बच्चों को इस दुनिया में लाने से ले कर उन की परवरिश, कैरियर और जिंदगी में सैटल करने के सफर में पेरैंट्स चौबीसों घंटे एक टांग पर खड़े रह कर बच्चों के लिए सबकुछ करते हैं और इस दौरान पेरैंट्स को कई तरह की समस्याओं व परेशानियों का सामना करने के साथ अपनी कई इच्छाओं का त्याग भी करना पड़ता है. कई बार तो जिम्मेदारी के इस सफर में वे अपनी जिंदगी जीना ही भूल जाते हैं.

बच्चे के पैदा होने से ले कर उस के स्कूल में पहला कदम रखने और बड़े हो कर जीवन की गाड़ी खुदबखुद चलाने तक की प्रक्रिया में मातापिता बच्चे का हाथ थामे रखते हैं. लेकिन जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वे अपनी जिंदगी, अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं जोकि बिलकुल सही है.

बच्चे अपनी जिम्मेदारियां खुद उठाना सीखें

बच्चों को यह बात अच्छी तरह अपने दिलोदिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि पेरैंट्स की भी अपनी एक जिंदगी है. पेरैंट्स बनने का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी पूरी जिंदगी आप पर न्योछावर कर दें. माना कि बच्चों को बड़ा करना, पढ़ानालिखाना, अपने पैरों पर खड़ा करना उन का कर्तव्य है लेकिन बच्चों को भी चाहिए कि वे हर बात के लिए पेरैंट्स पर निर्भर न रहें और अपने जीवन की राह के रास्ते खुद बनाएं.

बच्चों को यह समझना होगा कि अब वे दूधपीते बच्चे नहीं रहे जिन के पीछे मांबाप दूध की बोतल ले कर घूमते थे. उन्हें अपनी जिम्मेदारियां खुद उठानी सीखनी होंगी. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, दोनों को एक समय के बाद घर के कामों को सीखना होगा, मांबाप का हाथ बंटाना होगा. इस की शुरुआत अपना टिफिन बनाने, अपना कमरा साफ करने, घर की ग्रौसरी खरीदने, कपड़े धोने से करनी होगी. ऐसा करने से वे जिम्मेदार बनेंगे जो उन के भविष्य में भी मदद करेगा और उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाएगा.

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