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मुक्ति : हर पल मेरे वजूद में घुसपैठ करने की कोशिश

आज उस का सामना करने के लिए मैं पूरी तरह से तैयार हो कर औफिस गया था.

वह भी लगता था आज कुछ ज्यादा ही मुस्तैद हो कर आया था.

हर रोज तो वह 10 बजे के बाद ही औफिस आता था लेकिन आज जल्दी आ गया था. मुझे पक्का पता था कि आज वह मुझ से पहले ही पहुंच जाएगा. आज पार्किंग में उस की गाड़ी पहले से ही खड़ी थी.

मेरे मन में गुस्से की एक बड़ी सी लहर उठी, यह आदमी बहुत कमीना है. इस से बचना लगभग नामुमकिन है. मैं ने मन ही मन अपनी प्रतिज्ञा दोहराई, ‘आज मैं इस की बातों में नहीं आने वाला.’ मैं ने मन ही मन अपना यह प्रण भी दोहराया कि मैं पिछले कई दिनों से उस से दूर रहने की योजना बना रहा था, अब उस की शुरुआत मैं कर चुका हूं.

कल पूरे दिन उस से दूर रहने में मैं कामयाब रहा था. उस ने कितने फोन किए, बुलावे भेजे, बड़े साहब का नाम ले कर मुझे अपने केबिन में बुलाने की कोशिश की, मगर मैं औफिस से बाहर रहा. वह कहता रहा, ‘कहां है भाई, जल्दी आ जा. लंच में बाजार की सैर करेंगे. आज अच्छी रौनक है.’

मैं अपने इरादे पर अटल रहा. उसे गच्चा देता रहा. फिर 4 बजे के बाद उस ने मुझे फोन किया, ‘कहां है तू? आ जा, आज जिमखाना में बियर पिलाऊंगा.’

मैं ने बहाने बनाए कि अपने काम में बहुत फंसा हुआ हूं.

हद होती है किसी का पीछा करने की. क्या किसी आदमी की अपनी कोई निजता नहीं हो सकती भला? कोई जब चाहे मुझे अपने पीछे लगा ले. क्या मेरा कोई अपना पर्सनल एजेंडा नहीं हो सकता आज का. क्या मेरा मन नहीं करता कि मैं आज का दिन अपनी मरजी से गुजारूं? सदर बाजार की तरफ टहलूं या माल रोड पर? लाइब्रेरी जाऊं या अपनी सीट पर ही सुस्ताऊं? चाय पियूं या कौफी? किसी और का इतना रोब क्यों सहूं. उस का इतना हक क्यों है मेरी दिनचर्या पर.

औफिस आते ही मुझे निर्देश देने लगता है, आज यह करेंगे, वह करेंगे. इतनी आज्ञाकारी तो आदमी की बीवी नहीं होती आजकल. मैं क्यों उस आदमी का इतना पिछलग्गू बन गया हूं.

आज उस से सीधी मुठभेड़ का दूसरा दिन था. आज मेरी असली परीक्षा थी. कल तो औफिस से मैं बाहर था. मेरा बहाना काम कर गया था. आज उस से पीछा छुड़ा सकूं, यही मेरी उपलब्धि रहेगी.

आज अभी मैं अपनी सीट पर आ कर बैठा ही था.

चपरासी ने मेरे सारे अनुभागों के हाजिरी रजिस्टर मेरे सामने ला कर रखे. उन पर अपने दस्तखत कर के मैं ने पहली फाइल खोली ही थी कि इंटरकौम पर उस की कौल आ गई.

मेरे अंदर का डरा हुआ रूप मेरे गुस्से में आ गया. मैं ने तय किया कि मैं आज उस का फोन ही नहीं उठाता. गुस्से के मारे मैं ने घंटी बजाई और अपने मातहत 2 लोगों को बुलाया. फाइल पर ‘चर्चा करें’ लिख कर उसे नीचे पटक दिया.

पिछली रात से ही मैं कुलबुला रहा था कि इस आदमी ने मेरे दिनरात का चैन छीना हुआ है. उस से पीछा कैसे छुड़ाऊं? क्यों इतना डरता हूं मैं उस से. उसे ले कर किस बात का लिहाज है? वह मेरा जीजा लगता है क्या? एक दोस्त ही तो है. मेरे व्यक्तित्व पर इतना नियंत्रण क्यों है उस का? क्या कमी है मुझ में?

मुझ से कितना अलग स्वभाव है उस का. वह हर किसी के मुंह पर कड़वी बात कह देता है. वह हर किसी से लड़ पड़ता है. मैं चुप क्यों रहता हूं? मैं इतना नरम स्वभाव का क्यों हूं? उसे देख कर मुझे अपने अंदर की कमजोरी का एहसास कुछ ज्यादा होता है. उस ने एक लिस्ट बना रखी है औफिस के कुछ मुझ जैसे दब्बू लोगों की. वह दिन में कई बार मेरी इन लोगों में से किसी न किसी से तुलना कर के मेरे अंदर के स्वाभिमान को चोट पहुंचाता रहता है. यही कारण है कि इस आदमी की सोहबत में मैं खुद को हमेशा असहज और दुखी महसूस करता हूं.

मेरे साथ बहुत समय से यह सब चल रहा है. मैं ही इस सब के लिए जिम्मेदार हूं. मेरा दोष है, हर समय अच्छा बने रहना. हर वक्त कूल और शांत. अपने अंदर से चाहे इस बात को ले कर मैं कितना भी दुखी या व्यथित होता रहूं मगर लोगों के सामने मैं उग्र नहीं हो पाता. ऐसा नहीं कि मुझ में प्रतिभा, हुनर या आत्मविश्वास की कमी है. मैं अपनेआप में ठीक हूं. कहीं कोई दिक्कत नहीं है. अहिंसा का पालन मैं ‘बाई डिफौल्ट’ करता हूं. मेरा खून कभीकभी खौलता है. मेरा आधे से ज्यादा समय इस आदमी की बेढंगी और बेकार में थोपी गई बातों से निबटने में ही निकल जाता है.

घर में भी पत्नी या बच्चों के सामने नरम और मधुर स्वभाव बनाए रखना मेरी भरसक कोशिश होती है. अंदर से चाहे लाख गुस्सा आ रहा हो मगर उसे जाहिर न होने देना मेरा कुदरती गुण कह लो या अवगुण. बहुत कम ऐसे मौके आए हैं कि मेरा गुस्सा जगजाहिर हो सका है. एकाध बार गुस्सा किया भी, मगर दोचार पल के लिए ही.

बाकी किसी से कोई समस्या नहीं हुई. यह आदमी औफिस में हर पल मेरा साथ चाहता है. मुझे ले कर ज्यादा ही पोजेसिव हो गया है यह. मैं घर से छुट्टी का आवेदन भेज दूं तो फोन कर के मुझे कोसेगा कि उसे क्यों नहीं बताया उस ने कि आज वह छुट्टी ले रहा है. कहेगा, ‘पहले बताता तो मैं भी छुट्टी ले लेता.’ अरे, मेरे बिना तू मर तो नहीं जाएगा. बहुत बार होता है कि जब वह छुट्टी ले कर घर पर होता है सप्ताह के लिए, मैं तो उसे फोन कर के नहीं बुलाता कि आ जा, मैं मरा जा रहा हूं, तेरे बिना दिल नहीं लग रहा मेरा.

पत्नी भी तंज करती, ‘मुझे वह आदमी पसंद नहीं करता. मुझ से शादी करने से पहले तुम ने उस से पूछा नहीं था क्या?’

यह सच है कि इस आदमी को अपनेआप के सिवा कोई पसंद नहीं.

मैं भी इसलिए उस के साथ हूं, क्योंकि मैं खुल्लमखुला उस का मुंह नहीं नोचता कि बंद कर ये बकबक. तू कोई अनोखा नहीं है कि मेरी हर समय प्रशंसा किए जा.

बहुत से मित्र आए, गए. हर किसी पर उस ने तंज कसे, उन पर अपने थोथे उसूलों को थोपने की बेकार कोशिश की. वे सब तो कुछ ही समय में उस से जान छुड़ा कर अलग हो गए मगर मैं उस के चंगुल में फंसा रहा.

अकसर मुझे कभी फील नहीं हुआ कि यह आदमी मेरे विचारों को इस तरह काबू क्यों करना चाहता है. कभीकभी जब वह मुझे दब्बू या डरपोक कह कर बेइज्जत करता है तो न जाने क्यों मेरे मन में उस के प्रति बदले की भावना उमड़ने लगती है.

मुझ पर वह इतनी अधिकार भावना क्यों जमाता है. मैं सोचता हूं कि हमारी बहुत लंबी और गहरी दोस्ती है. मगर 10-15 दिनों में एक बार मेरे दिल को उस की कोई बात चुभ जाती है. वह अपने कोरे आदर्श मुझ पर लादता रहता है. क्यों मैं पलटवार नहीं करता? मेरी हर बात को वह टोकता है. मैं उसे मुंहतोड़ जवाब क्यों नहीं देता कि तुम दोगले हो, झूठे हो, मक्कार हो.

मैं ने आज अपने केबिन को कमेटीरूम की शक्ल दे दी थी. बहुत सारे केस खोल लिए. मैं दिखाना चाहता था कि मैं हर समय उस के लिए उपलब्ध नहीं हूं. मैं अपनी दिनचर्या अपने हिसाब से तय करूंगा.

उस का मेरे मोबाइल पर कौल आया. वह फुंफकार रहा था, ‘कब आएगा? अबे, चाय ठंडी हो रही है.’

मैं ने जी कड़ा कर के कहा, ‘मैं ने कब कहा था कि मेरे लिए चाय मंगवाओ? मैं मीटिंग में व्यस्त हूं.’

5 मिनट में ही वह मेरे केबिन में था. चेहरा तमतमाया हुआ. कान से मोबाइल लगाए हुए. मुझे टोक कर बोला, ‘कब तक है यह सब?’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. वह झुंझला कर लौट गया. लंच के आसपास वह फिर मेरे पास ही आ गया. हालांकि मुझे कोई काम नहीं था, फिर भी मैं ने साथ के एक औफिस में जाने का प्रोग्राम रख लिया. अपने एक साथी के साथ मैं तुरतफुरत वहां से निकल लिया.

उस शाम बीवी के साथ चाय पीते हुए मुझे संतोष हुआ कि मैं एक आजाद व्यक्तित्व हूं. रोजाना उस आदमी का मुझे अकारण कोसना मुझे कचोटता रहता था. आज मुझे एक अजीब सी मुक्ति का एहसास हुआ.

मिशन पूरा हुआ : लक्ष्मी ने कैसे उसे मजा चखाया

‘‘अरे ओ लक्ष्मी…’’ अखबार पढ़ते हुए जब लक्ष्मी ने ध्यान हटा कर अपने पिता मोड़ीराम की तरफ देखा, तब वह बोली, ‘‘क्या है बापू, क्यों चिल्ला रहे हो?’’

‘‘अखबार की खबरें पढ़ कर सुना न,’’ पास आ कर मोड़ीराम बोले.

‘‘मैं तुम्हें नहीं सुनाऊंगी बापू?’’ चिढ़ाते हुए लक्ष्मी अपने बापू से बोली.

‘‘क्यों नहीं सुनाएगी तू? अरे, मैं अंगूठाछाप हूं न, इसीलिए ज्यादा भाव खा रही है.’’

‘‘जाओ बापू, मैं तुम से नहीं बोलती.’’

‘‘अरे लक्ष्मी, तू तो नाराज हो गई…’’ मनाते हुए मोड़ीराम बोले, ‘‘तुझे हम ने पढ़ाया, मगर मेरे मांबाप ने मुझे नहीं पढ़ाया और बचपन से ही खेतीबारी में लगा दिया, इसलिए तुझ से कहना पड़ रहा है.’’

‘‘कह दिया न बापू, मैं नहीं सुनाऊंगी.’’

‘‘ऐ लक्ष्मी, सुना दे न… देख, दिनेश की खबर आई होगी.’’

‘‘वही खबर तो पढ़ रही थी. तुम ने मेरा ध्यान भंग कर दिया.’’

‘‘अच्छा लक्ष्मी, पुलिस ने उस के ऊपर क्या कार्यवाही की?’’

‘‘अरे बापू, पुलिस भी तो बिकी हुई है. अखबार में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. सब लीपापोती है.’’

‘‘पैसे वालों का कुछ नहीं बिगड़ता है बेटी,’’ कह कर मोड़ीराम ने अफसोस जताया, फिर पलभर रुक कर बोला, ‘‘अरे, मरना तो अपने जैसे गरीब का होता है.’’

‘‘हां बापू, तुम ठीक कहते हो. मगर यह क्यों भूल रहे हो, रावण और कंस जैसे अत्याचारियों का भी अंत हुआ, फिर दिनेश जैसा आदमी किस खेत की मूली है,’’ बड़े जोश से लक्ष्मी बोली.

मगर मोड़ीराम ने कहा, ‘‘वह जमाना गया लक्ष्मी. अब तो जगहजगह रावण और कंस आ गए हैं.’’

‘‘अरे बापू, निराश मत होना. दिनेश जैसे कंस को मारने के लिए भी किसी न किसी ने जन्म ले लिया है.’’

‘‘यह तू नहीं, तेरी पढ़ाई बोल रही है. तू पढ़ीलिखी है न, इसलिए ऐसी बातें कर रही है. मगर यह इतना आसान नहीं है. जो तू सोच रही है. आजकल जमाना बहुत खराब हो गया है.’’

‘‘देखते जाओ बापू, आगेआगे क्या होता है,’’ कह कर लक्ष्मी ने अपनी बात कह दी, मगर मोड़ीराम की समझ में कुछ नहीं आया, इसलिए बोला, ‘‘ठीक है लक्ष्मी, तू पढ़ीलिखी है, इसलिए तू सोचती भी ऊंचा है. मैं खेत पर जा रहा हूं. तू थोड़ी देर बाद रोटी ले कर वहीं आ जाना.’’

‘‘ठीक है बापू, जाओ. मैं आ जाऊंगी,’’ लक्ष्मी ने बेमन से कह कर बात को खत्म कर दिया.

