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रुद्राभिषेक का बढ़ता चलन, पूजापाठियों का बढ़ता कारोबार

पूजापाठियों द्वारा महिलाओं और कन्याओं को डरा व लालच दिखा कर उन से रुद्राभिषेक कराने के लिए कहा जाता है. इस में उन को केवल पैसा खर्च करना होता है, बाकी काम की जिम्मेदारी पूजा करने वाले की होती है. आज लोगों के संपर्क कम होते जा रहे हैं, ऐसे में सोशल मीडिया पर वैबसाइट के जरिए इन पूजापाठियों का प्रचार होता है. पूजा कराने के लिए इन से वहीं संपर्क कर सकते हैं. अगर किसी पूजापाठी पास समय नहीं होता या वह कहीं दूर है तो वह करीब वाले अपने किसी पूजापाठी को भेज देता है.

जिस तरह से ओला, ऊबर काम करते हैं वैसे ही पूजापाठी भी कर रहे हैं. आज के समय में कोई भी अपने कैरियर और वेतन से संतुष्ट नहीं है. 45 साल के बाद बीमारी होती है. मुकदमे भी चलते हैं. प्रौपर्टी भी चाहिए होती है. ऐसे में इस के झांसे में लोग जल्दी आ जाते हैं. एक मध्यवर्ग शख्स की मासिक कमाई 12 से 15 हजार रुपए है. एक रुद्राभिषेक की सामान्य पूजा में इतने पैसे आराम से खर्च हो जाते है. पूजापाठी पूजा का खर्च और महत्त्व माली हालत देख कर वसूलता है. किस काम के लिए पूजा की जा रही है उस को भी बताया जाता है. उस के पूजन का तरीका भी अलग होता है.

रुद्राभिषेक का गणित

सावन माह में रुद्राभिषेक का महत्त्व ज्यादा होता है. सोशल मीडिया पर इस का खूब प्रचार किया जा रहा है. इस की आड में पूजा से ले कर पूजा सामाग्री तक महंगे दामों में बेची जा रही है. काशीविश्वनाथ मंदिर और महाकाल मंदिर औनलाइन पैसा ले कर औनलाइन पूजा भी करा रहे हैं. रूद्राक्ष रत्न, रूद्रा सैंटर, नेपाल रूद्राक्ष, रुद्राभिषेक पूजा डाटकौम जैसी तमाम वैबसाइट हैं जो पूजा से जुड़ी सामग्री बेच रही हैं. पैसा मिलते ही औनलाइन डिलीवरी के जरिए पूजा सामग्री भेज दी जाती है.

एक नजर इस सामग्री और इस की कीमत पर डालें तो रुद्राभिषेक के कारोबार का पता चलता है. शिव और शिवलिंग के नाम पर रुद्राभिषेक का औनलाइन कारोबार खूब चल रहा है. रुद्राभिषेक बीड्स माला है, इस की कीमत 19,800 से ले कर 35,200 रुपए तक है. स्फार्टिक श्रीयंत्र 221 ग्राम वाले की कीमत 33,150 रुपए, कालभैरव सुपरफाइन ब्रास 12,050 रुपए, ओम नमो शिवलिंग 2 लाख 20 हजार रुपए, गोमधर शिवफेस 86,600 रुपए, एकमुखी रुद्राक्ष 71 हजार रुपए, 9 मुखी 24 हजार रुपए, गौरीशंकर रुद्राक्ष 28 हजार रुपए है. और तो और, शिवपूजा में चढ़ाए जाने वाले बेलपत्र भी औनलाइन 250 रुपए से ले कर 5,900 रुपए में उपलब्ध हैं.

वैबसाइट पर पूजा का पूरा विवरण मिल जाता है. उस पर लिखा होता है- ‘रुद्राभिषेक पूजा भगवान शिव को प्रसन्न करने का सब से आसान उपाय होता है. रुद्राभिषेक करने से आप की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं. रुद्राभिषेक पूजा में केवल 1 से 2 घंटे का समय लगता है और इस में मात्र 2,100 से 5,100 रुपए का खर्चा आता है. अधिक जानकारी के लिए आप पंडित जी से बात कर सकते हैं.’ अब आप पंडित जी से बात करेंगे तो वे पूजा का अलग महत्त्व और खर्च बताते हैं.

अगर आप रुद्राभिषेक 2 पंडितों द्वारा करवाना चाहते हैं तो सामान और दक्षिणा को मिला कर 5,100 रुपए का खर्चा आएगा. अगर लघु रुद्राभिषेक, नमकचमक रुद्राभिषेक करवाते हैं तो इस में 11 पंडितों की दक्षिणा और सामान का खर्च 15, हजार रुपए आएगा. लघु रुद्राभिषेक में 3 घंटे का समय लगता है. पूजा का खर्च पंडित और पूजास्थल के हिसाब से बढता जाता है. यह एक से दो लाख रुपए तक भी हो जा सकता है.

अगर उज्जैन में रुद्राभिषेक पूजा करवाना चाहते हैं और उस में होने वाले खर्चे के बारे में जानना चाहते हैं तो आप उज्जैन में प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य मंगलेश तिवारी से इस के बारे में जान सकते हैं और आप औनलाइन अपनी पूजा भी बुक कर सकते हैं. वैसे, चाहें तो रुद्राभिषेक पूजा किसी भी शिव मंदिर में जा कर कर सकते हैं लेकिन कुछ प्रसिद्ध मंदिरों में पूजा करने का विशेष महत्त्व है. उज्जैन के महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, गुजरात के सोमनाथ ज्योतिर्लिंग, नासिक के भीमाशंकर और त्रिंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग, इंदौर के पास स्थित ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग, तमिलनाडू के रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग में पूजा करने से फल की प्राप्ति जल्द हो जाती है.

उज्जैन में रुद्राभिषेक पूजा करवाना चाहते हैं तो उज्जैन में प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य मंगलेश तिवारी से संपर्क कर सकते हैं. मंगलेश तिवारी को हर प्रकार की पूजा का 15 वर्षों का अनुभव है. जिन भी जातकों ने मंगलेश तिवारी के साथ पूजा संपूर्ण की है उन्हें तुरंत ही अच्छे परिणाम मिले हैं. मंगलेश तिवारी से रुद्राभिषेक पूजा के विषय में और जानकरी व मुफ्त परामर्श लेने के लिए गूगल पर सर्च कर कर सकते हैं. जल्द लाभ होने के लिए सिद्व मंदिर, सिद्व पुजारी और पवित्र सामग्री होनी जरूरी होती है. इसी के आधार पर पूजा का खर्च बढ़ता है.

रुद्राभिषेक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है. रुद्राभिषेक में भगवान शिव के रुद्र अवतार की पूजा और उन का अभिषेक किया जाता है. भगवान शिव को रुद्राभिषेक की मदद से जल्दी प्रसन्न किया जा सकता है. अब देखिए पूजा में कितनी सामग्री लगती है. रुद्राभिषेक पूजा के लिए 11 वस्तुएं सब से जरूरी होती हैं. इस में फलों का रस, राख या भस्म पाउडर, चीनी, भांग, शहद, पानी, दूध, मक्खन, दही, चंदन का पाउडर और तेल शामिल है.

क्यों करवाते हैं पूजा

रुद्राभिषेक पूजा का लाभ सोशल मीडिया के जरिए प्रचारित किया जाता है. उस में समझाया जाता है कि हिंदू धर्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य द्वारा किए गए पाप ही उस के दुखों का कारण बनते हैं. ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति की कुंडली में मौजूद पापों से छुटकारा पाने के लिए यदि रुद्राभिषेक किया जाए तो उस से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है. इस के साथ इस क्रिया के माध्यम से व्यक्ति अपने निजी जीवन से जुड़े दुखों से नजात भी आसानी से पा सकते हैं. रुद्राभिषेक के जरिए शिव जल्द ही आशीर्वाद दे कर सभी दुखों को दूर कर देते हैं. रुद्राभिषेक मुख्य रूप से मनुष्य अपने सभी दुखों से मुक्ति पाने के लिए करते हैं. इस के जरिए व्यक्ति कम समय में ही अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति कर सकता है.

घर या प्रौपर्टी से जुड़े लाभ प्राप्त करने के लिए शिव का दही से रुद्राभिषेक करना फलदायी साबित होता है. आर्थिक लाभ प्राप्त करने या बैंकबैलेंस बढ़ाने के लिए शहद और घी से रुद्राभिषेक करना फलदायी साबित हो सकता है. यदि व्यक्ति किसी तीर्थस्थल से प्राप्त पवित्र जल से शिव का रुद्राभिषेक करे तो इस से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है. यदि आप किसी रोग से नजात पाना चाहते हैं तो इस के लिए शिव का कुशोदक से अभिषेक करना लाभकारी रहेगा. गाय के दूध से शिव का अभिषेक कर पुत्र की प्राप्ति की जा सकती है. अपने वंश का विस्तार करने के लिए घी से शिव का रुद्राभिषेक किया जाना बेहद लाभकारी साबित हो सकता है.

शिव का अभिषेक यदि सरसों के तेल से किया जाए तो इस से शत्रुओं से मुक्ति मिलती है. टायफायड या तपेदिक के रोग से पीड़ित होने पर शिव का शहद से अभिषेक करना फलदायी साबित हो सकता है. छात्र यदि दूध में शक्कर मिला कर शिव का अभिषेक करें तो इस से उन की बुद्धि में वृद्धि होती है और परीक्षा में अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं. धनप्राप्ति या कर्जे से मुक्ति पाने के लिए गन्ने के रस से शिव का अभिषेक करने से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है.

कहां करे रुद्राभिषेक

रुद्राभिषेक करने के लिए सब से उत्तम यही होता है कि किसी शिव मंदिर में जा कर शिवलिंग का अभिषेक करें. शिव का वह मंदिर जो किसी नदी के तट पर स्थित हो या फिर किसी पर्वत के किनारे हो, वहां स्थित शिवलिंग का रुद्राभिषेक करना खासा फलदायी साबित हो सकता है. किसी मंदिर के गर्भघर में स्थित शिवलिंग का अभिषेक करना भी फलदायी साबित हो सकता है. यदि घर में ही शिवलिंग स्थापित है तो शिव का रुद्राभिषेक आप घर पर भी कर सकते हैं. इस के अलावा यदि शिवलिंग न मिले तो आप अपने हाथ के अंगूठे को भी शिवलिंग मान कर उस का रुद्राभिषेक कर सकते हैं.

अगर रुद्राभिषेक ही सारी परेशानियों और चाहतों का निदान है तो स्कूल, कचहरी, अस्पताल जाने की जगह मंदिर जा कर रुद्राभिषेक करने/कराने से ही फल हासिल हो जाएगा? इस के लिए मेहनत करने की क्या जरूरत है? इस तरह के झांसे में आने से पहले यह सोचना चाहिए कि पूजा पर जो भी पैसा खर्च हो रहा है उस को कमाने में कितनी मेहनत और संघर्ष करना पड़ता है. यह मेहनत की कमाई पूजापाठी लोग मुफ्त में ले जा रहे हैं. अब प्रचार का तरीका इतना मजबूत हो गया है कि लोग आसानी से झांसे में आ जाते हैं. ऐसे झांसे में आने से बचना चाहिए.

और, रजनीगंधा मुरझा गया

लेखक – महेश कुमार केशरी

“पापा लाइट नहीं है, मेरी औॅनलाइन क्लासेज कैसे   होंगी? कुछ दिनों में मेरे सैकंड टर्म के एग्जाम शुरू होने वाले हैं. कुछ दिनों तक तो मैं ने अपनी दोस्त नेहा के घर जा कर पावरबैंक चार्ज  कर के काम चलाया लेकिन अब रोजरोज किसी से पावरबैंक चार्ज करने के लिए कहना अच्छा नहीं लगता. आखिर, कब आएगी हमारे घर बिजली?” संध्या अपने पिता आदित्य से बड़बड़ाती हुई बोली.

“आ जाएगी, बेटा, बहुत जल्दी आ जाएगी,” आदित्य बोला, लेकिन जानता है कि वह संध्या को केवल दिलासा दे रहा है. सच तो यह है कि  अब मखदूमपुर में बिजली कभी नहीं आएगी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बिजली विभाग ने यहां के घरों की बिजली काट रखी है. पानी की पाइपलाइन खोद कर धीरेधीरे हटा दी जाएगी और धीरेधीरे मखदूमपुर से तमाम  मौलक नागरिक सुविधाएं खुद ही खत्म  हो जाएंगी और, सिर से छत छिन जाएगी. तब वह सुलेखा,  संध्या, सुषमा और परी को ले कर कहां जाएगा? बहुत मुश्किल से वह अपने एलआईसी के फंड और अपने पिता बद्री प्रसाद के रिटायरमैंट से मिले 20 लाख रुपए से  एक अपार्टमैंट खरीद पाया था,  तिनकातिनका जोड़ कर. जैसे गोरैया अपना घर बनाती है. उस ने सोचा था कि अपनी बच्चियों की शादी करने के बाद वह आराम से अपनी पत्नी सुलेखा के साथ रहेगा. बुढ़ापे के दिन आराम से अपनी छत के  नीचे काटेगा. लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकेगा. उसे यह घर खाली करना होगा वरना नगरनिगम वाले आ कर जेसीबी से तोड़ देंगे.

वह दिल्ली से सटे फरीदाबाद के पास मखदूमपुर गांव  में रहता है. पिछले बीसबाइस सालों से मखदूमपुर में 3 कमरों के अपार्टमैंट में वह रह  रहा है. बिल्डर संतोष तिवारी  ने घर बेचते वक्त यह बात साफतौर पर नहीं बताई थी कि यह जमीन अधिकृत नहीं है. यानी, वह निशावली  के जंगलों के बीच जंगलों और पहाड़ों को काट कर बनाया गया एक छोटा सा कसबा जैसा था जहां आदित्य रहता  आ रहा  था, हालांकि, अपार्टमैंट लेते वक्त उस के पिता बद्री प्रसाद और उस की पत्नी  सुलेखा ने मना किया था- ‘मुझे तो डर लग रहा है, कहीं यह जो तुम्हारा फैसला है वह कहीं हमारे लिए बाद में सिरदर्द न बन जाए.’

तब उसी क्षेत्र के एक नामीगिरामी नेता रंकुल नारायण ने सुलेखा, आदित्य और बद्री प्रसाद को आश्वस्त किया था- ‘अरे, कुछ नहीं होगा. आप लोग आंख मूंद कर लीजिए यहां अपार्टमैंट. मैं ने खुद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिलाए हैं यहां अपार्टमैंट. मैं पिछले पंद्रहबीस सालों से यहां का विधायक हूं. चिंता करने की कोई बात नहीं है.’ रंकुल नारायण का बहनोई था बिल्डर संतोष तिवारी.

यह बात आने वाले विधानसभा चुनाव में पता चली थी. रंकुल  नारायण ने उस साल के विधानसभा  चुनाव में सारे लोगों को आश्वासन दिया था कि आप लोगों को घबराने की कोई जरूरत नहीं है. आप लोग मुझे इस विधानसभा चुनाव में जितवा दीजिए, फिर मैं असेंबली में मखदूमपुर की बात उठाता हूं, कि नहीं, आप खुद ही देखिएगा. कोई नहीं खाली करवा सकता यह मखदूमपुर का इलाका. हम ने आप के राशनकार्ड बनवाए. हम ने आप के घरों में बिजली के मीटर लगवाए. यहां कुछ नहीं था, जंगल था जंगल. लेकिन हम ने जंगलों को कटवा कर पाइपलाइन बिछवाई. आप लोगों के घरों तक पानी पहुंचाया.

कोई बहुत बड़ी बात नहीं है अनाधिकृत को अधिकृत करवाना. असेंबली में चर्चा की जाएगी और कुछ उपाय कर लिया जाएगा. इस मखदूमपुर वाले प्रोजैक्ट में मेरे बहनोई का कई सौ करोड़ रुपया  लगा हुआ है. इसे हम किसी भी कीमत पर  अधिकृत करवा कर ही रहेंगे. और आखिरकार रंकुल नारायण की बातों पर लोगों ने विश्वास कर उसे  भारी मतों से जितवा दिया था. और, रंकुल नारायण के  विधानसभा चुनाव जीतने के सालभर बाद ही सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया था कि मखदूमपुर कसबा बसने से निशावली के प्राकृतिक सौंदर्य व पर्यावरण को बहुत ही नुकसान हो रहा है. लिहाजा, जो अनाधिकृत कसबा  मखदूमपुर बसाया गया है उसे अविलंब तोड़ा जाए. डेढ़दो महीने का वक्त खुले में रखे कपूर की तरह धीरेधीरे  उड़ रहा था.

“पापा, न हो तो आप मुझे मेरी दोस्त सुनैना के घर में छोड़ आइए. वहां मेरा पावरबैंक चार्ज हो जाएगा और मैं सुनैना से मिल भी लूंगी. मुझे कुछ नोटस  भी उस से लेने हैं.” आदित्य को यह बात बहुत अच्छी लगी सुनैना के घर जाने वाली. बच्ची का मन लग जाएगा, कोविड़ में घर में रहतेरहते बोर हो गई है. आदित्य ने स्कूटी निकाली स्टार्ट करते हुए बोला, “आओ, बेटी, बैठो.”

थोड़ी देर  में स्कूटी सड़क पर दौड़ रही थी. संध्या को सुनैना के घर में छोड़ कर कुछ जरूरी काम निबटा कर वह राशन का सामान पहुंचाने घर आ गया था.

‘मैं, क्या करूं, सुलेखा? तीनतीन जवान बच्चियों को ले कर कहां किराए के मकान में  मारामारा फिरूंगा. और अब उम्र भी ढलान पर होने को आ रही है. आखिर, बुढ़ापे में कहीं तो सिर टिकाने के लिए ठौर  चाहिए ही. कुछ मेरे एलआईसी के फंड हैं, कुछ बाबूजी के रिटायरमैंट का पैसा पड़ा  हुआ है. जोड़जाड़ कर 20 लाख  रुपए तो हो ही जाएंगे. कुछ संतोष तिवारी से निगोशियेट (मोलभाव) भी कर लेंगे.’ और तब ही आदित्य ने 20 लाख रुपए में वह तीन कमरों वाला अपार्टमैंट खरीद लिया था बिल्डर संतोष तिवारी से.

लेकिन, तब सुलेखा ने आदित्य को मना करते हुए कहा था- ‘पता नहीं क्यों ये संतोष तिवारी और रंकुल नारायण मुझे ठीक आदमी नहीं जान पड़ते. इन पर विश्वास करने का दिल नहीं करता.’

लेकिन आदित्य बहुत ही सीधासादा आदमी था, वह किसी पर भी सहज ही विश्वास कर लेता था.

तभी उस की नजर अपनी पत्नी सुलेखा पर गई . शायद 8वां महीना लगने को हो आया है. पेट कितना निकल  गया है. उस ने देखा, सुलेखा नजदीक के चापाकल से मटके में एक मटका पानी सिर पर लिए चली आ रही है. साथ में, उस की 2 छोटी बेटियां परी और सुषमा भी थीं. वह अपने से न उठ पाने वाले वजन से ज्यादा पानी दोदो बाल्टियों में भर कर नल से ले कर आ रही थी. आदित्य ने देखा तो दौड़ कर बाहर निकल आया और सुलेखा के सिर से मटका उतारते हुए बोला- ‘पानी नहीं आ रहा है क्या?’

तभी उस का ध्यान बिजली पर चला गया. बिजली तो कटी हुई है. आखिर, पानी चढ़ेगा तो कैसे? मोटर तो बिजली से चलती है न.

