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आखिर क्यों औनलाइन ट्रैप में फंसती हैं लड़कियां

साधारण सी दिखने वाली रोहिणी को सोशल मीडिया पर एक लड़का मिला जिस ने अपनी मीठीमीठी बातों से रोहिणी को असाधारण साबित कर के उसे अपने प्यार के झांसे में फंसा लिया. धीरेधीरे बात पिक्स एक्सचेंज, वीडियो कौल तक पहुंच गई. एकदूसरे को गिफ्ट्स भेजे जाने लगे. दोनों बाहर मिलने लगे. रोहिणी को यह सब बहुत अच्छा लग रहा था लेकिन लड़के के दिमाग में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी. उस का उद्देश्य रोहिणी से पैसे ऐंठना था और जब उस ने देखा कि रोहिणी उस के झांसे में आ चुकी है तो उस ने रोहिणी की चाहत का फायदा उठाया और उस की फोटोज वायरल करने की धमकी दे कर उस को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया.

यहां गलती किस की है? उस लड़के की कि वो फ्रौड है उस ने रोहिणी को ट्रैप में फंसाया या फिर रोहिणी की कि साधारण होते हुए भी खुद को किसी दूसरे की नजरों में असाधारण साबित करने की चाहत में वह बिना किसी जानपहचान के, किसी अनजान लड़के पर विश्वास कर के, घर वालों को बिना बताए इतना आगे बढ़ गई. और इस गलती ने रोहिणी को मुसीबत में डाल दिया और वह उस लड़के के जाल में फंस गई.

2 + 2 = 4 ही होगा, 5 होने की चाहत न रखें

लड़कियों को यह समझने की जरूरत है कि 2 + 2 = 4 ही होगा, 5 की चाहत रखने से निराशा, स्ट्रैस और धोखे के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा. आप जो हैं खुद को वैसे ही स्वीकार करें. दूसरों से तारीफ या वेलिडेशन या विलासिता की चाह में कुछ भी गलत कर के भले ही थोड़े समय के लिए कुछ अर्जित हो जाए और वह क्षणिक रूप में सुख भी दे दे लेकिन यह तय है कि अंत में वो दुख और परेशानी में ही तब्दील होगा.

औनलाइन प्यार के ट्रैप में फंसती लड़कियां

कुछ दिन पहले रांची के साइबर क्राइम ब्रांच में एक 25 साल की पढ़ीलिखी युवती मैरिज साइट के जरिए एक लड़के द्वारा 7 लाख रुपये ठगने की रिपोर्ट लिखाने आई. युवती ने बताया कि मैरिज साइट पर उसे एक लड़के का प्रोफाइल पसंद आया. फोन नंबर एक्सचेंज हुए और दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई. दोनों जल्द ही मिलने भी वाले थे लेकिन इसी बीच लड़के ने बताया कि वह दिल्ली एयरपोर्ट पर पकड़ा गया है और इस बाबत लड़की से 7 लाख रुपए ठग लिए और पैसे लेने के बाद उस ने अपना प्रोफाइल भी डिलीट कर दिया. अब लड़की के पास पछताने के अलावा कुछ नहीं बचा.

औनलाइन प्यार की थोड़े दिनों की चैटिंग और बातचीत में लड़कियां इतनी इमोशनल हो जाती हैं कि लड़कों द्वारा कहीं फंस जाने की बात कहे जाने पर तुरंत विश्वास कर लेती हैं और पैसे का भुगतान कर देती हैं जैसे ही पैसे का भुगतान होता है वह फेक प्रोफाइल दिखना बंद हो जाता है और उस के बाद यह समझ में आता है कि औनलाइन प्यार के चक्कर में वह अपना पैसा गवां बैठी है.

रहें सावधान

आजकल डेटिंग ऐप पर भी लड़कियों के साथ कई तरह के फ्रॉड हो रहे हैं. इसलिए किसी भी डेटिंग ऐप या सोशल मीडिया ऐप पर बहुत सावधान रहने की जरूरत है –

* किसी अनजान लड़के से किसी भी होटल, गेस्ट हाउस या अकेले में बिलकुल न मिलें.

* पब्लिक प्लेस पर भी अचानक टकरा गए किसी अनजान से दोस्ती न करें. उस की औफर की कोई ड्रिंक, चाय, कौफी न पिएं.

* डेटिंग ऐेप पर मिले किसी व्यक्ति का का प्रोफाइल अच्छे से चेक करें. उस के अन्य सोशल मीडिया एप्स चेक करें. उस की कंपनी, काम धंधे के बारे में सारी जानकारी लें. उस के बारे में उस से जुड़ी हर जानकारी जुटा लें.

* डेटिंग ऐप पर मिले व्यक्ति से पहली मुलाकात पब्लिक प्लेस पर ही करें.

* अकेली, सैक्शुअली डिप्राइव्ड, रिलेशनशिप की चाहत रखने वाली बहुत डेसपेरेट लड़कियों के ट्रैप में फंसने के चांस ज्यादा होते हैं. इसलिए अपनी इच्छाओं पर काबू रखें, दुख और अकेलेपन के कारण फ्रौड में न फंसें. अकेलेपन से उबरने का कोई क्रिएटिव तरीका ढूंढें.

काबिलियत के अनुसार जो मिला है उस में खुश रहें

कई बार पढ़ीलिखी, आत्मनिर्भर लड़कियां भी भावनात्मक निर्भरता और जल्दी आगे बढ़ने की चाहत में अपना सबकुछ गंवा बैठती हैं. लड़कियों को यह समझने की जरूरत है कि हर किसी को सब कुछ नहीं मिलता. आप सिर्फ ग्रेजुएट हैं तो उसी के अनुसार आप की नौकरी और सैलरी होगी, अगर आप अपनी काबिलियत से ज्यादा की चाहत रखेंगे तो कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि जो है उसे भी गंवा देंगे.

अपनी क्षमताओं और काबिलियत के अनुसार अपनी चाहतों की लिस्ट बनाएं. अपनी काबिलियत के अनुसार जो मिल रहा है उस में सेटिस्फाइड रहें. जब कोई भी अपनी काबिलियत से ज्यादा की चाहत रखता है तो उस के गलत राह में या धोखे में फंसने के चांसेज उतने ज्यादा बढ़ जाते हैं. काबिलियत के अनुसार जो मिला है उस में खुश रहें.

औनलाइन औफर्स का लुत्फ उठाएं पर झांसे में न आएं

दीवाली का त्योहार नजदीक आने के साथसाथ सभी ई-कौमर्स वेबसाइट्स भारी डिस्काउंट और कैशबैक के साथ स्पैशल औफर्स दे रही हैं और यूथ इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहता और दीवाली पर अपने मनपसंद कपड़े, इलैक्ट्रानिक गैजेट्स की शौपिंग करने में पीछे नहीं रहना चाहता लेकिन यूथ को शौपिंग करते समय अपने पैसे बचाने के लिए भी स्मार्ट शौपिंग करनी होगी.

औफर्स को समझें झांसे में न आएं

दीवाली पर औफर के झांसे में न आएं क्योंकि कई बार डिस्काउंट के चक्कर में बिना जरूरत के सामान की भी शौपिंग हो जाती है और बाद में बजट बिगड़ने पर पछतावा होता है.

शौपिंग करते समय अलर्ट रहें

• सोशल मीडिया पर दिखाए गए किसी भी विज्ञापन पर आंख बंद कर के भरोसा न करें. अगर सोशल मीडिया पर दिखाए गए विज्ञापन में कोई प्रोडक्ट आप को पसंद आ रहा है तो उसे अमेजन या फ्लिपकार्ट जैसी भरोसेमंद साइट पर चेक करें और वहां से शौपिंग करें.

• किसी भी प्रोडक्ट का सिर्फ रिव्यू पढ़ कर क्वालिटी का अंदाजा न लगाएं क्योंकि कुछ प्रोडक्ट पर फेक रिव्यू भी होते हैं यानी उन्हें पैसे दे कर रिव्यू करवाया जाता है.

• किसी भी प्रोडक्ट को खरीदने से पहले चेक कर लें कि वह रिटर्न होगा कि नहीं क्योंकि उन प्रोडक्ट के खराब या घटिया होने के चांस ज्यादा होते हैं जिन में रिटर्न का औप्शन नहीं होता.

शौपिंग की करें प्लानिंग

• त्योहारों के समय ऐसे योजना बनाएं कि आप का पैसा उन्हीं प्रोडक्टस पर खर्च हो जिन की आप को जरूरत हो जिस से आप की जेब हल्की न हो.

• सब से पहले जो खरीदना है, उस की लिस्ट बनाएं, जिस और जितने सामान की जरूरत हो, उतनी ही खरीदारी करें. शौपिंग लिस्ट बनाने से आप बेवजह की खरीदारी से बच जाएंगे और आप के पैसे व समय दोनों की बचत होगी.

• किसी प्रोडक्ट की अलगअलग ब्रैंड की कीमतों से तुलना करें. जैसे कई बार देखा है वेस्ट्साइड ब्रैंड के सेम कुर्ते सेट या सेम ब्रैंड के फोन की कीमत अमेजन, फ्लिप और मिंत्रा पर अलग होती है तो जहां प्रोडक्ट की कीमत कम हो वहां से शौपिंग करें. साथ में एक बार ब्रैंड की साईट पर भी चेक करें.

• त्योहारों पर अपनी हर शौपिंग का हिसाब जरूर रखें. इस से फिजूलखर्ची पर लगाम लगेगी और त्योहारों के समय भी पैसे बचाए जा सकेंगे.

• किसी भी होम एप्लाइंसेज और इलैक्ट्रानिक सामान खरीदने से पहले क्या वाकई आप को उस प्रोडक्ट की जरूरत है यह समझें और सिर्फ सेल या डिस्काउंट के चक्कर में अपने बजट को न बिगाड़ें.

दीवाली पर औनलाइन शौपिंग के समय निम्न सावधानियां बरतें –

• त्योहारों के समय साइबर ठग ज्यादा एक्टिव होते हैं और औनलाइन शौपिंग स्कैम का खतरा बढ़ जाता है. त्योहार के समय स्कैमर्स फेक औनलाइन वेबसाइट या ऐप बना कर फेमस ब्रैंड के कपड़े, जूते या इलैक्ट्रानिक आइटम्स बेहद कम कीमतों पर बेचते हैं. इस तरह की वेबसाइट या ऐप का इंटरफेस अन्य शौपिंग वेबसाइट के जैसा होता है. जब कोई इन से सामान खरीदता है तो उस में खराब क्वालिटी का प्रोडक्ट डिलीवर कर दिया जाता है. इस तरह की वेबसाइट शिकायत के बाद प्रोडक्ट को रिफंड भी नहीं करती हैं.

• कोई भी सामान खरीदने से पहले उस सामान की सही कीमत जरूर चेक करें कि क्या सेल के समय सामान पर जो छूट दिखाई जा रही है वह वाकई सही है क्योंकि कुछ सेलर सेल से ठीक पहले कीमतें बढ़ा देते हैं फिर उस पर ग्राहक को अधिक छूट का औफर दे कर लुभाने की कोशिश करते हैं.

• दीवाली के समय स्मार्ट शौपिंग का सब से अच्छा तरीका यह है कि आप अपनी जरूरत की चीजों की लिस्ट सेल शुरू होने से पहले ही बना लें और उन चीजों का प्राइज भी नोट कर लें. फिर सेल के दौरान अगर उन चीजों पर अच्छा डिस्काउंट मिल रहा है तो खरीद लें.

• दीवाली के समय स्मार्ट शौपिंग करने से पहले अपना एक बजट फिक्स कर लें और शौपिंग लिस्ट बना लें. इस से न सिर्फ जरूरत की चीजों की शौपिंग होगी और चाहे कितना भी सस्ता सामान मिल रहा होगा फिक्स बजट से ऊपर खर्च नहीं होगा.

• सेल के समय अपने खर्च पर कंट्रोल करने के लिए कैश औन डिलीवरी का औप्शन चुनें. दरअसल, जब आप अपनी जेब से पैसे निकलते हुए देखते हैं तो अपने खर्चों के बारे में अधिक जागरूक होते हैं. यह पैसे को ले कर एक साइकोलौजिकल फैक्ट है जबकि कार्ड से शौपिंग करने पर यह फीलिंग नहीं आती. इस कारण कई बार युवा शौपिंग पर जरूरत से ज्यादा पैसे खर्च कर देते हैं. कई बार सेल के समय क्रेडिट कार्ड से शौपिंग करने पर एक्स्ट्रा डिस्काउंट मिल जाता है तो क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करना बेहतर होता है.

• हमेशा औफीशियल वेबसाइट से ही शौपिंग करें और प्रोडक्ट की क्वालिटी और रेटिंग जरूर चेक करें. कई बार औनलाइन शौपिंग के दौरान फ्रौड भी हो जाता है क्योंकि आजकल बहुत सी फेक वेबसाइट्स भी हैं जो एक बार प्रोडक्ट डिलीवर करने के बाद न रिटर्न करती हैं और न ही एक्सचेंज.

• कई बार फेस्टिवल सेल के दौरान कुछ ब्रैंड्स प्रोडक्ट्स पर डिस्काउंट औफर भी देते हैं. जिस में अगर आप एक निश्चित राशि की खरीदारी करते हैं तो कुछ सामान मुफ्त मिलता है. इस तरह के औफर के समय आप औफर वाले प्रोमो कोड का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

• फेस्टिवल सेल के दौरान शौपिंग करते समय सिर्फ ब्रैंडेड प्रोडक्टस न देखें. कभीकभी कुछ नए या कम पोपुलर ब्रैंड के प्रोडक्टस भी बेटर होते हैं और पौकेट फ्रैंडली भी होते हैं. इस से कम बजट में अधिक प्रोडक्टस की शौपिंग की जा सकती है. साथ ही कई बार सेल के समय सब से ऊपर दिखाए जा रहे प्रोडक्ट्स बहुत महंगे होते हैं और सस्ते और कुछ अच्छे औप्शन नीचे होते हैं.

वारिसों वाली अम्मां : पुजारिन अम्मां की मौत से मच गई खलबली

कल रात पुजारिन अम्मां ठंड से मर गईं तो महल्ले में शोक की लहर दौड़ गई. हर एक ने पुजारिन अम्मां के ममत्व और उन की धर्मभावना की जी खोल कर चर्चा की पर दबी जबान से चिंता भी जाहिर की कि पुजारिन का अंतिम संस्कार कैसे होगा? पिछले 20-25 सालों से वह मंदिर में सेवा करती आ रही थीं, जहां तक लोगों को याद है इस दौरान उन का कोई रिश्तेनाते का परिचित नहीं आया. उन की जैसी लंबी आयु का कोई बुजुर्ग अब महल्ले में भी नहीं बचा है जो बता सके कि उन का कोई वारिस है भी या नहीं. महल्ले वालों को यह सोच कर ही कंपकंपी छूट रही है कि केवल दाहसंस्कार कराने से ही तो सबकुछ नहीं हो जाएगा, तमाम तरह के कर्मकांड भी तो करने होंगे. आखिर मंदिर की पवित्रता का सवाल है. बिना कर्मकांड के न तो पत्थर की मूर्तियां शुद्ध होंगी और न ही सूतक से बाहर निकल सकेंगी. पर यह सब करे कौन और कैसे?

मजाकिया स्वभाव के राकेशजी हंस कर अपनी पत्नी से बोले, ‘‘क्यों रमा, यह 4 बजे भोर में पुजारिन अम्मां को लेने यमदूत आए कैसे होंगे? ठंड से तो उन की भी हड्डी कांप रही होगी न?’’

इस समाचार को ले कर आई महरी घर का काम करने के पक्ष में बिलकुल नहीं थी. वह तो बस, मेमसाहब को गरमागरम खबर देने भर आई है. चूंकि वह पूरी आल इंडिया रेडियो है इसलिए रमा ने पति की तरफ चुपके से आंखें तरेरीं कि कहीं उन की मजाक में कही बात मिर्च- मसाले के साथ पूरे महल्ले में न फैल जाए.

घड़ी की सूई जब 12 पर पहुंचने को हुई तब जा कर महल्ले वालों को चिंता हुई कि ज्यादा देर करने से रात में घाट पर जाने में परेशानी होगी. पुजारिन अम्मां की देह यों ही पड़ी है लेकिन कोई उन के आसपास भी नहीं फटक रहा है. वहां जाने से तो अशौच हो जाएगा, फिर नहाना- धोना. जितनी देर टल सकता है टले.

धीरेधीरे पूरे महल्ले के पुरुष चौधरीजी के यहां जमा हो गए. चौधरीजी कालीन के निर्यातक हैं. महल्ले में ही नहीं शहर में भी उन का रुतबा है. चमचों की लंबीचौड़ी फौज है जो हथियारों के साथ उन्हें चारों ओर से घेरे रहती है. शायद यह उन के खौफ का असर है कि अंदर से सब उन से डरते हैं लेकिन ऊपर से आदर का भाव दिखाते हैं और एकदूसरे से चौधरीजी के साथ अपनी निकटता का बखान करते हैं.

हां, तो पूरा महल्ला चौधरीजी के विशाल ड्राइंगरूम में जमा हो गया. सब के चेहरे तो उन के सीने तक ही लटके रहे पर चौधरीजी का तो और भी ज्यादा, शायद उन के पेट तक. फिर वह दुख के भाव के साथ उठे और मुंह लटकाएलटकाए ही बोलना शुरू किया, ‘‘भाइयो, पुजारिन अम्मां अचानक हमें अकेला छोड़ कर इस लोक से चली गईं. उन का हम सब के साथ पुत्रवत स्नेह था.’’

