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अंधविश्वास : यह है हमारा शिल्पशास्त्र (भाग-3)

पिछले 3 अंकों में आप ने भूमि की जाति, भूमि से भविष्य और भूमि पर कब निर्माण करें के बारे में पढ़ा था जो बेसिरपैर का था. अब आगे शिल्पशास्त्र में क्या कहा गया, उसे पढि़ए-

 

तिथियों के तुक्के

 

जब शिल्पशास्त्र के नियमों के अनुसार तिथि और वार चुन कर घर बनाना शुरू किया जाता है तो यह सवाल उठता है कि क्या वाकई इन में कोई सचाई है या यह मात्र अंधविश्वास है?

हमारा वास्तुशास्त्र/शिल्पशास्त्र इतनी गहराई तक गया है कि हंसी भी आती है और रोना भी. महीनों की कथा सुन कर अब वह तिथियों पर उतर आया है. देशी महीने के प्रत्येक पक्ष में 15 तिथियां होती हैं. उन में से दूसरी, तीसरी, 7वीं, 8वीं, और 13वीं केवल ये 5 तिथियां शुभ हैं. सो घर बनाने का काम इन्हीं तिथियों में करें (शिल्पशास्त्रम् 1/28). इन के लिए जंतरी वाले की शरण में जाएं और उसे दानदक्षिणा दें, क्योंकि दैनिक व्यवहार में तो कोई इन तिथियों को पूछता नहीं.

बाकी तिथियों में क्या होता है? शिल्पशास्त्र का कथन है :

गृह कृत्वा प्रतियदि दु:खं प्रान्पोति नित्यश:,

अर्थक्षयं तथा षष्ठयां पंचम्यां चित्रचांचल्य:.

चौरभीति दशम्यां तु चैकादश्यां नृपात्मयम,

पत्नीनाशस्तु पौर्णमास्यां स्नाननाश: कुहौ तथा

रिक्तायां सर्वकार्यानि नाशमायान्ति सर्वदा.

-शिल्पशास्त्रम् 1/26-28

पहली तिथि को यदि घर बनाना शुरू किया जाए तो नित्य दुख होता है. छठवीं को किया जाए तो धन का नाश, 5वीं को किया जाए तो चित्त अस्थिर. (ध्यान रहे, शिल्पशास्त्र ने जो ‘चित्रचांचल्यर्’ लिखा है वह गलत है. सही शब्द है- ‘चित्तचांचल्यम्’), 10वीं को किया जाए तो चोरी होती है, 11वीं को किया जाए तो राजभय होता है, पूर्णिमा को किया जाए तो पत्नी का विनाश, अमावस्या को किया जाए तो वह स्थान ही हाथ से छिन जाता है जहां घर बनाना हो, चौथी, नौवीं व तेरहवीं को किया जाए तो सब कार्य बिगड़ जाते हैं.

दुनियाभर में लोग अपनी सुविधा के अनुसार घर बनाना शुरू करते हैं. वे हिंदू जंतरी से न तिथियां जानने की कोशिश करते हैं, न महीने, फिर भी दुनिया भली प्रकार से चल रही है.

अपने यहां दहेज कम लाने वाली बहुओं, जो उन घरों के लड़कों की पत्नियां होती हैं, को जला कर मारा जाता है. अपने यहां जो इस तरह का पत्नीनाश होता है, क्या वह इसीलिए होता है कि शिल्पशास्त्र के नियमों का उल्लंघन कर के उस घर को पूर्णिमा तिथि को या आश्विन मास में बनाना आरंभ किया गया होता है?

फिर तो ऐसे अपराधियों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि पत्नी की मृत्यु तो पूर्णिमा तिथि या आश्विन मास के कारण होती है. असली दोषी तो वे दोनों हैं. ‘बेचारा’ हत्यारा तो वास्तुशास्त्र के क्रोध का ऐसे ही शिकार हो गया है.

अपना शिल्पशास्त्र औंधी खोपड़ी का प्रतीत होता है, क्योंकि पूर्णिमा को अथवा आश्विन में घर बनाना शुरू कोई करता है, परंतु उस के दंडस्वरूप मरता कोई और है. मरने वाली पत्नी ने तो कुछ भी नहीं किया होता. कई मामलों में तो भावी ससुर जब घर बना रहा होता है, तब भावी बहू अभी ? जन्मी भी नहीं होती.

 

वारों के वार

 

शिल्पशास्त्र महीनों, तिथियों के बाद वारों की बात करता है. उसे एक मनोरोगी की तरह सर्वत्र कुछ न कुछ दिखाई दे रहा है- ऐसा कुछ जो वहां वास्तव में है नहीं.

शिल्पशास्त्र कहता है, यदि रविवार को घर बनाना शुरू किया जाए तो उस घर को आग लग जाती है, यदि सोमवार को शुरू किया जाए तो धन का नाश होता है और यदि मंगलवार को शुरू किया जाए तो उस घर पर बिजली गिरती है :

वह्नेर्भय भवति भानुदिनेडर्थनाश:,

सौरे दिने ज्ञितिसुतस्य च वज्रपात:

-शिल्पशास्त्रम्, 1/29

आमतौर पर लोग रविवार से ही घर बनाना शुरू करते हैं, क्योंकि उस दिन छुट्टी होती है. परंतु शिल्पशास्त्र कहता है कि उस दिन शुरू किए घर को आग लगती है. क्या जिन घरों में आग लगती है, वे इसलिए जलते हैं कि उन्हें बनाना रविवार को शुरू किया गया था, या कि शौर्टसर्किट होने या दूसरी किसी असावधानी के कारण ऐसा होता है? क्या ऐसा संभव है कि घर रविवार को न बना हो और उधर शौर्टसर्किट के कारण या वहां रखे पटाखों के अंबार के कारण आग लग जाए और घर केवल इसलिए न जले कि उसे बनाना रविवार को शुरू नहीं किया गया था?

ऐसे ही मंगलवार को घर को बनाना शुरू करने तथा उस पर बिजली गिरने में आपस में क्या संबंध है? मंगल का अर्थ तो खुशी होता है. क्या मंगलवार की खुशी का अर्थ बिजली का गिरना है? बाकी जिन दिनों को शुभ करार दिया गया है, उन में क्या दैवीय शक्ति है कि वे कुछ भी अप्रिय होने से रोक लेंगे? दुनिया में क्या कोई भी दिन ऐसा जाता है जिस दिन कहीं न कहीं दुर्घटना, बीमारी, हत्या, अप्रिय घटना आदि घटित न होती हो?  अगले अंक में जारी…

 

शीशे की दिशा में वास्तुशास्त्रियों की गपोड़बाजी

 

शीशा, जोकि शोभा बढ़ाने और खुद को देखने का साधन भर है, को ले कर कई तरह की कुतर्की बातें वास्तुशास्त्रियों ने फैला रखी हैं. वास्तुशास्त्री कहते हैं कि घर में मौजूद हर वस्तु में ऊर्जा होती है, कुछ में पौजिटिव तो कुछ में नैगेटिव. इसे वे हर निर्जीव वस्तु की तरह शीशे पर भी लागू करते हैं. सवाल यह कि क्या यह ऊर्जा इलैक्ट्रौंस और प्रोटोंस से अधिक कुछ है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का स्थान और दिशा का आपस में कोई संबंध नहीं है. ऊर्जा भौतिक नियमों पर आधारित है, न कि किसी अज्ञात शक्ति या मान्यता पर.

वास्तुशास्त्री के अनुसार बताया जाता है कि घर में शीशा लगाने के लिए उत्तर या पूर्व दिशा को चुनना चाहिए, ऐसा करने से घर में धन का प्रवाह बढ़ता है और शांति का वास होता है. चलिए मान लेते हैं कि शीशे को उत्तर दिशा में लगाने से कुबेर देवता प्रसन्न हो जाते हैं और पैसा बरसने लगता है पर सोचिए यदि ऐसा होता तो हम सभी के घरों में सिर्फ एक शीशा ही काफी न होता? हमें मेहनत करने, नौकरी ढूंढ़ने या व्यवसाय चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ती? हाल ही में संसद में वित्त बजट पेश किया गया है, उस की जगह निर्मला सीतारमण शीशा ही पेश कर देतीं और देशभर के लोगों से कह देतीं कि सभी लोग अपने घरों में वास्तु अनुरूप शीशा लगाएं, ताकि धनवृद्धि हो और देश की अर्थव्यवस्था बढ़े.

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का प्रवाह किसी एक दिशा में नहीं होता, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है, जैसे कि तापमान, वायु का प्रवाह और अन्य भौतिक तत्त्व. ऊपर से शीशे पर ऊर्जा, यह थोड़ा हास्यास्पद है. एक समझदार इंसान होता तो यह सुझाव देता कि शीशा उस जगह लगाया जाना चाहिए जहां से दर्पण साफ दिखाई दे. मान लें घर में बल्ब यदि शीशे के ठीक सामने है तो उस दिशा में रोशनी का रिफ्लैक्शन शीशे पर पड़ेगा और चेहरा साफ दिखाई नहीं देगा. यानी, चेहरा देखने के लिए यदि शीशा लगाया जा रहा है तो घर में रोशनी किस दिशा से आ रही है, उस अनुसार लगाया जाना चाहिए, न कि वास्तुशास्त्रियों के अनुसार. वास्तुशास्त्री बताता है कि घर में गलत जगह लगाया गया शीशा आप के भाग्य को खराब कर सकता है. क्या इस में ऐसा है? पहली बात यह कि यह कोई क्यों नहीं बताता कि भाग्य तय कैसे होता है? कौन तय कर रहा है? और कर रहा है तो क्यों कर रहा है? बस, खालीपीली उपदेश दे दिए गए हैं.

अगर सुबह उठते ही शीशे में अपनी शक्ल देखने से दिन खराब हो सकता है तो शायद अपनी शक्ल पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है, न कि शीशे की दिशा पर. बल्कि अच्छी बात तो यह होती कि सुबह उठ कर सब से पहले शीशे में अपनी शक्ल देखी जाए. भारतीय महिलाएं अपने चेहरे पर बिंदी, लिपस्टिक, सिंदूर न जाने क्याक्या लगाती हैं. वास्तव में, सुबह उठ कर शीशे में अपनी शक्ल देखने से यह तो समझ आएगा कि बिंदी कहीं नाक में न चली गई हो, सिंदूर कहीं माथे पर न आ गया हो या बाल कहीं बिखरे न हों. पता चले बाहर आए, तो बच्चेबूढ़े सब शक्ल देखते ही हंसने लगे.

वे डराते हैं कि शीशा कभी भी पश्चिम या दक्षिण की दीवार पर नहीं लगाना चाहिए. इस दिशा में शीशा लगाने से घर में अशांति बनी रहती है. क्या शीशे से शांति तय होती है? अशांति या शांति तो घर के वातावरण, लोगों के व्यवहार और जीवनशैली पर निर्भर करती है. कोई पति अगर मारपीट करने वाला हो या पत्नी ?ागड़ालू हो तो शीशा इस में क्या कर लेगा? सास की अगर बहू से नहीं बन रही तो इस में शीशे का क्या दोष? क्या शीशा फैमिली कोर्ट का भी काम करने लगा है जो रिश्ते सुल?ा रहा हो? और अगर ऐसा है तो फैमिली कोर्ट खुला ही क्यों है?

वास्तुशास्त्री यह भी बताते हैं कि शीशा लगाते समय या खरीदते समय शीशा साफ हो और टूटा न हो. अब यह अजीब बात है. क्या कोई ऐसा है जो कहेगा कि शीशा टूटा और गंदा खरीदो? कैसी बचकानी बातें हैं? यह तो ऐसी बात हुई कि खाना ताजा खाना चाहिए, अपनी सेहत पर ध्यान देना चाहिए, गंदी लतों से दूर रहना चाहिए. भई, शीशा साफसुथरा ही खरीदा जाता है, इस में ऐसा ज्ञानवर्धक चूर्ण जैसा क्या है?

थोड़ा भारतीय इतिहास में जाएं तो पता चलेगा शीशा हमारे यहां का है ही नहीं, न ही हम ने इस का आविष्कार किया. जब इस तरह का शास्त्र लिखा गया था तब कहीं ग्लास या मिरर का जिक्र ही नहीं था, आज उस को ले कर ये वास्तुशास्त्री शास्त्रीय निर्देश दे रहे हैं. तब कांसे की तश्तरी को चमका कर शीशा बनाया जाता था और इस के दिशाओं को ले कर भी कोई बात नहीं थी. दरअसल, शीशे का आविष्कार ही 1835 में हुआ था, वह भी जरमन रसायन वैज्ञानिक जस्टस वान लिबिग द्वारा, जिस ने कांच के एक फलक की सतह पर मैटेलिक सिल्वर की पतली परत लगा कर इस को बनाया था. यह तो सीधासीधा विज्ञान से जुड़ी बात है. शीशा तो भारत में बहुत देर में आम लोगों तक पहुंच पाया. इस में वास्तुशास्त्र का क्या काम?

 

(अगले अंक में जारी…)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सोनिया : आखिर किस वजह से करनी पड़ी आत्महत्या

सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता.

उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था.

समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी.

बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं. वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’

जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी…

‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक 60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है?

‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं.

‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे. इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी.

कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई.

मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’

लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी.खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारातुम्हारा रिश्ता था.’

मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

ठोकर : इश्क में अंधी लाली क्या संभल पाई

सतपाल गहरी नींद में सोया हुआ था. उस की पत्नी उर्मिला ने उसे जगाने की कोशिश की. वह इतनी ऊंची आवाज में बोली थी कि साथ में सोया उस का 5 साला बेटा जंबू भी जाग गया था. वह डरी निगाहों से मां को देखने लगा था.

‘‘क्या हो गया? रात को तो चैन से सोने दिया करो. क्यों जगाया मुझे?’’ सतपाल उखड़ी आवाज में उर्मिला पर बरस पड़ा.

‘‘बाहर गेट पर कोई खड़ा है. जोरजोर से डोर बैल बजा रहा है. पता नहीं, इतनी रात को कौन आ गया है? मुझे तो डर लग रहा है,’’ उर्मिला ने घबराई आवाज में बताया.

