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Hindi Kahani : नीला पत्थर – काकी अपने पति से क्यों परेशान रहती थी?

Hindi Kahani : ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी…’’ पार्वती बूआ की कड़कती आवाज ने सब को चुप करा दिया. काकी की अटैची फिर हवेली के अंदर रख दी गई. यह तीसरी बार की बात थी. काकी के कुनबे ने फैसला किया था कि शादीशुदा लड़की का असली घर उस की ससुराल ही होती है. न चाहते हुए भी काकी मायका छोड़ कर ससुराल जा रही थी. हालांकि ससुराल से उसे लिवाने कोई नहीं आया था. काकी को बोझ समझ कर उस के परिवार वाले उसे खुद ही उस की ससुराल फेंकने का मन बना चुके थे कि पार्वती बूआ को अपनी बरबाद हो चुकी जवानी याद आ गई. खुद उस के साथ कुनबे वालों ने कोई इंसाफ नहीं किया था और उसे कई बार उस की मरजी के खिलाफ ससुराल भेजा था, जहां उस की कोई कद्र नहीं थी.

तभी तो पार्वती बूआ बड़ेबूढ़ों की परवाह न करते हुए चीख उठी थी, ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी. उन कसाइयों के पास भेजने के बजाय उसे अपने खेतों के पास वाली नहर में ही धक्का क्यों न दे दिया जाए. बिना किसी बुलावे के या बिना कुछ कहेसुने, बिना कोई इकरारनामे के काकी को ससुराल भेज देंगे, तो वे ससुरे इस बार जला कर मार डालेंगे इस मासूम बेजबान लड़की को. फिर उन का एकाध आदमी तुम मार आना और सारी उम्र कोर्टकचहरी के चक्कर में अपने आधे खेतों को गिरवी रखवा देना.’’

दूसरी बार काकी के एकलौते भाई की आंखों में खून उतर आया था. उस ने हवेली के दरवाजे से ही चीख कर कहा था, ‘‘काकी ससुराल नहीं जाएगी. उन्हें आ कर हम से माफी मांगनी होगी. हर तीसरे दिन का बखेड़ा अच्छा नहीं. क्या फायदा… किसी की जान चली जाएगी और कोई दूसरा जेल में अपनी जवानी गला देगा. बेहतर है कि कुछ और ही सोचो काकी के लिए.’’

काकी के लिए बस 3 बार पूरा कुनबा जुटा था उस के आंगन में. काकी को यहीं मायके में रखने पर सहमति बना कर वे लोग अपनेअपने कामों में मसरूफ हो गए थे. उस के बाद काकी के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत नहीं समझी और न ही कोई ऐसा मौका आया कि काकी के बारे में कोई अहम फैसला लेना पड़े. काकी का कुसूर सिर्फ इतना था कि वह गूंगी थी और बहरी भी. मगर गूंगी तो गांव की 99 फीसदी लड़कियां होती हैं. क्या उन के बारे में भी कुनबा पंचायत या बिरादरी आंखें मींच कर फैसले करती है? कोई एकाध सिरफिरी लड़की अपने बारे में लिए गए इन एकतरफा फैसलों के खिलाफ बोल भी पड़ती है, तो उस के अपने ही भाइयों की आंखों में खून उतर आता है. ससुराल की लाठी उस पर चोट करती है या उस के जेठ के हाथ उस के बाल नोंचने लगते हैं.

ऐसी सिरफिरी मुंहफट लड़की की मां बस इतना कह कर चुप हो जाती है कि जहां एक लड़की की डोली उतरती है, वहां से ही उस की अरथी उठती है. यह एक हारे हुए परेशान आदमी का बेमेल सा तर्क ही तो है. एक अकेली छुईमुई लड़की क्या विद्रोह करे. उसे किसी फैसले में कब शामिल किया जाता है. सदियों से उस के खिलाफ फतवे ही जारी होते रहे हैं. वह कुछ बोले तो बिजली टूट कर गिरती है, आसमान फट पड़ता है.