वह कुछ क्षण को मौन हुए. सीने पर बायां हाथ रखा. एक आह सी निकली. फिर उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘मेरी तो दिली इच्छा थी कि पुजारिन अम्मां के क्रियाकर्म का समस्त कार्य हम खुद करें और पूरी तरह विधिविधान से करें किंतु…’’

चौधरीजी ने फिर अपना सीना दबाया और एक आह मुंह से निकाली. उधर उन के इस ‘किंतु’ ने कितनों के हृदय को वेदना से भर दिया क्योंकि महल्ले के लोगों ने चौधरी के इस अलौकिक अभिनय का दर्शन कितने ही आयोजनों में चंदा लेते समय किया है.

चौधरीजी ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘किंतु मेरा व्यापार इन दिनों मंदा चल रहा है. इधर घर ठीकठाक कराने में हाथ लगा रखा है, उधर एक छोटा सा शौपिंग मौल भी बनवा रहा हूं. इन वजहों से मेरा हाथ बहुत तंग चल रहा है. और फिर पुजारिन अम्मां का अकेले मैं ही तो बेटा नहीं हूं, आप सब भी उन के बेटे हैं. उन की अंतिम सेवा के अवसर को आप भी नहीं छोड़ना चाहेंगे. मेरे विचार से तो हम सब को मिलजुल कर इस कार्य को संपादित करना चाहिए जिस से किसी एक पर बोझ भी न पड़े और समस्त कार्य अनुष्ठानपूर्वक हो जाए. तो आप सब की क्या राय है? वैसे यदि इस में किसी को कोई परेशानी है तो साफ बोल दे. जैसे भी होगा महल्ले की इज्जत रखने के लिए मैं इस कार्य को करूंगा.’’

चौधरी साहब के इस पूरे भाषण में कहां विनीत भाव था, कहां कठोर आदेश था, कहां धमकी थी इस सब का पूरापूरा आभास महल्ले के लोगों को था. इसलिए प्रतिवाद का कोई प्रश्न ही न था.

अपने पुत्रों की इस विशाल फौज से पुजारिन अम्मां जीतेजी तो नहीं ही वाकिफ थीं. कितने समय उन्होंने फाके किए यह तो वही जानती थीं. हां, आधेअधूरे कपड़ों में लिपटी उन की मृत देह एक फटी गुदड़ी पर पड़ी थी. लगभग डेढ़ सौ घरों वाला वह महल्ला न उन के लिए कपड़े जुटा पाया न अन्न. किंतु आज उन के लिए सुंदर महंगे कफन और लकड़ी का प्रबंध तो वह कर ही रहा है.

कभी रेडियो, टीवी का मुंह न देखने वाली पुजारिन अम्मां के अंतिम संस्कार की पूरी वीडियोग्राफी हो रही है. शाम को टीवी प्रसारण में यह सब चौधरीजी की अनुकंपा से प्रसारित भी हो जाएगा.

इस प्रकार पुजारिन अम्मां की देह की राख को गंगा की धारा में प्रवाहित कर गंगाजल से हाथमुंह धो सब ने अपनेअपने घरों को प्रस्थान किया. घर आ कर गीजर के गरमागरम पानी से स्नान कर और चाय पी कर चौधरी के पास हाजिरी लगाने में किसी महल्ले वाले ने देर नहीं की.

चौधरी खुद तो घाट तक जा नहीं सके थे क्योंकि उन का दिल पुजारिन अम्मां के मरने के दुख को सहन नहीं कर पा रहा था किंतु वह सब के लौटने की प्रतीक्षा जरूर कर रहे थे. उन की रसोई में देशी घी में चूड़ा मटर बन रहा था तो गाजर के हलवे में मावे की मात्रा भरपूर थी. आने वाले हर व्यक्ति की वह अगवानी करते, नौकर गुनगुने पानी से उन के चरण धुलवाता और कालीमिर्च चबाने को देता, पांवपोश पर सब अपने पांव पोंछते और अंदर आ कर सोफे पर बैठ शनील की रजाई ओढ़ लेते. नौकर तुरंत ही चूड़ामटर पेश कर देता, फिर हलवा, चाय, पान वगैरह चौधरीजी की इसी आवभगत के तो सब दीवाने हैं. बातों के सिलसिले में रात गहराई तो देसीविदेशी शराब और काजूबादाम के बीच पुजारिन अम्मां कहीं खो सी गईं.

अगली सुबह महल्ले वालों को एक नई चिंता का सामना करना पड़ा. मंदिर और मूर्तियों की साफसफाई का काम कौन करे. महल्ले के पुरुषों को तो फुरसत न थी. महिलाओं के कामों और उन की व्यस्तताओं का भी कोई ओरछोर न था. किसी को स्वेटर बुनना था तो किसी को अचार डालना था. कोई कुम्हरौड़ी बनाने की तैयारी कर रही थी, तो कोई आलू के पापड़ बना रही थी. उस पर भी यह कि सब के घर में ठाकुरजी हैं ही, जिन की वे रोज ही पूजा करती हैं. फिर मंदिर की देखभाल करने का समय किस के पास है?

महल्ले की सभी समस्याओं का समाधान तो चौधरी को ही खोजना था. हर रोज एक परिवार के जिम्मे मंदिर रहेगा. वह उस की देखभाल करेगा और रात में चौधरीजी को दिनभर की रिपोर्ट के साथ उस दिन का चढ़ावा भी सौंपेगा. हर बार की तरह अब भी महल्ले वालों के पास प्रतिवाद के स्वर नहीं थे.

अभी पुजारिन अम्मां को मरे एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि एक दिन 50, 55 और 60 वर्ष की आयु के 3 लोग रामनामी दुपट्टा ओढ़े मंदिर में सपरिवार विलाप करते महल्ले वालों को दिखाई दिए. ये कौन लोग हैं और कहां से आए हैं यह किसी को पता नहीं था पर उन के फूटफूट कर रोने से सारा महल्ला थर्रा उठा.

महल्ले के लोग अपनेअपने घरों से निकल कर मंदिर में आए और यह जानने की कोशिश की कि वे कौन हैं और क्यों इस तरह धाड़ें मारमार कर रो रहे हैं. ये तीनों परिवार केवल हाहाकार करते जाते पर न तो कुछ बोलते न ही बताते.

हथियारधारी लोगों से घिरे चौधरी को मंदिर में आया देख कर महल्ले वाले उन के साथ हो लिए. तीनों परिवार के लोगों ने चौधरीजी को देखा, उन के साथ आए हथियारबंद लोगों को देखा और समझ गए कि यही वह मुख्य व्यक्ति है जो यहां फैले इस सारे नाटक को दिशानिर्देश दे सकेगा. इस बात को समझ कर उन के विलाप करते मुंह से एक बार ही तो निकला, ‘‘अम्मां’’ और उन के हृदय से सटी अम्मां और उन के परिवार की किसी मेले में खींची हुई फोटो जैसे उन के हाथों से छूट गई.

चौधरीजी के साथ सभी ने अधेड़ अम्मां को अपने तीनों जवान बेटों के साथ खड़े पहचाना जो अब अधेड़ हो चुके हैं. घूंघट की ओट से झांकती ये अधेड़ औरतें जरूर इन की बीवियां होंगी और पोते- पोतियों के रूप में कुछ बच्चे.

चौधरी साहब के साथ महल्ले के लोग अपनेअपने ढंग से इन के बारे में सोच रहे थे कि इतने सालों बाद इन बेटों को अपनी मां की याद आई है, वह भी तब जब वह मर गई. किस आशा, किस आकांक्षा से आए हैं ये यहां? क्या पुजारिन अम्मां के पास कोई जमीनजायदाद थी? 3 बेटों की यह माता इतना भरापूरा परिवार होते हुए भी अकेली दम तोड़ गई, आज उस का परिवार यहां क्यों जमा हुआ है? इतने सालों तक ये लोग कहां थे? किसी को भी तो नहीं याद आता कि ये तीनों कभी यहां आए हों या पुजारिन अम्मां कुछ दिनों के लिए कहीं गई हों?

‘‘ठीक है, ठीक है, हाथमुंह धो लो, आराम कर लो फिर हवेली आ जाना. बताना कि क्या समस्या है?’’ चौधरीजी ने घुड़का तो सारा विलाप बंद हो गया. धीरेधीरे भीड़ अपनेअपने रास्ते खिसक ली.

अगर कोई देखता तो जान पाता कि कैसे वे तीनों परिवार लोगों के जाने के बाद आपस में तूतू-मैंमैं करते हुए लड़ पड़े थे. बड़ा बोला, ‘‘मैं बड़ा हूं. अम्मां की संपत्ति पर मेरा हक है. उस का वारिस तो मैं ही हूं. तुम दोनों क्यों आए यहां? क्या मंदिर बांटोगे? पुजारी तो एक ही होगा मंदिर का?’’

मझले के पास अपने तर्क थे, ‘‘अम्मां मुझे ही अपना वारिस मानती थीं. देखोदेखो, उन्होंने मुझे यह चिट्ठी भेजी थी. लो, देख लो दद्दा. अम्मां ने लिखा है कि तू ही मेरा राजा बेटा है. बड़े ने तो साथ ले जाने से मना कर दिया. तू ही मुझे अपने साथ ले जा. अकेली जान पड़ी रहूंगी. जैसे अपने टामी को दो रोटियां डालना वैसे मुझे भी दे देना.’’

अब की बार छोटा भी मैदान में कूद पड़ा, ‘‘तो कौन सा तुम ले गए मझले दद्दा. अम्मां ने मुझे भी चिट्ठी भेजी थी. लो, देखो. लिखा है, ‘मेरा सोना बेटा, तू तो मेरा पेट पोंछना है. तू ही तो मुझे मरने पर मुखाग्नि देगा. बेटा, अकेली भूत सी डोलती हूं. पोतेपोतियों के बीच रहने को कितना दिल तड़पता है. मंदिर में कोई बच्चा, कोई बहू जब अपनी दादी या सास के साथ आते हैं तो मेरा दिल रो पड़ता है. इतने भरेपूरे परिवार की मां हो कर भी मैं कितनी अकेली हूं. मेरा सोना बेटा, ले जा मुझे अपने साथ.’ ’’

सच है, सब के पास प्रमाण है अपनेअपने बुलावे का किंतु कोई भी सोना या राजा बेटा पुजारिन अम्मां को अपने साथ नहीं ले गया. इस के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं क्योंकि कोई ले कर गया होता तो आज पुजारिन अम्मां यों अकेली पड़ेपड़े न मर गई होतीं और उन का दाहसंस्कार चंदा कर के न किया गया होता.

पुजारिन अम्मां के 3 पुत्र, जिन्होंने एक क्षण भी बेटे के कर्तव्य का पालन नहीं किया, जिन्हें अपनी मां का अकेलापन नहीं खला, वे आज उस के वारिस बने खड़े हैं. क्या उन का मन जरा भी अपनी मां के भेजे पत्र से विचलित नहीं हुआ. क्या कभी उन्हें एहसास हुआ कि जिस मां ने उन्हें 9 माह तक अपनी कोख में रखा, जिस ने उन्हें सीने से लगा कर रातें आंखों में ही काट दीं, उस मां को वे तीनों मिल कर 9 दिन भी अपने साथ नहीं रख सके.

आज भी उन्हें उस के दाहसंस्कार, उस के श्राद्ध आदि की चिंता नहीं, चिंता है तो मात्र मंदिर के वारिसाना हक की. वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मंदिर का पुजारी दीनहीन हो तो कोई चढ़ावा नहीं चढ़ता किंतु पुजारी तनिक भी टीमटाम वाला हो, उस को पूजा करने का दिखावा करना आता हो, भक्तों की जेबों के वजन को टटोलना आता हो तो इस से बढि़या कोई और धंधा हो ही नहीं सकता.

आने वाले समय की कल्पना कर तीनों भाई मन में पूरी योजना बनाए पड़े थे. बस, उन्हें चौधरी का खौफ खाए जा रहा था वरना अब तक तो तीनों भाइयों ने फैसला कर ही लिया होता, चाहे बात से चाहे लात से. 3 अलगअलग ध्रुवों से आए एक ही मां के जने 3 भाइयों को एकदूसरे की ओर दृष्टि फिराना भी गवारा नहीं. एकदूसरे का हालचाल, कुशलक्षेम जानने की तनिक भी जिज्ञासा नहीं, बस, केवल मंदिर पर अधिकार की हवस ही दिल- दिमाग को अभिभूत किए है.

उधर चौधरीजी की चिंता और परेशानी का कोई ओरछोर नहीं है. कितने योजनाबद्ध तरीके से वे मंदिर को अपनी संपत्ति बनाने वाले थे. उन के जैसा विद्वान पुरुष यह अच्छी तरह से जानता है कि मंदिर की सेवाटहल करना महल्ले के लोगों के बस की बात नहीं. उन्हें ही कुछ प्रबंध करना है. प्रबंध भी ऐसा हो जिस से उन का भी कुछ लाभ हो. मंदिर के लिए अभी उन्होंने जो व्यवस्था की है वह तो अस्थायी है.

अभी वह कोई उचित व्यवस्था सोच भी नहीं पाए थे कि ये तीनों जाने कहां से टपक पड़े. पर उन के आने के पीछे छिपी उन की चतुराई को याद कर और उन को देख उन के नाटक में आए बदलाव को याद कर चौधरीजी मुसकरा दिए. तीनों में से किसी एक का चुनाव करना कठिन है. तीनों ही सर्वश्रेष्ठ हैं, तीनों ही योग्य और उपयुक्त हैं. एक निश्चय सा कर चौधरीजी निश्चिन्त हो चले थे.

अगले दिन सुबह ही मंदिर के घंटे की ध्वनि से महल्ले वालों की नींद टूट गई. मंदिर को देखने और पुजारिन अम्मां के वारिसों के बारे में जानने के लिए लोग मंदिर पहुंचे तो देखा तीनों भाई मंदिर के तीनों कमरों में किनारीदार पीली धोती पहने, लंबी चुटिया बांधे और सलीके से चंदन लगाए मूर्तियों के सामने मंत्र बुदबुदा रहे हैं. वे बारीबारी से उठते हैं और वहां खड़े लोगों को तांबे के लोटे में रखे जल का प्रसाद देते हैं. सामने ही तालाजडि़त दानपात्र रखा है जिस पर गुप्तदान, स्वेच्छादान आदि लिखा हुआ है. पुजारी की ओर दक्षिणा बढ़ाने पर वे दानपात्र की ओर इशारा कर देते हैं.

मंदिर के इस बदलाव पर अब महल्ले के लोग भौचक हैं. श्रद्धालुओं की जेबें ढीली हो रही हैं. पुजारीत्रय तथा चौधरीजी के खजाने भर रहे हैं. पुजारिन अम्मां को सब भूल चुके हैं.

अंतिम निर्णय : उम्र के अंतिम पड़ाव पर कोई जीना तो नहीं छोड़ता

सुहासिनी के अमेरिका से भारत आगमन की सूचना मिलते ही अपार्टमैंट की कई महिलाएं 11 बजते ही उस के घर पहुंच गईं. कुछ भुक्तभोगियों ने बिना कारण जाने ही एक स्वर में कहा, ‘‘हम ने तो पहले ही कहा था कि वहां अधिक दिन मन नहीं लगेगा, बच्चे तो अपने काम में व्यस्त रहते हैं, हम सारा दिन अकेले वहां क्या करें? अनजान देश, अनजान लोग, अनजान भाषा और फिर ऐसी हमारी क्या मजबूरी है कि हम मन मार कर वहां रहें ही. आप के आने से न्यू ईयर के सैलिब्रेशन में और भी मजा आएगा. हम तो आप को बहुत मिस कर रहे थे, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

उन की अपनत्वभरी बातों ने क्षणभर में ही उस की विदेशयात्रा की कड़वाहट को धोपोंछ दिया और उस का मन सुकून से भर गया. जातेजाते सब ने उस को जेट लैग के कारण आराम करने की सलाह दी और उस के हफ्तेभर के खाने का मैन्यू उस को बतला दिया. साथ ही, आपस में सब ने फैसला कर लिया कि किस दिन, कौन, क्या बना कर लाएगा.

सुहासिनी के विवाह को 5 साल ही तो हुए थे जब उस के पति उस की गोद में 5 साल के सुशांत को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए थे. परिजनों ने उस पर दूसरा विवाह करने के लिए जोर डाला था, लेकिन वह अपने पति के रूप में किसी और को देखने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. पढ़ीलिखी होने के कारण किसी पर बोझ न बन कर उस ने अपने बेटे को उच्चशिक्षा दिलाई थी. हर मां की तरह वह भी एक अच्छी बहू लाने के सपने देखने लगी थी.

सुशांत की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. उस को कंपनी की ओर से किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में 3 महीने के लिए अमेरिका जाना पड़ा. सुहासिनी अपने बेटे के भविष्य की योजनाओं में बाधक नहीं बनना चाहती थी, लेकिन अकेले रहने की कल्पना से ही उस का मन घबराने लगा था.

अमेरिका में 3 महीने बीतने के बाद, कंपनी ने 3 महीने का समय और बढ़ा दिया था. उस के बाद, सुशांत की योग्यता देखते हुए कंपनी ने उसे वहीं की अपनी शाखा में कार्य करने का प्रस्ताव रखा तो उस ने अपनी मां से भी विचारविमर्श करना जरूरी नहीं समझा और स्वीकृति दे दी, क्योंकि वह वहां की जीवनशैली से बहुत प्रभावित हो गया था.