‘‘अरे, इस में डरने की क्या बात है? गेट खोल कर देख लो. तुम सतपाल की घरवाली हो. हमारे नाम से तो बड़ेबड़े भूतप्रेत भाग जाते हैं.’’

‘‘तुम ही जा कर देखो. मुझे तो डर लग रहा है. पता नहीं, कोई चोरडाकू न आ गया हो. तुम भी हाथ में तलवार ले कर जाना,’’ उर्मिला ने सहमी आवाज में सलाह दी.

सतपाल ने चारपाई छोड़ दी. उस ने एक डंडा उठाया. गेट के करीब पहुंच कर उस ने गेट के ऊपर से झांक कर देखा, तो कांप उठा. बाहर उस की छोटी बहन खड़ी सिसक रही थी.

सतपाल ने हैरानी भरे लहजे में पूछा, ‘‘अरे लाली, तू? घर में तो सब ठीक है न?’’

लाली कुछ नहीं बोल पाई. बस, गहरीगहरी हिचकियां ले कर रोने लगी. सतपाल ने देखा कि लाली के चेहरे पर मारपीट के निशान थे. सिर के बाल बिखरे हुए थे. सतपाल लाली को बैडरूम में ले आया. वह बारबार लाली से पूछने की कोशिश कर रहा था कि ऐसा क्या हुआ कि उसे आधी रात को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा?

उर्मिला ने बुरा सा मुंह बनाया और पैर पटकते हुए दूसरे कमरे में चली गई. उसे लाली के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थी. लाली की शादी आज से 10 साल पहले इसी शहर में हुई थी. तब उस के मम्मीपापा जिंदा थे. लाली का पति दुकानदार था. काम अच्छा चल रहा था. घर में लाली की सास थी, 2 ननदें भी थीं. उन की शादी हो चुकी थी.

लाली के पति अजय ने उसे पहली रात को साफसाफ शब्दों में समझा दिया था कि उस की मां बीमार रहती हैं. उन के प्रति बरती गई लापरवाही को वह सहन नहीं करेगा.

लाली ने पति के सामने तो हामी भर दी थी, मगर अमल में नहीं लाई. कुछ दिनों बाद अजय ने सतपाल के सामने शिकायत की. जब सतपाल ने लाली से बात की, तो वह बुरी तरह भड़क उठी. उस ने तो अजय की शिकायत को पूरी तरह नकार दिया. उलटे अजय पर ही नामर्दी का आरोप लगा दिया.

अजय ने अपने ऊपर नामर्द होने का आरोप सुना, तो वह सतपाल के साथ डाक्टर के पास पहुंचा. अपनी डाक्टरी जांच करा कर रिपोर्ट उस के सामने रखी, तो सतपाल को लाली पर बेहद गुस्सा आया. उस ने डांटडपट कर लाली को ससुराल भेज दिया.

लाली ससुराल तो आ गई, मगर उस ने पति और सास की अनदेखी जारी रखी. उस ने अपनी जिम्मेदारियों को महसूस नहीं किया. अपने दोस्तों के साथ मोबाइल पर बातें करना जारी रखा.

आखिरकार जब अजय को दुकान बंद कर के अपनी मां की देखभाल के लिए घर पर रहने को मजबूर होना पड़ा, तब उस ने अपनी आंखों से देखा कि लाली कितनी देर तक मोबाइल फोन पर न जाने किसकिस से बातें करती थी.

एक दिन अजय ने लाली से पूछ ही लिया कि वह इतनी देर से किस से बातें कर रही थी?

पहले तो लाली कुछ भी बताने को तैयार नहीं हुई, पर जब अजय गुस्से से भर उठा, तो लाली ने अपने भाई सतपाल का नाम ले लिया. उस समय तो अजय खामोश हो गया, क्योंकि उसे मां को अस्पताल ले जाना था. जब वह टैक्सी से अस्पताल की तरफ जा रहा था, तब उस ने सतपाल से पूछा, तो उस ने इनकार कर दिया कि उस के पास लाली का कोई फोन नहीं आया था.

अजय 2 घंटे बाद वापस घर में आया, तो लाली को मोबाइल फोन पर खिलखिला कर बातें करते देख बुरी तरह सुलग उठा था. उस ने तेजी से लपक कर लाली के हाथ से मोबाइल छीन कर 4-5 घूंसे जमा दिए.

लाली चीखतीचिल्लाती पासपड़ोस की औरतों को अपनी मदद के लिए बुलाने को घर से बाहर निकल आई.अजय ने उसी नंबर पर फोन मिलाया, जिस पर लाली बात कर रही थी. दूसरी तरफ से किसी अनजान मर्द की आवाज उभरी.

अजय की आवाज सुनते ही दूसरी तरफ से कनैक्शन कट गया. अजय ने दोबारा नंबर मिला कर पूछने की कोशिश की, तो दूसरी तरफ से मोबाइल स्विच औफ हो गया.

अजय ने लाली से पूछा, तो उस ने भी सही जवाब नहीं दिया. अजय का गुस्से से भरा चेहरा भयानक होने लगा. उस के जबड़े भिंचने लगे. वह ऐसी आशिकमिजाजी कतई  सहन नहीं करेगा. लाली घबरा उठी. उसे लगा कि अगर वह अजय के सामने रही और किसी दोस्त का फोन आ गया, तो यकीनन उस की खैरियत नहीं. उस ने उसी समय जरूरी सामान से अपना बैग भरा और अपने मायके आ गई.

लाली ने घर आ कर अजय और उस की मां पर तरहतरह के आरोप लगा कर ससुराल जाने से मना कर दिया. कई महीनों तक वह अपने मायके में ही रही. अजय भी उसे लेने नहीं आया. इसी तनातनी में एक साल गुजर गया.

आखिरकार अजय ही लाली को लेने आया. उस ने शर्त रखी कि लाली को मन लगा कर घर का काम करना होगा. वह पराए मर्दों से मोबाइल फोन पर बेवजह बातें नहीं करेगी. सतपाल ने बहुत समझाया, मगर लाली नहीं मानी.

लाली का तलाक हो गया. सतपाल ने उस के लिए 2 लड़के देखे, मगर वे उसे पसंद नहीं आए. दरअसल, लाली ने शराब का एक  ठेकेदार पसंद कर रखा था. उस का शहर की 4-5 दुकानों में हिस्सा था. वह शहर का बदनाम अपराधी था, मगर लाली को पसंद था. काफी अरसे से लाली का उस ठेकेदार जोरावर से इश्क चल रहा था.

जोरावर सतपाल को भी पसंद नहीं था, मगर इश्क में अंधी लाली की जिद के सामने वह मजबूर था. उस की शादी जोरावर से करा दी गई.

जोरावर शराब के कारोबार में केवल 10 पैसे का हिस्सेदार था, बाकी 90 पैसे दूसरे हिस्सेदारों के थे. उस की कमाई लाखों में नहीं हजारों रुपए में थी. वह जुआ खेलने और शराब पीने का शौकीन था. वह लाली को खुला खर्चा नहीं दे पाता था.

अब तो लाली को पेट भरने के भी लाले पड़ गए. उस ने जोरावर से अपने खर्च की मांग रखी, तो उस ने जिस्म बेच कर पैसा कमाने का रास्ता दिखाया. लाली ने मना किया, तो जोरावर ने घर में ही शराब बेचने का रास्ता सुझा दिया.

अब लाली करती भी क्या. अपना मायका भी उस ने गंवा लिया था. जाती भी कहां? उस ने शराब बेचने का धंधा शुरू कर दिया. उस का जवान गदराया बदन देख कर मनचले शराब खरीदने लाली के पास आने लगे. उस का कारोबार अच्छा चल निकला.

जोरावर को लगा कि लाली खूब माल कमा रही है, तो उस ने अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया. लाली ने पैसा देने से इनकार कर दिया. उस रात दोनों में झगड़ा हुआ. लाली जमा किए तमाम रुपए एक पुराने बैग में भर कर घर से भाग निकली.

जोरावर ने देख लिया था. वह भी पीछेपीछे तलवार हाथ में लिए भागा. वह किसी भी सूरत में लाली से रुपए लेना चाहता था. जोरावर नशे में था. उस के हाथों में तलवार चमक रही थी. वह उस की हत्या कर के भी सारा रुपया हासिल करना चाहता था.

लाली बदहवास सी भागती हुई सड़क पर आ गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो जोरावर तलवार लिए उस की तरफ भाग रहा था. उस ने बचतेबचाते सड़क पार कर ली.

लेकिन जब जोरावर सड़क पार करने लगा, तो वह किसी बड़ी गाड़ी की चपेट में आ गया और मारा गया. रात के 3 बज रहे थे. किसी ने भी जोरावर की लाश की तरफ ध्यान तक नहीं दिया.

सतपाल के यहां आ कर लाली ने रोतेसिसकते अपनी दुखभरी दास्तान सुनाई, तो सतपाल की भी आंखें भर आईं. मगर उसी पल उस ने अपनी बहन की गलतियां गिनाईं, जिन की वजह से उस की यह हालत हुई थी.

‘‘हां भैया, अजय का कोई कुसूर नहीं है. मैं ने ही अपनी गलतियों की सजा पाई है. अजय ने तो हर बार मुझे समझाने, सही रास्ते पर लाने की कोशिश की थी, इसलिए अब भी मैं अजय के पास ही जाना चाहती हूं,’’ लाली ने इच्छा जाहिर की. ‘‘अब तुझे वह किसी भी हालत में नहीं अपनाएगा. उस ने तो दूसरी शादी भी कर ली होगी,’’ सतपाल ने अंदाजा लगाया.

‘‘बेशक, उस ने शादी कर ली हो. उस के घर में नौकरानी बन कर रह लूंगी. मुझे अजय के घर जाना है, वरना मैं खुदकुशी कर लूंगी,’’ लाली ने अपना फैसला सुना दिया.

सतपाल बोला, ‘‘ठीक है लाली, पहले तू 4-5 दिन यहीं आराम कर.’’ एक हफ्ते बाद सतपाल ने लाली को मोटरसाइकिल पर बैठाया और दोनों अजय के घर की तरफ चल दिए.

अजय घर पर अकेला ही सुबह का नाश्ता तैयार कर रहा था. सुबहसवेरे लाली को अपने भाई सतपाल के साथ आया देख वह बुरी तरह भड़क उठा.

दोनों को धक्के मार कर घर से बाहर निकालते हुए अजय ने कहा, ‘‘अब तुम लोग मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने आए हो. चले जाओ यहां से. अब तो मेरी मां भी मर चुकी है. मेरी पत्नी तो बहुत पहले मर चुकी थी. अब मेरा कोई नहीं है.’’

सतपाल ने लाली को घर चलने को कहा, तो वह वहीं पर रहने के लिए अड़ गई. सतपाल अकेला ही घर चला गया. लाली सारा दिन भूखीप्यासी वहीं पर खड़ी रही. रात को अजय वापस आया. लाली को खड़ा देख वह बेरुखी से बोला, ‘‘अब यहां खड़े रहने का कोई फायदा नहीं है.’’

‘‘अजय, मैं ने तो अपनी गलतियों को पहचाना है और मैं तुम्हारी सेवा करने का मौका एक और चाहती हूं.’’ मगर अजय ने उस की तरफ ध्यान नहीं दिया और घर का दरवाजा बंद कर लिया.

अगली सुबह अजय ने दरवाजा खोला, तो लाली को बाहर बीमार हालत में देख चौंक उठा. वह बुरी तरह कांप रही थी. वह उसे तुरंत डाक्टर के पास ले गया.

बीमार लाली को देख कर अजय को लगा कि ठोकर खा कर लाली सुधर गई है, इसलिए उस ने उसे माफ कर दिया.

बनते बिगड़ते रिश्ते : रमेश की मदद आखिर किस ने की

उन दिनों रमेश बहुत ज्यादा माली तंगी से गुजर रहा था. उसे कारोबार में बहुत ज्यादा घाटा हुआ था. मकान, दुकान, गाड़ी, पत्नी के गहने सब बिकने के बाद भी बाजार की लाखों रुपए की देनदारियां थीं. आएदिन लेनदार घर आ कर बेइज्जत करते, धमकियां देते और घर का जो भी सामान हाथ लगता, उठा कर ले जाते.

रमेश ने भी अनेक लोगों को उधार सामान दिया था और बदले में उन्होंने जो चैक दिए, वे बाउंस हो गए. वह उन के यहां चक्कर लगातेलगाते थक गया, मगर किसी ने भी न तो सामान लौटाया और न ही पैसे दिए.

थकहार कर रमेश ने उन लोगों पर केस कर दिए, मगर केस कछुए की चाल से चलते रहे और उस की हालत बद से बदतर होती चली गई.

जब दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया, तो रमेश को अपने पुराने दोस्तों की याद आई. बच्चों की गुल्लक तोड़ कर किराए का इंतजाम किया. कुछ पैसे पत्नी कहीं से ले आई और वह अपने शहर की ओर चल दिया.

पृथ्वी रमेश का सब से अच्छा दोस्त था. रमेश को पूरी उम्मीद थी कि वह उस की मदद जरूर करेगा.

अपने शहर बीकानेर आ कर रमेश सीधा अपनी मौसी के घर चला गया. वहां से नहाधो कर व खाना खा कर वह पृथ्वी के घर की ओर चल दिया.

शनिवार का दिन था. रमेश को पृथ्वी के घर पर मिलने की पूरी उम्मीद थी. वह मिला भी और इतना खुश हुआ, जैसे न जाने कितने सालों बाद मिले हों. इस के बाद वे पूरे दिन साथ रहे. रमेश पृथ्वी से पैसे के बारे में बात करना चाहता था, मगर झिझक की वजह से कह नहीं पा रहा था.

वे एक रैस्टोरैंट में बैठ गए. रमेश ने हिम्मत जुटाई और बोला, ‘‘यार पृथ्वी, एक बात कहनी थी.’’

‘‘हांहां, बोल न,’’ पृथ्वी ने कहा.