मोड़ीराम खेत पर चला गया. लक्ष्मी फिर से अखबार पढ़ने लगी. मगर उस का ध्यान अब पढ़ने में नहीं लगा. उस का सारा ध्यान दिनेश पर चला गया. दिनेश आज का रावण है. इसे कैसे मारा जाए? इस बात पर उस का सारा ध्यान चलने लगा. उस ने खूब घोड़े दौड़ाए, मगर कहीं से हल मिलता नहीं दिखा.

काफी सोचने के बाद आखिरकार लक्ष्मी ने हल निकाल लिया. तब उस के चेहरे पर कुटिल मुसकान फैल गई.

दिनेश और कोई नहीं, इस गांव का अमीर किसान है. उस के पास ढेर सारी खेतीबारी है. गांव में उस की बहुत बड़ी हवेली है. उस के यहां नौकरचाकर हैं. खेत नौकरों के भरोसे ही चलता है. रकम ले कर ब्याज पर पैसे देना उस का मुख्य पेशा है.

गांव के जितने गरीब किसान हैं, उन को अपना गुलाम बना रखा है. गांव की बहूबेटियों की इज्जत से खेलना उस का काम है. पूरे गांव में उस की इतनी धाक है कि कोई भी उस के खिलाफ नहीं बोलता है.

इस तरह इस गांव में दिनेश नाम के रावण का राज चल रहा था. उस के कहर से हर कोई दुखी था.

‘‘लक्ष्मी, रोटियां बन गई हैं, बापू को खेत पर दे आ,’’ मां कौशल्या ने जब आवाज लगाई, तब वह अखबार एक तरफ रख कर मां के पास रसोईघर में चली गई.

लक्ष्मी बापू की रोटियां ले कर खेत पर जा रही थी, मगर विचार उस के सारे दिनेश पर टिके थे. आज के अखबार में यहीं खबर खास थी कि उस ने अपने फार्म पर गांव के मांगीलाल की लड़की चमेली की इज्जत लूटी थी. गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई थी, मगर ऊपरी जबान से कोई कुछ नहीं कह रहा था कि चमेली की इज्जत दिनेश ने ही लूटी है.

जब लक्ष्मी खेत पर पहुंची, तब बापू खेत में बने एक कमरे की छत पर खड़े हो कर पक्षी भगा रहे थे, वह भी ऊपर चढ़ गई. देखा कि वहां से उस की पूरी फसल दिख रही थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बापू, रोटी खाओ. लाओ, गुलेल मुझे दो, मैं पक्षी भगाती हूं.’’

‘‘ले बेटी संभाल गुलेल, मगर किसी पक्षी को मार मत देना,’’ कह कर मोड़ीराम ने गुलेल लक्ष्मी के हाथों में थमा दी और खुद वहीं पर बैठ कर रोटी खाने लगा.

लक्ष्मी थोड़ी देर तक पक्षियों को भगाती रही, फिर बोली, ‘‘बापू, आप ने यह कमरा बहुत अच्छा बनाया है. अब मैं यहां पढ़ाई करूंगी.’’

‘‘क्या कह रही है लक्ष्मी? यहां तू पढ़ाई करेगी? क्या यह पढ़ाई करने की जगह है?’’

‘‘हां बापू, जंगल की ताजा हवा जब मिलती है, उस हवा में दिमाग अच्छा चलेगा. अरे बापू, मना मत करना.’’

‘‘अरे लक्ष्मी, मैं ने आज तक मना किया है, जो अब करूंगा. अच्छा पढ़ लेना यहां. तेरी जो इच्छा है वह कर,’’ हार मानते हुए मोड़ीराम बोला.

लक्ष्मी खुश हो गई. उस का कमरा इतना बड़ा है कि वहां वह अपनी योजना को अंजाम दे सकती है. इस मकान के चारों ओर मिट्टी की दीवारें हैं और दरवाजा भी है. एक खाट भीतर है. रस्सी और बिजली का इंतजाम भी है. फसलें जब भरपूर होती हैं, तब बापू कभीकभी यहां पर सोते हैं. मतलब वह सबकुछ है, जो वह चाहती है.

इस तरह दिन गुजरने लगे. लक्ष्मी दिन में आ कर अपने खेत वाले कमरे में पढ़ाई करने लगी, क्योंकि इस समय फसल में अंकुर फूट रहे थे, इसलिए बापू भी खेत पर बहुत कम आते थे. पढ़ाई का तो बहाना था, वह रोजाना अपने काम को अंजाम देने के लिए काम करती थी.

अब लक्ष्मी सारी तैयारियां कर चुकी थी, फिर मौके का इंतजार करने लगी. इसी दौरान बापू का उस ने पूरा भरोसा जीत लिया था. इसी बीच एक घटना  गई. बापू के गहरे दोस्त, जो उज्जैन में रहते थे, उन की अचानक मौत हो गई. तब बापू 13 दिन के लिए उज्जैन चले गए. तब लक्ष्मी का मिशन और आसान हो गया.

लक्ष्मी का खेत ऐसी जगह पर था, जहां कोई भी बाहरी शख्स आसानी से नहीं देख सकता था. अब वह आजाद हो गई, इसलिए इंतजार करने लगी दिनेश का.

बापू के न होने के चलते लक्ष्मी अपना ज्यादा समय खेत में बने कमरे पर बिताने लगी. सुबह कालेज जाती थी, दोपहर को वापस गांव में आ जाती थी. और फिर खेत में फसल की हिफाजत के बहाने पक्षियों को भगाती और खुद अपने शिकार का इंतजार करती.

अचानक लक्ष्मी का शिकार खुद ही उस के बुने जाल में आ गया. वह कमरे की छत पर बैठ कर गुलेल से पक्षियों को भगा रही थी, तभी गुलेल का पत्थर उधर से गुजर रहे दिनेश को जा लगा.

दिनेश तिलमिलाता हुआ पास आ कर बोला, ‘‘अरे लड़की, तू ने पत्थर क्यों मारा?’’

‘‘अरे बाबू, मैं ने तुम पर जानबूझ कर पत्थर नहीं मारा. खेत में बैठे पक्षियों को भगा रही थी, अब आप को लग गया, तो इस में मेरी क्या गलती है?’’

‘‘चल, नीचे उतर. अभी बताता हूं कि तेरी क्या गलती है?’’

‘‘मैं कोई डरने वाली नहीं हूं आप से. आती हूं, आती हूं नीचे,’’ पलभर में लक्ष्मी कमरे की छत से नीचे उतर

गई, फिर बोली, ‘‘हां बाबू, बोलो. कहां चोट लगी है तुम्हें? मैं उस जगह को सहला दूंगी.’’

‘‘मेरे दिल पर,’’ दिनेश उस का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हाथ छोड़ बाबू, किसी पराई लड़की का हाथ पकड़ना अच्छा नहीं होता है,’’ लक्ष्मी ने हाथ छुड़ाने की नाकाम कोशिश की.

‘‘हम जिस का एक बार हाथ पकड़ लेते हैं, फिर छोड़ते नहीं,’’ दिनेश ने उस का हाथ और मजबूती से पकड़ लिया.

लक्ष्मी ने देखा कि उस ने खूब शराब पी रखी है. उस के मुंह से शराब का भभका आ रहा था.

लक्ष्मी बोली, ‘‘यह फिल्मी डायलौग मत बोल बाबू, सीधेसीधे मेरा हाथ छोड़ दे.’’

‘‘यह हाथ तो अब हवेली जा कर ही छूटेगा… चल हवेली.’’

‘‘अरे, हवेली में क्या रखा है? आज इस गरीब की कुटिया में चल,’’ लक्ष्मी ने जब यह कहा, तो दिनेश खुद ही कमरे के भीतर चला आया. उस ने खुद दरवाजा बंद किया और पलंग पर बैठ गया. ज्यादा नशा होने के चलते उस की आंखों में वासना के डोरे तैर रहे थे.

लक्ष्मी बोली, ‘‘जल्दी मत कर. मेरी झोंपड़ी भी तेरे महल से कम नहीं है. देख, अब तक तो तू ने हवेली की शराब पी, आज तू झोंपड़ी की शराब पी कर देख. इतना मजा आएगा कि तू आज मस्त हो जाएगा.’’

इस के बाद लक्ष्मी ने पूरा गिलास उस के मुंह में उड़ेल दिया. हलक में शराब जाने के बाद वह बोला, ‘‘तू सही कहती है. क्या नाम है तेरा?’’

‘‘लक्ष्मी. ले, एक गिलास और पी,’’ लक्ष्मी ने उसे एक गिलास और शराब पिला दी. इस बार शराब के साथ नशीली दवा थी. वह चाहती थी कि दिनेश शराब पी कर बेहोश हो जाए, फिर उस ने 2-3 गिलास शराब और पिला दी. थोड़ी देर में वह बेहोश हो गया.

जब लक्ष्मी ने अच्छी तरह देख लिया कि अब पूरी तरह से दिनेश बेहोश है, इस को होश में आने में कई घंटे लगेंगे, तब उस ने रस्सी उठाई, उस का फंदा बनाया और दिनेश के गले में बांध कर खींच दिया. थोड़ी देर बाद ही वह मौत के  आगोश में सो गया.

लक्ष्मी ने पलंग के नीचे पहले से एक गड्ढा खोद रखा था. उस ने पलंग को उठाया और लाश को गड्ढे में फेंक दिया.

लक्ष्मी ने गड्ढे में रस्सी और शराब की खाली बोतलें भी हवाले कर दीं. फिर फावड़ा ले कर वह मिट्टी डालने लगी.

मिट्टी डालते समय लक्ष्मी के हाथ कांप रहे थे. कहीं दिनेश की लाश जिंदा हो कर उस पर हमला न कर दे. जब गड्ढा मिट्टी से पूरा भर गया, तब उस ने उस जगह पर पलंग को बिछा दिया. फिर कमरे पर ताला लगा कर वह जीत की मुसकान लिए बाहर निकल गई.

कलंक : रधिया की बेटी गंगा को आखिर किस ने मैला कर दिया

अपनी बेटी गंगा की लाश के पास रधिया पत्थर सी बुत बनी बैठी थी. लोग आते, बैठते और चले जाते. कोई दिलासा दे रहा था तो कोई उलाहना दे रहा था कि पहले ही उस के चालचलन पर नजर रखी होती तो यह दिन तो न देखना पड़ता.

लोगों के यहां झाड़ूबरतन करने वाली रधिया चाहती थी कि गंगा पढ़ेलिखे ताकि उसे अपनी मां की तरह नरक सी जिंदगी न जीनी पड़े, इसीलिए पास के सरकारी स्कूल में उस का दाखिला करवाया था, पर एक दिन भी स्कूल न गई गंगा. मजबूरन उसे अपने साथ ही काम पर ले जाती. सारा दिन नशे में चूर रहने वाले शराबी पति गंगू के सहारे कैसे छोड़ देती नन्ही सी जान को?

गंगू सारा दिन नशे में चूर रहता, फिर शाम को रधिया से पैसे छीन कर ठेके पर जाता, वापस आ कर मारपीट करता और नन्ही गंगा के सामने ही रधिया को अपनी वासना का शिकार बनाता.

यही सब देखदेख कर गंगा बड़ी हो रही थी. अब उसे अपनी मां के साथ काम पर जाना अच्छा नहीं लगता था. बस, गलियों में इधरउधर घूमनाफिरना… काजलबिंदी लगा कर मतवाली चाल चलती गंगा को जब लड़के छेड़ते, तो उसे बहुत मजा आता.

रधिया लाख कहती, ‘अब तू बड़ी हो गई है… मेरे साथ काम पर चलेगी तो मुझे भी थोड़ा सहारा हो जाएगा.’

गंगा तुनक कर कहती, ‘मां, मुझे सारी जिंदगी यही सब करना है. थोड़े दिन तो मुझे मजे करने दे.’

‘अरी कलमुंही, मजे के चक्कर में कहीं मुंह काला मत करवा आना.

मुझे तो तेरे रंगढंग ठीक नहीं लगते.

यह क्या… अभी से बनसंवर कर घूमतीफिरती रहती है?

इस पर गंगा बड़े लाड़ से रधिया के गले में बांहें डाल कर कहती, ‘मां, मेरी सब सहेलियां तो ऐसे ही सजधज कर घूमतीफिरती हैं, फिर मैं ने थोड़ी काजलबिंदी लगा ली, तो कौन सा गुनाह कर दिया? तू चिंता न कर मां, मैं ऐसा कुछ न करूंगी.’

पर सच तो यही था कि गंगा भटक रही थी. एक दिन गली के मोड़ पर अचानक पड़ोस में ही रहने वाले 2 बच्चों के बाप नंदू से टकराई, तो उस के तनबदन में सिहरन सी दौड़ गई. इस के बाद तो वह जानबूझ कर उसी रास्ते से गुजरती और नंदू से टकराने की पूरी कोशिश करती.

नंदू भी उस की नजरों के तीर से खुद को न बचा सका और यह भूल बैठा कि उस की पत्नी और बच्चे भी हैं. अब तो दोनों छिपछिप कर मिलते और उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी थीं.

पर इश्क और मुश्क कब छिपाए छिपते हैं. एक दिन नंदू की पत्नी जमना के कानों तक यह बात पहुंच ही गई, तो उस ने रधिया की खोली के सामने खड़े हो कर गंगा को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘अरी गंगा, बाहर निकल. अरी कलमुंही, तू ने मेरी गृहस्थी क्यों उजाड़ी? इतनी ही आग लगी थी, तो चकला खोल कर बैठ जाती. जरा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचा होता. नाम गंगा और काम देखो करमजली के…’

3 दिन के बाद गंगा और नंदू बदनामी के डर से कहीं भाग गए. रोतीपीटती जमना रोज गंगा को कोसती और बद्दुआएं देती रहती. तकरीबन 2 महीने तक तो नंदू और गंगा इधरउधर भटकते रहे, फिर एक दिन मंदिर में दोनों ने फेरे ले लिए और नंदू ने जमना से कह दिया कि अब गंगा भी उस की पत्नी है और अगर उसे पति का साथ चाहिए, तो उसे गंगा को अपनी सौतन के रूप में अपनाना ही होगा.

मरती क्या न करती जमना, उसे गंगा को अपनाना ही पड़ा. पर आखिर तो जमना उस के बच्चों की मां थी और उस के साथ उस ने शादी की थी, इसलिए नंदू पर पहला हक तो उसी का था.