सुहासिनी इस स्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. उस ने बेटे को समझाते हुए कहा था, ‘बेटा, अपने देश में नौकरियों की क्या कमी है जो तू अमेरिका में बसना चाहता है? फिर तेरा ब्याह कर के मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती हूं. साथ ही, तेरे बच्चे को देखना चाहती हूं, जिस से मेरा अकेलापन समाप्त हो जाए और यह सब तभी होगा, जब तू भारत में होगा. मैं कब से यह सपना देख रही हूं और अब यह पूरा होने का समय आ गया है, तू इनकार मत करना.’ यह बोलतेबोलते उस की आवाज भर्रा गई थी. वह जानती थी कि उस का बेटा बहुत जिद्दी है. वह जो ठीक समझता है, वही करता है.

जवाब में वह बोला, ‘ममा, आप परेशान मत होे, मैं आप को भी जल्दी ही अमेरिका बुला लूंगा और आप का सपना तो यहां रह कर भी पूरा हो जाएगा. लड़की भी मैं यहां रहते हुए खुद ही ढूंढ़ लूंगा.’ बेटे का दोटूक उत्तर सुन कर सुहासिनी सकते में आ गई. उस को लगा कि वह पूरी दुनिया में अकेली रह गई थी.

सालभर के अंदर ही सुशांत ने सुहासिनी को बुलाने के लिए दस्तावेज भेज दिए. उस ने एजेंट के जरिए वीजा के लिए आवेदन कर दिया. बड़े बेमन से वह अमेरिका के लिए रवाना हुई. अनजान देश में जाते हुए वह अपने को बहुत असुरक्षित अनुभव कर रही थी. मन में दुविधा थी कि पता नहीं, उस का वहां मन लगेगा भी कि नहीं. हवाई अड्डे पर सुशांत उसे लेने आया था. इतने समय बाद उस को देख कर उस की आंखें छलछला आईं.

घर पहुंच कर सुशांत ने घर का दरवाजा खटखटाया. इस से पहले कि वह अपने बेटे से कुछ पूछे, एक अंगरेज महिला ने दरवाजा खोला. वह सवालिया नजरों से सुशांत की ओर देखने लगी. उस ने उसे इशारे से अंदर चलने को कहा. अंदर पहुंच कर बेटे ने कहा, ‘ममा, आप फ्रैश हो कर आराम करिए, बहुत थक गई होंगी. मैं आप के खाने का इंतजाम करवाता हूं.’

सुहासिनी को चैन कहां, मन ही मन मना रही थी कि उस का संदेह गलत निकले, लेकिन इस के विपरीत सही निकला. बेटे के बताते ही वह अवाक उस की ओर देखती ही रह गई. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. उस के बहू के लिए देखे गए सपने चूरचूर हो कर बिखर गए थे.

सुहासिनी ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा, ‘मुझे पहले ही बता देता, तो मैं बहू के लिए कुछ ले कर आती.’

मां की भीगी आखें सुशांत से छिपी नहीं रह पाईं. उस ने कहा, ‘ममा, मैं जानता था कि आप कभी मन से मुझे स्वीकृति नहीं देंगी. यदि मैं आप को पहले बता देता तो शायद आप आती ही नहीं. सोचिए, रोजी से विवाह करने से मुझे आसानी से यहां की नागरिकता मिल गई है. आप भी अब हमेशा मेरे साथ रह सकती हैं.’ उस को अपने बेटे की सोच पर तरस आने लगा. वह कुछ नहीं बोली. मन ही मन बुदबुदाई, ‘कम से कम, यह तो पूछ लेता कि विदेश में, तेरे साथ, मैं रहने के लिए तैयार भी हूं या नहीं?’

बहुत जल्दी सुहासिनी का मन वहां की जीवनशैली से ऊबने लगा था. बहूबेटा सुबह अपनीअपनी जौब के लिए निकल जाते थे. उस के बाद जैसे घर उस को काटने को दौड़ता था. उन के पीछे से वह घर के सारे काम कर लेती थी. उन के लिए खाना भी बना लेती थी, लेकिन उस को महसूस हुआ कि उस के बेटे को पहले की तरह उस के हाथ के खाने के स्थान पर अमेरिकी खाना अधिक पसंद आने लगा था. धीरेधीरे उस को लगने लगा था कि उस का अस्तित्व एक नौकरानी से अधिक नहीं रह गया है. वहां के वातावरण में अपनत्व की कमी होने के चलते बनावटीपन से उस का मन बुरी तरह घबरा गया था.

सुहासिनी को भारत की अपनी कालोनी की याद सताने लगी कि किस तरह अपने हंसमुख स्वभाव के कारण वहां पर हर आयुवर्ग की वह चहेती बन गई थी. हर दिन शाम को, सभी उम्र के लोग कालोनी में ही बने पार्क में इकट्ठे हो जाया करते थे. बाकी समय भी व्हाट्सऐप द्वारा संपर्क में बने रहते थे और जरा सी भी तबीयत खराब होने पर एकदूसरे की मदद के लिए तैयार रहते थे.

उस ने एक दिन हिम्मत कर के अपने बेटे से कह ही दिया, ‘बेटा, मैं वापस इंडिया जाना चाहती हूं.’

यह प्रस्ताव सुन कर सुशांत थोड़ा आश्चर्य और नाराजगी मिश्रित आवाज में बोला, ‘लेकिन वहां आप की देखभाल कौन करेगा? मेरे यहां रहते हुए आप किस के लिए वहां जाना चाहती हैं?’ वह जानता था कि उस की मां वहां बिलकुल अकेली हैं.

सुहासिनी ने उस की बात अनसुनी  करते हुए कहा, ‘नहीं, मुझे जाना है, तुम्हारे कोई बच्चा होगा तो आ जाऊंगी.’ आखिर वह भारत के लिए रवाना हो गई.

सुहासिनी को अब अपने देश में नए सिरे से अपने जीवन को जीना था. वह यह सोच ही रही थी कि अचानक उस की ढलती उम्र के इस पड़ाव में भी सुनीलजी, जो उसी अपार्टमैंट में रहते थे, के विवाह के प्रस्ताव ने मौनसून की पहली झमाझम बरसात की तरह उस के तन के साथ मन को भी भिगोभिगो कर रोमांचित कर दिया था. उस के जीवन में क्या चल रहा है, यह बात सुनीलजी से छिपी नहीं थी.

सुहासिनी के हावभाव ने बिना कुछ कहे ही स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया था. लेकिन उस के मन में आया कि यह एहसास क्षणिक ही तो था. सचाई के धरातल पर आते ही सुहासिनी एक बार यह सोच कर कांप गई कि जब उस के बेटे को पता चलेगा तो क्या होगा? वह उस की आंखों में गिर जाएगी? वैधव्य की आग में जलते हुए, दूसरा विवाह न कर के उस ने अपने बेटे को मांबाप दोनों का प्यार दे कर उस की परवरिश कर के, समाज में जो इज्जत पाई थी, वह तारतार हो जाएगी?

‘नहीं, नहीं, ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती. ठीक है, अपनी सकारात्मक सोच के कारण वे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और उन के प्रस्ताव ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि यही हाल उन का भी है. वे भी अकेले हैं. उन की एक ही बेटी है, वह भी अमेरिका में रहती है. लेकिन समाज भी कोई चीज है,’ वह मन ही मन बुदबुदाई और निर्णय ले डाला.

जब सुनीलजी मिले तो उस ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘मैं आप की भावनाओं का आदर करती हूं, लेकिन समाज के सामने स्वीकार करने में परिस्थितियां बाधक हो जाती हैं और समाज का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं है, मुझे माफ कर दीजिएगा.’’ उस के इस कथन पर उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, जैसे कि वे पहले से ही इस उत्तर के लिए तैयार थे. वे जानते थे कि उम्र के इस पड़ाव में इस तरह का निर्णय लेना सरल नहीं है. वे मौन ही रहे.

अचानक एक दिन सुहासिनी को पता चला कि सुनीलजी की बेटी सलोनी, अमेरिका से आने वाली है. आने के बाद, एक दिन वह अपने पापा के साथ उस से मिलने आई, फिर सुहासिनी ने उस को अपने घर पर आमंत्रित किया. हर दिन कुछ न कुछ बना कर सुहासिनी, सलोनी के लिए उस के घर भेजती ही रहती थी. उस के प्रेमभरे इस व्यवहार से सलोनी भावविभोर हो गई और एक दिन कुछ ऐसा घटित हुआ, जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

अचानक एक दिन सलोनी उस के घर आई और बोली, ‘‘एक बात बोलूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगी? आप मेरी मां बनेंगी? मुझे अपनी मां की याद नहीं है कि वे कैसी थीं, लेकिन आप को देख कर लगता है ऐसी ही होंगी. मेरे कारण मेरे पापा ने दूसरा विवाह नहीं किया कि पता नहीं नई मां मुझे मां का प्यार दे भी पाएगी या नहीं. लेकिन अब मुझ से उन का अकेलापन देखा नहीं जाता. मैं अमेरिका नहीं जाना चाहती थी. लेकिन विवाह के बाद लड़कियां मजबूर हो जाती हैं. उन को अपने पति के साथ जाना ही पड़ता है. मेरे पापा बहुत अच्छे हैं. प्लीज आंटी, आप मना मत करिएगा.’’ इतना कह कर वह रोने लगी. सुहासिनी शब्दहीन हो गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. उस ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘ठीक है बेटा, मैं विचार करूंगी.’’ थोड़ी देर बाद वह चली गई.

कई दिनों तक सुहासिनी के मनमस्तिष्क में विचारों का मंथन चलता रहा. एक दिन सुनीलजी अपनी बेटी के साथ सुहासिनी के घर आ गए. वह असमंजस की स्थिति से उबर ही नहीं पा रही थी. सबकुछ समझते हुए सुनीलजी ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप यह मत सोचना कि सलोनी ने मेरी इच्छा को आप तक पहुंचाया है. जब से वह आई है, हम दोनों की भावनाएं इस से छिपी नहीं रहीं. उस ने मुझ से पूछा, तो मैं झूठ नहीं बोल पाया. अभी तो उस ने महसूस किया है, धीरेधीरे सारी कालोनी जान जाएगी. इसलिए उस स्थिति से बचने के लिए मैं अपने रिश्ते पर विवाह की मुहर लगा कर लोगों के संदेह पर पूर्णविराम लगाना चाहता हूं.

‘‘शुरू में थोड़ी कठिनाई आएगी, लेकिन धीरेधीरे सब भूल जाएंगे. आप मेरे बाकी जीवन की साथी बन जाएंगी तो मेरे जीवन के इस पड़ाव में खालीपन के कारण तथा शरीर के शिथिल होने के कारण जो शून्यता आ गई है, वह खत्म हो जाएगी. इस उम्र की इस से अधिक जरूरत ही क्या है?’’ सुनील ने बड़े सुलझे ढंग से उसे समझाया.

सुहासिनी के पास अब तर्क करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था. उस ने आंसूभरी आंखों से हामी भर दी. सलोनी के सिर से मानो मनों बोझ हट गया और वह भावातिरेक में सुनील के गले से लिपट गई.

अब सुहासिनी को अपने बेटे की प्रतिक्रिया की भी चिंता नहीं थी.

गरीबी रेखा: रेखा सिर्फ हीरोइन ही नहीं, सरकारी कलाकारी भी

उन का आना कभी नागवार नहीं गुजरा. चाहे घर में कोई मेहमान आया हो या मैं कोई जरूरी काम निबटा रहा होऊं. यहां तक कि हम पतिपत्नी के बीच किसी बात को ले कर हुए विवाद की वजह से घर का माहौल अगर तनावभरा हो गया हो, तो भी.

वे जब भी आते, गोया अपने साथ हर मर्ज की दवा ले कर आते. हालांकि उन के पास दवा की कोई पुडि़या नहीं होती, फिर भी, शायद यह उन के व्यक्तित्व का कमाल था कि उन के आते ही घर में शीतल वायु सी ठंडक घुल जाती. जरूरी काम को बाद के लिए टाल दिया जाता और मेहमान तो जैसे उन्हीं से मिलने आए होते हों. पलभर में वे उन से इतना खुल जाते जैसे वर्षों से उन्हें जानते हों.

लवी तो उन्हें देखते ही उन की गोद में बैठ जाता, उन की मोटीघनी मूंछों के साथ खेलने लगता. और बेगम बड़ी अदा से मुसकरा कर कहती, ‘‘चाचाजी, आज स्पैशल पकौड़े बनाने का मूड था, अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘तुम्हारे मूड को मैं जानता हूं बेटी, जो मुझे देख कर ही पकौड़े बनाने का बन जाता है. लेकिन सौरी,’’ वे हाथ उठा कर कहते, ‘‘आज पकौड़े खाने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

लेकिन बेगम उन की एक नहीं सुनती और उन्हें पकौड़े खिला कर ही मानती.

वे आते, तो कभी इतनी धीरगंभीर चर्चा करते जैसे सारे जहां कि चिंताएं उन्हीं के हिस्से में आ गई हैं, तो कभी बच्चों की तरह कोई विषय ले कर बैठ जाते. आज आए तो कहने लगे, ‘‘बेटा, यह तो बताओ, यह गरीबीरेखा क्या होती है?’’

मुझे ताज्जुब नहीं हुआ कि वे मुझ से गरीबीरेखा के बारे में सवाल कर रहे हैं. मैं उन के स्वभाव से वाकिफ हूं. वे कब, क्या पूछ बैठेंगे, कुछ तय नहीं रहता. अकसर ऐसे सवाल कर बैठते, जिन से आमतौर पर आदमी का अकसर वास्ता पड़ता है, लेकिन आम आदमी का उस पर ध्यान नहीं जाता. और ऐसा भी नहीं कि जो सवाल वे कर रहे होते हैं, उस का जवाब वे न जानते हों. वे कोई सवाल उस का जवाब जानने के लिए नहीं, बल्कि उस की बखिया उधेड़ने के लिए करते हैं, यह मैं खूब जानता हूं.

मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा से आदमी के जीवनस्तर का पता चलता है.’’

‘‘मतलब, गरीबीरेखा से यह पता चलता है कि कौन गरीब है और कौन अमीर है.’’

मैं बोला, ‘‘हां, जो इस रेखा के इस पार है, वह अमीर है और जो उस पार है, वह गरीब है.’’

‘‘मतलब, गरीब को उस की गरीबी का और अमीर को उस की अमीरी का एहसास दिलाने वाली रेखा.’’

‘‘हां,’’ मैं थोड़ा हिचकिचा कर बोला, ‘‘आप इसे इस तरह भी समझ सकते हैं.’’

‘‘यानी, एक तरह से यह कहने वाली रेखा कि तू गरीब है. तू ये वाला चावल मत खा. ये वाले कपड़े मत पहन वगैरहवगैरह.’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला, ‘‘गरीबीरेखा का यह मतलब निकालना मेरे हिसाब से ठीक नहीं होगा.’’

‘‘गरीब को उस की गरीबी का एहसास दिलाने के पीछे कोई और भी मकसद हो सकता है भला,’’ उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में पहलू बदल कर कहा, ‘‘खैर, यह बताओ, यह रेखा खींची किस ने है, सरकार ने?’’

‘‘हां, और क्या, सरकार ने ही खींची है. और कौन खींच सकता है.’’

‘‘लेकिन सरकार को यह रेखा खींचने की जरूरत क्यों पड़ी भला?’’

‘‘सरकार गरीबों की चिंता करती है इसलिए. सरकार चाहती है कि गरीब भी सम्मानपूर्वक जिंदगी गुजारें. उन की जरूरतें पूरी हों. वे भूखे न रहें. गरीबों का जीवनस्तर ऊपर उठाने के लिए सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं बना रखी हैं.’’

‘‘तो ऊपर उठा उन का जीवनस्तर?’’

‘‘उठेगा,’’ मैं बोला, ‘‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है. लेकिन यह तय है कि इस से उन्हें उन की जरूरत की चीजें जरूर आसानी से मुहैया हो रही हैं.’’

‘‘गरीबों को उन की जरूरत की चीजें गरीबीरेखा खींचे बगैर भी तो मुहैया कराई जा सकती थीं?’’

उन के इस सवाल से मेरा दिमाग चकरा गया और मुझ से कोई जवाब देते नहीं बना. फिर भी मैं बोला, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं. ऐसा हो तो सकता था. फिर पता नहीं क्यों, गरीबीरेखा खींचने की जरूरत पड़ गई.’’

‘‘ऐसा तो नहीं कि अमीर लोग गरीबों का हक मार रहे थे, इसलिए यह रेखा खींचने की जरूरत पड़ी?’’

तभी गरमागरम पकौड़े से भरी ट्रे ले कर बेगम वहां आ गई. आते ही बोली, ‘‘थोड़ी देर के लिए आप दोनों अपनी बहस को विराम दीजिए. पहले गरमागरमा पकौड़े खाइए, उस के बाद देशदुनिया की फिक्र करिए.’’

बेगम के वहां आ जाने से चाचा के मुंह से निकला अंतिम वाक्य आयागया हो गया. मैं और चाचाजी पकौड़े खाने में मसरूफ हो गए. पकौड़े गरम तो थे ही, स्वादिष्ठ भी थे.

4-6 पकौड़े खाने के बाद चाचाजी  ही बोले, गरीबीरेखा से अगर सचमुच अमीर लोगों को गरीबों का हक मारने का मौका नहीं मिल रहा है और गरीबों को उन की जरूरत की चीजें मुहैया हो रही हैं, तो क्यों ने ऐसी दोचार रेखाएं और खींच दी जाएं.’’