इस के बाद रमेश ने उसे अपनी सारी कहानी सुनाई. पृथ्वी गंभीर हो गया और बोला, ‘‘तेरी हालत तो खराब ही है. तू बता, मुझ से क्या चाहता है?’’

‘‘यार, वैसे तो मुझे लाखों रुपए की जरूरत है, मगर तू भी सरकारी नौकरी करता है, इसलिए फिलहाल अगर तू मुझे 3 हजार रुपए भी उधार दे देगा, तो मैं घर में राशन डलवा लूंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. सुबह ले लेना.’’

‘‘तो फिर मैं कितने बजे फोन करूं?’’

‘‘तू मत करना, मैं खुद ही कर लूंगा.’’

रमेश के सिर से एक बड़ा बोझ सा उतर गया था. उस ने चैन की सांस ली. इस के बाद उन्होंने काफी देर तक बातचीत की और बाद में वह रमेश को उस की मौसी के घर तक अपनी मोटरसाइकिल पर छोड़ गया.

रमेश ने पृथ्वी को बताया कि उस की ट्रेन दोपहर 2 बजे जाएगी. उस ने रमेश को भरोसा दिलाया कि वह सुबह ही 3 हजार रुपए पहुंचा देगा.

रमेश ऐसी गहरी नींद सोया कि आंखें 9 बजे ही खुलीं. नहाधो कर तैयार होने तक साढ़े 10 बज गए. पृथ्वी का फोन अभी तक नहीं आया था.

रमेश ने फोन किया, तो पृथ्वी का मोबाइल स्विच औफ ही मिला.

रमेश की ट्रेन आई और उस की आंखों के सामने से चली भी गई. उस का मन बुझ सा गया था. उस ने कोशिश करना छोड़ दिया. उस की सूरत ऐसी लग रही थी, जैसे किसी ने गालों पर खूब चांटे मारे हों. उस की आंखों में आंसू तो नहीं थे, मगर एक सूनापन उन में आ कर जम सा गया था. वह काफी देर तक प्लेटफार्म के एक बैंच पर बैठा रहा.

‘‘अरे, रमेश? तू रमेश ही है न?’’

रमेश ने आंखें उठा कर देखा. वह सत्यनारायण था. उस का एक पुराना दोस्त. वह एक गरीब घर से था और रमेश ने कभी भी उसे अहमियत नहीं दी थी.

‘‘हां भाई, मैं रमेश ही हूं,’’ उस ने बेमन से कहा.

‘‘रमेश, मुझे पहचाना तू ने? मैं सत्यनारायण. तुम्हारा दोस्त सत्तू…’’

‘‘क्या हालचाल है सत्तू?’’ रमेश थकीथकी सी आवाज में बोला.

‘‘मैं तो ठीक हूं, मगर तू ने यह क्या हाल बना रखा है? दाढ़ी बढ़ी हुई है और कितना दुबला हो गया है. चल, बाहर चल कर चाय पीते हैं.’’

रमेश की इच्छा तो नहीं थी, मगर सत्यनारायण का जोश देख कर वह उस के साथ हो लिया. वे एक रैस्टोरैंट में आ बैठे और चाय पीने लगे.

‘‘और सुना रमेश, कैसे हालचाल हैं?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘हालचाल क्या होंगे? जिंदा बैठा हूं न तेरे सामने,’’ रमेश ने बेरुखी से कहा.

यह सुन कर सत्यनारायण गंभीर हो गया, ‘‘बात क्या है रमेश? मुझे बताएगा?’’

‘‘क्या बताऊं? यह बताऊं कि वहां मेरे बच्चे भूखे बैठे हैं और सोच रहे हैं कि पापा आएंगे, तो घर में राशन आएगा. पापा आएंगे, तो वे फिर से स्कूल जाएंगे. पापा आएंगे, तो नए कपड़े सिला देंगे. क्या बताऊं तुझे?’’

सत्यनारायण हक्काबक्का सा रमेश का चेहरा देख रहा था.

‘‘मैं तुझ से कुछ नहीं पूछूंगा रमेश. कितने पैसों की जरूरत है तुझे?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

रमेश ने सत्यनारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. साधारण से कपड़े, साधारण सी चप्पलें, यह उस की क्या मदद करेगा?

‘‘2 लाख रुपए चाहिए, क्या तू देगा मुझे?’’ रमेश ने कहा.

‘‘रमेश, मैं ने अपना सारा पैसा कारोबार में लगा रखा है. अगर तू मुझे कुछ दिन पहले कहता, तो मैं तुझे 2 लाख रुपए भी दे देता. यह बता कि फिलहाल तेरा कितने पैसों में काम चल जाएगा?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘3 हजार रुपए में.’’

‘‘तू 10 मिनट यहां बैठ. मैं अभी आया,’’ कह कर सत्यनारायण वहां से चला गया.

रमेश को यकीन नहीं था कि सत्यनारायण लौट कर आएगा. अब तो लगता है कि चाय के पैसे भी मुझे ही देने पड़ेंगे.

इसी उधेड़बुन में 10 मिनट निकल गए. रमेश उठ ही रहा था कि उस ने सत्यनारायण को आते देखा.

सत्यनारायण की सांसें तेज चल रही थीं. बैठते ही उस ने जेब में हाथ डाला और 50 के नोटों की एक गड्डी रमेश के सामने रख दी.

‘‘यह ले पैसे…’’

रमेश को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘मगर, मुझे तो सिर्फ 3 हजार…’’ रमेश मुश्किल से बोला.

‘‘रख ले, तेरे काम आएंगे.’’

‘‘सत्तू, मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

‘‘क्या बकवास कर रहा है? दोस्ती में कोई एहसान नहीं होता है.’’

‘‘लेकिन, मैं ये पैसे तुझे 3-4 महीने से पहले नहीं लौटा पाऊंगा.’’

‘‘जब तेरे पास हों, तब लौटा देना. मैं कभी मांगूंगा भी नहीं. तुझ पर मुझे पूरा भरोसा है,’’ सत्यनारायण ने कहा, तो रमेश कुछ बोल नहीं पाया.

‘‘अब मैं निकलता हूं. चाय के पैसे दे कर जा रहा हूं. तुझे 5 बजे वाली ट्रेन मिल जाएगी, तू भी निकल. बच्चे तेरा इंतजार कर रहे होंगे.’’

सत्यनारायण चला गया. रमेश उसे दूर तक जाते देखता रहा. इस वक्त ये 5 हजार रुपए उस के लिए लाखों रुपए के बराबर थे. वह जिस इनसान को हमेशा छोटा समझता रहा, आज वही उस के काम आया.

रमेश वापस अपने घर लौट गया.

2-3 महीने का तो इंतजाम हो गया था. इस के बाद उस ने फिर से काम की तलाश शुरू कर दी.

एक दिन रमेश को कपड़े की दुकान पर सेल्समैन का काम मिल गया. तनख्वाह कम थी, मगर जीने के लिए काफी थी.

इस के बाद समय अचानक बदला. 3 मुकदमों का फैसला रमेश के हक में गया. जेल जाने से बचने के लिए लोगों ने उस की रकम वापस कर दी. कुछ दूसरे लोग डर की वजह से फैसला होने से पहले ही पैसे दे गए. 6 महीने में ही पहले जैसे अच्छे दिन आ गए.

रमेश ने फिर से कारोबार शुरू कर दिया. इस वादे के साथ कि पहले जैसी गलतियां नहीं दोहराएगा. रमेश ने सत्यनारायण के पैसे भी लौटा दिए. उस ने ब्याज देना चाहा, तो सत्यनारायण ने साफ मना कर दिया.

इन सब बातों को आज 10 साल से भी ज्यादा हो गए हैं. रमेश कारोबार के सिलसिले में अपने शहर जाता रहता है. किसी शादी या पार्टी में पृथ्वी से भी मुलाकात हो ही जाती है. पूरे समय वह अपने नए मकान या नई गाड़ी के बारे में ही बताता रहता है और रमेश सिर्फ मुसकराता रहता है.

रमेश का पूरा समय तो अब सिर्फ सत्यनारायण के साथ ही गुजरता है. वह जितने दिन वहां रहता है, उसी के घर में ही रहता है.

रमेश ने बहुत बुरा वक्त गुजारा. ये बुरे दिन हमें बहुतकुछ सिखा भी जाते हैं. हमारी आंखों पर जमी भरम की धुंध मिट जाती है और हम सबकुछ साफसाफ देखने लगते हैं.

राखी : अनूठे रिश्ते में बंधे भाईबहन

रक्षाबंधन से एक रोज पहले ही मयंक को पहली तन्ख्वाह मिली थी. सो, पापामम्मी के उपहार के साथ ही उस ने मुंहबोली बहन चुन्नी दीदी के लिए सुंदर सी कलाई घड़ी खरीद ली.

‘‘सारे पैसे मेरे लिए इतनी महंगी घड़ी खरीदने में खर्च कर दिए या मम्मीपापा के लिए भी कुछ खरीदा,’’ चुन्नी ने घड़ी पहनने के बाद पूछा.

‘‘सब के लिए खरीदा है, दीदी, लेकिन अभी दिया नहीं है. शौपिंग करने और दोस्तों के साथ खाना खाने के बाद रात में बहुत देर से लौटा था. तब तक सब सो चुके थे. अभी मां ने जगा कर कहा कि आप आ गई हैं और राखी बांधने के लिए मेरा इंतजार कर रही हैं, फिर आप को जीजाजी के साथ उन की बहन के घर जाना है. सो, जल्दी से यहां आ गया, अब जा कर दूंगा.’’

‘‘अब तक तो तेरे पापा निकल गए होंगे राखी बंधवाने,’’ चुन्नी की मां ने कहा.

‘‘पापा तो कभी कहीं नहीं जाते राखी बंधवाने.’’

‘‘तो उन के हाथ में राखी अपनेआप से बंध जाती है? हमेशा दिनभर तो राखी बांधे रहते हैं और उन्हीं की राखी देख कर तो तूने भी राखी बंधवाने की इतनी जिद की कि गीता बहन और अशोक जीजू को चुन्नी को तेरी बहन बनाना पड़ा.’’ चुन्नी की मम्मी श्यामा बोली.

‘‘तो इस में गलत क्या हुआ, श्यामा आंटी, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं मुझे. अच्छा दीदी, आप को देर हो रही होगी, आप चलो, अगली बार आओ तो जरूर देखना कि मैं ने क्या कुछ खरीदा है, पहली तन्ख्वाह से,’’ मयंक ने कहा. मयंक के साथ ही मांबेटी भी बाहर आ गईं. सामने के घर के बरामदे में खड़े अशोक की कलाई में राखी देख कर श्यामा बोली, ‘‘देख, बंधवा आए न तेरे पापा राखी.’’

‘‘इतनी जल्दी आप कहां से राखी बंधवा आए पापा?’’ मयंक ने हैरानी से पूछा.

‘‘पीछे वाले मंदिर के पुजारी बाबा से,’’ गीता फटाक से बोली.

मयंक को लगा कि अशोक ने कृतज्ञता से गीता की ओर देखा. ‘‘लेकिन पुजारी बाबा से क्यों?’’ मयंक ने पूछा. ‘‘क्योंकि राखी के दिन अपनी बहन की याद में पुजारी बाबा को ही कुछ दे सकते हैं न,’’ गीता बोली. ‘‘तू नाश्ता करेगा कि श्यामा बहन ने खिला दिया?’’ ‘‘खिला दिया और आप भी जो चाहो खिला देना मगर अभी तो देखो, मैं क्या लाया हूं आप के लिए,’’ मयंक लपक कर अपने कमरे में चला गया. लौटा तो उस के हाथ में उपहारों के पैकेट थे.

‘‘इस इलैक्ट्रिक शेवर ने तो हर महीने शेविंग का सामान खरीदने की आप की समस्या हल कर दी,’’ अपना हेयरड्रायर सहेजती हुई गीता बोली. ‘‘हां, लेकिन उस से बड़ी समस्या तो पुजारी बाबा का नाम ले कर तुम ने हल कर दी,’’ अशोक की बात सुन कर अपने कमरे में जाता मयंक ठिठक गया. उस ने मुड़ कर देखा, मम्मीपापा बहुत ही भावविह्वल हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. उस ने टोकना ठीक नहीं समझा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बात समझ में तो नहीं आई थी पर शीघ्र ही अपने नए खरीदे स्मार्टफोन में व्यस्त हो कर वह सब भूल गया.

एक रोज कंप्यूटर चेयरटेबल खरीदते हुए शोरूम में बड़े आकर्षक डबलबैड नजर आए. मम्मीपापा के कमरे में थे तो सिरहाने वाले पलंग मगर दोनों के बीच में छोटी मेज पर टेबललैंप और पत्रिकाएं वगैरा रखी रहती थीं. क्यों न मम्मीपापा के लिए आजकल के फैशन का डबलबैड और साइड टेबल खरीद ले. लेकिन डिजाइन पसंद करना मुश्किल हो गया. सो, उस ने मम्मीपापा को दिखाना बेहतर समझा. डबलबैड के ब्रोशर देखते ही गीता बौखला गई, ‘‘हमें हमारे पुराने पलंग ही पसंद हैं, हमें डबलवबल बैड नहीं चाहिए.’’

‘‘मगर मुझे तो घर में स्टाइलिश फर्नीचर चाहिए. आप लोग अपनी पसंद नहीं बताते तो न सही, मैं अपनी पसंद का बैडरूम सैट ले आऊंगा,’’ मयंक ने दृढ़स्वर में कहा.

गीता रोंआसी हो गई और सिटपिटाए से खड़े अशोक से बोली, ‘‘आप चुप क्यों हैं, रोकिए न इसे डबलबैड लाने से. यह अगर डबलबैड ले आया तो हम में से एक को जमीन पर सोना पड़ेगा और आप जानते हैं कि जमीन पर से न आप आसानी से उठ सकते हैं और न मैं.’’

