‘आजकल कहां छुआछूत बची है, अब तो कोई किसी से जाति की बिना पर व्यवहार नहीं करता. अगर आप किसी होटल या कैंटीन में कुछ खापी रहे हों तो वेटर से जाति थोड़े ही पूछते हैं. इसी तरह आप बस, ट्रेन या प्लेन में सफर कर रहे हैं तो आप को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि आप के सहयात्री किस जाति के हैं. ये गुजरे कल की बातें हैं, अब वक्त बहुत बदल गया है.’

ऐसा कहने वालों की खासतौर से शहरों में कमी नहीं और ऐसा कहने वाले अकसर नहीं बल्कि हर दफा सवर्ण ही होते हैं जो कट्टर हिंदूवादी संगठनों के अघोषित सदस्य, अवैतनिक कार्यकर्ता और हिमायती होते हैं. जो चाहते यह हैं कि जातपांत और छुआछूत पर कोई बात ही न करे जिस से उन की यह खुशफहमी, जो दरअसल सवर्णों की नई धूर्तता है, कायम रहे कि अब कौन जातपांत को मानता है.

यह तो इतिहास में वर्णित एक झूठा सच है. अब इस पर चर्चा करना फुजूल है और जो करते हैं वे अर्बन नक्सली, कांग्रेसी, वामपंथी, पापी या देश तोड़ने की मंशा रखने वाले लोग हैं जो नहीं चाहते कि भारत विश्वगुरु बने और दुनिया सनातन उर्फ वैदिक उर्फ हिंदू धर्म का लोहा माने.

उदारता का मुखौटा पहने इन कथित और स्वयंभू समाज सुधारकों को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का बीती 16 सितंबर को राजस्थान के अलवर में दिया गया प्रवचननुमा भाषण जरूर पढ़ना चाहिए और फिर सोचना सिर्फ इतना चाहिए कि आखिर क्यों उन्हें बहुत सी रस्मअदायगी वाली बातों के साथ यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि हमें छुआछूत को पूरी तरह मिटा देना है.

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