‘आजकल कहां छुआछूत बची है, अब तो कोई किसी से जाति की बिना पर व्यवहार नहीं करता. अगर आप किसी होटल या कैंटीन में कुछ खापी रहे हों तो वेटर से जाति थोड़े ही पूछते हैं. इसी तरह आप बस, ट्रेन या प्लेन में सफर कर रहे हैं तो आप को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि आप के सहयात्री किस जाति के हैं. ये गुजरे कल की बातें हैं, अब वक्त बहुत बदल गया है.’
ऐसा कहने वालों की खासतौर से शहरों में कमी नहीं और ऐसा कहने वाले अकसर नहीं बल्कि हर दफा सवर्ण ही होते हैं जो कट्टर हिंदूवादी संगठनों के अघोषित सदस्य, अवैतनिक कार्यकर्ता और हिमायती होते हैं. जो चाहते यह हैं कि जातपांत और छुआछूत पर कोई बात ही न करे जिस से उन की यह खुशफहमी, जो दरअसल सवर्णों की नई धूर्तता है, कायम रहे कि अब कौन जातपांत को मानता है.
यह तो इतिहास में वर्णित एक झूठा सच है. अब इस पर चर्चा करना फुजूल है और जो करते हैं वे अर्बन नक्सली, कांग्रेसी, वामपंथी, पापी या देश तोड़ने की मंशा रखने वाले लोग हैं जो नहीं चाहते कि भारत विश्वगुरु बने और दुनिया सनातन उर्फ वैदिक उर्फ हिंदू धर्म का लोहा माने.
उदारता का मुखौटा पहने इन कथित और स्वयंभू समाज सुधारकों को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का बीती 16 सितंबर को राजस्थान के अलवर में दिया गया प्रवचननुमा भाषण जरूर पढ़ना चाहिए और फिर सोचना सिर्फ इतना चाहिए कि आखिर क्यों उन्हें बहुत सी रस्मअदायगी वाली बातों के साथ यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि हमें छुआछूत को पूरी तरह मिटा देना है.
अब जो लोग यह दावा करते हैं कि अब कहां छुआछूत और जातिगत भेदभाव हैं, क्या वे मोहन भागवत को देश तोड़ने वाला, अर्बन नक्सली, वामपंथी, पापी, कांग्रेसी या कुछ और कहने की हिम्मत या जुर्रत कर पाएंगे क्योंकि उन्होंने एक बार फिर माना है और सवर्ण हिंदुओं का आह्वान किया है (क्योंकि यह सब जाहिर है वही करते हैं क्योंकि धार्मिक तौर पर वही कर सकते हैं, दलित नहीं) कि हमें छुआछूत को पूरी तरह मिटाना है?
इस के अलावा वे यह जताने से भी नहीं चूके कि देश हिंदू राष्ट्र है और हिंदू ही उस के सर्वेसर्वा हैं.
केंद्र में हैं महिलाएं
छुआछूत अगर यों कह देने भर से मिटने वाला रोग होता तो इसे गांधी के कहने से ही मिट जाना चाहिए था. लेकिन यह मिट नहीं रहा तो इस की जड़ में बहुत सारी वजहों के अलावा इंटरकास्ट मैरिजों पर लगी तमाम दृश्य और अदृश्य बंदिशें भी हैं.
इन में से भी धार्मिक प्रमुख मोहन भागवत अपने संबोधनों में अकसर डाक्टर भीमराव अंबेडकर का नाम भी बड़े ही सम्मानजनक तरीके से लेते रहे हैं जबकि दोनों व्यक्तिगत व वैचारिक स्तर पर नदी के उन दो किनारों सरीखे हैं जो आपस में कभी मिलते ही नहीं.
कभी कोई हिंदूवादी नेता यह कहता सुनाई नहीं देगा कि भीमराव अंबेडकर ने जातिगत भेदभाव और छुआछूत दूर करने के महज 2 तरीके बताए थे. उन में से पहला था, अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन देना और दूसरा था वेद पुराणों सहित तमाम धर्मग्रंथों को नष्ट कर देना. ये दोनों ही उपाय कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि इन्हीं से पंडेपुजारी और पेशवाओं की न केवल रोजीरोटी चलती है बल्कि समाज और सत्ता के सारे सूत्र इन्हीं के हाथ में रहते हैं.
अंतर्जातीय विवाह अब, हालांकि होने लगे हैं लेकिन उन की तादाद कुल शादियों की 5 फीसदी के लगभग ही है. इन में भी अहम बात यह है कि अपर कास्ट के युवा तो आपस में शादी कर रहे हैं लेकिन दलितसवर्ण शादियां, जिन्हें अंतर्वर्णीय शादी कहा जा सकता है, अपवादस्वरूप ही होती हैं और उन में भी आधी जातिगत अहंकार के चलते ज्यादा नहीं चल पातीं और जो आधी चल जाती हैं वे कपल पारिवारिक, सामाजिक बहिष्कार और अनदेखी का दंश झेलते रहते हैं.