‘‘लेकिन किसी एक को जमीन पर सोने की मुसीबत क्या है?’’ मयंक ने झुंझला कर कहा, ‘‘पलंग इतना चौड़ा है कि आप दोनों के साथ मैं भी आराम से सो सकता हूं.’’ ‘‘बात चौड़ाई की नहीं, खर्राटे लेने की मेरी आदत की है, मयंक. दूसरे पलंग पर भी तुम्हारी मां मेरे खर्राटे लेने की वजह से मुंहसिर लपेट कर सोती है. मेरे साथ एक कमरे में सोना तो उस की मजबूरी है, लेकिन एक पलंग पर सोना तो सजा हो जाएगी बेचारी के लिए. इतना जुल्म मत कर अपनी मां पर,’’ अशोक ने कातर स्वर में कहा. ‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी,’’ कह कर मयंक मायूसी से अपने कमरे में चला गया और सोचने लगा कि बचपन में तो अकसर कभी मम्मी और कभी पापा के साथ सोता था और अभी कुछ महीने पहले अपने कमरे का एअरकंडीशनर खराब होने पर जब फर्श पर गद्दा डाल कर मम्मीपापा के कमरे में सोया था तो उसे तो पापा के खर्राटों की आवाज नहीं आई थी.

मम्मीपापा वैसे ही बहुत परेशान लग रहे थे, जिरह कर के उन्हें और व्यथित करना ठीक नहीं होगा. जान छिड़कते हैं उस पर मम्मीपापा. मम्मी के लिए तो उस की खुशी ही सबकुछ है. ऐसे में उसे भी उन की खुशी का खयाल रखना चाहिए. उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा, अगर मम्मीपापा को आईपैड दिलवा दे तो वे फेसबुक पर अपने पुराने दोस्तों व रिश्तेदारों को ढूंढ़ कर बहुत खुश होंगे.

हिमाचल में रहने वाले मम्मीपापा घर वालों की मरजी के बगैर भाग कर शादी कर के, दोस्तों की मदद से अहमदाबाद में बस गए थे. न कभी स्वयं घर वालों से मिलने गए और न ही उन लोगों ने संपर्क करने की कोशिश की. वैसे तो मम्मीपापा एकदूसरे के साथ अपने घरसंसार में सर्वथा सुखी लगते थे, मयंक के सौफ्टवेयर इंजीनियर बन जाने के बाद पूरी तरह संतुष्ट भी. फिर भी गाहेबगाहे अपनों की याद तो आती ही होगी.

‘‘क्यों भूले अतीत को याद करवाना चाहता है?’’ गीता ने आईपैड देख कर चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘मुझे गड़े मुर्दे उखाड़ने का शौक नहीं है.’’ ‘‘शौक तो मुझे भी नहीं है लेकिन जब मयंक इतने चाव से आईपैड लाया है तो मैं भी उतने ही शौक से उस का उपयोग करूंगा,’’ अशोक ने कहा.

‘‘खुशी से करो, मगर मुझे कोई भूलाबिसरा चेहरा मत दिखाना,’’ गीता ने जैसे याचना की.

‘‘लगता है मम्मी को बहुत कटु अनुभव हुए हैं?’’ मयंक ने अशोक से पूछा.

‘‘हां बेटा, बहुत संत्रास झेला है बेचारी ने,’’ अशोक ने आह भर कर कहा.

‘‘और आप ने, पापा?’’

‘‘मैं ने जो भी किया, स्वेच्छा से किया, घर वाले जरूर छूटे लेकिन उन से भी अधिक स्नेहशील मित्र और सब से बढ़ कर तुम्हारे जैसा प्यारा बेटा मिल गया. सो, मुझे तो जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है,’’ अशोक ने मुसकरा कर कहा. कुछ समय बाद मयंक की, अपनी सहकर्मी सेजल मेहता में दिलचस्पी देख कर गीता और अशोक स्वयं मयंक के लिए सेजल का हाथ मांगने उस के घर गए. ‘‘भले ही हम हिमाचल के हैं पर वर्षों से यहां रह रहे हैं, मयंक का तो जन्म ही यहीं हुआ है. सो, हमारा रहनसहन आप लोगों जैसा ही है, सेजल को हमारे घर में कोई तकलीफ नहीं होगी, जयंतीभाई,’’ अशोक ने कहा. ‘‘सेजल की हमें फिक्र नहीं है, वह अपने को किसी भी परिवेश में ढाल सकती है,’’ जयंतीभाई मेहता ने कहा. ‘‘चिंता है तो बस उस के दादादादी की, अपनी परंपराओं को ले कर दोनों बहुत कट्टर हैं. हां, अगर शादी उन के बताए रीतिरिवाज के अनुसार होती है तो वे इस रिश्ते के लिए मना नहीं करेंगे.’’

‘‘वैसे तो हम कोई रीतिरिवाज नहीं करने वाले थे, पर सेजल की दादी की खुशी के लिए जैसा आप कहेंगे, कर लेंगे,’’ गीता ने सहजता से कहा, ‘‘आप बस जल्दी से शादी की तारीख तय कर के हमें बता दीजिए कि हमें क्या करना है.’’ सब सुनने के बाद मयंक ने कहा, ‘‘यह आप ने क्या कह दिया, मम्मी, अब तो उन के रिवाज के अनुसार, सेजल की मां, दादी, नानी सब को मेरी नाक पकड़ कर मेरा दम घोंटने का लाइसैंस मिल गया.’’

गीता हंसने लगी, ‘‘सेजल के परिवार से संबंध जोड़ने के बाद उन के तौरतरीकों और बुजुर्गों का सम्मान करना तुम्हारा ही नहीं, हमारा भी कर्तव्य है.’’

गीता बड़े उत्साह से शादी की तैयारियां करने लगी. अशोक भी उतने ही हर्षोल्लास से उस का साथ दे रहा था.

शादी  से कुछ रोज पहले, मेहता दंपत्ती उन के घर आए. ‘‘शादी से पहले हमारे यहां हवन करने का रिवाज है, जिस में आप का आना अनिवार्य है,’’ जयंतीभाई ने कहा, ‘‘आप को रविवार को जब भी आने में सुविधा हो, बता दें, हम उसी समय हवन का आयोजन कर लेंगे. वैसे हवन में अधिक समय नहीं लगेगा.’’ ‘‘जितना लगेगा, लगने दीजिए और जो समय सेजल की दादी को हवन के लिए उपयुक्त लगता है, उसी समय  करिए,’’ गीता, अशोक के बोलने से पहले ही बोल पड़ी. ‘‘बा, मेरा मतलब है मां तो हमेशा हवन ब्रह्यबेला में यानी ब्रैकफास्ट से पहले ही करवाती हैं.’’ जयंतीभाई ने जल्दी से पत्नी की बात काटी, कहा, ‘‘ऐसा जरूरी नहीं है, भावना, गोधूलि बेला में भी हवन करते हैं.’’ ‘‘सवाल करने का नहीं, बा के चाहने का है. सो, वे जिस समय चाहेंगी और जैसा करने को कहेंगी, हम सहर्ष वैसा ही करेंगे,’’ गीता ने आश्वासन दिया.

‘‘बस, हम दोनों के साथ बैठ कर आप को भी हवन करना होगा. बच्चों के मंगल भविष्य के लिए दोनों के मातापिता गठजोड़े में बैठ कर यह हवन करते हैं,’’ भावना ने कहा.

गीता के चेहरे का रंग उड़ गया और वह चाय लाने के बहाने रसोई में चली गई. जब वह चाय ले कर आई तो सहज हो चुकी थी. उस ने भावना से पूछा कि और कितनी रस्मों में वर के मातापिता को शामिल होना होगा?

‘‘वरमाला को छोड़ कर, छोटीमोटी सभी रस्मों में आप को और हमें बराबर शामिल होना पड़ेगा?’’ भावना हंसी, ‘‘अच्छा है न, कुछ देर को ही सही, भागदौड़ से तो छुट्टी मिलेगी.’’ ‘‘दोनों पतिपत्नी का एकसाथ बैठना जरूरी होगा?’’ गीता ने पूछा. ‘‘रस्मों के लिए तो होता ही है,’’ भावना ने जवाब दिया. ‘वैसा तो हिमाचल में भी होता है,’’ अशोक ने जोड़ा, ‘‘अगर वरवधू के मातापिता में से एक न हो तो विवाह की रस्में किसी अन्य जोड़े चाचाचाची वगैरा से करवाई जाती हैं.’’

‘‘बहनबहनोई से भी करवा सकते हैं?’’ गीता ने पूछा.

‘‘हां, किसी से भी, जिसे वर या वधू का परिवार आदरणीय समझता हो,’’ भावना बोली.

मयंक को लगा कि गीता ने जैसे राहत की सांस ली है. मेहता दंपती के जाने के बाद गीता ने अशोक को बैडरूम में बुलाया और दरवाजा बंद कर लिया. मयंक को अटपटा तो लगा पर उस ने दरवाजा खटखटाना ठीक नहीं समझा. कुछ देर के बाद दोनों बाहर आ गए और गीता फोन पर नंबर मिलाने लगी. ‘‘हैलो, चुन्नी…हां, मैं ठीक हूं…अभी तुम और प्रमोदजी घर पर हो, हम मिलना चाह रहे हैं, तुम्हारे भाई की शादी है. भई, बगैर मिले कैसे काम चलेगा… यह तो बड़ी अच्छी बात है…मगर कितनी भी देर हो जाए आना जरूर, बहुत जरूरी बात करनी है.’’ फोन रख कर गीता अशोक की ओर मुड़ी, ‘‘चुन्नी और प्रमोद दोस्तों के साथ बाहर खाना खाने जा रहे हैं, लौटते हुए यहां आएंगे.’’

‘‘ऐसी क्या जरूरी बात करनी है दीदी से जिस के लिए उन्हें आज ही आना पड़ेगा?’’ मयंक ने पूछा.

गीता और अशोक ने एकदूसरे की ओर देखा. ‘‘हम चाहते हैं कि तुम्हारे विवाह की सब रस्में तुम्हारी चुन्नी दीदी और प्रमोद जीजाजी निबाहें ताकि मैं और गीता मेहमानों की यथोचित आवभगत कर सकें,’’ अशोक ने कहा. ‘‘मेहमानों की देखभाल करने को मेरे बहुत दोस्त हैं और दीदीजीजा भी. आप दोनों की जो भूमिका है यानी मातापिता वाली, आप लोग बस वही निबाहेंगे,’’ मयंक ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘उस में कई बार जमीन पर बैठना पड़ता है जो अपने से नहीं होता,’’ गीता ने कहा. ‘‘जमीन पर बैठना जरूरी नहीं है, चौकियां रखवा देंगे कुशन वाली.’’

‘‘ये करवा देंगे वो करवा देंगे से बेहतर है चुन्नी और प्रमोद से रस्में करवा ले,’’ गीता ने बात काटी. ‘‘तेरी चाहत देख कर हम बगैर तेरे कुछ कहे सेजल से तेरी शादी करवा रहे हैं न, अब तू चुपचाप जैसे हम चाहते हैं वैसे शादी करवा ले.’’ ‘‘कमाल करती हैं आप भी, अपने मांबाप के रहते मुंहबोली बहनबहनोई से मातापिता वाली रस्में कैसे करवा लूं्?’’ मयंक ने झल्ला कर पूछा. ‘‘अरे बेटा, ये रस्मेंवस्में सेजल की दादी को खुश करने को हैं, हम कहां मानते हैं यह सब,’’ अशोक ने कहा. ‘‘अच्छा? पुजारी बाबा से राखी किसे खुश करने को बंधवाते हैं?’’ मयंक ने व्यंग्य से पूछा और आगे कहा, ‘‘मैं अब बच्चा नहीं रहा पापा, अच्छी तरह समझ रहा हूं कि आप दोनों मुझ से कुछ छिपा रहे हैं. आप को बताने को मजबूर नहीं करूंगा लेकिन एक बात समझ लीजिए, अपनों का हक मैं मुंहबोली बहन को कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘अब बात जब अपनों और मुंहबोले रिश्ते पर आ गई है, गीता, तो हमें मयंक को असलियत भी बता देनी चाहिए,’’ अशोक मयंक की ओर मुड़ा, ‘‘मैं भी तुम्हारा अपना नहीं. मुंहबोला पापा, बल्कि मामा हूं. गीता मेरी मुंहबोली बहन है. मैं किसी पुजारी बाबा से नहीं, गीता से राखी बंधवाता हूं. पूरी कहानी सुनना चाहोगे?’’ स्तब्ध खड़े मयंक ने सहमति से सिर हिलाया.

‘‘मैं और गीता पड़ोसी थे. हमारी कोईर् बहन नहीं थी, इसलिए मैं और मेरा छोटा भाई गीता से राखी बंधवाते थे. अलग घरों में रहते हुए भी एक ही परिवार के सदस्य जैसे थे हम. जब मैं चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग कर रहा था तो मेरे कहने पर और मेरे भरोसे गीता के घर वालों ने इसे भी चंडीगढ़ पढ़ने के लिए भेज दिया. वहां यह रहती तो गर्र्ल्स होस्टल में थी लेकिन लोकल गार्जियन होने के नाते मैं इसे छुट्टी वाले दिन बाहर ले जाता था.

‘‘मेरा रूममेट नाहर सिंह राजस्थान के किसी रजवाड़े परिवार से था, बहुत ही शालीन और सौम्य, इसलिए मैं ने गीता से उस का परिचय करवा दिया. कब और कैसे दोनों में प्यार हुआ, कब दोनों ने मंदिर में शादी कर के पतिपत्नी का रिश्ता बना लिया, मुझे नहीं मालूम. जब मैं एमबीए के लिए अहमदाबाद आया तो गीता एक सहेली के घर पर रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. नाहर चंडीगढ़ में ही मार्केटिंग का कोर्स कर रहा था. ‘‘मुझे होस्टल में जगह नहीं मिली थी और मैं एक दोस्त के घर पर रहता था. अचानक गीता मुझे ढूंढ़ती हुई वहां आ गई. उस ने जो बताया उस का सारांश यह था कि उस ने और नाहर ने मंदिर में शादी कर ली थी और उस के गर्भवती होते ही नाहर उसे यह आश्वासन दे कर घर गया था कि वह इमोशनल ब्लैकमेल कर के अपनी मां को मना लेगा और फिर सबकुछ अशोक को बता कर अपने घर वालों को सूचित कर देना. ‘‘उसे गए कई सप्ताह हो गए थे और ढीले कपड़े पहनने के बावजूद भी बढ़ता पेट दिखने लगा था. दिल्ली में कुछ हफ्तों की कोचिंग लेने के बहाने उस ने घर से पैसे मंगवाए थे और मेरे पास आ गई थी. मैं और गीता नाहर को ढूंढ़ते हुए बीकानेर पहुंचे. नाहर का घर तो मिल गया मगर नाहर नहीं, वह अपने साले के साथ शिकार पर गया हुआ था. घर पर उस की पत्नी थी. सुंदर और सुसंस्कृत, पूछने पर कि नाहर की शादी कब हुई, उस ने बताया कि चंडीगढ़ जाने से पहले ही हो गई थी. नाहर के आने का इंतजार किए बगैर हम वापस अहमदाबाद आ गए.