‘नहीं. पानी कैसे आएगा? बिजली कहां है? एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे न. न हो तो मुझे मेरे पापा के घर कुछ दिनों के लिए पहुंचा दो. जब यहां कुछ व्यवस्था हो जाएगी तो यहां वापस  बुला लेना. बच्चा भी ठीक से हो जाएगा और मुझे थोड़ा आराम भी मिलेगा. यहां इस हालत में   मुझे बहुत तकलीफ हो रही है.  पानी भी नहीं आ रहा है, बिजली भी नहीं आ रही है. सुलेखा चेहरे का पसीना पल्लू से पोंछते हुए बोली.

अभी तक  सुलेखा और बेटियों को, घर  टूटने वाला है, यह बात जानबूझ कर आदित्य ने नहीं बताई है. खांमखां वे परेशान हो  जाएंगी.

‘हां पापा, घर में बहुत गरमी लगती है. पता नहीं बिजली कब आएगी. हमें नानू के घर पहुंचा दो न पापा,” परी बोली.

‘हां बेटा, कोविड कुछ कम हो तो तुम लोगों को नानू के घर पहुंचा दूंगा,’ आदित्य परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला.

‘तुम हाथमुंह धो लो मैं, चाय गरम करती हूं.’ सुलेखा गैस पर चाय चढ़ाते हुए बोली.

चाय पी कर वह टहलते हुए नीचे बालकनी में आ गया. कालोनी में, कालोनी को खाली करवाने की बात को ले कर ही  चर्चा चल रही थी.

कुलविंदर सिंह बोले- ‘यहीं, वारे( महाराष्ट्र) के जंगलों को काट कर वहां मेट्रो बनाया गया. वहां सरकार कुछ नहीं कह रही है, लेकिन हमारी कालोनी इन्हें अनाधिकृत लग रही है. सब सरकार के चोंचले हैं. मेट्रो से कमाई है, तो वहां वह  पर्यावरण संरक्षण की बात नहीं करेगी. लेकिन  हमारे यहां निशावली के जंगलों  और पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. हुंह, पता नहीं कैसा सौंदर्यीकरण कर रही है सरकार? फिर, ये हमारा राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड किसलिए बनाए गए हैं? केवल, वोट लेने के लिए. जब, कोई बस्ती-कालोनी बस रही होती है, बिल्डर उसे लोगों को बेच रहा होता है तब सरकारों की नजर इस पर  क्यों नहीं जाती? हम अपनी सालों की  मेहनत से बचाई पाईपाई जोड़ कर रखते हैं. अपने बालबच्चों के लिए. और, कोई कौर्पोरेट या बिल्ड़र हमें ठग कर ले कर चला जाता है. तब बाद में सरकार की नींद खुलती है. हमें सरकार कोई दूसरा घर कोई व्यवस्था कर के दे वरना हम यहां से हटने वाले नहीं हैं.’

घोष बाबू सिगरेट की राख चुटकी से झाड़ते हुए बोले- ‘अरे छोड़िए कुलविंदर सिंह. ये सारी चीजें सरकार और इन पूंजीपतियों की सांठगांठ से ही होती हैं. अगर अभी जांच करवा  ली जाए तो आप देखेंगे कि हमारे कई मिनिस्टर, एमपी, एमएलए इन के रिश्तेदार इस फर्जीवाड़े में पकड़े जाएंगे. सरकार की नाक  के नीचे इतना बड़ा कांड होता है. करोड़ों के कमीशन बंट जाते हैं और आप कहते हैं, कि सरकार को कुछ पता नहीं होता. हैंय, कोई मानेगा इस बात को. सब, सेटिंग से होता है . नहीं तो इस देश में एक आदमी फुटपाथ पर भीख मांगता है और दूसरा आदमी केवल तिकड़म भिड़ा कर ऐश करता है. यह आखिर कैसे होता है? सब जगह सेटिंग काम करती है.’

उस का नीचे बालकनी में मन नहीं  लगा, वह वापस अपने कमरे में आ गया और बिस्तर पर  आ कर पीठ सीधा करने लगा.

तुम से मैं कई बार कह चुकी हूं लेकिन तुम मेरी  कोई भी बात मानो तब न. अगर होटल लाइन का काम नहीं खुल रहा है तो कोई और कामधाम शुरू करो. समय से आदमी को सीख लेनी चाहिए. कोरोना का दो महीना बीतने को हो आया और सरकार होटलों को खोलने के बारे में कोई विचार नहीं कर रही है. आखिर, और लोग भी अपना बिजनैस चेंज कर रहे हैं, लेकिन, पता नहीं, तुम क्यों इस होटल से चिपके हुए हो?

कौन समझाए सुलेखा को कि बिजनैस चेंज करना इतना आसान नहीं होता है. एक बिजनैस को सेट करने में कईकई पीढ़ियां निकल जाती हैं. फिर, उस के  दादापरदादा यह काम कई पीढ़ियों से करते आ रहे थे. इधर नया बिजनैस शुरू करने के लिए नई पूंजी चाहिए. कहां से ले कर आएगा वह अब नई पूंजी? इधर, होटल पर बिजली का बकाया बिल बहुत चढ़ गया है. स्टाफ का तीन महीने का पुराना बकाया चढ़ा हुआ था ही.

रहीसही कसर इस कोरोना ने निकाल दी. कुल चारपांच महीनों का बकाया चढ़ गया होगा. अब तक दुकान खोलतेखोलते दुकान का मालिक सिर पर सवार हो जाएगा दुकान के भाड़े के लिए.

दूध वाले, राशन वाले को भी लौकडाउन खुलते ही पैसे देने होंगे. पिछले बीसबाइस सालों का संबंध है उन का, इसलिए वे कुछ कह नहीं पा रहे हैं. आखिर, वह करे तो क्या करे?

पिछले लौकडाउन में जब संध्या और सुषमा के स्कूल वालों ने   कैंपस केयर (एजुकेशन ऐप) को लौक कर दिया था तो मजबूरन उसे जा कर स्कूल की फीस भरनी पड़ी थी.

आखिर स्कूल वाले भी करें तो क्या करें? उन के भी अपने खर्चे हैं- बिल्डिंग का भाड़ा, स्टाफ का खर्चा और स्कूल के मेंटिनैंस का खर्चा. कोई भी हवा पी कर थोड़ी ही जी सकता है.

आखिर, कहां गलती हुई उस से. वह इस देश का नागरिक है. उसे वोट  देने का अधिकार है. वह सरकार को टैक्स भी देता है. सारी चीजें उस के पास थीं. पैनकार्ड, राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड, लेकिन, जिस घर में वह इधर बीसबाइस सालों से रहता आ रहा था वह घर ही अब उस का नहीं था. घर भी उस ने पैसे दे कर ही खरीदा था. उसे यह उस की कहानी नहीं लगती, बल्कि, उस के जैसे दस हजार लोगों की कहानी लगती है.  मखदूमपुर दस हजार की आबादी वाला कसबा था. ऐसा, शायद, दुनिया के सभी देशों में होता है. नकली पासपोर्ट, नकली वीजा, वैधअवैध नागरिकता. सभी जगह इस तरह के दस्तावेज पैसे के बल पर बन जाते हैं. सारे देशों में सारे मिडिल क्लास लोगों की एकजैसी परेशानी है. यह केवल उस की समस्या नहीं है, बल्कि उस के जैसे सैकड़ोंलाखोंकरोड़ों लोगों की समस्या है. बस, मुल्क और सियासतदां बदल जाते हैं. स्थितियां कमोबेश एकजैसी ही होती हैं. सब की एकजैसी लड़ाइयां, बस, लड़ने वाले लोग अलगअलग होते हैं. जमीन जमीन का फर्क है, लेकिन, सारी जगहों पर हालात एकजैसे ही  हैं.

आदित्य का सिर भारी होने लगा और  पता नहीं कब वह नींद की आगोश में चला गया.

इधर, वह सुलेखा और अपनी तीनों बेटियों को अपने ससुर के यहां  लखनऊ पहुंचा आया था. और, बहुत धीरे से इन हालात के बारे में उस ने सुलेखा को बताया था.

“अरे बाबूजी, अब इस रजनीगंधा के पौधे को छोड़ भी दीजिए. देखते नहीं, पत्तियां कैसी मुरझा कर टेढ़ी हो गईं हैं. अब नहीं लगेगा रजनीगंधा. लगता है, इस की जड़ें सूख गई हैं. बाजार जा कर नया रजनीगंधा लेते आइएगा, मैं लगा दूंगा.”

माली ने आ कर जब आवाज लगाई तब जा कर आदित्य की तंद्रा टूटी.

“ऊं, क्या चाचा, आप कुछ कह रहे थे?” आदित्य ने रजनीगंधा के ऊपर से नज़र हटाई.

करीबकरीब बीसपच्चीस  दिन  हो गए हैं उसे नए किराए के मकान में  आए. अगलबगल से एक लगाव जैसा भी अब हो गया है. शिवचरन, माली चाचा, कभीकभी उस के घर आ जाते हैं. इधरउधर की बातें करने लगते हैं, तो समय  का  जैसे पता ही नहीं चलता.

मखदूमपुर से लौटते हुए वह अपने अपार्टमैंट में से यह रजनीगंधा का पौधा कपड़े में लपेट कर अपने साथ ले आया था. आखिर, कोई तो निशानी उस अपार्टमैंट की होनी चाहिए जहां इतने साल निकाल दिए.

“मैं कह रहा था कि बाजार से एक नया रजनीगंधा का पौधा लेते आना. लगता है, इस की जड़ें सूख गई हैं. नहीं तो, पत्ते में हरियाली जरूर फूटती. देखते नहीं कि कैसे मुरझा गई  हैं पत्तियां. कुंभला कर पीली पड़ गई  हैं. लगता है, इन की जड़ें सूख गई हैं. बेकार में तुम  इन्हें पानी दे रहे हो.”

“हां चाचा, पीला तो मैं भी पड़ गया हूं. जड़ों से कटने के बाद आदमी भी सूख जाता है. अपनी जड़ों से कट जाने के बाद आदमी का भी कहीं कोई वजूद  बचता है क्या? बिना मकसद की जिंदगी हो जाती है. पानी इसलिए दे रहा हूं कि कहीं ये फिर से हरीभरी हो जाएं. एक उम्मीद है, अभी भी  जिंदा है…कहीं भीतर…”

और आदित्य  वहीं रजनीगंधा के पास बैठ कर फूटफूट कर रोने लगा. बहुत दिनों से जब्त की हुई ‘नदी’ अचानक से भरभराकर टूट गई थी और शिवचरन चाचा उजबकों की तरह आदित्य को घूरे जा रहे थे. उन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

इतनी रात ढले

इतनी रात ढले…

हौलेहौले कदमों की आहट

दबीदबी खनकती हंसी

यौवनमंजरियों की गुनगुनाहट

वसंती सुगंध के मादक झोंके

इतनी रात ढले…

तंद्रिल अलकों का फैलाव

चमेली बांहों का उलझाव

लजीली पायलों की झंकार

पापी पपीहे की पुकार

इतनी रात ढले…

गहरी खुशबू चंदन की

मेहंदी रची हथेलियां गोरी

कुसुम ओस भीगा गात

सद्य:स्नाता गदराई रेशमी

इतनी रात ढले…

लेखक – सुभाष चंद्र झा

आजादी : थानेदार और नेताजी के बीच फंसा शंकर बाबू

शंकर बाबू आटोरिकशा से उतर कर कारखाने की ओर जा ही रहे थे कि 2 सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया.

एक बोला, ‘‘थाने चलो, थानेदार ने बुलाया है.’’

दूसरा बोला, ‘‘अब तक कहां थे? 3 दिनों से हम तुम्हें ढूंढ़ रहे हैं.’’

हैरानपरेशान शंकर बाबू आसपास देखने लगे. तब तक कारखाने के कुछ मुलाजिम पास आ गए और वे उन्हें ऐसे देखने लगे, मानो वे शातिर अपराधी हों.

शंकर बाबू उस कारखाने के माने हुए मजदूर नेता थे. इस लिहाज से उन्होंने सिपाहियों पर रोब जमाना चाहा, ‘‘आखिर मेरा कुसूर क्या है?’’

‘‘थाने पहुंच कर जान लेना.’’

‘‘नहीं, बिना कुसूर जाने मैं तुम लोगों के साथ नहीं चल सकता.’’

इस पर एक सिपाही ने खास पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘‘चलते हो या लगाऊं एक…’’

यह सुनते ही शंकर बाबू का दिमाग चकरा गया. वे तुरंत सिपाहियों के साथ चलने को तैयार हो गए.

थानेदार के आगे शंकर बाबू को पेश करते हुए एक सिपाही ने कहा, ‘‘‘साहब, यही हैं शंकर बाबू. बड़ी मुश्किल से पकड़ कर लाए हैं. ये आ ही नहीं रहे थे, संभालिए जनाब.’’

इतना कह कर सिपाही ने शंकर बाबू को बेजबान जानवर की तरह थानेदार की ओर धकेल दिया.

शंकर बाबू को बहुत गुस्सा आया, मगर वे गुस्से को दबाते हुए थोड़ी तीखी आवाज में थानेदार से बोले, ‘‘मुझे क्यों पकड़ा गया है? मेरा कुसूर क्या है? मैं शहर का एक इज्जतदार आदमी आदमी हूं. मैं…’’

‘‘अरे छोड़ो इज्जतदार और बेइज्जतदार की बातें. यह बताओ कि 15 अगस्त को झंडा फहरा कर तुम कहां गुम हो गए थे? जानते हो कि कितना बड़ा राष्ट्रीय अपराध किया है तुम ने?’’

शंकर बाबू का सिर चकराने लगा, ‘‘राष्ट्रीय अपराध? क्या झंडा फहराना राष्ट्रीय अपराध है? नहींनहीं, यह तो मेरा मौलिक अधिकार है. जरूर कहीं कुछ गलतफहमी हुई है…’’ शंकर बाबू ने तनिक गुस्से में कहा, ‘‘मैं कहीं भी किसी वजह से जाऊं, क्या मुझे आप को बता कर जाना पड़ेगा? पहले साफसाफ मेरा अपराध बताइए.’’

शंकर बाबू का गुस्सा खुद पर ही भारी पड़ रहा था. थानेदार ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘‘अपनी आवाज नीची कर, वरना… एक तो अपराध करता है ऊपर से गरजता भी है. यानी चोरी और सीनाजोरी, वह भी मुझ से… थानेदार जालिम सिंह से? जिस से बड़ेबड़े गुंडेबदमाश थरथर कांपते हैं.’’

शायद जिंदगी में आज पहली बार शंकर बाबू का पुलिस के साथ सामना हुआ था. वे इस पुलिसिया अंदाज से सकपका गए थे. उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘माफ कीजिए, आप को कोई गलतफहमी हुई है. मैं तो एक पढ़ालिखा इनसान हूं, मजदूरों की अगुआई करता हूं. हो सकता है कि आप को किसी और शख्स की तलाश हो.’’

थानेदार थोड़ी नीची आवाज में बोला, ‘‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. मिस्टर शंकर, आप मजदूर नेता हैं न? आप ने 15 अगस्त को अपने यूनियन के दफ्तर में एक छोटा सा जलसा किया, झंडा फहराया और चल दिए. उस दिन से आप आज नजर आए हैं. इस समय… शाम के 7 बजे हैं, जबकि झंडा परसों से लगातार लहरा रहा है और आप कह रहे हैं कि अपराध नहीं किया?’’

इतना कह कर थानेदार ने सिपाहियों की ओर मुखातिब हो कर कहा, ‘‘डाल दो इस को लौकअप में.’’

तब तक शंकर बाबू की बीवी इलाके के नेताजी को ले कर थाने पहुंच गई थी. शंकर बाबू को काटो तो खून नहीं. सिपाही मुस्तैद हो गए थे. नेताजी को समय की नजाकत समझते देर नहीं लगी. उन्होंने हलकी मुसकान फैलाते हुए थानेदार से पूछा, ‘‘आखिर माजरा क्या है थानेदार साहब?’’

थानेदार भावुक होता हुआ बोला, ‘‘अरे साहब, इस ने राष्ट्रीय झंडे का अपमान किया है. यानी देश का, राष्ट्र का अपमान किया है. इसे इतनी भी जानकारी नहीं कि राष्ट्रीय झंडा यदि सुबह फहराया जाता है, तो शाम तक उसे नीचे उतार लिया जाता है.

‘‘इस ने अपने यूनियन के दफ्तर के सामने 15 अगस्त को झंडा फहराया था, जो अभी तक लहरा रहा है. यह भारतीय संविधान के तहत जुर्म है. कानूनी अपराध है.’’

शंकर बाबू को यह जानकारी नहीं थी. उन्होंने विनती भरी आवाज में थानेदार और नेताजी से निवेदन किया, ‘‘साहब, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मुझ से बहुत बड़ी भूल हुई है. आइंदा कभी ऐसा नहीं होगा. मुझे बचा लीजिए.’’

थानेदार ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘हूं, रस्सी भी जल गई और ऐंठन भी चली गई.’’

नेताजी ने हालात को संभालते हुए कहा, ‘‘कानून तो अंधा होता है, मगर शंकर बाबू एक निहायत ही शरीफ आदमी हैं.’’

फिर नेताजी ने संकेत से शंकर बाबू को एक ओर ले जा कर धीरे से कहा, ‘‘भाई, यह तो राष्ट्र के अपमान का मामला है. बहुत बुरा हुआ, तुम अगर राष्ट्र धर्म निभा नहीं सकते थे, तो झंडा फहराया ही क्यों? यह तो जुर्म नहीं, घोर जुर्म है, इसलिए शेर को शेर की मांद में ही सुलट लो. चांदी के जूते से थानेदार का मुंह सिल दो.’’

शंकर बाबू को लगा कि वे आसमान से गिरे, खजूर में अटके. संभलते हुए उन्होंने लाचारी में हामी भर दी. नेताजी ने इशारे से थानेदार को अपने पास बुला लिया.

थानेदार ने नेताजी का सुझाव मान लिया और शंकर बाबू को यूनियन के दफ्तर जा कर झंडा उतारने का आदेश देते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आप के यूनियन के दफ्तर के सामने फहराया गया झंडा 15 अगस्त की शाम को ही उतार लिया गया था. जैसा नेताजी कहेंगे, वैसा ही होगा. ये हमारे नेता हैं. हम वही करते हैं, जो ये कहते हैं.’’

शंकर बाबू को लगा कि थानेदार की कुरसी के पीछे लगी महात्मा गांधी की तसवीर कांप रही है. शर्मिंदा हो रही है कि यह सब क्या है? कानून के रक्षक और राष्ट्र के खेवनहार दोनों ही मिलजुल कर आज झंडा उतारने की फीस वसूल कर के यह कैसा राष्ट्र प्रेम बांट रहे हैं? कैसी है इन की देशभक्ति?

15 अगस्त पर पढ़ें ‘पुरस्कार’ : एक फौजी की मर्मस्पर्शी कहानी

राम सिंह फौजी के घर से चिट्ठी आई थी. इतनी दूर रहते हुए आदमी के लिए चिट्ठी या खबर ही तो केवल एक सहारा होती है. ये चिट्ठियां भी अजीब होती हैं, कभी खुशी देती हैं, तो कभी दुख भी बढ़ा देती हैं.

राम सिंह फौजी के घर वालों की यह चिट्ठी भी अलग तरह की थी. उस में एक फौजी के घर वालों की सभी दिक्कतें लिखी थीं. बेटे ने लिखा था, ‘पापा, आप कैसे हैं? घर की दीवार गिरने लगी है और दादा भी आजकल बीमार रहते हैं. कोने वाली कोठरी की छत कभी भी गिर सकती है. परसों हुई मूसलाधार बारिश से उस में से बहुत पानी चू रहा था.