शादी के 3 साल बाद भी गंगा मां नहीं बन सकी, क्योंकि नंदू की पहले ही नसबंदी हो चुकी थी. यह बात पता चलते ही गंगा खूब रोई और खूब झगड़ा भी किया, ‘क्यों रे नंदू, जब तू ने पहले ही नसबंदी करवा रखी थी तो मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

नंदू के कुछ कहने से पहले ही जमना बोल पड़ी, ‘आग तो तेरे ही तनबदन में लगी थी. अरी, जिसे खुद ही बरबाद होने का शौक हो उसे कौन बचा सकता है?’

उस दिन के बाद गंगा बौखलाई सी रहती. बारबार नंदू से जमना को छोड़ देने के लिए कहती, ‘नंदू, चल न हम कहीं और चलते हैं. जमना को छोड़ दे. हम दूसरी खोली ले लेंगे.’

इस पर नंदू उसे झिड़क देता, ‘और खोली के पैसे क्या तेरा शराबी बाप देगा? और फिर जमना मेरी पत्नी है. मेरे बच्चों की मां है. मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’

इस पर गंगा दांत पीसते हुए कहती, ‘उसे नहीं छोड़ सकता तो मुझे छोड़ दे.’

इस पर गंगू कोई जवाब नहीं देता. आखिर उसे 2-2 औरतों का साथ जो मिल रहा था. यह सुख वह कैसे छोड़ देता. पर गंगा रोज इस बात को ले कर नंदू से झगड़ा करती और मार खाती. जमना के सामने उसे अपना ओहदा बिलकुल अदना सा लगता. आखिर क्या लगती है वह नंदू की… सिर्फ एक रखैल.

जब वह खोली से बाहर निकलती तो लोग ताने मारते और खोली के अंदर जमना की जलती निगाहों का सामना करती. जमना ने बच्चों को भी सिखा रखा था, इसलिए वे भी गंगा की इज्जत नहीं करते थे. बस्ती के सारे मर्द उसे गंदी नजर से देखते थे.

मांबाप ने भी उस से सभी संबंध खत्म कर दिए थे. ऐसे में गंगा का जीना दूभर हो गया और आखिर एक दिन उस ने रेल के आगे छलांग लगा दी और रधिया की बेटी गंगा मैली होने का कलंक लिए दुनिया से चली गई.

सरकारी दफ्तर में फतह पाने के नुस्खे

‘‘जीवन में मृत्यु निश्चित है’’ -इस उक्ति में संशोधन करते हुए आधुनिक अर्थशास्त्र के प्रवर्तक कहे जाने वाले एडम स्मिथ ने कहा था, ‘‘जीवन में मृत्यु और कर, दो ऐसी चीजें हैं जो अपरिहार्य हैं और इन से बचा नहीं जा सकता.’’ यदि एडम स्मिथ आज के युग में होता तो वह तीसरी अपरिहार्यता या विवशता की ओर भी अवश्य ही संकेत करता और यह तीसरी अपरिहार्य वस्तु होती—आम आदमी द्वारा सरकारी दफ्तरों में जाने की जानलेवा विवशता.

हम तो कहते हैं कि आप के दुश्मन को भी सरकारी दफ्तर में न जाना पड़े. पर इस के बावजूद शायद यह प्रकृति की विवशता है कि आप जिस से मुक्ति चाहते हैं उस से बचा नहीं जा सकता. जन्म से पहले ही प्रसव के लिए भावी माता ने सरकारी अस्पताल में नाम लिखवा रखा हो तो आश्चर्य की बात नहीं. फिर जन्म के पंजीयन से ले कर मृत्यु तक आप को सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने ही काटने हैं.

यह तो सरकार की कृपा ही है कि आप को अपनी मृत्यु का भी खुद ही पंजीयन नहीं करवाना पड़ता. पर मृत्यु का पंजीयन कराना आप के उत्तराधिकारियों के लिए आवश्यक है. इस बात की सूचना आएदिन समाचारपत्रों और टेलीविजन द्वारा दी जाती है. पर इस के बावजूद आप ने अकसर समाचारपत्रों में पढ़ा होगा कि अमुकअमुक की मृत्यु के बाद भी उस के नाम सरकारी आदेश जारी होते रहे. उस का राशन भी लिया जाता रहा और वह सरकारी कागजों में बाकायदा जीवित रहा.

यदि आप भूल से बीच के किसी माह की पेंशन नहीं लेते हैं और यह गलती बाद के कुछ महीनों की पेंशन लेने के बाद सामने आती है तो आप को यह प्रमाणपत्र भी देना होगा कि आप 6 माह पूर्व भी जीवित थे. आप चाहे आज जिंदा हों, पर इस से पूर्व भी आप जीवित थे, इस के पुख्ता प्रमाण के बिना आप के कागज आगे नहीं सरकेंगे.

हमारे देश में हर छोटी से छोटी बात को ले कर शास्त्र लिख दिए गए हैं, संहिताएं बना दी गई हैं, मृतक के क्रियाकर्म का विधान तक गरुड़ पुराण में बता दिया गया है पर खेद है कि हमारे विद्वान बुद्धिजीवी आप को अभी तक यह नहीं बता पाए हैं कि सरकारी दफ्तर में आप कैसे प्रवेश करें और किस तरीके से व्यवहार करें.

इसीलिए सरकारी दफ्तर या संस्थान में आप की कदमकदम पर फजीहत होती है. आप को बारबार अपमानित होना पड़ता है. ऐसी स्थिति से बचने के लिए हम आप को कुछ गुर बता रहे हैं. इन गुरों को गांठ बांध लें. हमारा विश्वास है कि वक्तबेवक्त ये आप के काम आएंगे.

पापी पेट का सवाल है

सरकारी दफ्तर एक ऐसा युद्धक्षेत्र है जहां सभी आप के दुश्मन हैं. वहां आप का कोई सगासंबंधी हो, तो भी वह आप की तरफ नजर उठा कर भी नहीं देखेगा. कारण यह कि वहां जो दावत होती है उस में आप की भूमिका सक्रिय न हो कर निश्चेष्ट होती है, क्योंकि वहां आप ही को खाया जाता है. जब आप खाद्य पदार्थ हैं तो ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या’ वाली उक्ति पूर्ण रूप से चरितार्थ होती है.

फिर जो काम पैसा करता है वह काम आप के सगे पिताजी भी नहीं कर सकते. कहा भी गया है, ‘दादा बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपैया.’ इसलिए जब आप सरकारी दफ्तर में घुसें तो अपनेआप को भामाशाह समझें. इसी में आप का हित है. वहां कृपणता के लिए तनिक भी स्थान नहीं है. आप कितने भी गरीब क्यों न हों, आप से यह उम्मीद की जाती है कि आप सरकारी दफ्तर में जा कर वहां के कर्मचारियों की गरीबी दूर करें. आखिर पापी पेट का सवाल है.

आप को यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी कर्मचारियों के भी बालबच्चे हैं. और फिर उन्हें वेतन मिलता ही कितना है? और भला आज के महंगाई के युग में मात्र वेतन से किस का काम चलता है? यदि आप को यहां कुछ प्राप्त करना है तो पहले दीजिए. गांधीजी का उठा हुआ हाथ हर दफ्तर के आगंतुकों को कम से कम 5 रुपए देने का तो स्पष्ट निर्देश देता ही है.

आप ने उन के 3 बंदरों की भी कहानी सुनी होगी. यदि आप को उन के संकेतों का अर्थ ज्ञात नहीं तो हम बता देते हैं. आप सरकारी कर्मचारियों की बुराइयों और कमजोरियों की ओर न देखें. उन के बारे में कुछ कहें नहीं और उन के बारे में कुछ सुनें भी नहीं.

सरकारी दफ्तर में सब से अधिक महत्त्वपूर्ण जीव है, लिपिक यानी बाबू. उस का पेट अजगर की तरह होता है. वह बहुत ही मुश्किल से हिल पाता है अर्थात आप के लिए कुछ कर पाना उस के लिए एक कठिन तपस्या है. चपरासी वहां गणेशजी का जीवित रूप है जिसे प्रसन्न किए बिना आज तक कोई भी व्यक्ति कुछ पा नहीं सका है. उसे नाराज कर कोई भी व्यक्ति सुख की नींद नहीं सो सका है.

सरकारी दफ्तर में बाबू ही सबकुछ करता है. वही मिसिलों का नियामक है, उन्हें चलाता है. अफसर तो मात्र दस्तखत करता है. वह यदि चाहे तो भी अपने बाबू के विरुद्ध नहीं जा सकता, क्योंकि वह भी बाबू पर ही निर्भर करता है. वह जल में रह कर मगर से वैर नहीं कर सकता. इसलिए बाबू ने जो कह दिया या लिख दिया, वही अंतिम है. उस के विरुद्ध न कोई अपील है और न कोई फरियाद.

चपरासी इसी बाबू का दायां हाथ है. मिसिल ढूंढ़ने का सारा उत्तरदायित्व उसी का है. इसलिए मिसिल का मिलना उस की कृपा पर निर्भर करता है. यह कृपा बिकती है. बाजार की हर चीज की तरह यह खरीदी जा सकती है, बशर्ते कि आप की जेब में पैसा हो.

जब भी आप सरकारी दफ्तर में जाएं तो आप को चाहिए कि आप झुक कर चलें, चाहे आप की लंबाई के कारण आप को गरदन झुकाने में कष्ट ही क्यों न हो. कारण यह कि सरकारी दफ्तर में काम करवाना तो एक तपस्या है. यहां का नारा है, ‘‘जो हम से टकराएगा, चूरचूर हो जाएगा.’’

इसलिए याद रखिए कि यहां सभी पूज्य हैं और वंदनीय हैं. आप यहां किसी की उपेक्षा न करें, पता नहीं कब किस से आप का काम पड़ जाए. इसलिए नई बहू की तरह आप सभी का पालागन करें.

सरकारी दफ्तर में जा कर आप किसी के सामने बैठने की जुर्रत न करें. यों तो आप को कोई कुरसी वहां मिलेगी ही नहीं, पर अगर मिल भी जाए तो आप उस पर बैठ न जाएं, आगंतुक को बाबू के सामने खड़े रह कर ही बात करनी होती है. आप इस भ्रम में न रहें कि आप उस के वेतन से कहीं अधिक आयकर देते हैं. वहां तो बड़ा वही है और बड़ों के सामने बैठा नहीं जाता. चपरासी को आप वहां ‘साहबजी’ बोलिए, बाबू को ‘जैसी हुजूर की आज्ञा.’

याद रखिए, इन लोगों का काटा हुआ पानी भी नहीं मांगता. ये आप को वह पटकनी दे सकते हैं जो आप उम्र भर नहीं भूल सकेंगे. जानबूझ कर की गई इन की कोई भी करतूत आप के लिए जान का जंजाल बन जाएगी. ये लोग पूरे घाघ होते हैं. आप जैसे परम सयाने इन से रोज ही टकराते हैं और उन का वही हाल होता है जो पत्थर से टकराने पर होता है. ये पत्थर हैं जो पसीजते नहीं.

सहनशील और धैर्यवान बनिए

सरकारी दफ्तर में जाने से पहले आप को अत्यंत सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए. दफ्तर में आप को कितना भी अपमानित किया जाए, आप मुसकराते ही रहें. यदि दोपहर से कुछ पहले आप वहां पहुंचें. तो संबंधित अमले को दोपहर के खाने के लिए अवश्य आमंत्रित करें.

यदि दफ्तर में बाबू अपनी कुरसी पर नहीं है तो व्यर्थ में शोर न करें. आप कल फिर आ जाइए. दफ्तर कल भी खुलेगा.

याद रखिए कि किसी बाबू की अनुपस्थिति में उस का काम कोई दूसरा बाबू कदापि नहीं करेगा. वह काम जानता हो, तो भी एकदूसरे की रोजीरोटी का खयाल रखना भी इन का दायित्व है. अफसर के पास जा कर यह कहने की भयावह गलती आप न करें कि बाबू अपनी जगह पर नहीं है. यदि वह कहीं गया है तो इंतजार कीजिए. हो सकता है कि उसे कोई निजी, पर जरूरी काम हो.

क्या वह अपना जरूरी काम दफ्तर के समय में नहीं निबटा सकता? आखिर सभी दफ्तर 5 बजे बंद जो हो जाते हैं, इसलिए अपना काम करवाने वह इसी बीच तो जाएगा. अब हर छोटेमोटे काम के लिए वह आकस्मिक अवकाश तो लेगा नहीं.

इसी प्रकार यदि वह दोपहर के भोजन के बाद देर से आता है या घंटों चायपान में मशगूल है तो आप को इसे सहन करना चाहिए. जीवन की हमारी सभी भागदौड़ इस पेट के लिए ही तो है. यदि वह दिन भर खाता है या चरता है तो आप को कष्ट नहीं होना चाहिए.

उस का चायपान भी आप के हित में है. वह आप का काम भी तो सुस्ती भगा कर ही करेगा. बिना पान खाए भी वह काम नहीं कर सकता. इसलिए बेहतर यही है कि आप पानदान और सिगरेट की डब्बी अपने साथ ले कर जाएं, इस में भी आप का ही भला है.

यदि वह अपने साथियों से गप भी मार रहा है तो आप चुप रहें. यदि चालू मसलों पर दफ्तर के समय में संगीसाथियों से बहस नहीं होगी तो भला कब होगी? 5 बजे के बाद तो सभी को अपनेअपने घर की ओर भागने की जल्दी होती है. यह भी स्वाभाविक है कि सवेरे दफ्तर आने में कभी उसे देर हो जाए. उस समय भी बेहतर यही होगा कि आप कहें, ‘‘क्षमा कीजिए, मैं जरा जल्दी ही आ गया था.’’

यदि वह सो रहा हो तो उसे जगाने का साहस आप न करें. चुपचाप बैठ कर उस के जागने की प्रतीक्षा करें. रात में न तो मच्छर सोने देते हैं और न बच्चे. कभी बच्चों की बीमारी नींद में बाधा डालती है तो कभी गरमी. अब आप ही बताइए कि दफ्तर के वातानुकूलित कमरे में क्या नींद नहीं आएगी?

दफ्तर में ही बाबू अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों से टेलीफोन द्वारा संपर्क कर पाता है. आप को यह कहने का हक नहीं है कि वह फोन पर गपशप कर रहा है. घंटों फोन करते रहना उस का अधिकार है. फोन पर कही जाने वाली उस की बातें आप को कितनी ही व्यर्थ क्यों न लगें, उस के लिए उन का महत्त्व है. इसलिए आप उसे रोकिएटोकिए नहीं.

