियंका वाड्रा, अखिलेश यादव, योगी आदित्यनाथ, अनुराग ठाकुर ये सभी राजनेता पचास का आंकड़ा पार कर चुके हैं मगर इन्हें हम बूढ़ा नहीं कहते, बल्कि राहुल और अखिलेश की जोड़ी तो ‘दो लड़कों की जोड़ी’ के नाम से मशहूर हैं. जबकि हमारी पिछली पीढ़ी में पचास साल की उम्र में लोग अधेड़ या बूढ़े कहे जाते थे.

जीवन प्रत्याशा बढ़ने से जब नौकरी से रिटायर होने के बाद एक लंबा समय आपके पास है तो उस का सदुपयोग करिए. ये न सोचिए कि अब तो रिटायर हो गए, अब क्या रहा करने को? सच तो यह है कि विदेशों में इस उम्र में लोग दुनिया के भ्रमण पर निकल जाते हैं, पार्टियां करते हैं, नए सिरे से जिंदगी जीना शुरू करते हैं. वे कहते हैं कि साठ के बाद तो जीवन शुरू होता है.

आप ज्यादा से ज्यादा खुद को जवां और ऊर्जावान महसूस करें, इस के लिए कुछ टिप्स हम आप को देते हैं –

अपने से कम उम्र के दोस्त बनाएं

औरत हो या आदमी यदि आप अपने से कम उम्र के या जवान लोगों को अपना दोस्त बनाते हैं तो उन के साथ रहने, बातचीत करने और घूमने फिरने से आप खुद को एनर्जेटिक महसूस करेंगे. आप अपने लिए ड्रेसेस खरीदें तो उस में उन की राय जरूर लें. आप देखेंगे कि उन की चौइस के कपड़े आप को आप की उम्र से कम ही दिखाएंगे.

डल कलर की पोशाक न पहनें

हमेशा खिलेखिले रंग के कपड़े पहनें. कपड़े भड़काऊ न हों मगर डल भी न हों. रंग और प्रिंट अच्छे हों जो मन को उत्तेजित करे. घूमने निकलें तो कुर्ते-पायजामे की जगह बरमूडा, टीशर्ट या स्पोर्ट्स ट्राउज़र्स पहनें. ऐसे कपड़े कम्फर्टेबल भी होते हैं और एनर्जी महसूस कराते हैं. पैरों में स्पोर्ट्स शूज पहने. महिलाएं साड़ी और शलवार सूट की बजाय स्पोर्ट्स ड्रेस, जींस,पैंट और टी शर्ट पहने तो ज्यादा एक्टिव दिखेंगी भी और महसूस भी करेंगी.

बालों को कलर करें

सफ़ेद बाल दूसरों की नजर में आप को उम्रदराज बनाते हैं और खुद भी अपनी शक्ल आईने में अच्छी नहीं लगती. सफेद बाल देख कर युवा भी आप से दोस्ताना तरीके से बात नहीं करेंगे बल्कि आपको इज्जत देते हुए संक्षिप्त वार्तालाप ही करेंगे. ऐसे में आप खुद को बूढ़ा महसूस करने लगेंगे. इस विचार और व्यवहार से मुक्ति चाहिए तो अपने बालों को कलर करें. दूसरों को जवान दिखें और खुद को जवान महसूस करें. बालों का रंग आप के व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव डालता है.

खानपान सादा रखें

40 की उम्र के बाद लोगों का वजन बढ़ने लगता है. हमें जवानी के दिनों में जितने भोजन की आवश्यकता होती है 40 के बाद उसे कम कर देना चाहिए. घी और मसालेदार गरिष्ठ भोजन की जगह सादा खाना जिस में सलाद की मात्रा अधिक हो खाने से वजन भी कंट्रोल में रहता है और बीमारियां भी दूर रहती हैं. जूस पिएं, सलाद खाएं, मौसमी फल और मट्ठे का प्रयोग करें. ये भोजन आसानी से पचता है और सेहतमंद रखता है.

ब्यूटी पार्लर और सेलोन जरूर जाएं

50 पार होते ही महिलाओं में मीनोपोज के कारण हार्मोनल बदलाव से अवसाद और निराशा के भाव बढ़ जाते हैं. उन को सैक्स अरुचि कर लगने लगता है. वे सजने संवरने से दूर होने लगती हैं. घर और बाहर एक तरह के ही कपड़े में नजर आने लगती हैं. बाल सफेद होते हैं तो उन की तरफ भी ध्यान नहीं देतीं. ये सब बातें मिल कर जल्दी ही बुढ़ापे की तरफ धकेल देती हैं. अगर आप लम्बे समय तक जवान और स्वस्थ रहना चाहती हैं तो ब्यूटी पार्लर रेगुलर जाएं. अपना फेशियल करवाएं. मैनीक्योर पेडीक्योर लें. बाल कटवाएं. हेड मसाज और हेयर सपा लें. कलर करवाएं. नेलपोलिश लगवाएं. अपने जीवन में रंग भरें और लम्बे समय तक जीवन का आनंद उठाएं. पुरुषों को भी अपनी त्वचा और बालों पर ध्यान देना चाहिए. वे रेगुलर सेलोन जा कर अपने बाल और दाढ़ी सेट करवाएं. हाथ पैर के नाखून और त्वचा पर ध्यान दें. फेशियल और हेड मसाज लें. इस से ताजगी आती है. मन में उत्साह का प्रवाह होता है.

नएनए काम करें

आमतौर पर इंसान 25 साल से ले कर 60 साल की उम्र तक एक जैसा काम करता है. करीब 36 साल तक उस की दिनचर्या एक समान रहती है. पर सेवानिवृत्ति के बाद सिर्फ एक काम करने की कोई बंदिश नहीं होती. ऐसे में आप वो सारे काम कर सकते हैं जो आप कभी करना चाहते थे मगर नौकरी और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण नहीं कर पाए. जैसे आप अपने गाने के शौक को शुरू कर सकते हैं, कोई वाद्य यंत्र बजाना सीख सकते हैं, चित्रकारी, बागवानी, तैराकी, साइकिलिंग, समाज सेवा, लोगों की काउंसलिंग का काम कर सकते हैं. किताब लिखना या पढ़ना भी आप को व्यस्त रखता है और नएनए आइडिया भी देता है.

ग्रुप बनाएं घूमने जाएं

जब तक आप नौकरी में रहे आप को घूमने फिरने का समय नहीं मिला होगा. तो अब कोई देर नहीं हुई है. पतिपत्नी साथ में या अन्य दोस्तों के साथ ग्रुप बना कर खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेने के लिए पहाड़ों पर जाएं, समुद्र किनारे के स्थलों का भ्रमण करें, आप के ग्रुप में बीस से तीस साल के युवा लड़के लड़कियां भी हों तो यात्रा का मजा दूना हो जाएगा. उन की चुहलबाजी आप को अपनी जवानी की याद दिलाएगी और जी को खुश करेगी. इन यात्राओं के दौरान खिले खिले रंगों के वेस्टर्न कपड़े पहनें. गोगल्स और हैट लगाएं. हां, धार्मिक यात्राएं कदापि ना करें क्योंकि धार्मिक यात्राओं में कोई रोचकता नहीं होती. वे मन को उदास और निराश करती हैं. ऐसी यात्राओं से दूर रहें जो जीवन को मायामोह बता कर उस के प्रति मन में निराशा और अवसाद का भाव पैदा करें.

क्या जातिगत भेदभाव सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दूर हो सकता है

सुप्रीम कोर्ट ने जेल मैनुअल से जातिगत भेदभाव बढ़ाने वाले नियमों को हटाने के आदेश दिए हैं. शीर्ष कोर्ट ने कुछ राज्यों से कहा है कि वे अपनी जेलों में जाति के आधार पर काम का बंटवारा न करें. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पादरीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने पत्रकार सुकन्या शांता की याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने आदेश में कहा कि जेलों में जातीय भेदभाव की अनुमति नहीं दी जा सकती है. किसी विशेष जाति के लोगों से ही सीवर टैंक साफ़ करवाना गलत है. कोर्ट ने जेल मैनुअल में जातिगत भेदभाव बढ़ाने वाले सभी नियमों को 3 महीने में बदलने के लिए कहा है. अदालत का मानना है कि जाति के आधार पर काम कराना उचित नहीं है. बेंच ने कहा कि निचली जाति के कैदियों से खतरनाक परिस्थितियों में सीवर टैंकों की सफाई की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.

उल्लेखनीय है कि यह मामला दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट में पत्रकार सुकन्या शांता द्वारा दाखिल एक जनहित याचिका में उठाया गया था. जनहित याचिका में कहा गया था कि करीब 17 राज्यों की जेलों में कैदियों के साथ जाति आधारित भेदभाव हो रहा है. जेलों में शौचालयों की सफाई, सीवर की सफाई जैसे कार्य निम्न जाति के कैदियों को सौंपा जाता है जबकि रसोई का काम उच्च जाति के अपराधियों के जिम्मे होता है. इस जनहित याचिका पर पहली सुनवाई जनवरी 2024 में हुई थी. कोर्ट ने 17 राज्यों को नोटिस भेज कर जवाब मांगा था. 6 महीने के अंदर केवल उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने ही अपना जवाब कोर्ट में दाखिल किया है.

शांता ने अपनी याचिका में बताया था कि पश्चिम बंगाल जेल मैनुअल में यह प्रावधान है कि जेलों में काम जाति के आधार पर तय किया जाना चाहिए, जैसे खाना बनाना दबंग जातियों द्वारा किया जाना चाहिए और झाड़ू लगाना खास निम्न जातियों द्वारा होना चाहिए. जेल मैन्युअल के नियम 694 के अनुसार, कैदियों की वास्तविक धार्मिक प्रथाओं या जातिगत पूर्वाग्रहों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए. नियम 793 में कहा गया है कि सफाईकर्मियों को मेहतर, हरि, चांडाल या किसी अन्य जाति से चुना जाना चाहिए.

उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल, 1941, जिसे 2022 में संशोधित किया गया था, में कहा गया है कि कैदियों के जातिगत पूर्वाग्रहों को बनाए रखा जाना चाहिए और सफाई, सफाई और झाड़ू लगाने के काम को जातियों के आधार पर बांटा जाना चाहिए. हालांकि, इसमें जातिगत पूर्वाग्रहों को बनाए रखने और ‘आदतन अपराधियों’ को अलग करने का नियम बरकरार रखा गया है.

आंध्र प्रदेश जेल नियम के अनुसार, सफाई या सफ़ाई का काम उन कैदियों से नहीं लिया जाएगा, जो अपनी जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण ऐसा काम करने के आदी नहीं हैं. मध्य प्रदेश जेल मैनुअल में भी सफाई के लिए जाति-आधारित प्रावधान हैं.

2020 तक, राजस्थान जेल नियम, 1951 में कहा गया था कि मेहतर जाति के कैदी शौचालय साफ करेंगे और रसोइया “गैर-आदतन वर्ग” का होगा. कोई भी ब्राह्मण या पर्याप्त रूप से उच्च जाति का हिंदू कैदी ही रसोइया के रूप में नियुक्ति के लिए पात्र है. एक अन्य नियम में कहा गया है कि सभी कैदी जो उच्च जाति के कारण मौजूदा रसोइयों द्वारा तैयार भोजन खाने पर आपत्ति करते हैं, उन के लिए उच्च जाति का ही रसोइया नियुक्त किया जाएगा.

देश में जाति के आधार पर भेदभाव और छुआछूत कहने को तो समाप्त हो चुके हैं, संविधान ने सब को बराबरी का हक़ भी दे दिया है परंतु आश्चर्य की बात है जेल मैनुअल में ही नहीं हमारे समाज में भी ये अभी तक बदस्तूर शामिल है. आम घरों में आज भी यदि सफाई कर्मी को चाय देनी है तो उस का कप अलग रखा जाता है. हमारे माली, मेहतर, झाड़ू पोछा करने वाली बाई जैसे लोग दलित या पिछड़ी जाति के ही होते हैं. सड़क के मैनहोल साफ़ करने वाले कभी उच्च जाति के व्यक्ति नहीं होते बल्कि दलित ही होते हैं. जैसे सफाई का सारा जिम्मा इन्ही के सिर हो.

सुप्रीम कोर्ट ने जेल में जाति के आधार पर काम का बंटवारा करने और जाति आधारित भेदभाव को बढ़ाने वाले नियमों पर चिंता जताते हुए राज्यों के जेल मैनुअलों के भेदभाव वाले प्रावधान रद्द किए हैं. कोर्ट ने भेदभाव वाले नियमों को संविधान के अनुच्छेद 14, 15,17,21 और 23 का उल्लंघन बताया है. अदालत ने कहा कि जेल में जाति आधारित भेदभाव नहीं होना चाहिए. यह सुनिश्चित करना राज्यों की जिम्मेदारी है. कोर्ट ने कहा कि जेल के फार्म में कैदियों से जाति पूछने का कालम नहीं होना चाहिए. सीजेआई ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई रातों रात नहीं जीती जा सकती. मगर यह अदालत जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ चल रहे संघर्ष में योगदान दे रही है. हम ने अनुच्छेद 14 के तहत गैर-भेदभाव से निपटा है. ये भेदभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों हैं. रूढ़िवादिता ऐसे भेदभाव को आगे बढ़ाती है. इसे रोकने के लिए राज्य को सकारात्मक दायित्व निभाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट का कहना बिलकुल ठीक है कि जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई रातोंरात नहीं जीती जा सकती. सच तो यह है कि यह लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक धर्म का खात्मा नहीं होता. क्योंकि दुनिया भर में धर्म ने ही इंसान को खांचों में बांटा है. धर्म ने ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र तय किये. इन चारों ने अपने भीतर सैकड़ों जातियां और उपजातियां बना लीं. भेदभाव और छुआछूत विशाल बरगद का आकार ले चुका है. बरगद को ख़त्म करना है तो उस की टहनियों की छंटाई से उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता है. जब तक उस की जड़ नहीं खोदी जाएगी बरगद का नाश नहीं होगा. और यह जड़ है धर्म. धर्म पर कुठाराघात होने पर ही ये उंचनीच, शूद्र और ब्राह्मण की दीवार गिरेगी. अगर सुप्रीम कोर्ट जड़ पर वार करने की हिम्मत करे तभी समानता का बीजारोपण होगा अन्यथा वह आदेश पर आदेश दे ले, सरकारें कानूनों में सैकड़ों हजारों संशोधन कर लें मगर जाति का भेदभाव और छुआछूत जस का तस रहेगा.