भीमराव अंबेडकर का अंतर्जातीय विवाह
भीमराव अंबेडकर ने जो कहा वह कर भी दिखाया था. उन्होंने पहली पत्नी रमाबाई की मौत के बाद दूसरी शादी अपने से उम्र में 18 साल छोटी सविता नाम की महिला, जो पेशे से डाक्टर थीं, से 1948 में की थी. यह उस दौर की चर्चित और विवादित लव मैरिजों में एक थी जिस का विरोध ब्राह्मणों के साथसाथ कुछ दलितों ने भी किया था.
उन में भी अंबेडकर के परिवारजन ही प्रमुख थे. सविता उन का इलाज कर रही थीं और उसी दौरान दोनों एकदूसरे को चाहने लगे. सविता एक संपन्न मराठी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं. वे चितपावन ब्राह्मण थीं, इसी जाति से जो चर्चित लोग बतौर हस्ती गिनती में हैं उन में सब से ऊपर नाम डाक्टर मोहन भागवत का है.
इस शादी का विरोध कर रहे दलितों की दलील यह थी कि यह ब्राह्मणों की साजिश है जो अंबेडकर की ब्राह्मण विरोधी राजनीति और सामाजिक प्रयासों पर पलीता लगाना चाहते हैं. लेकिन तमाम एतराजों और विरोधों के बाद भी यह शादी लगभग सफल रही थी.
सविता ने हमेशा भीमराव का एक आदर्श पत्नी की तरह ध्यान रखा. हालांकि अंबेडकर के आखिरी दिनों में उन के ही परिजनों ने इन दोनों को अलग कर दिया था. लेकिन तब तक अंबेडकर के कुछ अनुयायी उन्हें ‘सविता माई’ या ‘सविता बेन’ कहने लगे थे. ये वे लोग थे जिन्होंने कभी अंबेडकर की समझ पर शक नहीं किया. सविता अपने आखिरी दिनों में दिल्ली के महरौली स्थित फार्महाउस में कैद सी रहीं.
‘मनुस्मृति’ का दहन
जातिगत भेदभाव और छुआछूत दूर करने के दूसरे उपाय के तहत भीमराव अंबेडकर ने ‘मनुस्मृति’ को समारोहपूर्वक जलाया भी था. इस का भी ब्राह्मणों ने तीव्र विरोध किया था लेकिन यह सब तात्कालिक और प्रतीकात्मक ही साबित हुआ. ब्राह्मणों ने इस उदाहरण या अपवाद को नियम नहीं बनने दिया.
बावजूद इस के कि नेहरू व अंबेडकर की जोड़ी ने संविधान में यह व्यवस्था कर दी थी कि 2 वयस्क बिना किसी डर या दबाव के अपनी मरजी से किसी भी धर्म, जाति या वर्ण में शादी कर सकते हैं. इस कानून से हुआ भर इतना कि सवर्ण युवा आपस में शादी करने लगे. लेकिन जैसा कि पहले बताया गया उस के मुताबिक यह संख्या इतनी नहीं है कि समाज से छुआछूत और जातिगत भेदभाव दरकने लगें.
ऐसा क्यों, इस का जवाब भी अंबेडकर ने अपने जीवनकाल में ही दे दिया था कि अंतर्जातीय विवाहों का विरोध सामाजिक और राजनीतिक शक्ति खोने के डर से पैदा हुआ है. यह डर आज भी कायम है. हैरत की बात तो यह है कि अब अंबेडकर के नाम पर ही दलितों को गुमराह किया जाने लगा है. उन की जयंती और पुण्यतिथि सहित संविधान दिवस पर शोबाजी दलित संगठनों और नेताओं से ज्यादा आरएसएस और भाजपा से जुड़े लोग ही यह कहते करते हैं कि असमानता दूर करने और देश की तरक्की के लिए बाबा साहब के विचार बेहद प्रासंगिक हैं. हमें उन के विचारों को अमल में लाना चाहिए.
भीमराव अंबेडकर ने जितना जोर छुआछूत और जातिगत भेदभाव मिटाने पर दिया था उतना ही महिलाओं की शिक्षा और जागरूकता पर भी दिया था. इसे भी उन्होंने संविधान के जरिए कर दिखाया था.
विज्ञान व संविधान की बदौलत बदलाव
आज जो महिलाएं पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हैं वे अधिकतर सवर्ण ही हैं. लेकिन उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं कि यह सब उन के हित के कई कानून बना देने से मुमकिन हुआ है. धर्म का इस में कोई योगदान नहीं है जो आज भी उन्हें कैद में रखने की साजिश रचता रहता है.
एक नपीतुली साजिश के तहत पैसे वाले हो चले दलितों की तरह महिलाओं को भी पूजापाठ का अधिकार मिल गया है. लेकिन यह पूर्ण या पुरुषों के बराबर का नहीं है क्योंकि मासिकधर्म के दिनों में वे पूजापाठ नहीं कर सकतीं. इन 5 दिनों में धर्मशास्त्रों और ठेकेदारों के मुताबिक वे अछूत और अपवित्र रहती हैं.
कई मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है जिस के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी, जो एक तरह से बेमानी थी क्योंकि वे जो अधिकार मांग रही थीं वही उन के अधिकार छीनने का जिम्मेदार है. शायद ही महिलाएं कभी सोच पाएं कि अब उन्हें श्मशान घाट जा कर अपने पिता या पति को मुखाग्नि देने की सहूलियत इसलिए दी जा रही है कि वे धर्म के पिंजरे में कैद रहें और पैसा चढ़ाती रहें.