‘मां की हालत ठीक है. मैं अब रोजाना स्कूल जाता हूं. मेरी ड्रैस पुरानी हो गई है. पैंट भी मेरी घुटनों पर से फट गई है. ‘पापा, इस बार घर आते समय आप मेरी नई पैंट लेते आना. चप्पल जरूर लाना. छोटू के लिए आप खिलौने वाली टैंक और बंदूक लेते आना. आप जल्दी घर आना पापा.

‘आप का बेटा, राजू.’

राम सिंह सोचने लगा, ‘यह राजू भी होशियार हो गया है. केवल 10 साल का है, लेकिन चिट्ठी भी लिख लेता है. इस बार पैंट और चप्पल जरूर लेता जाऊंगा. छोटू के लिए खिलौने वाला टैंक और बंदूक भी लेता जाऊंगा. मैं इस बार जरूर छुट्टी लूंगा.’

‘‘राम सिंह, खाना खा लिया क्या?’’ पास ही से आवाज आई.

‘‘नहीं यार, खाया नहीं है. अभी थोड़ी देर में खा लूंगा.’’

‘‘कब खा लेगा? 8 बजे आपरेशन पर जाना है और साढ़े 7 बज चुके हैं,’’ राम सिंह का साथी फौजी रंजीत सिंह उस से बोला.

राम सिंह उठ कर भोजन की तरफ बढ़ गया.

‘आजकल यहां के हालात काफी खराब हो चुके हैं. आएदिन गोलीबारी होती रहती है. रोज दोनों तरफ के लोग मारे जाते हैं. न रात को आराम, न दिन को चैन. पता नहीं क्या करने पर उतारू हैं ये लोग. शांति से क्यों नहीं रहते,’ ऐसा सोचते हुए राम सिंह ने बड़े बेमन से खाना खाया. आज राम सिंह को घर के खाने की बहुत याद आई. दूर राजस्थान के रेतीले इलाके में बसे अपने छोटे से गांव की याद ताजा हो गई. घर से चिट्ठी आते ही हर बार उस का यही हाल हो जाता है. पता नहीं, क्यों?

‘‘राम सिंह, जल्दी से तैयार हो जाओ,’’ मेजर सौरभ घोष की आवाज कानों से टकराते ही राम सिंह ने अपनी राइफल, पट्टा, टौर्च वगैरह उठा ली.

‘‘आज हमें चौकी नंबर 2 पर जाना है. वहां हमला हो सकता है. वह चौकी बहुत खास है. वह हमें हर हाल में बचानी होगी,’’ मेजर सौरभ घोष सभी सिपाहियों से कह रहे थे.

सभी सिपाहियों और अफसरों की टुकड़ी वहां से चौकी नंबर 2 की तरफ बढ़ गई. ‘तड़तड़’ की आवाजों के साथ 1-2 फौजी शहीद हो गए, देश की हिफाजत की खातिर उन्होंने अपनी जान दे दी. देर तक गोलीबारी होती रही. अब कुछ ही लोग बाकी रह गए थे. राम सिंह के साथ 5 जवान और थे. दुश्मन की एक गोली राम सिंह के पास ही खड़े रंजीत सिंह को आ कर लगी, जिस से उस ने दम तोड़ दिया.

अपने दोस्त रंजीत सिंह को मरते देख राम सिंह को अपने शरीर का एक अंग जुदा होता महसूस हुआ. अचानक राम सिंह ने जोश में आ कर अपनी जान की परवाह न करते हुए दौड़ कर फायरिंग की. दुश्मन के 3 फौजी मारे गए. अब केवल दुश्मन का एक फौजी बचा था. वह चट्टान की आड़ से गोलियां चला रहा था. राम सिंह ने पेड़ की आड़ से उस पर 3-4 फायर झोंक दिए थे, जो निशाने पर लगे थे और वह दुश्मन भी तड़प कर शांत हो गया. राम सिंह ने 3-4 पल उसे देखा और बेफिक्र हो कर उस के करीब गया. चेहरामोहरा उलटपलट कर देखा और फिर बुदबुदाया, ‘उम्र तो मेरे बराबर की ही लग रही है.’

राम सिंह ने उस की तलाशी ली. उस के परिचयपत्र को टौर्च की रोशनी में पढ़ा. उस पर लिखा था, रफीक अशरफ, सिपाही, 36 लाइट इंफैंटरी. राम सिंह ने उस की पैंट की पिछली जेब टटोली, तो वह चौंका और बोला, ‘‘अरे, यह क्या? शायद इस की चिट्ठी है. चलो, देखते हैं,’’ कहते हुए राम सिंह ने अपने पास खड़े एक साथी को टौर्च पकड़ाई.

राम सिंह को थोड़ीबहुत उर्दू पढ़नी आती थी, जो कि उस ने गांव के मौलवी से बचपन में सीखी थी. राम सिंह ने चिट्ठी पढ़नी शुरू की:

‘अब्बूजान, अस्सलाम अलैकुम. आप कैसे हैं? हम सब अम्मी, सलीम, दादी अम्मां, दादू सब खैर से हैं. मेरा स्कूल लगना शुरू हो गया है.

‘मैं 8वीं जमात में हो गई हूं. सलीम भी चौथी जमात में आ गया है. मास्टरजी ने हम से नई ड्रैस सिलवाने को कहा है. मेरी फ्रौक पुरानी हो गई?है. सलीम भी नई ड्रैस मांग रहा है.

‘अब्बू, हमारे पास जूते भी नहीं हैं. दादू बोलते हैं कि बेटा इस बार तुम्हारे अब्बू ढेर सारी ड्रैस, जूते और चीजें ले कर आएंगे.

‘दादू का कुरता भी फट गया है. पर उन्हें मास्टरजी तो नहीं डांटते न. अम्मी और दादी अम्मां दोनों बहुत उदास रहती हैं. उन के बुरके भी पुराने और तारतार हो गए हैं. आप सालभर हम से दूर क्यों रहते हैं अब्बू?

‘पिछली ईद पर आप नहीं आए थे, सो हम ने उस दिन सेंवइयां भी नहीं बनाई थीं. सलीम बहुत रोया था उस दिन. इस बार आप जरूर आना.

‘घर पर पैसे खत्म हो गए हैं. पैसे के लिए हम ने अपनी एक बकरी बेची थी. असलम दुकान वाले ने अब उधार देना भी बंद कर दिया है. वह कहता है कि पहले वाले पूरे पैसे दो, उस के बाद सामान दूंगा.

‘आप आ जाइए अब्बू. आते समय आप मेरे लिए फ्रौक, सलीम के लिए ड्रैस, जूते, दादू के लिए कुरता, दादी अम्मां और अम्मी के लिए नए बुरके जरूर लाना.

‘अब्बू, यहां आने पर एक बकरी भी खरीदेंगे, सलीम बहुत जिद करता है न.

‘आप की बेटी, सोफिया.’

राम सिंह ने भरे गले से पूरी चिट्ठी पढ़ी. टौर्च की रोशनी में उसे लगा कि मानो उस का और अशरफ का घर एक ही हो. उसे कोई फर्क नहीं लगा. उसे अपने घर की दीवारें और छत गिरती नजर आईं. काश, वह इस फौजी के लिए सारी चीजें पहुंचा सकता और असलम दुकान वाले का उधार भी चुका सकता. दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी थी कि राजपूताना राइफल्स के जवान राम सिंह ने अनोखी वीरता दिखाई. नीचे उस की बहादुरी का पूरा ब्योरा छपा था. पूरा देश राम सिंह की बहादुरी से खुश था, पर इधर राम सिंह खुद को हत्यारा समझ रहा था. आदमी को मारने के अपराध में कानून सजा देता है. वह खुद को सजा के लायक मान रहा था, पर उस ने ‘आम आदमी’ नहीं मारे थे. वे मरने वाले ‘आम आदमी’ नहीं थे. उन्हें मारने पर उसे राष्ट्रपति से ‘सर्वोच्च वीरता पुरस्कार’ देने का ऐलान हुआ.

15 अगस्त को सम्मान समारोह में कुरसी पर बैठा राम सिंह दोनों देशों के नेताओं, हुक्मरानों के बारे में सोच रहा था, ‘ये लोग शांति क्यों नहीं चाहते हैं? रोज सरहद पर बेगुनाह जवान मारे जाते हैं और ये एयरकंडीशनर लगे कमरों में आराम से बैठे उन जवानों को ‘शहीद’ का खिताब देते हैं. क्या बिगाड़ा है इन बेगुनाह जवानों ने इन नेताओं का?

‘दुनिया के सभी देश शांति से रह कर तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं और इधर ये दोनों बेवकूफ देश लड़ कर जनता के अरमानों को काला धुआं बना रहे हैं.’

राम सिंह यही सोच रहा था कि तभी मंच से उस का नाम पुकारा गया. राम सिंह ने वह पुरस्कार और पदक लिया तो जरूर, पर उन्हें लेते समय वह मन ही मन में बड़बड़ा रहा था, ‘मुझे पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है. मुझे सजा दो. मैं ने हत्याएं की हैं. मुझे पुरस्कार मत दो.’

बोझ नहीं रिश्ते दिल के

‘‘मौ सी, ममा को सीवियर अटैक आया है, अर्धचेतनावस्था में भी वे आप को ही याद कर रही हैं. प्लीज मौसी, आप शीघ्र से शीघ्र आ जाइए.’’
फोन पर विपुल का चिंतित स्वर सुन कर अनुजा स्तब्ध रह गई. बस, इतना ही कह पाई, ‘‘बेटा, दीदी का खयाल रखना, उन्हें कुछ भी नहीं होना चाहिए, मैं अतिशीघ्र पहुंचती हूं.’’

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे क्या से क्या हो गया. कुछ दिनों से उसे लग रहा था कि सविता दीदी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है. फोन पर बातें करते हुए वे थकीथकी लगती थीं. उस ने उन से कई बार कहा भी कि आप अपना चैकअप करवा लीजिए पर वे उस की बात को नजरअंदाज कर हमेशा यही कहतीं, ‘मुझे क्या होगा, अनु. बस, ऐसे ही थकान के कारण तबीयत ढीली हो गई है. वह भी यह सोच कर चुप हो जाती कि आज से पहले तो सर्दीजुकाम के अतिरिक्त उन को स्वास्थ्य संबंधी कोई समस्या रही नहीं है तो सबकुछ सामान्य ही होगा पर अब यह अचानक सीवियर अटैक!

सविता दीदी उस की ही दीदी नहीं, अपने कर्म और स्वभाव के कारण जगत दीदी बन गई थीं. उस की तो वे बड़ी बहन जैसी थीं. सच तो यह है कि उस ने उन्हीं के सान्निध्य में जीवन का ककहरा सीखा था. दीदी ने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना किया, कभी हार नहीं मानी. अपनों के व्यवहार से घायल हुए दिल ने अपनी एक अलग मंजिल तलाश ली थी और उस पर अडिगता से चलीं ही नहीं, दूसरों को भी अपने प्रति सोच को बदलने के लिए मजबूर किया. वे न स्वयं रोईं और न ही किसी को रोने दिया. उन की जिंदादिली में उन के अतीत के अनेक क्रूर पल समाहित हो गए थे.

उसे याद आया वह पल, जब विपुल का विवाह तय हुआ तो वे खुशी से फूली नहीं समाई थीं. सूचना देते हुए बोली थीं, ‘अनु, तुझे हफ्तेभर पहले आना होगा. तेरे बिना यह शुभकाम कैसे होगा? वैसे जोजो बातें मेरे दिमाग में आती जा रही हैं, मैं एक डायरी में नोट करती जा रही हूं जिस से ऐन मौके पर कोई कमी न रह जाए. कुछ शौपिंग भी कर ली है. अगर कोई कमी रह भी गई तो तू है न, मेरी बहन, मेरी दोस्त. हम दोनों मिल कर सब मैनेज कर लेंगे. आखिर बहू के रूप में बेटी ले कर आ रही हूं.’

‘जी दीदी, मैं आ जाऊंगी.’

‘अनु, कहीं मैं तुझ से ज्यादा तो एक्सपैक्ट नहीं करने लगी हूं. अगर तेरे पास समय नहीं है या कोई परेशानी हो तो प्लीज मना कर देना. मैं नहीं चाहती कि हम हमारे रिश्ते को बोझ समझा कर निभाएं,’ सविता दीदी ने अचानक कहा था.

‘दीदी, आप ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं, विपुल मेरा भतीजा है, उसे मैं ने अपनी गोद में खिलाया है,’ उन के शब्दों पर आश्चर्यचकित अनुजा ने स्वयं को संभालते स्नेहभरे स्वर में उन के दिल पर रखे बोझ को हलका करते हुए कहा था.

‘पता नहीं क्यों घबराहट होने लगती है आजकल, बस विपुल का विवाह ठीक से निबट जाए तो चैन की सांस लूं,’ कहते हुए उन का स्वर अवरुद्ध हो गया था.

‘आप चिंता मत कीजिए, दीदी, सब ठीक से हो जाएगा.’

अगले महीने ही विपुल का विवाह है. कुछ दिनों बाद वह जाने वाली थी कि अचानक यह खबर आ गई.

फ्लाइट से जाने के बावजूद उसे और दीपेश को बेंगलुरु से इलाहबाद पहुंचने में 8 घंटे लग ही गए. दीपेश डाक्टर से बात करने चले गए थे. विजिटिंग आवर होने के कारण उसे आईसीयू में जाने की अनुमति मिल गई तथा वह दीदी के पास जा कर बैठ गई. दीदी को नर्सिंगहोम में नलियों में जकड़ा देख मन कराह उठा पर बाहर पड़ोसियों की उपस्थिति सुकून पहुंचा रही थी. सभी अड़ोसीपड़ोसी उन के लिए चिंतित थे.
‘‘दीदी को दिल्ली के एस्कौर्ट अस्पताल में शिफ्ट करना बेहतर रहेगा. वहां उन का ट्रीटमैंट उचित रूप से हो पाएगा,’’ दीदी की हालत देख कर अनुजा ने उन के पास बेहाल हालत में खड़े विपुल से कहा.

‘‘मौसी, चाहता तो मैं भी यही हूं पर डाक्टरों का कहना है कि इस अवस्था में मां को शिफ्ट करना खतरे से खाली नहीं है. थोड़़ी स्टेबल हो जाएं, फिर सोचा जा सकता है,’’ आंखों में छलक आए आंसुओं को किसी तरह उस ने आंखों में सहेजते हुए कहा.

‘‘न, न बेटा. घबरा मत. दीदी को कुछ नहीं होगा. हम सब हैं न उन के साथ,’’ कहते हुए उस ने विपुल को दिलासा दी.

उस की आवाज सुन कर दीदी ने आंखें खोलीं, उसे देख कर उन की आंखों में संतोष झलक आया.

‘‘तू आ गई, अनु. मेरा जाने का समय आ गया है. बस, तु?ो ही देखने के लिए रुकी हुई थी,’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने कहा.

‘‘नहीं दीदी, ऐसा नहीं कहते, अभी तो आप को विपुल का विवाह करना है. उस के बच्चों को अपने हाथों से पालनापोसना है.’’

‘‘अपने शब्दजाल से मुझे न बहला, अनु. एक बोझ और तुझ पर डालना चाहती हूं, मेरे बाद मेरे विपुल का खयाल रखना. उसे तेरे भरोसे ही छोड़ कर जा रही हूं. वह अभी मन से बच्चा ही है. शायद मेरा जाना वह सह न पाए. और हां, विवाह टालना मत, धूमधाम से नियत तिथि पर ही करना. सुजाता मेरे विपुल की पसंद है, मुझे उम्मीद है वह उस के साथ खुश रहेगा,’’ अटकतेअटकते उन्होंने बमुश्किल कहा. इस दौरान वे हांफने लगी थीं. आखिरकार दर्द सहन न कर पाने के कारण उन्होंने आंखें बंद कर लीं.

‘‘दीदी, विपुल बोझ नहीं है मेरे लिए. संभालिए स्वयं को. आप को कुछ नहीं होगा. हम हैं न. इलाज में कोई कमी नहीं होने देंगे. आप को ही विपुल को घोड़ी पर चढ़ाना है, सुजाता को आशीर्वाद देना है,’’ कहते हुए अनुजा की आंखों से न चाहते हुए भी आंसू टपक पड़े.

उस की बात का उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया. चेहरे पर दर्द की लकीरों के साथ उस के हाथ पर उन की पकड़ और मजबूत हो गई. वह उन के मस्तक पर हाथ फेर कर उन्हें सांत्वना देने की कोशिश करने लगी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आत्मसम्मानी और आत्मविश्वासी दीदी बारबार बोझ शब्द का इस्तेमाल क्यों कर रही हैं? क्या वे कमजोर पड़ने लगी हैं? अपने प्रश्न का उस के पास कोई उत्तर नहीं था. उस का मन अतीत के उन गलियारों में भटकने लगा जब वह सविता दीदी से मिली थी.

लगभग 25 वर्ष पहले उस के पड़ोस में एक परिवार रहने आया था. उस परिवार में सिर्फ 2 ही प्राणी थे, 2 वर्षीय बेटा और वह स्वयं. घर के दरवाजे के सामने लगाई नेमप्लेट से पता चला कि उन का नाम सविता है. वे कालेज में पढ़ाती हैं. वे घर से बाहर बहुत कम निकलती थीं. बस, घर से कालेज तथा कालेज से घर ही उन की दिनचर्या थी. बेहद संजीदा और अंतर्मुखी व्यक्तित्व था उन का, जिस के कारण आसपास के लोग भी उन से मिलने से कतराते थे. बेटे की देखभाल के लिए उन्होंने आया को रखा हुआ था.

एक दिन अनुजा स्कूल से लौटी तो पाया कि आया बाहर गप मार रही है तथा अंदर बच्चा रो रहा है. उस ने उस को डांटा तो वह अनापशनाप बोलने लगी. इस बीच वह उस के रोकने के बावजूद अंदर चली गई. बच्चा नींद से जाग कर किसी को अपने पास न पा कर स्वयं पलंग से उतरने की कोशिश में नीचे गिर गया था तथा चोट लगने के कारण रोने लगा था. उसे देख कर उस ने उस की ओर आशाभरी निगाहों से देखते हुए हाथ बढ़ाया तो वह भी उसे गोद में लेने से स्वयं को न रोक पाई. उस की गोद में आ कर वह चुप हो गया था. बच्चे को जमीन पर गिरा देख कर नौकरानी को अपनी गलती का एहसास हुआ या नौकरी छूट जाने के डर के कारण वह उस से क्षमा मांगते हुए इस घटना का जिक्र मालकिन से न करने का आग्रह करने लगी.

अब तो अनुजा का नित्य का क्रम बन गया था. जब तक वह स्कूल से आ कर उस बच्चे के साथ घंटाआधघंटा बिता न लेती, उस का खाना ही हजम न होता था. एक दिन वह उस के साथ खेल रही थी कि अचानक सविता मैम आ गईं. वह उन्हें देख कर डर गई. अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि वे संजीदा स्वर में बोलीं, ‘अच्छा, तो वह तुम ही हो जिस के साथ खेल कर मेरा बेटा विपुल इतना खुश रहता है. यहां तक कि छोटेछोटे वाक्य भी बोलने लगा है.’

कहां तो अनुजा सोच रही थी कि उन की आज्ञा के बिना उन के घर घुसने तथा उन के बच्चे के साथ खेलने के लिए उसे खरीखोटी सुननी पड़ेगी पर उन्होंने न केवल उस से प्यार से बातें कीं बल्कि उसे सराहा भी. उन का सराहनाभर स्वर सुन कर वह भी उत्साह के स्वर में बोली, ‘‘मैम, मुझे बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है, घर में कोई छोटा बच्चा नहीं है, सो इस के साथ खेलने आ जाती हूं.’