जेल मैन्युअल में चंद नियमों को हटा देने से स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा जब तक अधिकारियों के दिमाग में बसे धर्म के खांचों को नहीं तोड़ा जाएगा. जब अधिकारी सफाई का काम उच्च जाति के कैदियों को और भोजन बनाने का काम निम्न जाति के कैदियों को नहीं देंगे तब तक जेलों में कोई परिवर्तन नहीं आएगा. अधिकारी खुद दलित द्वारा बनाए भोजन को रस ले कर खाएं, तभी कैदी भी खाएंगे. जो पूर्वाग्रहों के चलते ना खाएं उन्हें भूखा ही छोड़ दिया जाए. आखिर कितने दिन भूखे रहेंगे? झक मार के खाएंगे. मगर इस परिवर्तन के लिए सख्ती जरूरी है.

गौरतलब है कि मार्च 2014 में सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में यह बात आई थी कि भारत में 96 लाख (9.6 मिलियन) शुष्क शौचालयों को मैन्युअल रूप से खाली किया जाता है, लेकिन मैनुअल मैला ढोने वालों की सटीक संख्या का सटीक पता अभी तक नहीं लग सका है. आधिकारिक आंकड़े इसे 700,000 से कम बताते हैं. 2018 में एक अनुमान के अनुसार भारत में “स्वच्छता कार्यकर्ताओं” की संख्या 5 मिलियन थी, और उनमें से 50% महिलाएं थीं. हालांकि, सभी सफ़ाई कर्मचारी हाथ से मैला ढोने वाले नहीं हैं. 2018 के एक अन्य अनुमान में यह आंकड़ा 10 लाख हाथ से मैला ढोने वालों का बताया गया, जिस में कहा गया है कि इन में 90% महिलाएं हैं.

धर्म ने इंसान को दुनिया भर में बांटा है. समाज के एक भाग को अछूत कह कर उस से सब से घृणित कार्य कराए जाते हैं. ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर के देशों में हो रहा है. निजी और सार्वजनिक शुष्क शौचालयों और खुली नालियों से मलमूत्र को मैन्युअल रूप से साफ करने की प्रथा दक्षिण एशिया के भी कई हिस्सों में जारी है. अविभाजित भारत के अधिकांश भाग में, जिस में अब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल हैं, सदियों पुरानी सामंती और जाति आधारित प्रथा के अनुरूप, समुदायों की महिलाएं जो पारंपरिक रूप से “मैनुअल स्केवेंजर” के रूप में काम करती थीं, वे अभी भी दैनिक आधार पर मानव अपशिष्ट इकट्ठा करती हैं, इसे लोड करती हैं वे इसे गन्ने की टोकरियों या धातु के नांदों में भर कर बस्ती के बाहरी इलाके में निपटान के लिए अपने सिर पर ले जाते हैं.

अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की बात करें तो बंटवारे के वक्त जब हिंदू पाकिस्तान से भारत आ रहे थे तब वहां निचली जाति के हिंदूओं को भारत नहीं आने दिया गया. उन को वहां मनुहार कर के रोका गया. उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे भारत तक की यात्रा कर सकें और एक अनजान जगह पर जा कर अपने लिए घर बना सकें, इसलिए वे मजबूरन पाकिस्तान में ही रुक गए. उन्होंने सोचा कि उच्च जाति के हिंदूओं के जाने के बाद उन की वकत बढ़ जाएगी, उन्हें अच्छी नौकरियां प्राप्त होंगी मगर ऐसा सोचना उन की भूल थी. उन की मनुहार इसलिए की गई क्योंकि अगर वे भारत आ जाते तो पाकिस्तान के उच्च वर्ग का मैला कौन साफ़ करता?

दूसरी तरफ भारत में भी निम्न जातियों और निम्न जाति की महिलाओं का ऐसा ही हाल रहा. भारत चाहता तो वह भी पाकिस्तान की तरह अपने अल्पसंख्यकों की निम्न जाति के लोगों से मैला उठवाने का काम करवाता मगर एक ओर अल्पसंख्यकों की निम्न जातियों ने दूसरे काम जैसे पंचर जोड़ना, सब्जी बेचना, मजदूरी करना, सिलाई करना आदि अपनाए हुए थे वहीं हिंदू सनातनी धर्म ने वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिंदूओं को स्वयं ही चार वर्गों में बांट रखा था – ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र. इस में शूद्रों, आज के ओबीसी, का काम तो धर्म ने हजारों साल पहले ही तय कर दिया था. शूद्र से नीचे भी एक जाति है जिसे अब दलित या शड्यूल कास्ट कहा जाता और जिस का समाज खुद भी यह स्वीकार कर बैठा था कि उस का काम तो समाज की गंदगी साफ करना ही है. लिहाजा वह कभी इस काम का विरोध भी नहीं कर सका. राम विलास पासवान, मायावती और जीतन राम मांझी के बावजूद यह समाज आज भी चूंचूं नहीं कर पाता है. किसी ने विरोध की हिम्मत दिखाई तो उसे मार पीट कर धमका कर खामोश कर दिया जाता है और इस तरह धर्म का साम्राज्य बेधड़क चलता रहता है.

पाकिस्तान में एएफपी की एक रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि कैसे सार्वजनिक निकाय विशेष रूप से “गैर-मुसलमानों” के लिए सफाई के छोटेमोटे काम आरक्षित करते हैं. ये नौकरियां केवल ईसाइयों और हिंदुओं के लिए हैं. दलित या आदिवासी जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया, पकिस्तान में उन से मैला उठवाने का काम करवाया जाता है. आधिकारिक तौर पर जिस देश में जाति व्यवस्था मौजूद नहीं है, उस देश में भी जाति और धर्म आधारित भेदभाव को हतोत्साहित नहीं किया गया. सीवेज सिस्टम की सफाई जैसे प्रदूषणकारी और खतरनाक कामों के लिए या तो निचली जाति के हिंदुओं या निचली जाति के हिंदुओं में से परिवर्तित ईसाइयों की भर्ती की जाती है.

उदाहरण के लिए, 2019 में, पाकिस्तानी सेना ने सीवर सफाईकर्मियों के लिए अखबारों में विज्ञापन दिया, जिस में चेतावनी दी गई कि केवल ईसाइयों को आवेदन करना चाहिए. इस की वजह यही थी कि वे दलित हिंदू से ईसाई हुए थे. वे भले ईसाई हो गए मगर उच्च वर्ग की नजर में वे नीच ही रहेंगे.

पाकिस्तान में निम्न वर्ग की महिलाएं आमतौर पर सूखे शौचालयों को साफ करती हैं, पुरुष और महिलाएं खुले में शौच स्थलों, गटर और नालियों से मल साफ करते हैं, और पुरुषों को सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई जैसे अधिक शारीरिक रूप से कठिन काम करने के लिए कहा जाता है. पाकिस्तान की आबादी में ईसाई केवल 1.6 प्रतिशत हैं, लेकिन सभी सफाई कर्मियों में उन की संख्या लगभग 80 प्रतिशत है. पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में ऊंची जमातों के लोग भी हैं जो ठाठ से व्यापार कर रहे हैं और दलित हिंदू ईसाई भी हैं जो ऐसे कार्यों में फंसे हुए हैं जो कोई और नहीं करना चाहता. यह दर्शाता है कि देश में वंश आधारित काम कितना अपमानजनक हो सकता है.

पाकिस्तान के राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र लाहौर के विशाल शहर में, हिंदू दलित सफाई कर्मी शारीरिक रूप से सीवरों को खोलते हैं जो इस के 14 मिलियन निवासियों द्वारा उत्पादित लगभग 2,000 लीटर कचरे का परिवहन करते हैं – जिस में मल और खतरनाक कचरा भी शामिल है. यह सब, बिना किसी सुरक्षा उपकरण के किया जाता है. इन कर्मियों को औपचारिक श्रमिकों के रूप में मान्यता भी नहीं दी जाती है और उन्हें कम वेतन दिया जाता है. कोई भी स्वेच्छा से सीवर में नहीं जाता है, लेकिन जब आप के बच्चे भूख से मर रहे हों, तो फिर कोई रास्ता नहीं सूझता.

ये पेशे पाकिस्तान में हिंदू दलित या ईसाई घरों से आने वाले लोगों के लिए अभिशाप बन गए हैं. पेशे मातापिता से बच्चों को हस्तांतरित होते हैं, जिस से देश में अल्पसंख्यक समुदाय अपने काम के लिए भेदभाव और दुर्व्यवहार का शिकार हैं.

हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के विधायी और नीतिगत प्रयासों से कोई लाभ नहीं है. अव्वल तो निचली जातियां विरोध नहीं कर पातीं. जो करते हैं उन्हें धमकियां मिलती हैं, उन के घर उजाड़ दिए जाते हैं, उन की बेटियों से बलात्कार होते हैं, उन का खाना पानी बंद कर दिया जाता है. और इस में स्थानीय सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत होती है.

भारत में इंसानों द्वारा मैला ढोने को 2013 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था लेकिन इस के बावजूद बड़ी संख्या में लोग इस काम में लगे हुए हैं. ताजा आंकड़ों के अनुसार इस प्रथा में लगे हुए लोगों में से करीब 97 प्रतिशत दलित हैं. 7.7 फीसदी लोगों को नालों और गटरों को साफ करने के लिए उनमें भेजा जाता है. उन्हें आवश्यक सुरक्षा उपकरण भी नहीं दिए जाते. नालों में जहरीली गैसें होती हैं जिन्हें सूंघने की वजह से अकसर सफाई करने वालों की मौत हो जाती है.

भारत में जहां धर्म का धंधा सब से बड़े मुनाफे में चल रहा है, जहां पूरी की पूरी राजनीति ही धर्म के आडम्बरों और जातीय भेदभाव पर टिकी हो, जहां राजनेताओं का पूरा कैरियर जातियों के वोटबैंक पर आधारित हो, तो इस नग्न जमीनी सच के आगे सुप्रीम कोर्ट के ऐसे आदेश आते हैं और चले जाते हैं, मगर उन से समाज में रत्तीभर भी बदलाव नहीं आता.

शंका : बुजुर्ग मातापिता का ख्याल क्यों नहीं रख पाते बच्चे

रात काफी हो गई थी. शिवा और सृजा घर पर चल रही पार्टी खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. जैसे ही सारे मेहमान विदा हुए, शिवा बोले, ‘‘आज की पार्टी देख कर मेहमानों की आंखें फैली रह गईं. उन्होंने हमारी ओर से ऐसी पार्टी की कभी कल्पना भी नहीं की होगी.’’

‘‘आज सब के सामने हमारी इज्जत बहुत बढ़ गई, शिवा. काश, हमारे पास ढेर सारा रुपया होता तो हम आएदिन ऐसी ही पार्टी करते रहते.’’

‘‘चिंता क्यों करती हो? पापा के पास बहुत सारी प्रौपर्टी है. उन के अपने खर्चे तो कुछ हैं नहीं. उन के जाने के बाद वह सबकुछ हमारा हो जाएगा और फिर हम सबकुछ बेच कर ऐसे ही ऐश करेंगे.’’

‘‘तुम ने उन्हें वसीयत के बारे में याद दिला दिया था न?’’

‘‘पापा से कहने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ती. मम्मी को कई बार कह चुका हूं. वे हर बार यह बात टाल जाती हैं.’’

‘‘जितनी जल्दी हो सके उन का सबकुछ अपने नाम करवा लो, तभी हमारी जिंदगी सुकून से चल सकती है. हमारे अपने खर्चे अब तनख्वाह से पूरे नहीं होते हैं. बैंक बैलेंस की हालत तुम देख ही रहे हो. किटी पार्टीज और क्लब मैंबरशिप में बहुत रुपए निकल जाते हैं. यही हाल रहा तो कुछ समय बाद परेशानियां खड़ी हो जाएंगी.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूं, सृजा. लेकिन यह मेरे हाथ में नहीं है.’’

‘‘एक बार जा कर उन से बात कर लो.’’

‘‘वहां जा कर क्या होगा? ढेर सारे उपदेश सुनने पड़ेंगे और संयमित जीवन जीने का पाठ पढ़ाया? जाएगा. मुझे इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना. मुझे इन में कोई इंटरैस्ट नहीं है. बस, जो कुछ उन्होंने जोड़ा है चाहता हूं कि वह जल्दी से जल्दी हमारे नाम हो जाए, जिस से हमारी जिंदगी इसी तरह ऐशोआराम से गुजरती रहे.’’

‘‘रात काफी हो गई है. अब सो जाओ. कल मम्मी को फिर से याद दिलाऊंगा,’’ कह कर उस ने बात खत्म कर दी.

शाम का समय था. उस की मम्मी चारु और पापा विवेक साथ बैठ कर चाय पी रहे थे. तभी अचानक मोबाइल की घंटी बज उठी. चारु ने चाय का कप मेज पर रखा और चश्मा लगा कर मोबाइल पर नाम पढ़ने लगी. शिवा का नाम पढ़ते ही उस की आंखों में चमक आ गई. विवेक समझ गए किसी करीबी का फोन है. वह बोली, ‘‘कैसे हो बेटा?’’

‘‘अच्छा हूं मम्मी.’’

‘‘बहुत दिनों से तुम्हारे फोन का इंतजार कर रही थी. हमारा ध्यान तुम पर ही लगा रहता है.’’

‘‘नौकरी के सिलसिले में समय ही कहां मिलता है मम्मी?’’

‘‘इस उम्र में अपना ध्यान कहीं और लगाया करें मम्मी, सांसारिक मोहमाया में नहीं. वैसे भी मेरी बातें आप एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देती हैं. मैं आप से पहले भी एक ही बात कई बार कह चुका हूं. उस के बारे में आप ने क्या सोचा?’’

‘‘तुम किस बारे में बात कर रहे हो?’’

‘‘हर बार आप यही पूछती हो.’’

‘‘समझ गई. अभी मैं ने तुम्हारे पापा से बात नहीं की है.’’