इस साल पितृपक्ष के दिनों में गया सहित दूसरे कई धार्मिक शहरों में महिलाओं ने भी पिंडदान किया. इस का भी मकसद यही था कि उन की जागरूकता पर रूढि़यों और अंधविश्वासों का ग्रहण लगा दिया जाए. दानदक्षिणा तो वे भी देंगी ही, इसलिए क्यों धार्मिक उसूलों के नाम पर सख्ती बरतते हुए अपनी आमदनी और ग्राहकी कम की जाए. महिलाएं ज्यादा से ज्यादा तादाद में पिंडदान करें, इस के लिए पंडों ने पिछले 10-12 सालों से सीता की इस कहानी का जम कर प्रचारप्रसार किया कि उन्होंने राम और लक्ष्मण की गैरमौजूदगी में अपने ससुर दशरथ का श्राद्ध व पिंडदान किया था तो आज की महिलाएं क्यों नहीं कर सकतीं.
महिलाओं की जिंदगी आसान बना देने में कानून के बाद विज्ञान का ही अहम योगदान है. किचन में अब उन्हें चक्की नहीं पीसनी पड़ती, चूल्हे में लकडि़यां नहीं ठूंसनी पड़तीं, चटनी बनाने के लिए सिलबट्टे पर मेहनत नहीं करनी पड़ती, मीलों दूर से पानी ढो कर नहीं लाना पड़ता. और तो और, अब फ्रिज, ओवन, मिक्सी जैसे कई वैज्ञानिक आविष्कारों ने सहूलियतें दे कर उन में विकट का आत्मविश्वास भरा है.
इसे तोड़ने के लिए नए टोटके उन्हें चिता जलाने और पिंडदान करने देने के रचे जा रहे हैं. मंदिर, सत्संग, प्रवचन और तीर्थस्थलों में रौनक महिलाओं से है क्योंकि धर्म की सब से बड़ी ग्राहक यही हैं. इस से भी जी नहीं भरता तो अब उन्हें मुसलमानों का डर दिखा कर और कट्टर बनाया जा रहा है कि देखो, वे सिर्फ हमारे मंदिर ही नहीं लूटते बल्कि तुम्हारी इज्जत भी सरेआम लूटते हैं. इस और ऐसी कई दुश्वारियों से बचना है तो धर्म वाली पार्टी को वोट और पंडों को नोट देती रहो. भगवान तुम्हारा भला और रक्षा करेंगे.
मकसद ब्राह्मणवाद को प्रोत्साहन
छुआछूत पर रोशनी डालते हुए मोहन भागवत ने अलवर में यह भी स्पष्ट किया कि ‘हम अपने धर्म को भूल कर (काश कि ऐसा कभी हो पाए) स्वार्थ के अधीन हो गए हैं, इसलिए छुआछूत चला, ऊंचनीच का भाव बढ़ा. हमें इस भाव को पूरी तरह मिटा देना है. जहां संघ का काम प्रभावी है, संघ की शक्ति है वहां कम से कम मंदिर, पानी, श्मशान सब हिंदुओं के लिए खुले होंगे. यह काम समाज का मन बदलते हुए करना है, सामाजिक समरसता के माध्यम से परिवर्तन लाना है.’
मोहन भागवत की असल मंशा ब्राह्मणवाद को प्रोत्साहित करने की है और हमेशा से थी, उसे समझने से पहले एक नजर कुछ विद्वानों के जाति संबंधी कोटेशन पर डालें जो जातियों के मकड़जाल को सम?ाने के लिए बेहद जरूरी है-
इस देश के लोग पीढि़यों से सिर्फ जाति को देखते आ रहे हैं व्यक्तित्व देखने की उन्हें न आदत है, न परवा है.
-हजारीप्रसाद दिवेदी, हिंदी के नामचीन साहित्यकार
किसी भी धर्म का आधार कुतर्क होता है, जिस दिन धर्म तर्कों पर आ जाएगा उस दिन केवल मानवता पूजी जाएगी.
-अज्ञात
जातियां भारतीय आधुनिकता के लिए बड़ा खतरा हैं भले ही उन्होंने इस प्रक्रिया में मदद की हो. आज जाति उतनी ही लचीली बनी हुई है जितनी पहले कभी हो सकती थी.
-निकोलस बी डर्क्स, प्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्त्री, ‘कास्ट्स औफ माइंड’ किताब के लेखक
उन लोगों को फिर से शिक्षित होना चाहिए जो शिक्षित होने के बाद भी जाति के नाम पर भेदभाव करते हैं.
-दीक्षा रघुवंशी, एक आम महिला और व्लौगर
कमजोर आर्थिक हैसियत वाले दलितों के लिए जाति एक जोंक की तरह है जो एक बार चिपक जाती है तो उम्रभर पीड़ा देती है. आधुनिक सोच और प्रगति के बाद भी दलितों के साथ रोटीबेटी के संबंध आसानी से स्वीकार नहीं किए जाते.