‘बहुत ही प्यारी बच्ची हो तुम. बस, आगे यह ध्यान रखना कि जो काम अच्छा लगता है उसे छिप कर करने के बजाय सब के सामने करो, जिस से ग्लानि का एहसास नहीं होगा,’ कहते हुए उन्होंने उस की पढ़ाई के बारे में जानकारी ली.

मां को जब अपने इस वार्त्तालाप के विषय में बताया तो वह बोली, ‘क्यों व्यर्थ अपना समय बरबाद कर रही है. आज उसे तेरी आवश्यकता है तो मीठामीठा बोल रही है, कल जब आवश्यकता नहीं रहेगी तो वह तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकेगी. आखिर ऐसे लोगों की यही फितरत होती है. वैसे भी, जो अपनों का न हो सका वह भला दूसरों का क्या होगा?’

मां की बात उस समय उसे अटपटी लगी. दरअसल मां की एक मित्र उसी कालेज में अध्यापिका थीं, जिस में सविता मैम पढ़ाती हैं. उन से उन्हें पता चल चुका था कि उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया है. उस समय ऐसा फैसला लेना, वह भी स्त्री द्वारा, उसे अहंकारी, घमंडी तथा बददिमाग की पदवी से विभूषित करने के लिए काफी था. उस का दिल कहता कि किसी का किसी के साथ रहना न रहना उन का निजी फैसला है, इस पर किसी को आपत्ति क्यों?

अगर सविता मैम ने यह कदम उठाया है तो अवश्य ही कोई बड़ा कारण होगा. एक औरत अकारण घर की चारदीवारी नहीं लांघती, वह भी एक छोटे बच्चे को गोद में लिए. उन का व्यवहार देख कर उसे कभी नहीं लगा कि वे  झगड़ालू या दंभी किस्म की औरत हैं. उस समय उसे यह प्रश्न बारबार झकझोरता था कि हमारा समाज सारी बुराइयां औरत में ही क्यों ढूंढ़ता है, क्यों उसे शांति से जीने नहीं देता? मां से मन की बात कही तो वे उस पर ही बरस पड़ीं- ‘दो बित्ते की छोकरी है और बातें बड़ीबड़ी करती है. अरे, घर की सुखशांति बरकरार रखने के लिए औरत को ही त्याग करना पड़ता है, नहीं तो चल चुकी घर की गाड़ी. और हां, उस घर में ज्यादा मत जाया कर, कहीं उस के कुलक्षण तुझ में भी न आ जाएं.’

मां आम घरेलू औरत की तरह थीं, जिन का दायरा अपने पति और बच्चों तक ही सीमित था. ‘औरत घर की चारदीवारी में शोभित ही अच्छी लगती है.’ ऐसा दादी का मानना था. दादी के विचारों, कठोर अनुशासन ने सामाजिक समारोह के अतिरिक्त उन्हें घर से बाहर निकलने ही नहीं दिया. दादी के न रहने के पश्चात भी उन के द्वारा थोपे विचार, अंधविश्वास मां के मन में ऐसे रचबस गए कि वे उन से मुक्ति न पा सकीं. आज उसे लगता है कि व्यक्ति की सोच का दायरा तभी बढ़ता है जब वह दुनियाजहान घूमता है, विभिन्न समुदायों तथा संप्रदायों के लोगों से मिलता है, तभी उस के स्वभाव और व्यक्तित्व में लचीलापन आ पाता है. तभी वह समझ पाता है कि व्यक्ति के आचारविचार में परिवर्तन समय की देन है. जो समय के साथ नहीं चल पाता या समय को अपने अनुकूल बनाने की सामर्थ्य नहीं रखता वह एक दिन तिनकातिनका टूट कर बिखरता जाता है. वह इंसान ही क्या जो अपने आत्मसम्मान की रक्षा न कर पाए तथा परिस्थितियों के आगे घुटने टेक दे.

सविता मैम उसे सदा परिष्कृत रुचि की लगीं. सो, मां के मना करने के बावजूद कभी छिप कर तो कभी उन की जानकारी में वह उन के घर जाती रही. धीरेधीरे लगाव इतना बढ़ा कि विपुल के साथ खेलने के लिए उन की अनुपस्थिति में तो वह जाती ही थी, अब वह उन के सामने भी, जब भी मन हो, बेहिचक जाने लगी थी. कभी उन के साथ चाय बनाती तो कभी सब्जी और कुछ नहीं तो उन के साथ अपनी पढ़ाई से संबंधित मैटर ही डिस्कस कर लेती थी.

वे कैमिस्ट्री की टीचर थीं. हायर सैकंडरी में फिजिक्स, कैमिस्ट्री उन के विषय थे. सविता मैम कैमिस्ट्री के अतिरिक्त फिजिक्स से संबंधित समस्याएं भी हल करवा दिया करती थीं. उन का समझने का तरीका इतना रुचिकर था कि गंभीर से गंभीर विषय भी सहज हो जाता था. उसे उन के साथ बैठ कर बातें करना अच्छा लगता था. उन की सोच उन्हें अन्य महिलाओं से अलग करती थी. वे साड़ी, जेवरों की बातें नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर बातें किया करती थीं. यहां तक कि उन्होंने उसे कालेज में हो रही वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए न केवल प्रेरित किया बल्कि विषयवस्तु भी तैयार करवाई. उन के प्रयत्नों का ही नतीजा था कि वह अपने स्कूल में ही प्रथम नहीं बल्कि इंटर-स्कूल वादविवाद प्रतियोगिता में भी प्रथम आई.

उस के पढ़ाई और अन्य प्रतियोगिताओं में अच्छे प्रदर्शन के कारण मां अब उसे उन के घर जाने से रोकती तो नहीं थी पर अभी भी मां की धारणा उन के प्रति बदल नहीं पाई थी जबकि वह अपने सुलझे विचारों तथा आत्मविश्वास के कारण उस की आदर्श ही नहीं, प्रेरणा भी बन चुकी थीं.

कम से कम वे उन औरतों से तो अच्छी थीं जो हर काम में मीनमेख निकालते हुए एकदूसरे की टांगें खींचने में लगी रहती हैं. कम से कम उन के जीवन का कोई मकसद तो है. वे जीवन में आई हर कठिनाई को चुनौती के रूप में लेती हुई जिंदादिली से लगातार आगे बढ़ रही हैं तो लोगों को आपत्ति क्यों?

उस समय वह ग्रेजुएशन कर रही थी. जिंदगी के अच्छेबुरे पहलुओं को थोड़ाथोड़ा समझने लगी थी. एक दिन उस ने उन की जिंदगी में झांकने का प्रयास किया तो वे उखड़ गईं तथा तीखे स्वर में कहा, ‘पता नहीं लोगों को किसी की निजी जिंदगी में झांकने में क्यों मजा आता है? मेरी जिंदगी है चाहे जैसे भी जीऊं.’

‘सौरी मैम, मेरा इरादा आप को दुख पहुंचाने का नहीं था लेकिन जब आसपड़ोस के लोग आप के बारे में अनापशनाप कहते हैं तो मुझ से सहा नहीं जाता, इसीलिए सचाई जानने के लिए आज मैं ने आप से पूछा पर मुझे नहीं पूछना चाहिए था. आप को दुख हुआ, प्लीज, मुझे क्षमा कर दीजिए.’

‘इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं हैं, अनु. गलती हमारी, समाज की सोच और धारणा की है. सचाई यह है कि हमारा समाज आज भी अकेली औरत को सहन नहीं कर पाता. वह उस के लिए एक पहेली बन कर रहती है. उस पहेली को सब अपनीअपनी तरह से सुलझना चाहते हैं. बस, यहीं से बेसिरपैर की बातें प्रारंभ होती हैं पर मैं ने अपने आंख, कान और मुंह बंद कर रखे हैं. अगर खोल कर रखे होते तो शायद जीवित न रह पाती,’ कहते हुए उन की आंखें छलछला आई थीं.

आखिरकार, सविता दीदी उस के सामने खुली किताब की तरह खुलती चली गईं. जमाने के तीरों से लहूलुहान पर यत्न कर सहेज कर रखा दिल का दर्द उन की जबां पर आ ही गया. उस समय उन्होंने जो कहा उस का सारांश यह था कि उन का पति प्रतिष्ठित बिजनैसमैन परिवार का होने के बावजूद शराबी, जुआरी तथा दुराचारी था. उस के मातापिता को उस के ये अवगुण, अवगुण नहीं गुण नजर आते थे. उस ने अपने पति को सम?ाने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं माना. एक दिन शराब के नशे में उस ने उस के साथ संबंध बनाना चाहा तो मुंह से आती दुर्गंध ने उसे विरोध करने पर विवश कर दिया. फिर क्या था, उस ने उस पर हाथ उठा दिया.

बहुत रोई थी वह उस दिन. अपने मातापिता से जब इस संबंध में बात की तो उन्होंने कहा, ‘सब्र कर बेटी, धीरेधीरे उस के सारे ऐब तेरे प्यार से समाप्त होते जाएंगे.’

पर ऐसा नहीं हो पाया. उस ने हर तरह से उस के साथ निभाने की कोशिश की. न चाहते हुए भी वह प्रैग्नैंट हो गई पर उस के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आ रहा था. गर्भावस्था के अंतिम दिनों में जब पत्नी को पति के सहारे की अत्यंत आवश्यकता होती है तब भी वह रातरातभर बाहर रहता था. यहां तक कि विपुल के जन्म के समय भी वह उस के पास नहीं था. किसी काम के कारण अगर वह न आ पाता तो कोई बात नहीं थी पर वह तो सुरासुंदरी में खोया रहता था. न जाने कैसी नफरत उस के दिल में समा गई थी कि उस ने उसी वक्त उसे छोड़ने का निर्णय ले लिया. आखिर कब तक वह जलालतभरी जिंदगी जीती. वह उसे छोड़ कर मायके चली आई.

उस के मातापिता ने उस के इस निर्णय का विरोध किया. ससुराल जा कर पैचअप कराने की कोशिश भी की पर उस के ससुराल वाले भी बेटे की तरह ही अक्खड़ निकले तथा बोले, ‘थोड़ा शराब पी कर मस्ती कर लेता है तो क्या बुराई है? यह तो अमीरजादों का लक्षण है. हमें क्या पता था कि आप लोग सोलहवीं सदी की मानसिकता वाले होंगे वरना हम अपने बेटे का विवाह आप के घर कभी न करते. वैसे भी दोष तो आप की लड़की का ही है जो उसे घर में बांध कर नहीं रख पाई.’

मम्मीपापा अपना सा मुंह ले कर लौट आए तथा फिर से उस से अपने घर लौट कर स्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करने के लिए कहने लगे पर इतना सब होने पर लौटना उसे अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगा. उस ने सीधेसीधे कह दिया कि अगर आप भी नहीं रखना चाहते तो कोई बात नहीं, मैं कोई और ठिकाना ढूंढ़ लूंगी. उस समय उस के छोटे भाई सरल ने मम्मीपापा के विरुद्ध जा कर उस का साथ दिया था. उस ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहा था, ‘दीदी, तुम कहीं नहीं जाओगी. वैसे भी जिसे मेरी बहन की परवा नहीं है, उस के साथ मेरी बहन नहीं रहेगी.’ यह कह कर सरल ने अपना फैसला सुना दिया.

‘अभी यह सब कह ले पर जब बीवी आ जाएगी तब मुंह पर ताले लग जाएंगे. बेकार उसे शह दे कर उस की जिंदगी बरबाद कर रहा है. थोड़ाबहुत तो सब जगह चलता है पर हमारे खानदान में आज तक ऐसा कहीं नहीं हुआ कि बेटी ससुराल छोड़ घर बैठ जाए,’ मां ने उसे फटकारते हुए कहा था.

‘अगर ऐसा कभी नहीं हुआ तो यह कोई आवश्यक तो नहीं कि कभी हो ही न. हर काल में परिस्थतियां भिन्नभिन्न होती हैं, उसी के अनुसार इंसान को निर्णय लेना पड़ता है. मेरी बहन अनाथ नहीं है जो ऐसी जलालतभरी जिंदगी जिए. तुम परेशान मत हो, मां. दीदी की जिम्मेदारी उठाने का अगर मैं ने वादा किया है तो पूरी जिंदगी उठाऊंगा पर मैं उसे उस शराबी, जुआरी के साथ रहने को मजबूर नहीं करूंगा,’ सरल ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘इस की गलत बात को समर्थन दे कर तू ठीक नहीं कर रहा है. भुगतेगा एक दिन और फिर हमारा समाज क्या वह इसे चैन से जीने देगा,’ मां ने उसे धमकी दी थी.

‘कैसी मां हैं आप, जो अपनी ही बेटी के दर्द को महसूस नहीं कर पा रही हैं. समाजसमाज, कहां था समाज जब जीजा ने आप की बेटी को थप्पड़ मारा. आदमी का हर ऐब समाज के लिए ठीक है लेकिन जब एक स्त्री अपना सम्मान से जीने का अधिकार मांगती है तो वह गलत है,’ सरल ने आक्रोशित स्वर में कहा.

मां सरल की बात सुन कर उस समय चुप हो गईं. सरल के सहयोग से उन्होंने तलाक की अर्जी दे दी. ससुराल वालों को भला क्या आपत्ति थी. आखिर दोष तो लड़कियों में होता है, लड़कों में नहीं. उन्हें फिर से अपने बेटे का दूसरा विवाह कर अपनी तिजोरी भरने का एक और मौका मिल गया था.

मां के तथा सगेसंबंधियों के व्यवहार ने सविता मैम को मायके में भी चैन से रहने नहीं दिया. सो, विपुल के थोड़ा बड़ा होते ही उन्होंने नौकरी के लिए अप्लाई करना प्रारंभ कर दिया. नौकरी मिलते ही वे विपुल को ले कर यहां आ गईं. अगर वहां रहतीं तो शायद शांति से जी न पातीं. वही लोग, वही बातें. उन की चिंता से अधिक उन की लाचारी, बेबसी लोगों को परेशान करती. वे उस माहौल में उन लोगों के साथ रह कर बेबस और लाचार नहीं कहलाना चाहती थीं. औरों की तो छोडि़ए, उन की अपनी मां उन की स्थिति के लिए जबतब आंसू बहा कर कभी उन्हें दोषी ठहरातीं तो कभी जमाने को कोसतीं. कभी तो यहां तक भी कह देतीं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है.

पति से तलाक लेने के बाद सविता मैम के भाई ने फिर से विवाह करने के लिए उन्हें सम?ाने की बेहद कोशिश की. यह भी कहा कि कोई आवश्यक नहीं कि एक जगह नहीं बन पाई तो दूसरी जगह भी न बने. यहां तक कि उन के भविष्य के लिए उस ने विपुल को अपने पास रखने की भी पेशकश कर डाली पर वे इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती थीं कि अपने सुख के लिए अपने ही कोखजाए से मुंह मोड़ लेतीं या भाई पर सदा के लिए अपने बेटे का बो?ा डाल देतीं. माना भाई को वह बो?ा नहीं लगता लेकिन दूसरे घर से आई लड़की को वे कैसे मुंह दिखातीं. क्या वह उस के विपुल को स्वीकार कर पाती? वैसे भी, एक विवाह कर के तो वे देख ही चुकी थीं. पतिरूपी पुरुष जाति से न जाने क्यों उसे नफरत हो गई थी. सो, मना कर दिया.

पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने उन की इस धारणा को पुख्ता कर दिया था कि आज की नारी में इतना दमखम है कि अगर वह चाहे तो अपना संसार स्वयं सजासंवार सकती है. आखिर वह क्यों एक ऐसे आदमी की दूसरी पत्नी बने जिस की आंखों में उस के लिए दया के अतिरिक्त कुछ न हो. जो उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं, अपने बच्चों की मां बना कर लाए. उस से सदा कर्तव्यों की बात करता रहे पर अधिकार न दे. यहां तक कि अगर दूसरी पत्नी के बच्चा हो तो उसे भी पितृत्व के साए से दूर रखने का प्रयत्न करे. हां, कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं पर वे शायद उंगलियों में गिनने लायक ही होंगे.

सविता मैम की बातों ने अनुजा को बहुत प्रभावित किया था. सचमुच अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव की रक्षा करना आदमी का ही नहीं, औरत का भी हक है. उस ने उन से ही सीखा. बीचबीच में उन के मांपिताजी उन से मिलने आते, उन्हें तरहतरह की नसीहतें देते पर वे टस से मस न होतीं. वे मायूस हो कर चले जाते. केवल उन का भाई ही उन की हौसलाअफजाई करता रहता तथा जबतब आ कर उन की हर संभव मदद करने की कोशिश करता.

उन के जाने के बाद वे कुछ दिन उदास रहतीं, फिर सहज हो जातीं. पता नहीं कब वे सविता मैम से उस के लिए दीदी बन गईं.

अड़ोसपड़ोस के लोगों में उन के प्रति धारणा बदलने के साथ, समय के साथ धीरेधीरे सविता दीदी के स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा. सदा धीरगंभीर रहने वाली दीदी अब हंसने भी लगी थीं. कोई घर बुलाता तो चली भी जातीं.

अनुजा के भाई अभिनव के आईआईटी में सलैक्शन के उपलक्ष्य में मां ने छोटी सी पार्टी दी. उस पार्टी को जानदार और खुशनुमा बनाने के लिए उस ने ‘पासिंग द पार्सल गेम’ रखा था. गेम सब को खेलना था. अपनी चिट के अनुसार सब को गाना सुनाना था. सविता दीदी की गाने की चिट निकली. उन का गाना लोगों को इतना पसंद आया कि गेम के बाद उन से गाने की फरमाइश की जाने लगी. उन्होंने भी फरमाइश करने वालों का दिल रखा. इस के बाद कोई भी पार्टी उन के गाने के बिना पूरी ही नहीं होती थी. अंधकार के बाद सुबह होती है, वे इस का ज्वलंत उदाहरण थीं.

धीरेधीरे ममा के विचार भी उन के प्रति बदलने लगे. अब तीजत्योहारों पर उन्हें अपने घर यह कह कर बुलाने लगीं कि अकेले रह कर क्या त्योहार मनाओगी, यहीं आ जाया करो, हम सब को अच्छा लगेगा. परिवर्तन की इस बयार ने उन में एक अनोखी ऊर्जा का संचार कर दिया था. अब वे सब के साथ सहज हो चली थीं. पहले उन से कतराने वाले सभी लोग अब उन की बुराई नहीं, प्रसंशा करते थे. यहां तक कि अब वे अपने बच्चों से संबंधित समस्याओं पर भी उन की राय लेने लगे और वे उन की उम्मीदों पर खरी उतर रही थीं. अड़ोसपड़ोस के बच्चे भी उन का मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनीअपनी मंजिलों की ओर बढ़ रहे थे. अब वे केवल उस की ही नहीं, सब की दीदी बन गई थीं- जगत दीदी.

एक दिन वह भी आया जब उस का विवाह हो गया पर उस के उन के साथ संबंध सदा बने रहे. मायके आती तो अधिक से अधिक समय उन के साथ व्यतीत करने की कोशिश करती. विपुल उसे मौसी कह कर बुलाता था. उस को देख कर वह इतना खुश होता कि जब तक वह रहती, उस से ही चिपका रहता. अपने स्कूल की एकएक बात उसे बताता. वह उस के लिए ढेर सारे खिलौने ले कर आती तथा उसे भी दीदी की तरफ से उपहार मिलते. सब से ज्यादा खुशी तो इस बात की थी कि दीपेश ने भी उस के इस रिश्ते का मान रखा.

कभीकभी उसे लगता कि वे उस की बड़ी बहन जैसी ही नहीं, उस की सब से अच्छी मित्र है जिन के पास उस की हर समस्या का हल रहता है तथा वह भी अपने दिल की हर बात उन के साथ शेयर कर मन में चलते द्वंद्व या कशमकश से मुक्ति प्राप्त कर लेती है.