‘‘कितना समय लगा दिया है आप ने इतनी सी बात पूछने में. यह काम समय रहते हो जाना चाहिए. आप जानती ही हैं, आप दोनों उम्र के उस पड़ाव में हैं जहां पर बीमारी और दुख बता कर नहीं आते.’’

‘‘नाराज मत हो. मैं तुम्हारे पापा से अभी बात कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है रखता हूं. फिर बात करूंगा. अभी मुझे जरूरी काम निबटाने हैं,’’ इतना कह कर शिवा ने फोन कट कर दिया.

फोन पर नाम पढ़ते हुए जो चमक चारु के चेहरे पर आई थी वह बात करते हुए धीरेधीरे गायब हो गई. उस ने मोबाइल वापस मेज पर रख दिया और चुपचाप चाय पीने लगी.

‘‘क्या कह रहा था तुम्हारा जिगर का टुकड़ा?’’ विवेक ने पूछा तो चारु ने सूनी आंखों से उन की तरफ देखा. विवेक को अपने शब्दों पर पछतावा होने लगा था. चारु को देख कर लग रहा था जैसे वह अभी रो देगी. बात को संभालते हुए वे बोले, ‘‘उम्र के इस पड़ाव पर बातों को दिल से नहीं लगाते चारु. क्या कह दिया उस ने?’’

‘‘हर बार एक ही बात कहता है. हमारे सुखदुख से जैसे उसे कोई वास्ता ही नहीं रह गया. एक बार भी नहीं पूछा आप और पापा कैसे हैं?’’

‘‘जानता है ठीक ही होंगे तभी तो इतनी ऊंची आवाज में बात कर रहा था फोन पर.’’

‘‘जरा सा हमारे बारे में भी पूछ लेता तो उस का क्या चला जाता? हम उस से और किसी बात की अपेक्षा नहीं रखते. दो बोल प्यार के बोल दे तो हमारी तबीयत वैसे ही संभल जाती. 2 हफ्ते बाद आज उस का फोन आया वह भी सिर्फ अपनी बात याद दिलाने के लिए.’’

‘‘चलो, इसी बहाने कम से कम उसे याद तो है कि उस के भी मम्मी और पापा हैं. बच्चों की बातें गंभीरता से न लिया करो और अपनेआप में खुश रहना सीखो. मैं हूं न तुम्हारे साथ,’’ विवेक बोले तो चारु थोड़ा सा सहज हो गई.

‘‘मैं भी पता नहीं क्याक्या सोचने लगती हूं? भला फोन से कोई 2 शब्द प्यार के बोल भी दे तो उस से क्या फर्क पड़ जाता? नहीं पूछा तो क्या हो गया? हम जैसे हैं वैसे ही भले हैं और आगे भी रहेंगे.’’

‘‘आज उस के फोन ने मुझे बहुतकुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है, चारु. शिवा की बात अपनी जगह पर सही है.’’

‘‘तुम भी उस का पक्ष ले रहे हो?’’

‘‘जैसा भी है अपनी औलाद है. कुछ भी कह लो. घुमाफिरा कर हमारी सारी अपेक्षाएं और उम्मीदें औलाद पर ही आ कर टिक जाती हैं.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’

‘‘यही कि हमें उस की बात मान लेनी चाहिए.’’

‘‘कैसी बातें करते हो? जो अभी हमें नहीं पूछता है वह बाद में क्या पूछेगा?’’

‘‘तुम जरा ठंडे दिमाग से सोचना. तुम्हें उस की और मेरी बातें ठीक लगेंगी. उम्र का क्या है यह तो चंद अंकों का जोड़ होता है. मन में जीने की लालसा हो तो इंसान कई सालों तक निरोगी रहते हुए अपनी जीवन यात्रा पूरी कर लेता है.’’

‘‘कहीं ऐसा न हो हमें कोई ऐसा रोग लगे जिस से हमें दूसरे का मुहताज होना पड़े.’’

‘‘मुहताज तो हम आज भी किसी के नहीं हैं और न कभी होंगे. अपने जीतेजी हम ने इतनी कमाई जरूर की है कि अपना खयाल खुद रख सकें. कभी अपने हाथ से न कर पाएंगे तो किसी को मदद के लिए रख लेंगे फिर भी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे.’’

‘‘तुम बात को घुमा कर कहां की कहां ले जाते हो.’’

‘‘मेरे कहने का यह मतलब नहीं था चारु.’’

‘‘जब से उस का फोन आया है तब से हम दोनों इसी विषय पर बात कर रहे हैं. टहलने का टाइम हो गया है. पार्क में हमारे दोस्त इंतजार कर रहे होंगे,’’ विवेक बोले.

‘‘आज समय का पता ही नहीं चला. मैं अभी तैयार हो कर आती हूं,’’ इतना कह कर चारु शूज पहनने चली गई. विवेक ने अपनी छड़ी उठाई और बाहर आंगन में उस का इंतजार करने लगे. पार्क उन के घर से जरा सी दूरी पर था. शाम को 2 घंटे के लिए वे वहां चले जाते और दोस्तों के साथ अच्छा समय बिता कर वापस आते. चारु अपनी हमउम्र साथियों के साथ वक्त बिता कर दिनभर की थकान भूल जाती. घर लौट कर आने पर शांताबाई आ जाती और वह उन का रात का खाना तैयार कर देती.

कहने को दोनों को घर में कोई परेशानी न थी. नौकरचाकर सब काम निबटा जाते. मोबाइल पर औनलाइन सुविधा होने के कारण विवेक को भी बिजली, पानी, भवन कर आदि के बिल जमा करने की टैंशन नहीं थी. मन बहलाने के लिए घर का सामान कभी वे खुद ले आते और कभी औनलाइन और्डर कर देते.

आज न जाने क्यों उन के चेहरे पर रोजमर्रा वाली खुशी नहीं दिख रही थी.

‘‘क्या बात है, विवेक. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ विकास ने पूछा.

‘‘मुझे क्या हुआ है? एकदम फिट और हैल्दी हूं.’’

‘‘मुझे लगा किसी बात को ले कर तुम्हारे मन में दुविधा चल रही है.’’

‘‘मान गए तुम्हें. अब तुम अखबार के साथ दूसरों का मन भी पढ़ लेते हो.’’

‘‘दूसरों की नहीं कह सकता लेकिन अपने करीबियों को पढ़ने की कोशिश करता हूं,’’ विकास बोले.

‘‘एक बात बताओ, तुम्हारे भी 2 बच्चे हैं. वे तुम्हारी खबर लेते रहते हैं?’’

‘‘आज का जमाना तुम जानते ही हो. सब बच्चे अपनेआप को बहुत व्यस्त जताते हैं. बेटे का फोन हफ्ते 10 रोज में आ जाता है लेकिन बिटिया मां को फोन करना नहीं भूलती.’’

‘‘सही बोले. बेटियां होती ही ऐसी हैं.’’

‘‘सच पूछो तो बेटियां अच्छे संयोग से ही मिलती हैं. आज तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘ऐसे ही कभीकभी मन भटकने लगता है. चारु ज्यादा सैंसिटिव है. बच्चों के फोन नहीं आते तो परेशान हो जाती है.’’

‘‘मुझे लगता है कि भाभी के बहाने तुम अपने दिल की बात कह रहे हो.’’

‘‘यही समझ लो. याद तो हर समय उन की आती रहती है लेकिन मर्द हूं मन को संभाल लेता हूं. चारु अपनी भावनाएं दबा नहीं पाती और कभीकभी बहुत भावुक हो जाती है.’’

‘‘उन के साथ तुम हो तो.’’

‘‘समझने की कोशिश करता हूं लेकिन मां का मन कहां मानता है? वह हर समय बच्चों पर ही लगा रहता है. खाते, जागते, उठतेबैठते बस उन्हीं के बारे में सोचती रहती है. अपना ध्यान उन से हटा नहीं पाती.’’

‘‘बुढ़ापे में जब शरीर शिथिल होने लगता है तो दिमाग ज्यादा तेज दौड़ता है. यह उसी का परिणाम है. मन के घोड़े एक सैकंड में कहां से कहां पहुंच जाते हैं इस की हम कल्पना भी नहीं कर सकते.’’

‘‘छोड़ो इन बातों को. यह बताओ कि आज का दिन कैसा रहा?’’

‘‘रोज की तरह एकदम बढि़या.

सुबह के काम निबटा कर बाजार की तरफ निकल जाता हूं. समय कब कट जाता है पता ही नहीं चलता.’’

‘‘इस से ज्यादा हमें और क्या चाहिए?’’ विकास बोले.

‘‘चाहिए तो बहुतकुछ होता है लेकिन उतना सब मिलता कहां है. मन बहलाने के लिए उसे कहीं न कहीं लगा कर रखना पड़ता है और वह काम मुझे बखूबी आता है.’’

तभी वहां पर नरेन आ गए और उन की बातों का सिलसिला वहीं पर छूट गया. उस के बाद राजनीति की बातें घर जातेजाते तक खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. वापस लौट कर आने पर चारु और विवेक दोनों का मन हलका हो गया था. शांताबाई उन के लौटने का इंतजार कर रही थी.

‘‘आज आने में जरा देर हो गई. तुम कब आईं शांताबाई?’’

‘‘अभी आई हूं, दीदी.’’

‘‘ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा?’’

‘‘मुझे चिंता हो रही थी आप लोग कहां चले गए? कहीं जाते हैं तब उस की खबर पहले कर देते हैं.’’

‘‘शांताबाई, आज बातों में समय का पता ही नहीं चला.’’

शांताबाई ने उन के लिए सूप बनाया और उस के बाद खाना बनाने लगी.

चारु सोचने लगी कि इंसान जीवनभर परिवार के लिए कितनी मेहनत करता है और आखिर में उस के हाथ क्या लगता है? बच्चे बड़े होते ही अपने रास्ते चल देते हैं. पीछे से बूढ़े मम्मी और पापा उन्हें याद करने के लिए रह जाते हैं.

शांताबाई भी अपने परिवार के लिए दिनरात काम में जुटी रहती. उस ने दोनों बेटों की कम उम्र में घर बसा दिए. वे भी मेहनतमजदूरी कर के अपना परिवार पाल रहे थे. शांताबाई के ऊपर अभी बेटी की जिम्मेदारी थी. उसी की खातिर वह इतनी मेहनत कर कुछ रुपए जुटा रही थी जिस से अच्छे घर में बेटी का रिश्ता कर सके.

एक दिन चारु ने पूछा, ‘‘चित्रा का रिश्ता कहीं तय हुआ?’’

‘‘बात चल रही है, दीदी. वे कुछ दिन में जवाब दे देंगे.’’

‘‘तेरी बेटी बहुत गुणवान है. जिस घर में जाएगी उसे खुशहाल बना देगी.’’

‘‘यही सोच कर उस के लिए अच्छा घर देख रही हूं जिस से उसे शादी के बाद मेरी तरह घरघर जा कर काम न करना पड़े. चित्रा के जाने पर घर सूना हो जाएगा. यह खयाल आते ही मन घबराने लगता है. उस के बगैर मैं कैसे रहूंगी. वह मेरा बहुत खयाल रखती है. घर पर मुझे कुछ नहीं करने देती.’’ शांताबाई की बात सुन कर चारु को अपने पुराने दिन याद आने लगे. वह भी बच्चों के अपने से दूर जाने की कल्पना मात्र से ही डर जाती थी.

ऐसे मौके पर शिवा मम्मी की हिम्मत बढ़ाता, ‘‘मम्मी, आप बेकार में चिंता करती हो. मैं पढ़ाई करने दूर जा रहा हूं. दिल से थोड़े से जा रहा हूं. जब मौका लगेगा झट घर आ जाऊंगा.’’

उस की बात सच थी. पढ़ाई के दौरान उस का मन होस्टल में बिलकुल न लगता. कभी वे उस से मिलने वहां चले जाते और कभी वही छुट्टी लेकर घर आ जाता. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के शुरू के 2 साल शिवा ने बड़ी मुश्किल से गुजारे. तीसरा साल शुरू होते ही सृजा उसी कालेज में फर्स्ट ईयर में आ गई. दोनों के बीच पहले दोस्ती हुई और वह प्यार मे बदल गई. डिग्री मिलते ही उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई.

सृजा की पढ़ाई अभी बाकी थी. शिवा को जब भी समय मिलता वह मम्मी और पापा के पास आने के बजाय सृजा से मिलने पहुंच जाता. चारु और विवेक इस परिवर्तन को महसूस कर रहे थे.

एक दिन चारु ने हंसते हुए उस का दिल टटोला तो उस ने अपने दिल की बात बता दी. ‘‘मम्मी, मेरे साथ कालेज में सृजा पढ़ती थी. मुझे वह बहुत अच्छी लगती है. हम दोनों शादी करना चाहते हैं. अभी उस की पढ़ाई में एक साल बाकी है.’’

‘‘वह कहां की रहने वाली है?’’

‘‘कानपुर शहर की है,’’ शिवा बोला. उसे सृजा के बारे में जितनी भी जानकारी थी उस ने मम्मी को दे दी. उन्हें यह सब बता कर उस का मन हलका हो गया था.

विवेक और चारु उस की पसंद जान कर खुश हो गए. शिवा की खुशी में ही उन की खुशी शामिल थी. एक साल बाद सृजा की पढ़ाई पूरी होते ही शिवा ने उस की नौकरी का इंतजाम उसी कंपनी में कर दिया जिस में वह काम कर रहा था. अब दोनों का एकदूसरे से दूर रहना मुश्किल हो रहा था. सृजा ने अपने मम्मीपापा से शिवा के बारे में बात की. उन्हें इस शादी से कोई एतराज न था. दोनों परिवारों की रजामंदी से शिवा और सृजा का प्यार विवाह बंधन में बदल गया. सब खुश थे. शिवा के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे.

शादी के बाद एक हफ्ते घर रह कर वे हनीमून पर निकल गए. वहीं से वे दोनों अपनेअपने काम पर चले गए. उन्हें जब भी मौका मिलता वे घर आने के बजाय घूमनेफिरने निकल जाते. सृजा को अपनी मम्मी और पापा से विशेष लगाव था. अकसर वह उन से मिलने चली जाती.