अनगनित लोगों की शादियां टूटती हैं, मगर वे सब पागल नहीं हो जाते. बेहतर तो यही होता कि अपनी नाकाम शादी के बारे में काकी जितना जल्दी होता भूल जाती. ये शादीब्याह के मामले थानेकचहरी में चले जाएं, तो फिर रुसवाई तो तय ही है. आखिर हुआ क्या? शीशा पत्थर से टकराया और चूरचूर हो गया.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा. काकी के कुनबे का फैसला सुनने के बाद तो वह हर तरफ से आजाद हो चुका था. उस के सुख के सारे दरवाजे खुल गए, मगर काकी का मोह भंग हो गया. अब वह खुद को एक चुकी हुई बूढ़ी खूसट मानने लगी थी. भरी जवानी में ही काकी की हर रस, रंग, साज और मौजमस्ती से दूरी हो गई थी. उस के मन में नफरत और बदले के नागफनी इतने विकराल आकार लेते गए कि फिर उन में किसी दूसरे आदमी के प्रति प्यार या चाहत के फूल खिल ही न सके.

किसी ने उसे यह नहीं समझाया, ‘लाड़ो, अपने बेवफा शौहर के फिर मुंह लगेगी, तो क्या हासिल होगा तुझे? वह सच्चा होता तो क्या यों छोड़ कर जाता तुझे? उसे वापस ले भी आएगी, तो क्या अब वह तेरे भरोसे लायक बचा है? क्या करेगी अब उस का तू? वह तो ऐसी चीज है कि जो निगले भी नहीं बनेगा और बाहर थूकेगी, तो भी कसैली हो जाएगी तू.

‘वह तो बदचलन है ही, तू भी अगर उस की तलाश में थानाकचहरी जाएगी, तो तू तो वैसी ही हो जाएगी. शरीफ लोगों का काम नहीं है यह सब.’

कोई तो एक बार उसे कहता, ‘देख काकी, तेरे पास हुस्न है, जवानी है, अरमान हैं. तू क्यों आग में झोंकती है खुद को? दफा कर ऐसे पति को. पीछा छोड़ उस का. तू दोबारा घर बसा ले. वह 20 साल बाद आ कर तुझ पर अपना दावा दायर करने से रहा. फिर किस आधार पर वह तुझ पर अपना हक जमाएगा? इतने सालों से तेरे लिए बिलकुल पराया था. तेरे तन की जमीन को बंजर ही बनाता रहा वह.

‘शादी के पहले के कुछ दिनों में ही तेरे साथ रहा, सोया वह. यह तो अच्छा हुआ कि तेरी कोख में अपना कोई गंदा बीज रोप कर नहीं गया वह दुष्ट, वरना सारी उम्र उस से जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती तुझे.’

कुनबे ने काकी के बारे में 3 बार फतवे जारी किए थे. पहली बार काकी की मां ने ऐसे ही विद्रोही शब्द कहे थे कि कहीं नहीं जाएगी काकी. पहली बार गांव में तब हंगामा हुआ था, जब काकी दीनू काका के बेटे रमेश के बहकावे में आ गई थी और उस ने उस के साथ भाग जाने की योजना बना ली थी.

वह करती भी तो क्या करती. 35 बरस की हो गई थी वह, मगर कहीं उस के रिश्ते की बात जम नहीं रही थी. ऐसे में लड़कियां कब तक खिड़कियों के बाहर ताकझांक करती रहें कि उन के सपनों का राजकुमार कब आएगा. इन दिनों राजकुमार लड़की के रंगरूप या गुण नहीं देखता, वह उस के पिता की जागीर पर नजर रखता है, जहां से उसे मोटा दहेज मिलना होता है. गरीब की बेटी और वह भी जन्म से गूंगीबहरी. कौन हाथ धरेगा उस पर? वैसे, काकी गजब की खूबसूरत थी. घर के कामकाज में भी माहिर. गोरीचिट्टी, लंबा कद. जब किसी शादीब्याह के लिए सजधज कर निकलती, तो कइयों के दिल पर सांप लोटने लगते. मगर उस के साथ जिंदगी बिताने के बारे में सोचने मात्र की कोई कल्पना नहीं करता था.