एक दिन पता चला कि दीदी के मातापिता तथा भाई सरल अपने किसी रिश्तेदार की बेटी के विवाह में अपनी कार से जा रहे थे कि अचानक गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया तथा तीनों ही पंचतत्त्व में विलीन हो गए. समाचार सुन कर अनुजा उन के पास गई. उसे आया देख कर दीदी बिलख कर रोते हुए बोलीं, ‘अनु, सब समाप्त हो गया. इस भरी दुनिया में मैं अकेली रह गई.’

उस समय उन के साथ आई उन की मां ने उन को गले लगा कर दिलासा देते हुए कहा, ‘बेटा तू अकेली कहां है, हम हैं न तेरे साथ. आज से तू भी मेरी बेटी है. हमारे रहते कभी स्वयं को अकेला मत समझना.’ और सच जब तक मांपापा रहे, कभी उन्हें अकेलेपन का एहसास नहीं होने दिया यहां तक कि भाई अभिनव और भाभी पूजा ने भी उन्हें बहन जैसा सम्मान दिया. वह जब भी अमेरिका से इंडिया आता तो जैसे उपहार उस के लिए लाता वैसे ही उन के लिए भी लाता. विपुल के विवाह में भी वह आने वाला है भात की रस्म निभाने.

अचानक अनुजा को अपना हाथ हलका लगा, देखा तो पाया कि उस के हाथ को पकड़ा उन का हाथ नीचे लटक गया है. उस ने घबरा कर नब्ज टटोली. कुछ न पा कर डाक्टर को आवाज लगाती बाहर दौड़ी. उस की बदहवास दशा देख कर विपुल घबरा गया. दीपेश जो डाक्टर से कन्सल्ट कर के लौटे ही थे, उस की चीख सुन कर हतप्रभ रह गए. डाक्टर ने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया.

उस के जीवन का सूत्रधार, जिस के साए में उस ने रहना, चलना, सोचना और सम?ाना सीखा, अपना नश्वर कलेवर छोड़ कर इस दुनिया से विदा ले चुका था. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उन के बिना चल पाएगी, कैसे विपुल को संभालेगी?

तभी कहीं पढ़े शब्द उस के दिलदिमाग में गूंज उठे- जीवन तो उस नाव की तरह है जिस में प्राणी अपनी सुविधानुसार चढ़ता और उतरता रहता है. फिर चढ़ने पर खुशी और उतरने पर गम क्यों? जीवन की नाव हिचकोले खाएगी, डराएगी. फिर भी नाव को डूबने से बचाना हर इंसान का कर्तव्य है जब तक कि वह स्वयं जर्जर हो कर टूट न जाए.

दीदी के जीवन की नाव शायद जर्जर हो गई थी. तभी वे सब चाह कर भी उन्हें बचा नहीं सके. अंतिमक्रिया के समय पूरे महल्ले के लोगों के अलावा कालेज के सभी अध्यापक और छात्रछात्राएं उपस्थित थे. सब उन की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे. यह देख कर, सुन कर गर्व से मन भर उठा. आज दीदी उसे शायर के उस कथन की पर्याय लग रही थीं- मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग मिलते गए कारवां बनता गया…

लड़की वाले भी इस घटना से बेहद मायूस तथा डरे हुए थे. वे हमारी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहे थे. जब उन्हें दीदी की अंतिम इच्छा के बारे में बताया तो वे नतमस्तक हो गए. आखिर एक बहुत बड़ा बो?ा उन के सिर से उतर गया था. उन्हें डर था कि कहीं यह घटना उन की बेटी के लिए अपशगुन बन कर न रह जाए. सच तो यह है कि हमारा समाज आधुनिक बनने को ढोंग तो करता है पर जब स्वयं पर आती है तो नाना प्रकार के अंधविश्वासों में उलझ कर रह जाता है.

कर्मकांडों से निबटने के बाद थोड़ा स्थिर होने पर उन की वार्डरोब में रखी डायरी निकाल कर पढ़ने लगी. डायरी में हर रस्म पर दी जाने वाली वस्तुएं सिलसिलेवार लिखी हुई थीं. कुछ शौपिंग जो उन्होंने कर ली थी उस पर उन्होंने टिक लगा दिया था तथा जो नहीं कर पाई थीं उस के आगे कोई निशान नहीं था. हर रस्म में देने वाली वस्तुएं एक बड़े पैकेट में डाल कर अलमारी में टैग लगा कर रख दी थीं. अपने जीवन की तरह ही पूरी तरह सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध विवाह की तैयारी कर रही थीं. जीवन से थोड़ी मोहलत उन्होंने चाही थी पर पूरी नहीं हो पाई. सच कुदरत भी कभीकभी इतनी निर्दयी कैसे हो जाती है कि इंसान को उस के न्याय पर ही शक होने लगता है.

पढ़तेपढ़ते एक जगह नजर ठहर गई- ‘अनुजा, बस एक ही बात मुझे बारबार कचोटे जा रही है कि मैं विपुल को परिपूर्ण जीवन नहीं दे पाई. कोई कितनी भी कोशिश कर ले पर मातापिता दोनों का प्यार कोई एक अकेला अपने बच्चे को नहीं दे सकता. मैं ने अकसर विपुल की आंखों में पिता के लिए चाहत देखी है. शायद मन ही मन मुझे कुसूरवार भी ठहराता रहा हो पर तू ही बता, मैं क्या करती? क्या पूरी उम्र उस नरक में सड़ती रहती तथा विपुल को भी उस सड़न का भागीदार बनाती?

‘अगर तुम चाहो तो इस अवसर पर उन्हें बुला सकती हो, मुझे कोई एतराज नहीं होगा. आखिर विपुल उन का भी तो अंश है. वैसे, मैं नहीं जानती वे कहां और कैसे हैं पर दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं कि किसी को ढूंढ़ा न जा सके. पुराना पता इसी डायरी में है. अच्छा, अब रुकती हूं, पता नहीं क्यों बहुत घबराहट हो रही है.’

तारीख देखी तो वही दिन था जिस दिन उन्हें अटैक आया था. अंतिम लाइनों ने उसे झकझोर कर रख दिया तो क्या ऊपर से जिंदादिल दिखने वाली सविता दी कहीं न कहीं अपराधबोध से ग्रस्त थीं? अपने लिए नहीं, शायद अपने बच्चे के प्रति पूर्ण न्याय न कर पाने के कारण. पर उन्होंने यह क्यों लिखा कि अगर तुम चाहो तो उन्हें बुला सकती हो, क्या उन्हें अपने अंतिम समय का आभास हो गया था?

दीदी का अंतिम पत्र पढ़ कर आज लग रहा था कि कहीं वे दोहरी जिंदगी तो नहीं जीती रहीं. चेहरे पर हंसी और अंदर ही अंदर एक अनकहा तूफान. पर जातेजाते वे उस तूफान को छिपा नहीं पाईं. शायद इस दुनिया से जाते समय वे अपने दिल पर कोई बोझ ले कर नहीं जाना चाहती थीं और न ही जीतेजी सब के सामने स्वीकार कर कमजोर पड़ना चाहती थीं. सच, अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो साधारणतया हर हंसी के पीछे कोई भीषण दुख छिपा रहता है.

सच कुछ पल भुलाए नहीं भूलता. कहीं मन में वर्षों से डंक मारता दुख आज उन के इस अटैक का कारण तो नहीं बन गया? कारण जो भी रहा हो पर हकीकत का सामना तो करना ही था. वैसे भी, अंतिम सांसें लेता व्यक्ति कभी ?ाठ नहीं बोलता. दीदी की अंतिम इच्छा का सम्मान करना उस का कर्तव्य है पर कैसे, समझ नहीं पा रही थी.

दीपेश को दीदी की डायरी का वह अंश दिखाया तो वे भी सोच में पड़ गए. जब समझ में नहीं आया तो विपुल से बात करने की सोची. आखिर वही तो था जिस ने मातापिता के अलगाव का दुख झेला था. विपुल को डायरी दिखाई तो उस की आंखों से आंसू बहने लगे, बोला, ‘‘मौसी, यह सच है कि मैं ने पापा को मिस करने का दर्द सहा है पर जो दर्द ममा ने सहा है वह मेरे दर्द से बहुत ज्यादा है. उस आदमी ने ममा का तो तिरस्कार किया ही, मेरी भी परवा नहीं की तो फिर मैं उस की परवा क्यों करूं? उसे बुला कर मैं ममा के प्यार का अपमान नहीं करूंगा. मेरे ममापापा दोनों मां ही थीं. आज मैं अनाथ हो गया, मौसी. मैं अनाथ हो गया.’’

‘‘दीदी के जाने के बाद तू अकेला ही नहीं, हम सब ही अनाथ हो गए हैं, बेटा. वे हमारे लिए वटवृक्ष के समान थीं. हालात पर किसी का वश नहीं है, बेटा पर उन की खुशी के लिए स्थिति के साथ समझोता करना ही पड़ेगा. न तू रोएगा, न हम रोएंगे,’’ अनुजा ने उसे अपने अंक में समेटते हुए कहा. दीदी तो उस समय का इंतजार नहीं कर सकीं पर विवाह टलेगा नहीं और न ही इस स्थिति के लिए कोई नई बहू को दोषी ठहराएगा. वह विपुल के साथ दीदी की भी पसंद है. वह उसी धूमधड़ाके के साथ इस घर में प्रवेश करेगी जैसा कि दीदी चाहती थीं. इस निर्णय ने अनुजा के डगमगाते इरादों को मजबूती दी. वह विवाह की तैयारी में जुट गई. आखिर उसे अपनी सविता दीदी के विश्वास की कसौटी पर खरा जो उतरना था.

सजा

लेखिका – ऋचा बंसल

आज होलिका दहन हो रहा था. मेरी बेटी सोनू मेरे पास बैठी होलिका दहन देख रही थी. अचानक सोनू ने कहा, ‘‘मम्मी, कल कालेज में हमारी कक्षा में सब बात कर रहे थे कि कालेज की एक लड़की का कुछ दिनों पहले बलात्कार हुआ था, अब वह पागल हो गई है.’’

‘‘वास्तव में बेटा यह ऐसा घिनौना सच है कि जब कोई इस से रूबरू होता है, उस के बाद अगर वह मानसिक रूप से कमजोर होता है तो सामाजिक बरताव के कारण अपना दिमागी संतुलन खो बैठता है.’’

सोनू थोड़ी देर बात कर के अंदर चली गई पर मेरा मन जैसे अतीत में चला गया और मेरा नासूर बना दर्द वापस जाग्रत हो गया.

होली का दिन था. सब होली खेल कर अपने घर जा चुके थे. शाम होने को आ गई, मेरे पति हमेशा की तरह आज भी अभी तक नहीं आए थे. शराब पी कर कहीं बैठे होंगे. अचानक बारिश शुरू हो गई. बिजली चमक रही थी और बादल गरज रहे थे. मैं और मेरी बेटी सोनू इन का इंतजार कर रहे थे.

रात 12 बजे दरवाजे पर घंटी बजी. मुझे लगा कि मेरे पति आ गए, मैं ने दरवाजा खोला तो अजय खड़ा था. अजयविजय 2 भाई थे, हमारे घर के सामने रहते थे. जब ये दोनों 2 साल के थे तब से मैं इन को जानती थी. आज दोनों 20 साल के हो गए थे. जब भी मेरे पति शराब पी कर किसी नाले के पास पड़े होते थे तो मैं इन दोनों भाइयों में से किसी एक के साथ जा कर उन्हें लाया करती थी.

आज भी अजय जब बुलाने आया तब मुझे कुछ भी अलग नहीं लगा. अजय ने भी शराब पी रखी थी, पूछने पर उस ने कहा, ‘आंटी, मैं अंकल के साथ ही था पर अंकल ने इतनी ज्यादा पी ली है कि वे वहीं लेट गए हैं, इसलिए मैं आप को बुलाने आया हूं.’

मैं हर बार उस के साथ हमेशा बिना किसी डर के चली जाती थी, पता नहीं इस बार क्यों किसी अनहोनी होने का अंदेशा होने के कारण मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था पर मैं ने किसी तरह हिम्मत जुटाई और उस के साथ जाने को तैयार हो गई पर साथ ही अपनी बेटी सोनू का खयाल आया. मैं ने उसे अपनी दोस्त मीता के यहां छोड़ने का फैसला लिया. मैं मीता के पास गई और उसे इतनी रात में जगाया.

मैं ने कहा, ‘मीता, मैं सोनू को तुम्हारे पास छोड़ रही हूं और मैं अजय के साथ सोनू के पापा को लेने जा रही हूं.’

मैं पहले भी अजय के साथ जा चुकी हूं इसलिए किसी को कुछ अजीब नहीं लगा. मैं अपनी बेटी की तरफ से निश्चिंत हो कर अजय के साथ चली गई.

अजय और मैं नाले की ओर चले गए, जहां अजय ने बताया था कि मेरे पति हैं. वास्तव में वह मुझे गलत जगह ले गया क्योंकि उस की नीयत उस दिन खराब थी. वह मेरी बेटी के साथ गलत हरकत करना चाहता था पर जब मैं ने अपनी बेटी को सुरक्षित कर दिया तो वह बौखला गया. उस ने उस बौखलाहट में मेरे ऊपर वार करने शुरू कर दिए और कहने लगा, ‘मैं तो तेरी बेटी की इज्जत लूटना चाहता था पर उसे तो मैं हासिल नहीं कर सका, इसलिए उस का बदला तुझ से लूंगा.’

मैं ने अपनेआप को बचाने के लिए उसे खूब मारा, उस के बाल भी खींचे पर आखिर में उस ने मेरे सिर पर जोर से टौर्च मार दी और मैं घायल हो गई. उस ने धक्का मार कर मुझे नीचे गिरा दिया और अपना बदला ले लिया.

मैं ने अपनेआप को उठाने की कोशिश की तब तक वह वहां से भाग चुका था. मैं बदहवास सी घर आई, मेरे सिर से खून बह रहा था. पड़ोसियों ने मुझे अस्पताल में भरती करवाया, मैं अंदर से पूरी तरह टूट गई थी. अपनी इज्जत लूटने का गम, विश्वास टूटने का दुख मुझे सामान्य नहीं होने दे रहा था. मेरे पति का नशा जब उतरा और घर आ कर उन्हें इस हादसे का पता चला तो उन्होंने पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई. पूरे महल्ले में हल्ला मच गया था. अजयविजय के घर पर लोगों ने तोड़फोड़ मचा दी थी.

पुलिस अजय को ढूंढ़ने लगी, लोगों ने भी अजय को चप्पाचप्पा, गलीगली ढूंढ़ा. आखिर में अजय लोगों की पकड़ में आ गया, लोगों ने पूरे रास्ते उसे जूतेचप्पलों से मारा और पीटते हुए ही महल्ले में ले कर आए. उस का मुंह काला कर के सब जगह उसे घुमाया गया फिर उसे पुलिस को सौंप दिया. अजय को जेल हो गई थी.

भले ही दुष्कर्म करने वाले को सजा मिल जाए (कभीकभी तो वह भी नहीं मिलती) पर इस का दर्द इतना गहरा होता है कि पीडि़ता को उबरने में सालों लग जाते हैं. कभीकभी वह दर्द नासूर बन जाता है.

इस घटना के बाद सोनू जब विद्यालय जाती, उस समय वह 10वीं कक्षा में पढ़ती थी, उपहास का पात्र बनती थी. ऐसा लगता था कि उस की मां ने गलती की है. वह घर आ कर घंटों रोती थी. उस ने विद्यालय जाने से मना कर दिया था. इधर मेरा मानसिक संतुलन भी हिल गया था. मुझे लोगों की नजरों के तीर नश्तर की तरह चुभते थे.

मेरे पति ने शराब को हाथ लगाना बंद कर दिया, वह पूरी तरह परिवार के लिए समर्पित हो गए. मुझे समझते और कहते थे, ‘इस में तुम्हारा दोष नहीं है, अपराधी तो मैं हूं. न मैं शराब पीता, न यह सब होता.’

मेरे पति मेरा बहुत ध्यान रखते थे पर मुझे सहानुभूति भी बहुत चुभती थी. अगर मेरे पति गलती से भी मु?ा पर हाथ लगाते तो मैं पागलों की तरह चिल्लाने लगती. मेरे पति भी उस महल्ले में असहज महसूस करते थे.

हमारे समाज की विडंबना यही है कि औरत का दोष न हो तब भी उसे अपराधी की दृष्टि से देखा जाता है. इन सब से बचने के लिए हम ने स्थान परिवर्तन कर लिया ताकि सामाजिक ताने हमें आहत न कर सकें. मैं ने भी अपनेआप को मानसिक रूप से सशक्त बनाने की पहल कर दी थी, जिस से हम सामान्य जीवनयापन कर सकें.

रेप की घटनाओं में राजनीति ज्यादा, पीड़ित की चिंता कम

बलात्कार की घटनाओं में राजनीति ज्यादा होती है, पीडित के प्रति मर्म कम होता है. मीडिया भी इस तरह की खबरों को ज्यादा महत्त्व देता है. भारत में एक दिन में औसतन रेप की 87 घटनाएं होती हैं. 2017 से 2022 के बीच रेप के मामलों में 13.23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. 2022 में उत्तर भारत में रेप की 14,260 घटनाएं हुईं जो कि देश में हुई कुल घटनाओं की लगभग आधी हैं. इन में से कुछ घटनाओं को छोड दें तो किसी घटना की चर्चा नहीं हुई.

कोविड के दौरान रेप की घटनाएं कम हुईं. अगर लौकडाउन का प्रभाव न होता तो आंकडे ज्यादा भयावाह होते. रेप के ज्यादातर मामले सामने नहीं आते. जिन मामलों में एफआईआर दर्ज होती है वही सामने आते हैं. घरों के अंदर सगेसंबंधियों द्वारा किए जाने वाले रेप दबा दिए जाते हैं. रेप की जिन घटनाओं में राजनीति का प्रभाव नहीं होता वे अखबारों के किसी पन्ने में एक कौलम की खबर बन कर रह जाती हैं.

पिछले 24 सालों में रेप की सब से चर्चित घटना 2012 में दिल्ली का निर्भया कांड था. यह चर्चित इसलिए था क्योंकि इस के सहारे उस समय की डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ राजनीति हुई. निर्भया रेप मामले के बाद महिला हिंसा विरोधी कानून में कडे बदलाव किए गए. इस को आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 के रूप में जाना जाता है.

इस कानून में रेप की परिभाषा को विस्तार दिया गया. इस में रेप की धमकी देने को अपराध बताया गया. रेप के मामले में न्यूनतम सजा को 7 साल से बढ़ा कर 10 साल कर दिया गया है. अगर मामले में पीड़िता की मौत हो जाती है या उस का शरीर वेजीटेटीव स्टेट यानी निष्क्रिय स्थिति में चला जाता है तो उस के लिए अधिकतम सजा को बढ़ा कर 20 साल कर दिया गया है. इस के अलावा मौत की सजा का भी प्रावधान किया गया.

निर्भया कांड से पहले सब से अधिक चर्चा में उत्तर प्रदेश के कानपुर का बेहमई कांड था. फूलन देवी नामक महिला ने अपने साथ रेप की घटना के विरोध में 14 फरवरी, 1981 को 20 लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी थी. इस के बाद फूलन देवी को जेल हुई. 1994 में समाजवादी पार्टी ने फूलन देवी के सारे मुकदमे वापस ले लिए और उन को पार्टी में शामिल किया. फूलन देवी 2 बार समाजवादी पार्टी के टिकट पर सांसद भी बनीं.