धीरेधीरे शिवा और सृजा इतने व्यस्त हो गए कि घर आना तो दूर फोन पर बात करने का भी उन के पास समय न था. सृजा कभी भी चारु और विवेक को अपने दिल और जिंदगी में वह जगह नहीं दे पाई जो उस ने अपने मम्मी और पापा के लिए सुरक्षित रखी थी. शादी के 5 साल के भीतर शिवा 2 बच्चों का पापा बन गया था. कभीकभी वे दोनों ही अपने पोते और पोती से मिलने उन के पास चले जाते. बच्चे भी उन से ज्यादा घुलतेमिलते नहीं थे.

विवेक नौकरी से रिटायर हो गए थे. वे पत्नी के साथ आराम से अपने दिन बिता रहे थे. इधर कुछ समय से शिवा लगातार उन के ऊपर वसीयत कराने का जोर डाल रहा था. उसे मम्मी और पापा के सुखदुख से कोई मतलब न था लेकिन उन की अर्जित की हुई संपति से बहुत लगाव था.
पापा से बात किए शिवा को काफी समय हो गया था. 2-3 हफ्ते में वह मम्मी को इस की याद जरूर दिला देता. इस से ज्यादा उस का अपने मम्मी और पापा से कोई जुड़ाव नहीं रह गया था. विवेक इस बात को बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे. उन का मन यह सुन कर खराब हो जाता. शिवा ने स्पष्ट शब्दों में कभी नहीं कहा कि सबकुछ मेरे नाम कर दो लेकिन उस के कहने का आशय वे भलीभांति समझ रहे थे.

शिवा उन की इकलौती औलाद था. उस से बड़ी उन की एक बेटी थी जो कैंसर के कारण वक्त से पहले चल बसी. उस का परिवार अमेरिका में रह रहा था. उन का भी इन से कोई संपर्क नहीं रह गया था. लेदे कर जो कुछ भी था सबकुछ शिवा का था फिर भी उसे मम्मी और पापा पर भरोसा न था, तभी वह इसी बात को ले कर बारबार जोर दे रहा था.

आज चारु की आंखों के भाव देख कर विवेक का मन कसैला हो गया था. उन्हें लगा जो बेटा जीतेजी उन का नहीं हो सका वह उन के जाने के बाद चारु को कभी नहीं पूछेगा. रहरह कर यही बात उन के दिमाग में घूम रही थी. उन्हें अपनी पत्नी से बहुत प्रेम था. वह उन के हर सुख और दुख की साथी रही. उम्र के इस पड़ाव में जब उस के अलावा चारु का कोई न था तब उसे देख कर उन्हें दया आती थी. उन के अंदर मर्द होने का दंभ था. यह सब महसूस कर वे हर हाल में अपनेआप को संभाल लेते लेकिन पत्नी की ओर से हमेशा सशंकित रहते. चारु खाना खाने के बाद दवाई ले कर आराम से सो गई थी. उस की यही बड़ी विशेषता थी. वह ज्यादा देर किसी बात को अपने अंदर न रख पाती. उसे रो कर या फिर विवेक को बता कर खुद हलकी हो जाती.

आज विवेक की आंखों में नींद न थी. पता नहीं क्यों पत्नी की सुरक्षा को ले कर उन्हें बहुत डर लग रहा था. सारी रात करवट बदलते गुजरी थी. सुबह वे देर से उठे. चारु ने आ कर पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘आज देर तक आंख लग गई.’’ उठ कर व्यायाम करने के बाद वे नहाधो कर बोले, ‘‘मैं बाजार जा रहा हूं कुछ लाना हो तो बता दो.’’

‘‘पता नहीं क्यों लग रहा है तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. तुम मुझ से कुछ छिपा रहे हो.’’

‘‘कैसी बात करती हो चारु? मैं ने तुम से कभी कुछ छिपाया है जो अब छिपाऊंगा,’’ विवेक बोल तो गए लेकिन अंदर ही अंदर डर रहे थे. इतने साल साथ रहने के कारण चारु उन की हर सांस को अच्छी तरह पहचानने लगी थी. घर से निकल कर वे सीधे कचहरी पहुंचे. वहां अपने वकील से मुलाकात की और फिर उसे पूरी बात समझा दी.

‘‘आप निश्चिंत रहें. मैं 2 दिन में कागज तैयार कर दूंगा. उस के बाद आप को जरा देर के लिए यहां आना पड़ेगा. अब सबकुछ औनलाइन होता है वरना मैं घर पर औपचारिकताएं पूरी कर देता.’’

वकील से मिल कर विवेक को लगा जैसे उन्होंने अपनी सारी परेशानी उस के सिर डाल दी. घर आ कर वे अपने को काफी हलका महसूस कर रहे थे.

चारु बोली, ‘‘खुली हवा में जा कर आप की चेहरे की रंगत बदल जाती है.’’

‘‘यह तुम ठीक कह रही हो. दिनभर घर में रह कर कभीकभी मन उकता जाता है. पता नहीं, तुम कैसे रह लेती हो?’’

‘‘शादी के बाद से घर पर ही रहने की आदत रही है. अब छूटती ही नहीं.’’

‘‘तुम्हें खुश देख कर मुझे भी अच्छा लग रहा है.’’

थोड़ी देर तक वे इधरउधर की बात करते रहे. शाम को दोस्तों के साथ पार्र्क में समय बिता कर विवेक को रोज की तरह बहुत अच्छा लगा था.

2 दिन बाद वकील का फोन आ गया. विवेक चारु से बोले, ‘‘चलो मेरे साथ.’’

‘‘कहां जाना है?’’

‘‘बताता हूं. तुम पहले तैयार हो जाओ.’’

चारु तैयार होने लगी. इतनी देर में ड्राइवर ने गाड़ी बाहर निकाल दी थी.

‘‘आज मैं तुम्हारे बेटे की इच्छा पूरी करने जा रहा हूं.’’

‘‘तुम बड़ी उस की बात मानने लगे?’’

‘‘और कोई चारा भी नहीं था, चारु. क्या करता वह अपना हो कर भी अपना नहीं रहा. बस, दिल में एक ही तमन्ना है कि मेरी अंतिम विदाई तुम्हारी नजरों के सामने इसी घर से हो.’’

‘‘ऐसी बात कहोगे तो मुझे नहीं जाना तुम्हारे साथ.’’

‘‘मजाक कर रहा था, तुम तो बुरा मान गईं.’’

‘‘सच बताना, तुम इतनी जल्दी उस की बात कैसे मान गए?’’

‘‘उस की बात नहीं मानूंगा तो किस की मानूंगा? आखिर है तो अपना खून.’’ विवेक की बातें आज चारु को बड़ी अजीब लग रही थीं. कल तक वे उस की कोई बात मानने को राजी नहीं थे आज उन के सुर बिलकुल बदले हुए थे. वकील के चैंबर में आ कर वे उन का इंतजार कर लगे. कुछ देर में वे आ गए.

‘‘ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा विवेकजी? एक बार वसीयत पढ़ कर सुना देता हूं. अभी भी कुछ बदलाव करना चाहें तो कर सकते हैं,’’ इतना कह कर उन्होंने वसीयत पढ़ कर सुना दी, जो कुछ इस तरह थी-

‘मैं विवेक कुमार अपने होशोहवास में अपनी समस्त चल और अचल संपत्ति अपनी धर्मपत्नी चारु कुमार के नाम करता हूं. मेरी मृत्यु के बाद मेरी समस्त चल और अचल संपत्ति की एकमात्र वारिस श्रीमती चारु कुमार होंगी. वे उस का उपयोग और हस्तांतरण अपने ढंग से करने के लिए स्वतंत्र होंगीं…’

वकील के कहे हर शब्द के साथ चारु के चेहरे के हावभाव बदलते जा रहे थे.

‘‘बिलकुल ठीक है. इस में कुछ बदलने की गुंजाइश नहीं है.’’

‘‘ठीक है, चलिए मेरे साथ.’’ वे दोनों वकील के पीछे चल दिए.

चारु हौले से बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया?’’

‘‘तुम्हारी सुरक्षा का इंतजाम कर दिया है, चारु. शिवा बहुत दिनों से कह रहा था न कि अपने होशोहवास में रहते वसीयत कर दो. उस का आशय मैं अच्छे ढंग से समझ रहा था.’’

‘‘आखिर बात तो वहीं आ कर अटक गई. संपत्ति मेरे नाम हो या तुम्हारे, शिवा को इस में से कुछ नहीं मिला. उसे यह जान कर बुरा लगेगा.’’

‘‘मुझे उस के जज्बात की कोई चिंता नहीं है. जब उसे हमारी परवा नहीं तो हम उस की परवा क्यों करें? यह बताओ, तुम्हें यह सब सुन कर कैसा लगा?’’

‘‘ऐसा कभी न हो कि मुझे यह दिन देखना पड़े. मैं अंतिम सांस तक आप के साथ चलना चाहती हूं. मैं अकेले होने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’’

‘‘एक न एक दिन तो हम दोनों में से किसी एक को अपनी जीवनयात्रा पर अकेले आगे जाना होगा. अभी तक सबकुछ मेरे नाम है, तुम्हारे कुछ नहीं.

तुम ने कभी इस की शिकायत तक नहीं की. अगर मैं पहले निकल गया तो मेरे बाद सबकुछ तुम्हारा होगा चारु. तुम किसी की मुहताज नहीं रहोगी. कोई जरूरी नहीं कि हम अपनी जीवनभर की कमाई उस इंसान को सौंप दें जो कहने को तो हमारी औलाद है लेकिन उस ने औलाद होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया. हम कभी उस के मुहताज नहीं थे और न कभी होंगे. हम अंतिम सांस तक अपने दम पर सबकुछ करेंगे. इस के लिए हमें गैरों की सहायता लेनी पड़े तो मुझे उस में एतराज नहीं.’’

विवेक की बातें सुन कर चारु की आंखें भर आई थीं. किसी तरह उस ने दुपट्टे के कोने से उन्हें पोंछ दिया. आज यहां आने की उस की कोई जरूरत नहीं थी. फिर भी विवेक उसे अपने साथ लाए थे. यह देख कर उसे बहुत अच्छा लगा. सब काम संपन्न हो जाने के बाद वे घर लौटते हुए बोले, ‘‘तुम मेरे इस फैसले से खुश तो हो न चारु?’’

‘‘सच पूछो तो मैं ने इतनी दूर तक कभी सोचा ही नहीं. कभी कल्पना भी नहीं की कि मुझे तुम्हारे बगैर जीना पड़ सकता है,’’ आंखों में आए आंसुओं को रोकते हुए वह बोली.

‘‘यह खुशी का समय है दुखी होने का नहीं. हम दोनों ने अपनी सुरक्षा का इंतजाम पूरा कर लिया है और शिवा की इच्छा भी पूरी हो गई. अब जब उस का फोन आए तो बता देना पापा ने पूरे होशोहवास में वसीयत कर दी है. उसे चिंता करने की जरूरत नहीं.’’

‘‘तुम्हारी वसीयत से उस की चिंता कम होने के बजाय और बढ़ जाएगी. कह नहीं सकती यह जान कर वह कैसी प्रतिक्रिया देगा,’’ चारु बोली.
पूरे 10 दिन बाद शिवा का फोन आया और उस ने अपनी बात एक बार फिर से दोहरा दी.

‘‘चिंता मत करो बेटा पापा ने वसीयत कर दी है.’’ यह सुन कर शिवा खुश हो गया.

‘‘देर से ही सही, पापा को मेरी बात सम?ा में आ गई. आप जानती हैं ऐसे मामलों में बाद में कितनी परेशानियां खड़ी हो जाती हैं. हमारे पास इतना समय नहीं है कि इन सब लफड़ों में पड़ें.’’ अपनी खुशी दिल में दबाते हुए शब्दों को संयत कर शिवा बोला.

‘‘अभी इन सब की जरूरत नहीं पड़ेगी, बेटा. तुम निश्ंिचत रहो और कामना करो कि तुम्हारे मम्मीपापा की उम्र लंबी हो और वे हमेशा स्वस्थ रहें. तुम अपने पापा को जानते हो. वे बहुत सोचसम?ा कर ही कोई फैसला लेते हैं.’’

‘‘मैं आप के कहने का मतलब नहीं समझा.’’

‘‘तुम्हारे पापा ने अपनी सारी प्रौपर्टी मेरे नाम कर दी है. कौन जाने हम दोनों में से कौन पीछे छूट जाए? उसे कम से कम रहने के लिए छत और खानेपीने की कोई कमी तो न रहेगी.’’

यह सुन कर शिवा के हाथ से फोन छूट गया. उस ने क्या सोचा था और क्या हो गया. वह जल्दी से जल्दी सबकुछ अपने नाम करा लेना चाहता था और विवेक थे कि उसे लटकाते चले जा रहे थे. अब सबकुछ उस के बरदाश्त से बाहर होने लगा. उस के सारे अरमान धरे के धरे रह गए.
इंतजार खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था और बढ़ता ही जा रहा था.

चारु सोच रही थी कि पता नहीं अब उस का फोन कितने दिनों बाद आएगा. फोन का इंतजार कर के करना भी क्या है? फोन से बस एक उम्मीद जगती है शायद दूसरा उस के सुखदुख में शामिल है. यहां कोई न पूछने वाला है और न उन के लिए दुख मनाने वाला. अपना साथी साथ रहे बस इतना ही बहुत है. उस के मन में रहरह कर उठ रही शंका ने मूर्तरूप ले लिया था. वह समझ गई कि यह सब जानने के बाद शायद शिवा की आवाज सुनने को भी उस के कान तरस जाएंगे. उस ने तुरंत अपनी शंका को दूर झटक दिया और मन ही मन विवेक की लंबी आयु की कामना करने लगी.

लेखिका – डा. कुसुम रानी नैथानी

गर्लफ्रैंड ब्लैकमेल कर रही है और धमकी देती है कि वह आत्महत्या कर लेगी

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी उम्र 26 साल है. मेरी एक गर्लफ्रैंड है जिस के साथ मेरा अफेयर काफी समय से चल रहा है. हम दोनों एकदूसरे को बहुत प्यार करते हैं और एकदूसरे के बिना जी नहीं सकते. मगर मैं थोड़ा प्रैक्टिकल हूं और गर्लफ्रैंड इमोशनल. हम दोनों ने अपने घर वालों से जब शादी की बात की तो वे नहीं माने क्योंकि हम दोनों एक जाति के नहीं हैं. हम दोनों ने अपने घर वालों को खूब मनाने की कोशिश की पर उन पर कोई असर नहीं हुआ. भावुक स्वभाव होने की वजह से मेरी गर्लफ्रैंड मुझे नहीं छोड़ सकती और कहती है कि अगर उस की मेरे साथ शादी नहीं हुई तो वह आत्महत्या कर लेगी. मुझे बहुत डर लग रहा है.