यह सही है कि आप जैसे आगंतुकों की सेवा के लिए ही उसे उस दफ्तर में नियुक्त किया गया है पर पहले वह अपनी सेवा करेगा. अपने परिवार की सेवा करेगा, बाद में अवसर मिला तो आप की भी.

‘गरीबी हटाओ’ नारे के संबंध में भी तो यही हुआ है. जबजब यह नारा लगाया गया है तबतब हर बार कर्णधारों और कर्मचारी वर्ग की ही गरीबी दूर हुई है. गरीबों की गरीबी हटने के अभी तक तो कोई आसार दिखाई नहीं देते. बाद की बाद में देखी जाएगी.

यों कहने को तो बहुत कुछ है पर फिर भी समझदार आदमी के लिए इतने ही गुर बहुत हैं. याद रखिए, दफ्तरों से आप का वास्ता तो रोजरोज ही पड़ेगा. यदि आप इन सिद्धांतों पर अमल करेंगे तो सरकारी दफ्तर में जा कर भी सही- सलामत लौटेंगे. हां, जेब कुछ हलकी जरूर हो जाएगी, वरना वहां आप को ऐसेऐसे कटु अनुभव होंगे कि आप सरकारी दफ्तर में जाना तो एक ओर रहा, सरकारी दफ्तर की ओर पांव कर के भी नहीं सोना चाहेंगे.

सरकारी दफ्तर एक अनिवार्य बुराई है. आप का और सरकारी दफ्तर का अस्तित्व एकदूसरे पर आधारित है. कहना चाहिए कि अन्योन्याश्रित है. आप हैं इसलिए सरकारी दफ्तर और सरकारी दफ्तरों के लोग हैं. वे लोग हैं और सरकारी दफ्तर हैं, इसीलिए तो आप हैं. यह तो चोलीदामन का साथ है.

यह संबंध एक बार स्थापित तो होना ही है. और एक बार स्थापित हो गया तो फिर अनंत काल तक यह संबंध बना ही रहता है. आप को तो इस अनचाहे रिश्ते को निभाना ही है. बेहतर है कि इसे हंस कर ही निभाएं. जब ओखली में सिर आ ही गया है तो फिर मूसल से क्या डरना.

अपनी दफ्तर की यात्रा को आप कंटकाकीर्ण क्यों बनाते हैं? थोड़ी सी उदारता, तनिक सी कृत्रिम हंसी इसे सुखद बना देगी. अंत भला तो सब भला. जिन की कृपा से अच्छा फल मिलता हो, उन की कृपा तो आप अर्जित कर ही सकते हैं और करनी चाहिए. इस के लिए आप को तन, मन और धन से सदा तत्पर रहना चाहिए.

फिल्म ‘स्पैशल 26’ की तर्ज पर ‘Special 9’ बना कर करोड़ों की ठगी

फिल्म ‘स्पैशल 26’ की तर्ज पर जबलपुर के बैंक अधिकारियों ने ‘स्पैशल 9’ गैंग बनाई. गैंग के सदस्यों का काम फरजी रजिस्ट्रियों के जरिए बैंकों से लाखों रुपए का लोन लेना होता था. आप भी जानिए कि इस गैंग ने फरजी रजिस्ट्रियां कैसे तैयार कीं और उन के जरिए बैंकों को करोड़ों का चूना कैसे लगाया?

गैंग के सदस्यों ने शुरुआत में सरकारी बैंकों को टारगेट किया, लेकिन सफलता नहीं मिली. औनलाइन केवाईसी के सर्च के दौरान बैंक अधिकारियों को पता चल जाता था कि ये डाक्यूमेंट्स सही नहीं हैं और लोन एप्लिकेशन रिजेक्ट हो जाती थी. इस वजह से गैंग ने प्राइवेट बैंकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. मकसद पूरा हो जाने के बाद स्पैशल 9’ गैंग में पैसों का बंटवारा काम के आधार पर होता था. किस का क्या काम है, कितना कठिन है, उस हिसाब से पैसा बांटा जाता था. 

चूंकि प्रवीण पांडे अकाउंट होल्डर था और लोन के लिए फरजी रजिस्ट्री लगाने के बाद जो पैसा खाते में आता था, वह प्रवीण पांडे के नाम पर आता था. खाते में पैसा आने के बाद गिरोह के सभी 9 सदस्य किसी होटल में इकट्ठा होते और फिर अनुभव, संदीप और विकास के इशारे पर रुपयों का बंटवारा होता था. उस दिन अगस्त महीने की 5 तारीख थी और सुमित घर पर खाना खा कर अपने काम से निकलने ही वाला था कि हिंदुजा बैंक के कुछ कर्मचारी उस के घर पहुंचे. परिचय के बाद बैंक कर्मचारियों में से एक कर्मचारी ने सुमित से कहा, ”आप ने अभी तक अपने लोन की एक भी किस्त जमा नहीं की है और न ही बैंक से संपर्क किया. आप ने अपना मोबाइल भी बंद कर रखा है.’’

बैंक कर्मचारी की बात सुन कर सुमित अचरज में पड़ गया, उस ने बैंक कर्मचारियों से कहा, ”आप शायद गलत पते पर आ गए हैं, मैं ने तो बैंक से अभी कोई लोन नहीं लिया है. हां, लोन के लिए प्लौट की रजिस्ट्री की फोटोकापी जरूर एक कर्मचारी को दी थी.’’

देखिए, आप के नाम से हिंदुजा बैंक में 20 लाख रुपए का लोन लिया गया है, जिस की एक भी किस्त आप के द्वारा नहीं भरी गई है. अगर आप किस्त जमा नहीं करेंगे तो आप का यह प्लौट बैंक बंधक रख लेगी.’’ बैंक कर्मचारी ने कहा. सुमित ने बैंक कर्मचारियों को समझाने की लाख कोशिश की, मगर वह सुमित की बात पर भरोसा करने को तैयार नहीं थे. दूसरे दिन सुमित ने हिंदुजा बैंक जा कर बैंक अधिकारियों से मुलाकात की तो बैंक अधिकारियों ने उसे लोन के सारे कागजात दिखा दिए. सुमित यह देख कर दंग रह गया कि उस के नाम के कागजात जमा कर के किसी ने लोन ले लिया था.

मध्य प्रदेश के शहर जबलपुर के गढ़ा फाटक इलाके में रहने वाले सुमित काले ने इस मामले की शिकायत स्थानीय पुलिस और वरिष्ठ अधिकारियों से की, मगर उसे आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला. सुमित ने किसी से सुना था कि स्पैशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) को जटिल से जटिल मामलों को सुलझाने में महारथ हासिल है. इसलिए सुमित ने 10 अगस्त, 2024 को एसटीएफ का दरवाजा खटखटाया. सुमित अपनी लिखित शिकायत ले कर एसटीएफ के जबलपुर औफिस पहुंचा और एक कमरे के बाहर लगी हुई नेम प्लेट को उस ने ध्यान से पढ़ा. नेम प्लेट पर संतोष तिवारी, डीएसपी, एसटीएफ पढ़ कर उस ने बाहर बैठे अर्दली को बताया कि वह डीएसपी सर से मिलना चाहता है. 

अर्दली ने डीएसपी संतोष तिवारी को जा कर बताया, ”सर, एक युवक किसी काम से आप से मिलना चाहता है.’’ उन्होंने परमिशन देते हुए उसे अंदर भेजने को कह दिया.

अंदर की आवाज सुमित को साफ सुनाई दे रही थी. अर्दली बाहर आ कर उस से कुछ कहता, इस के पहले ही सुमित डीएसपी के केबिन में दाखिल हो गया. सुमित ने उन्हें एक लिखित शिकायत देते हुए कहा, ”सर, मेरा नाम सुमित काले है. मैं एक बिल्डर की कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करता हूं. किसी ने मेरे प्लौट की फरजी रजिस्ट्री बैंक में दे कर मेरे नाम से लोन लिया है.’’

”लेकिन यह कैसे संभव है, बैंक में रजिस्ट्री के अलावा दूसरे कागजात भी तो लिए जाते हैं.’’ डीएसपी संतोष तिवारी बोले.

सर, यही तो मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मेरे नाम के फरजी आधार कार्ड, पैन कार्ड बना कर हिंदुजा बैंक में किसी और को सुमित काले बना कर खड़ा कर एक प्लौट की रजिस्ट्री जमा कर कैसे लाखों रुपए का लोन लिया गया है,’’ सुमित बोला.

जालसाजी में क्यों शामिल हुए बैंक अधिकारी

सुमित ने डीएसपी संतोष तिवारी को बताया कि उस ने कुछ महीने पहले एक बैंक कर्मचारी को लोन के लिए रजिस्ट्री की फोटोकापी दी थी, लेकिन उस ने लोन नहीं लिया था.सुमित की शिकायत को गंभीरता से लेते हुए डीएसपी संतोष तिवारी ने सुमित को जांच करने का भरोसा दिलाया. डीएसपी ने इस पूरे मामले की जांच का जिम्मा इंसपेक्टर निकिता शुक्ला को सौंपा. उन्होंने जांच के लिए एसटीएफ टीम को हिंदुजा बैंक भेजा. एसटीएफ टीम ने बैंक पहुंच कर सुमित के लोन पेपर खंगाले तो बैंक में भी हड़कंप मच गया. एसटीएफ टीम ने लोन के लिए जमा रजिस्ट्री को जब्त कर रजिस्ट्री कार्यालय से सत्यापन करवाया तो चौंकाने वाला खुलासा हुआ. 

रजिस्ट्री औफिस के कर्मचारियों ने बताया कि जमीन की रजिस्ट्री तो सुमित काले की है, लेकिन उस पर फोटो किसी और की लगी थी. पुलिस टीम ने रजिस्ट्री पेपर पर लगी फोटो की तहकीकात की तो जांच में पता चला कि यह फोटो किसी विकास तिवारी की है. एसटीएफ को अब यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि यह काम फरजी रजिस्ट्री के नाम पर बैंक से लोन लेने वाले किसी गिरोह का है. एसटीएफ ने सब से पहले विकास तिवारी को हिरासत में लिया और जब उस से सख्ती से पूछताछ की तो पूछताछ में विकास ने अपने गिरोह के सभी सदस्यों के नामों को उजागर कर दिया.

उस ने एसटीएफ को बताया कि इस काम में 9 लोगों की पूरी एक गैंग का हाथ है. इस ‘स्पैशल 9’ गैंग को एक्सिस बैंक का पूर्व मैनेजर अनुभव दुबे और संदीप चौबे लीड करते थे. दोनों ही बैंक के अधिकारी हैं. एसटीएफ के एसपी राजेश सिंह भदौरिया के निर्देश पर डीएसपी संतोष तिवारी और इंसपेक्टर निकिता शुक्ला ने जब इस केस से जुड़े लोगों से पूछताछ की तो पता चला कि बैंक में फरजी रजिस्ट्री जमा कर लोन लेने वाला यह बड़ा गिरोह है, जिस के तार न सिर्फ मध्य प्रदेश बल्कि अन्य राज्यों से भी जुड़े हुए  हैं. गैंग ने अभी तक लोन के नाम पर करीब 6 करोड़ रुपए शहर के अलगअलग बैंकों से ठगे हैं. गिरोह के सदस्यों ने इतनी चालाकी से काम किया कि न तो बैंक अधिकारियों को जानकारी लगी और न ही उस व्यक्ति को, जिस के नाम की फरजी रजिस्ट्री लगा कर लोन लिया गया. 

इस मामले में एसटीएफ में बीएनएस  धारा के तहत अपराध दर्ज किया गया. एसटीएफ ने 22 अगस्त को सभी 9 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया और प्रैस कौन्फ्रैंस में मामले का खुलासा किया. स्पैशल 9’ गैंग के लोग बेहद शातिर थे और इस काम के लिए ऐसे निजी बैंकों का चुनाव करते थे, जिन में औनलाइन केवाईसी नहीं होती है. जबलपुर के तिलहरी इलाके में रहने वाला 27 साल का अनुभव दुबे और अनमोल सिटी निवासी 34 साल का संदीप चौबे स्पैशल 9 गैंग के लीडर थे. दोनों ही बैंक में अधिकारी थे और अधिकारी होने की वजह से दोनों जानते थे कि राष्ट्रीयकृत बैंकों में केवाईसी कराने में बहुत परेशानी होती है, इसलिए उन बैंकों को चुना जाए, जहां ईकेवाईसी नहीं होती है.

प्राइवेट बैंकों को ही क्यों बनाया निशाना

एसटीएफ की जांच में पता चला है कि इस शातिर गैंग के सदस्यों द्वारा अभी तक एक्सिस बैंक से करीब 50 लाख रुपए, हिंदुजा बैंक से करीब 3 करोड़ रुपए, जना बैंक से करीब एक करोड़ रुपए और ग्रामीण सहकारी बैंक से करीब 50 लाख रुपए का लोन फरजी रजिस्ट्री लगा कर लिया गया है. जिस तरह तेलगी ने नकली स्टांप छाप कर करोड़ों रुपए का घोटाला किया था, ठीक उसी तर्ज पर इस गैंग ने फरजी रजिस्ट्री बना कर करोड़ों रुपए का गोलमाल कर बैंकों को चूना लगाया है और भोलेभाले लोगों के नाम पर लोन ले कर उन को मुसीबत में डाल दिया है.

एसटीएफ इंसपेक्टर निकिता शुक्ला और उन की टीम ने काफी मशक्कत कर इस गैंग से जुड़े लोगों को हिरासत में ले कर पूछताछ की तो कई चौंकाने वाले खुलासे हुए. ‘स्पैशल 9’ गैंग का एक सदस्य 41 साल का प्रवीण पांडे जबलपुर के वीएफजे एस्टेट का रहने वाला है, जो लोन पास होने के बाद अकाउंट होल्डर बनता था. वह अलगअलग नामों से बैंकों में अकाउंट खुलवाता था. प्रवीण ने कभी शेख सलीम तो कभी प्रवीण काले बन कर शहर के एक नहीं बल्कि कई बैंकों में अपने खाते खुलवाए और दूसरे साथियों की मदद से फिर फरजी रजिस्ट्री जमा कर लोन हासिल कर लिया. जबलपुर के एक्सिस बैंक में अनुभव दुबे और हिंदुजा बैंक में संदीप चौबे की मदद से प्रवीण द्वारा अलगअलग नाम की फरजी रजिस्ट्री लगा कर लाखों रुपए के लोन लिए गए.