‘‘समय अधिक हो जाने के कारण न तो गीता का गर्भपात हो सकता था और न ही वह घर जा सकती थी. मैं उस से शादी करने और बच्चे को अपना नाम देने को तैयार था. लेकिन न तो यह रिश्ता गीता और मेरे घर वालों को मंजूर होता न ही गीता अपने राखीभाई यानी मुझ को पति मानने को तैयार थी. ‘‘नाहर से गीता का परिचय मैं ने ही करवाया था, सो दोनों के बीच जो हुआ, उस के लिए कुछ हद तक मैं भी जिम्मेदार था. सो, मैं ने निर्णय लिया कि मैं गीता से शादी तो करूंगा, उस के बच्चे को अपना नाम भी दूंगा लेकिन भाईबहन के रिश्ते की गरिमा निबाहते हुए दुनिया के लिए हम पतिपत्नी होंगे, मगर एकदूसरे के लिए भाईबहन. इतने साल निष्ठापूर्वक भाईबहन का रिश्ता निबाहने के बाद गीता नहीं चाहती कि अब वह गठजोड़ा वगैरा करवा कर इस सात्विक रिश्ते को झुठलाए. मैं समझता हूं कि हमें उस की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.’’

‘‘जैसा आप कहें,’’ मयंक ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘आप ने जो किया है, पापा, वह अकाल्पनिक है, जो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं महापुरुष ही कर सकता है.’’ कुछ देर बाद वह लौटा और बोला, ‘‘पापा, मैं सेजल की दादी से बता कर आता हूं. हम दोनों अदालत में शादी करेंगे और फिर शानदार रिसैप्शन आप दे सकते हैं. दादी को सेजल ने कैसे बताया, क्या बताया, मुझे नहीं मालूम. पर आप की बात सुन कर वह तुरंत तैयार हो गई.’’

गीता और अशोक ने एकदूसरे को देखा. उन के बेटे ने उन की इज्जत रख ली.

शादी का कार्ड : आखिर कार्ड छपने के बाद भी सुचित्रा ने क्यों नहीं की शादी

अपने दफ्तर से लौटते समय आज शाम को जब रामेश्वर को किसी औरत ने नाम ले कर आवाज लगाई, तो उस के दोनों तेज दौड़ने वाले पैर जैसे जमीन से चिपक कर ही रह गए थे.

रामेश्वर जिस तेजी के साथ सड़क से चिपक गया था, उस से कहीं तेजी से उस की सीधी दिशा में देखने वाली गरदन पीछे की तरफ मुड़ी और गरदन के मुड़ते ही जब रामेश्वर की दोनों आंखें उस आवाज देने वाली पर टिकीं, तो वह सन्न रह गया.

रामेश्वर सोच में पड़ गया कि आज सालों बाद मिलने वाले अपने इस अतीत को देख कर वह मुसकराए या फिर बिना कुछ कहे आगे की तरफ निकल जाए. वह चंद लमहों में अपने से ही ढेर सारे सवालजवाब कर बैठा था.

जब रामेश्वर की जबान ने उस का साथ देने से साफ इनकार कर दिया, तो खामोशी तोड़ते हुए वह औरत पूछने लगी, ‘‘रामेश्वर, भूल गए क्या? तुम तो कहते थे कि मैं तुम्हें ख्वाबों में भी नहीं भूल सकता.’’

‘‘सच कहता था. मैं ने एकदम सच कहा था. कौन भूला है तुम्हें? क्या तुम्हें ऐसा लगा कि मैं तुम्हें भूल गया हूं?

‘‘मुझे आज भी तुम्हारा नाम याद है. कभी तुम ने साथ जिंदगी जीने की कसमें खाई थीं. इतना ही नहीं, तुम से मिलने की खुशी से ले कर तुम से बिछड़ने तक के सफर में जो भी हुआ, सब याद है.

‘‘आज भी तुम्हारी एक आवाज ने मेरे दौड़ते पैरों को रोक दिया, जबकि इस भागतेदौड़ते शहर की तेज जिंदगी में लोग अपने अंदर तक की आवाज को नहीं सुन पाते.

‘‘लाखों की तादाद में चलने वाली गाडि़यों की आवाजें, तेज कदमों की आवाजों के बीच कितनी ही खामोशियों की आवाज टूट कर रह जाती है. मगर मैं ने और मेरी खामोशियों ने आज भी तुम्हारी आवाज की ताकत बढ़ा दी. क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता सुचित्राजी…’’

रामेश्वर अभी अपनी पूरी बात कहने ही वाला था कि तभी एक लाल रंग की कार बड़ी तेजी से उस की तरफ बढ़ती दिखी. सुचित्रा ने फुरती से उस को अपनी तरफ खींच लिया.

दोनों की सांसों की रफ्तार उस कार की रफ्तार से भी तेज हो गई थी. कुछ संभलते हुए रामेश्वर बुदबुदाया, ‘‘फिर तेरे कर्ज में डूबा यह दीवाना. मरे हुए को बचा कर तू ने अच्छा नहीं किया.

‘‘सुचित्राजी, एक बार फिर मैं और मेरी जिंदगी तुम्हारी कर्जदार हो गई है. इतने एहसान भी मत करो. आज मिली भी तो मिलते ही एहसान चढ़ा दिया,’’ रामेश्वर की आवाज में दर्द की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं.

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं रामेश्वर. मैं ने कोई एहसान नहीं किया. मेरी जगह कोई और होता, तो वह भी यही सब करता. क्या तुम मुझे नहीं बचाते?

‘‘और यह तुम ने जी…जी की क्या रट लगा रखी है. क्या मैं अब इतनी पराई हो गई हूं?’’ वह थोड़ा मुसकरा कर बोली, ‘‘चलो, किसी रैस्टोरैंट में बैठ कर चाय पीते हैं. चलोगे मेरे साथ चाय पीने?’’

सुचित्रा के अंदाज में एक नशा सा था, तभी तो रामेश्वर चाह कर भी उसे मना नहीं कर सका.

चाय का प्याला लेते हुए सुचित्रा मुसकराते हुए बोली, ‘‘रामेश्वर, कैसी गुजर रही है तुम्हारी जिंदगी? कितने बच्चे हैं? अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हारी बीवी तुम्हारा कितना खयाल रखती है?’’

सुचित्रा की आंखों में आज भी पहले जैसा ही तेज नशा और होंठों पर पहले जैसी रंगत थी. हां, चेहरे की ताजगी में कुछ रूखापन जरूर आ गया था.

सुचित्रा आज भी बला की खूबसूरत थी. उस के बात करने का अंदाज आज भी उतना ही कातिल था, जितना कि 5 साल पहले था.

‘‘मैं एक कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर के पद पर हूं. यहीं कुछ दूरी पर रहता हूं. वैसे, आप इस शहर में अकेली क्या कर रही हो सुचित्रा?’’

‘‘तुम भी तो इस शहर की भीड़ में अकेले ही चल रहे थे. बस, कुछ ऐसे ही मैं भी,’’ इतना कह कर सुचित्रा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘सुचित्रा, एक बात कहूं… अगर तुम्हें बुरा न लगे तो…’’ रामेश्वर के चेहरे पर हजारों सवाल आसानी से पढे़ जा सकते थे.

‘‘मैं ने आज तक तुम्हारी बात का बुरा माना ही कब है, जो आज मानूंगी. कहो, जो कहना है. मुद्दत के बाद की इस मुलाकात को किसी तरह आगे तो बढ़ाया जाए… क्यों मिस्टर रामेश्वर?’’ सुचित्रा के बात करने के अंदाज कातिल होते जा रहे थे.

कुछ सकपकाते हुए रामेश्वर कहने लगा, ‘‘वह तो ठीक है. पहले कुछ और बात थी…’’ बात को बीच में ही काटते हुए सुचित्रा बोली, ‘‘बात आज भी वही है, इतना पराया मत बनाओ यार.’’

सुचित्रा के बोलने और देखने के अंदाज रामेश्वर को परेशानी में डाल रहे थे. वह कहने लगा, ‘‘मैं तो यह कह रहा था, तुम आज भी बहुत खूबसूरत लग रही हो. कुछ भी नहीं बदला, तुम कितनी…’’ आगे रामेश्वर कुछ भी नहीं कह पाया. ऐसा लगा, जैसे और शब्द उस के हलक में चिपक कर रह गए हों.

‘‘तुम भी तो पहले जैसे ही हो. हां, पहले मेरे मना करने पर भी मेरी तारीफ करते थे और आज तारीफ करने के लिए भी तुम्हें सोचना पड़ता है,’’ तेज आवाज में हंसते हुए सुचित्रा आगे कहने लगी, ‘‘हां तो मिस्टर रामेश्वर, एक फर्क और भी आया है आप में.’’

रामेश्वर ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘क्या फर्क आया है मुझ में सुचित्रा?’’

रामेश्वर का उदास चेहरा देख कर सुचित्रा हंसते हुए बोली, ‘‘इतना क्यों घबराते हो मेरे राम. फर्क आया है मूंछों का. पहले इस चेहरे पर ये कालीकाली हसीन मूंछें नहीं थीं.’’

इस बात पर वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. ‘‘सुचित्रा, तुम ने बताया नहीं कि तुम इस शहर में कैसे? तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’ रामेश्वर ने सवाल किया.

सुचित्रा कुछ खामोश सी हो कर बताने लगी, ‘‘मैं तो इस शहर में नौकरी की तलाश में आई थी, नौकरी न सही तुम ही सही. वैसे, मेरे पति क्या करते हैं, यह मुझे अभी तक नहीं पता.’’

‘‘तुम ने क्यों इतना खुला छोड़ रखा है उसे?’’ अब रामेश्वर ने चुटकी लेते हुए पूछा, ‘‘तुम को भी तो खुला छोड़ रखा है तुम्हारी पत्नी ने,’’ अपनी मोटीमोटी नशीली आंखों को रामेश्वर के चेहरे पर गड़ाते हुए सुचित्रा ने कहा.

‘‘आज क्या रैस्टोरैंट में ही ठहरने का इरादा है? तुम्हारे पति तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे. फिर कभी मिलते हैं सुचित्रा,’’ रामेश्वर ने अनमने मन से कहा.

सुचित्रा अपनी जुल्फों को लहराते हुए आशिकाना अंदाज में कहने लगी, ‘‘5-6 साल बाद तो आज मिले हैं, अब की बार बिछड़े तो कौन जाने फिर मिलें या न मिलें. वैसे भी इस कटी पतंग की डोर का कोई मालिक नहीं है. हां, शायद आप की पत्नी आप का इंतजार कर रही होंगी.’’

‘‘क्या…’’ रामेश्वर कटी पतंग सुन कर चौंका और उस से पूछने लगा, ‘‘क्यों, तलाक हो गया क्या?’’

‘‘तलाक तो तब होता, जब शादी होती रामेश्वर,’’ अब की बार सुचित्रा काफी थकेथके अंदाज में बोली.

‘‘क्या कह रही हो सुचित्रा? तुम्हारी शादी के तो कार्ड भी छपे थे. फिर वह सब क्या था?’’ रामेश्वर ने सवाल किया.

‘‘वे कार्ड तो कार्ड बन कर ही रह गए, तुम ने तो जा कर देखा तक भी नहीं. देखते भी कैसे? कौन अपनी मुहब्बत का जनाजा उठते देख सकता है? कैसे देखते तुम अपनी मुहब्बत का सौदा किसी दूसरे के हाथों होता? मैं भी नहीं देख सकती थी,’’ अब की बार सुचित्रा की आंखें नम थीं और आवाज भी चेहरे पर जिंदगी की शिकायत आसानी से पढ़ी जा सकती थी.

सुचित्रा आगे बताने लगी, ‘‘हुआ यों रामेश्वर, शादी के कार्ड भी छपे, बरात भी आई, मेहमान भी आए, मंडप भी सजा और बाजे भी बजे, लेकिन…’’ आगे के अलफाज सुचित्रा के मुंह में ही जैसे अपना दम तोड़ चुके थे.

‘‘लेकिन क्या सुचित्रा?’’ रामेश्वर ने गंभीरता से पूछा.

‘‘पिताजी ने मेरी लाख खिलाफत के बावजूद मेरी शादी दूसरी जगह तय कर दी. मैं ने तुम्हारे बारे में बताया, मगर तुम्हारी बेरोजगारी के चलते वे अपनी जिद पर अड़ गए. असल में वे तुम्हारी अलग जाति की वजह से मना कर रहे थे और मेरा विरोध उन के सामने टूट कर रह गया और तुम भी काफी दूर निकल गए. कभी सोचा भी नहीं था कि हम ऐसे भी मिलेंगे,’’ कह कर सुचित्रा ने अपनी गरदन नीचे की तरफ झुका ली.

‘‘आगे क्या हुआ क्या हुआ था सुचित्रा?’’ रामेश्वर ने पूछा.

‘‘मुझे फेरों के लिए लाया ही गया था कि अचानक मंडप में पुलिस आ गई और दूल्हे के हाथों में हथकड़ी लगा कर अपने साथ ले गई,’’ सुचित्रा की आंखों से आंसू लुढ़क कर उस के गालों को भिगोने लगे.