जवाब –

जहां एक तरफ आजकल हरकोई मौडर्न हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो आज भी जातपात के चक्करों में पड़े हुए हैं. आप की और आप की गर्लफ्रैंड की स्थिति को समझा जा सकता है.

यों प्यार जातपात देख कर नहीं किया जाता. आप पूरी तरह से बालिग हैं और अगर आप को लगता है कि आप दोनों के घर वाले किसी भी कीमत पर नहीं मानेंगे तो आप दोनों कोर्ट मैरिज कर सकते हैं.

हर इंसान को पूरा हक है अपना लाइफ पार्टनर चुनने का तो ऐसे में अगर आप को अपने ऊपर पूरा यकीन है कि आप इतना कमा लेते हैं कि शादी के बाद अपने लाइफ पार्टनर का अच्छे से खयाल रख सकते हैं तो ही आप कोर्ट मैरिज के बारे में सोचिएगा नहीं तो घर सिर्फ प्यार से नहीं चलता बल्कि पहले आप को खुद अपने पैरों पर खङा होना होगा और फिर इस के बाद ही शादी के बारे में सोचें.

वैसे, आप दोनों आखिरी बार फिर अपने घर वालों से बात कर के उन्हें मनाने की कोशिश कीजिए और उन्हें समझाइए कि आप एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं और हमेशा एकदूसरे का खयाल रख सकते हैं. अगर फिर भी आप के घर वाले नहीं मानते तो फिर कोर्ट मैरिज ही एकमात्र विकल्प है.

हो सकता है कि एक बार जब आप की शादी हो जाए उस के बाद आप दोनों के घर वाले भी आप दोनों की शादी को स्वीकार कर लें और सब सही हो जाए लेकिन जब आप दोनों के घर वाले आप के रिश्ते को स्वीकार नहीं करें तो सोचसमझ कर ही कदम उठाना सही रहेगा.

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अमेठी : व्हाट्सऐप पर लगाया स्टेटस और फिर ले ली 4 लोगों की जान

वैसे, दुश्मनी चाहे हो या न हो लेकिन कुछ हैवान ऐसे हैं जिन के लिए किसी की जान की कोई कीमत नहीं. ऐसे हैवान यह भी नहीं देखते कि जिन्हें वे जान से मार रहे हैं उस की उम्र क्या है.

बच्चों सहित परिवार को उतारा मौत के घाट

अमेठी जिले में एक सिरफिरे शख्स ने एक पूरे परिवार को मौत की नींद सुला दिया, जिन में पतिपत्नी के अलावा 2 मासूम बच्ची भी थीं.

खबरों के अनुसार, वारदात अमेठी के शिवरतनगंज इलाके का है, जहां एक परिवार अहोरवा भवानी चौराहे का पास किराए के मकान के रहता था और खशहाली से अपनी जिंदगी जी रहा था.

सुनील कुमार अपनी पत्नी भारती के साथ रहता था जिन की 2 बेटियां थीं. एक बेटी की उम्र 2 साल नाम लाडो और दूसरी बेटी की उम्र 4 साल जिस का नाम सृष्टि था.

शिक्षक थे सुनील कुमार

हत्यारे ने बिना किसी की परवाह किए परिवार के सभी सदस्यों को गोली मार कर मौत के घाट उतार दिया. सूचना मिलते ही पुलिस की टीम घटनास्थल पर पहुंची और तफ्तीश में जुट गई. इस वारदात को देखने के बाद से पूरा इलाका घबराया हुआ है.

सुनील कुमार सरकारी स्कूल में सहायक अध्यापक की नौकरी करते थे और इस से पहले वे उत्तर प्रदेश पुलिस में तैनात थे. मृतक सुनील कुमार 2020 में ही शिक्षक बने थे.

घटना को अंजाम देने से पहले लगाया व्हाट्सऐप स्टेटस

पुलिस ने बताया कि इस परिवार ने 18 अगस्त को एससी/एसटी ऐक्ट के तहत चंदन वर्मा के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाई थी और ऐसा कहा जा रहा है कि इसी चंदन वर्मा ने इस परिवार की जान ली है.

घटना हैरान करने वाली है। दरअसल, आरोपी चंदन वर्मा ने इस परिवार की जान लेने से पहले अपना व्हाट्सऐप पर स्टेटस लगाया था,”आज 5 लोग मरने वाले हैं और मैं जल्दी ही आप को दिखाउंगा.”

बताया जा रहा है कि इस परिवार की जान लेने के बाद चंदन वर्मा खुद को भी गोली मारना चाहता था इसलिए उस ने स्टेटस में 5 लोगों का जिक्र किया था. फिलहाल, पुलिस आरोपी चंदन वर्मा की तलाश में जुटी हुई है.

मुख्यमंत्री योगी ने किया ट्वीट

इस मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने भी ट्वीट किया है जिस में उन्होंने लिखा,”जनपद अमेठी में हुई घटना घोर निंदनीय और अक्षम्य है. मेरी संवेदनाएं शोक संतप्त परिजनों के साथ हैं. दुख की इस घड़ी में यूपी सरकार पीड़ित परिवार के साथ खड़ी है. इस घटना के दोषियों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा, उन पर कठोरतम कानूनी काररवाई होगी.”

सिरफिरे आरोपी ने हत्याकांड को क्यों अंजाम दिया, इस बात की पुलिस तफ्तीश कर रही है. सजा के बाद दोषी ने खुद तो अपनी जिंदगी तबाह कर ही ली, एक हंसतेखेलते परिवार को भी तबाह कर दिया.

सन्नाटा

इस वृद्ध दंपती का यह 5वां नौकर सुखलाल भी काम छोड़ कर चला गया. अब वे फिर से असहाय हो गए. नौकर के चले जाने से घर का सन्नाटा और भी बढ़ गया. नौकर था तो वह इस सन्नाटे को अपनी मौजूदगी से भंग करता रहता था. काम करतेकरते कोई गाना गुनगुनाता रहता था. मुंह से सीटी बजाता रहता था. काम से फारिग हो जाने पर टीवी देखता रहता था. बाहर गैलरी में खड़े हो कर सड़क का नजारा देखने लगता था.

उस की उपस्थिति का एहसास इस वृद्ध दंपती को होता रहता था. उन के जीवन की एकरसता इस के कारण ही भंग होती थी, इसीलिए वे आंखें फाड़फाड़ कर उसे देखते रहते थे. दोनों जबतब नौकर से बतियाने का प्रयास भी करते रहते थे.

दोनों ऊंचा सुनते थे, लिहाजा, आपस में बातचीत कम ही कर पाते थे. संकेतों से ही काम चलाते थे. इसी कारण आधीअधूरी बातें ही हो पाती थीं.

जब कभी वे आधीअधूरी बात सुन कर कुछ का कुछ जवाब दे देते थे तो नौकर की मुसकराहट या हंसी फूट पड़ती थी. तब वे समझ जाते थे कि उन्होंने कुछ गलत बोल दिया है. उन्हें अपनी गलती पर हंसी आती थी. इस तरह घर के भीतर का सन्नाटा कुछ क्षणों के लिए भंग हो जाता था.

मगर अब नौकर के चले जाने से यह क्षण भी दुर्लभ हो गए. बाहर का सन्नाटा बोझिल हो गया. अपनी असहाय स्थिति पर वे दुखी होने लगे. इस दुख ने भीतर के सन्नाटे को और भी बढ़ा दिया. इस नौकर ने काम छोड़ने के जो कारण बताए उस से इन की व्यथा और भी बढ़ गई. उन्हें अफसोस हुआ कि सुखलाल के लिए इस घर का वातावरण इतना असहनीय हो गया कि वह 17 दिन में ही चला गया.

वृद्ध दंपती को अफसोस के साथसाथ आश्चर्य भी हुआ कि मांगीबाई तो इस माहौल में 7-8 साल तक बनी रही. उस ने तो कभी कोई शिकायत नहीं की. वह तो इस माहौल का एक तरह से अंग बन गई थी. इस छोकरे सुखलाल का ही यहां दम घुटने लगा.

सुखलाल से पहले आए 4 नौकरों ने भी इस घर के माहौल की कभी कोई शिकायत नहीं की. वे अन्य कारणों से काम छोड़ कर चले गए.

मांगीबाई के निधन के बाद उन्हें सब से पहले आई छोकरी को चोर होने के कारण हटाना पड़ा था. उस के बाद आई पार्वतीबाई को दूसरी जगह ज्यादा पैसे में काम मिल गया था, इसलिए उस ने क्षमायाचना करते हुए यहां का काम त्यागा था.

पार्वतीबाई के बाद आई हेमा कामचोर और लापरवाह निकली थी. बारबार की टोकाटाकी से लज्जित हो कर वह चली गई थी. इस के बाद आया वह भील युवक जो यहां आ कर खुश हुआ था. उसे यह घर बहुत अच्छा लगा था. पक्का मकान, गद्देदार बिस्तर, अच्छी चाय, अच्छा भोजन आदि पा कर वह अपनी नियति को सराहता रहा था. उस ने वृद्ध दंपती की अपने मातापिता की तरह बड़े मन से सेवा की थी. पुलिस में चयन हो जाने की सूचना उसे यदि नहीं मिलती तो वह घर छोड़ कर कभी नहीं जाता. वह विवशता में गया था.

उस के बाद आया यह सुखलाल, यहां आ कर दुखीलाल बन गया. 17 दिन बाद एक दिन भी यहां गुजारना उसे असहनीय लगा. 14-15 साल का किशोर होते हुए भी वह छोटे बच्चों की तरह रोने लगा था. रोरो कर बस, यही विनती कर रहा था कि उसे अपने घर जाने दिया जाए.

दंपती हैरान हुए थे कि इसे एकाएक यह क्या हो गया. यह रस्सी तुड़ाने जैसा आचरण क्यों करने लगा? इसीलिए उन्होंने पूछा था, ‘‘बात क्या है? रो क्यों रहा है?’’

इस के उत्तर में सुखलाल बस, यही कहता रहा था, ‘‘मुझे जाने दीजिए, मालिक. मुझ से यहां नहीं रहा जाएगा.’’

तब प्रश्न हुआ था, ‘‘क्यों नहीं रहा जाएगा? यहां क्या तकलीफ है?’’

सुखलाल ने हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘कोई तकलीफ नहीं है, मालिक. यहां हर बात की सुविधा है, सुख है. जो सुख मैं ने अभी तक भोगा नहीं था वह यहां मिला मुझे. अच्छा खानापीना, पहनना सबकुछ एक नंबर. चमचम चमकता मकान, गद्देदार पलंग और सोफे. टैलीफोन टीवी, फुहारे से नहाने का मजा. ऐसा सुख जो मेरी सात पीढि़यों ने भी नहीं भोगा, वह मैं ने भोगा. तकलीफ का नाम नहीं, मालिक.’’

‘‘तो फिर तुझ से यहां रहा क्यों नहीं जा रहा है? यहां से भाग क्यों रहा है?’’

‘‘मन नहीं लगता है यहां?’’

‘‘क्यों नहीं लगता है?’’

‘‘घर की याद सताती है. मैं अपने परिवार से कभी इतनी दूर रहा नहीं, इसलिए?’’

‘‘मन को मार सुखलाल?’’ वृद्ध दंपती ने समझने की पूरी कोशिश की थी.

‘‘यह मेरे वश की बात नहीं है, मालकिन.’’

‘‘तो फिर किस के वश की है?’’

इस प्रश्न का उत्तर सुखलाल दे न पाया था. वह एकटक उन्हें देखता रहा था. जब इस बारे में उसे और कुरेदा गया था तो वह फिर रोने लगा था. रोतेरोते ही विनती करने लगा था, ‘‘आप तो मुझे बस, जाने दीजिए. अपने मन की बात मैं समझ नहीं पा रहा हूं.’’

वृद्ध दंपती ने इस जिरह से तंग आ कर कह दिया था, ‘‘तो जा, तुझे हम ने बांध कर थोड़े ही रखा है.’’

सुखलाल ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘‘मैं जाऊं? आप की इजाजत है क्या मालिक?’’

‘‘हां सुखलाल, हां. हम तुझे यहां रहने के लिए मजबूर तो नहीं कर सकते?’’

सुखलाल का चेहरा खिल उठा. वह अपना सामान समेटने लगा था. इस बीच वृद्ध दंपती ने उस का हिसाब कर दिया था. वह अपना झोला ले कर उन के पास आया तो उन्होंने हिसाब की रकम उस की ओर बढ़ाते हुए कहा था, ‘‘ले.’’

सुखलाल ने यह रकम अपनी जेब में रख कर अपना झेला दंपती के सामने फैलाते हुए कहा था, ‘‘देख लीजिए,’’ मगर वृद्ध दंपती ने इनकार में हाथ हिला दिए थे.

सुखलाल ने दोनों के चरणस्पर्श कर भर्राए स्वर में कहा था, ‘‘मुझे माफ कर देना, मालिक. आप लोगों को यों छोड़ कर जाते हुए मुझे दुख हो रहा है, पर करूं भी क्या?’’ इतना कह कर वह फर्श पर बैठते हुए हाथ जोड़ कर बोला था, ‘‘एक विनती और है?’’

‘‘क्या… बोलो?’’

‘‘बड़े साहब से मेरी शिकायत मत करिएगा वरना मेरे मांबाप आदि की नौकरी खतरे में पड़ जाएगी. इतनी दया हम पर करना.’’

बड़े साहब से सुखलाल का आशय वृद्धा के भाई फौुरेस्ट रेंजर से था. वही अपने विश्वसनीय नौकर भिजवाता रहा था. उसी ने ही इस सुखलाल को भी नर्सरी में परख कर भिजवाया था. वह अपने परिवार के साथ वहीं काम कर रहा था.