– डा. साहेबलाल, रिटायर्ड प्रोफैसर, समाजशास्त्र
आप जाति की नींव पर कुछ नहीं बना सकते. आप एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते. जाति की नींव पर आप जो बनाएंगे वह टूट जाएगा और कभी पूरा नहीं होगा.
-डाक्टर भीमराव अंबेडकर, संविधान निर्माता
गौकशी के नाम पर हत्याएं
छुआछूत किसी कैंसर से कम नहीं जिस के आधी मिटने के इलाज का नीमहकीमी दावा कोई कर सके जैसा कि संघ प्रमुख की बातों से जाहिर होता है. जिन्हें मोहन भागवत के इस बयान के माने सम?ा न आएं उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 8 अगस्त, 2016 का हैदराबाद में दिया यह भाषण याद कर लेना चाहिए कि ‘मैं दलित भाइयों की जगह गोली खाने को तैयार हूं, मेरे दलित भाइयों को बख्शिए, हमला करना है तो मुझ पर करिए.’
गुजरात के उना में हुई दलित हिंसा के बाद उस वक्त देशभर में गौरक्षकों का तांडव सिर चढ़ कर बोल रहा था जो दलितों और मुसलमानों का गौकशी के नाम पर सरेआम कत्ल कर रहे थे. इस ताबड़तोड़ हो रही हिंसा की प्रतिक्रिया में दलितों के भी एकजुट और लामबंद होने से नरेंद्र मोदी घबरा गए थे. भाजपा कार्यकर्ताओं से रूबरू होते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि ‘मैं जानता हूं कि यह सामाजिक समस्या है. यह पाप का नतीजा है, जो हमारे समाज में घर कर गया है. समाज को जाति, धर्म और सामाजिक हैसियत के आधार पर बंटने नहीं देना चाहिए.’
धार्मिक है जाति की समस्या
पाप और पुण्य दोनों धार्मिक शब्द हैं जिन का इस्तेमाल देश में 2 नेता अकसर किया करते हैं. नरेंद्र मोदी के बाद पाप शब्द का इस्तेमाल करने वाले नेता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं जिन के प्रदेश में दलित अत्याचारों के ‘पाप’ देशभर में सब से ज्यादा होते हैं. नरेंद्र मोदी छुआछूत को सामाजिक समस्या करार देते हुए धर्म का बचाव करते नजर आते हैं तो मोहन भागवत इसे दूर करने के लिए सामाजिक समरसता का राग अलापा करते हैं.
अलवर में भी उन्होंने यह राग अलापा ताकि कोई उन के सनातन धर्म को कठघरे में खड़ा न करे कि छुआछूत दरअसल धार्मिक समस्या है. ‘मनुस्मृति’, ‘रामायण’ और ‘श्रीमद्भागवत गीता’ तक में ये निर्देश हैं कि शूद्र आखिर शूद्र हैं, निकृष्ट हैं. मनुस्मृति में तो साफतौर पर शूद्रों को तरहतरह से प्रताडि़त करने के उपाय और तरीके बतलाए गए हैं जिन्हें सवर्ण आज तक भूल नहीं पा रहे हैं. यह न भूलें कि पौराणिक शूद्र असल में आज के पिछड़े या ओबीसी के शूद्र का अर्थ शैड्यूल कास्ट कतई नहीं है. शैड्यूल कास्ट अछूत हैं, शूद्र अछूत नहीं हैं.
भारत में समाजशास्त्र के संस्थापक माने जाने वाले समाजशास्त्री डाक्टर जी एस धुर्वे के मुताबिक देश में कोई 3 हजार जातियां हैं और उन में भी दिलचस्प बात यह है कि हरेक जाति का अपना एक अलग देवता है.
‘भारत में जातियों का इतिहास’ किताब के लेखक श्रीधर केतकर की मानें तो केवल ब्राह्मणों की ही 800 जातियां हैं. यानी कुल जातियों की संख्या 10 हजार के लगभग होनी चाहिए. अब ये जातियां आई कहां से, इस पर इतिहासकारों में विकट के मतभेद हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जातियां धर्म की ही देन हैं जिन का आविष्कार ब्राह्मणों ने अपना दबदबा बनाए रखने के लिए किया था.
इस दबदबे के तहत व्यवस्था यह की गई कि कोई अंतरजातीय शादी नहीं करेगा और ऊंची जाति वाला छोटी जाति वालों से किसी भी तरह का बराबरी वाला सामाजिक व पारिवारिक व्यवहार नहीं करेगा. केवल व्यापारिक संबंध रखेगा.
यह ठीक है कि समय के साथ बहुतकुछ बदला है लेकिन वह इतना नहीं है कि हिंदुओं के सब से बड़े संगठन के मुखिया को इस बाबत कथित रूप से चिंता व्यक्त करनी पड़े. इस तरह के बयानों से मैसेज यह जाता है कि जातियां थीं, जातियां हैं और जातियां रहेंगी. इस सच से कोई मुंह मोड़ने की जुर्रत या हिम्मत न करे.