इस तरह की घटनाओं का राजनीतिकरण नया नहीं है. पौराणिक काल से यह सिलसिला चला आ रहा है. जहां महिला के मर्म से अधिक अपने प्रभाव को बढाने के लिए इस का इस्तेमाल किया जाता है. रामायण में अहल्या, सीता और सुपर्णखां के प्रति संवेदना नहीं थी. यही कारण है कि जिन घटनाओं में राजनीतिक लाभ नहीं दिखता वहां रेप के मामलों की चर्चा नहीं होती. अगर एफआईआर दर्ज हो तो खानापूर्ति भर हो कर रह जाती है.

अपनों ने किया रेप नहीं हुई चर्चा:

फर्रुखाबाद जिले में एक पिता ने अपनी 14 साल की बेटी को जान की धमकी दे कर उस से लगातार 2 साल तक दुष्कर्म किया. घरपरिवार में किसी तरह की चर्चा नहीं हुई. इस के बाद उस ने अपनी छोटी बेटी के साथ भी जब दुष्कर्म का प्रयास किया तो बड़ी बेटी ने विरोध किया. दोनों बेटियां रोती हुईं नानी के पास पहुंचीं और पूरी बात बताई. तब नानी दोनों को पुलिस के पास ले गईं. एएसपी के निर्देश पर शहर कोतवाली पुलिस ने पिता के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की. न घटना मीडिया में बहुत चर्चा का विषय बनी न किसी राजनीतिक दल ने मुद्दा बनाया. इसी तरह का दूसरा मामला उन्नाव जिले के आसीवन थानाक्षेत्र के गांव का है जहां एक युवती ने अपने पिता के खिलाफ दुष्कर्म का मुकदमा दर्ज कराया. बेटी ने आरोप लगाया कि पिता करीब सालभर से शारीरिक शोषण कर रहा है. मां लकवाग्रस्त है और मायके में रहती है. किसी तरह वह भाग कर ननिहाल पहुंची और पूरा वाकेआ बताया. नाना युवती को ले कर थाने पहुंचे और रिपोर्ट दर्ज कराई.

कानपुर में चकेरी थाना के सनिगवां इलाके में पिता ने अपनी ही बेटी से उस समय दुष्कर्म किया जब उस की पत्नी मायके फतेहपुर गई हुई थी. मां के वापस घर आने पर बेटी ने रोरो कर आपबीती सुनाई. मां ने बेटी के साथ चकेरी थाने पहुंच कर रिपोर्ट दर्ज कराई. कानपुर के ही बाबूपुरवा इलाके में रिक्शाचालक पिता ने अपनी ही बेटी को प्रैग्नैंट कर दिया. उस समय लड़की की उम्र महज 13 वर्ष थी. लड़की की मां नहीं है. घटना का पता चला तब किशोरी के पेट में साढ़े पांच माह का गर्भ था.

मऊ के मुहम्मदाबाद क्षेत्र में ऐसी ही घटना सामने आई जिस में पिता ने अपनी 10 वर्षीया नाबालिग बेटी के साथ रेप किया. बेटी ने मां को घटना की जानकारी दी. मां की तहरीर पर पुलिस ने पिता के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की. वाराणसी के शिवपुर क्षेत्र के एक गांव में पिता ने अपनी बेटी से हैवानियत की. उस ने 8 साल की बेटी के साथ रेप करने की कोशिश की. मासूम ने मां को पिता की हैवानियत बताई तो उस ने विरोध जताया. इस पर उस की पिटाई की गई. मां ने शिवपुर थाने में आरोपी पिता के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई.

जौनपुर जिले के एक गांव में पिता ने अपनी नाबालिग बेटी के साथ दुष्कर्म किया. आरोपी अकसर नशे में डूबा रहता था. उस की हरकतों से आजिज आ कर उस की पत्नी 3 साल पहले पिता के घर मुंबई चली गई थी. बेटी ने मां को फोन पर घटना की जानकारी दी. मां ने आरोपी पिता के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई. केवल पिता ही नहीं, कई ऐसी घटनाएं भी हैं जहां पति के सामने रेप हुआ. उन घटनाओं पर भी चर्चा नहीं हुई.

राजस्थान के कोटा में पति ही अपने दोस्त को बुला कर अपनी पत्नी से रेप करवाता था. 10 जुलाई, 2024 को दादाबाड़ी थाने में दुष्कर्म व मारपीट सहित अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है. पति पत्नी को कौलगर्ल बता कर दोस्त से शारीरिक संबंध बनवाता था. पीड़िता की ओर से दर्ज रिपोर्ट के मुताबिक विवाहिता घटना के बाद अवसाद में चली गई थी. वह अपने पति से तलाक भी नहीं लेना चाह रही थी, लेकिन पति ने लगातार परेशान किया. इस के बाद वह अपने पीहर में रहने लग गई. उस के परिजन चिकित्सक के पास ले कर गए जहां पर उस की काउंसलिंग की गई. इस के बाद पीड़िता ने अपनी मां को पूरा घटनाक्रम बताया.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के बिजनौर थाना क्षेत्र में युवती के साथ रेप की घटना सामने आई है. युवती को नौकरी के नाम पर गेस्टहाउस में बुलाया गया, जहां कोल्ड ड्रिंक में नशीला पदार्थ दे दिया गया, फिर उस के बाद रेप की घटना को अंजाम दिया गया. पीड़िता के साथ रेप की घटना को अंजाम देने वाला आरोपी पीड़िता के पति का दोस्त है.

उस का लखनऊ के बिजनौर में गेस्टहाउस है, जहां उस ने युवती को नौकरी के नाम पर बुलाया था. युवती जब गेस्टहाउस पहुंची तो आरोपी ने कोल्ड ड्रिंक में उसे नशीला पदार्थ मिला कर दे दिया. जब युवती ने वह कोल्डड्रिंक पी तो कुछ देर में वह बेहोश हो गई. पुलिस ने आईपीसी की धारा 64(1) और 123 के तहत केस दर्ज किया.

चर्चा का कारण होता है राजनीतिक लाभ:

रेप के ऐसे मामले भरे पडे हैं जहां रेप केवल एक घटना बन कर रह जाती है. इस के विपरीत जहां राजनीतिक हित और लाभ होते है वहां रेप की घटना राजनीतिक रूप ले लेती है. अयोध्या जिलें में मोइद नामक व्यक्ति पर 13 साल की नाबालिग लडकी के रेप करने का आरोप लगा. आरोप में कहा गया कि लडकी जब गर्भवती हो गई तो इस का पता उस की मां को चला. तब मां ने पुलिस में मुकदमा लिखाया. मोइद खां समाजवादी पार्टी का नगर अध्यक्ष था. इस कारण मसला राजनीतिक हो गया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में इस मामले की चर्चा की. अधिकारी दबाव में आए तो मामला गरम हो गया. मोइद खां के घर बुलडोजर पहुंच गया. उस के घर-बेकरी को ढहा दिया गया. मोइद और उस का नौकर जेल गया. समाजवादी पार्टी ने बचाव में डीएनए टैस्ट की मांग की. लडकी निषाद बिरादरी की थी तो निषाद पार्टी सक्रिय हुई. डाक्टर संजय निषाद ने समाजवादी पार्टी के पीडीए फैक्टर पर सवाल उठाया, कहा कि अखिलेश यादव उस निषाद जाति के साथ नहीं खडे हुए जिस बिरादरी की फूलन देवी को मुलायम सिंह यादव ने सांसद बनने का मौका दिया था.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 10 सीटों के लिए उपचुनाव होने वाले हैं. इन में एक सीट अयोध्या जिले की मिल्कीपुर भी है जहां के विधायक अवधेष प्रसाद 2024 के लोकसभा चुनाव में सांसद चुने जा चुके हैं. अयोध्या की हार भाजपा के दिल में कसक बन कर चुभ रही है. चुनावी नजर से देखें तो मोइद खां के बहाने समाजवादी पार्टी को इस रेप कांड के जरिए घेरा जा सकता है. इस कारण यह घटना सुर्खियों में है.

कन्नौज के पूर्व ब्लौक प्रमुख नवाब सिंह यादव पर किशोरी से रेप का आरोप भी चर्चा में है. इस का भी राजनीतिक निहितार्थ है. नवाब सिंह यादव को ले कर सपा और भाजपा में टकराव हो रहा है. भाजपा नवाब सिंह यादव को अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव का सांसद प्रतिनिधि बता रही है. डिंपल यादव जब कन्नौज से सांसद थीं तब नवाब सिंह यादव उन का प्रतिनिधि था. समाजवादी पार्टी नेता उदयवीर सिंह कहते हैं, ‘नवाब सिंह यादव का डिंपल यादव प्रतिनिधि नहीं था. वह भाजपा नेता सुब्रत पाठक का करीबी है. उस के साथ फोटो है. उन का आपस में कारोबारी रिश्ता है.’

सपा ने बयान जारी कर के कहा कि पार्टी ने 5 साल पहले ही नवाब सिंह यादव को पार्टी से बाहर कर दिया है. 2017 के विधानसभा चुनाव में वह समाजवादी पार्टी का टिकट चाहता था. जब टिकट नहीं मिला तो आपसी रिश्ते खराब हो गए. अब वह भाजपा का करीबी है. नवाब सिंह यादव अब भाजपा के कन्नौज से सांसद रहे सुब्रत पाठक का करीबी है. भाजपा के समर्थक नवाब सिंह यादव के साथ अखिलेश यादव और उन की पत्नी डिंपल यादव के साथ फोटो जारी कर रहे हैं तो समाजवादी पार्टी के लोग नवाब सिंह यादव की सुब्रत पाठक के साथ फोटो जारी कर रहे हैं.

10 उपचुनाव में 1 सीट करहल विधानसभा की भी है जहां से विधायक रहे अखिलेश यादव अब कन्नौज से सांसद हैं. उन के इस्तीफे के कारण करहल में उपचुनाव होगा. यह मसला भी चुनाव कोण से जुडा हुआ है. समाजवादी पार्टी नेता जूही सिंह कहती हैं, ‘भाजपा केवल समाजवादी पार्टी को बदनाम करने के लिए रेप की घटनाओं पर राजनीति कर रही है. भाजपा की प्रदेश में सरकार है, वह जांच करे और जो सच हो उस के हिसाब से काम करे. अगर शिकायत झूठी है तो वहां भी एक्शन लिया जाए.’

रेप की तीसरी बडी घटना जो सुर्खियों में है वह पश्चिम बंगाल से जुडी है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भाजपा के निशाने पर रहती हैं. सरकारी अस्पताल में महिला डाक्टर की हत्या और रेप का मामला पूरे देश में चर्चा में है. बंगाल में रेप की घटना के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं. रेप की घटनाओं में जब राजनीतिक लाभ जुड जाता है तो मामला संगीन हो जाता है. जब कोई राजनीतिक लाभ नहीं होता, इन घटनाओं की चर्चा नहीं होती, पुलिस मुकदमा दर्ज नहीं करती, समाज और मीडिया चर्चा नहीं करता है. यही कारण है कि रेप के आरोपी बुहत सारे मामलों में सजा पाने से बरी हो जाते हैं.

जानकारी के अनुसार, 60 फीसदी मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं. अगर सरकार और पुलिस सही मानो में रेप की चिंता करती तो मुकदमा लिखने के लिए सजा दिलाने तक तत्पर रहती. रेप के ज्यादातर मामले पुलिस तक पंहुचते ही नहीं, जो मामले पुलिस तक जाते हैं उन में पुलिस मुकदमा लिखने से बचती है. जब ऊपर से दबाव पडता है तभी मुकदमा और सही आरोपी का नाम लिखा जाता है. रेप में राजनीतिक लाभ देख कर काम होता है. इस से कोई इनकार नहीं कर सकता है.

एक बेहया का पत्र एक बेवफा के नाम

विनायक काफी हद तक सोनम की यादों की गिरफ्त से दूर हो चुका था. उस ने बातों ही बातों में सोनम को बताया था कि वह उस से बेइंतिहा प्यार करता है और उस के बिना जी नहीं सकता पर उस से दूर हुए 2 महीने हो गए थे और वह जी रहा था और खुशीखुशी जी रहा था. सोनम के खयालों में पहले उस का काफी समय बरबाद होता था पर अब ऐसा नहीं है. अब वह औफिस के काम के साथसाथ अपनी हौबीज को भी पूरा समय दे रहा था और यह बात वह सोनम को बताना चाहता था.

‘‘मैं वह नहीं जो प्यार में रो कर गुजार दूं, परछाईं भी यह तेरी ठोकर से मार दूं…’’ उस के जेहन में गाने के बोल तैर गए.

अब न तो सोनम उस के पास आती थी और न वह सोनम के पास जाता था, जबतक आवश्यक औफिशियल काम नहीं होता. मगर अपनी बात सोनम को बतानी तो थी ही. उस ने सोनम को यह बताने के लिए पत्र लिखना मुनासिब सम?ा. लैटर पैड पर उस ने अपने मन के भाव लिख डाले :

‘‘सोनम, ‘‘बहुतबहुत धन्यवाद तुम्हारा. ‘‘अब तुम सोच रही होंगी कि धन्यवाद किस बात का जबकि तुम बेवफाई पर उतर आई हो. दरअसल इसे बेवफाई कहना उचित भी नहीं होगा. मैं ही कौन सा वफादार था. बेवफाई मैं भी कर रहा था अपनी पत्नी से. पत्नी से बेवफाई और तुम से बेहयाई. उधर तुम भी अपने पति से बेवफाई कर रही थीं.

‘‘पर इतना तो तय है कि बेहयाई सिर्फ मेरी ओर से ही नहीं, तुम्हारा भी इस में बराबर का योगदान था. यदि कहूं कि पहल तुम्हारी ओर से ही थी तो शायद तुम भी.

‘‘याद है, आज से 1 साल पहले जब हमतुम धीरेधीरे एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगे थे, तब मेरी क्या स्थिति थी? मैं तेरे प्यार में क्याक्या न बना सोना, कभी बना कुत्ता कभी बना कमीना. तुम्हारे इर्दगिर्द ही मेरा सारा संसार बन गया था.

‘‘ऐसा लगता था कि मेरी कहानी तुम्हीं से शुरू और तुम्हीं पर खत्म हो रही है. तुम भी कुछ ऐसा ही व्यवहार करती थीं, मानों मेरे अलावा तुम्हारा कोई महत्त्वपूर्ण साथी है ही नहीं.

तुम्हारी इन नजदीकियों ने मुझे ऐसा घेरा था कि मैं कहीं का नहीं रह गया था पर तुम्हारा दिल आवारा था, है, और रहेगा. यह मैं नहीं कह रहा, तुम ने ही बताया था कि तुम्हारे 2 बौयफ्रैंड रह चुके हैं और तुम ने शादी तीसरे व्यक्ति से की. चौथा मैं था. इतने तो वे हैं जिन्हें मैं तुम्हारी ही बातों से जान पाया हूं और भी कई होंगे तुम्हारे कई अजीज.

‘‘पर जब तुम्हारा दिल मेरे ही पड़ोसी सुमित पर आ गया तो यह मेरे लिए झटका सा था. याद है, तुम कहती थीं कि सुमित के साथ तुम्हारा कुछ भी नहीं है. वह मेरा मित्र है इसलिए तुम उस से मिलतीजुलती हो. धीरेधीरे तुम्हारे आवारा दिल ने मुझे छोड़ सुमित के दिल को ही डेरा बना लिया था.

‘‘बहुत बुरा लगा था शुरू में. ‘जुबां खामोश, होंठ गुमसुम, आंखें नम क्यों हैं, जो कभी अपना हुआ ही नहीं उस के खोने का गम क्यों है,’ यह जाने किस शायर ने लिखा है पर मैं जिस स्थिति को ?ोल रहा था उसी स्थिति में उस ने लिखा होगा, इतना तो तय है या फिर लेखकोंशायरों का क्या है, आपबीती से ज्यादा जगबीती से लिखने की क्षमता होती है उन में. परकाय प्रवेश और परकाल प्रवेश उन के लिए सामान्य बात है.

‘‘पहले बहुत बुरा लगा था. लगता था कि मेरी दुनिया ही उजड़ गई. लगा देवदास बन जाऊंगा पर तुलसीदास बनना ज्यादा उचित लगा. देवदास पारो के प्यार में शराबी बन गया था. तुलसीदास पत्नी की फटकार से महाकवि बन गए थे. मैं न देवदास था न तुलसीदास पर जो भी हूं तुम्हारी और अपनी बेवफाई और बेहयाई से उबर कर कुछ काम करने लगा हूं. पहले दिन बिताना मुश्किल होता था. अब काम में इतना व्यस्त हो गया हूं कि दिन कब बीतता है पता ही नहीं चलता है.

‘‘तो एक बार फिर से तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद. बस, यही सोचता हूं कि कुछ महीनों के बाद तुम्हारा आवारा दिल सुमित से उचाट हो कर किसी और पर चला जाएगा तो सुमित का क्या होगा.’’

विनायक ने पत्र को लिफाफे में डाल कर बंद कर दिया. दफ्तरी को देते हुए आदेश दिया कि सोनम मैडम को दे देना. दफ्तरी पत्र ले कर चला गया. विनायक को लगा कि उस ने सोनम की बेवफाई का जोरदार जवाब दे दिया है. निश्ंिचत हो कर वह अपने काम में व्यस्त हो गया.

दूसरे दिन केबिन के दरवाजे पर किसी ने नौक किया. विनायक अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहा था. उस ने सोचा कि कैंटीन से कोई होगा.

‘‘अंदर आ जाओ,’’ उस ने कहा पर अपनी स्क्रीन पर निगाहें जमाए रहा, यह सोच कर कि चायवाला चाय रख कर जाएगा. थोड़ी देर के बाद उसे एहसास हुआ कि वह वहीं खड़ा है. उस ने नजरें ऊपर उठाईं. देख कर दंग रह गया कि सामने सोनम खड़ी थी.

एक पल को उसे लगा कि उस की चिट्ठी ने असर डाला है और सोनम उस के पास वापस आ गई है पर सोनम के चेहरे पर कठोरता के भाव थे. उस की आंखें अंगारे बरसा रही थीं.

एक पल को विनायक समझ ही नहीं पाया कि वह क्या कहे. उस ने सोनम को बैठने के लिए नहीं कहा. सिर्फ प्रश्नभरी निगाहों से देखता रहा.

सोनम सामने कुरसी पर बैठ गई. कठोर निगाहों से उसे देखते हुए बोली, ‘‘हम वह नहीं जो प्यार में रो कर गुजार दें. प्यार का मतलब भी पता है तुम्हें? तुम से मैं प्यार नहीं करती, सिर्फ दोस्ती थी तुम से. सुमित से भी सिर्फ दोस्ती ही है और कोई भी आदमी इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह किस से दोस्ती रखे, कब तक रखे और तुम ने किया क्या है मेरे साथ? सिर्फ गंदे चुटकुले शेयर किए, कुछ चौकलेट्स, मिठाइयां खिला दीं तो मैं गुलाम हो गई तुम्हारी? और मैं अपने पति से बेवफाई कर रही हूं? किसी पुरुष सहकर्मी के साथ मित्रता रखना बेवफाई है क्या? तुम्हें क्या लगता है कि सुमित के साथ मैं उस के केबिन में शारीरिक सुख भोगती हूं? याद करो खुद के साथ बिताए क्षण. दोस्ती अलग बात है पर शारीरिक संबंध बनाना आसान नहीं. क्या मैं ने तुम्हें कभी शारीरिक संबंध बनाने का मौका दिया?

तुम अपनी पत्नी से बेवफाई कर रहे होगे क्योंकि तुम्हारे मन में ऐसी आशा रही होगी. मैं अपने पति से बेवफाई नहीं कर रही,’’ सोनम उत्तेजना में बोले जा रही थी. बोलते समय उस के हाथ हवा में लहरा रहे थे. उस के हाथ में कागज का एक टुकड़ा था जो निश्चित ही वही पत्र था जो कल विनायक ने उसे भेजा था.