वृद्ध दंपती से कोई आश्वासन न मिलने पर वह फिर गिड़गिड़ाया था, ‘‘बड़े साहब के डर के कारण ही इतने दिन मैं ने यहां काटे हैं. वरना मैं 2-4 दिन पहले ही चल देता. मेरा मन तो तभी से उखड़ गया था.’’

‘‘मन क्यों उखड़ गया था?’’

तब सुखलाल आलथीपालथी मार कर इतमीनान से बैठते हुए बोला था, ‘‘मन उखड़ने का खास कारण था यहां का सन्नाटा, घर के भीतर का सन्नाटा. यह सन्नाटा मेरे लिए अनोखा था क्योंकि मैं भरेपूरे परिवार का हूं, मेरे घर में हमेशा हाट बाजार की तरह शोरगुल मचा रहता है.

‘‘मगर यहां तो मरघट जैसे सन्नाटे से मेरा वास्ता पड़ा. हमेशा सन्नाटा. किसी से बातें करने तक की सुविधा नहीं. आप दोनों बहरे, इस कारण आप से भी बातें नहीं कर पाता था. अभी की तरह जोरजोर से बोल कर काम लायक बातें ही हो पाती थीं, इसीलिए मेरा दम जैसे घुटने लगता था. मैं बातूनी प्रवृत्ति का हूं. मगर यहां मुझे जैसे मौन व्रत साधना पड़ा, इसीलिए यह सन्नाटा मुझे जैसे डसने लगा.

‘‘मुझे ऐसा लगने लगा कि जैसे मैं किसी पिंजरे में बंद कर दिया गया हूं. इसीलिए मेरा मन यहां लगा नहीं. मेरा घर मुझे चुंबक की तरह खींचने लगा. आप दोनों को जबतब इस छोटी गैलरी में बैठ कर सामने सड़क की ओर ताकते देख कर मुझे पिंजरे के पंछी याद आने लगे. इस पिंजरे से बाहर जाने को मैं छटपटाने लगा. मेरा मन बेचैन हो गया. इसीलिए आप से यह विनती करनी पड़ी. मेरे मन की दशा बड़े साहब को समझा देना. मैं बड़े भारी मन से जा रहा हूं.’’

छोटे मुंह बड़ी बातें सुन कर वृद्ध दंपती चकित थे. उन्हें आश्चर्य हुआ था कि साधारण, दुबलेपतले इस किशोर की मूंछें अभी उग ही रही हैं मगर इस ने उन की व्यथा को मात्र 17 दिन में ही समझ लिया. गैलरी में बैठ कर हसरतभरी निगाहों से सामने सड़क पर बहते जीवन के प्रवाह को निहारने के उन के दर्द को भी वह छोकरा समझ गया, इसीलिए उन का मन हुआ था कि इस समझदार लड़के से कहें कि तू ने पिंजरे के पंछी वाली जो बात कही वह बिलकुल सही है. हम सच में पिंजरे के पंछी जैसे ही हो गए हैं. शारीरिक अक्षमता ने हमें इस स्थिति में ला दिया.

शारीरिक अक्षमता से पहले हम भी जीवन के प्रवाह के अंग थे, अब दर्शक भर हो गए. शारीरिक अक्षमता ने हमें गैलरी में बिठा कर जीवन के प्रवाह को हसरत भरी नजरों से देखते रहने के लिए विवश कर दिया. सामने सड़क पर जीवन को अठखेलियां करते, मस्ती से झमते, फुदकते एवं इसी तरह अन्य क्रियाएं करते देख हमारे भीतर हूक सी उठती है. अपनी अक्षमता कचोटती है. हमारी शारीरिक अकर्मण्यता हमारी हथकड़ी, बेड़ी बन गई. पिंजरा बन गई. हम चहचहाना भूल गए.

वृद्ध दंपती का मन हो रहा था कि वे सुखलाल से कहें कि हाथपांव होते हुए भी वे हाथपांवविहीन से हो गए. बल्कि जैसे पराश्रित हो गए. पाजामे का नाड़ा बांधना, कमीज के बटन लगाना, खोलना, शीशी का ढक्कन खोलना, पैंट की बैल्ट कसना, अखबार के पन्ने पलटना, शेव करना, नाखून काटना, नहाना, पीठ पर साबुन मलना जैसे साधारण काम भी उन के लिए कठिन हो गए. घूमनाफिरना दूभर हो गया. हाथपांव के कंपन ने उन्हें लाचार कर दिया.

भील युवक ने उन की लाचारी समझ कर उन्हें हर काम में सहायता देना शुरू किया था. वह उन के नाखून काटने लगा था. शेव में सहायता करने लगा था. कपड़े पहनाने लगा था. बिना कहे ही वह उन की जरूरत को समझ लेता था. समझदार युवक था. ऐसी असमर्थता ने जीवन दूभर कर दिया है.

वृद्धा के मन में भी हिलोर उठी थी कि इस सहृदय किशोर को अपनी व्यथा से परिचित कराए. इसे बतलाए कि डायबिटीज की मरीज हो जाने से वह गठिया, हार्ट, ब्लडप्रैशर आदि रोगों से ग्रसित हो गई. उस की चाल बदल गई. टांगें फैला कर चलने लगी. एक कदम चलना भी मुश्किल हो गया.

फीकी चाय, परहेजी खाना लेना पड़ गया. खानेपीने की शौकीन को इन वर्जनाओं में जीना पड़ रहा है. फिर भी जबतब ब्लड में शुगर की मात्रा बढ़ ही जाती है. मौत सिर पर मंडराती सी लगती है. परकटे पंछी जैसी हो गई है वह. पिंजरे के पंछी पिंजरे में पंख तो फड़फड़ा लेते हैं मगर उस में तो इतनी क्षमता भी नहीं रही.

मगर दोनों ने अपने मन का यह गुबार सुखलाल को नहीं बताया. वे मन की बात मन में ही दबाए रहे. सुखलाल से तो वह इतना ही कह पाए, ‘‘हम रेंजर साहब से तुम्हारी शिकायत नहीं करेंगे, बल्कि तुम्हारी सिफारिश करेंगे. तुम निश्ंिचत हो कर जाओ. हम उन से कहेंगे कि तुम्हें आगे पढ़ाया जाए.’’

सुखलाल की बांछें खिल उठी थीं. वह खुशी से ?ामता हुआ चल पड़ा था. जातेजाते उस ने वृद्ध दंपती के चरण स्पर्श किए थे. बाहर सड़क पर से उस ने गैलरी में आ खड़े हुए दंपती को ‘टाटा’ किया था. उन्होंने भी ‘टाटा’ का जवाब हाथ हिला कर ‘टाटा’ में दिया था. वे आंखें फाड़फाड़ कर दूर जाते हुए सुखलाल को देखते रहे. उन्हें वही प्रसन्नता हुई थी जैसे पिंजरे के पंछी को आजाद हो कर मुक्त गगन में उड़ने पर होती है.

बेटी हो तो ऐसी

35 वर्षीय विनायक अपनी पत्नी रंभा से तलाक लेने के बाद बिलकुल अकेला हो गया था. 5 साल पहले उस ने सरकारी अस्पताल में कार्यरत नर्स रंभा से प्रेमविवाह किया था, तभी से उस के अधिवक्ता पिता ने विनायक को अपनी चलअचल संपत्ति से बेदखल कर दिया था. साथ ही उस से पारिवारिक संबंध भी तोड़ लिया था. तब भी विनायक पितृसत्ता के आगे नतमस्तक नहीं हुआ. उस ने अपनी सच्ची लगन, कड़ी मेहनत और अपनी प्रतिभा के बल पर बैंक कंपीटिशन कंप्लीट किया और एक सरकारी बैंक में कर्मचारी के रूप में अपनी जगह पक्की कर ली. उस के बाद रंभा के साथ उस की जिंदगी की गाड़ी दौड़ने लगी थी.

नौकरी मिलने के बाद विनायक अपनी पत्नी रंभा पर कम और अपने कैरियर पर ज्यादा ध्यान देने लगा था. बावजूद दोनों रात में घर पर ही रहते और सुखमय दांपत्य जीवन का आनंद लेते थे. दोनों के बीच किसी तरह का गिलाशिकवा नहीं था. मजे में उन का हसीन सपना परवान चढ़ रहा था. लेकिन कब दोनों के मन में अमर्यादित शंका का बीज अंकुरित होने लगा पता ही न चला.

रंभा कुछ माह से इमरजैंसी वर्क का बहाना बना कर नाइट ड्यूटी में ही रहती थी. वह घर नहीं लौटती थी, जिस से विनायक की रातों की नींद हराम हो गई थी. जब विनायक को इस की सचाई मालूम हुई तो एकाएक उस की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. पत्नी की दगाबाजी पर वह क्या करे, उस को समझ नहीं आया.

सरकारी अस्पताल में रंभा की ऊपरी कमाई ज्यादा थी. बावजूद वह पैसे के लिए किसी भी हद तक गिर सकती थी. इस बात को ले कर अकसर दोनों में तकरार होने लगी थी. नाइट ड्यूटी जाने पर उसे भलाबुरा बोल देता. इस तरह धीरेधीरे दोनों के बीच दूरियां इतनी बढ़ गईं कि एक दिन तलाक तक की नौबत आ गई.

रंभा से तलाक लेने के बाद विनायक की स्थिति सांपछछूंदर सी हो गई. अब वह न घर का था न घाट का. उस के प्रेमविवाह के निर्णय पर घर वाले अलग खरीखोटी सुनाते थे तो इधर तलाकशुदा रंभा भी यह कह कर ताना मारती कि कोई परित्यक्ता युवती की कौन कहे, अब तो कोई विधवा भी घास नहीं डालेगी.

अब विनायक को महिलाओं से नफरत सी हो गई थी. किसी भी युवती में उसे रंभा का रंग, रूप और आचरण दिखाई पड़ता. वह उन से कटाकटा रहने लगा. अपने औफिस में भी उन से दूरियां बना कर रखता. जरूरत पड़ने पर वह मात्र औपचारिकताएं निभाता. रंभा द्वारा दिए गए आर्थिक, सामाजिक और मानसिक आघात से वह उबर नहीं सका था. जितनी बार उबरना चाहता रंभा की परछाइयां उस का पीछा करती रहतीं. अड़ोसपड़ोस के सामाजिक सरोकार से भी वह बिलकुल कट सा गया था. घर से औफिस जाना और वापसी के बाद अपने कमरे में बंद हो जाना, यही उस की नियति बन गई थी.

एक दिन विनायक की बूआ उस से मिलने आईं और कहा, ‘‘बिना बहू के तुम्हारा घर सूनासूना लगता है. मेरी सहेली की एक बेटी है, जो लाखों में एक है. तुम दोनों की जोड़ी खूब जमेगी, जो मांगोगे वह छप्पर फाड़ कर देगी. बोलो, पहले लड़की दिखा दूं या सहेली के घर चलेगा?’’

‘‘मैं ऐसे ही ठीक हूं. अब मुझे शादीविवाह के झमेले में नहीं पड़ना है. तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. तुम अपने काम से मतलब रखो.’’

‘‘अरे भतीजे, बिना बीवी के यह पहाड़ सी जिंदगी कैसे कटेगी? तेरा वंश कैसे चलेगा? इस पर भी तो सोचो.’’

‘‘कह दिया न कि शादी नहीं करनी है तो नहीं करनी है. सभी लड़कियां एक सी होती हैं, बिलकुल रंभा की तरह.’’

‘‘दूध का जला छाछ फूंक कर पीता है. तेरा सोचना बिलकुल सही है. लेकिन मेरे प्रस्ताव पर एक बार अवश्य विचार करना. अब चलती हूं,’’ इतना कह कर बूआ अपने घर चली गई.

आज विनायक के पास अपना फ्लैट और बैंक बैलेंस था. तलाक के 2 साल बाद उस के व्यवहार और आचरण में काफी बदलाव आया था. समाज के लोगों की नजरों में वह ईमानदार और विश्वासपात्र व्यक्ति था. बूआ के जाने के बाद भी शादी के कई प्रस्ताव आए. इसलिए कि विनायक नौकरीपेशा व्यक्ति था, लेकिन उस ने सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया था.

एक दिन वह औफिस जाने के लिए अपने शहर के नुक्कड़ पर पहुंचा और बस के इंतजार में खड़ा हो गया. तभी वहां एक दुर्घटना घट गई…

एक तेज रफ्तार बाइक और एक ट्रक में जोरदार टक्कर हो गई. लहूलुहान हो कर बाइकसवार सड़क पर गिर कर छटपटाने लगा जबकि दुर्घटना के बाद चालक ट्रक से कूद कर फरार हो गया. घटना के बाद लोगों की भीड़ जमा हो गई. कुछ लोग घायल की अपने मोबाइल से वीडियो बनाने लगे. वहीं कुछ खड़े लोग घायल की छटपटाहट का तमाशा देख रहे थे.

लेकिन विनायक को घायल की तड़प और छटपटाहट देखी नहीं गई. मौत के भय से उस का कलेजा कांप गया. अचानक उस ने एक वाहन को रोका और छटपटा रहे युवक को फौरन ले कर पास के अस्पताल में भर्ती कराया. उस के बाद वह अपनी ड्यूटी पर चला गया.

बैंक बंद होने के बाद विनायक अपने घर वापस जा रहा था कि तभी उस के मन में विचार आया कि अस्पताल जा कर घायल का हालचाल पूछ ले. जब वह अस्पताल पहुंचा तो देखा कि बैड पर घायल युवक मृत पड़ा हुआ था. बगल में उस की पत्नी और बेटी रोरो कर बेजार हुई जा रही थीं. कोई उन का आंसू पोंछने वाला भी नहीं था. मानवता को शर्मसार करने वाले उस दृश्य को देख कर उस का दिल पिघल गया. उस ने पास बैठ कर मृतक की पत्नी और पुत्री को धैर्य और हौसला रखने की नसीहत दी. कहा, ‘‘जो होना था वह तो हो गया. दुनिया छोड़ कर जाने वाले कभी लौट कर तो नहीं आते, लेकिन उस की यादें सदा हमारे साथ रहती हैं. आप पोस्टमार्टम के बाद मृतक के अंतिम संस्कार की तैयारी करें.

आप मुझे अपने संबंधियों का मोबाइल नंबर दें, उन्हें घटना की सूचना दे कर अस्पताल में बुलाता हूं.’’