मैं ने एक पकौड़ा उठा कर मुंह में रखा और चाचाजी की तरफ देखने लगा. वे समझ गए कि मैं उन का आशय समझ नहीं पाया हूं. इसलिए उन्होंने खुद ही अपनी बात आगे बढ़ाई, बोले, ‘‘एक भ्रष्टाचारी रेखा हो. एक कमीनेपन की रेखा हो. एक चुनाव के दौरान झूठे वादे करने की रेखा हो…’’

उन्होंने एक और पकौड़ा उठाया और उसे मिर्र्च वाली चटनी में डुबोते हुए बोले, ‘‘भ्रष्टाचार, कमीनापन और चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे करना मनुष्य के स्वभावगत गुण हैं. इन्हें पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता. चुनावी सीजन में जो भ्रष्टाचार खत्म करने और ब्लैकमनी वापस लाने के दावे करते थे, चुनाव जीतने के बाद वे खुद उस में रम जाते हैं. यहां तक कि अपने मूल काम को भी त्याग देते हैं, जिस का नुकसान सीधे गरीबों को होता है. इसलिए गरीबीरेखा की तरह कुछ और रेखाएं भी खींची जानी चाहिए.

‘‘भ्रष्टाचारी रेखा, भ्रष्टाचार करने वालों की लिमिट तय करेगी. तुम ने सुना होगा, यातायात विभाग के एक हैड कौंस्टेबल के पास से करोड़ों रुपए बरामद हुए थे. भ्रष्टाचारी रेखा खींच दी जाए तो भ्रष्टाचारी एक हद तक ही भ्रष्टाचार करेगा.

‘‘भ्रष्टाचार जब लाइन औफ कंट्रोल तक पहुंचेगा तो वह खुद ही हाथ जोड़ कर रकम लेने से मना कर देगा, कहेगा, ‘इस साल का मेरा भ्रष्टाचार का कोटा पूरा हो गया है, इसलिए अब नहीं. कम से कम इस साल तो नहीं. अगले साल देखेंगे.’

‘‘इसी तरह चुनावीरेखा चुनाव के दौरान झूठे वादों की लिमिट तय करेगी. चुनाव के दौरान उम्मीदवार यह देखेगा कि उस की पार्टी के नेता ने पिछली बार कौनकौन से वादे किए थे और उन में से कौनकौन से वादे पूरे नहीं हुए हैं. उस हिसाब से उम्मीदवार वादे करेगा, कहेगा, ‘पिछले चुनाव में मेरी पार्टी के नेता ने फलांफलां वादे किए थे जो पूरे नहीं हो पाए, इसलिए इस चुनाव में मैं कोई नया वादा नहीं करूंगा बल्कि पिछली बार किए गए वादों को पूरा करूंगा.’ इसी तरह कमीनीरेखा लोगों के कमीनेपन की लिमिट तय करेगी.’’

उन की इस राय के बाद मेरे पास बोलने को जैसे कुछ रह ही नहीं गया था. वे भी एकदम से खामोश हो गए थे. जैसे बोलने की उन की लिमिट पूरी हो गई हो. उसी समय बेगम भी वहां चाय ले कर पहुंच गई थी. तब तक लवी उन की गोद में ही सो गया था.

बेगम ने लवी को उन की गोद से उठाया और उसे ले कर दूसरे कमरे में चली गई. हम दोनों चुपचाप चाय सुड़कने लगे थे. चाय का घूंट भरते हुए बीचबीच में मैं उन की ओर कनखियों से देख लिया करता था, लेकिन वे निर्विकार भाव से चुप बैठे चाय सुड़क रहे थे.

उन के दिमाग की थाह पाना मुश्किल है. समझ में नहीं आता कि उन के दिमाग में क्या चल रहा होता है. एक दिन पूछ बैठे, ‘‘मुझे देख कर तुम्हारे मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग तुम्हारी कौम के लोगों का गला काटते हैं, उन के घर जलाते हैं, उन की संपत्ति लूटते हैं.’’

उन के इस अप्रत्याशित सवाल से मैं बौखला गया था, बोला, ‘‘यह कैसा सवाल है चाचाजी.’’

‘‘सवाल तो सवाल है बेटा. सवाल में कैसे और वैसे का सवाल क्यों?’’

‘‘तो एक सवाल मेरा भी है चाचाजी,’’ मैं बोला, ‘‘क्या आप के मन में कभी यह खयाल आया कि आप मुसलमान हैं और मैं हिंदू हूं. जब दंगा होता है तो मेरी कौम के लोग भी आप की कौम के लोगों के साथ वही सब करते हैं जो आप की कौम के लोग हमारी कौम के साथ करते हैं. आप मांसभक्षी हैं और मैं शुद्ध शाकाहारी.’’

‘‘जवाब यह है बेटे कि यह खयाल हम दोनों के मन में नहीं आता, न आएगा.’’

‘‘फिर आप ने यह सवाल पूछा ही क्यों चाचाजी?’’

वे अपेक्षाकृत गंभीर लहजे में बोले, ‘‘दरअसल, हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे बेटा कि जब एक आम हिंदू और एक आम मुसलमान के मन में कभी यह खयाल नहीं आता कि मैं हिंदू, तू मुसलमान या मैं मुसलमान तू हिंदू, जब आम दिनों में दोनों संगसंग व्यापार करते हैं, उठतेबैठते हैं, एकदूसरे के रस्मोरिवाज का हिस्सा बनते हैं तो आखिर दंगा होता ही क्यों है. और जब दंगा होता भी है तो इतना जंगलीपन कहां से पैदा हो जाता है कि दोनों एकदूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. कहीं…’’ वे एक पल के लिए रुके, फिर बोले, ‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे बीच भी कोई रेखा खींच दी जाती हो, हिंदूरेखा या मुसलमानरेखा.’’

जम्मू कश्मीर: क्या हाउस बोट्स पर रौनक लौटगी

जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव के बाद भले जनता की चुनी हुई सरकार बन गई और उमर अब्दुल्ला भले ही प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए मगर शासन की असली बागडोर मोदी सरकार के सिपहसालार यानी उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के हाथ में ही है. आर्टिकल 370 निरस्त होने के बाद जम्मू कश्मीर विशेष राज्य का दर्जा समाप्त होने पर अब इस प्रदेश की हालत भी दिल्ली जैसी हो गई है जहां मुख्यमंत्री तो है मगर उस के पास इतनी भी पावर नहीं है कि वह अपनी मर्जी से एक चपरासी तक नियुक्ति कर सके.

मुख्यमंत्री को हर फैसले के लिए उपराज्य्पाल के आगे गिड़गिड़ाना पड़ता है. कभी उसे कुर्सी छोड़नी पड़ती है तो कभी मुख्यमंत्री निवास खाली करना पड़ता है. एक लोकतांत्रिक देश में जनता की चुनी हुई सरकार और मुख्यमंत्री की ऐसी छीछालेदर दुनिया के किसी देश में ना हुई होगी.

अब दिल्ली जैसी हालत जम्मू कश्मीर की भी होने वाली है. गौरतलब है कि उमर अब्दुल्ला पहले भी राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. मगर तब जम्मू कश्मीर एक पूर्ण राज्य था और राज्य को चलाने की सारी शक्तियां मुख्यमंत्री के पास थीं मगर केंद्र शासित राज्य बनने के बाद उपराज्यपाल के पास असीमित शक्तियां आ गई हैं. हालात पहले जैसे नहीं हैं.

नई गठबंधन सरकार के सामने कई चुनौतियां होंगी. एक तरफ उस को वे सभी वादे पूरे करने हैं जो उस ने जनता से किए हैं और दूसरी तरफ उसे विकास योजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र सरकार का मुंह ताकना होगा.

इस में कोई दोराय नहीं कि उपराज्यपाल जो केंद्र के इशारे पर काम करते हैं, जम्मू-कश्मीर सरकार के हर काम में अड़ंगा लगाएंगे. मुख्यमंत्री को आएदिन इस से निपटना होगा बिलकुल वैसे ही जैसे दिल्ली की सरकार एक लम्बे वक्त से उपराज्यपाल की मनमानियों को झेल रही है और जनता के हितकारी कार्यों की फाइलें बिना मंजूरी के बारबार उपराज्यपाल द्वारा सरकार के मुंह पर वापस दे मारी जाती हैं.

कहना गलत नहीं होगा कि जम्मू कश्मीर में भाजपा सत्ता से दूर हो कर भी सत्ता पर काबिज है. राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद नया बना जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम ने उपराज्यपाल को व्यापक कंट्रोल की ताकत दी है. पिछले 5 सालों से उपराज्यपाल के दफ्तर से कश्मीर में प्रशासन चल रहा है. आम लोग अपने आप को सत्ता से दूर कर चुके हैं. राज्य की सभी प्रशासनिक शक्तियां एलजी कार्यालय में केंद्रित हैं. कानून और व्यवस्था, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस के कामों सहित विभिन्न प्रशासनिक मामलों में केंद्र शासित प्रदेशों में उपराज्यपाल का फैसला ही अंतिम होता है. नई सरकार के गठन के बाद भी उन का केवल सीनियर ब्यूरोक्रेट्स के कामों पर ही कंट्रोल नहीं होगा बल्कि वह सीधेसीधे शासन को भी प्रभावित करेंगे.

जम्मूकश्मीर की नई विधानसभा के पास सीमित विधायी शक्तियां होंगी, विशेष रूप से पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था जैसे विषयों के संबंध में. अन्य मामलों पर वह जरूर कानून बना सकती है लेकिन किसी भी वित्तीय कानून को एलजी से पूर्व अनुमोदन की जरूरत होगी, जो विधानसभा के असर और कामकाज पर प्रभाव डालेगा. ऐसे में नई सरकार की कार्यकारी शक्तियां और क्षमता गंभीर रूप से कमजोर और समझौता पूर्ण हो जाएगी.

जुलाई में, केंद्र सरकार ने उपराज्यपाल की शक्तियों का दायरा और बढ़ा दिया था. जिस से उन्हें पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों और केंद्र शासित प्रदेश के महाधिवक्ता सहित वरिष्ठ कानून अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण से संबंधित मामलों पर निर्णय लेने का एकमात्र अधिकार भी मिल गया था. तो ऐसे सिनेरियो में एक ऐसी सरकार के बारे में सोचिए जो अपनी नौकरशाही का चयन नहीं कर सकती. जिस का जिला पुलिस अधिकारी या एसएचओ पर कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है, क्या वह नगरपालिका समिति से बेहतर होगी?

अपने चुनावी घोषणापत्र में नैशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस एलायंस ने जनता से अनेक वादे किए थे. जैसे कश्मीरी पंडितों की घाटी में सम्मानजनक वापसी, 200 यूनिट मुफ्त बिजली, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को हर साल 12 एलपीजी सिलेंडर मुफ्त, भूमिहीनों को जमीन देना, बेरोजगारों के लिए रोजगार के अवसर मुहैया कराना, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के परिवारों की महिला मुखिया को हर महीने 5000 रुपए देना आदि, इस के अलावा स्वायत्तता प्रस्ताव, अनुच्छेद-370 और 35-ए की बहाली, पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना, सभी राजनीतिक कैदियों के लिए माफी, गैर-निवासियों पर उचित प्रतिबंध लगाने के लिए कानूनों में संशोधन, भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत, राज्य के ध्वज की बहाली जैसे वादे भी किए गए थे, जिन पर रीझ कर जनता ने एनसी गठबंधन को सत्ता सौंपी, पर क्या जिस सरकार के हाथ इस तरह एलजी की बेड़ियों में जकड़े हों वह इन वादों को पूरा कर सकती है? जनता के हित से जुड़े साधारण वादों को पूरा करने के लिए भी सरकार को नाकों चने चबाने पड़ेंगे. इन हालातों में न तो प्रदेश की जनता का कुछ भला होगा, न उन की रोजीरोजगार की दिशा में कुछ सकारात्मक होगा और न प्रदेश में कोई विकास कार्य संभव होगा.

केंद्र की मोदी सरकार ने 370 हटाने के वक्त जम्मू कश्मीर से आतंकवाद ख़त्म करने ऐलान किया था, मगर आतंकी कश्मीर से ले कर जम्मू तक फैल गए. केंद्र सरकार ने कश्मीरी पंडितों की घरवापसी कराने का वादा किया था मगर अब तक न उन की घर-वापसी हुई और न उन्हें अपनी सुरक्षा का भरोसा है. धारा 370 निरस्त करने के बाद लम्बे समय तक पूरे जम्मू कश्मीर में दूरसंचार व्यवस्था और इंटरनेट पर रोक लगाने से व्यापार और बच्चों की शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हुई. पर्यटन जो कि जम्मू कश्मीर के लोगों की आमदनी का मुख्य जरिया था, केंद्र के इन तमाशों की वजह से बिल्कुल चौपट हो गया. विदेशी पर्यटकों ने तो कश्मीर छोड़ गोवा का रुख करना शुरू कर दिया. पहले ठिठुरते जाड़ों से ले कर गरमियों के मौसम तक में घाटी पर्यटकों से भरी रहती थी. हाउस बोट्स पर तिल धरने की जगह न बचती थी. डल लेक में विदेशी सैलानियों से भरे शिकारे रेस लगाते थे. ऊनी कपड़ों, सूखे मेवों और लकड़ी के सामान की खूब खरीदारी होती थी. पर अब घाटी पर्यटकों से सूनी है.

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में मुख्य व्यवसायों में कृषि, बागवानी, विनिर्माण और पर्यटन शामिल हैं. जम्मू-कश्मीर में कृषि से जुड़े मुख्य उत्पादों में सेब, जौ, चेरी, मक्का, बाजरा, संतरे, चावल, आड़ू, नाशपाती, केसर, ज्वार, सब्ज़ियां और गेहूं शामिल हैं वहीं बागवानी से जुड़े मुख्य उत्पादों में सेब, खुबानी, चेरी, नाशपाती, बेर, बादाम, और अखरोट शामिल हैं. जम्मू-कश्मीर के बागवानी उत्पादों की विविधता और गुणवत्ता के कारण दुनिया भर में ख्याति है. विनिर्माण से जुड़े मुख्य उत्पादों में धातु के बर्तन, सटीक उपकरण, खेल के सामान, फर्नीचर, माचिस, राल, और तारपीन का उत्पादन होता था जो बाहर बिकने जाता था. पर्यटकों द्वारा लकड़ी के सामान जैसे नक्काशीदार ट्रे, टेबल, कटोरे, फ़र्नीचर, चाबी का गुच्छा, फफोटो फ्रेम आदि खूब खरीदे जाते थे. मगर अब जब वहां पर्यटन उद्योग ही चौपट हो गया है तो इस से जुड़े तमाम छोटे बड़े धंधे भी ठप्प हो गए हैं. व्यापारी कर्ज में डूब चुके हैं. ऐसे में यदि नयी सरकार को खुल कर काम नहीं करने दिया गया तो जम्मू कश्मीर आर्थिक रूप से बिलकुल खोखला हो जाएगा और ये स्थिति प्रदेश के युवाओं को फिर से हथियार उठाने और अपराध करने के लिए मजबूर करेगी.

सरकार के हर काम पर उपराज्यपाल का नियंत्रण और बाधाओं की आशंका उमर अब्दुल्ला जुलाई महीने में व्यक्त कर चुके थे. वे चुनाव भी नहीं लड़ना चाहते थे क्योंकि जम्मूकश्मीर को एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था. तब उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा था, “मैं एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री रहा हूं. मैं खुद को ऐसी स्थिति में नहीं देख सकता जहां मुझे उपराज्यपाल से चपरासी चुनने के लिए कहना पड़े या बाहर बैठ कर फाइल पर उन के हस्ताक्षर करने का इंतजार करना पड़े.”

जम्मूकश्मीर में विधानसभा चुनाव होने के बाद अब नेताओं ने पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग तेज कर दी है, आने वाले दिनों में इसे ले कर राजनीतिक घमासान भी देखने को मिल सकता है. केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जाएगी कि वो फिर से कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे. ऐसी ही मांग दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल पिछले कई सालों से करते आ रहे हैं.

चाल एक डाक्टर की : शारीरिक संबंध बनाने के बाद किया कत्ल

विभा केवट की उम्र 24 साल थी. सामान्य कदकाठी की विभा देखने में सुंदर होने के साथ पढ़नेलिखने में भी होशियार थी. चूंकि उस के घर की माली हालत अच्छी नहीं थी इसलिए पिछले 2 सालों से वह फैमिली दंत चिकित्सालय में अटेंडेंट की नौकरी कर रही थी.

सतना के धावरी स्थित कलैक्ट्रेट रोड पर यह दंत चिकित्सालय डा. आशुतोष त्रिपाठी का था. विभा का घर मल्लाह मोहल्ले में था. वह हर रोज सुबह 8 बजे घर से क्लीनिक के लिए निकल जाती थी और पेशेंट देखने में डा. आशुतोष की मदद करती थी.

दोपहर में वह लंच करने के लिए घर लौटती. लंच के बाद फिर वापस क्लीनिक में लौट आती थी. रात के 8 बजे डा. आशुतोष त्रिपाठी क्लीनिक बंद कर के कार से पहले विभा को उस के घर के पास छोड़ता फिर अपने घर जाता था. यह विभा की रोज की दिनचर्या थी.

नौकरी में अपना अधिकतर समय देने के बाद भी विभा पढ़ाई के लिए समय निकाल लेती थी. उस का सपना एलएलबी कर के वकील बनने का था. वह एक प्राइवेट कालेज से एलएलबी कर रही थी.

चूंकि घर की हालत सही न होने के कारण वह अपनी पढ़ाई के खर्चों को पूरा करने में असमर्थ थी. इसलिए पिछले 2 सालों से इस क्लीनिक में नौकरी कर रही थी. वह अपने काम से खुश थी और जिंदगी सामान्य ढर्रे पर चल रही थी.