उस ने बोलना जारी रखा, ‘‘और रही बात पहले के 2 बौयफ्रैंड्स की, तो किसी भी व्यक्ति के जीवन में कई फ्रैंड हो सकते हैं. इस का यह मतलब नहीं कि सभी के साथ शारीरिक रिश्ता रखा जाए और तुम मेरे बौयफ्रैंड कभी नहीं रहे, सिर्फ कलीग हो. हां, अपने सरल स्वभाव के कारण मैं किसी के साथ ज्यादा घुलमिल जाती हूं. तुम्हारे साथ भी यही हुआ और सुमित के साथ भी यही है. फिर आने वाले दिनों में किसी और के साथ अच्छी दोस्ती हो सकती है और इस से यदि सुमित को आपत्ति होगी तो मैं परवा नहीं करती. मेरा जीवन मेरा है और इसे मैं कैसे जीऊंगी, इस का निर्णय मैं करूंगी, मेरा कोई दोस्त या कलीग नहीं.

‘‘रही बात मेरे पति की तो सुख में, दुख में मेरा साथ उन्होंने ही दिया है और वे ही देंगे. जबतक मुझे तुम्हारा साथ अच्छा लगा तुम से दोस्ती की, अब मुझे सुमित का साथ पसंद है तो उस से दोस्ती है, कल किसी और का साथ पसंद होगा तो उस से दोस्ती होगी. यह परस्पर पसंद की बात है. और हां, तुम्हारे लिए स्पष्ट चेतावनी है कि कभी मुझे बेवफा या बेहया साबित करने की कोशिश मत करना. बेवफाई तुम कर रहे होगे अपनी पत्नी से क्योंकि तुम मु?ा से शायद नाजायज संबंध की अपेक्षा रखते थे, बेहया भी तुम ही हो क्योंकि तुम किसी के व्यक्तिगत जीवन में दखलअंदाजी करते हो. तुम्हारा यह पत्र मेरे पास है, अमानत के रूप में. एक शिकायत तुम्हें कहां पहुंचा देगी तुम समझ सकते हो.’’

विनायक भौचक हो सोनम को देखता रहा. सोनम हाथ में उस की चिट्ठी लिए केबिन का दरवाजा खोल तूफान की तरह जा चुकी थी.

कोई लौटा दे मेरे बीते दिन

सुबह से अपने कमरे में बैठेबैठे में उक्ता सी गई थी. करने को कुछ था नहीं और करना भी चाहती है तो शरीर साथ नहीं दे रहा था. नाश्ता मुझे अपने कमरे में ही मिल जाता, फिर थोड़ा आराम कर के मैं अखबार पढ़ती. लगभग 11 बजे मैं अपने वाकर के सहारे बड़ी मुश्किल से कमरे से बाहर बरामदे तक जा पाती.

गठिया के कारण जमीन पर पांव घसीटघसीट कर चलना अब मेरी नियति बन चुकी थी. बस, यही रोज का क्रम था मेरा.

कमरे में मैं ने एक व्हीलचेयर भी रखी हुई थी पर उसे चलाने वाला कोई नहीं था. मैं अपने पांवों को भी चेयर पर नहीं टिका सकती थी. और वाकर ले कर भी मैं उस समय चलती थी जब मुझे कोई देख नहीं रहा होता. मैं 10-15 कदम भी नहीं चल पाती और लडख़ड़ा जाती. फिर चोरीचोरी इधरउधर देखती कि कोई मुझे देख न ले, नहीं तो ताने सुनने पड़ते. इस घर में आए मुझे 6 महीने से अधिक हो गए थे. कहने को मेरे सब थे मगर अपना कोई नहीं था जो मेरे खून के रिश्ते से बंधा हो. भाई सडक़ हादसे में कुछ समय पहले ही गुजर गए थे, भाभी इस घर  में अपने बेटे राहुल और बहू रेवती के साथ रहती थी.

बंसी उन का नौकर था जो हमेशा बड़बड़ाता ही रहता था.

मैं नहीं चाहती थी कि किसी पर बोझ बनूं, परंतु सच तो यह है कि वह तो मैं बन ही चुकी थी. अपने जूठे बरतन किचन में रखने जाती तो दूर से ही वह टोक देती, ‘दीदी, आप किचन में मत आया करो.’

‘मैं तो बस अपने बरतन रखने आ रही थी.’

‘मैं बरतन खुद ही उठा लूंगी, नहीं तो बंसी उठा लाएगा. कहीं चलतेचलते गिर पड़ी तो अस्पताल के चक्कर कौन लगाएगा. आप प्लीज अपने कमरे में ही रहा कीजिए. मुझे सुबहसुबह और भी कई काम होते हैं,’ यह कह कर वह चली जाती.

अब तक में जान चुकी थी कि वह जबान से भले ही तेज हो पर मन की साफ और प्रैक्टिकल थी. वह जैसी बाहर से थी वैसी ही भीतर भी. काश, मैं ने उस का यह गुण पहले ही अपना लिया होता तो आज मेरी यह हालत न होती.

10 बजे से पहले यदि बिस्तर से नीचे मैं पांव रख देती तो बंसी टोक देता, ‘अभी फर्श गीला है. कहीं फिसल गई तो मेमसाहब मुझे डांटेंगी. आप को जो चाहिए, मुझे बताइए, मैं यहीं ले कर आ जाऊंगा.’ यह कह कर वह भी अपना भद्दा सा मुंह बना कर चला जाता.

उन की बातें नश्तर बन कर दिल पर चुभतीं पर मैं कर भी क्या सकती थी. और जाऊं तो जाऊं भी कहां. वक्त जिंदगी की दशा यों बदल देगा, पता न था.

जैसा कि मैं ने पहले बताया, मेरे लिए कमरे से बरामदे तक चलना भी मुश्किल हो गया था. गठिया के कारण पांव के अंगूठे पर उंगलियां टेढ़ीमेढ़ी हो कर चढ़ गई थीं, कमर भी काफी झुक गई थी और बड़ी मुश्किल से मैं सीधा चलने का प्रयास करती. उन के सामने तो मैं बहुत नापतोल कर चलती. इस के अलावा और भी कई रोग शरीर में पनप रहे थे. मैं अपने दुखों को शेयर करती भी तो किस से. इस कालोनी में मैं किसी को जानती भी नहीं थी, थोड़ा चल पाती तो पास के मंदिर तक ही चली जाती. मेरी हालत भी बिगड़ती जा रही थी. मैं बीमारी से ज्यादा उपेक्षा और अकेलेपन का शिकार थी. मैं ने आज तक किस का भला किया था जो मेरे लिए कोई अपना काम छोड़ कर मुझे अस्पताल तक ले जाता, मेरे पास कुछ क्षण बैठता.

रात को एक बार बाथरूम जाने से पहले ही मेरा पेशाब निकल गया और मैं फिसल गई. आवाज सुन कर पहले रेवती आई और फिर बंसी. उन्होंने सारा फर्श साफ किया और मेरे कपड़े बदले. तब से उन्होंने रात के लिए मेरे लिए एक आया रख दी और मुझे डाइपर पहनने के लिए मजबूर होना पड़ा. आया मुझे सुबह ही नहलाधुला कर चली जाती.

लगभग 10 बजे तक सभी लोग अपनेअपने औफिस चले जाते. बस, रह जाती मैं और मेरी तनहाई. न कोई अपना न पराया, न कोई सुध लेने वाला न कोई सुखदुख का साथी, न कोई न रागद्वेष. बस, किसी तरह जिंदगी को ढोए जा रही थी. फिर शिकायत करती तो किस से. मेरा कियाधरा ही तो सामने आ रहा था.

कालेज से रिटायर होने के बाद मुझे ग्रेच्युटी भी काफी मिली और मैं ने जोड़ा भी काफी था. वहीं, मां के मरने के बाद भैयाभाभी ने उन का भी सारा पैसा मेरे नाम कर दिया था. पर यह सब अब मेरे किसी काम का न था. न भाभी मुझ से पैसे लेती और न ही कहीं देने देती. मैं ने उन्हें रुपएपैसों को ले कर सारी उम्र ताने ही तो दिए थे. और अब यह सारा पैसा मेरे भी किसी काम में नहीं आ रहा था. इन हालात में मुझे न तो कोई वृद्धाश्रम में रखने को तैयार था और न ओल्ड एज होम में. काश, मैं ने सोचा होता कि मैं भी कभी बूढ़ी, असहाय हो जाऊंगी, शरीर भी धीरेधीरे मेरा साथ छोड़ देगा. समय रहते अपने लिए कोई घरवर तलाश कर लेती, अपनी जिंदगी से समझौता कर लेती तो आज बात ही कुछ और होती.
राहुल और रेवती से मेरा संबंध लगभग न के बराबर था. उन के लिए मैं इस घर में एक अवांछित सदस्य थी. उन के जाने के बाद ही मुझे थोड़ा सुकून मिलता कि अब मैं स्वतंत्रता से घूम सकती हूं. बाहर बरामदे में मुझे बंसी चाय बना कर दे गया. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपने पैरों को सामने की कुरसी पर जैसेतैसे रखा और सडक़ पर आतेजाते लोगों को देखने लगी. बंसी अपने कमरे में नहाने चला गया.

आज न जाने क्यों रहरह कर मुझे अपना अतीत कचोट रहा था. गुजरे कई वर्षों की छाप ने मुझे ऐसे गर्त कमरे में ढकेल दिया, जहां बहुत अंधेरा था. मैं अकेली बैठी अपनी जिंदगी के किताब के पन्ने पलटती रही और एकएक पड़ाव को जांच रही थी.

मुझे अच्छी तरह याद है, भैया जब भाभी को ब्याह कर घर लाए थे तो भाभी की साड़ी दरवाजे के हैंडल में उलझ कर रह गई और वह शगुन के थाल के साथ ही गिर पड़ी. मम्मी तो बड़बड़ाती हुई एक तरफ चली गई कि यह तो बहुत अपशकुन हुआ पर मैं ने तुनक कर ताना कसा, ‘क्या भैया, आप कैसी भाभी लाए हो जो खुद संभल कर तो चल नहीं सकती, घर क्या खाक चलाएगी,’ और ठहाका मारकर में हंसने लगी. मेरे साथ मेरी सहेलियां और रिश्तेदार भी चुहल में व्यस्त हो गए. भैया कुछ नहीं बोले. वह हाथ पकड़ कर उन्हें उठाने लगे तो मैं ने कहा, ‘उठाओउठाओ, गिरे हुए को उठाना ही तो आप का काम है.’

भैया अपनी पसंद की लडक़ी को ब्याह कर लाए थे, इसलिए वे चुप थे. मम्मी को यह लडक़ी शुरू से ही पसंद नहीं थी, फिर भी भैया का मन रखने के लिए उन्होंने हां कह दी. मैं मां के साथ उन के कमरे में चली गई. एकएक कर के सभी रिश्तेदार भी अपनेअपने घर चले गए और फिर भाभी का किसी ने स्वागत नहीं किया.

सुबह न तो उन को मम्मी ने किचन में ले जा कर कोई रस्म अदा की और न ही ठीक से कोई बात की. वह तैयार हो कर ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गई. मैं ने किचन में जा कर अपनी चाय बनाई और अपने कमरे में चली गई. किचन से मेरे कमरे का रास्ता ड्राइंगरूम से ही हो कर जाता था. मैं ने जानबूझ कर उन्हें अनदेखा किया.

तब तक भैया भी आ गए थे. उन्होंने भाभी को ऐसे बैठा देख कर तीखे स्वर में कहा, ‘मम्मी, यह क्या है, नई बहू का स्वागत करने का यही तरीका है. वह बेचारी ड्राइंगरूम में बैठी है और आप हैं कि…’

इस से पहले कि मम्मी अपने कमरे से निकल कर आती, मैं ने कहा, ‘वाह भैया, एक ही रात में तुम्हारे तो रंगढंग ही बदल गए. मैं और मम्मी तो जैसे कुछ हैं ही नहीं.’

‘तो इस ने गलत क्या कह दिया. मां ने एक कमजोर सी दलील दी. बात आई गई हो गई. पापा घर की किसी बात में कोई टीकाटिप्पणी नहीं करते थे. पापा तो बस पापा थे. न किसी बात की खुशी न शिकवा न शिकायत. करते भी तो कैसे. तमाम उम्र तो उन्होंने मर्चेंट नेवी में बिता दी. कभी सालछह महीने बाद घर आते तो कभी सालभर बाद. घर के सारे फैसले मम्मी ही लिया करती. मम्मी बहुत सारी बातें उन से छिपा भी लेती थी. पापा का एक ही मकसद था कि रिटायर होने के बाद सुखचैन की जिंदगी बिता सकूं. कुल मिला कर मम्मी ने ही हम भाईबहन को पढ़ायालिखाया था.

मम्मी शुरू से ही तुनकमिजाज और तीखा बोलने वाली थी. अपने गलत उसूलों को सही ठहराने के लिए सौ झूठ का सहारा भी लेना पड़े तो वह पीछे नहीं हटती. और कोई झूठ पकड़ा जाता तो अकेली औरत होने का बहाना बना कर साफ बच जाती.

हर महीने दूधवाले, अखबार वाले, कामवाली बाई और कूड़े वाले कि कोई न कोई गलती निकाल कर उन के पैसे काटना जैसे उन का अधिकार बन गया था. और उन की इतनी कडक़ आवाज के सामने कोई भी बेचारा उन के चुप होने तक अपनी खैर मनाता. आज मैं उन को बेचारा ही कहूंगी क्योंकि उन को काम की जरूरत थी और मैं तो हमेशा मम्मी की ही तरफदारी करती रही. वे सब लोग हमेशा अपने पैसे कटवा कर भी अपना काम करते रहते. मम्मी के सामने भला किसी की क्या मजाल कि अलिफ से बे तक कुछ कह सके.

उन के हावभाव का मुझ पर भी असर तो पढऩा ही था. मैं भी तुनकमिजाज और बदजबान होती गई.

मेरी समझ में भी धीरेधीरे आने लगा कि लोगों से काम करवाना हो तो अपने नारी होने का फायदा उठाओ. मम्मी तो जैसे मेरा रोलमौडल थी.
वक्त गुजरता गया. भैया मुझ से 3 साल छोटे थे. शादी तो पहले मेरी होनी चाहिए थी. पर मम्मी ने उलटी चाल चली. भैया के दहेज में आने वाला समान मेरे लिए जमा करना शुरू कर दिया.

भाभी की महंगी साड़िय़ां, मिक्सर ग्राइंडर, एलईडी, पोर्सलिन का डिनर सेट, चांदी की कटलरी और जाने क्याक्या मेरे लिए समेट कर रख दिया. हमारे घर में रुपएपैसों का अभाव नहीं था, फिर भी मम्मी खर्च करने में बहुत कंजूस थी. आज मम्मी तो नहीं रही, पर उन का कंजूसी से जुड़ा हुआ पैसा किसी काम का नहीं रहा.

भाभी मम्मी के आगे क्या कहती, उन्हें तो इसी घर में रहना था. भैया कभी मम्मी की तारीफ करते तो कभी भाभी की. दरअसल, मम्मी चाहती ही नहीं थी कि बेटाबहू एक हो जाए, कोई न कोई बहाना बना कर अपने सास होने का फर्ज निभाती.

पढ़ाई में तो मैं शुरू से ही तेज थी. एमए इकोनौमिक्स में करने के बाद बीएड किया और पास ही के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी. लगभग 3 बजे तक घर आ ही जाया करती थी.

कुछ दिनों में मेरी शादी तय हो गई. मैं भी मम्मी के सारे दांवपेच समझ कर ससुराल आ गई. मेरे पति बैंक में काम करते थे. इस तरह मैं दिल्ली से जयपुर आ गई. मेरे सासससुर के अलावा देवर भी साथ ही रहता था. हमारे कुछ दिन तो हंसीखेल में बीत गए पर जब कल्पना के लोक से धरातल पर आई तो पता चला कि जिंदगी वैसी नहीं है जैसा में समझती थी और जैसा मुझे समझाया गया था. पति के औफिस चले जाने के बाद सारा दिन सासससुर के साथ रहना मुझे अटपटा सा लग रहा था क्योंकि मैं ने कभी यह सीखा ही नहीं था. और न ही मैं सुबह से शाम तक घर के कामों में उलझ सकती थी. मैं ने कभी चूल्हेचौके में जाना सीखा ही नहीं था. मम्मी नौकरों पर निर्भर थी और भाभी के आने के बाद तो हर छोटेबड़े काम मैं उन से ही करवाती.

थकहार कर जब शाम को पति घर आते तो मैं सारे दिन के गिलेशिकवे करती. वे इस बात को हंसखेल कर टाल जाते, ‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा, शुरूशुरू में ऐसा ही होता है. थोड़ा एडजस्ट करना सीखो.’ और सुबह उन के औफिस जाने के बाद मैं घंटों मम्मी से बात कर के अपना दुख हलका करती.

मम्मी ने एक दिन रास्ता सुझाया, ‘अभी कुछ दिन और एडजस्ट कर लो, फिर बाद में नौकरी कर लेना. आधा दिन तो यों ही बीत जाएगा और बाकी का आराम में.’

‘मुझे नहीं लगता वे नौकरी के लिए मानेंगे. उन की बातों से लगता है कि उन्होंने शादी अपने मातापिता के लिए की है ताकि कोई तो उन के पास रहे.’

‘ऐसा थोड़ी होता है,’ मम्मी बिफर कर बोली, ‘8 घंटे सोने में जाते हैं, 4 घंटे पति के साथ और सासससुर के लिए 12 घंटे?’ यह कह कर उन्होंने सीधासीधा गणित के साथ समझा दिया, वाह.’

इकोनौमिक्स के स्टूडैंटट मैं थी पर हिसाबकिताब और तर्क में मम्मी का कोई जोड़ नहीं था. मैं खुश हो गई. ‘ठीक है, मैं आज ही इन से बात करती हूं.’

‘यह इन से उन से वाले डायलौग छोड़, सीधासीधा नाम ले कर बुलाया कर और हां, उस की समझ में न आए तो अगली बार जब तुम यहां आओगे तो मैं समझा दूंगी. उसे पत्नी चाहिए या उस के मातापिता की सेवा और बच्चे पैदा करने वाली औरत.’

परंतु आज मानती हूं कि पारिवारिक संबंधों में यह गणित काम नहीं करता. मेरी जिंदगी का सब से खराब पक्ष यह था कि मैं कोई भी निर्णय स्वयं नहीं ले पाती थी. इसलिए हर छोटीबड़ी बातों को मम्मी से शेयर करती. मम्मी ने मुझे यह पहले ही समझा दिया था कि पति से कोई बात मनवानी हो तो अंतरंग पलों में उस से दूरी बना लेना और पास मत आने देना. नारी का संग पुरुष की सब से बड़ी कमजोरी होती है और इसी कमजोरी का फायदा उठाना सीखो.

फिर क्या था. मैं ने सासससुर से भी दूरी बनानी शुरू कर दी और उन की बहुत सारी बातों को अनसुना कर देती. कुछ दिनों पहले मुझे मेरी एक किटी पार्टी की सहेली ने बताया कि जयपुर के पास वनस्थली में एक लैक्चरर की आवश्यकता है. मेरी योग्यताएं उस में पूरी तरह अनुकूल बैठती थीं. मैं ने शाम को पति से इस बारे में बताया तो वे बोले, ‘वनस्थली विद्यापीठ पहुंचने में ही 2 घंटे चाहिए. इतनी दूर रोजाना जाना संभव नहीं है. तुम्हारा सारा दिन इसी भागदौड़ में लग जाएगा, फिर घर कब पहुंचेगी और मम्मी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती.’