‘‘लेकिन क्यों सुचित्रा?’’ पूछते हुए रामेश्वर चौंका.

‘‘इसलिए कि वह स्मगलिंग करता था और उस ने पापा को एक कंपनी का मालिक बताया था. उस के बाद न तो पापा ही जिद कर सके और न ही मैं ने शादी करनी चाही.

‘‘मैं अब परिवार पर बोझ बन कर जीना नहीं चाहती थी, इसलिए नौकरी की तलाश में यहां तक आ गई और तुम से मुलाकात हो गई.

‘‘अब तुम बताओ कि तुम्हारा परिवार कैसा है?’’ सुचित्रा ने खुद को संभालते हुए रामेश्वर को बोलने का मौका दिया.

‘‘किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है. कहां हो तुम ये दिल बेकरार आज भी है.

‘‘ये लाइनें मेरे जीने का जरीया बन चुकी थीं सुचित्रा. मैं तो अभी तक तुम्हारे इंतजार में ही बैठा तुम्हारे लौटने की राह ताक रहा था,’’ इतना सुन कर सुचित्रा सभी से बेखबर हो रामेश्वर से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी और सिसकियां लेते हुए कहने लगी, ‘‘रामेश्वर, अब की बार मुझे अकेला मत छोड़ना. इस कटी पतंग की डोर तुम उम्रभर के लिए अपने हाथों में ले लो रामेश्वर, अपने हाथों में ले लो.’’

‘‘ठीक है, हम अपनी शादी के कार्ड छपवा लेते हैं,’’ रामेश्वर मुसकराते हुए बोला.

‘‘अब की बार कार्ड नहीं सीधे शादी करेंगे रामेश्वर,’’ सुचित्रा की बात सुन कर रामेश्वर ने उसे अपने आगोश में ले कर चूम लिया था. रैस्टोरैंट में बैठे बाकी लोग, जो काफी समय से उन दोनों की बातें सुन रहे थे, एकसाथ खड़े हो कर तालियां बजाने लगे. दोनों शरमाते हुए एकदूसरे को गले लगाते हुए बाहर निकल गए.

खुद को ले कर कौंप्लैक्स क्यों फील करना

हाइट बढ़ना या न बढ़ना एक बायोलौजिकल प्रोसेस है जो 10 साल से 20 साल तक की अवस्था में अधिक से अधिक बढ़ती है. लेकिन कई बार लड़का हो या लड़की की अगर हाइट कम रह जाती है तो लोग उन्हें ताने देते हैं कि देखो कितनी कम हाइट है इस की. ये तो भीड़ में कहीं गुम ही हो जाएगी. अरे इस बेचारी को आगे रखो ये तो फोटो में नज़र ही नहीं आएगी. लड़के को तो ये बातें और भी ज्यादा सुननी पड़ती है कि इस से कौन लड़की शादी करेगी. बीवी लम्बी आ जाए तो भी ताने मारते हैं कि ये तो बीवी के आगे कुछ बोल ही नहीं सकता इस में इतनी बड़ी कमी जो है हाइट की. अकसर इस तरह की बातें सुनने को मिलती है.

इस बारें में स्वाति का कहना है कि मेरी हाइट भी कम है. लोग कहते है मुझे रस्सा कूदना चाहिए, डॉक्टर को देखना चाहिए पर भी जाने क्या क्या कहते हैं. लेकिन सच तो यह है मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. हाइट कम होना किसी की कोई कमी नहीं है, बल्कि यह सिर्फ़ हार्मोन्स और आनुवांशिक कारणों से होती है.

नवादा की श्वेता कौर का कहना है कि मेरी हाइट 4 फिट से भी कम है. मेरी हाइट छोटी थी, लोगों के ताने सुनने पड़ते थे. लोग यही बोलते थे कि मेरी हाइट छोटी है तो शादी कैसे होगी? लेकिन मेरे हौसले कभी कम नहीं हुए. दो बार असफल होने के बाद तीसरी बार परीक्षा के परिणाम आते ही मैं जिला औडिट औफिसर बन गई हूं. उन्होंने बिहार लोकसेवा आयोग यानी बीपीएससी 67वीं परीक्षा में 330वां स्थान प्राप्त किया. बीपीएससी क्वालिफाई करने के बाद अब वह जिला औडिट औफिसर बन गई हैं.

बौलीवुड एक्ट्रैस जया बचच्न का ही उदाहरण देख लें, हाईट कम हैं फिर भी भी इतने लम्बे अमिताभ से उन की शादी हुई, इस का मतलब साफ़ है कि शादी का हाइट से कोई लेनादेना नहीं है.

लेकिन हां, अगर आप चाहें तो कुछ तरीके से हाइट को बढ़ाने के तरीके आजमा सकते हैं. जैसे कि सही और पौष्टिक आहार लेना हाइट को प्रभावित कर सकता है. आहार में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन डी और जिंक होना चाहिए. इन खाद्य पदार्थों में दूध, पनीर, दही, मांस, अंडे, मछली, हरी सब्जियां, फल और अदरकलहसुन शामिल हो सकते हैं.

स्वस्थ जीवनशैली अपनाना भी आप की हाइट को प्रभावित कर सकता है. नियमित व्यायाम करें, पर्याप्त नींद लें, तंबाकू और शराब का सेवन न करें, स्ट्रेस को कम करें, और सही पोस्चर बनाए रखें. कुछ योगासन भी हाइट को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं. लेकिन फिर भी अगर हाइट नहीं बढ़ रही तो चिल करें और अपनी बाकी क्वालिटीज़ पर धयान दें ताकि लोगों के मुहं अपनेआप बंद हो जाएं.

मोटे हैं तो क्या हुआ

यह एक मिथ है कि मोटे लोग कुछ नहीं कर सकते. वह जीवन में असफल ही रहते हैं, हर जगह हंसी का पात्र होते हैं. वैसे हम यह नहीं कह रहें की मोटा होना अच्छी बात है लेकिन इस के कई अनुवांशिक कारण भी हो सकते हैं और अगर चाह कर भी व्यक्ति बहुत अधिक पतला नहीं हो पा रहा तो आप क्यों इतने परेशान हैं. ये उस का व्यक्तिगत मामला है. वैसे हम ऐसे लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि मोटे लोग बेकार नहीं हैं और न ही किसी पर बोझ हैं.

एमानुएल यारब्राउ एक ऐसे एथलीट थे जो 600 पाउंड से ज्यादा के थे. कांलेज के बाद उन्होंने योशिसादा योनेजुका से ट्रेनिंग ली जिस ने उन्हें ब्राउन मैडल जीतने तक के भी मुकाम तक पहुंचाया. एमानुएल यारब्राउ एक फुटबौलर, ऐक्टर भी रह चुके हैं. गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड में उन का नाम सब से बड़े एथलीट के रूप में दर्ज है. विश्व के इस सब से बड़े एथलीट ने 21 दिसंबर साल 2015 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था.

अमेरिका की भारोत्तोलक हौली मैनगोल्ड वजन वाली मशीन पर चढ़ती थी, तो कांटा सीधा डेढ़ सौ किलो पार कर जाता है. लेकिन उन्हें इस पर कोई शर्म नहीं थी, वह तो खुश थी कि वह ओलिंपिक में हिस्सा लेने वाली सब से ज्यादा वजन वाली महिला बनी. उन्हें इस बात से गुस्सा आता था कि आम जनता और मीडिया उन के जैसे खिलाड़ियों के शरीर पर नाहक चर्चा करती है.

2012 के लंदन ओलिंपिक में बहुत से एथलीट थे, जिन का वजन ज्यादा था और मीडिया ने उन्हें मोटा कह कर पुकारा है. लेकिन मैनगोल्ड के लिए तो उन का वजन खुशी की बात थी उन्होंने कहा था कि, “मेरी टीम (सारा रोबलेस) और मैं इस बात को साबित कर सकते हैं कि आप किसी भी शरीर के साथ एथलीट बन सकते हैं. मैं यह नहीं कह रही हूं कि हम में से हर कोई एथलीट है लेकिन एथलीट बनने के लिए किसी खास शरीर की जरूरत नहीं होती.

सिर्फ यही नहीं बल्कि कौमेडियन भारती सिंह ने भी कहा है कि वे मोटी है तो क्या हुआ उन्हें इस पर कोई शर्म नहीं है बल्कि वे तो खुद को खातेपीते घर की बताती है. ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने मोटा होने पर भी सफलता हासिल की है और समाज में अपना अलग मुकाम बनाया है. जहां तक मोटे लोगों की शादी की बात है तो अभी हाल ही में अनंत अम्बानी की शादी राधिका मर्चेंट से हुई है जिस ने यह साबित कर दिया कि दिल के आगे मोटा या पतला कुछ नहीं होता. इसलिए किसी को उस के मोटापे से जज करना प्लीज छोड़ दें.

काले या सांवले रंग को सुंदरता क्यों नहीं माना जाता

वह बहुत काली है, कोई भी ऐसी त्वचा के रंग वाली लड़की से शादी नहीं करेगा, उस के बच्चे भी काले रंग के होंगे; वह सौंदर्य प्रतियोगिता नहीं जीत सकती क्योंकि वह बहुत सांवली है. लेकिन ऐसा क्यों? क्या सांवली त्वचा वाली महिलाएं भी सामान्य इंसान नहीं हैं? हमारे समाज में सांवले रंग की प्रशंसा क्यों नहीं की जाती? इसे कुरूपता का प्रतीक क्यों माना जाता है? लोग “आधुनिक” होने के बावजूद भी सुंदरता को मापने के लिए त्वचा के रंग को एक पैमाना क्यों मानते हैं?

दरअसल, सदियों से हमें यह सिखाया जाता रहा है और मानने के लिए मजबूर किया जाता रहा है कि खूबसूरती गोरा रंग है. लोग इस गलत धारणा को अपनी आने वाली पीढ़ियों को विरासत में देते रहते हैं और बिना सोचेसमझे इसे उपहार में देते रहते हैं. समाज सांवली रंगत वाली महिलाओं के साथ बहुत घृणा और घृणा से पेश आता है.

भारत में लोग गोरी त्वचा को सुंदरता का मानक क्यों मानते हैं? जबकि भारतीय लोगों के त्वचा का रंग तो श्यामला होता है गोरा तो पश्चिमी देशों के लोग होते हैं? इस का जवाब शायद यह हो सकता है कि जो चीज मुश्किल से मिलती है उस की कीमत ज्यादा होती है. भारत मे भी गोरा रंग आसानी से नहीं मिलता है इसलिए जिन का रंग गोरा होता है उसे विशेष महत्व दिया जाता है.

हालांकि इस के लिए महिलाएं खुद भी जिम्मेदार हैं. वे ब्यूटी प्रोडक्ट को लगा कर गोरा होना चाहती हैं. ऐसा करना ही क्यों? अगर महिलाएं खुद अपने रंग को स्वीकार कर लें और इसे बदलने की इच्छा न रखें तो समाज के किसी भी अन्य सदस्य को उन के रंग पर टिप्पणी करने का मौका नहीं मिलेगा.

उदाहरण के लिए, टीवी शो ‘बालिका वधू’ में आनंदी का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री अविका गौर ने रंगभेद को बढ़ावा देने वाली तीन फेयरनेस क्रीम का औफर ठुकरा दिया. इस तरह के विज्ञापन लोगों और खासकर महिलाओं को गलत संदेश देते हैं. दरअसल बाजार में काले या सांवले इंसान को गोरा बनाने का दावा करने वाली तमाम चीजें बिक रही हैं.

हाल ही में, प्रसिद्ध सौंदर्य कंपनी, जिसे पहले फेयर एंड लवली कहा जाता था, ने ‘फेयर’ विशेषण के इस्तेमाल के खिलाफ आवाज उठाए गए तो उसे यह विशेषण हटाना पड़ा और कंपनी का नाम बदल कर ‘ग्लो एंड लवली’ रखना पड़ा. आप का जो भी रंग है उस में ही आत्मविश्वासी बनिए कोई क्या कह रहा है इसे जाने दीजिए. अपने गुणों को पहचानिए तन से नहीं मन से सुंदर बनें. कुकिंग, डांसिंग, खेलकूद, म्यूजिक,आप जिस में भी अच्छी हैं उस पर आप को गर्व होना चाहिए. इस से आप का कौंन्फिडेंस आप के चेहरे पर साफ झलकेगा और आप की असल खूबसूरती लोगों को खुदबखुद नजर आएगी.

अगस्त माह का दूसरा सप्ताह कैसा रहा बौलीवुड का कारोबारः सिनेमाघरों में पसरा रहा सन्नाटा

अगस्त माह का दूसरा सप्ताह बौलीवुड और सिनेमाघरों के लिए ठीक नहीं रहा. इस सप्ताह यानी कि 9 अगस्त को विनीत कुमार सिंह, अक्षय ओबेराय व उर्वशी की फिल्म ‘घुसपैठिया’ के अलावा ‘होकस फोकस’ और ‘आलिया बसु गायब है’ सहित तीन छोटे बजट की फिल्में प्रदर्शित हुईं. ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि पिछले सप्ताह की दो फिल्मों ‘उलझ’ तथा ‘औरों में कहां दम था’ को कुछ फायदा हो जाएगा, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. सिनेमाघरों में सन्नाटा छाया रहा.

अगस्त माह के पहले सप्ताह में प्रदर्शित जान्हवी कपूर की फिल्म दूसरे सप्ताह में महज दो करोड़ ही कमा सकी. दोनों सप्ताह का मिला कर इस फिल्म ने केवल 9 करोड़ रुपए ही कमाए. इस में से निर्माता की जेब में बामुश्किल 4 करोड़ ही जाएंगे. सब्सिडी मिलने के बावजूद 40 करोड़ में बनी ‘उलझ’ से निर्माता को 36 करोड़ का नुकसान हुआ. अब तो लोग खुल कर ‘उलझ’ के निर्देशक सुधांशु सरिया पर फिल्म के इस कदर नुकसान का ठीकरा फोड़ने लगे हैं.