‘‘घटना की सूचना सब को है, लेकिन अभी तक कोई आया नहीं, आप हमारी मदद करें,’’ मृतक की पत्नी ने अपनी आंखों से बहते हुए आंसुओं को अपने आंचल से पोंछा और कहा.

‘‘मैं…’’ अचानक वह हकलाया.

‘‘हमारी दुर्दशा आप देख रहे हैं, कृपया हमारी सहायता करें,’’ दीनहीन भावना से मृतक की पत्नी ने उसे व्याकुल नेत्रों से देखते हुए आग्रह किया.

‘‘ठीक है.’’

मृतक के अंतिम संस्कार के बाद 30 वर्षीय विधवा विमला से विनायक का एक अनाम रिश्ता बन गया. मृतक मनोज विमला का पति था और उस की देह से एकमात्र संतान उस की 16 वर्षीय बेटी वंदना थी.

मनोज शराब के नशे में बाइक चलाने के कारण दुर्घटना का शिकार हुआ. वह अव्वल दरजे का पियक्कड़ था, जिस के कारण उस के संगेसंबंधी और महल्ले के लोग परेशान रहते थे. वह सब के साथ गालीगलौच और मारपीट करता रहता था. मनोज का अव्यावहारिक आचरण उस के सामाजिक बहिष्कार का कारण था. यही वजह थी कि उस की मौत पर भी कोई देखने तक नहीं पहुंचा.

मनुष्य हर वक्त अपने नियमों के बंधन में बंध कर नहीं रह सकता. वह कितना भी अभिमानी और स्वाभिमानी क्यों न हो, लेकिन सामाजिक सरोकार के आगे नतमस्तक हो जाता है. सामने आई किसी विपत्ति से विमुख नहीं हो सकता है. वहां का परिवेश और परिस्थितियां उसे अपना गुलाम बना लेती हैं. यही स्थिति विनायक के साथ हुई.

महिलाओं से नफरत करने वाला विनायक अचानक बदल गया था. उस के दिलोदिमाग पर विमला को देखने और उस से मिलने का एक नशा सा छा गया. उसे जब भी मौका मिलता, विमला से मिलने उस के घर पर पहुंच जाता था.

लेकिन विमला उस से दूर रहने की कोशिश करती. वह एक तो विधवा दूसरे सामाजिक मर्यादा के भय से स्वाभाविक रूप से मिल नहीं पाती. कोई न कोई बहाना बना कर उसे टरका देती. लेकिन हर बार वह ऐसा नहीं कर पाती. कभीकभी बाजार से लौटते समय विनायक से भेंट हो जाती तो दोनों किसी रैस्तरां में कौफी पी लेते और एकदूसरे का हालचाल पूछ लेते.

औपचारिक मुलाकातों का सिलसिला दोनों के बीच लगभग 2 सालों तक चला. उस के बाद दोनों एक अच्छे मित्र बन गए थे. अब वे अपने दुखसुख को आपस में सांझा करते और हर समस्या का हल अपनी सूझबूझ से निकालते थे.

एक बार विनायक के दिल से आवाज निकली, ‘विमला ही तुम्हारी जीवनसंगिनी बन सकती है. वह तो तुम से प्यार भी करती है. विमला तुम्हारी तलाकशुदा पत्नी रंभा से लाख दरजा नेकदिल और भद्र महिला है.’

विनायक फिर से सोचने लग जाता, ‘कहीं विमला तुम्हारी पत्नी रंभा की तरह अव्यावहारिक और छिछोरी निकली तो जिंदगी बद से बदतर हो जाएगी. खुशी की तलाश में कहीं मुसीबत में न फंस जाओ…’

वहीं दूसरे ही पल उस के दिल ने कहा, ‘नहींनहीं, विमला ऐसा नहीं कर सकती है. उसे वह 1-2 सालों से जानता है, जब उस के पति मनोज की मौत ऐक्सिडैंट में हुई थी. अभी विमला के विचार व व्यवहार में कोई खोट नहीं है. वह हमेशा रंभा की तुलना में गंभीर और शालीन लगती है.’

विनायक फिर सोचने लगा, ‘अभी तक जवान विमला के शादी नहीं करने की वजह उस की बेटी वंदना हो सकती है. शायद वह उस की शादी के बाद ही अपने बारे में कुछ सोचे.’

जब वंदना अपने घर पहुंची तो देखा कि उस की मां सोफे पर बैठे बैंक वाले विनायक अंकल से हंसहंस कर बातें कर रही थी. सामने ड्रैसिंग टेबल पर एक तश्तरी में कुछ नमकीन और बगल में चाय के 2 कप रखे हुए थे. चाय पीने के बाद थोड़ी सी चाय बची हुई थी.

यह सब देख कर पता नहीं क्यों उसे अच्छा नहीं लगा. वह बिना कुछ बोले चुपचाप अपने कमरे में चली गई. हालांकि वंदना को अपने कमरे में जाते हुए देख कर उस की मां विमला और विनायक पर कोई असर नहीं पड़ा. वे पहले की भांति अपनी बातें जारी रखे हुए थे.

वंदना को अपने घर में विनायक अंकल का आना और उस की मां से बातें करना बिलकुल पसंद नहीं था. उस को लगता था कि उस की मां अंकल के प्यार के झांसे में आ कर उस से दूर होती जा रही है. वह दिनरात अपनेआप में खोई रहती. उसे लगता कि मां को यह भी भान नहीं कि घर में एक जवान बेटी शादी योग्य है.

वंदना अपने कमरे में खड़ीखड़ी इन्हीं बातों में तल्लीन थी कि तभी वहां उस की मां आ गई और तल्ख आवाज में बेटी को नसीहत देने लगी, ‘‘यह क्या बदतमीजी है? घर आए मेहमान से हैलोहाय भी नहीं. जैसेजैसे तेरी उम्र बढ़ती जा रही है, वैसेवैसे तेरी अक्ल घास चरने लगी है. आगे तू क्या करेगी मुझे नहीं पता.’’

‘‘कौन सा मेहमान, जो रोज तुम से मिलने आता है. ऐसे लोग मुझे नहीं भाते. वैसे लोगों से दूर रहना ही बेहतर है, जो औरतों और लड़कियों को घूरते रहते हैं,’’ वंदना ने अपने गुस्से पर काबू रखते हुए शांत स्वर में जवाब दिया.

‘‘तू मर्यादा की हदें पार कर रही है. 2 पैसे कमाने क्या लगी है, मेरे सिर चढ़ कर बोलने लगी है. वे दिन भूल गई जब ऐक्सिडैंट में तेरे पिता की मौत हो गई थी और आगेपीछे देखने वाला कोई नहीं था, अपनेपराए सभी दरकिनार हो गए थे. उन विषम परिस्थितियों में विनायक बाबू ने हमारी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक मदद की थी, वरना हमारा अस्तित्व ही मिट गया होता और तू ऐसे व्यक्ति पर चरित्रहीनता का लांछन लगा रही है.’’ इतना बोलतेबोलते विमला की आंखें भर आईं और वह रोने लगी.

‘‘इस एहसान के पीछे जरूर कोई रहस्य होगा. आज के युग में कोई ऐसे ही किसी की मदद नहीं करता. आसपड़ोस में तेरी कितनी इज्जत है, अपने किसी शुभचिंतक से पूछ लो,’’ वंदना गुस्से में बोली.

‘‘अरे बेरहम लड़की, मुझ पर थोड़ा सा रहम तो कर. कोई और बोले या न बोले, लेकिन तू मुझे नंगा करने पर तुली है.’’

‘‘तुम मुझे चुड़ैल कहो चाहे भूतनी, मुझे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है. मैं तुम्हारी स्त्रीत्व की रक्षा करना चाहती हूं. अगर लोगों की जबान बंद करना चाहती हो तो विनायक अंकल से शादी कर लो. वह भी तो तलाकशुदा हैं. अभी तुम्हारी उम्र 34-35 के आसपास होगी यह उम्र विधवा की जिंदगी जीने के लिए नहीं होती. तुम दोनों की शादी से मुझे काफी खुशी होगी,’’ इतना कहने के बाद वंदना अपने कमरे से बाहर निकल गई.

वंदना का जवाब सुन कर विमला की बोलती बंद हो गई. वह कमरे से बाहर निकलती वंदना को आश्चर्य से देखती रह गई. थोड़ी देर पहले मांबेटी के बीच जो विषम स्थिति बनी हुई थी वह बदल कर कुछ हद तक सकारात्मक हो गई थी. विमला सोचने लगी, ‘घर में जवान बेटी के रहते वह विनायक बाबू से कैसे विवाह कर सकती है. अगर शादी हुई भी तो जगहंसाई के सिवा उस के हाथ में क्या आएगा? वह कोई अच्छा लड़का देख कर पहले वंदना की शादी कर देगी. उस के बाद अपने बारे में सोचेगी.’

वह यही सब सोच रही थी कि तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. उस ने जैसे ही दरवाजा खोला तो सामने खड़े एक युवक को देख कर दंग रह गई. युवक का सौम्य चेहरा और व्यक्तित्व काफी आकर्षक था.

‘‘मैं वंदना की मां से मिलने आया हूं,’’ उस युवक ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मैं ही हूं उस की मां, आप कौन हैं?’’

‘‘मैं रौशन. वंदना के साथ काम करता हूं. बैठने को नहीं बोलेंगी क्या आंटी?’’

‘‘ओह, तुम ही रौशन हो. अंदर आओ बेटा. वंदना अकसर तुम्हारी चर्चा करती है,’’ प्रसन्नता के साथ विमला उसे अंदर ले आई और रौशन को ड्राइंगरूप में बैठाया. फिर उस से बोली, ‘‘बैठो बेटा, चाय बना कर लाती हूं.’’

‘‘आप बैठिए न, वंदना चाय बना कर लाएगी.’’

‘‘नहीं बेटा, वह घर में नहीं है, शायद बाजार गई होगी.’’

‘‘शायद क्यों? बता कर नहीं गई है क्या? यह तो गलत बात है.’’

‘‘फोन कर के देखो न बेटा, वह कहां है?’’

‘‘ठीक है, उस से बात करता हूं.’’

रौशन ने वंदना को फोन किया और बोला, ‘‘जल्दी घर पहुंचो, तुम्हें देखने के लिए मैं अपने मातापिता के साथ आया हूं.’’

‘‘इंतजार करो, बस घर पहुंचने वाली हूं,’’ जवाब दे कर उस ने फोन काट दिया.

विमला थोड़ी देर बाद चाय ले कर लौटी और टेबल पर रख कर उस के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई.

‘‘चलो, अब चाय पी लो, बेटा. और बताओ तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’ विमला ने उत्सुकता से पूछा.

चाय की चुसकियां लेते हुए रौशन ने कहा, ‘‘मेरा परिवार छोटा है. 3 भाईबहनों में मैं सब से छोटा हूं. मेरी बड़ी बहन अनिता और उन से छोटी बहन सुनीता शादीशुदा हैं, जो अपनेअपने ससुराल रहती हैं. मेरी मां ममता गृहिणी हैं, जबकि मेरे पिता स्कूल में शिक्षक हैं.’’

तभी वंदना घर लौटी. उस के साथ विनायक, रौशन के मातापिता और दोनों बहनें भी थीं. विमला एकसाथ अपने घर में इतने मेहमानों को देख कर खुशी से झूम उठी. उस ने सभी का अभिवादन किया. तभी कुछ लोग फल, मिठाइयां, कपड़े, जेवरात आदि के पैकेट्स अंदर रख गए. यह सब देख कर विमला अजमंजस में थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक यह सब क्या हो रहा है. तभी विनायक बोल पड़े, ‘‘आज वंदना और रौशन की रिंग सेरेमनी है.’’

सहसा रौशन की मां ममता ने वंदना को अपने गले से लगा लिया और अपने साथ लाए कपड़े देती हुई बोलीं, ‘‘वंदना बेटी, जल्दी तैयार हो कर आओ, रिंग सेरेमनी का वक्त हो गया है.’’

‘‘हांहां, जल्दी आओ बेटी,’’ रौशन के पिता ने भी आग्रह किया. वंदना कपड़े ले कर अपने कमरे में चली गई. थोड़ी देर के बाद जब आकर्षक ड्रैस में बाहर निकली तो सभी उसे एकटक निहारते रहे गए.

तभी रौशन आगे आया और रिंग बौक्स खोल कर अंगूठी निकाली और वंदना को पहनानी चाही.

‘‘ठहरो रौशन, अभी हमारी रिंग सेरेमनी नहीं हो सकती,’’ वंदना 2 कदम पीछे हटते हुए बोली.

‘‘अरे बेटा, अचानक तुम्हें क्या हो गया? यह तो घर आए मेहमानों का अपमान है,’’ विमला ने नाराजगी जताते हुए वंदना से कहा.

‘‘हां बेटी, रस्म अदायगी पूरी करो, हम बड़े अरमान ले कर तेरे पास आए थे, आखिर रौशन में क्या कमी है?’’ ममता ने गंभीरता के साथ अपनी बात रखी.

‘‘कोई परेशानी हो तो बताओ वंदना, हम उस का समाधान निकालेंगे. निस्संकोच बोलो,’’ इस बार रौशन ने वंदना का हौसला बढ़ाया और कहा, ‘‘वंदना, दिल में छिपे गुब्बार को बाहर निकालो, दबाने से मर्ज बढ़ता है, मुझे लगता है कि तुम विनायक अंकल और अपनी मां के बारे में कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘हां, तुम ठीक समझे रौशन. पहले मां और अंकल की शादी करना चाहती हूं. पहले इन दोनों की रिंग सेरेमनी हो जाए, उस के बाद हम दोनों की होगी.’’

‘‘बहुत सुंदर फैसला. जितनी प्रशंसा की जाए कम है,’’ खुशी का इजहार करते हुए रौशन की मां और पिता ने पास आ कर वंदना की पीठ थपथपाई. साथ ही ममता ने अपनी ममता लुटाते हुए सिर ?ाका कर खड़ी विमला को बांहों में भर लिया और सूनी मांग को चूम कर बोली, ‘‘रौशन बेटा, आंटी को अंगूठी दो और विनायक बाबू अपना दाहिना हाथ आगे कीजिए.’’