‘तो आप ने मुझे नौकर समझ रखा है. पहले बाजार से सामान लाती रहूं, फिर उन की सेवा करती रहूं और सारा दिन किचन में लगी रहूं. ऐसा ही था तो किसी गांव वाली को ब्याह कर लाते,’ मैं तुनक कर बोली. बहुत दिनों से वैसे भी मेरा मन भरा हुआ था.

‘मैं तुम को नौकरी के लिए मना नहीं कर रहा, परंतु इतनी दूर जाने का क्या फायदा. फिर मैं तो तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूं. इस से तो अच्छा है कोई आसपास ही कोई काम कर लो.’

‘वनस्थली यूनिवर्सिटी है. उस में काम करने का मौका बहुत कम लोगों को ही मिलता है. फिर वहां मेरा एक स्टेटस होगा, अच्छा पैकेज होगा.’ मैं ने उन को समझाया.

‘परंतु मुझे यह समझ में नहीं आता,’ कह कर उन्होंने अपना निर्णय सुना दिया.

मैं जलभुन कर रह गई.

समझौता करना तो मम्मी ने सिखाया ही नहीं था और मुझ पर कोई अपना निर्णय थोपे, यह मैं सह नहीं सकती थी. फिर एक दिन वही हुआ जिस का मुझे एहसास था. मेरी सास गठिया के कारण ठीक से चलफिर नहीं पाती थी. एक दिन चलतेचलते वह फिसल गई. मैं ने भी जानबूझ कर उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. चाय बनाई और अपने कमरे को बंद कर के मम्मी से बातें करती रही. बीचबीच में मैं ने ससुरजी के पुकारने की आवाज भी सुनी और अपने दरवाजे पर दस्तक भी.

मैं ने जानबूझ कर सबकुछ अनसुना कर दिया, फिर बातें करतेकरते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. काफी समय बाद मुझे दरवाजे पर तेजतेज आवाज सुनाई दी. मैं हड़बड़ा कर उठी और दरवाजा खोलते ही भडक़ उठी, ‘क्या हुआ, अभी आती हूं न.’

मैं ने दरवाजे पर पति को खड़े देखा. मुझे घूर कर वे देखते हुए बोले, ‘आज तो तुम ने हद ही कर दी. मम्मी फिसल कर नीचे गिर पड़ी है और तुम अपने कमरे में आराम फरमा रही हो. इतना तो कोई गैरों के साथ भी नहीं करता.’ 

‘तो क्या करूं मैं, अस्पताल ले कर जाऊं क्या? आ तो रही थी. आप को बुलाने की क्या जरूरत थी. ये क्या जतलाना चाहती हैं कि मैं आप के पीछे उन का कोई ध्यान नहीं रखती.’

‘ध्यान रखती होती तो मुझे क्यों आना पड़ता. अब तुम पड़ी रहो अपने कमरे में. मैं मम्मी को ले कर अस्पताल जा रहा है और करती रहो अपनी मम्मी से बातें.’

हमारी गरमागरम बहस हुई और मैं ने अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया. इधर वे मम्मी को ले कर अस्पताल गए उधर मैं ने अपनी मम्मी को सारी रामायण सुना दी और जोरजोर से रोने लगी. मम्मी ने सीधा वही कहा जो मैं सुनना चाहती थी. मैं वापस मम्मी के पास दिल्ली लौट गई. बाद में पता चला कि उन की मम्मी के कूल्हे की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया है. ऐसे समय में मुझे वहां होना चाहिए था परंतु मेरे अहं और जिद ने मुझे वहां जाने नहीं दिया. मम्मी ने तो साफ कह दिया कि ऐसे घर में क्या जाना जहां लोगों की देखभाल करती रहो जैसे मेरा कोई वजूद ही न हो.

‘तू चिंता न कर बेटी. तेरे लिए कोई दूसरा घरवर देखूंगी. मैं जानती हूं उन से कैसे निबटना है.’ मुझे बहुत बाद में पता चला कि मेरे पति ने मुझ से कई बार संपर्क करने की कोशिश की थी परंतु मम्मी ने कोई न कोई बहाना बना कर उन्हें प्रताडि़त किया था.

फिर न कभी उन्होंने बुलाया, न मेरे पति आए और न मैं वहां गई. काश, मैं वहां चली जाती, उस समय उन के घरसंसार में अपनी एक जगह बना लेती तो उम्र के इस पड़ाव में उपेक्षित और तिरस्कृत हो कर जीवन न बिताना पड़ता. यह शादी 3 महीने भी न चली और हमारा अलगाव हो गया, वह तो होना ही था.

पापा को इस बात का पता बहुत दिनों बाद चला. वे तो चाहते थे कि मैं वापस चली जाऊं परंतु मेरी जिद और अहंकार आड़े आ गया, ऊपर से मम्मी का रौद्र रूप. अपनी इज्जत बचाने के लिए मम्मी ने पासपड़ोस और मिलने वालों से झूठी कहानियां कहीं कि वे सब उन की बार्तों का ही विश्वास करने लगे. वहशी, कपटी, दरिंदा, जंगली, दहेज लोलुप, उग्र स्वभाव का और न जाने क्याक्या मेरे पति को उपमा देने लगी. मैं सब सुनती और मम्मी की बातों में नमकमिर्च लगा कर बता देती.

तलाक के बाद मैं मम्मी के घर आ गई और यहीं एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी. घर में रहतेरहते मम्मी ने मुझे यह भी घुट्टी पिला दी थी कि यदि भाईभाभी एक हो गए तो वे हमारी इज्जत करना बंद कर देंगे. और ढलती उम्र में कोई उन को सहारा देने वाला भी नहीं मिलेगा. मैं रोज भाभी को किसी न किसी बात पर नीचा दिखाने की ताक में रहती. कभी जानबूझ कर दाल में नमक ज्यादा डाल देती तो कभी भैया के पैसे छिपा देती. भाभी यह सब शायद जानती थी पर बोलती कुछ नहीं. वह जानती थी कि कुछ भी बोलेंगे तो मम्मी सारा घर सिर पर उठा लेंगी.
उस दिन वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. सुबहसुबह मेरे पास आ कर भैया बोले, ‘जिद्दी, मेरी पैंट तुम ने मशीन में डाली है क्या?’

‘कौन सी पैंट?’ मैं ने अनजान बनते हुए कहा.

दरअसल जब मैं नहाने गई थी तो दरवाजे के पीछे लटका देखा. मुझे शरारत सूझी. उस की पैंट में पैसे देख कर मैं ने उसे मशीन में डाल दी. भैया को जब पता चलेगा तो भाभी की लापरवाही पर उस पर जरूर बरसेंगे.

‘वही जो बाथरूम में दरवाजे के पीछे टंगी थी. तुम नहीं जानतीं आज मेरा कितना बड़ा नुकसान तुम ने कर दिया,’  गुस्से से लाल पीले हो गए भैया आगे बोले, ‘रात को ही मैं ने रेवती को बताया था कि पैंट की जेब में से चैक निकाल लेना. उस का अभीअभी फोन आया है कि वह चैक निकालना भूल गई. और तुम कहती हो कौन सी पैंट. फिर, तुम ने कब से कपड़े धोना शुरू कर दिया. शर्म आनी चाहिए तुम्हें.’

‘भैया, आप मुझ पर उलटासीधा इलजाम लगा रहे हैं. मैं क्यों कपड़े मशीन में डालूंगी. कपड़े धोना तो भाभी का काम है न.’

‘तो फिर मेरी पैंट मशीन में कैसे पहुंची,’ वे आग बबूला हो उठे, ‘अपना घरसंसार तो तुम से संभला नहीं, फिर इस घर में क्यों आग लगा रही हो. मैं तुम्हारे हावभाव को नहीं जानता क्या.’

तब तक मम्मी आ गई, ‘क्या हुआ, क्यों चिल्ला रहा है?’

‘मम्मी, आप बीच में न बोलो, तो अच्छा है. सुबहशाम मैं आप लोगों की शिकायतें और ताने सुनते आया हूं. दीदी को अपने घर बैठा लिया. उस के लिए कोई अच्छा घरवर देख कर विदा करो,’ कह कर वे मशीन से पैंट निकालने लगे और फिर बोले, ‘जानती हो, मैं ने पापा के पुराने शेयर बड़ी मुश्किल से बेच कर 40 हजार रुपए का चैक लिया था. अब क्या कहूंगा पापा से?’

चैक पूरी तरह बरबाद हो चुका था. वे गुस्से में नाश्ता छोड़ कर अपने औफिस चले गए. भैया के इस गुस्से के आगे घर में एक गहरा सन्नाटा छा गया. इस के बाद हमारे घर कई दिनों तक अबोला सा पसर गया. अच्छाबुरा सोचने की शक्ति तो समाप्त ही हो गई थी. मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे भीतर कितना जहर भरा है.

भाभी सुबह घर का काम निबटा कर 8 बजे तक स्कूल चली जाती थी. और मैं 10 बजे तक. घर का नाश्ता भाभी ही बना कर जाती और शाम को 4 बजे तक आ कर बाकी का काम वह ही करती. मेरा इस घर में अब दम घुटने लगा था. आज लगता है जो मेरा था, उसे नकार दिया और जो अपनाया उन्होंने किनारा कर लिया. मुझे दिल्ली के पास ही एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में नौकरी मिल गई और मैं बिना किसी से सलाह लिए वहां चली गई.

जब भी दीवालीहोली होती, मैं घर आ जाती. पापा और भैया मेरी शादी पर दबाव डालते रहे. वे कोई न कोई रिश्ता ढूंढ कर मुझे बुलाते रहते और मम्मी उन में कई कमजोरियां निकाल कर मुझे और अच्छे रिश्ते की दिलासा देती रहती. उन में कई रिश्ते विदेशों से भी आए थे, कई बेंगलुरु और मुंबई से थे पर मैं भी हर बार जिद में आ कर दिल्ली के आसपास तक सीमित रही. मैं अब यह नौकरी छोडऩा नहीं चाहती थी.
यूनिवर्सिटी का नाम भी था और ऊपर से मुझे रहने के लिए फ्लैट भी दिया था. देखने में मैं खूबसूरत, पढ़ीलिखी, अच्छी नौकरी करती थी. उम्र भी ज्यादा नहीं थी परंतु इन सब के बावजूद कहीं बात पक्की न हो सकी. कुछ मम्मी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे और कुछ को मैं ने मना कर दिया और बाकी जो कसर बची थी वह तलाकशुदा के ठप्पे ने पूरा कर दिया. यौवन एकदम सूना और बेमानी सा लगने लगा. मैं ने जीवन से सीखा तो बहुतकुछ पर महिलाओं के लिए जो सब से बड़ी बात सीखने की है वह है क्षमा. और वह मैं ने सीखी ही नहीं.

दिन बीतते गए. पापा रिटायर हो कर घर आ गए. मेरी उम्र भी 45 के पार होने वाली थी. अब या तो कोई विधुर मिलता या तलाकशुदा जिस के एकदो बच्चे होते. धीरेधीरे सब ने अपने कर्तव्य से इतिश्री मान ली और घर पर बात होना लगभग बंद सा हो गया था.

एक बार दीपावली के बाद मैं भैया के टीका करने लगी तो भाभी ने मेरा अच्छा मूड देख कर कहा, ‘दीदी, एक बात बताऊं आप को, बुरा लगे तो मन से निकाल देना.’

‘तुम जो बोलोगी उलटा ही बोलोगी.’ मैं ने मुंह बना कर कहा, ‘फिर भी कह दो जो तुम्हारे मन में है.’ सब लोग पास ही बैठे थे.

‘फिर रहने दीजिए,’ कहकर वह चुप्पी साध गई. भैया ने भाभी की तरफ देख कर बोला, ‘अब कह भी दो न, बात तो पूरी कर लो.’

‘मैं तो यह कह रही थी कि अब इस उम्र में जिंदगी से समझौता कर लीजिए. जहां जैसा भी व्यक्ति मिले, मेरा मतलब जो आप के लायक हो तो…’

‘अच्छाअच्छा, अब तुम ही रह गई हो मुझे पढ़ाने के लिए. तुम चिंता न करो, मैं अकेली जिंदगी काट लूंगी पर तुम पर बोझ नहीं बनूंगी. तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक हो.’

भैया का बेटा, जो अब 15 साल का हो चुका था, मेरे इस उग्र व्यवहार को देख कर बोला, ‘बूआ, आप भी तो कोई बात सीधेमुंह नहीं करतीं. हमेशा मम्मी पर गुस्सा करती रहती हैं. गुस्सा तो आप की नाक पर रहता है.’

‘रोहन,’ भाभी खड़ी हो गई, ‘बूआ से ऐसे बात करते हैं क्या?  माफी मांगो इन से.’

वह तपाक से बोला, ‘पहले उन से बोलो कि वे आप से माफी मांगें.’ और बड़बड़ाता हुआ उठ कर वह बाहर चला गया.

मैं गुस्से से तिलमिला गई. अब यही हालत रह गई थी मेरी इस घर में. मैं भी उठ कर अपना सामान समेटने लगी.

आज सोचती हूं बात तो भाभी ठीक ही कह रही थी. समय रहते अपनेआप से समझौता कर लेती तो आज यों किसी के पास बेसहारा, लाचार बन कर मुझे जीना न पड़ता. मुझे क्या पता था कि वे कड़वे बोल मुझे इस कदर महंगे पड़ेंगे कि भाभी के पास ही मुहताज हो कर जिंदगी काटनी पड़ेगी. वक्त कब किस करवट अपना रुख बदल ले, कोई नहीं जानता. मैं अपने झूठे और दकियानूसी अहं में जीती रही. जी कम, मरी ज्यादा. मैं ने भी स्थान काल की महिमा भूल कर अपने ही हाथों अपना सर्वनाश कर लिया था पर अब दुखड़ा कहूं भी तो किस से.

वक्त के साथसाथ मम्मीपापा का स्वास्थ्य भी गिरता रहा. एक रूटीन चैकअप के दौरान पता चला कि मम्मी को किडनी का कैंसर है और वह भी अंतिम अवस्था में. फिर क्या था. मैं छुट्टी ले कर घर आ गई और आननफानन मम्मी को अस्पताल में भरती करा दिया. फिर वहां से वह शरीर में नहीं लौटी. पापा इस सदमे से कभी उबर नहीं पाए. सारी उम्र तो उन से दूर रहे और जब पास रहने का समय आया तो वह दूर चली गई और फिर वे एक रात ऐसा सोए कि कभी नहीं उठे.

मेरे लिए तो जैसे सब सहारे ही बंद हो गए. मैं वापस लौट गई और किसी तरह अपनी जिंदगी घसीटती रही. मुझे उन दोनों की मृत्यु का इतना सदमा लगा कि मैं एकदम खामोश हो गई. न कालेज में मेरा मन लगता, न ही घर पर. मैं खोईखोई सी रहने लगी. क्या करूं, कहां जाऊं. तमाम उम्र तो मम्मी के साए में गुजार दी थी. मेरा कोई अपना वजूद तो था ही नहीं और भाईभाभी को मैं ने कभी अपना माना नहीं. बस, ताने देती रही. सो वह सहारा भी लगभग न के बराबर था.

मेरे पास अब सब सुख थे. एक बढिय़ा महंगी कार, सभी सुखसुविधाओं से युक्त अपना घर, अच्छा बैंकबैलेंस, इज्जतदार नौकरी आदि परंतु नहीं था तो कोई मेरा अपना जिस से मैं अपना सुखदुख बांट सकूं. एक अकेली जिंदगी ढोतेढोते थक चुकी थी मैं. अब तो मेरा वजूद भी खोता जा रहा था. हमारे आपसी रिश्ते भी सिमटने को थे. न मैं ने कोई अपना दोस्त बनाया न संगीसाथी. लेकिन सूरज की रोशनी आखिर कब तक रहती. मेरे इर्दगिर्द अंधेरा तो होना ही था.

धीरेधीरे दिन महीनों में गुजर गए और महीने सालों में. एक दिन मैं दोपहर को क्लास ले रही थी कि अचानक सिर में तेज दर्द उठा और मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. न मुझ से बैठा जा रहा था न ही मैं कुछ सोच पा रही थी. बस, पाषाण बनी खड़ी की खड़ी रह गई. सारा शरीर एकदम से जम गया. और जब होश आया तो अस्पताल में मैं लेटी हुई थी. मैं किसी को भी पहचान नहीं पा रही थी और यह भी नहीं जान पाई कि मैं यहां कैसे आई. बस, कुछ रेंगते हुए साए दिख रहे थे. मैं उन को बस देखती रही. 2 दिनों बाद मैं थोड़ाथोड़ा होश में आने लगी. पता चला कि कालेज के ही लोग मुझे यहां लाए हैं.

मैं ने ध्यान से देखा, भाभी की धुंधली सी आकृति मुझे दिखी जो मेरे पास ही बैठी थी. मुझे देख कर वह मुसकराई और कुछ भी कहने से मना कर दिया. मेरे चेहरे पर एक कोमल स्पर्शभरा हाथ रखा, ‘चिंता न करो भाभी, मैं आ गई हूं. सब ठीक हो जाएगा.’  मेरी आंखों से रुलाई फूट पड़ी.

मुझे प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. डाक्टर के अनुसार मुझे तब तक डिस्चार्ज नहीं किया जा सकता था जब तक पूरी तरह ठीक न हो जाऊं और इस बात में हफ्ता भी लग सकता है और महीना भी.

मेरे ब्रेन में क्लौट आ गया था. जो अब धीरेधीरे खुलता जा रहा था. भाभी भी कब तक वहां बैठती. शुरुशुरु में तो मेरे कलीग मेरा हालचाल पता करने आते रहे पर अब वे कम से कमतर होते गए. मैं समझ चुकी थी कि मेरी जिंदगी के हालात बहुत बुरे हो चुके हैं. इन हालात में मेरे कालेज ने भी मुझे रिटायर कर दिया. यह मेरे लिए और भी बड़ा धमाका था. दोतीन दिनों बाद जब मेरी हालत बेहतर हुई तो भैया मुझे घर ले आए.

मेरे आने से घर का माहौल तनावपूर्ण हो गया था. बस, मेरे ही बारे में बातें होती रहतीं. मैं ने कई बार भैया को कहते सुना कि मुझे किसी वृद्ध आश्रम या ओल्ड एज होम में भेज देना चाहिए परंतु मैं इस काबिल भी नहीं थी कि ठीक से चलफिर सकूं. फिर मैं भला किस अधिकार से यहां रह सकती थी. सारी उम्र भाभी से ठीक तरह से व्यवहार भी नहीं बनाया. मम्मी के साथ मिल कर झूठे इलजाम लगाती रही. इतनी पढ़ीलिखी होने के बावजूद मैं ने कभी अपने विवेक से काम ही नहीं लिया. मेरे दिल का बांध टूट गया और मैं सिसकसिसक कर रोने लगी.

भाभी चाहती तो मुझे अस्पताल से ही अलविदा कह सकती थी, वह चाहती तो मुझे इस घर में रहने ही न देती. मेरा अपराध भी अक्षम्य था. परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया. मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई और मुझे कहीं नहीं जाने दिया. इस के लिए शायद उन को भैया के क्रोध का सामना भी करना पड़ा होगा, बेटेबहू को मनाया होगा. मैं यह सब महसूस कर रही थी. मेरी हालत अब ऐसी भी नहीं थी कि घुटने टेक कर उन से माफी मांग सकूं.

मैं ने इस घर में अपना एक अलग ही साम्राज्य बनाने का प्रयास किया था. वह लड़ी भी नहीं और मैं हार गई. मेरा कियाधरा तो मेरे सामने आ ही गया था. ऊपरवाले, यदि कहीं है तो, की लाठी में आवाज नहीं होती पर उस की चोट कहीं भीतर तक आहत करती रहती है. काश, कोई मेरे बीते हुए दिन लौटा दे तो मैं फिर से अपने को सुधार लूं. काश…

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