वैदिककाल में जातियों का ज्यादा जिक्र नहीं मिलता. मनु की वर्णव्यवस्था ने साबित किया कि जन्म के आधार पर जातियां मिलती हैं. आम लोगों को यह कम ही मालूम रहता है कि किस जाति के ब्राह्मण का क्या काम है लेकिन जाति के निचले पायदान पर खड़ी शूद्र जातियों के बारे में हर किसी को मालूम है कि मैला ढोने वाले किस जाति के हैं, चमड़े का काम करने वाले किस जाति के हैं और लोहार सुनार कौन सा काम करते हैं.
अलवर में जातियों की बात कर रहे मोहन भागवत ने ज्यादा नहीं कुछ समय पहले ही 5 फरवरी, 2023 को मुंबई के एक कार्यक्रम में कहा था, ‘‘भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं. उन में कोई जाति वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई वह गलत था. कुछ पंडितों ने शास्त्रों के नाम पर गलत जानकारी दी, हम जाति श्रेष्ठता के नाम पर भ्रमित हो गए. इस भ्रम को अलग रखना होगा. देश में विवेक, चेतना सभी एक हैं. उन में कोई अंतर नहीं. बस, मत अलगअलग हैं. धर्म को हम ने बदलने की कोशिश नहीं की.’’
अगर मोहन भागवत जातिवाद और छुआछूत को अभिशाप न सही गलत भी मानते हैं तो उन्हें चाहिए कि धर्म को बदलने की नहीं बल्कि खत्म करने की बात कहने की हिम्मत दिखाएं जिस से लोग अमनचैन से रह सकें और आरएसएस जैसे धार्मिक संगठनों की जरूरत ही न पड़े. लेकिन वे ऐसा करेंगे, इस में कई शक हैं क्योंकि उन का मकसद तो ब्राह्मणवाद को बनाए रखना है.
अब खुद क्यों बदले
साफ दिख रहा है कि खुद मोहन भागवत एक बहुत बड़े भ्रम के शिकार हैं, जो 20 महीनों में ही अपने कहे से बदल गए. हुआ सिर्फ इतना था कि उन के मुंबई में दिए गए बयान के बाद देशभर के ब्राह्मणों ने आसमान सिर पर उठा लिया था. जगहजगह मोहन भागवत का तरहतरह से विरोध ब्राह्मणवादी संगठनों और धर्मगुरुओं ने भी किया था.
जयपुर की सड़कों पर मोहन भागवत के खिलाफ इस आशय के पोस्टर चस्पां किए गए थे कि ब्राह्मण समाज को अपमानित करने वाले मोहन भागवत माफी मांगें. ग्वालियर में तो ब्राह्मण वकीलों ने उन के खिलाफ धारा 153 (बी), 295 और 505 के तहत पुलिस में रिपोर्ट तक दर्ज करा दी थी.
इस तीव्र चौतरफा विरोध से घबरा गए संघ प्रमुख को ज्ञान प्राप्त हो गया था कि इस देश में रहना है तो ब्राह्मण को ब्रह्मा के सिर की पैदाइश कहना ही होगा और इतना ही नहीं, उसी वर्ण व्यवस्था पर चलना भी होगा जिस के तहत क्षत्रिय ब्रह्मा की छाती, वैश्य उदर और शूद्र पांव से पैदा हुआ है तथा शूद्र का काम बाकी 3 वर्णों की सेवाचाकरी करना है. इस के बाद कभी उन्होंने यह गुस्ताखी नहीं की कि ब्राह्मणों ने शास्त्रों के नाम पर गुमराह किया.
धर्म की धुरी ब्राह्मणवाद
जातिवाद और छुआछूत अगर वाकई खत्म करना है तो सब से पहले इन की जड़ धर्म को खत्म करना होगा जिस की धुरी ब्राह्मण हैं. मोहन भागवत के मुंबई बयान से लगा तो यही था कि वे अब वैचारिक हिंदुत्व की बात कर रहे हैं वरना तो अंबेडकर का जिक्र करना एक सोचीसमझी चाल थी.
जब ब्राह्मणों को लगा कि आरएसएस हद से बाहर जा रहा है तो उन्होंने हफ्तेदस दिन में ही उस की मुश्कें इतनी कस दीं कि मोहन भागवत को राजनीतिक शैली में अपने कहे पर खेद व्यक्त करना पड़ा था.
परोक्ष रूप से उन्होंने अपनी गलती, जो ब्राह्मण निंदा सरीखा पाप थी, का प्रायश्चित्त करना शुरू किया और अलवर में दानदक्षिणा सहित संस्कारों का प्रचार करते नजर आए.
मुगल और ब्रिटिश काल की तरह आज भी सत्ता के सारे सूत्र ब्राह्मणों के हाथों में हैं, यह बात कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही है. पिछले दिनों बौद्धिक जगत में चर्चित रही किताब ‘डीब्राह्मणाइजिंग हिस्ट्री’ के लेखक ब्रजरंजन मणि की मानें तो भारत जैसे जातिग्रस्त देश में यह समस्या गंभीर है क्योंकि यहां अनादि काल से ज्ञान पर ब्राह्मणों का कड़ा नियंत्रण रहा है और इस ने उच्च जातियों का वर्चस्व रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है.