वैसे तो किसी कुंआरी लड़की का दिल धड़कना ही नहीं चाहिए, अगर धड़के भी तो किसी को कानोंकान खबर न हो, वरना बरछे, तलवारें व गंड़ासियां लहराने लगती हैं. यह कैसा निजाम है कि जहां मर्द पचासों जगह मुंह मार सकता था, मगर औरत अपने दिल के आईने में किसी पराए मर्द की तसवीर नहीं देख सकती थी? न शादी से पहले और शादी के बाद तो कतई नहीं. पर दीनू काका के फौजी बेटे रमेश का दिल काकी पर फिदा हो गया था. काकी भी उस से बेपनाह मुहब्बत करने लगी थी. मगर कहां दीनू काका की लंबीचौड़ी खेती और कहां काकी का गरीब कुनबा. कोई मेल नहीं था दोनों परिवारों में. पहली ही नजर में रमेश काकी पर अपना सबकुछ लुटा बैठा, मगर काकी को क्या पता था कि ऐसा प्यार उस के भविष्य को चौपट कर देगा.

रमेश जानता था कि उस के परिवार वाले उस गूंगी लड़की से उस की शादी नहीं होने देंगे. बस, एक ही रास्ता बचा था कि कहीं भाग कर शादी कर ली जाए.

उन की इस योजना का पता अगले ही दिन चल गया था और कई परिवार, जो रमेश के साथ अपनी लड़की का रिश्ता जोड़ना चाहते थे, सब दिशाओं में फैल गए. इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं भला. फिर जब सारी दुनिया प्रेमियों के खिलाफ हो जाए, तो उस प्यार को जमाने वालों की बुरी नजर लग जाती है.

काकी का बचपन बड़े प्यार और खुशनुमा माहौल में बीता था. उस के छोटे भाई राजा को कोई चिढ़ाताडांटता या मारता, तो काकी की आंखें छलछला आतीं. अपनी एक साल की भूरी कटिया के मरने पर 2 दिन रोती रही थी वह. जब उस का प्यारा कुत्ता मरा तो कैसे फट पड़ी थी वह. सब से ज्यादा दुख तो उसे पिता के मरने पर हुआ था. मां के गले लग कर वह इतना रोई थी कि मानो सारे दुखों का अंत ही कर डालेगी. आंसू चुक गए. आवाज तो पहले से ही गूंगी थी. बस गला भरभर करता था और दिल रेशारेशा बिखरता जाता था. सबकुछ खत्म सा हो गया था तब.

अब जिंदा बच गई थी तो जीना तो था ही न. दुखों को रोरो कर हलका कर लेने की आदत तब से ही पड़ गई थी उसे. दुख रोने से और बढ़ते जाते थे.

रमेश से बलात छीन कर काकी को दूर फेंक दिया गया था एक अधेड़ उम्र के पिलपिले गरीब किसान के झोंपड़े में, जहां उस के जवान बेटों की भूखी नजरें काकी को नोंचने पर आमादा थीं.

काकी वहां कितने दिन साबुत बची रहती. भाग आई भेडि़यों के उस जंगल से. कोई रास्ता नहीं था उस जंगल से बाहर निकलने का.

जो रास्ता काकी ने खुद चुना था, उस के दरमियान सैकड़ों लोग खड़े हो गए थे. काकी के मायके की हालत खराब तो न थी, मगर इतने सोखे दिन भी नहीं थे कि कई दिन दिल खोल कर हंस लिया जाए. कभी धरती पर पड़े बीजों के अंकुरित होने पर नजरें गड़ी रहतीं, तो कभी आसमान के बादलों से मुरादें मांगती झोलियां फैलाए बैठी रहतीं मांबेटी.

रमेश से छिटक कर और फिर ससुराल से ठुकराई जाने के बाद काकी का दिल बुरी तरह हार माने बैठा था. अब काकी ने अपने शरीर की देखभाल करनी छोड़ दी थी. उस की मां उस से अकसर कहती कि गरीब की जवानी और पौष की चांदनी रात को कौन देखता है.

फटी हुई आंखों से काकी इस बात को समझने की कोशिश करती. मां झुंझला कर कहती, ‘‘तू तो जबान से ही नहीं, दिल से भी बिलकुल गूंगी ही है. मेरे कहने का मतलब है कि जैसे पूस की कड़कती सर्दी वाली रात में चांदनी को निहारने कोई नहीं बाहर निकलता, वैसे ही गरीब की जवानी को कोई नहीं देखता.’’

