सुबह उठते ही गरमागरम चाय का अभी पहला घूंट ही गटका था कि अंदर का फरमान कानों के रास्ते अंदर उतर गया, ‘‘आज नाश्ता तभी बनेगा जब बाजार से सब्जी आ जाएगी.’’
हुआ यह था कि पिछले एक सप्ताह से दफ्तर के कामों में इतना उलझा रहा कि लौटते समय बाजार बंद हो जाता था और सब्जी का थैला बैग में पड़ा रह जाता. इन दिनों में पत्नी ने छोले व राजमा के साथ बेसन का कई तरह से इस्तेमाल कर एक तो अपनी पाक कला ज्ञान का भरपूर परिचय कराया, दूसरे, सब्जी की कमी को पूरा कर हमारी इज्जत ढकी थी.
पत्नी के आदेश को सिरमाथे मान कर मैं शार्टकट के रास्ते तेज कदमों से सब्जी बाजार की ओर जा रहा था. अभी थोड़ी दूर ही पहुंचा था कि नाक में तेज बदबू ने प्रवेश किया. मैं ने अपनी उल्लू जैसी आंखों को मटका कर चारों ओर देखा पर कुछ दिखलाई नहीं दिया. अभी वहां से कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि फिर जोरदार बदबू का झोंका आया. अब की बार मैं ने कुत्ते जैसी नाक से मजबूरी में बदबू को सूंघा और उस जगह पर नजर डाली जहां से वातावरण प्रदूषित हो रहा था. देखा, एक मरा हुआ ढोर नगरनिगम के कचरे के डब्बे में पड़ा था और कौए उस को नोंचनोंच कर खा रहे थे.
नाक पर रूमाल रखा और स्कूली दिनों को याद कर 100 मीटर की फर्राटा दौड़ लगा दी. सामने से तिवारीजी आते दिखाई दिए और मुझे इस तरह इतना फर्राटे से भागते देखा तो रोक कर पूछने लगे, ‘‘क्यों भाई, सब ठीकठाक तो है?’’
मैं ने अपनी सांसों को नियंत्रित किया और तिवारीजी के चेहरे को देखा तो वह किसी हौरर फिल्म के डे्रकुला जैसे लग रहे थे. बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे हुए बाल, नंगे पांव, गंदे से कपड़े. ‘‘बात क्या है, तिवारीजी, आप ठीकठाक तो हैं न?’’
‘‘क्यों, मुझे क्या हुआ?’’
‘‘अरे भाई, ये बढ़ी हुई दाढ़ी, नंगे पांव, बिखरे हुए बेतरतीब केश, और ये बढ़े हुए नाखून…आखिर माजरा क्या है?’’
तिवारीजी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा और बोले, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम?’’
‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम.’’
‘‘यार, तुम कैसे हिंदू हो?’’
‘‘क्या मतलब? आप की दाढ़ीनाखून बढ़ने से मेरे हिंदू होने का क्या संबंध है?’’ मैं ने प्रश्न किया.
‘‘यार, हिंदू होने के नाते तुम्हें इतना तो पता होना ही चाहिए कि इन दिनों पितृपक्ष (श्राद्ध) के दिन चल रहे हैं और इन दिनों में न तो कोई शुभ काम किया जाता है और न ही दाढ़ीनाखून कटवाते हैं.’’
‘‘लेकिन तिवारीजी, हिंदू धर्म में इस तरह का कोई नियम है, ऐसा कुछ मैं ने आज तक किसी भी हिंदू धार्मिक पुस्तक में नहीं पढ़ा.’’
‘‘यार, वेदपुराणों में लिखा है, ऐसा हमें हमारे बापदादा ने बताया था.’’
‘‘आप ने पढ़ा है?’’ मैं ने नास्तिकों की तरह पूछा.
‘‘इस में पढ़ना क्या है? बुजुर्गों ने कहा है सो है, यही तो हमारी हिंदू संस्कृति, धर्म और सभ्यता है.’’
‘‘जहां पर प्रश्न करने की, शक करने की कोई गुंजाइश नहीं होती,’’ मैं ने कहा.
‘‘चुप रहो यार, ऐसा कर के पुरखों की आत्मा को शांति मिलती है.’’
‘‘क्या तुम्हारे पूर्वज तुम्हें ऐसा गंदा देख कर खुश हो रहे होंगे,’’ मैं ने उन का मजाक बनाते हुए कहा, ‘‘अजीब तुम्हारे पुरखे हैं.’’