अन्य सभी वर्चस्वशाली समूहों की तरह ब्राह्मणों और उन से जुड़ी जातियों के लिए अपने विशेषाधिकारों को स्थायी बनाए रखने के लिए आवयश्क है कि वे अपने वर्चस्व को नैतिकता और नीतिपरायणता का चोला पहनाएं. ब्राह्मणवादी सत्ता की राजनीति मिथ्या ज्ञान के सृजन में सतत रत रहती है और इस तरह सृजित मिथ्या विचार, जिन्हें बारबार दोहराया जाता है, इस सत्ता को स्थायित्व प्रदान करते हैं.
इन क्लिष्ट यानी कठिन शब्दों की यह लड़ाई वामपंथी और दक्षिणपंथी लेखकों के बीच आजादी के पहले से ही चल रही है जिस के तहत दक्षिणपंथी लेखक यह साबित करने की जुगत में रहते हैं कि भारत में जातिवाद औपनिवेशिक सत्ता अंगरेजों की देन है.
इस साजिश को गैरदक्षिणपंथी लेखक उधेड़ते रहते हैं. यह सबकुछ फुजूल नहीं है बल्कि इस लिहाज से जरूरी है कि लोग जातियों और छुआछूत का सच जानें कि वह ऊपर कहीं से नहीं आया है और न ही उसे मुगल या अंगरेज अपने साथ लाए थे बल्कि यह धर्मग्रंथों से आई साजिश है जिन्हें ब्राह्मणों ने लिखे.
इन्हीं ब्राह्मणों को खुश रखने के लिए भगवा गैंग 40 साल से मंदिरमंदिर का खेल खेल रहा है और आरएसएस सहित तमाम छोटेबड़े हिंदूवादी संगठन इस मुद्दे पर एक हैं जिस पर व्यवधान 4 जून, 2024 के नतीजों ने डाला तो सुर सभी के बदल रहे हैं.
सियासी तौर पर देखें तो ‘इंडिया ब्लौक’ इसी के चलते संविधान को सीने से लगाए बारबार उस की दुहाई दे रहा है और जातिगत जनगणना की मांग पर भी अड़ा है जिस से पता चले कि जिस की जितनी आबादी उतनी उस की भागीदारी वाली थ्योरी परवान चढ़ सके और यह हकीकत भी सामने आए कि दरअसल देशभर में ब्राह्मणों की आबादी 3 फीसदी के लगभग और सवर्णों की 15 फीसदी के ही लगभग है.
10 साल नरेंद्र मोदी से पिछड़ने के बाद राहुल गांधी उन पर पहली दफा भारी पड़ रहे हैं तो इस की एकलौती वजह उन का अपने पूर्वज जवाहरलाल नेहरू के नक्शेकदम पर चलने का फैसला है कि सारे सवर्ण एक तरफ और दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाएं व उन का स्वाभिमान एवं अधिकार एक तरफ, जो कुल आबादी का 85-90 फीसदी हिस्सा होते हैं.
खेत की जिम्मेदारी बागड़ को
हिंदू या सनातन धर्म के ये दोनोंतीनों प्रमुख ठेकेदार भागवत मोदी और योगी यह तो मानते हैं कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव खत्म करने की जिम्मेदारी सवर्णों की है लेकिन ये लोग धर्मग्रंथों का भूले से भी जिक्र नहीं करते कि फसाद की असल जड़ यहां है जिस की फसल इफरात से फलफूल रही है और इस की गवाही सरकारी आंकड़े भी देते हैं.
अपने दूसरे कार्यकाल के चौथे साल में सरकार ने संसद में स्वीकारा था कि दलित अत्याचारों के मामले सालदरसाल बढ़ रहे हैं.
भाजपा के ही वरिष्ठ सांसद पी पी चौधरी के सवालों के जवाब में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ने लिखित जवाब में बताया था कि पिछले 4 वर्षों में दलित अत्याचारों के मामले कुछ इस तरह बढ़े हैं :
साल 2018 में अनुसूचित जाति के लोगों पर अत्याचार के 42,793 मामले दर्ज हुए थे जो 2021 में बढ़ कर 50,900 हो गए थे.
यह जान कर कतई हैरानी नहीं होती कि दलित अत्याचारों के सब से ज्यादा मामले भाजपाशासित राज्यों में दर्ज हुए.
सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 2018 में अनुसूचित जाति के लोगों पर अत्याचार के 11,924 मामले दर्ज हुए थे, 2019 में यह संख्या 11,829 हो गई थी. 2020 में भी यह बढ़ोतरी जारी रही और इस साल दलित अत्याचार के 12,714 मामले दर्ज हुए जो 2021 में 13,146 हो गए.
दूसरे नंबर पर राजस्थान रहा जहां 2018 में दलित अत्याचारों के 4,607, 2019 में 6,794, 2020 में 7,017 और 2021 में 7,524 मामले दर्ज हुए.
तीसरे नंबर पर रहे मध्य प्रदेश में 2018 में दलित अत्याचार के 4,753, 2019 में 5,300, 2020 में 6,899 और 2021 में 7,524 मामले दर्ज हुए.