गिरोह का एक और सदस्य 31 साल का पुनीत उर्फ राहुल पांडे है, जो टीआईटी बिल्डिंग, पुलिस लाइन का निवासी है और जबलपुर के माढोताल इलाके में स्थित जना बैंक का कर्मचारी है. इस की मदद से प्रवीण ने जना बैंक में भी 6 फरजी रजिस्ट्री पेपर लगा कर करीब एक करोड़ रुपए का लोन ले लिया. इस के अलावा प्रवीण ने एक्सिस बैंक, जना बैंक, हिंदुजा बैंक, इंडिया शेल्टर हाउसिंग फाइनैंस से भी अच्छाखासा लोन लिया था. एसटीएफ की जांच में इस बात की पुष्टि हुई है कि स्पैशल 9’ गैंग ने अभी तक करीब 6 करोड़ का लोन ले कर फ्राड किया है. जांच में एसटीएफ को और भी लोगों के शामिल होने की जानकारी मिली है, जिस की जांच अभी चल रही है.

कैसे तैयार करते थे फरजी रजिस्ट्री

गोकुलपुर का रहने वाला 30 साल का विकास तिवारी लोगों से लोन के लिए संपर्क करता था और लोन चाहने वालों से उन की रजिस्ट्री की फोटोकापी ले लिया करता था. इस के बाद अनुभव, पुनीत और संदीप रजिस्ट्री को चैक करने के बाद लालमाटी इलाके में फोटोकापी की दुकान चलाने वाले 34 साल के लकी उर्फ लखन प्रजापति की दुकान में ले कर जाते थे, जहां पर लकी द्वारा फरजी रजिस्ट्री तैयार की जाती थी. लकी इस काम में इतना माहिर था कि रजिस्ट्री में लगाए गए स्टांप भी कलर फोटोकापी मशीन से ऐसे तैयार कर देता था कि वे असली लगते थे.

फरजी रजिस्ट्री तैयार होने के बाद उस में रजिस्ट्रार, सब रजिस्ट्रार के सील, साइन करवाने की जिम्मेदारी अनवर उर्फ अन्नू निभाता था. जबलपुर के मोती नाला में रहने वाला 49 साल का अनवर पिछले 15 सालों से जबलपुर कलेक्ट्रेट में काम कर रहा है. वह अच्छे से जानता था कि रजिस्ट्री में कितने का स्टांप लगता है और किस पेज में कहां पर किस तरह की मुहर लगाई जाती है. अनवर ने इस काम के लिए नकली मुहर भी तैयार कर रखी थी. फरजी रजिस्ट्री तैयार होने के बाद प्रवीण का काम होता था कि वह अलगअलग नामों से बैंकों में जा कर लोन के लिए आवेदन करे. 

इस गैंग में उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के शिवपुरी मऊ निवासी 38 साल का मोहम्मद अनीस भी शामिल था. वह कुछ समय पहले से जबलपुर के अनमोल सिटी में रहने लगा था, यहीं उस की पहचान संदीप चौबे से हुई थी. मोहम्मद अनीस का काम होता था कि सभी लोगों से फरजी रजिस्ट्री इकट्ठा कर अपने पास रखे और समय आने पर उस रजिस्ट्री को प्रवीण पांडे को सौंप दे. एसटीएफ ने एक साथ गिरोह के सभी 9 सदस्यों के ठिकानों पर जब छापा मारा तो उन के यहां 50 से ज्यादा फरजी रजिस्ट्री, अलगअलग नामों के पैन और आधार कार्ड, कंप्यूटर, फोटोस्टेट मशीन, मोबाइल और कई इलेक्ट्रौनिक उपकरण भी मौके से बरामद किए गए. एसटीएफ के मुताबिक, ये लोग एक साथ फरजी रजिस्ट्रियां तैयार कर रख लेते थे, फिर जरूरत के हिसाब से शहर के अलगअलग बैंकों में लोन के लिए फाइल लगा देते थे.

कहां से आई बैंक अधिकारी के पास इतनी संपत्ति

2 साल पहले प्लानिंग मैनेजर के रूप में एक्सिस बैंक जौइन करने वाला अनुभव दुबे लक्जरी लाइफ जी रहा था. अनुभव की सैलरी 35 हजार रुपए महीना होने के बावजूद शहर के सब से पौश इलाके नर्मदा एवेन्यू में उस ने 4 फ्लैट ले रखे थे. एसटीएफ टीम को जांच में अभी तक एकएक करोड़ के 2 फ्लैट के दस्तावेज ही मिले हैं. एक फ्लैट में अनुभव अपनी पत्नी के साथ रहता था, जबकि दूसरे फ्लैट में उस की सास रह रही थी. अनुभव के ससुर की गोरखपुर में गैस एजेंसी है. अनुभव अपनी काली कमाई अपनी पत्नी और अन्य रिश्तेदारों के बैंक खातों में ट्रांसफर करता था. इसी पैसे से अलगअलग नामों से उस ने प्रौपर्टी खरीदी.  अनुभव ने 2022 में जबलपुर में ही लव मैरिज की थी. इस के बाद पत्नी और सास के साथ विदेश यात्रा पर घूमने गया था. वहां परिवार के साथ 12 दिन तक रुका था, इस के अलावा वह 2023 में घूमने के लिए दुबई भी गया था.

वह हर 6 महीने में पत्नी और रिश्तेदारों के साथ हौलीडे टूर पर विदेश जाता था. अनुभव और उस की पत्नी को लग्जरी गाडिय़ों का भी शौक है. अनुभव के अलावा उस की पत्नी, सास और ससुर सभी के पास अलगअलग लग्जरी कारें हैं. गोरखपुर के नर्मदा एवेन्यू में रहने वाले अनुभव दुबे ने सितंबर 2023 में सफाई कर्मचारी रवि कुमार के साथ जम कर मारपीट की थी, जिस के बाद अनुभव और उस के ससुर के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की गई थी, तब कोर्ट से उसे जमानत मिल गई थी. अनुभव कम समय में ज्यादा से ज्यादा पैसे कमा कर जल्द अमीर होना चाहता था, इसी वजह से उस ने एक औनलाइन एप्लीकेशन भी तैयार कर रखी थी. इस ऐप के जरिए वह लोगों को अधिक से अधिक पैसा कमाने की औनलाइन ट्रिक बताया करता था. अनुभव एमएमएम एक्स्ट्रा कंपनी से जुड़ा था.

कंपनी का स्लोगन थाएक्स्ट्रा मनी अप 100 प्रतिशत. गैंग में शामिल लोगों ने लोन लेने के लिए मृत लोगों को भी नहीं छोड़ा. गैंग का एक सदस्य राजेश डेहरिया लोगों को लोन दिलाने के नाम पर उन की रजिस्ट्री अपने पास रखता था. राजेश ने जबलपुर के अधारताल में रहने वाले प्रमोद शर्मा का फरजी मृत्यु प्रमाण पत्र तैयार करा कर उस की जमीन के खसरे से नाम हटाया और राजेश डेहरिया का नाम बदल कर खुद प्रमोद शर्मा का फरजी बेटा राजेश शर्मा बन गया. इस के बाद राजेश ने प्रमोद शर्मा की जमीन का नामांतरण भी इन दस्तावेजों के आधार पर अपने नाम करा लिया. राजेश डेहरिया ने राजेश शर्मा के आधार कार्ड और पैन कार्ड की भी इतनी सफाई से नकल की थी कि सब चकमा खा गए. एसटीएफ भी प्रमोद शर्मा को तलाश रही थी, जिस के नाम का राजेश ने उपयोग किया और जमीन के मार्फत लोन ले लिया. आशंका यह भी जताई जा रही है कि स्पैशल-9’ गैंग ने मिल कर प्रमोद शर्मा को गायब करवा दिया है.

राजेश डेहरिया ने कई लोगों के नाम से फरजी विक्रय पत्र भी बनवाए हैं. उस ने जनवरी 2003 में गुलाम हुसैन पिता खलील अहमद निवासी गाजी नगर, चितरंजन वार्ड, रद्ïदी चौकी की जमीन के कुल रकबे 0.648 हेक्टेयर में से 0.210 हेक्टेयर हिस्सा बेच दिया. जमीन के एक हिस्से को टाटा कैपिटल बैंक में गिरवी रख कर 3 करोड़ का लोन ले लिया. यह लोन कौन चुकाएगा, यह किसी को पता नहीं है. मामले की जांच कर रही एसटीएफ के डीएसपी संतोष तिवारी ने बताया कि 9 आरोपियों को गिरफ्तार करने के बाद 15 फरजी रजिस्ट्रियां बरामद की गई थीं. इन की संख्या अब बढ़ कर 60 से अधिक हो गई है. इस गोरखधंधे में पहले 4 बैंकों से फ्राड का खुलासा हुआ था, अब कुछ और बैंकों के नाम भी सामने आए हैं.

कथा लिखे जाने तक स्पैशल 9’ गैंग के 9 आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहां से उन्हें जबलपुर जेल भेज दिया गया. एसटीएफ का कहना है कि फ्राड के इस गोरखधंधे में शामिल गैंग के सदस्यों की संख्या 10 से 15 हो सकती है.

कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

मैंने सुना है कि सुहागरात को ही पति को पता चल जाता है कि लड़की का कौमार्य भंग हो चुका है, क्या ये सच है?

सवाल

मैं 25 वर्षीय अविवाहित युवती हूं. इसी वर्ष के अंत तक घर वाले मेरी शादी कर देना चाहते हैं. मैं बहुत परेशान हूं, क्योंकि कालेज के दिनों में मेरे बौयफ्रैंड ने मुझे बरगला कर एक बार शारीरिक संबंध बना लिया था. उस के बाद मैं ने उस से सारे संबंध तोड़ लिए. इस बात को 4 साल हो चुके हैं. मैं ने सुना है कि सुहागरात को ही पति को ज्ञात हो जाता है कि लड़की का कौमार्य भंग हो चुका है. यदि ऐसा हुआ और पति ने मुझे अपमानित कर के छोड़ दिया तो क्या होगा? इस से तो अच्छा यही होगा कि मैं शादी ही न करूं? पर घर वालों से क्या कहूं कि मैं शादी क्यों नहीं करना चाहती? बड़ी उलझन में हूं. बताएं क्या करूं?

जवाब

अतीत में आप के साथ जो हुआ उसे भूल जाएं. कौमार्य या शील भंग जैसे शब्द आज बेमानी हो गए हैं. आप जब तक अपने मुंह से नहीं कहेंगी आप के भावी पति नहीं जान पाएंगे कि आप का किसी से संबंध बन चुका है. सुनीसुनाई बातों पर ध्यान न दें और भविष्य की सुखद कल्पना करें. सब अच्छा होगा. जरूरी है विवाह के बाद पतिपत्नी का एकदूसरे पर विश्वास हो. रिश्तों को ईमानदारी से निभाएंगे तो कोई समस्या नहीं होगी.

जिजीविषा : अनु पर लगे आरोपों से कैसे हिल गई सीमा

अनुराधा लगातार हंसे जा रही थी. उस की सांवली रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें आज भी उतनी ही खूबसूरत और कुछ कहने को आतुर नजर आ रही थीं. अंतर सिर्फ इतना था कि आज वे आंखें शर्मोहया से दूर बिंदास हो चुकी थीं. मैं उस की जिजीविषा देख कर दंग थी. अगर मैं उस के बारे में सब कुछ जानती न होती तो जरूर दूसरों की तरह यही समझती कि कुदरत उस पर मेहरबान है. मगर इत्तफाकन मैं उस के बारे में सब कुछ जानती थी, इसीलिए मुझे मालूम था कि अनुराधा की यह खुशी, यह जिंदादिली उसे कुदरतन नहीं मिली, बल्कि यह उस के अदम्य साहस और हौसले की देन है. हाल ही में मेरे शहर में उस की पोस्टिंग शासकीय कन्या महाविद्यालय में प्रिंसिपल के पद पर हुई थी. आज कई वर्षों बाद हम दोनों सहेलियां मेरे घर पर मिल रही थीं.

हां, इस लंबी अवधि के दौरान हम में काफी बदलाव आ चुका था. 40 से ऊपर की हमउम्र हम दोनों सखियों में अनु मानसिक तौर पर और मैं शारीरिक तौर पर काफी बदल चुकी थी. मुझे याद है, स्कूलकालेज में यही अनु एक दब्बू, डरीसहमी लड़की के तौर पर जानी जाती थी, जो सड़क पर चलते समय अकसर यही सोचती थी कि राह चलता हर शख्स उसे घूर रहा है. आज उसी अनु में मैं गजब का बदलाव देख रही थी. इस बेबाक और मुखर अनु से मैं पहली बार मिल रही थी. मेरे बच्चे उस से बहुत जल्दी घुलमिल गए. हम सभी ने मिल कर ढेर सारी मस्ती की. फिर मिलने का वादा ले कर अनु जा चुकी थी, लेकिन मेरा मन अतीत के उन पन्नों को खंगालने लगा था, जिन में साझा रूप से हमारी तमाम यादें विद्यमान थीं…

 

अपने बंगाली मातापिता की इकलौती संतान अनु बचपन से ही मेरी बहुत पक्की सहेली थी. हमारे घर एक ही महल्ले में कुछ दूरी पर थे. हम दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का फर्क था, फिर भी न जाने किस मजबूत धागे ने हम दोनों को एकदूसरे से इस कदर बांध रखा था कि हम सांस भी एकदूसरे से पूछ कर लिया करती थीं. सीधीसाधी अनु पढ़ने में बहुत होशियार थी, जबकि मैं शुरू से ही पढ़ाई में औसत थी. इस कारण अनु पढ़ाई में मेरी बहुत मदद करती थी. अब हम कालेज के आखिरी साल में थीं. इस बार कालेज के वार्षिकोत्सव में शकुंतला की लघु नाटिका में अनु को शकुंतला का मुख्य किरदार निभाना था. शकुंतला का परिधान व गहने पहने अनु किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी. उस ने बड़ी ही संजीदगी से अपने किरदार को निभा कर जैसे जीवंत कर दिया. देर रात को प्रोग्राम खत्म होने के बाद मैं ने जिद कर के अनु को अपने पास ही रोक लिया और आंटी को फोन कर उन्हें अनु के अपने ही घर पर रुकने की जानकारी दे दी.