वहीं अगस्त के प्रथम सप्ताह में प्रदर्शित अजय देवगन और तब्बू की फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ भी दूसरे सप्ताह में महज दो करोड़ ही कमा सकी. इस तरह दो सप्ताह के अंदर इस फिल्म ने 12 करोड़ कमाए, जिस में से निर्माता की जेब में जाएंगे 5 करोड़ रुपए. जबकि फिल्म का बजट 100 करोड़ रुपए है. इस का अर्थ यह हुआ कि निर्माता को पूरे 95 करोड़ रुपए का घाटा हुआ.

अगस्त माह के दूसरे सप्ताह, 9 अगस्त को प्रदर्शित निर्देशक सुशि की विनीत कुमार सिंह, उर्वशी और अक्षय ओबेराय के अभिनय से सजी फिल्म ‘घुसपैठिया’ केवल एक लाख रुपए ही कमा सकी. इस में से निर्माता की जेब में कुछ नहीं आएगा. मतलब यह हुआ कि फिल्म की पूरी लागत डूब गई. दूसरे सप्ताह, 9 अगस्त को ही निर्देशक पैरी डुडेजा की 32 अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड जीत चुकी फिल्म ‘होकस फोकस’ प्रदर्शित हुई. इस फिल्म में सुचि कुमार, सत्येंद्र सिंह गहलोत और सोना भंडारी की अहम भूमिकाएं हैं, मगर यह फिल्म पूरे सात दिन में बौक्स औफिस पर केवल तीन लाख रुपये ही कमा सकी. इस फिल्म के निर्माता की पूरी लागत डूब गई.

दूसरे सप्ताह 9 अगस्त को ही प्रीति सिंह निर्देशित फिल्म ‘आलिया बसु गायब है’ ने पूरे सात दिन के अंदर 35 लाख रुपए ही कमाए. जबकि इस फिल्म में सलीम दीवान के साथ विनय पाठक व राइमा सेन की भी अहम भूमिकाएं हैं. इस 35 लाख रुपये में से निर्माता की जेब में चाय पीने के पैसे भी नहीं जाएंगे. लेकिन फिल्म ‘आलिया बसु गायब है’ के निर्माता की सेहत पर कोई असर नहीं होने वाला क्योंकि फिल्म का निर्माण खुद अभिनेता सलीम दीवान ने किया है. सलीम दीवान के पिता की बहुत बड़ी दवा कंपनी है और खुद सलीम दीवान ‘राजस्थान हर्बल्स इंटरनेशनल’ के प्रमोटर और सीईओ हैं, जो आयुर्वेदिक दवाओं का निर्माण करती है, जिस के पूरे भारत में 1400 से अधिक केंद्र हैं. सलीम दीवान ‘नशा मुक्ति केंद्र’ के प्रबंध निदेशक भी हैं.

इस तरह दूसरे सप्ताह हर सिनेमाघर में सन्नाटा ही पसरा रहा.

इस तरह शादी के बाद भी महिलाएं रख पाएंगी अपनी पुरानी दोस्ती कायम

शादी के बाद महिलाओं की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है. महिलाओं के लिए उन का घरपरिवार सब से बड़ी प्रायोरिटी बन जाते हैं. मां बनने के बाद उन की जिम्मेदारियां और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं पति और परिवार के सदस्यों की जिम्मेदारियां निभाने में उन का अपने पुराने दोस्तों से संपर्क टूट जाता है. न चाहते हुए भी पुराने दोस्त दूर होने लगते हैं और दोस्ती का नाम मात्र की रह जाती है. महिलाएं अपने स्कूल कालेज के पुराने दिनों और पुरानी दोस्ती को मिस करती हैं और उन्हें अकेलापन महसूस होता है. पुराने दोस्तों से कनेक्टेड नहीं रहने पर बहुत सी महिलाएं खुश नहीं रह पाती हैं और अपनी परेशानियों से अकेले जूझते हुए डिप्रेशन की शिकार हो जाती हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी भी इंसान की जिंदगी में दोस्त बहुत महत्वपूर्ण होते हैं.

पुराने दोस्तों के साथ समय बिताना तनाव दूर करने का एक शानदार तरीका

शादी के बाद ज़िंदगी में दोस्तों के होने से महिलाओं को न सिर्फ सपोर्ट मिलता है, बल्कि वह उन के नए परिवार के सदस्य के समान ही बन जाते हैं क्योंकि दोस्तों के साथ महिलाएं अपनी फीलिंग्स शेयर करती हैं, हंसीमजाक करती हैं और रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में बातचीत कर के रिलैक्स्ड रहती हैं. दोस्तों के साथ बातचीत करते हुए किसी तरह की टेंशन नहीं होती और महिलाओं को अपनी कई मुश्किलों का हल भी मिल जाता है.

अगर महिलाएं अपनी दोस्ती को जीवनभर संभाल कर रखना चाहती हैं तो कुछ तरीकों को अपना कर अपनी शादी के बाद जुड़े नए रिश्तों के साथ ही दोस्ती को भी आसानी से निभा सकती हैं और पुराने दोस्तों के साथ अपने रिश्ते को मजबूत बना सकती हैं.

पतिपत्नी दोनों के दोस्त एक परिवार की तरह रहें

शादी के बाद अपने पुराने दोस्तों से मिलते समय, उन के साथ किसी भी तरह का गेट टू गेदर करते समय अपने लाइफ पार्टनर को भी साथ ले जाएं. जब भी मिलें दोनों के दोस्तों को इन्वाइट करें. उन से मिलवाएं. दोनों के दोस्त एक परिवार की तरह रहें. इस से दोनों को एकदूसरे के दोस्त से मिलने उन के साथ दोस्ती बढ़ाने में कोई आपत्ति नहीं होगी. साथ ही सब से जरूरी बात पतिपत्नी के बीच एकदूसरे के प्रति भरोसा बढ़ेगा दोनों के दोस्त एकदूसरे की कंपनी एन्जोय करेंगे.

पुराने दोस्तों से जुड़ाव बनाए रखें

शादी के बाद एक नए परिवेश में खुद को ढालने की व्यस्तता के कारण कई बार महिलाएं अपने पुराने दोस्तों से मेलजोल के लिए समय नहीं निकाल पाती हैं. ऐसे में अपने नए परिवार को समय देने के साथसाथ आप खुद को भी प्रायोरिटी दें और अपनी पुरानी सहेलियों से भी मिलती रहें. यकीन मानिए, इस से आप की पुरानी दोस्ती में जान आ जाएगी. आप शौपिंग के बहाने उन से मिल सकती हैं या फेस्टिवल के मौके पर उन्हें अपने घर पर इन्वाइट कर सकती हैं. आप अगर उन से मिल नहीं पा रही हैं तो कम से कम फोन पर या मैसेज पर आपस में बातचीत करती रहें.

पार्टनर को अपने दोस्तों की अहमियत बताएं

शादी के बाद कई बार महिलाएं पति को अपनी सहेलियों के बारे में नहीं बतातीं या उन्हें इस बात का एहसास नहीं करातीं कि आप के लिए सहेलियां भी आप के लिए खास हैं ऐसे में पतिपत्नी के दोस्तों के बारे में जान नहीं पाते और पत्नी के लिए उस के दोस्त क्या अहमियत रखते हैं, यह नहीं समझ पाते इसलिए महिलाएं शादी के बाद भी अपने पति से अपने दोस्तों के बारे में बात करती रहें. इस से पतिपत्नी के बीच दोनों के दोस्तों को ले कर जो असुरक्षा की भावना होगी, वह भी दूर हो जाएगी और आप दोनों चाहें तो दोनों एक दोस्तों के साथ कभी कोई ट्रिप भी साथ में प्लान कर सकते हैं.Community-verified icon

धार्मिक पाखंडों और कर्मकांडों में उलझे, कट्टर हो कर पिछड़ रहे कायस्थ

हिंदी भाषी राज्यों के जो तीन प्रमुख शहर सियासी तौर पर कायस्थ बाहुल्य माने जाते हैं उन में प्रयागराज और पटना से भी पहले भोपाल का नाम शुमार किया जाता है. पिछले 15 सालों से कायस्थों की धार्मिक चेतना और पहचान इतने उफान पर हैं कि देखते ही देखते दूसरे छोटेबड़े शहरों की तरह भोपाल में भी उन के आराध्य भगवान चित्रगुप्त के तीन मंदिर बन गए हैं. ये तीनों ही मंदिर टीटी मगर, 1100 क्वार्टर्स और नेवरी स्थित मंदिर हालाँकि बहुत छोटे हैं लेकिन उन में तबियत से पूजापाठ यज्ञहवन सहित दूसरे कर्मकांड भी होते हैं.

बीती 10 अगस्त को भोपाल के कायस्थों का उत्साह देखते ही बनता था क्योंकि इस दिन उन के पहले महामंडलेश्वर चित्रगुप्त पीठ वृन्दावन के संजीव सक्सेना उर्फ़ श्रीश्री 1008 सच्चिदानंद पशुपतिजी अपने लाव लश्कर सहित पधार रहे थे. मौका था उक्त चित्रगुप्त पीठ के गर्भ गृह में स्थापित होने वाली शिला चरण पादुका एवं प्रभु का विग्रह पूजन के लिए देश भर में घूम रही दिव्य यात्रा का स्वागत समारोह पूर्वक करने का. इस बाबत कोई डेढ़ दर्जन छोटेबड़े कायस्थ संगठनों ने इस यात्रा के स्वागत की अपील इन शब्दों के साथ की थी कि आइए हम सभी इस दिव्य यात्रा के सहभागी बन कर इस स्वर्णिम पल के साक्षी बनें.

बढ़चढ़ कर भोपाली कायस्थ इस यात्रा के सहभागी और साक्षी बने. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस से उन की समस्याएं हल हो जाएंगी जिन का रोना वे रोते रहते हैं. उन की संतानों को रोजगार मिलने लगेगा और खासतौर से लड़कियों की शादी वक्त पर होने लगेगी और दहेज प्रथा भी खत्म हो जाएगी. उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि भगवान चित्रगुप्त प्रसन्न हो कर उन्हें वह सम्मान, वैभव और संपन्नता प्रदान करेंगे जिन के किस्सेकहानी वे बड़ी कसक और चाव से सुनाते हैं कि हमारे पूर्वज राजा और जमींदार हुआ करते थे.

कायस्थों का पूजापाठी, कर्मकांडी और अंधविश्वासी होना कभी किसी सबूत का मोहताज नहीं रहा जिस का उन के तथाकथित वैभवशाली अतीत से गहरा ताल्लुक है. हर कोई मानता है कि एक दौर में कायस्थ सब से शिक्षित, बुद्धिजीवी और सत्ता की दिशा तय करने वाली जाति हुआ करती थी. मुगलों और अंगरेजों के शासन काल में हुकुमत के सब से ज्यादा नजदीक यही जाति हुआ करती थी. इस की वजह थी कायस्थों की लिखनेपढ़ने की आदत जिस के चलते समाज तो उन्हें सम्मान से देखता ही था साथ ही शासक भी आदर देते थे. मुगल काल में कायस्थों ने उर्दू और अरबी भाषाएं सीखी और मुगल शासकों के चेहते बन गए. अकबर के दरबार में जो नव रत्न थे उन में से एक कायस्थ टोडरमल भी थे उन्होंने ही मुगलों की राजस्व प्रणाली का खाका तैयार किया था. इस के बाद से बहादुरशाह जफर की हुकुमत तक कायस्थ मुग़ल शासन में अहम पदों पर रहे.

जब अंगरेज आए तो कायस्थों ने झटपट अंगरेजी सीख ली और प्रशासन का हिस्सा बन गए. राजस्व और शिक्षा के कामों में कायस्थ हमेशा आगे रहते थे इसलिए अंगरेज भी उन पर मेहरबान रहते थे. कायस्थों को राय की उपाधि उन्होंने दी और कई जगह जागीरदार, मालगुजार और जमींदार नियुक्त कर दिया.

पश्चिम बंगाल के कायस्थ खुद को भद्रलोक मानते थे. यह शब्द कुलीन और सम्मानित लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था तब अधिकतर जमीनों के मालिक कायस्थ ही हुआ करते थे. बंगाल के मुसलिम शासकों के वजीर और राजकोषीय अधिकारी भी कायस्थ ही नियुक्त किए जाते थे.

मशहूर इतिहासकार अबू फजल के मुताबिक बंगाल में अधिकतर हिंदू जमींदार और जागीरदार कायस्थ ही थे. बंगला साहित्य को पढ़ने बाले बेहतर बता सकते हैं कि तत्कालीन कायस्थ कितने माहिर लेखक हुआ करते थे लेकिन लेखन के साथसाथ बंगाली कायस्थों ने अंगरेजों के व्यापार में भी हाथ बंटाया. 1911 में बंगाल में भारतीयों के मालिकाना हक बाली सभी मिलों कारखानों और खदानों में कायस्थों और ब्राह्मणों को कोई 40 फीसदी मालिकाना हक मिला था.

ब्रिटिश काल कायस्थों का स्वर्णिम युग था क्योंकि उन्हें रसूखदार और जिम्मेदार पदों पर नियुक्तियां मिलती थीं. सार्वजानिक प्रशासन के अलावा कायस्थों को अदालतों में भी जज और बेरिस्टर के पद मिलते थे. निचले स्तर पर शिक्षक, वैद्ध और पटवारी व तहसीलदार ज्यादातर कायस्थ ही हुआ करते थे. ऐसा इसलिए कि कायस्थ वफादार माने जाते थे लेकिन उन की निम्न वर्गों में भी पूछपरख रहती थी. क्योंकि वे ब्राह्मणों की तरह जाति को ले कर किसी पूर्वाग्रह का शिकार नहीं थे जो ब्राह्मण कायस्थ वर्चस्व की लड़ाई की वजह भी जब तब बन जाया करता था.

स्वामी विवेकानंद ने वर्ण व्यवस्था की आलोचना करते ब्राह्मणों के वर्चस्व और दुकान को चुनौती यह कहते दी थी कि मनुष्य की जाति का निर्धारण जन्म से नहीं होना चाहिए. हकीकत में विवेकानंद जातिगत छुआछुत के विरोधी थे. वे इसे दयनीय सामाजिक प्रथा करार देते थे. हिंदू धर्म का दुनिया भर में प्रचार करने वाले इस महापुरुष, जो समाज सुधारक ज्यादा था, को वो सम्मान नहीं मिला जिस के वे हकदार थे तो इस के पीछे ब्राह्मणों का गुस्सा एक बड़ी वजह थी.