वह रोज की तरह घर से ड्यूटी पर गई थी. दोपहर के समय वह घर आई और लंच कर के वापस ड्यूटी पर लौट गई. उस रात नौ बजे तक वह घर नहीं लौटी तो उस के पिता रामनरेश केवट और मां रमरतिया की आंखों में परेशानियों के बादल घुमड़ने लगे. उस का मोबाइल फोन भी स्विच्ड औफ था. उन के मन में तरह तरह के बुरे खयाल आ रहे थे.

रात भर इंतजार के बाद सुबह भी विभा घर नहीं लौटी तो क्लीनिक खुलने के समय दोनों डाक्टर से मिलने उस के क्लीनिक जा पहुंचे. डा. आशुतोष क्लीनिक में पेशेंट देख रहे थे. बुरी तरह परेशान रामनरेश केवट ने जब डा. आशुतोष से बेटी के बारे में पूछा तो उस ने विभा के घर नहीं पहुंचने पर हैरानी जाहिर करते हुए कहा कि कल शाम विभा ने उस से पगार के छह हजार रुपए लिए और कुछ जरूरी काम से बाहर जाने की बात कह कर चली गई थी. लगता है, उस ने कहीं दूसरी जगह काम पकड़ लिया है. चिंता न करो वह कुछ दिनों में खुद ही घर लौट आएगी.

रामनरेश और रमरतिया वहां से घर लौट आए और बारबार विभा के मोबाइल पर काल कर उस से संपर्क साधने का प्रयास करते रहे. लेकिन बीती रात से ही उस का मोबाइल स्विच्ड औफ आ रहा था. रामनरेश ने अपने सभी रिश्तेदारों से फोन कर पूछा, लेकिन निराशा ही हाथ लगी.

बाद में रामनरेश ने फिर डा. आशुतोष त्रिपाठी से विभा के बारे में पूछा तो उस ने बताया कि विभा ने उस के यहां से नौकरी छोड़ दी है. वह तुम लोगों से नाराज है और किसी दूसरी जगह पर कमरा ले कर रहने लगी है. उस ने अपना फोन नंबर भी बदल लिया है. विभा ने कहां पर कमरा लिया है इस की जानकारी उसे नहीं है.

बेटी के अलग रहने की बात रामनरेश और रमरतिया के गले से नहीं उतरी. फिर भी उन्होंने बेटी की तलाश में शहर का चप्पाचप्पा छान मारा लेकिन वह उस का पता लगाने में नाकामयाब रहे. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे जमीन निगल गई या आसमान खा गया.

दरअसल, विभा के मातापिता को ऐसा लग रहा था जैसे डाक्टर को विभा के बारे में जानकारी है और वह शायद बाद में विभा के बारे उन्हें बता देगा.

विभा की तलाश करतेकरते डेढ़ महीने गुजर जाने के बाद भी जब उस का पता नहीं चला तो रमरतिया ने एक फरवरी, 2021 को धवारी की सिटी कोतवाली में बेटी की गुमशुदगी दर्ज करा दी और पुलिस अधिकारियों से उसे तलाश करने की गुहार लगाई.

सिटी कोतवाली इंसपेक्टर अर्चना द्विवेदी ने 24 वर्षीय युवती विभा केवट के गायब होने के मामले को गंभीरता से लिया. वह इस की जांच में जुट गईं.

इंसपेक्टर अर्चना द्विवेदी ने विभा के मातापिता से उस के गायब होने के बारे में विस्तार से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि 14 दिसंबर की सुबह विभा डा. आशुतोष के क्लीनिक में ड्यूटी पर गई थी. जहां डाक्टर के अनुसार उस ने शाम तक ड्यूटी की.

इस के बाद वह डाक्टर से 6 हजार रुपए लेने के बाद कहीं दूसरी जगह रहने चली गई. उस ने अपना मोबाइल नंबर भी बदल लिया था.

यह जानकारी मिलने के बाद इंसपेक्टर अर्चना द्विवेदी ने डा. आशुतोष त्रिपाठी को कोतवाली बुला कर उस से विभा केवट के बारे में पूछताछ की. थोड़ी पूछताछ के बाद डा. आशुतोष को घर जाने की इजाजत मिल गई.

लेकिन डाक्टर के बारबार बदले बयानों को ले कर इंसपेक्टर अर्चना द्विवेदी को उस पर संदेह हो गया था. उन्होंने डा. आशुतोष त्रिपाठी और विभा के मोबाइल नंबर की काल डिटेल्स निकलवा कर देखी तो पता चला कि विभा ने आखिरी बार 14 दिसंबर को डा. आशुतोष त्रिपाठी से 750 सेकंड बातें की थीं.

इस के बाद उस का मोबाइल स्विच्ड औफ हो गया था, जो फिर औन नहीं हुआ था. इस का मतलब था कि विभा के गायब होने का राज डा. आशुतोष को मालूम था.

इंसपेक्टर अर्चना द्विवेदी ने डा. आशुतोष त्रिपाठी को दोबारा थाने बुला कर मनोवैज्ञानिक तरीके से कुरेदना शुरू किया तो वह ज्यादा देर तक नहीं टिक सका.

उस ने विभा के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन कर अर्चना द्विवेदी आश्चर्यचकित रह गईं. उस ने बताया कि दरअसल विभा का कत्ल हो चुका है और उस की लाश एक गड्ढे में दबा दी गई थी.

कत्ल की बात पता चलते ही इंसपेक्टर अर्चना द्विवेदी ने डा. आशुतोष को गिरफ्तार कर लिया और इस की सूचना सतना के एसपी (सिटी) विजय प्रताप सिंह को दी.

20 फरवरी, 2021 शनिवार को एसपी (सिटी) विजय प्रताप सिंह, तहसीलदार अनुराधा सिंह, नायब तहसीलदार हिमांशु भलवी, यातायात थानाप्रभारी राजेंद्र सिंह राजपूत और इंसपेक्टर अर्चना द्विवेदी आरोपी डा. आशुतोष के साथ घटनास्थल पर पहुंचे जहां पर विभा की लाश एक गड्ढे में दबी थी.

मिल गई विभा की लाश

डा. आशुतोष की निशानदेही पर नगर निगम के श्रमिकों की मदद से गड्ढे की खुदाई की गई तो कुछ देर खुदाई के बाद उस में से एक कुत्ते की लाश निकली. कुत्ते की लाश को बाहर निकालने के बाद थोड़ी और खुदाई की गई तो वहां एक युवती की लाश दिखाई पड़ी.

लाश को बाहर निकाला गया. लाश के गले में एक दुपटटा तथा कमर के नीचे लोअर मौजूद था. रामनरेश केवट और उस की पत्नी रमरतिया को लाश दिखाई गई तो दोनों ने कपड़ों के आधार पर उस की पहचान अपनी बेटी विभा केवट के रूप में की.

शिनाख्त हो जाने के बाद लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई. डा. आशुतोष के बयान और पुलिस की तहकीकात के आधार पर विभा केवट हत्याकांड के पीछे एक सनसनीखेज कहानी उभर कर सामने आई—

सतना के धावरी इलाके में चांदमारी रोड, मंगल भवन के पीछे अंग्रेजी के शिक्षक नरेंद्र त्रिपाठी अपने परिवार के साथ रहते थे. वह राजकीय कन्या विद्यालय, धावरी में नौकरी करते हैं. उन के 2 बेटे हैं. बड़ा बेटा अभिषेक त्रिपाठी छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर स्थित एक रियल एस्टेट फर्म में बतौर फाइनेंस मैनेजर कार्यरत है. दूसरा बेटा आशुतोष डेंटिस्ट है. 2 साल पहले आशुतोष को अपने क्लीनिक के लिए एक अटेंडेंट की जरूरत थी.

मल्लाह मोहल्ले में रहने वाले रामनरेश केवट की दूसरी बेटी विभा को जब इस नौकरी बारे में पता चला तो उस ने डा. आशुतोष से मिल कर उस के यहां काम करने की इच्छा जाहिर की. डा. आशुतोष ने विभा को क्लीनिक से संबंधित जरूरी कामकाज के बारे में समझाते हुए जब सैलरी के बारे में उसे बताया तो उस ने वहां काम करने के लिए हामी भर दी. यह बात सन 2018 की थी.

डा. आशुतोष ने विभा को क्लीनिक से संबंधित सभी बातों को समझने के बाद यह भी समझा दिया कि वहां आने वाले पेशेंट से किस प्रकार व्यवहार करना है. फिर उसे अपना मोबाइल नंबर देते हुए कहा कि अगर उस की अनुपस्थिति में उसे कोई भी मुश्किल आए तो मुझे कभी भी काल कर सकती हो. उसी समय विभा और डा. आशुतोष ने अपनेअपने मोबाइल में एक दूसरे के नंबर सेव कर लिए.

विभा तेजतर्रार युवती थी. थोड़े ही दिनों में वह सारा काम सीख गई. उस की कुशलता देख कर डा. आशुतोष भी खुश हुआ. विभा यहां काम पा कर पूरी तरह संतुष्ट थी. क्योंकि उस के प्रति डाक्टर का व्यवहार ठीक था. वह वेतन भी टाइम से दे देता था.

इस तरह धीरेधीरे समय का पहिया घूमता रहा. सालभर गुजर जाने के बाद डाक्टर आशुतोष और विभा आपस में काफी घुलमिल गए थे. पेशेंट की मौजूदगी में वे दोनों एक दूसरे से सिर्फ काम की ही बातें करते थे.

लेकिन जब वहां कोई नहीं होता तो वे हंसीमजाक से ले कर दुनियाजहान की बातें करते थे. बातों बातों में वक्त आसानी से कट जाता था. इसी दौरान डाक्टर आशुतोष ने मन ही मन विभा को पाने की योजना तैयार की और उस पर अमल करना आरंभ कर दिया.

अपनी योजना के तहत शाम को जब वह क्लीनिक बंद करता तो घर जाने से पहले विभा को उस के घर छोड़ने जाने लगा.

विभा डा. आशुतोष के इस बदले हुए व्यवहार के पीछे की चाल को नहीं भांप सकी. उस ने सोचा कि डा. आशुतोष खुश हो कर उस की मदद कर रहे हैं. कभीकभार वह विभा को घर छोड़ने से पहले किसी होटल या रेस्टोरेंट में ले जाता जहां खाने के दौरान वह विभा का दिल जीतने की कोशिश करता था.

विभा एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती थी. जल्द ही वह उस की बातों में आ गई.

डा. आशुतोष ने जब ताड़ लिया कि विभा उस की इच्छा का विरोध नहीं करेगी तो एक दिन उस ने विभा को शादी करने का झांसा दे कर उस के साथ शारीरिक संबंध बना लिया. उस दिन के बाद विभा के प्रति डा. आशुतोष का व्यवहार एकदम बदल गया.

विभा को खुश रखने के लिए वह उसे महंगे तोहफे आदि देता रहता था. ताकि उस की जिस्मानी जरूरतों को पूरा करने में विभा आनाकानी न करे. अलबत्ता एक दिन विभा ने अपनी बड़ी बहन को आशुतोष से अपने अफेयर की बात बता दी और यह भी कहा कि कुछ दिनों के बाद डाक्टर उस से शादी कर लेगा.

इस पर उस की बहन ने उसे समझाते हुए कहा भी कि अमीर लोग गरीब घर की लड़की से शादी करने की बात अपना मतलब निकालने के लिए करते हैं. कहीं तुम आगे चलकर ठगी न जाओ, इसलिए जितनी जल्दी हो सके शादी कर लो.

बहन की बात सुन कर विभा ने उसे जवाब दिया कि उस का प्यार इतना कच्चा नहीं है कि डाक्टर उस से शादी का बहाना कर असानी से अपना मुंह फेर ले. उस वक्त कहने के लिए तो विभा ने बड़़े ही आत्मविश्वाश के साथ अपनी बड़ी बहन को जवाब दे दिया. लेकिन उसी दिन उस ने मन में ठान लिया कि वह डाक्टर से जल्द शादी करने को कहेगी.

विभा बन गई गले की हड्डी

इस के बाद जब भी आशुतोष विभा को शारीरिक संबंध बनाने के लिए राजी करने की कोशिश करता तो वह उस से पहले शादी करने की बात करती. इतना ही नहीं, जब भी दोनों क्लीनिक में अकेले होते वह उस से शादी करने का दबाव डालना शुरू कर देती थी.

आशुतोष एक बड़े परिवार से ताल्लुक रखता था. समाज में उस की अपनी अच्छीखासी हैसियत थी. उस ने तो केवल विभा के साथ मौजमस्ती करने के लिए उस से शादी की बात कही थी. वास्तव में उस ने दिल से कभी विभा से शादी के बारे में सोचा तक नहीं था. इसलिए जब विभा ने उस पर शादी का अधिक दबाव बनाना शुरू किया तो 14 दिसंबर, 2020 को आशुतोष ने बात बढ़ जाने पर विभा की गला घोंट कर हत्या कर दी.

उस समय क्लीनिक में उन दोनों के सिवा कोई नहीं था. विभा की हत्या करने के बाद आशुतोष ने उस की लाश एक बोरी में डाल कर क्लीनिक के अंदर ही एक कोने में रख दी. अगले दिन वह क्लीनिक में पेशेंट का इलाज करते हुए मन ही मन विभा की लाश को ठिकाने लगाने की तरकीब सोचता रहा. दोपहर के बाद उस ने कुछ मजदूरों को बुलाया और क्लीनिक के पीछे बारिश का गंदा पानी जमा करने की बात कह कर एक 6 फुट गहरा गड्ढा खुदवाया. रात को उस ने विभा की लाश गड्ढे में डाल कर उस के उपर नमक डाला फिर उस पर थोड़ी मिट्टी डाल दी.

इस के बाद कहीं से उस ने एक कुत्ते की लाश का इंतजाम किया. कुत्ते की लाश को उसी गड्ढे में डालने के बाद उस ने उस के उपर अच्छी तरह मिट्टी भर दी. कुत्ते की लाश गड्ढे में इसलिए डाली गई कि ताकि विभा की लाश की बदबू आसपास फैलने पर अगर लोग बदबू उठने का कारण पूछे तो वह सब को बता सके कि वहां कुत्ते की लाश दबाई गई है.

इस तरह विभा की लाश इस गड्ढे में दबी होने की बात उजागर नहीं होगी. लेकिन पुलिस को विभा की अंतिम काल और उस के मोबाइल फोन की लोकेशन के आधार पर आशुतोष के ऊपर शक हो गया.

जब उस से थोड़ी सख्ती बरती गई तो उस ने सारा सच उगल दिया. विभा की लाश का डीएनए टेस्ट कराने के लिए सैंपल भी सुरक्षित रख लिया गया ताकि तय हो सके कि लाश विभा की ही थी.

विभा की लाश की बरामदगी के बाद इस मामले में हत्या और साजिश की धारा 302, 201, जोड़ दी गई. पुलिस ने आशुतोष त्रिपाठी से पूछताछ करने के बाद उसे गिरफ्तार कर सतना की अदालत में पेश किया गया, जहां से उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया.

जाति का भेदभाव : भाषणों से दूर नहीं होगी राजनीति

‘आजकल कहां छुआछूत बची है, अब तो कोई किसी से जाति की बिना पर व्यवहार नहीं करता. अगर आप किसी होटल या कैंटीन में कुछ खापी रहे हों तो वेटर से जाति थोड़े ही पूछते हैं. इसी तरह आप बस, ट्रेन या प्लेन में सफर कर रहे हैं तो आप को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि आप के सहयात्री किस जाति के हैं. ये गुजरे कल की बातें हैं, अब वक्त बहुत बदल गया है.’

ऐसा कहने वालों की खासतौर से शहरों में कमी नहीं और ऐसा कहने वाले अकसर नहीं बल्कि हर दफा सवर्ण ही होते हैं जो कट्टर हिंदूवादी संगठनों के अघोषित सदस्य, अवैतनिक कार्यकर्ता और हिमायती होते हैं. जो चाहते यह हैं कि जातपांत और छुआछूत पर कोई बात ही न करे जिस से उन की यह खुशफहमी, जो दरअसल सवर्णों की नई धूर्तता है, कायम रहे कि अब कौन जातपांत को मानता है.

यह तो इतिहास में वर्णित एक झूठा सच है. अब इस पर चर्चा करना फुजूल है और जो करते हैं वे अर्बन नक्सली, कांग्रेसी, वामपंथी, पापी या देश तोड़ने की मंशा रखने वाले लोग हैं जो नहीं चाहते कि भारत विश्वगुरु बने और दुनिया सनातन उर्फ वैदिक उर्फ हिंदू धर्म का लोहा माने.

उदारता का मुखौटा पहने इन कथित और स्वयंभू समाज सुधारकों को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का बीती 16 सितंबर को राजस्थान के अलवर में दिया गया प्रवचननुमा भाषण जरूर पढ़ना चाहिए और फिर सोचना सिर्फ इतना चाहिए कि आखिर क्यों उन्हें बहुत सी रस्मअदायगी वाली बातों के साथ यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि हमें छुआछूत को पूरी तरह मिटा देना है.

अब जो लोग यह दावा करते हैं कि अब कहां छुआछूत और जातिगत भेदभाव हैं, क्या वे मोहन भागवत को देश तोड़ने वाला, अर्बन नक्सली, वामपंथी, पापी, कांग्रेसी या कुछ और कहने की हिम्मत या जुर्रत कर पाएंगे क्योंकि उन्होंने एक बार फिर माना है और सवर्ण हिंदुओं का आह्वान किया है (क्योंकि यह सब जाहिर है वही करते हैं क्योंकि धार्मिक तौर पर वही कर सकते हैं, दलित नहीं) कि हमें छुआछूत को पूरी तरह मिटाना है?

इस के अलावा वे यह जताने से भी नहीं चूके कि देश हिंदू राष्ट्र है और हिंदू ही उस के सर्वेसर्वा हैं.