‘‘लेकिन…’’ विमला हिचकिचाहट के साथ बोली.

‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, इस कार्य में विलंब कैसा विमला बहन, अंगूठी पहनाओ.’’

विमला ने विनायक की उंगली में जैसे ही अंगूठी पहनाई, सभी लोगों ने तालियां बजाईं और फूलों की वर्षा की.

‘‘वंदना की शादी के बाद तुम बिलकुल अकेली हो जाओगी बहन, इसलिए विनायक बाबू से शादी कर सुखमय जीवन का आनंद उठाओ. हमारी शुभकामनाएं और बधाइयां स्वीकार करो,’’ हर्ष व्यक्त करते हुए ममता ने कहा.

इधर रिंग सेरेमनी के बाद रौशन ने अपने सास और ससुर का आशीर्वाद लिया. वहीं जब वंदना ने ?ाक कर अपने माता और पिता का आशीर्वाद लिया तो विमला ने गीली आंखों से उसे देखा और अपने गले से लगा लिया. बेटी की जिंदादिली पर उस का रोमरोम प्रफुल्लित था. उस के दिल ने कहा, ‘बेटी हो तो ऐसी.’

काम के वर्कलोड से जान नहीं जाती, वर्कलोड सहने की आदत होनी चाहिए

‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ फिल्म का यह डायलौग तो आप ने सुना ही होगा कि ‘टैंशन लेने का नहीं, देने का’ जिस का यह संदेश है कि सिचुएशन चाहे कोई भी हो, उस से मुकाबला करते हैं, घबराते नहीं हैं. और वैसे भी, ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’. लेकिन लगता है इन संदेशों को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया. इसलिए कई बार हम अपने तनाव को इतना बढ़ा लेते हैं कि जान चली जाने तक की नौबत आ जाती है. जैसा कि पुणे के ईवाई फर्म में काम करने वालीं 26 साल की युवती एना सेबेस्टियन के साथ हुआ.

एना सेबेस्टियन सीए थी. इस युवती की मां ने कंपनी के चेयरमैन को खत लिखा और आरोप लगाया कि बेटी की जान वर्कलोड की वजह से हुई है. उन्होंने कहा कि बेटी दिनरात बिना सोए और बिना किसी छुट्टी के लगातार काम कर रही थी. एना ने 18 मार्च, 2024 को कंपनी जौइन की थी.

वहीं अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एचडीएफसी बैंक की विभूति खंड ब्रांच में एडिशनल डिप्टी वाइस प्रैसिडैंट सदफ फातिमा अपने दफ्तर में ही अचानक गिर गईं, जिस से उन की मृत्यु हो गई. बताया जा रहा है कि यह भी ज्यादा वर्कलोड की वजह से हुआ.

सीए एना और सदफ फातिमा की अचानक हुई मौत ने आज के कौर्पोरेट वर्क कल्चर पर सवाल खड़े कर दिए हैं? क्या वाकई में काम का बोझ जान ले सकता है, इस पर बहस छिड़ी हुई है.

आरोप है कि इन महिलाओं की मौत काम के दबाव में हुई है, लेकिन क्या वाकई काम के दबाव में किसी व्यक्ति की मौत हो सकती है?

वर्कप्रैशर या उस से होने वाले स्ट्रैस को हम कैसे माप सकते हैं? क्या वाकई आप को लगता है कि अगर आप कम काम करेंगे तो स्वस्थ रहेंगे? किस किताब में लिखा है कि कम काम करना अच्छे स्वास्थ्य की गारंटी है?

क्या काम आप अपनी मरजी से ले रहें हैं और उस का आप को वाजिब मुआवजा मिल रहा है, क्या आप यह चाहते हैं कि पैसे तो मिलें लेकिन काम न करना पड़े?

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी कहा कि तनाव झेलने की शक्ति होनी चाहिए. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कालेज और यूनिवर्सिटी में स्ट्रैस मैनेजमैंट का विषय पढ़ाने की बात कही है. उन का मानना है कि इस से विद्यार्थियों को अंदर से मजबूत बनने में मदद मिलेगी. हालांकि, उन के इस बयान पर विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने कड़ी आलोचना की है. कांग्रेस ने उन के बयान को ‘पूरी तरह से क्रूर’ बताया है.

वित्त मंत्री ने कहा कि शिक्षण संस्थानों और परिवारों को बच्चों को तनाव प्रबंधन के गुर सिखाने चाहिए. बच्चों से कहना चाहिए कि आप जो भी पढ़ाई करें, जो भी नौकरी करें, आप में उस से जुड़ा तनाव झेलने की अंदरूनी शक्ति होनी चाहिए.

नौकरी से खुश नहीं, तो नौकरी छोड़ दो

जो भी व्यक्ति जिस भी कंपनी में जौब कर रहा है वह अपनी मरजी से कर रहा है. अगर वहां काम करना अच्छा नहीं लग रहा या फिर लग रहा है कि काम का दबाव आप नहीं झेल पा रहे, तो वहां से नौकरी छोड़ना भी एक औप्शन हो सकता है. लेकिन अगर आप नौकरी नहीं छोड़ रहे और उसी एन्वायरमैंट में काम किए जा रहे हैं, तो इस में गलती कंपनी की नहीं बल्कि आप की है. फिर इस के पीछे भले ही आप की कोई मजबूरी छिपी हो. लेकिन वजह प्रोफैशनल है तो उस का निदान भी प्रोफैशनल ही है. नौकरी करना न करना आप की अपनी इच्छा पर है, कोई आप से जबरदस्ती नहीं कर रहा.

वर्कलोड सहने की आदत होनी चाहिए

आजकल घर हो या बाहर, सभी जगह वर्कलोड है. सो, उसे सहने की आदत डालें. आप के अंदर ही कमजोरी है कि आप उसे नहीं झेल पा रहे. अपने अंदर की कमजोरी को दूर करें. जल्दीजल्दी काम करने की आदत डालें. देखें कि आप कहां कम रह गए. काम से डरना कैसा. इसे दिल से खुश हो कर करेंगे, तो मजा आएगा, बोझिल नहीं लगेगा.

रील देखने और भजन करने की सीमा नहीं, तो काम के सीमा क्यों?

हमारे भजन करने की कोई सीमा नहीं है तो फिर काम करने की ही सीमा क्यों? रील देखने में हम कितना टाइम वेस्ट कर रहे हैं, उस की कोई सीमा है? आप दिन के जितने घंटे रील देखने में लगे रहते हैं उस के मुकाबले दफ्तर में जो काम किया जाता है वह कम ही है. हमारे पास भजनपूजन का टाइम ही नहीं होना चाहिए. इस से कुछ नहीं मिलता. बस, ये सब बेवकूफ बनाने के तरीके हैं. जबकि, काम करेंगे तो जिंदगी में आगे बढ़ेंगे. अभी उम्र है काम करने की तो क्यों बेकार घूमना और टाइमपास करना. यही समय है जब मेहनत कर के कुछ अचीव किया जा सकता है.

वर्कलोड को स्मार्टली हैंडल करने के तरीके सीखें

वर्कप्रैशर को मैनेज करने के लिए कार्यों को टाइम सलौट में विभाजित करने, टु-डू लिस्ट या मोबाइल ऐप जैसे टूल का इस्तेमाल करने, प्रोफैशनल काम और पर्सनल टाइम के बीच स्पष्ट सीमाएं तय करने जैसे कई उपाय बेवजह के स्ट्रैस से बचा सकते हैं.

प्रोजैक्ट्स की प्रायोरिटी सैट करें

हर औफिस में एकसाथ कई प्रोजैक्ट्स पर हमेशा ही काम चलता रहता है. ऐसे में अगर आप भी कुछ प्रोजैक्ट्स में शामिल हैं तो पहले आप उन की प्रायोरिटी को सैट करें. मसलन, अगर किसी प्रोजैक्ट को इसी सप्ताह में लौंच करना है या फिर उस की प्रेजैंटेशन क्लाइंट को दिखानी है, तो पहले उस प्रोजैक्ट पर काम करें. धीरेधीरे आप दूसरे प्रोजैक्ट्स के भी कुछ कामों को आगे बढ़ाते रहें. ऐसे में काम अधिक होने की स्थिति में भी आप को परेशानी नहीं होगी.

बौस से बात करें

अगर आप पर वर्कलोड ज्यादा है, तो अपने बौस को विनम्रता से यह बात बताएं कि आप के पास काम ज्यादा हो रहा है और आप उसे सही से हैंडल नहीं कर पा रहे. अगर किसी टीम की जरूरत है तो उन से टीम की भी मांग की जा सकती है. समस्या तभी सुलझेगी जब आप अपने बौस से उस के बारे में बात करेंगे वरना उन्हें क्या पता कि आप किस तनाव से गुजर रहे हैं.

न कहना नहीं आता, तो यह आप की कमजोरी है, सीखें

न आप तभी कह सकते हैं जब आप ने अपना काम पूरा कर लिया हो. अगर आप पहले से ही अपनी क्षमता से ज्यादा काम कर चुके हैं, तो आराम से उन्हें बताएं कि अब आप बाकी का काम कल करेंगी क्योंकि अभी दिमाग काम नहीं कर रहा और इस से काम की क्वालिटी पर भी असर पड़ सकता है. अगर आप का काम अच्छा है, तो बौस भी इस बात को समझेंगे. लेकिन घर जाने के बाद बारबार औफिस की मेल चैक करने से बचें. जब घर पर हों तो पूरी तरह से रिलैक्स करें.

सेहत को नजरअंदाज न करें

महिलाओं को मल्टीटास्कर के रूप में देखा जाता है, जो घर और औफिस दोनों का काम संभालती हैं, लेकिन वे अपनी सेहत को नजरअंदाज कर देती हैं. ऐसे में यह जरूरी है कि महिलाएं अपनी सेहत को प्राथमिकता दें.

प्रमोशन पाने के लिए ज्यादा काम तो नहीं कर रहे आप

अगर आप प्रमोशन पाने के लिए ज्यादा काम कर रही हैं, ताकि ज्यादा पैसे मिले और आप का घर अच्छे से चले तो इस में किसी की कोई गलती नहीं है. अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते आप जरूरत से ज्यादा काम कर रही हैं, तो रुक जाएं. इस की कोई अति नहीं है.

अपनी बौडी के सिग्नल को समझने की जिम्मेदारी आप की है

काम उतना ही करें जितना आप की बौडी झेल पाए. उस से ज्यादा होने पर बौडी खुद ही सिग्नल देने लगेगी, उन सिग्नल को पहचानें. अपने परिवार से बात करें कि आप इस से ज्यादा काम नहीं कर सकतीं. जो भी अर्निंग है उसी में घर का बजट बनाएं.

क्वालिटी औफ लाइफ लेजर एक्टिविटी और रीक्रिएशनल एक्टिविटी भी करें

अब आप सोच रहे होंगे कि यह लेजर एक्टिविटी और रीक्रिएशनल एक्टिविटी क्या हैं. दरअसल, लेजर एक्टिविटी आप की उस हौबी को कहते हैं जिस को करने से आप के मन को ख़ुशी मिलती थी, जैसे कि अगर आप को डांस करने का शौक रहा है या फिर कुकिंग, सिंगिंग, गार्डनिंग, पेंटिंग का शौक है तो उसे रिस्टार्ट करें. भले ही महीने में एकदो बार करें लेकिन करें. इस से आप की लाइफ में काम के अलवा भी कुछ होगा जिस के बारे में आप सोच सकते हैं, बात कर सकते हैं.

रीक्रिएशनल एक्टिविटी भी करें जैसे कि पहले आप अपने दोस्तों के साथ मूवी जाते थे या गेमिंग लरते थे तो आप को अच्छा लगता था या फिर किसी फन पार्क आदि में जा कर अच्छा लगता था, तो अब फिर से काम के बीच से महीने में एकदो बार इन एक्टिविटीज के लिए टाइम जरूर निकालें.

डिनर के बाद या फिर मौर्निंग में वौक पर रूटीन बनाएं

अपनी डाइट पर विशेष धयान दें, काम कितना भी हो लेकिन उसे नजरअंदाज न करें क्योंकि अगर आप ऐसा करती हैं तो इस में गलती औफिस के काम की नहीं है बल्कि आप की लापरवाही होगी. आप चाहें तो काम करतेकरते भी खा सकती हैं. भूखे रहने से तो यह बेटर ही होगा.

नींद न आए तो संभल जाएं

जरूरी नहीं कि 10 बजे सोना जरूरी ही है बल्कि लेट भी हो गए तो कोई बात नहीं. लेकिन, नींद अच्छी लें. अगर आप 6- घंटे की नींद ले रही हैं तो वह काफी है. लेकिन आप का काम के बाद फों पर लंबी बातें करना, घंटों नींद के नाम पर बिस्तर पर लेटे रहने को नींद लेना नहीं कहेंगे. अगर सोने के लिए लेट गए हैं, तो मोबाइल को खुद से दूर रखें.

जो भी काम करें मन से करें

वर्कलोड से किसी की जान चली जाए, ऐसा नहीं होता है. लेकिन तनाव दूसरे कारण बन कर जान का दुश्मन जरूर बन सकता है. ज्यादा काम थकावट तो कर सकता है, लेकिन सभी की मैंटल हैल्थ खराब होने लगे, ऐसा जरूरी नहीं है. लेकिन जो लोग ज्यादा काम करते हैं और इस काम को मजबूरी समझते हैं और उन का काम में मन नहीं लगता है तो इस से मानसिक तनाव हो सकता है़. कुछ व्यक्ति जीवन की कुछ दूसरी घटनाओं की वजह से भी तनाव में रहते हैं. अगर इसी के साथ ही काम का प्रैशर बढ़े और व्यक्ति इस से भी तनाव में आता जाए तो इस से उस की मैंटल हैल्थ खराब होने लगती है.

बिना मेहनत के किसी को कामयाबी नहीं मिलती

बिना मेहनत के किसी को कुछ नहीं मिलता, इसलिए मेहनत से न घबराएं. अपने लाइफस्टाइल को सही रखें और दिल से काम करें. इस से सब अच्छा ही लगेगा. अगर मन या तन में कुछ गलत लग रहा है तो डाक्टर के पास जाने में न हिचकिचाएं. पहले आप की सेहत है, यह सही है, तभी आप काम कर पाएंगे.

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