कायस्थ और ब्राह्मण दोनों मुख्यधारा की जातियां रही हैं. लेकिन कायस्थों का जोर समाज सुधार पर ज्यादा रहा. यह काम कुछ धार्मिक सिद्धांतों जो मूलत पाखंड थे को नकार कर ही किया जा सकता था. यह बात ब्राह्मणों को न पहले रास आता थी न आज आती है. ब्राह्मणत्व को एक बड़ा झटका एक और सुधारवादी कायस्थ राजा राममोहन राय ने भी दिया था. उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा, जातिवाद कर्मकांड और पर्दा प्रथा का विरोध अभियान पूर्वक करते ब्राह्मणों के दबदबे को दरका दिया था.

राममोहन पेशे से पत्रकार और लेखक थे जिन्होंने अंगरेजों के अत्याचारों का भी उतना ही विरोध किया था जितना कि ब्राह्मणवाद का किया था. 1828 में उन्होंने अपनी मिशन को अंजाम देने ब्रह्म या ब्रहमो समाज की स्थापना की थी. इस के बाद से उन्हें भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाने लगा था. कुरीतियों के घोर विरोधी होने के अलावा राममोहन राय स्त्री शिक्षा के भी हिमायती थे.

उन की लोकप्रियता के चलते ब्राह्मण उन का विरोध नहीं कर पाए तो उन्होंने उन्हें ब्रह्म समाज की स्थापना करने का हवाला देते ब्राह्मण प्रचारित करना शुरू कर दिया. ठीक वैसे ही जैसे बुद्ध को अवतार घोषित कर दिया था. अभी भी अधिकतर लोग राजा राममोहन राय को ब्राह्मण ही समझते हैं लेकिन हकीकत में उन का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के एक कायस्थ परिवार में हुआ था.

आजादी के कोई 20 साल बाद तक भी कायस्थों का जलवा और रुतबा कायम रहा. कायस्थ 70 के दशक तक हर क्षेत्र में आगे रहे. राजनीति में डाक्टर राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बनाए गए फिर पंडित नेहरु के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने. जयप्रकाश नारायण के आंदोलन ने कैसे इंदिरा गांधी की बादशाहत को चुनौती दी थी यह कोई भी कायस्थ बड़े फख्र से गिना देगा. वह इस कड़ी में सुभाष चंद्र बोस का भी नाम लेगा कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में कितना अहम और हाहाकारी रोल निभाया था.

साहित्य की बात करें तो मुंशी प्रेमचंद सहित महादेवी वर्मा, फिराक गोरखपुरी और हरिवंश राय बच्चन के नाम इतिहास में दर्ज हैं ही. फिल्म इंडस्ट्री में गायक मुकेश और अमिताभ बच्चन जैसे बड़े और भी वजनदार नाम हैं. क्रांतिकारियों में गणेश शंकर विद्यार्थी और खुदीराम बोस के नाम हैं. यह सीरिज पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु से होते शत्रुधन सिन्हा पर खत्म होती है. और भी कई उल्लेखनीय नाम हैं जिन पर कायस्थ गर्व करते हैं.

पर आज का कायस्थ किसी नाम या बात पर गर्व करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि उस ने लिखनापढ़ना बंद सा कर दिया है. 70 के दशक से पिछड़ी जाति वालों ने जो पढ़ना लिखना चालू किया तो यह बात मुहावरा बन कर रह गई कि कायस्थ ही शिक्षित होते हैं और सरकारी नौकरियों में बड़ी तादाद में हैं. पिछड़ों के शिक्षित होने को कायस्थों ने चुनौती और प्रतिस्पर्धा की रूप में नहीं लिया. क्योंकि तब वे आर्थिक रूप से सम्पन्न थे. मुगलों और अंगरेजों नें उन्हें सेवाओं के बदले जो जमीने दी थीं वे उन की आमदनी का एक बड़ा जरिया थीं.

पिछड़ों के बाद दलित, आदिवासी भी पढ़लिख कर सरकारी नौकरियों में आने लगे तो कायस्थों का एकाधिकार खत्म होने लगा. लेकिन इस की वजह उन्होंने सिर्फ जातिगत आरक्षण को माना और उसे दोष भी दिया पर यह नहीं समझ पाए कि दरअसल में विरासत में मिली बुद्धि अब टाटा बायबाय कर रही है जो आई तो शिक्षा से ही थी. चूंकि अब यह सब के पास हो चली थी इसलिए कायस्थ पिछड़ने लगे. अपनी बदहाली के बाबत वे भाग्य को कोसने लगे और उस से बचने मंदिरों में घंटे घड़ियाल बजाने सुबहशाम जाने लगे. तबियत से दानपुण्य करने लगे जो उन की पिछली पीढ़ी से कहीं ज्यादा और हैसियत के बाहर था.

सीधेसीधे कहें तो धार्मिक कर्मकांडों ने भाग्यवादी होते जा रहे कायस्थों को पिछड़ों की जमात में ला खड़ा कर दिया. 70 – 80 के दशक में पिछड़े जब पढ़ रहे थे तब कायस्थ तेजी से पूजापाठ कर रहे थे. इस के पहले भी वे धर्म के बड़े ग्राहक थे लेकिन तब उन्हें चुनौती देने वाला सिवाय ब्राह्मणों के कोई और नहीं था.

क्षत्रिय ज्यादातर जमींदार थे इसलिए पढ़ाईलिखाई में उन की दिलचस्पी कम थी. वैश्य बनिए इतना ही पढ़ते थे कि बहीखाता भरना और हिसाबकिताब सीख जाएं और अपने पुश्तैनी कारोबार संभालें. अच्छी बात यह है कि अब सभी बराबरी से पढ़ रहे हैं और अफसोस की बात यह है कि किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की मेरिट लिस्ट में कायस्थ युवा अब अपवाद स्वरूप ही नजर आते हैं.

अतीत की इन बातों और समीकरणों का वर्तमान से गहरा संबंध है कि अपनी बदहाली से कायस्थों ने कोई सबक लेते सुधरने की कोशिश नहीं की है. भोपाल की यात्रा देख तो लगता है कि अभी हालात और बिगड़ेंगे. अब कायस्थ चित्रगुप्त पीठ में भी दानदक्षिणा देंगे क्योंकि महामंडलेश्वर उन्हें बता रहे हैं कि हम महान थे और आज की महानता यह है कि अपने आराध्य चित्रगुप्त की भी पीठ हो जो दुनिया के पहले न्यायाधीश थे 15 एकड़ रकबे में बन रही भव्य चित्रगुप्त पीठ के लिए चंदा भी मांग रहे हैं.

कायस्थों का पौराणिक कनैक्शन भी कम दिलचस्प नहीं है. ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, छाती से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पांवों से शूद्र पैदा हुए लेकिन कायस्थ को ब्रह्मा ने अपनी काया यानी शरीर की अस्थियों से बनाया इसलिए वह कायस्थ कहलाया. चित्रगुप्त से कायस्थों की 12 जातियां हुईं जो अलगअलग सरनेमों से पूरे देश भर में फैली हुई हैं. इन में से ज्यादा प्रचिलित और जानीपहचानी हैं- श्रीवास्तव, सक्सेना, सिन्हा, माथुर, खरे, भटनागर, गौड़ और कुलश्रेष्ठ वगैरह.

10 अगस्त को भोपाल के कायस्थ पूजापाठ करते इस बात पर गर्व कर रहे थे कि हमारे चित्रगुप्त भगवान सभी के पापपुण्यों का लेखाजोखा रखते हैं और उन्ही के मुताबिक सजा और इनाम देते हैं. इस नाते ब्राह्मणों को दंड देने का अधिकार दुनिया में अगर किसी के पास है तो वह कायस्थ ही हैं. उलट इस के हाल तो यह है कि कायस्थ ब्राह्मणों के इशारे पर नाचतेगाते हैं उन के पांवों में लोट लगाते हैं. दिल खोल कर मंदिरों में पैसा चढ़ाते हैं और कर्मकांडों पर भी इफरात से पैसा फूंकते हैं. अब उन्हें यह बताने वाला कोई नहीं कि इसी दरियादिली और दिखावे जो शुद्ध मूर्खता है ने उन्हें हर लिहाज से कंगाल सा कर दिया है. अब उन के पास इतना ही है कि इज्जत से वे खा पी पा रहे हैं. पंडेपुजारियों, मंदिरोंम, पाखंडों और कर्मकांडों ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है.

अब बचा खुचा लूटने उन की ही जाति के महामंडलेश्वर शो रूम बना रहे हैं और उस की मार्केटिंग भी घूमघूम कर रहे हैं. कायस्थों के पहले महामंडलेश्वर स्वयं भू नहीं हैं बल्कि उन्हें इस की मान्यता ब्राह्मणों ने दी है क्योंकि यह हक उन्हों के पास है. ब्राह्मण तो अब दलितों, औरतों और किन्नरों तक को महामंडलेश्वर का दर्जा फ्रेंचायजी की तरह देने लगे हैं कि जाओ जी भर के अपनी जाति वालों की जेबे ढीली करो, पापपुण्य, मोक्षमुक्ति के नाम पर उन्हें लूटो और महामंडलेश्वर की पदवी देने की वाजिब कीमत हमें चुकाते रहो.

इस से भी बड़ी दिक्कत और चिंता की बात कायस्थों का दूसरी सवर्ण जातियों की तरह हिंदुत्व के प्रति कट्टर होते जाना है. आमतौर पर पहले कायस्थ मुसलमानों और दलितों से इतनी नफरत नहीं करते थे जितनी मोदी राज के शुरू होने के बाद करने लगे हैं. वे यह मानने लगे हैं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी ही हमें मुसलमानों के कहर ( काल्पनिक और थोपा गया ) से बचा सकते हैं. पहले कायस्थ वोट कांग्रेस और भाजपा में बंट जाया करता था क्योंकि तब वह वोट अपनी अक्ल का इस्तेमाल करते डालता था लेकिन अब हिंदुत्व के ठेकेदारों के इशारे पर डालते भाजपा का कोर वोट बैंक बन चुका है.

लोकसभा चुनाव में यह बहस और मानसिकता सतह पर आई थी और जानकर बहसबाजी भी हुई थी. कांग्रेस ने भोपाल लोकसभा सीट से एक कायस्थ अरुण श्रीवास्तव को टिकट दिया था जबकि भाजपा ने ब्राह्मण समुदाय के आलोक शर्मा को मैदान में उतारा था. तब उम्मीद की जा रही थी कि अगर ढाई लाख कायस्थ वोट कांग्रेस को मिल जाएं तो वे जीत भी सकते हैं क्योंकि मुसलमानों के साढ़े 5 लाख वोट एकमुश्त कांग्रेस को मिलना तय था.

लंबी बहस कायस्थ समुदाय में इस बात पर हुई थी कि धर्म बड़ा या जाति. आखिरकार धर्म जीत गया और अरुण श्रीवास्तव से गई गुजरी इमेज वाले आलोक शर्मा लगभग 5 लाख मतों से जीत गए. दिलचस्प बात यह भी है कि तब भी अधिकतर कायस्थों ने अपनी राजनीतिक उपेक्षा का रोना रोया था. लेकिन वोट हिंदूमुसलिम के चलते भाजपा को ही दिया. जाति के नाम पर वोट न देने का फैसला अच्छा था लेकिन धर्म और कट्टरवाद के नाम पर ही वोट देने का फैसला उस से कहीं ज्यादा बुरा था जिस से बुद्धिजीवी होने का तमगा गले में लटकाए इतराते रहने वाले कायस्थों की कमअक्ली और बौद्धिक दरिद्रता ही उजागर हुई थी.

देश में चित्रगुप्त के मन्दिरों की कमी नहीं है. मध्य प्रदेश के खजुराहो में सब से पुराना स्थापत्य शैली में बना चित्रगुप्त मंदिर है. पूर्वी उत्तर प्रदेश जो कायस्थों का गढ़ रहा है, वहां चित्रगुप्त मंदिरों की खासी तादाद है. 60 के दशक तक इन मंदिरों में पूजापाठ न के बराबर होता था यानी कायस्थों की प्राथमिकता शिक्षा और कैरियर होती थी. चित्रगुप्त के बड़े मंदिरों में से एक गोरखपुर में भी है जिसे बनाने का श्रेय गोरक्ष पीठ के मुखिया महंत अवैधनाथ को जाता है जो योगी आदित्यनाथ के गुरु थे.

80 तक हर जगह कायस्थ डाक्टर, वकील, जज और प्रशासनिक अधिकारी बड़ी संख्या में दिख जाते थे लेकिन अब इन की तादाद बहुत घट गई है. और भी घटेगी क्योंकि कायस्थों का ध्यान चित्रगुप्त मंदिरों में ज्यादा है. और इतना है कि जिले स्तर पर भी चित्रगुप्त मंदिर बनने लगे हैं. जहां दूज और तीज पर भजनपूजन और भंडारे होते हैं.

अब यह बौद्धिक दरिद्रता चित्रगुप्त पीठ के नाम पर केवल भोपाल से ही नहीं बल्कि देश भर से सामने आ रही है तो इसे कायस्थों के पिछड़े और कट्टर होने का सबूत ही कहा जा सकता है. पहले वे शिक्षित होने के साथ साथ संपन्न भी थे लेकिन अब सम्पन्नता धर्म और कट्टर होती मानसिकता ने छीन ली है जमीने तो पहले ही इसी के चलते ठिकाने लग चुकी हैं. ऐसे में उन्हें व्यर्थ का दंभ सुनहरे अतीत का भरने का छोड़ देना चाहिए जिस की वजह पूजापाठी होते हुए भी धार्मिक और जातिगत उदारता थी, समाज सुधार का जज्बा था, अंधविश्वासों से लड़ने की हिम्मत थी.

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