‘‘लगता है, तुम पर किसी अधर्मी की छाया पड़ गई है.’’
‘‘बिलकुल नहीं मित्र, जो धर्म में है ही नहीं उसे प्रचारित करने वालों के खिलाफ मैं बोल रहा हूं. इसी कारण आज हिंदू धर्म मजाक बन गया है,’’ मैं ने एक संक्षिप्त सा भाषण ही दे डाला.
‘‘देखो यार, तुम्हारे भाषण देने से मुझ पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि मैं भगवाधारी कट्टर पार्टी से हूं और पार्टी का आदेश सिरमाथे पर,’’ तिवारीजी बोले, ‘‘पुरखे ऐसा करने से खुश होते हैं तो मैं ने ऐसा कर दिया. मैं तो वही करूंगा जो पार्टी के लोग चाहते हैं. फिर मुझे अपनी जाति से बाहर तो कोई नहीं करेगा,’’ ऐसा कह कर तिवारीजी हीही कर के हंस पड़े.
मैं ने तिवारीजी से कहा, ‘‘गजब का स्टेमना है आप का.’’
प्रशंसा सुन कर वह खुश हो गए और कहने लगे, ‘‘क्या बताएं यार, अकेले मैं ने नहीं मेरे पूरे परिवार ने आज अभी तक भोजन ग्रहण नहीं किया है.’’
‘‘क्यों? क्या मिला नहीं?’’
‘‘कैसी बातें करते हो तुम, सातों पकवान बना कर रख छोड़े हैं लेकिन खा नहीं सकते.’’
‘‘क्यों, क्या बात हो गई?’’
‘‘यार, सुबह से हम पूर्वजों को यानी कि कौओं को खाने का निमंत्रण दे रहे हैं लेकिन अभी तक वह नहीं पहुंचे. लगता है यह प्रजाति भी लुप्त हो रही है,’’ कह कर उन्होंने अपनी काली गरदन के पास उंगली रगड़ कर मैल की गोली बनाई और क्रिकेटर की तरह निशाना साध कर फेंक दी और उदास हो गए.
उन की उदासी मुझ से देखी नहीं गई. पूरे परिवार को भूख से परेशान होने की बात सुन कर मेरा मन द्रवित हो उठा. मैं ने कहा, ‘‘यार, तिवारीजी, मैं कुछ कहूं?’’
मरी हुई आवाज उन के मुंह से निकली, ‘‘बोलो.’’
‘‘मुझे नहीं लगता कि कौए तुम्हारे यहां लंच लेने आएंगे.’’
‘‘क्यों?’’ हैरत से मेरी ओर देखते हुए उन्होंने पूछा.
‘‘यार, जिन्हें तुम न्योता दे रहे हो वे सब तो महाभोज करने में लगे हैं.’’
‘‘कौए, महाभोज, क्या मतलब?’’ तिवारीजी ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘यार, अभी जिस रास्ते से मैं भागता हुआ आ रहा था उस पर एक मरे हुए जानवर को कौए खा रहे थे, तुम ही कहो, आज के दिन इतनी अच्छी नानवेज डिश छोड़ कर वह घासफूस खाने तुम्हारे घर की छत पर क्यों आएंगे?’’
‘‘इस का अर्थ तो यह हुआ कि आज मेरा पूरा परिवार भूखा ही रहेगा.’’
‘‘शायद,’’ मैं ने भी गंभीरता से कहा.
‘‘फिर क्या उपाय हो सकता है?’’ तिवारीजी ने किसी क्लाइंट की तरह मुझ से सलाह मांगी.
‘‘एक उपाय है.’’
‘‘कहो दोस्त, जल्दी कहो, पूरे परिवार को जोरों से भूख लगी है.’’
मैं ने पहले तो अपने दाएंबाएं देखा ताकि मौका मिले तो भाग सकूं. फिर कहा, ‘‘यार, एक भोजन की थाली परोस कर उस मरे हुए जानवर के पास रख आओ. हो सकता है टेस्ट चेंज करने के लिए कौए कुछ खा लें.’’
‘‘आइडिया तो बहुत बढि़या है,’’ कह कर तिवारीजी ने मुझे अपने गले से चिपटा लिया और अपने घर की ओर तेज कदमों से चल दिए ताकि जल्दी से थाली परोस कर मरे ढोर के पास रख सकें, जहां उन के पुरखे उसे ग्रहण कर सकें.