उस के बाद हम दोनों ही अपनी वार्षिक परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हो गईं. जिस दिन हमारा आखिरी पेपर था उस दिन अनु बहुत ही खुश थी. अब आगे क्या करने का इरादा है मैडम? मेरे इस सवाल पर उस ने मुझे उम्मीद के मुताबिक जवाब न दे कर हैरत में डाल दिया. मैं वाकई आश्चर्य से भर उठी जब उस ने मुझ से मुसकरा कर अपनी शादी के फैसले के बारे में बताया. मैं ने उस से पूछने की बहुत कोशिश की कि आखिर यह माजरा क्या है, क्या उस ने किसी को अपना जीवनसाथी चुन लिया है पर उस वक्त मुझे कुछ भी न बताते हुए उस ने मेरे प्रश्न को हंस कर टाल दिया यह कहते हुए कि वक्त आने पर सब से पहले तुझे ही बताऊंगी.

 

मैं मां के साथ नाना के घर छुट्टियां बिताने में व्यस्त थी, वहां मेरे रिश्ते की बात भी चल रही थी. मां को लड़का बहुत पसंद आया था. वे चाहती थीं कि बड़े भैया की शादी से पहले मेरी शादी हो जाए. इसी बीच एक दिन पापा के आए फोन ने हमें चौंका दिया. अनु के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. वे हौस्पिटल में एडमिट थे. उन के बचने की संभावना न के बराबर थी. हम ने तुरंत लौटने का फैसला किया. लेकिन हमारे आने तक अंकल अपनी अंतिम सांस ले चुके थे. आंटी का रोरो कर बुरा हाल था. अनु के मुंह पर तो जैसे ताला लग चुका था. इस के बाद खामोश उदास सी अनु हमेशा अपने कमरे में ही बंद रहने लगी.

अंकल की तेरहवीं के दिन सभी मेहमानों के जाने के बाद आंटी अचानक गुस्से में उबल पड़ीं. मुझे पहले तो कुछ समझ ही न आया और जो समझ में आया वह मेरे होश उड़ाने के लिए काफी था. अनु प्रैग्नैंट है, यह जानकारी मेरे लिए किसी सदमे से कम न थी. अगर इस बात पर मैं इतनी चौंक पड़ी थी, तो अपनी बेटी को अपना सब से बड़ा गर्व मानने वाले अंकल पर यह जान कर क्या बीती होगी, मैं महसूस कर सकती थी. आंटी भी अंकल की बेवक्त हुई इस मौत के लिए उसे ही दोषी मान रही थीं. मैं ने अनु से उस शख्स के बारे में जानने की बहुत कोशिश की, पर उस का मुंह न खुलवा सकी. मुझे उस पर बहुत क्रोध आ रहा था. गुस्से में मैं ने उसे बहुत बुराभला भी कहा. लेकिन सिर झुकाए वह मेरे सभी आरोपों को स्वीकारती रही. तब हार कर मैं ने उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

 

इधर मेरी ससुराल वाले चाहते थे कि हमारी शादी नाना के घर लखनऊ से ही संपन्न हो. शादी के बाद मैं विदा हो कर सीधी अपनी ससुराल चली गई. वहां से जब पहली बार घर आई तो अनु को देखने, उस से मिलने की बहुत उत्सुकता हुई. पर मां ने मुझे डपट दिया कि खबरदार जो उस चरित्रहीन से मिलने की कोशिश भी की. अच्छा हुआ जो सही वक्त पर तेरी शादी कर दी वरना उस की संगत में तू भी न जाने क्या गुल खिलाती. मुझे मां पर बहुत गुस्सा आया, पर साथ ही उन की बातों में सचाई भी नजर आई. मैं भी अनु से नाराज तो थी. अत: मैं ने भी उस से मिलने की कोशिश नहीं की. 2 साल बीत चुके थे. मेरी गोद में अब स्नेहा आ चुकी थी. मेरे भैया की शादी भी बनारस से तय हो चुकी थी. शादी के काफी पहले ही मैं मायके आ गई. यहां आ कर मां से पता चला कि अनु ने भैया की शादी तय होने पर बहुत बवाल मचाया था. मगर क्यों? भैया से उस का क्या वास्ता?

मेरे सवाल करने पर मां भड़क उठीं कि अरे वह बंगालन है न, मेरे भैया पर काला जादू कर के उस से शादी करना चाहती थी. किसी और के पाप को तुम्हारे भैया के मत्थे मढ़ने की कोशिश कर रही थी. पर मैं ने भी वह खरीखोटी सुनाई है कि दोबारा पलट कर इधर देखने की हिम्मत भी नहीं करेंगी मांबेटी. पर अगर वह सही हुई तो क्या… मैं कहना चाहती थी, पर मेरी आवाज गले में ही घुट कर रह गई. लेकिन अब मैं अनु से किसी भी हालत में एक बार मिलना चाहती थी. दोपहर का खाना खा कर स्नेहा को मैं ने मां के पास सुलाया और उस के डायपर लेने के लिए मैडिकल स्टोर जाने के बहाने मैं अनु के घर की तरफ चल दी. मुझे सामने देख अनु को अपनी आंखों पर जैसे भरोसा ही नहीं हुआ. कुछ देर अपलक मुझे निहारने के बाद वह कस कर मेरे गले लग गई. उस की चुप्पी अचानक ही सिसकियों में तबदील हो गई. मेरे समझने को अब कुछ भी बाकी न था. उस ने रोतेरोते अपने नैतिक पतन की पूरी कहानी शुरू से अंत तक मुझे सुनाई, जिस में साफतौर पर सिर्फ और सिर्फ मेरे भैया का ही दोष नजर आ रहा था.

कैसे भैया ने उस भोलीभाली लड़की को मीठीमीठी बातें कर के पहले अपने मोहपाश में बांधा और फिर कालेज के वार्षिकोत्सव वाले दिन रात को हम सभी के सोने के बाद शकुंतला के रूप में ही उस से प्रेम संबंध स्थापित किया. यही नहीं उस प्रेम का अंकुर जब अनु की कोख में आया तो भैया ने मेरी शादी अच्छी तरह हो जाने का वास्ता दे कर उसे मौन धारण करने को कहा. वह पगली इस डर से कि उन के प्रेम संबंध के कारण कहीं मेरी शादी में कोई विघ्न न आ जाए. चुप्पी साध बैठी. इसीलिए मेरे इतना पूछने पर भी उस ने मुंह न खोला और इस का खमियाजा अकेले ही भुगतती रही. लोगों के व्यंग्य और अपमान सहती रही. और तो और इस कारण उसे अपने जीवन की बहुमूल्य धरोहर अपने पिता को भी खोना पड़ा.

 

आज अनु के भीतर का दर्द जान कर चिल्लाचिल्ला कर रोने को जी चाह रहा था. शायद वह इस से भी अधिक तकलीफ में होगी. यह सोच कर कि सहेली होने के नाते न सही पर इंसानियत की खातिर मुझे उस का साथ देना ही चाहिए, उसे इंसाफ दिलाने की खातिर मैं उस का हाथ थाम कर उठ खड़ी हुई. पर वह उसी तरह ठंडी बर्फ की मानिंद बैठी रही. आखिर क्यों? मेरी आंखों में मौन प्रश्न पढ़ कर उस ने मुझे खींच कर अपने पास बैठा लिया. फिर बोली, ‘‘सीमा, इंसान शादी क्यों करना चाहता है, प्यार पाने के लिए ही न? लेकिन अगर तुम्हारे भैया को मुझ से वास्तविक प्यार होता, तो यह नौबत ही न आती. अब अगर तुम मेरी शादी उन से करवा कर मुझे इंसाफ दिला भी दोगी, तो भी मैं उन का सच्चा प्यार तो नहीं पा सकती हूं और फिर जिस रिश्ते में प्यार नहीं उस के भविष्य में टिकने की कोई संभावना नहीं होती.’’

‘‘लेकिन यह हो तो गलत ही रहा है न? तुझे मेरे भैया ने धोखा दिया है और इस की सजा उन्हें मिलनी ही चाहिए.’’ ‘‘लेकिन उन्हें सजा दिलाने के चक्कर में मुझे जिंदगी भर इस रिश्ते की कड़वाहट झेलनी पड़ेगी, जो अब मुझे मंजूर नहीं है. प्लीज तू मेरे बारे में उन से कोई बात न करना. मैं बेचारगी का यह दंश अब और नहीं सहना चाहती.’’

उस की आवाज हलकी तलख थी. मुझ से अब कुछ भी कहते न बना. मन पर भाई की गलती का भारी बोझ लिए मैं वहां से चली आई. घर पहुंची तो भैया आ चुके थे. मेरी आंखों में अपने लिए नाराजगी के भाव शायद उन्हें समझ आ गए थे, क्योंकि उन के मन में छिपा चोर अपनी सफाई मुझे देने को आतुर दिखा. रात के खाने के बाद टहलने के बहाने उन्होंने मुझे छत पर बुलाया.

‘‘क्यों भैया क्यों, तुम ने मेरी सहेली की जिंदगी बरबाद कर दी… वह बेचारी मेरी शादी के बाद अभी तक इस आशा में जीती रही कि तुम उस के अलावा किसी और से शादी नहीं करोगे… तुम्हारे कहने पर उस ने अबौर्शन भी करवा लिया. फिर भी तुम ने यह क्या कर दिया… एक मासूम को ऐसे क्यों छला?’’ मेरे शब्दों में आक्रोश था. ‘‘उस वक्त जोश में मुझे इस बात का होश ही न रहा कि समाज में हमारे इस संबंध को कभी मान्य न किया जाएगा. मुझ से वाकई बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ भैया हाथ जोड़ कर बोले.

‘‘गलती… सिर्फ गलती कह कर तुम जिस बात को खत्म कर रहे हो, उस के लिए मेरी सहेली को कितनी बड़ी सजा भुगतनी पड़ी है, क्या इस का अंदाजा भी है तुम्हें? नहीं भैया नहीं तुम सिर्फ माफी मांग कर इस पाप से मुक्ति नहीं पा सकते. यह तो प्रकृति ही तय करेगी कि तुम्हारे इस नीच कर्म की भविष्य में तुम्हें क्या सजा मिलेगी,’’ कहती हुई मैं पैर पटकती तेजी से नीचे चल दी. सच कहूं तो उस वक्त उन के द्वारा की गई गलती से अधिक मुझे बेतुकी दलील पर क्रोध आया था. फिर उन की शादी भी एक मेहमान की तरह ही निभाई थी मैं ने. अपनी शादी के कुछ ही महीनों बाद भैयाभाभी मांपापा से अलग हो कर रहने लगे थे. ज्यादा तो मुझे पता नहीं चला पर मम्मी के कहे अनुसार भाभी बहुत तेज निकलीं. भैया को उन्होंने अलग घर ले कर रहने के लिए मजबूर कर दिया था. मुझे तो वैसे भी भैया की जिंदगी में कोई रुचि नहीं थी.

हां, जब कभी मायके जाना होता था तो मां के मना करने के बावजूद मैं अनु से मिलने अवश्य जाती थी. मुझे याद है हमारी पिछली मुलाकात करीब 10-12 साल पहले हुई थी जब मैं मायके गई हुई थी. अनु के घर जाने के नाम पर मां ने मुझे सख्त ताकीद की थी कि वह लड़की अब पुरानी वाली अनु नहीं रह गई है. जब से उसे सरकारी नौकरी मिली है तब से बड़ा घमंड हो गया है. किसी से सीधे मुंह बात नहीं करती. सुना है फिर किसी यारदोस्त के चक्कर में फंस चुकी है. मैं जानती थी कि मां की सभी बातें निरर्थक हैं, अत: मैं ने उन की बातों पर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा.

पर अनु से मिल कर इस बार मुझे उस में काफी बदलाव नजर आया. पहले की अपेक्षा उस में अब काफी आत्मविश्वास आ गया था. जिंदगी के प्रति उस का रवैया बहुत सकारात्मक हो चला था. उस के चेहरे की चमक देख कर आसानी से उस की खुशी का अंदाजा लग गया था मुझे. बीती सभी बातों को उस ने जैसे दफन कर दिया था. मुझ से बातों ही बातों में उस ने अपने प्यार का जिक्र किया. ‘‘अच्छा तो कब कर रही है शादी?’’ मेरी खुशी का ठिकाना न था.

‘‘शादी नहीं मेरी जान, बस उस का साथ मुझे खुशी देता है.’’ ‘‘तू कभी शादी नहीं करेगी… मतलब पूरी जिंदगी कुंआरी रहेगी,’’ मेरी बात में गहरा अविश्वास था.

‘‘क्यों, बिना शादी के जीना क्या कोई जिंदगी नहीं होती?’’ उस ने कहना जारी रखा, ‘‘सीमा तू बता, क्या तू अपनी शादी से पूरी तरह संतुष्ट है?’’ मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने मेरी ओर कई प्रश्न उछाल दिए. ‘‘नहीं, लेकिन इस के माने ये तो नहीं…’’

‘‘बस इसी माने पर तो सारी दुनिया टिकी है. इंसान का अपने जीवन से संतुष्ट होना माने रखता है, न कि विवाहित या अविवाहित होना. मैं अपनी जिंदगी के हर पल को जी रही हूं और बहुत खुश हूं. मेरी संतुष्टि और खुशी ही मेरे सफल जीवन की परिचायक है. ‘‘खुशियों के लिए शादी के नाम का ठप्पा लगाना अब मैं जरूरी नहीं समझती. कमाती हूं, मां का पूरा ध्यान रखती हूं. अपनों के सुखदुख से वास्ता रखती हूं और इस सब के बीच अगर अपनी व्यक्तिगत खुशी के लिए किसी का साथ चाहती हूं तो इस में गलत क्या है?’’ गहरी सांस छोड़ कर अनु चुप हो गई.