केंद्र में हैं महिलाएं

छुआछूत अगर यों कह देने भर से मिटने वाला रोग होता तो इसे गांधी के कहने से ही मिट जाना चाहिए था. लेकिन यह मिट नहीं रहा तो इस की जड़ में बहुत सारी वजहों के अलावा इंटरकास्ट मैरिजों पर लगी तमाम दृश्य और अदृश्य बंदिशें भी हैं.

इन में से भी धार्मिक प्रमुख मोहन भागवत अपने संबोधनों में अकसर डाक्टर भीमराव अंबेडकर का नाम भी बड़े ही सम्मानजनक तरीके से लेते रहे हैं जबकि दोनों व्यक्तिगत व वैचारिक स्तर पर नदी के उन दो किनारों सरीखे हैं जो आपस में कभी मिलते ही नहीं.

कभी कोई हिंदूवादी नेता यह कहता सुनाई नहीं देगा कि भीमराव अंबेडकर ने जातिगत भेदभाव और छुआछूत दूर करने के महज 2 तरीके बताए थे. उन में से पहला था, अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देना और दूसरा था वेद पुराणों सहित तमाम धर्मग्रंथों को नष्ट कर देना. ये दोनों ही उपाय कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि इन्हीं से पंडेपुजारी और पेशवाओं की न केवल रोजीरोटी चलती है बल्कि समाज और सत्ता के सारे सूत्र इन्हीं के हाथ में रहते हैं.

अंतर्जातीय विवाह अब, हालांकि होने लगे हैं लेकिन उन की तादाद कुल शादियों की 5 फीसदी के लगभग ही है. इन में भी अहम बात यह है कि अपर कास्ट के युवा तो आपस में शादी कर रहे हैं लेकिन दलितसवर्ण शादियां, जिन्हें अंतर्वर्णीय शादी कहा जा सकता है, अपवादस्वरूप ही होती हैं और उन में भी आधी जातिगत अहंकार के चलते ज्यादा नहीं चल पातीं और जो आधी चल जाती हैं वे कपल पारिवारिक, सामाजिक बहिष्कार और अनदेखी का दंश झेलते रहते हैं.

भीमराव अंबेडकर का अंतर्जातीय विवाह

भीमराव अंबेडकर ने जो कहा वह कर भी दिखाया था. उन्होंने पहली पत्नी रमाबाई की मौत के बाद दूसरी शादी अपने से उम्र में 18 साल छोटी सविता नाम की महिला, जो पेशे से डाक्टर थीं, से 1948 में की थी. यह उस दौर की चर्चित और विवादित लव मैरिजों में एक थी जिस का विरोध ब्राह्मणों के साथसाथ कुछ दलितों ने भी किया था.

उन में भी अंबेडकर के परिवारजन ही प्रमुख थे. सविता उन का इलाज कर रही थीं और उसी दौरान दोनों एकदूसरे को चाहने लगे. सविता एक संपन्न मराठी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं. वे चितपावन ब्राह्मण थीं, इसी जाति से जो चर्चित लोग बतौर हस्ती गिनती में हैं उन में सब से ऊपर नाम डाक्टर मोहन भागवत का है.

इस शादी का विरोध कर रहे दलितों की दलील यह थी कि यह ब्राह्मणों की साजिश है जो अंबेडकर की ब्राह्मण विरोधी राजनीति और सामाजिक प्रयासों पर पलीता लगाना चाहते हैं. लेकिन तमाम एतराजों और विरोधों के बाद भी यह शादी लगभग सफल रही थी.

सविता ने हमेशा भीमराव का एक आदर्श पत्नी की तरह ध्यान रखा. हालांकि अंबेडकर के आखिरी दिनों में उन के ही परिजनों ने इन दोनों को अलग कर दिया था. लेकिन तब तक अंबेडकर के कुछ अनुयायी उन्हें ‘सविता माई’ या ‘सविता बेन’ कहने लगे थे. ये वे लोग थे जिन्होंने कभी अंबेडकर की समझ पर शक नहीं किया. सविता अपने आखिरी दिनों में दिल्ली के महरौली स्थित फार्महाउस में कैद सी रहीं.

‘मनुस्मृति’ का दहन

जातिगत भेदभाव और छुआछूत दूर करने के दूसरे उपाय के तहत भीमराव अंबेडकर ने ‘मनुस्मृति’ को समारोहपूर्वक जलाया भी था. इस का भी ब्राह्मणों ने तीव्र विरोध किया था लेकिन यह सब तात्कालिक और प्रतीकात्मक ही साबित हुआ. ब्राह्मणों ने इस उदाहरण या अपवाद को नियम नहीं बनने दिया.

बावजूद इस के कि नेहरू व अंबेडकर की जोड़ी ने संविधान में यह व्यवस्था कर दी थी कि 2 वयस्क बिना किसी डर या दबाव के अपनी मरजी से किसी भी धर्म, जाति या वर्ण में शादी कर सकते हैं. इस कानून से हुआ भर इतना कि सवर्ण युवा आपस में शादी करने लगे. लेकिन जैसा कि पहले बताया गया उस के मुताबिक यह संख्या इतनी नहीं है कि समाज से छुआछूत और जातिगत भेदभाव दरकने लगें.

ऐसा क्यों, इस का जवाब भी अंबेडकर ने अपने जीवनकाल में ही दे दिया था कि अंतर्जातीय विवाहों का विरोध सामाजिक और राजनीतिक शक्ति खोने के डर से पैदा हुआ है. यह डर आज भी कायम है. हैरत की बात तो यह है कि अब अंबेडकर के नाम पर ही दलितों को गुमराह किया जाने लगा है. उन की जयंती और पुण्यतिथि सहित संविधान दिवस पर शोबाजी दलित संगठनों और नेताओं से ज्यादा आरएसएस और भाजपा से जुड़े लोग ही यह कहते करते हैं कि असमानता दूर करने और देश की तरक्की के लिए बाबा साहब के विचार बेहद प्रासंगिक हैं. हमें उन के विचारों को अमल में लाना चाहिए.

भीमराव अंबेडकर ने जितना जोर छुआछूत और जातिगत भेदभाव मिटाने पर दिया था उतना ही महिलाओं की शिक्षा और जागरूकता पर भी दिया था. इसे भी उन्होंने संविधान के जरिए कर दिखाया था.

विज्ञान व संविधान की बदौलत बदलाव

आज जो महिलाएं पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हैं वे अधिकतर सवर्ण ही हैं. लेकिन उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं कि यह सब उन के हित के कई कानून बना देने से मुमकिन हुआ है. धर्म का इस में कोई योगदान नहीं है जो आज भी उन्हें कैद में रखने की साजिश रचता रहता है.

एक नपीतुली साजिश के तहत पैसे वाले हो चले दलितों की तरह महिलाओं को भी पूजापाठ का अधिकार मिल गया है. लेकिन यह पूर्ण या पुरुषों के बराबर का नहीं है क्योंकि मासिकधर्म के दिनों में वे पूजापाठ नहीं कर सकतीं. इन 5 दिनों में धर्मशास्त्रों और ठेकेदारों के मुताबिक वे अछूत और अपवित्र रहती हैं.

कई मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है जिस के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी, जो एक तरह से बेमानी थी क्योंकि वे जो अधिकार मांग रही थीं वही उन के अधिकार छीनने का जिम्मेदार है. शायद ही महिलाएं कभी सोच पाएं कि अब उन्हें श्मशान घाट जा कर अपने पिता या पति को मुखाग्नि देने की सहूलियत इसलिए दी जा रही है कि वे धर्म के पिंजरे में कैद रहें और पैसा चढ़ाती रहें.

इस साल पितृपक्ष के दिनों में गया सहित दूसरे कई धार्मिक शहरों में महिलाओं ने भी पिंडदान किया. इस का भी मकसद यही था कि उन की जागरूकता पर रूढि़यों और अंधविश्वासों का ग्रहण लगा दिया जाए. दानदक्षिणा तो वे भी देंगी ही, इसलिए क्यों धार्मिक उसूलों के नाम पर सख्ती बरतते हुए अपनी आमदनी और ग्राहकी कम की जाए. महिलाएं ज्यादा से ज्यादा तादाद में पिंडदान करें, इस के लिए पंडों ने पिछले 10-12 सालों से सीता की इस कहानी का जम कर प्रचारप्रसार किया कि उन्होंने राम और लक्ष्मण की गैरमौजूदगी में अपने ससुर दशरथ का श्राद्ध व पिंडदान किया था तो आज की महिलाएं क्यों नहीं कर सकतीं.

महिलाओं की जिंदगी आसान बना देने में कानून के बाद विज्ञान का ही अहम योगदान है. किचन में अब उन्हें चक्की नहीं पीसनी पड़ती, चूल्हे में लकडि़यां नहीं ठूंसनी पड़तीं, चटनी बनाने के लिए सिलबट्टे पर मेहनत नहीं करनी पड़ती, मीलों दूर से पानी ढो कर नहीं लाना पड़ता. और तो और, अब फ्रिज, ओवन, मिक्सी जैसे कई वैज्ञानिक आविष्कारों ने सहूलियतें दे कर उन में विकट का आत्मविश्वास भरा है.

इसे तोड़ने के लिए नए टोटके उन्हें चिता जलाने और पिंडदान करने देने के रचे जा रहे हैं. मंदिर, सत्संग, प्रवचन और तीर्थस्थलों में रौनक महिलाओं से है क्योंकि धर्म की सब से बड़ी ग्राहक यही हैं. इस से भी जी नहीं भरता तो अब उन्हें मुसलमानों का डर दिखा कर और कट्टर बनाया जा रहा है कि देखो, वे सिर्फ हमारे मंदिर ही नहीं लूटते बल्कि तुम्हारी इज्जत भी सरेआम लूटते हैं. इस और ऐसी कई दुश्वारियों से बचना है तो धर्म वाली पार्टी को वोट और पंडों को नोट देती रहो. भगवान तुम्हारा भला और रक्षा करेंगे.

मकसद ब्राह्मणवाद को प्रोत्साहन

छुआछूत पर रोशनी डालते हुए मोहन भागवत ने अलवर में यह भी स्पष्ट किया कि ‘हम अपने धर्म को भूल कर (काश कि ऐसा कभी हो पाए) स्वार्थ के अधीन हो गए हैं, इसलिए छुआछूत चला, ऊंचनीच का भाव बढ़ा. हमें इस भाव को पूरी तरह मिटा देना है. जहां संघ का काम प्रभावी है, संघ की शक्ति है वहां कम से कम मंदिर, पानी, श्मशान सब हिंदुओं के लिए खुले होंगे. यह काम समाज का मन बदलते हुए करना है, सामाजिक समरसता के माध्यम से परिवर्तन लाना है.’

मोहन भागवत की असल मंशा ब्राह्मणवाद को प्रोत्साहित करने की है और हमेशा से थी, उसे समझने से पहले एक नजर कुछ विद्वानों के जाति संबंधी कोटेशन पर डालें जो जातियों के मकड़जाल को सम?ाने के लिए बेहद जरूरी है-

इस देश के लोग पीढि़यों से सिर्फ जाति को देखते आ रहे हैं व्यक्तित्व देखने की उन्हें न आदत है, न परवा है.

-हजारीप्रसाद दिवेदी, हिंदी के नामचीन साहित्यकार

किसी भी धर्म का आधार कुतर्क होता है, जिस दिन धर्म तर्कों पर आ जाएगा उस दिन केवल मानवता पूजी जाएगी.

-अज्ञात

जातियां भारतीय आधुनिकता के लिए बड़ा खतरा हैं भले ही उन्होंने इस प्रक्रिया में मदद की हो. आज जाति उतनी ही लचीली बनी हुई है जितनी पहले कभी हो सकती थी.

-निकोलस बी डर्क्स, प्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्त्री, ‘कास्ट्स औफ माइंड’ किताब के लेखक

उन लोगों को फिर से शिक्षित होना चाहिए जो शिक्षित होने के बाद भी जाति के नाम पर भेदभाव करते हैं.

-दीक्षा रघुवंशी, एक आम महिला और व्लौगर

कमजोर आर्थिक हैसियत वाले दलितों के लिए जाति एक जोंक की तरह है जो एक बार चिपक जाती है तो उम्रभर पीड़ा देती है. आधुनिक सोच और प्रगति के बाद भी दलितों के साथ रोटीबेटी के संबंध आसानी से स्वीकार नहीं किए जाते.

– डा. साहेबलाल, रिटायर्ड प्रोफैसर, समाजशास्त्र

आप जाति की नींव पर कुछ नहीं बना सकते. आप एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते. जाति की नींव पर आप जो बनाएंगे वह टूट जाएगा और कभी पूरा नहीं होगा.

-डाक्टर भीमराव अंबेडकर, संविधान निर्माता

गौकशी के नाम पर हत्याएं

छुआछूत किसी कैंसर से कम नहीं जिस के आधी मिटने के इलाज का नीमहकीमी दावा कोई कर सके जैसा कि संघ प्रमुख की बातों से जाहिर होता है. जिन्हें मोहन भागवत के इस बयान के माने सम?ा न आएं उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 8 अगस्त, 2016 का हैदराबाद में दिया यह भाषण याद कर लेना चाहिए कि ‘मैं दलित भाइयों की जगह गोली खाने को तैयार हूं, मेरे दलित भाइयों को बख्शिए, हमला करना है तो मुझ पर करिए.’

गुजरात के उना में हुई दलित हिंसा के बाद उस वक्त देशभर में गौरक्षकों का तांडव सिर चढ़ कर बोल रहा था जो दलितों और मुसलमानों का गौकशी के नाम पर सरेआम कत्ल कर रहे थे. इस ताबड़तोड़ हो रही हिंसा की प्रतिक्रिया में दलितों के भी एकजुट और लामबंद होने से नरेंद्र मोदी घबरा गए थे. भाजपा कार्यकर्ताओं से रूबरू होते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि ‘मैं जानता हूं कि यह सामाजिक समस्या है. यह पाप का नतीजा है, जो हमारे समाज में घर कर गया है. समाज को जाति, धर्म और सामाजिक हैसियत के आधार पर बंटने नहीं देना चाहिए.’

धार्मिक है जाति की समस्या

पाप और पुण्य दोनों धार्मिक शब्द हैं जिन का इस्तेमाल देश में 2 नेता अकसर किया करते हैं. नरेंद्र मोदी के बाद पाप शब्द का इस्तेमाल करने वाले नेता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं जिन के प्रदेश में दलित अत्याचारों के ‘पाप’ देशभर में सब से ज्यादा होते हैं. नरेंद्र मोदी छुआछूत को सामाजिक समस्या करार देते हुए धर्म का बचाव करते नजर आते हैं तो मोहन भागवत इसे दूर करने के लिए सामाजिक समरसता का राग अलापा करते हैं.

अलवर में भी उन्होंने यह राग अलापा ताकि कोई उन के सनातन धर्म को कठघरे में खड़ा न करे कि छुआछूत दरअसल धार्मिक समस्या है. ‘मनुस्मृति’, ‘रामायण’ और ‘श्रीमद्भागवत गीता’ तक में ये निर्देश हैं कि शूद्र आखिर शूद्र हैं, निकृष्ट हैं. मनुस्मृति में तो साफतौर पर शूद्रों को तरहतरह से प्रताडि़त करने के उपाय और तरीके बतलाए गए हैं जिन्हें सवर्ण आज तक भूल नहीं पा रहे हैं. यह न भूलें कि पौराणिक शूद्र असल में आज के पिछड़े या ओबीसी के शूद्र का अर्थ शैड्यूल कास्ट कतई नहीं है. शैड्यूल कास्ट अछूत हैं, शूद्र अछूत नहीं हैं.

भारत में समाजशास्त्र के संस्थापक माने जाने वाले समाजशास्त्री डाक्टर जी एस धुर्वे के मुताबिक देश में कोई 3 हजार जातियां हैं और उन में भी दिलचस्प बात यह है कि हरेक जाति का अपना एक अलग देवता है.

‘भारत में जातियों का इतिहास’ किताब के लेखक श्रीधर केतकर की मानें तो केवल ब्राह्मणों की ही 800 जातियां हैं. यानी कुल जातियों की संख्या 10 हजार के लगभग होनी चाहिए. अब ये जातियां आई कहां से, इस पर इतिहासकारों में विकट के मतभेद हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जातियां धर्म की ही देन हैं जिन का आविष्कार ब्राह्मणों ने अपना दबदबा बनाए रखने के लिए किया था.

इस दबदबे के तहत व्यवस्था यह की गई कि कोई अंतरजातीय शादी नहीं करेगा और ऊंची जाति वाला छोटी जाति वालों से किसी भी तरह का बराबरी वाला सामाजिक व पारिवारिक व्यवहार नहीं करेगा. केवल व्यापारिक संबंध रखेगा.

यह ठीक है कि समय के साथ बहुतकुछ बदला है लेकिन वह इतना नहीं है कि हिंदुओं के सब से बड़े संगठन के मुखिया को इस बाबत कथित रूप से चिंता व्यक्त करनी पड़े. इस तरह के बयानों से मैसेज यह जाता है कि जातियां थीं, जातियां हैं और जातियां रहेंगी. इस सच से कोई मुंह मोड़ने की जुर्रत या हिम्मत न करे.

वैदिककाल में जातियों का ज्यादा जिक्र नहीं मिलता. मनु की वर्णव्यवस्था ने साबित किया कि जन्म के आधार पर जातियां मिलती हैं. आम लोगों को यह कम ही मालूम रहता है कि किस जाति के ब्राह्मण का क्या काम है लेकिन जाति के निचले पायदान पर खड़ी शूद्र जातियों के बारे में हर किसी को मालूम है कि मैला ढोने वाले किस जाति के हैं, चमड़े का काम करने वाले किस जाति के हैं और लोहार सुनार कौन सा काम करते हैं.