इन मामलों में आदिवासियों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों के साथ हुए अत्याचार के मामले शामिल नहीं हैं. इन मामलों में मध्य प्रदेश के इसी साल के वे 3 मामले शामिल नहीं हैं जिन में दलित आदिवासी युवकों को दबंगों ने पेशाब पिलाया. ऐसे हैवानियतभरे मामलों में उत्तर प्रदेश भी पीछे नहीं है. ताजा उदाहरण इसी साल 16 जनवरी का है जिस में लखनऊ के इंदिरा नगर में एक दलित युवक के मुंह पर दबंगों ने पेशाब किया था.
इस के बाद के आंकड़े जब सार्वजनिक होंगे तब होंगे लेकिन यह साबित करने की जरूरत नहीं है कि भाषणों से यह समस्या हल होनी होती तो कभी की हो चुकी होती. जब तक लाखों ऊंची जाति वाले धर्म की बात नहीं करेंगे तब तक उन की आवाज नक्कारखाने में तूती सरीखी साबित होगी जो दिखावटी हमदर्दी और ड्रामा ज्यादा लगती है.
इन्होंने क्या गलत कहा
ये लोग भले ही अपने वोटबैंक और धर्म के दुकानदारों से लगाव के चलते असल वजह से किनारा करते रहें लेकिन उत्तर प्रदेश के स्वामीप्रसाद मौर्य, बिहार के चंद्रशेखर यादव और तमिलनाडु के उदयनिधि स्टालिन जैसे दर्जनभर नेता वक्तवक्त पर असल वजह बताते रहे हैं जिन पर सवर्ण हिंदू हायहाय करते चढ़ाई करते रहे हैं.
पिछले साल 2 सितंबर को स्टालिन ने बेहद नपेतुले शब्दों में सनातन धर्म की कलई यह कहते खोल दी थी कि सनातन धर्म लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बांटने वाला विचार है. इसे खत्म करना मानवता और समानता को बढ़ावा देना है. बकौल उदयनिधि, जिस तरह हम मच्छर, डेंगू, मलेरिया और कोरोना को खत्म करते हैं उसी तरह सनातन धर्म का विरोध करना काफी नहीं है, इसे समाज से पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए.
इस बयान से स्वयंभू समाज सुधारक, कथित उदारवादी सवर्णों को भी मिर्ची लगी थी, फिर कट्टर हिंदुओं की तो बात करना ही फुजूल है जिन्होंने स्टालिन को राक्षस करार देते सनातन धर्म को नष्ट कर देने का आरोप लगाया था. स्टालिन की मंशा तकनीकी तौर पर वैज्ञानिक किस्म की थी कि अगर खटमल खत्म नहीं किए जा सकते तो खटिया में ही आग लगा दो जिस से न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी.
अब उन्हें चेन्नई से दिल्ली तक छोटीबड़ी अदालतों की परिक्रमा करनी पड़ रही है. इस से बड़ी दिक्कत उन्हें जान से मार डालने की मिल रही धमकियों की है.
उलट इस के, दक्षिणपंथी इसी सनातन धर्म के सहारे चल और पल रहे हैं जिन की नजर और नजरिए में छुआछूत व जातिगत मुद्दे बेदम हैं. इन पर चर्चा करना ही व्यर्थ है क्योंकि अब यह सब खत्म हो चुका है. इन की नजर में संसद में सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़े मिथ्या हैं, रोजमर्रा की दलित अत्याचार की खबरें बकवास हैं. उन के अनुसार तो इन के प्रकाशन व प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए. एससी एसटी कानून खत्म कर देना चाहिए, फिर दलित अत्याचार खुदबखुद खत्म हो जाएगा. अगर अत्याचारों की बात नहीं होगी तो समझ लो कि अत्याचार हो ही नहीं रहे.
4 जून के नतीजों ने हिंदूवादियों को सकते में डाल दिया है क्योंकि दलितों ने भाजपा को 14 और 19 की तरह अंधे हो कर वोट नहीं किया. सो, चिंता करना और होना तो लाजिमी है, इसलिए इस गंभीर, संवेदनशील और अमानवीय समस्या को सामाजिक समस्या करार देते भाषणों और प्रवचनों से सुलझाने की नाकाम कोशिश, जो हकीकत में साजिश है, जारी है.
इन की दिक्कत, कुछ फीसदी ही सही, दलितों का जागरूक हो जाना है और जाहिर है इस के लिए नेहरू, अंबेडकर और उन का बनाया समानता का अधिकार देने वाला संविधान और कानून दोषी है, जिस की महिमा और चमत्कार राहुल गांधी 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान दिखा चुके हैं और तमाम आलोचनाओं के बाद भी संविधान का पल्लू नहीं छोड़ रहे. सो, खतरा धर्म के व्यापारियों, पंडेपुजारी और पेशवाओं पर भी मंडरा रहा है जिन का पेट ही मंदिरों के चढ़ावे से पलता है.
इस पेट को पालने के लिए मोहन भागवत ने अलवर से हिंदुओं से दान करने की भी यह कहते अपील कर डाली कि हिंदू होने का अर्थ दुनिया में सब से उदार व्यक्ति होना है जो सभी को गले लगाता है, सभी के प्रति सद्भावना दिखाता है और जो महान पूर्वजों का वंशज है. ऐसा व्यक्ति शिक्षा का उपयोग मतभेद पैदा करने के लिए नहीं, बल्कि ज्ञान बांटने के लिए करता है. वह धन का उपयोग भोग विलास के लिए नहीं बल्कि दान के लिए करता है. वह शक्ति का उपयोग कमजोर लोगों की रक्षा के लिए करता है.