मेरे मन में कोई उत्कंठा अब बाकी न थी. उस के खुशियों भरे जीवन के लिए अनेक शुभकामनाएं दे कर मैं वहां से वापस आ गई. उस के बाद आज ही उस से मिलना हो पाया था. हां, मां ने फोन पर एक बार उस की तारीफ जरूर की थी जब पापा की तबीयत बहुत खराब होने पर उस ने न सिर्फ उन्हें हौस्पिटल में एडमिट करवाया था, बल्कि उन के ठीक होने तक मां का भी बहुत ध्यान रखा था. उस दिन मैं ने अनु के लिए मां की आवाज में आई नमी को स्पष्ट महसूस किया था. बाद में मेरे मायके जाने तक उस का दूसरी जगह ट्रांसफर हो चुका था. अत: उस से मिलना संभव न हो पाया था. एक बात जो मुझे बहुत खुशी दे रही थी वह यह कि आज अकेले में जब मैं ने उस से उस के प्यार के बारे में पूछा तो उस ने बड़े ही भोलेपन से यह बताया कि उस का वह साथी तो वहीं छूट गया, पर प्यार अभी भी कायम है. एक दूसरे साथी से उस की मुलाकात हो चुकी है औ वह अब उस के साथ अपनी जिंदगी मस्त अंदाज में जी रही है. मैं सच में उस के लिए बहुत खुश थी. उस का पसंदीदा गीत आज मेरी जुबां पर भी आ चुका था, जिसे धीरेधीरे मैं गुनगुनाने लगी थी…

‘हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी… छांव है कभी, कभी है धूप जिंदगी… हर पल यहां जी भर जियो… जो है समा, कल हो न हो.’

करवाचौथ : आस्था के नाम पर एक गुलाम परंपरा

आजकल महिलाओं के बीच दशहरादीवाली से ज्यादा करवाचौथ ((KarwaChauth)) के चर्चे हैं. ज्यादातर विवाहित और अविवाहितों ने अभी से ही 1-2 दिनों की छुट्टियां लेने का मन बना लिया है.

कहते हैं, करवाचौथ का व्रत महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए रखती हैं और इस दिन वे सुबह से रात चांद निकलने तक कुछ नहीं खाती पीती हैं. रात को चांद देखने के बाद पति के हाथों पानी पी कर ही व्रत समाप्त करती हैं.

दक्षिण भारत में ज्यादा प्रचलित क्यों नहीं

आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि करवाचौथ का त्योहार ज्यादातर उत्तर भारत में ही मनाया जाता है. दक्षिण भारत के कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना आदि राज्यों में यह न के बराबर मनाया जाता है.

सवाल है कि जब दक्षिण भारत में इसे नहीं मनाया जाता है फिर वहां के पुरूषों की उम्र उत्तर भारतीयों की अपेक्षा कम होनी चाहिए?

नहीं, बिलकुल नहीं. आपको यह जान कर हैरानी होगी कि दक्षिण भारतीय पुरूषों की उम्र उत्तर भारतीय पुरूषों की तुलना में अधिक होती है और वे यहां के पुरूषों की अपेक्षा स्वस्थ भी होते हैं.

 

अंधविश्वास की पराकाष्ठा

करवाचौथ (KarwaChauth) को आस्था कहें या अंधविश्वास, सच तो यह है कि यह भी एक गुलाम परंपरा की तरह ही है, जिसकी बेड़ियों में आज भी महिलाएं बंधी हैं.

गुरूग्राम में एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत इंजीनियर संदीप भोनवाल बताते हैं,”यह एक ऐसा त्योहार है, जिस में महिलाएं दिन भर भूखीप्यासी रह कर पति की लंबी उम्र और स्वस्थ जीवन की कामना करती हैं.

“अगर इस त्योहार को करने से पति स्वस्थ जीवन बिताए और लंबी उम्र का हो जाए तो फिर अस्पतालों में भीङ दिखनी बंद हो जाए. मेरा मानना है कि करवाचौथ का व्रत रखने से पति की आयु लंबी होती हो तो फिर पतियों की उम्र तो सैकड़ों साल लंबी होनी चाहिए.”

संदीप कहते हैं,”पतिपत्नी जीवनरूपी गाङी के 2 पहिए हैं, जिन का साथ एकदूसरे के सुखदुःख में साथ निभाने की होनी चाहिए. गृहस्थ जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए पतिपत्नी के बीच आपसी अंडरस्टैंडिंग जरूरी है न कि करवाचौथ का व्रत.”

 

सिर्फ अंधविश्वास है

समाजसेवी अनिता शर्मा मानती हैं कि इस व्रत की कहानी अंधविश्वासपूर्ण भय उत्पन्न करती है न कि पति की उम्र बढाती है.

वे कहती हैं,”क्या पत्नी के भूखे रहने से पति की लंबी आयु हो सकती है? दरअसल, यह अंधविश्वास और आत्मपीड़न की बेडियों में जकड़ने की एक साजिश है, जिसकी शुरूआत ही महिलाओं को परंपरा के नाम पर शोषित करना है.”

आस्था के नाम पर यह कैसी मानसिकता

धर्म और आस्था के नाम पर महिलाओं पर शुरू से ही अत्याचार किए जाते रहे हैं. पति की लंबी आयु के लिए पत्नी व्रत करेगी, बच्चों की सुखद भविष्य के लिए मां यानी एक महिला व्रत करेगी, वह घर के लिए त्याग करेगी, सब से अंत में खाना खाएगी.

क्या पति अपनी पत्नी के लिए व्रत रखता है? पत्नी की लंबी आयु के लिए समाज में कोई व्रत निर्धारित है?

माना कि नारी प्रकृति की अनमोल कृति है, त्याग की मूर्ति है, कोमल हृदय की है पर क्या यही अपेक्षा पुरूषों से नहीं की जानी चाहिए?

औरत से ही अपेक्षा क्यों

हकीकत तो यह है कि भारतीय समाज सिर्फ एक औरत से ही सब कुछ पाने की उम्मीद करता है पर नारी को आज भी वह सम्मान नहीं मिल पाया  जिस की वह हकदार है.

इस समाज में कुछ आतातायी पुरूष मासूम बच्चियों तक को हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकते. क्या उन्हें यह पता नहीं कि उस को शरीर देने वाली उस की माता भी एक औरत है, तो कम से कम औरतों की सम्मान करना तो सीखे.

 

अच्छा तो यह है कि-

  • पति और पत्नी में जीवनभर सामंजस्य रहे.
  • पति पत्नी पर अत्याचार न करे.
  • पत्नी पर घरेलू हिंसा न हो.
  • पत्नी को घर के सभी लोग सम्मान दें.
  • पति नशा न करे और न ही पत्नी पर कभी हाथ उठाए.
  • पत्नी के सपनों और आजादी को कुचला न जाए.
  • घर के कामकाज में पति पत्नी का हाथ बंटाए.

मैं अपनी ट्यूशन टीचर के साथ सैक्स करना चाहता हूं. ऐसा लगता है कि वे भी यही चाहती हैं.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मैं 18 साल का छात्र हूं. मैं दिखने में बिलकुल फिट हूं और अपनी उम्र से थोड़ा बड़ा ही लगता हूं. मैं अपने एक दोस्त की बहन से ट्यूशन पढ़ता हूं. पहलेपहले तो सब सही चलता रहा पर फिर धीरेधीरे मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरी ट्यूशन टीचर किसी न किसी बहाने से मुझे छूने की कोशिश करती है. कभी किताब देते वक्त तो कभी जब मैं उन के बिलकुल पास बैठा होता हूं तो वे अपने पैर मेरे पैरों से टच कर देती हैं. वे दिखने में काफी सुंदर हैं और ज्यादा बड़ी भी नहीं हैं. कभीकभी वे ऐक्स्ट्रा क्लास के लिए मुझे बाकी बच्चों से जल्दी भी बुला लेती हैं और इसी तरह किसी न किसी बहाने छूती रहती हैं. मेरा भी मन करता है कि मैं उन्हें अपनी बांहों में भर लूं और उन के साथ जम कर सैक्स करूं पर कभी हिम्मत नहीं कर पाता और न ही वे खुल कर कुछ करती हैं. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब –

इस उम्र में ऐसे खयाल आते हैं जो कि गलत नहीं है. आप की उम्र के बच्चों में सैक्स को ले कर काफी जल्दी रहती है क्योंकि जाहिर सी बात है कि इस से पहले आप लोगों ने सैक्स सिर्फ पौर्न वीडियोज में ही देखा होता है.

सब से पहले आप को इस बात का खयाल रखना चाहिए कि जिस के बारे में आप यह सब सोच रहे हो वह आप के दोस्त की बहन है और आप वहां सिर्फ ट्यूशन पढ़ने जाते हैं. ऐसा न हो कि आप ऐसा कुछ कर दें कि आप को अपनी दोस्ती से भी हाथ धोना पड़े.

अगर फिर भी आप को ऐसा लगता है कि आप की ट्यूशन टीचर खुद आप के साथ संबंध बनाना चाहती हैं तो ध्यान रहे सैक्स की जल्दबाजी नहीं करनी है. हो सकता है कि उन्हें इस बात का बुरा लग जाए तो ऐसे में जैसा चल रहा है वैसे चलने दें और अगर आप को कभी उन के साथ सैक्स करने का मौका मिल भी जाए तो ध्यान रखें कि बिना कंडोम के सैक्स बिल्कुल नहीं करना है.

वैसे, अभी आप को अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देना होगा क्योंकि आप को पता होना चाहिए कि आप वहां पढ़ने गए हैं और अगर आप का ध्यान इन सब पर रहा तो आप फेल भी हो सकते हैं.

आप को ध्यान रखना चाहिए कि इस बारे में किसी और से बात नहीं करें और न ही किसी को कुछ पता लगने दें.

याद रखें, रजामंदी से सैक्स संबंध स्थापित करना अपराध नहीं है मगर कुछ उलटासीधा हो गया और फिर आप की टीचर ने आप का कुछ गलत फायदा उठा लिया तो फिर आप का कैरियर चौपट हो जाएगा.

अच्छा तो यही होगा कि अभी सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान दें और शादी बाद ही सैक्स करने की सोचें. हां, मन पर काबू नहीं रहता तो हस्तमैथुन एक विकल्प है, मगर एक तय सीमा तक.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

धुंध : शराब ने छीन ली अर्चना के परिवार की खुशियां

घर के अंदर पैर रखते ही अर्चना समझ गई थी कि आज फिर कुछ हंगामा हुआ है. घर में कुछ न कुछ होता ही रहता था, इसलिए वह विचलित नहीं हुई. शांत भाव से उस ने दुपट्टे से मुंह पोंछा और कमरे में आई.

नित्य की भांति मां आंखें बंद कर के लेटी थीं. 15 वर्षीय आशा मुरझाए मुख को ले कर उस के सिरहाने खड़ी थी. छत पर पंखा घूम रहा था, फिर भी बरसात का मौसम होने के कारण उमसभरी गरमी थी. उस पर कमरे की एकमात्र खिड़की बंद होने से अर्चना को घुटन होने लगी. उस ने आशा से पूछा, ‘‘यह खिड़की बंद क्यों है? खोल दे.’’

आशा ने खिड़की खोल दी.

अर्चना मां के पलंग पर बैठ गई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

मां की आंखों में आंसू डबडबा आए. वह भरे गले से बोलीं, ‘‘मौत क्या मेरे घर का रास्ता नहीं पहचानती?’’

‘‘मां, हमेशा ऐसी बातें क्यों करती रहती हो,’’ अर्चना ने मां के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘तुम्हारे लिए बोझ ही तो हूं,’’ मां के आंसू गालों पर ढुलक आए.

‘‘मां, ऐसा क्यों सोचती हो. तुम तो हम दोनों के लिए सुरक्षा हो.’’

‘‘पर बेटी, अब और नहीं सहन होता.’’

‘‘क्या आज भी कुछ हुआ है?’’

‘‘वही पुरानी बात. महीने का आखिर है…जब तक तनख्वाह न मिले, कुछ न कुछ तो होता ही रहता है.’’

‘‘आज क्या हुआ?’’ अर्चना ने भयमिश्रित उत्सुकता से पूछा.

‘‘आराम कर तू, थक कर आई है.’’

अर्चना का मन करता था कि यहां से भाग जाए, पर साहस नहीं होता था. उस के वेतन में परिवार का भरणपोषण संभव नहीं था. ऊपर से मां की दवा इत्यादि में काफी खर्चा हो जाता था.

आशा के हाथ से चाय का प्याला ले कर अर्चना ने पूछा, ‘‘मां की दवा ले आई है न?’’

आशा ने इनकार में सिर हिलाया.

अर्चना के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘क्यों?’’

आशा ने अपना माथा दिखाया, जिस पर गूमड़ निकल आया था. फिर धीरे से बोली, ‘‘पिताजी ने पैसे छीन लिए.’’

‘‘तो आज यह बात हुई है?’’

‘‘अब तो सहन नहीं होता. इस सत्यानासी शराब ने मेरे हंसतेखेलते परिवार को आग की भट्ठी में झोंक दिया है.’’

‘‘तुम्हारे दवा के पैसे शराब पीने के लिए छीन ले गए.’’

‘‘आशा ने पैसे नहीं दिए तो वह चीखचीख कर गंदी गालियां देने लगे. फिर बेचारी का सिर दीवार में दे मारा.’’

क्रोध से अर्चना की आंखें जलने लगीं, ‘‘हालात सीमा से बाहर होते जा रहे हैं. अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘कुछ नहीं हो सकता, बेटी,’’ मां ने भरे गले से कहा, ‘‘थकी होगी, चाय पी ले.’’

अर्चना ने प्याला उठाया.

मां कुछ क्षण उस की ओर देखने के बाद बोलीं, ‘‘मैं एक बात सोच रही थी… अगर तू माने तो…’’

‘‘कैसी बात, मां?’’

‘‘देख, मैं तो ठीक होने वाली नहीं हूं. आज नहीं तो कल दम तोड़ना ही है. तू आशा को ले कर कामकाजी महिलावास में चली जा.’’

‘‘और तुम? मां, तुम तो पागल हो गई हो. तुम्हें इस अवस्था में यहां छोड़ कर हम कामकाजी महिलावास में चली जाएं. ऐसा सोचना भी नहीं.’’

रात को दोनों बहनें मां के कमरे में ही सोती थीं. कोने वाला कमरा पिता का था. पिता आधी रात को लौटते. कभी खाते, कभी नहीं खाते.

9 बजे सारा काम निबटा कर दोनों बहनें लेट गईं.