अलवर में जातियों की बात कर रहे मोहन भागवत ने ज्यादा नहीं कुछ समय पहले ही 5 फरवरी, 2023 को मुंबई के एक कार्यक्रम में कहा था, ‘‘भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं. उन में कोई जाति वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई वह गलत था. कुछ पंडितों ने शास्त्रों के नाम पर गलत जानकारी दी, हम जाति श्रेष्ठता के नाम पर भ्रमित हो गए. इस भ्रम को अलग रखना होगा. देश में विवेक, चेतना सभी एक हैं. उन में कोई अंतर नहीं. बस, मत अलगअलग हैं. धर्म को हम ने बदलने की कोशिश नहीं की.’’

अगर मोहन भागवत जातिवाद और छुआछूत को अभिशाप न सही गलत भी मानते हैं तो उन्हें चाहिए कि धर्म को बदलने की नहीं बल्कि खत्म करने की बात कहने की हिम्मत दिखाएं जिस से लोग अमनचैन से रह सकें और आरएसएस जैसे धार्मिक संगठनों की जरूरत ही न पड़े. लेकिन वे ऐसा करेंगे, इस में कई शक हैं क्योंकि उन का मकसद तो ब्राह्मणवाद को बनाए रखना है.

अब खुद क्यों बदले

साफ दिख रहा है कि खुद मोहन भागवत एक बहुत बड़े भ्रम के शिकार हैं, जो 20 महीनों में ही अपने कहे से बदल गए. हुआ सिर्फ इतना था कि उन के मुंबई में दिए गए बयान के बाद देशभर के ब्राह्मणों ने आसमान सिर पर उठा लिया था. जगहजगह मोहन भागवत का तरहतरह से विरोध ब्राह्मणवादी संगठनों और धर्मगुरुओं ने भी किया था.

जयपुर की सड़कों पर मोहन भागवत के खिलाफ इस आशय के पोस्टर चस्पां किए गए थे कि ब्राह्मण समाज को अपमानित करने वाले मोहन भागवत माफी मांगें. ग्वालियर में तो ब्राह्मण वकीलों ने उन के खिलाफ धारा 153 (बी), 295 और 505 के तहत पुलिस में रिपोर्ट तक दर्ज करा दी थी.

इस तीव्र चौतरफा विरोध से घबरा गए संघ प्रमुख को ज्ञान प्राप्त हो गया था कि इस देश में रहना है तो ब्राह्मण को ब्रह्मा के सिर की पैदाइश कहना ही होगा और इतना ही नहीं, उसी वर्ण व्यवस्था पर चलना भी होगा जिस के तहत क्षत्रिय ब्रह्मा की छाती, वैश्य उदर और शूद्र पांव से पैदा हुआ है तथा शूद्र का काम बाकी 3 वर्णों की सेवाचाकरी करना है. इस के बाद कभी उन्होंने यह गुस्ताखी नहीं की कि ब्राह्मणों ने शास्त्रों के नाम पर गुमराह किया.

धर्म की धुरी ब्राह्मणवाद

जातिवाद और छुआछूत अगर वाकई खत्म करना है तो सब से पहले इन की जड़ धर्म को खत्म करना होगा जिस की धुरी ब्राह्मण हैं. मोहन भागवत के मुंबई बयान से लगा तो यही था कि वे अब वैचारिक हिंदुत्व की बात कर रहे हैं वरना तो अंबेडकर का जिक्र करना एक सोचीसमझी चाल थी.

जब ब्राह्मणों को लगा कि आरएसएस हद से बाहर जा रहा है तो उन्होंने हफ्तेदस दिन में ही उस की मुश्कें इतनी कस दीं कि मोहन भागवत को राजनीतिक शैली में अपने कहे पर खेद व्यक्त करना पड़ा था.

परोक्ष रूप से उन्होंने अपनी गलती, जो ब्राह्मण निंदा सरीखा पाप थी, का प्रायश्चित्त करना शुरू किया और अलवर में दानदक्षिणा सहित संस्कारों का प्रचार करते नजर आए.

मुगल और ब्रिटिश काल की तरह आज भी सत्ता के सारे सूत्र ब्राह्मणों के हाथों में हैं, यह बात कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही है. पिछले दिनों बौद्धिक जगत में चर्चित रही किताब ‘डीब्राह्मणाइजिंग हिस्ट्री’ के लेखक ब्रजरंजन मणि की मानें तो भारत जैसे जातिग्रस्त देश में यह समस्या गंभीर है क्योंकि यहां अनादि काल से ज्ञान पर ब्राह्मणों का कड़ा नियंत्रण रहा है और इस ने उच्च जातियों का वर्चस्व रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है.

अन्य सभी वर्चस्वशाली समूहों की तरह ब्राह्मणों और उन से जुड़ी जातियों के लिए अपने विशेषाधिकारों को स्थायी बनाए रखने के लिए आवयश्क है कि वे अपने वर्चस्व को नैतिकता और नीतिपरायणता का चोला पहनाएं. ब्राह्मणवादी सत्ता की राजनीति मिथ्या ज्ञान के सृजन में सतत रत रहती है और इस तरह सृजित मिथ्या विचार, जिन्हें बारबार दोहराया जाता है, इस सत्ता को स्थायित्व प्रदान करते हैं.

इन क्लिष्ट यानी कठिन शब्दों की यह लड़ाई वामपंथी और दक्षिणपंथी लेखकों के बीच आजादी के पहले से ही चल रही है जिस के तहत दक्षिणपंथी लेखक यह साबित करने की जुगत में रहते हैं कि भारत में जातिवाद औपनिवेशिक सत्ता अंगरेजों की देन है.

इस साजिश को गैरदक्षिणपंथी लेखक उधेड़ते रहते हैं. यह सबकुछ फुजूल नहीं है बल्कि इस लिहाज से जरूरी है कि लोग जातियों और छुआछूत का सच जानें कि वह ऊपर कहीं से नहीं आया है और न ही उसे मुगल या अंगरेज अपने साथ लाए थे बल्कि यह धर्मग्रंथों से आई साजिश है जिन्हें ब्राह्मणों ने लिखे.

इन्हीं ब्राह्मणों को खुश रखने के लिए भगवा गैंग 40 साल से मंदिरमंदिर का खेल खेल रहा है और आरएसएस सहित तमाम छोटेबड़े हिंदूवादी संगठन इस मुद्दे पर एक हैं जिस पर व्यवधान 4 जून, 2024 के नतीजों ने डाला तो सुर सभी के बदल रहे हैं.

सियासी तौर पर देखें तो ‘इंडिया ब्लौक’ इसी के चलते संविधान को सीने से लगाए बारबार उस की दुहाई दे रहा है और जातिगत जनगणना की मांग पर भी अड़ा है जिस से पता चले कि जिस की जितनी आबादी उतनी उस की भागीदारी वाली थ्योरी परवान चढ़ सके और यह हकीकत भी सामने आए कि दरअसल देशभर में ब्राह्मणों की आबादी 3 फीसदी के लगभग और सवर्णों की 15 फीसदी के ही लगभग है.

10 साल नरेंद्र मोदी से पिछड़ने के बाद राहुल गांधी उन पर पहली दफा भारी पड़ रहे हैं तो इस की एकलौती वजह उन का अपने पूर्वज जवाहरलाल नेहरू के नक्शेकदम पर चलने का फैसला है कि सारे सवर्ण एक तरफ और दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाएं व उन का स्वाभिमान एवं अधिकार एक तरफ, जो कुल आबादी का 85-90 फीसदी हिस्सा होते हैं.

खेत की जिम्मेदारी बागड़ को

हिंदू या सनातन धर्म के ये दोनोंतीनों प्रमुख ठेकेदार भागवत मोदी और योगी यह तो मानते हैं कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव खत्म करने की जिम्मेदारी सवर्णों की है लेकिन ये लोग धर्मग्रंथों का भूले से भी जिक्र नहीं करते कि फसाद की असल जड़ यहां है जिस की फसल इफरात से फलफूल रही है और इस की गवाही सरकारी आंकड़े भी देते हैं.

अपने दूसरे कार्यकाल के चौथे साल में सरकार ने संसद में स्वीकारा था कि दलित अत्याचारों के मामले सालदरसाल बढ़ रहे हैं.

भाजपा के ही वरिष्ठ सांसद पी पी चौधरी के सवालों के जवाब में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ने लिखित जवाब में बताया था कि पिछले 4 वर्षों में दलित अत्याचारों के मामले कुछ इस तरह बढ़े हैं :

साल 2018 में अनुसूचित जाति के लोगों पर अत्याचार के 42,793 मामले दर्ज हुए थे जो 2021 में बढ़ कर 50,900 हो गए थे.

यह जान कर कतई हैरानी नहीं होती कि दलित अत्याचारों के सब से ज्यादा मामले भाजपाशासित राज्यों में दर्ज हुए.

सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 2018 में अनुसूचित जाति के लोगों पर अत्याचार के 11,924 मामले दर्ज हुए थे, 2019 में यह संख्या 11,829 हो गई थी. 2020 में भी यह बढ़ोतरी जारी रही और इस साल दलित अत्याचार के 12,714 मामले दर्ज हुए जो 2021 में 13,146 हो गए.

दूसरे नंबर पर राजस्थान रहा जहां 2018 में दलित अत्याचारों के 4,607, 2019 में 6,794, 2020 में 7,017 और 2021 में 7,524 मामले दर्ज हुए.

तीसरे नंबर पर रहे मध्य प्रदेश में 2018 में दलित अत्याचार के 4,753, 2019 में 5,300, 2020 में 6,899 और 2021 में 7,524 मामले दर्ज हुए.

इन मामलों में आदिवासियों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों के साथ हुए अत्याचार के मामले शामिल नहीं हैं. इन मामलों में मध्य प्रदेश के इसी साल के वे 3 मामले शामिल नहीं हैं जिन में दलित आदिवासी युवकों को दबंगों ने पेशाब पिलाया. ऐसे हैवानियतभरे मामलों में उत्तर प्रदेश भी पीछे नहीं है. ताजा उदाहरण इसी साल 16 जनवरी का है जिस में लखनऊ के इंदिरा नगर में एक दलित युवक के मुंह पर दबंगों ने पेशाब किया था.

इस के बाद के आंकड़े जब सार्वजनिक होंगे तब होंगे लेकिन यह साबित करने की जरूरत नहीं है कि भाषणों से यह समस्या हल होनी होती तो कभी की हो चुकी होती. जब तक लाखों ऊंची जाति वाले धर्म की बात नहीं करेंगे तब तक उन की आवाज नक्कारखाने में तूती सरीखी साबित होगी जो दिखावटी हमदर्दी और ड्रामा ज्यादा लगती है.

इन्होंने क्या गलत कहा

ये लोग भले ही अपने वोटबैंक और धर्म के दुकानदारों से लगाव के चलते असल वजह से किनारा करते रहें लेकिन उत्तर प्रदेश के स्वामीप्रसाद मौर्य, बिहार के चंद्रशेखर यादव और तमिलनाडु के उदयनिधि स्टालिन जैसे दर्जनभर नेता वक्तवक्त पर असल वजह बताते रहे हैं जिन पर सवर्ण हिंदू हायहाय करते चढ़ाई करते रहे हैं.

पिछले साल 2 सितंबर को स्टालिन ने बेहद नपेतुले शब्दों में सनातन धर्म की कलई यह कहते खोल दी थी कि सनातन धर्म लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बांटने वाला विचार है. इसे खत्म करना मानवता और समानता को बढ़ावा देना है. बकौल उदयनिधि, जिस तरह हम मच्छर, डेंगू, मलेरिया और कोरोना को खत्म करते हैं उसी तरह सनातन धर्म का विरोध करना काफी नहीं है, इसे समाज से पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए.

इस बयान से स्वयंभू समाज सुधारक, कथित उदारवादी सवर्णों को भी मिर्ची लगी थी, फिर कट्टर हिंदुओं की तो बात करना ही फुजूल है जिन्होंने स्टालिन को राक्षस करार देते सनातन धर्म को नष्ट कर देने का आरोप लगाया था. स्टालिन की मंशा तकनीकी तौर पर वैज्ञानिक किस्म की थी कि अगर खटमल खत्म नहीं किए जा सकते तो खटिया में ही आग लगा दो जिस से न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी.

अब उन्हें चेन्नई से दिल्ली तक छोटीबड़ी अदालतों की परिक्रमा करनी पड़ रही है. इस से बड़ी दिक्कत उन्हें जान से मार डालने की मिल रही धमकियों की है.

उलट इस के, दक्षिणपंथी इसी सनातन धर्म के सहारे चल और पल रहे हैं जिन की नजर और नजरिए में छुआछूत व जातिगत मुद्दे बेदम हैं. इन पर चर्चा करना ही व्यर्थ है क्योंकि अब यह सब खत्म हो चुका है. इन की नजर में संसद में सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़े मिथ्या हैं, रोजमर्रा की दलित अत्याचार की खबरें बकवास हैं. उन के अनुसार तो इन के प्रकाशन व प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए. एससी एसटी कानून खत्म कर देना चाहिए, फिर दलित अत्याचार खुदबखुद खत्म हो जाएगा. अगर अत्याचारों की बात नहीं होगी तो समझ लो कि अत्याचार हो ही नहीं रहे.

4 जून के नतीजों ने हिंदूवादियों को सकते में डाल दिया है क्योंकि दलितों ने भाजपा को 14 और 19 की तरह अंधे हो कर वोट नहीं किया. सो, चिंता करना और होना तो लाजिमी है, इसलिए इस गंभीर, संवेदनशील और अमानवीय समस्या को सामाजिक समस्या करार देते भाषणों और प्रवचनों से सुलझाने की नाकाम कोशिश, जो हकीकत में साजिश है, जारी है.

इन की दिक्कत, कुछ फीसदी ही सही, दलितों का जागरूक हो जाना है और जाहिर है इस के लिए नेहरू, अंबेडकर और उन का बनाया समानता का अधिकार देने वाला संविधान और कानून दोषी है, जिस की महिमा और चमत्कार राहुल गांधी 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान दिखा चुके हैं और तमाम आलोचनाओं के बाद भी संविधान का पल्लू नहीं छोड़ रहे. सो, खतरा धर्म के व्यापारियों, पंडेपुजारी और पेशवाओं पर भी मंडरा रहा है जिन का पेट ही मंदिरों के चढ़ावे से पलता है.

इस पेट को पालने के लिए मोहन भागवत ने अलवर से हिंदुओं से दान करने की भी यह कहते अपील कर डाली कि हिंदू होने का अर्थ दुनिया में सब से उदार व्यक्ति होना है जो सभी को गले लगाता है, सभी के प्रति सद्भावना दिखाता है और जो महान पूर्वजों का वंशज है. ऐसा व्यक्ति शिक्षा का उपयोग मतभेद पैदा करने के लिए नहीं, बल्कि ज्ञान बांटने के लिए करता है. वह धन का उपयोग भोग विलास के लिए नहीं बल्कि दान के लिए करता है. वह शक्ति का उपयोग कमजोर लोगों की रक्षा के लिए करता है.

कहां हैं शक्ति और धन

नेता बिना सोचेसमझे कुछ भी बोले तो उन्हें एक बार नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन मोहन भागवत बेहतर जानतेसमझते हैं कि ज्ञान, धन और ताकत के मामलों में दलित सवर्णों के आगे रत्तीभर भी नहीं ठहरता. ज्ञान, धन और शक्ति ही वे हथियार हैं जिन के दम पर सदियों से दलितों का शोषण होता आ रहा है. आरक्षण के चलते मुट्ठीभर दलित शिक्षित हो कर सरकारी नौकरियों में आ जरूर गए हैं लेकिन उन्हें मुख्यधारा में शामिल होने की मान्यता तभी मिलती है जब वे मंदिरों में दक्षिणा चढ़ाने लगते हैं और पंडेपुजारियों को तगड़ी फीस दे कर कर्मकांडी बन जाते हैं. लेकिन इस के बाद भी दलित होने का ठप्पा उन पर लगा रहता है.

दानदक्षिणा वगैरह तो एक तरह का धार्मिक टैक्स है जिस के एवज में उन्हें सरेआम बेइज्ज्त न करने का आश्वासन मिलता है, समानता नहीं मिलती.

रही बात धन की, तो वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश की संपत्ति का 88.4 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा लगभग
15 फीसदी वाली ऊंची जाति वालों के पास है जबकि 20 फीसदी दलितों के पास यह हिस्सा केवल 2.6 फीसदी ही है.

विशालकाय 52 फीसदी आबादी वाले पिछड़े वर्ग के पास महज 9 फीसदी हिस्सा देश की कुल संपत्ति का है.

एक भाषण में राहुल गांधी ने कहा था कि अगर ‘इंडिया ब्लौक’ की सरकार बनी तो आर्थिक सर्वे कराया जाएगा. इस के जरिए यह पता चलेगा कि देश के संसाधनों पर किस जातिसमुदाय का कितना हक है. उन्होंने दावा किया था कि देश का 40 फीसदी धन केवल एक फीसदी लोगों के हाथों में है.

राहुल गांधी या उन के जैसे किसी की सरकार बनेगी इस में संदेह है और बन भी गई तो वह सरकार संपत्ति का बंटवारा कर पाएगी, यह असंभव है.