कहां हैं शक्ति और धन
नेता बिना सोचेसमझे कुछ भी बोले तो उन्हें एक बार नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन मोहन भागवत बेहतर जानतेसमझते हैं कि ज्ञान, धन और ताकत के मामलों में दलित सवर्णों के आगे रत्तीभर भी नहीं ठहरता. ज्ञान, धन और शक्ति ही वे हथियार हैं जिन के दम पर सदियों से दलितों का शोषण होता आ रहा है. आरक्षण के चलते मुट्ठीभर दलित शिक्षित हो कर सरकारी नौकरियों में आ जरूर गए हैं लेकिन उन्हें मुख्यधारा में शामिल होने की मान्यता तभी मिलती है जब वे मंदिरों में दक्षिणा चढ़ाने लगते हैं और पंडेपुजारियों को तगड़ी फीस दे कर कर्मकांडी बन जाते हैं. लेकिन इस के बाद भी दलित होने का ठप्पा उन पर लगा रहता है.
दानदक्षिणा वगैरह तो एक तरह का धार्मिक टैक्स है जिस के एवज में उन्हें सरेआम बेइज्ज्त न करने का आश्वासन मिलता है, समानता नहीं मिलती.
रही बात धन की, तो वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब के ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश की संपत्ति का 88.4 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा लगभग
15 फीसदी वाली ऊंची जाति वालों के पास है जबकि 20 फीसदी दलितों के पास यह हिस्सा केवल 2.6 फीसदी ही है.
विशालकाय 52 फीसदी आबादी वाले पिछड़े वर्ग के पास महज 9 फीसदी हिस्सा देश की कुल संपत्ति का है.
एक भाषण में राहुल गांधी ने कहा था कि अगर ‘इंडिया ब्लौक’ की सरकार बनी तो आर्थिक सर्वे कराया जाएगा. इस के जरिए यह पता चलेगा कि देश के संसाधनों पर किस जातिसमुदाय का कितना हक है. उन्होंने दावा किया था कि देश का 40 फीसदी धन केवल एक फीसदी लोगों के हाथों में है.
राहुल गांधी या उन के जैसे किसी की सरकार बनेगी इस में संदेह है और बन भी गई तो वह सरकार संपत्ति का बंटवारा कर पाएगी, यह असंभव है.
धनकुबेर, जिन के हाथों में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ‘मीडिया’ की डोर बंधी है, भी नहीं चाहते कि देश और समाज से जातिगत भेदभाव और छुआछूत खत्म हों क्योंकि ये भी मन से सनातनी हैं. लोगों को पूजापाठी और अंधविश्वासी बनाए रखने में इन का योगदान भी कम नहीं जो आएदिन ये मंदिरों में कर्मकांड, पूजापाठ करते दक्षिणा देते हैं. अपनी संतानों की शादियों में ये पानी की तरह पैसा बहाते हैं और सनातनी धर्मगुरुओं की भी चरणवंदना करते नजर आते हैं जिस से मैसेज यह जाए कि पैसा मेहनत से नहीं बल्कि पूजापाठ और भाग्य से आता है और इस जन्म में तुम्हारे साथ जो अत्याचार धर्म और जाति की बिना पर हो रहे हैं वे पूर्वजन्मों के कर्मों की सजा है जिसे सब्र से पूजापाठ करते भुगत लो.
हिंदूवादी संगठनों का गठजोड़
पुराने जमाने के ऊंची जातियों के गठजोड़ की तरह उद्योगपतियों, नेताओं और हिंदूवादी संगठनों का आज का गठजोड़ न केवल दलितों के लिए बल्कि सवर्णों के लिए भी घातक साबित हो रहा है. लेकिन इस की चिंता या परवा किसे है क्योंकि देश का सबकुछ इन्हीं की मुट्ठियों में है तो कोई क्या कर लेगा.
यह न भूलें कि सवर्ण औरतें और पिछड़े व दलित अब पढ़ कर स्किल पा कर उत्पादकता का स्रोत बन गए हैं. आज जातिवाद के चक्कर में उन का उपभोग करने में हिचकिचाहट सब शक्तिशालियों में दिख रही है. भारत में प्रति व्यक्ति आय आज भी गरीब से गरीब देशों वाली है. हमारी जनसंख्या ज्यादा है, केवल इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ी है, उत्पादकता नहीं.
आज जातिवाद के कारण एक आम हिंदुस्तानी चीनी से 5 गुना कम है, अमेरिकी से 30 गुना कम और सिंगापुर निवासी से 55 गुना कम है. 1947 के आसपास चीनी और सिंगापुरी हमारे बराबर या कम थे. 1980 के बाद हम ने जाति को बढ़ावा दिया, धर्म को राजनीति का मोहरा बनाया. आज उसी का फल भोग रहे हैं. जाति ही नहीं आर्थिक भेदभाव बढ़ रहा है, घट नहीं रहा.