‘‘मां, आज बुखार नहीं आया. लगता है, दवा ने काम किया है.’’

‘‘अब और जीने की इच्छा नहीं है, बेटी. तुम दोनों के लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाई.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मां. तुम्हारे प्यार से कितनी शांति मिलती है हम दोनों को.’’

‘‘बेटी, विवाह करने से पहले बस, यही देखना कि लड़का शराब न पीता हो.’’

‘‘मां, पिताजी भी तो पहले नहीं पीते थे.’’

‘‘वे दिन याद करती हूं तो आंसू नहीं रोक पाती,’’ मां ने गहरी सांस ली, ‘‘कितनी शांति थी तब घर में. आशा तो तेरे 8 वर्ष बाद हुई है. उस को होश आतेआते तो सुख के दिन खो ही गए. पर तुझे तो सब याद होगा?’’

मां के साथसाथ अर्चना भी अतीत में डूब गई. हां, उसे तो सब याद है. 12 वर्ष की आयु तक घर में कितनी संपन्नता थी. सुखी, स्वस्थ मां का चेहरा हर समय ममता से सराबोर रहता था. पिताजी समय पर दफ्तर से लौटते हुए हर रोज फल, मिठाई वगैरह जरूर लाते थे. रात खाने की मेज पर उन के कहकहे गूंजते रहते थे…

अर्चना को याद है, उस दिन पिता अपने कई सहकर्मियों से घिरे घर लौटे थे.

‘भाभी, मुंह मीठा कराइए, नरेशजी अफसर बन गए हैं,’ एकसाथ कई स्वर गूंजे थे.

मानो सारा संसार नाच उठा था. मां का मुख गर्व और खुशी की लालिमा से दमकने लगा था.

मुंह मीठा क्या, मां ने सब को भरपेट नाश्ता कराया था. महल्लेभर में मिठाई बंटवाई और खास लोगों की दावत की. रात को होटल में पिताजी ने अपने सहकर्मियों को खाना खिलाया था. उस दिन ही पहली बार शराब उन के होंठों से लगी थी.

अर्चना ने गहरी सांस ली. कितनी अजीब बात है कि मानवता और नैतिकता को निगल जाने वाली यह सत्यानासी शराब अब समाज के हर वर्ग में एक रिवाज सा बन गई है. फलतेफूलते परिवार देखतेदेखते ही कंगाल हो जाते हैं.

एक दिन महल्ले में प्रवेश करते ही रामप्रसाद ने अर्चना से कहा, ‘‘बेटी, तुम से कुछ कहना है.’’

अर्चना रुक गई, ‘‘कहिए, ताऊजी.’’

‘‘दफ्तर से थकीहारी लौट रही हो, घर जा कर थोड़ा सुस्ता लो. मैं आता हूं.’’

अर्चना के दिलोदिमाग में आशंका के बादल मंडराने लगे. रामप्रसाद बुजुर्ग व्यक्ति थे. हर कोई उन का सम्मान करता था.

चिंता में डूबी वह घर आई. आशा पालक काट रही थी. मां चुपचाप लेटी थीं.

‘‘चाय के साथ परांठे खाओगी, दीदी?’’

‘‘नहीं, बस चाय,’’ अर्चना मां के पास आई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘आज तू इतनी उदास क्यों लग रही है?’’ मां ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘गली के मोड़ पर ताऊजी मिले थे, कह रहे थे, कुछ बात करने घर आ रहे हैं.’’

मां एकाएक भय से कांप उठीं, ‘‘क्या कहना है?’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

आशा चाय ले आई. तीनों ने चुपचाप चाय पी ली. फिर अर्चना लेट गई. झपकी आ गई.

आशा ने उसे जगाया, ‘‘दीदी, ताऊजी आए हैं.’’

मां कठिनाई से दीवार का सहारा लिए फर्श पर बैठी थीं. ताऊजी चारपाई पर बैठे हुए थे.

अर्चना को देखते ही बोले, ‘‘आओ बेटी, बैठो.’’

अर्चना उन के पास ही बैठ गई और बोली, ‘‘ताऊजी, क्या पिताजी के बारे में कुछ कहने आए हैं?’’

उस के बारे में क्या कहूं, बेटी. नरेश कभी हमारे महल्ले का हीरा था. आज वह क्या से क्या हो गया है. महल्ले वाले उस की चीखपुकार और गालियों से परेशान हो गए हैं. किसी दिन मारमार कर उस की हड्डीपसली तोड़ देंगे. किसी तरह मैं ने लोगों को रोक रखा है. बात यही नहीं है, बेटी, इस से भी गंभीर है. नरेश ने घर किशोरी महाजन के पास गिरवी रख दिया है, रामप्रसाद उदास स्वर में बोले.

‘‘क्या?’’ अर्चना एकाएक चीख उठी.

मां सूखे पत्ते के समान कांपने लगीं.

‘‘ताऊजी, फिर तो हम कहीं के न रह जाएंगे,’’ अर्चना ने उन की ओर देखा.

‘‘मैं भी बहुत चिंता में हूं. वैसे किशोरी महाजन आदमी बुरा नहीं है. आज मेरे घर आ कर उस ने सारी बात बताई है. कह रहा था कि वह सूद छोड़ देगा. मूल के 25 हजार उसे मिल जाएं तो मकान के कागज वह तुम्हें सौंप देगा.’’

अर्चना की आंखें हैरत से फैल गईं, ‘‘25 हजार?’’

‘‘बहू को तो तुम्हारे दादा ने दिल खोल कर जेवर चढ़ाया था. संकट के समय उन को बचा कर क्या करोगी?’’ ताऊजी ने धीरे से कहा. दुख में भी मनुष्य को कभीकभी हंसी आ जाती है. अर्चना भी हंस पड़ी, ‘‘आप क्या समझते हैं, जेवर अभी तक बचे हुए हैं. शराब की भेंट सब से पहले जेवर ही चढ़े थे, ताऊजी.’’

‘‘तब कुछ…और?’’

‘‘हमारे घर की सही दशा आप को नहीं मालूम. सबकुछ शराब की अग्नि में भस्म हो चुका है. घर में कुछ भी नहीं बचा है,’’ अर्चना दुखी स्वर में बोली, ‘‘लेकिन ताऊजी, एकसाथ इतनी रकम की जरूरत पिताजी को क्यों आ पड़ी?’’

‘‘शराब के साथसाथ नरेश जुआ भी खेलता है. और मैं क्या बताऊं. देखो, कोशिश करता हूं…शायद कुछ…’’ रामप्रसाद उठ खड़े हुए.

‘‘मुझे मौत क्यों नहीं आती?’’ मां हिचकियां लेले कर रोने लगीं.

‘‘उस से क्या समस्या सुलझ जाएगी?’’

‘‘अब क्या होगा? कहां जाएंगे हम?’’

‘‘कुछ न कुछ तो होगा ही, तुम चिंता न करो,’’ अर्चना ने मां को सांत्वना देते हुए कहा.

कार्यालय में अचानक सरला दीदी अर्चना के पास आ खड़ी हुईं.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ वह अर्चना से बहुत स्नेह करती थीं. अकेली थीं और कामकाजी महिलावास में ही रहती थीं.

‘‘मैं बहुत परेशान हूं, दीदी. कैंटीन में चलोगी?’’

‘‘चलो.’’

‘‘आप के कामकाजी महिलावास में जगह मिल जाएगी?’’ अर्चना ने चाय का घूंट भरते हुए पूछा.

‘‘तुम रहोगी?’’

‘‘आशा भी रहेगी मेरे साथ.’’

‘‘फिर तुम्हारी मां का क्या होगा?’’

‘‘मां नानी के पास आश्रम में जा कर रहना चाहती हैं.’’

‘‘फिर…घर?’’

‘‘घर अब है कहां? पिताजी ने 25 हजार में गिरवी रख दिया है. जल्दी ही छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘शराब की बुराई को सब देख रहे हैं. फिर भी लोगों की इस के प्रति आसक्ति बढ़ती जा रही है,’’ सरला दीदी की आंखें भर आई थीं, ‘‘अर्चना, तुम को आज तक नहीं बताया, लेकिन आज बता रही हूं. मेरा भी एक घर था. एक फूल सी बच्ची थी…’’

‘‘फिर?’’

‘‘इसी शराब की लत लग गई थी मेरे पति को. नशे में धुत एक दिन उस ने बच्ची को पटक कर मार डाला. शराब ने उसे पशु से भी बदतर बना दिया था.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मैं सीधे पुलिस चौकी गई. पति को गिरफ्तार करवाया, सजा दिलवाई और नौकरी करने यहां चली आई.’’

‘‘हमारा भी घर टूट गया है, दीदी. अब कभी नहीं जुड़ेगा,’’ अर्चना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘समस्या का सामना तो करना ही पड़ेगा. अब यह बताओ कि प्रशांत से और कितने दिन प्रतीक्षा करवाओगी?’’

अर्चना ने सिर झुका लिया, ‘‘अब आप ही सोचिए, इस दशा में मैं…जब तक आशा की कहीं व्यवस्था न कर लूं…’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, कोई अच्छी नौकरी या विवाह?’’

‘‘हां, मैं यही सोच रही हूं.’’

ऐसा होगा, यह अर्चना ने नहीं सोचा था. शीघ्र ही बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था उस के घर में. मां की मृत्यु हो गई थी. वह आशा को ले कर सरला दीदी के कामकाजी महिलावास में चली गई थी. अब समस्या यह थी कि वह क्या करे? आशा का भार उस पर था. उधर प्रशांत को विवाह की जल्दी थी.

एक दिन सरला दीदी समझाने लगीं, ‘‘तुम विवाह कर लो, अर्चना. देखो, कहीं ऐसा न हो कि प्रशांत तुम्हें गलत समझ बैठे.’’

‘‘पर दीदी, आप ही बताइए कि मैं कैसे…’’

‘‘देखो, प्रशांत बड़े उदार विचारों वाला है. तुम खुल कर उस से अपनी समस्या पर बात करो. अगर आशा को वह बोझ समझे तो फिर मैं तो हूं ही. तुम अपना घर बसा लो, आशा की जिम्मेदारी मैं ले लूंगी. मेरा अपना घर उजड़ गया, अब किसी का घर बसते देखती हूं तो बड़ा अच्छा लगता है,’’ सरला दीदी ने ठंडी सांस भरी.

‘‘कितनी देर से खड़ा हूं,’’ हंसते हुए प्रशांत ने कहा.

‘‘आशा को कामकाजी महिलावास पहुंचा कर आई हूं,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘आशा तो सरला दीदी की देखरेख में ठीक से है. अब तुम मेरे बारे में भी कुछ सोचो.’’

अर्चना झिझकते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, मैं कह रही थी कि…तुम थोड़ी प्रतीक्षा और…’’

लेकिन प्रशांत ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘नहीं भई, अब और प्रतीक्षा मैं नहीं कर सकता. आओ, पार्क में बैठें.’’

‘‘बात यह है कि मेरे वेतन का आधा हिस्सा तो आशा को चला जाएगा.’’

‘‘यह तुम क्या कह रही हो, क्या मुझे इतना लोभी समझ रखा है,’’ प्रशांत ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं ऐसा नहीं सोचती. पर विवाह से पहले सबकुछ स्पष्ट कर लेना उचित है, जिस से आगे चल कर ये छोटीछोटी बातें दांपत्य जीवन में कटुता न घोल दें,’’ अर्चना ने प्रशांत की आंखों में झांका.

‘‘तुम्हारे अंदर छिपा यह बचपना मुझे बहुत अच्छा लगता है. देखो, आशा के लिए चिंता न करो, वह मेरी भी बहन है. चाहो तो उसे अपने साथ भी रख सकती हो.’’

सुनते ही अर्चना का मन हलका हो गया. वह कृतज्ञताभरी नजरों से प्रशांत को निहारने लगी.

प्रशांत के मातापिता दूर रहते थे, इसलिए कचहरी में विवाह होना तय हुआ. प्रशांत का विचार था कि दोनों बाद में मातापिता से आशीर्वाद ले आएंगे.

रविवार को खरीदारी करने के बाद दोनों एक होटल में जा बैठे.

‘‘तुम बैठो, मैं आर्डर दे कर अभी आया.’’

अर्चना यथास्थान बैठी होटल में आनेजाने वालों को निहारे जा रही थी.

‘‘मैं अपने मनपसंद खाने का आर्डर दे आया हूं. एकदम शाही खाना.’’

‘‘अब थोड़ा हाथ रोक कर खर्च करना सीखो,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए डांटा.

‘‘अच्छाअच्छा, बड़ी बी.’’

बैरे ने ट्रे रखी तो देखते ही अर्चना एकाएक प्रस्तर प्रतिमा बन गई. उस की सांस जैसे गले में अटक गई थी, ‘‘तुम… शराब पीते हो?’’

प्रशांत खुल कर हंसा, ‘‘रोज नहीं भई, कभीकभी. आज बहुत थक गया हूं, इसलिए…’’

अर्चना झटके से उठ खड़ी हुई.

‘‘अर्चना, तुम्हें क्या हो गया है? बैठो तो सही,’’ प्रशांत ने उसे कंधे से पकड़ कर झिंझोड़ा.

परंतु अर्चना बैठती कैसे. एक भयानक काली परछाईं उस की ओर अपने पंजे बढ़ाए चली आ रही थी. उस की आंखों के समक्ष सबकुछ धुंधला सा होने लगा था. कुछ स्मृति चित्र तेजी से उस की नजरों के सामने से गुजर रहे थे- ‘मां पिट रही है. दोनों बहनें पिट रही हैं. घर के बरतन टूट रहे हैं. घर भर में शराब की उलटी की दुर्गंध फैली हुई है. गालियां और चीखपुकार सुन कर पड़ोसी झांक कर तमाशा देख रहे हैं. भय, आतंक और भूख से दोनों बहनें थरथर कांप रही हैं.’

अर्चना अपने जीवन में वह नाटक फिर नहीं देखना चाहती थी, कभी नहीं.

जिंदगी के शेष उजाले को आंचल में समेट कर अर्चना ने दौड़ना आरंभ किया. मेज पर रखा सामान बिखर गया. होटल के लोग अवाक् से उसे देखने लगे. परंतु वह उस भयानक छाया से बहुत दूर भाग जाना चाहती थी, जो उस के पीछेपीछे चीखते हुए दौड़ी आ रही थी.

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