धनकुबेर, जिन के हाथों में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ‘मीडिया’ की डोर बंधी है, भी नहीं चाहते कि देश और समाज से जातिगत भेदभाव और छुआछूत खत्म हों क्योंकि ये भी मन से सनातनी हैं. लोगों को पूजापाठी और अंधविश्वासी बनाए रखने में इन का योगदान भी कम नहीं जो आएदिन ये मंदिरों में कर्मकांड, पूजापाठ करते दक्षिणा देते हैं. अपनी संतानों की शादियों में ये पानी की तरह पैसा बहाते हैं और सनातनी धर्मगुरुओं की भी चरणवंदना करते नजर आते हैं जिस से मैसेज यह जाए कि पैसा मेहनत से नहीं बल्कि पूजापाठ और भाग्य से आता है और इस जन्म में तुम्हारे साथ जो अत्याचार धर्म और जाति की बिना पर हो रहे हैं वे पूर्वजन्मों के कर्मों की सजा है जिसे सब्र से पूजापाठ करते भुगत लो.

हिंदूवादी संगठनों का गठजोड़

पुराने जमाने के ऊंची जातियों के गठजोड़ की तरह उद्योगपतियों, नेताओं और हिंदूवादी संगठनों का आज का गठजोड़ न केवल दलितों के लिए बल्कि सवर्णों के लिए भी घातक साबित हो रहा है. लेकिन इस की चिंता या परवा किसे है क्योंकि देश का सबकुछ इन्हीं की मुट्ठियों में है तो कोई क्या कर लेगा.

यह न भूलें कि सवर्ण औरतें और पिछड़े व दलित अब पढ़ कर स्किल पा कर उत्पादकता का स्रोत बन गए हैं. आज जातिवाद के चक्कर में उन का उपभोग करने में हिचकिचाहट सब शक्तिशालियों में दिख रही है. भारत में प्रति व्यक्ति आय आज भी गरीब से गरीब देशों वाली है. हमारी जनसंख्या ज्यादा है, केवल इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ी है, उत्पादकता नहीं.

आज जातिवाद के कारण एक आम हिंदुस्तानी चीनी से 5 गुना कम है, अमेरिकी से 30 गुना कम और सिंगापुर निवासी से 55 गुना कम है. 1947 के आसपास चीनी और सिंगापुरी हमारे बराबर या कम थे. 1980 के बाद हम ने जाति को बढ़ावा दिया, धर्म को राजनीति का मोहरा बनाया. आज उसी का फल भोग रहे हैं. जाति ही नहीं आर्थिक भेदभाव बढ़ रहा है, घट नहीं रहा.

क्यों आती है शरीर से बदबू

लाखों लोग शरीर से आने वाली दुर्गंध की समस्या का सामना करते हैं, खासकर गरमी के मौसम में. अधिकतर लोगों को लगता है कि शरीर से बदबू या दुर्गंध पसीना उत्पन्न होने के कारण होती है. मगर यह आधी हकीकत है. दरअसल हमारे शरीर से बदबू आने का कारण शरीर पर गंध या बदबू पैदा करने वाले बैक्टीरिया की मौजूदगी है. शरीर की त्वचा में स्थित बैक्टीरिया एपोक्राइन ग्लैंड से निकलने वाले पसीने में स्थित प्रोटीन और फैट को खाते हैं. शरीर के बालों वाले और नम हिस्से में लाखों बैक्टीरिया होते हैं जो शरीर में रहते हैं. ये बैक्टीरिया गंधहीन एपोक्राइन पसीने के यौगिकों को बदबूदार गंध में बदल देते हैं.

पसीने की बदबू शारीरिक स्वास्थ्य और आत्मविश्वास को प्रभावित करने वाली एक आम समस्या है. यह दिनभर के कामकाज और रोजमर्रा के तनाव के कारण भी हो सकती है. शरीर से आने वाली पसीने की बदबू न केवल हमारा आत्मविश्वास कम करती है बल्कि निजी स्वास्थ्य पर भी असर डालती है. जबकि एक सुगंधित शरीर न केवल आत्मविश्वास को बढ़ाता है बल्कि लोगों के बीच आप के प्रति आकर्षण को भी बढ़ाता है.

इसलिए शरीर की गंध को रोकना और सुरक्षा के उचित तौरतरीकों को अपनाना बेहद जरूरी है.

शरीर से बदबू आने के कुछ और कारण

कपड़ों का गलत चयन भी इस की वजह बन सकता है. सिंथैटिक कपड़े पसीना नहीं सोख पाते जबकि कौटन फैब्रिक बहुत जल्दी पसीना सोख लेते हैं. अगर आप को बहुत अधिक पसीना आता है तो बेहतर होगा कि आप रेयोन और पोलिएस्टर जैसे फैब्रिक का इस्तेमाल करने से बचें. वरना पसीना न सूखने की वजह से शरीर में बैक्टीरिया पनपने लगते हैं और बदबू आनी शुरू हो जाती है.

तनाव की वजह से भी दुर्गंध आती है. तनाव में होने पर हमारे शरीर से बहुत अधिक मात्रा में पसीना निकलता है. इस दौरान शरीर में कौर्टिसोल नाम का हार्मोन बनता है जिस की वजह से ज्यादा मात्रा में निकला पसीना बैक्टीरिया के संपर्क में आने के बाद बदबू की वजह बनता है.

गलत खानपान की वजह से भी शरीर की बदबू बढ़ सकती है. ज्यादा कैफीन या प्याज, लहसुन का प्रयोग इस समस्या को बढ़ा सकता है.

पसीने के अलावा शरीर में पानी की कमी होने पर भी शरीर से बदबू आती है.

शरीर की दुर्गंध को कैसे करें दूर

रोजाना 2 बार अच्छे से स्नान करें. नहाने और त्वचा को रगड़ने से कीटाणुओं, गंदगी और दुर्गंध को दूर करने में मदद मिलती है. शरीर के सभी हिस्सों को अच्छी तरह से धोना चाहिए खासकर गरदन, बगल और पैरों को. ये बौडी के वे एरिया हैं जहां कीटाणु जमा होते हैं और दुर्गंध पैदा करते हैं. नहाने के पानी में कोलोन मिलाने से शरीर की बदबू दूर होती है. चंदन, गुलाब और खस जैसे प्राकृतिक तत्त्वों के गुण शरीर की बदबू दूर करने में मदद करते हैं.

ऐसे में शौवर जेल और बौडी शैंपू आप के काम आ सकते हैं. नहाने के पानी में गुलाब जल मिलाएं. यह एक नैचुरल कूलर है. नहाने के पानी में गुलाब जल मिलाने से शरीर से अच्छी महक आती है और ताजगी का एहसास होता है. पसीने को त्वचा पर जमा न होने दें. अपने बगल के बालों की नियमित सफाई करें. सूती कपड़े पहनें. ढीले और आरामदायक अंडरगारमैंट्स पहनें.

अच्छी तरह से साफ किए, धुले कपड़े पहनने से आप के शरीर की दुर्गंध को दूर करने में मदद मिल सकती है. कपड़ों को स्वच्छ और गंधमुक्त रखने के लिए लौन्ड्री सैनिटाइजर का उपयोग करें.

डाइट में करें बदलाव

शरीर से अधिक पसीना आने से बदबू आने लगती है. ऐसे में डाइट में बदलाव कर आप शरीर की दुर्गंध से बच सकते हैं. रोजाना नीबू पानी पिएं. इस से ठंडक का एहसास होगा और शरीर से पसीना कम आएगा. खाना खाने से पहले और बाद में अदरक की चाय पिएं. ताजी अदरक की जड़ को बारीक काट लें और चुटकीभर नमक के साथ मिला लें.

भोजन से पहले इसे थोड़ा सा चबा लें. भोजन के साथ गरम पानी पीने से भी मदद मिल सकती है. लाइट और कम मसाले वाली चीजें खाएं. एक बार में ज्यादा खाना खाने के बजाय छोटेछोटे पोर्शन में खाएं.

परफ्यूम और डिऔडरैंट्स प्रयोग करें

परफ्यूम और डिऔडरैंट्स दुर्गंध को रोकने में मदद कर सकते हैं. सही डिऔडरैंट्स का चयन करें और उन का नियमित रूप से उपयोग करें. डिऔडरैंट आप के शरीर पर पसीने से पैदा होने वाली दुर्गंध को कम करता है. डिऔडरैंट यह सुनिश्चित करता है कि पसीने वाली त्वचा पर रोगाणुरोधी एजेंट लगाए जाएं. वे एजेंट गंध पैदा करने वाले बैक्टीरिया को मारते हैं या कम से कम धीमा कर देते हैं.

स्वच्छता का खयाल रखें

हार्मोनल परिवर्तन भी शरीर की गंध का एक कारण हो सकता है. स्त्रियों में गर्भावस्था या मेनोपोज के दौरान और पुरुषों में यौन संबंधों के दौरान बदलते हुए हार्मोंस गंध की वजह बन सकते हैं.

बेहतर आदतों को अपनाते हुए नियमित स्वच्छता बरतने और एंटीसैप्टिक उत्पादों का उपयोग कर के आप शरीर की दुर्गंध को कम कर सकते हैं. आप नहाने के लिए रोजाना डेटौल बौडीवाश का इस्तेमाल कर सकते हैं. इस के साथ ही हैंड सैनिटाइजर व वाइप्स का इस्तेमाल भी स्वच्छता में मददगार होगा.

तनाव से रहें दूर

तनाव को नियंत्रित करने से शरीर की दुर्गंध कम हो सकती है. तनाव कम करने के लिए नियमित रूप से व्यायाम करें. सकारात्मक सोचें और अच्छी जीवनशैली बनाए रखें.

शरीर की दुर्गंध दूर करने के घरेलू उपाय

कुछ नीबू लें और उन्हें निचोड़ कर उन का रस एक कटोरे में निकाल लें. स्प्रे बोतल को नीबू के रस से भरें. इस बोतल की मदद से नीबू के रस को अपनी दुर्गंध देने वाली त्वचा पर स्प्रे करें. अपनी त्वचा पर नीबू के रस का छिड़काव करने के 5 मिनट बाद एक साफ कपड़े से अपनी त्वचा को पोंछ लें.

नीम के कुछ पत्ते लें और उन्हें पीस कर एक अच्छा पेस्ट बना लें. नीम के कुचले हुए पत्तों को एक छलनी में रखें और इस का रस प्याले में छान लें. स्प्रे बोतल में नीम का रस भरें. नीम के रस की कुछ बूंदों को अपनी त्वचा पर स्प्रे करें और इसे पोंछने के बाद इसे कम से कम एक या दो मिनट तक लगा रहने दें. नीम में उच्च औषधीय गुण और जीवाणुरोधी गुण होते हैं, त्वचा पर नीम के रस की उपस्थिति गंध पैदा करने वाले बैक्टीरिया और उन के विकास को गायब कर देती है.

फिटकरी का एक टुकड़ा लें और उसे पानी में डुबो दें. फिटकरी के टुकड़े को त्वचा के बदबूदार हिस्से पर मलें और ऐसे ही रखें. फिटकरी में उच्च एंटीसैप्टिक और जीवाणुरोधी गुण होते हैं.

सफेद सिरके का एक छोटा कटोरा लें और एक कौटन को सिरके में डुबोएं. सिरका त्वचा के पीएच को कम करता है और त्वचा के वातावरण को सामान्य करता है. सिरके में उच्च अम्लीय गुण होते हैं. गंध पैदा करने वाली त्वचा पर इस का प्रयोग गंध पैदा करने वाले बैक्टीरिया को मारता है और शरीर को एक बदबूदार गंध को छोड़ने से रोकता है.

पानी में सेंधा नमक मिला कर नहाने से बैक्टीरियल इन्फैक्शन को कम करने में मदद मिलती है. यह एक्टिव बैक्टीरिया को मारता है और पसीने की दुर्गंध को कम करता है. इस के अलावा सेंधा नमक की खास बात यह है कि यह शरीर पर एक्ने और दाने भी कम करने में मददगार है.

युवा रास्ते खुद बनाएं, पेरैंट्स के भरोसे न रहें

बच्चों को इस दुनिया में लाने से ले कर उन की परवरिश, कैरियर और जिंदगी में सैटल करने के सफर में पेरैंट्स चौबीसों घंटे एक टांग पर खड़े रह कर बच्चों के लिए सबकुछ करते हैं और इस दौरान पेरैंट्स को कई तरह की समस्याओं व परेशानियों का सामना करने के साथ अपनी कई इच्छाओं का त्याग भी करना पड़ता है. कई बार तो जिम्मेदारी के इस सफर में वे अपनी जिंदगी जीना ही भूल जाते हैं.

बच्चे के पैदा होने से ले कर उस के स्कूल में पहला कदम रखने और बड़े हो कर जीवन की गाड़ी खुदबखुद चलाने तक की प्रक्रिया में मातापिता बच्चे का हाथ थामे रखते हैं. लेकिन जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वे अपनी जिंदगी, अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं जोकि बिलकुल सही है.

बच्चे अपनी जिम्मेदारियां खुद उठाना सीखें

बच्चों को यह बात अच्छी तरह अपने दिलोदिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि पेरैंट्स की भी अपनी एक जिंदगी है. पेरैंट्स बनने का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी पूरी जिंदगी आप पर न्योछावर कर दें. माना कि बच्चों को बड़ा करना, पढ़ानालिखाना, अपने पैरों पर खड़ा करना उन का कर्तव्य है लेकिन बच्चों को भी चाहिए कि वे हर बात के लिए पेरैंट्स पर निर्भर न रहें और अपने जीवन की राह के रास्ते खुद बनाएं.

बच्चों को यह समझना होगा कि अब वे दूधपीते बच्चे नहीं रहे जिन के पीछे मांबाप दूध की बोतल ले कर घूमते थे. उन्हें अपनी जिम्मेदारियां खुद उठानी सीखनी होंगी. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, दोनों को एक समय के बाद घर के कामों को सीखना होगा, मांबाप का हाथ बंटाना होगा. इस की शुरुआत अपना टिफिन बनाने, अपना कमरा साफ करने, घर की ग्रौसरी खरीदने, कपड़े धोने से करनी होगी. ऐसा करने से वे जिम्मेदार बनेंगे जो उन के भविष्य में भी मदद करेगा और उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाएगा.

आर्थिक आत्मनिर्भरता जरूरी

एक उम्र के बाद बच्चे हर छोटीछोटी जरूरत के लिए पेरैंट्स के आगे हाथ न फैलाएं. खुद की जरूरतें बड़ी हैं तो उस के लिए पेरैंट्स पर निर्भर न रह कर खुद अपनी आमदनी का जरिया बनाएं. पार्टटाइम काम करें, ट्यूशन लें.

बदलनी होगी सोच

भारत के विपरीत विदेशों में बच्चे छोटी उम्र में ही आत्मनिर्भर बन जाते हैं. 5-6 साल की उम्र से वे मांबाप से अलग बैडरूम में सोते हैं और 15-16 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते तो वे अलग घर में रहने लगते हैं और इसी उम्र से वे अपने निर्णय खुद लेने लगते हैं परंतु भारतीय परिवारों में बच्चे चाहे जितना मरजी बड़े हो जाएं वे खुद को बच्चा ही समझते हैं. हर काम के लिए मांबाप का मुंह ताकते हैं जोकि गलत है. बच्चों को यह समझना होगा कि पेरैंट्स की भी अपनी जिंदगी है, उन्हें भी अपनी जिंदगी में खुशियां पाने का अधिकार, अपने शौक पूरे करने का अधिकार है.

जरूरत से अधिक पेरैंट्स पर निर्भर न रहें

जहां जरूरत हो, वहां पेरैंट्स की मदद लेने में कोई बुराई नहीं है लेकिन, ‘क्योंकि पेरैंट्स तो हैं ही वे हमारी मदद कर ही देंगे, हर मुसीबत में हमारी ढाल बन कर खड़े हो जाएंगे,’ इस सोच को पाल कर अपने शरीर और दिमाग को काम करने का मौका न देना और हर काम व जरूरत के लिए पेरैंट्स पर निर्भर रहना आप के लिए भविष्य में मुश्किलें बढ़ाएगा. इसलिए, अपनी सोचसमझ से अपनी प्रौब्लम का सोल्यूशन निकालने की कोशिश करें.

पेरैंट्स इमोशनल फूल नहीं, समझदार हैं

आज पेरैंट्स फिजिकली सक्षम हैं तो वे बच्चों की मदद कर पा रहे हैं लेकिन एक समय ऐसा आएगा जब उन्हें आर्थिक, शारीरिक, इमोशनल मदद की जरूरत होगी, उस का इंतजाम भी उन्हें समय रहते कर के रखना है इसलिए वे बेवकूफ बन कर अपने जीवन की सारी पूंजी सिर्फ बच्चों पर लगाने की गलती नहीं करेंगे. पेरैंट्स ने आप को अच्छी परवरिश, शिक्षा और अच्छे संस्कार दिए हैं पर वे अपने जीवन की सारी पूंजी आप पर न्योछावर नहीं करेंगे. आखिर, उन्हें भी अपनी आगे की जिंदगी अच्छी तरह जीनी है.

ताकि बच्चों को आगे चल कर न होना पड़े दुखी

युवा पेरैंट्स को अपनी हर इच्छापूर्ति का माध्यम न मानें और न ही यह भ्रम पालें कि पेरैंट्स पूरी जिंदगी आप को पालेंगे. एक समय के बाद अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए आप को हाथपैर चलाने पड़ेंगे, आप को एफर्ट्स करने होंगे. पेरैंट्स अपनी खुशियों को भी समय देंगे, अपने भविष्य की भी प्लानिंग करेंगे. युवा शादी के बाद अकेले रहें, अपना घर खुद बनाएं, अपनी गृहस्थी खुद जमाएं. हर समय सबकुछ पकापकाया, जमाजमाया मिलेगा, इस उम्मीद में न रहें. पेरैंट्स ने आप के लिए जितनी मेहनत करनी थी, कर दी, अब आप अपनी जिंदगी की गाड़ी खुद चलाना सीखें.

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