मां चल बसीं. काकी के भाई की गृहस्थी बढ़ चली थी. काकी की अपनी भाभी से जरा भी नहीं बनती थी. अब काकी काफी चिड़चिड़ी सी हो गई थी. भाई से अनबन क्या हुई, काकी तो दरबदर की ठोकरें खाने लगी. कभी चाची के पास कुछ दिन रहती, तो कभी बूआ काम करकर के थकटूट जाती थी. काकी एक बार खाट से क्या लगी कि सब उसे बोझ समझने लगे थे.

आखिरकार काकी की बिरादरी ने एक बार फिर काकी के बारे में फैसला करने के लिए समय निकाला. इन लोगों ने उस के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया, जिस के तहत दिन तय कर दिए गए कि कुलीन व खातेपीते घरों में जा कर काकी खाना खा लिया करेगी.

कुछ दिन तक यह बंदोबस्त चला, मगर काकी को यों आंखें झुका कर गैर लोगों के घर जा कर रहम की भीख खाना चुभने लगा. अपनी बिरादरी के अब तक के तमाम फैसलों का काकी ने विरोध नहीं किया था, मगर इस आखिरी फैसले का काकी ने जवाब दिया. सुबह उस की लाश नहर से बरामद हुई थी. अब काकी गूंगीबहरी ही नहीं, बल्कि अहल्या की तरह सर्द नीला पत्थर हो चुकी थी.

Online Hindi Story : मझधार – नेहा हमेशा चुपचाप क्यो रहती थी?

Online Hindi Story : पूरे 15 वर्ष हो गए मुझे स्कूल में नौकरी करते हुए. इन वर्षों में कितने ही बच्चे होस्टल आए और गए, किंतु नेहा उन सब में कुछ अलग ही थी. बड़ी ही शांत, अपनेआप में रहने वाली. न किसी से बोलती न ही कक्षा में शैतानी करती. जब सारे बच्चे टीचर की गैरमौजूदगी में इधरउधर कूदतेफांदते होते, वह अकेले बैठे कोई किताब पढ़ती होती या सादे कागज पर कोई चित्रकारी करती होती. विद्यालय में होने वाले सारे कार्यक्रमों में अव्वल रहती. बहुमखी प्रतिभा की धनी थी वह. फिर भी एक अलग सी खामोशी नजर आती थी मुझे उस के चेहरे पर. किंतु कभीकभी वह खामोशी उदासी का रूप ले लेती. मैं उस पर कई दिनों से ध्यान दे रही थी. जब स्पोर्ट्स का पीरियड होता, वह किसी कोने में बैठ गुमनाम सी कुछ सोचती रहती.

कभीकभी वह कक्षा में पढ़ते हुए बोर्ड को ताकती रहती और उस की सुंदर सीप सी आंखें आंसुओं से चमक उठतीं. मेरे से रहा न गया, सो मैं ने एक दिन उस से पूछ ही लिया, ‘‘नेहा, तुम बहुत अच्छी लड़की हो. विद्यालय के कार्यक्रमों में हर क्षेत्र में अव्वल आती हो. फिर तुम उदास, गुमसुम क्यों रहती हो? अपने दोस्तों के साथ खेलती भी नहीं. क्या तुम्हें होस्टल या स्कूल में कोई परेशानी है?’’

वह बोली, ‘‘जी नहीं मैडम, ऐसी कोई बात नहीं. बस, मुझे अच्छा नहीं लगता. ’’

उस के इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया जहां बच्चे खेलते नहीं थकते, उन्हें बारबार अनुशासित करना पड़ता है, उन्हें उन की जिम्मेदारियां समझानी पड़ती हैं वहां इस लड़की के बचपन में यह सब क्यों नहीं? मुझे लगा, कुछ तो ऐसा है जो इसे अंदर ही अंदर काट रहा है. सो, मैं ने उस का पहले से ज्यादा ध्यान रखना शुरू कर दिया. मैं देखती थी कि जब सारे बच्चों के मातापिता महीने में एक बार अपने बच्चों से मिलने आते तो उस से मिलने कोई नहीं आता था. तब वह दूर से सब के मातापिता को अपने बच्चों को पुचकारते देखती और उस की आंखों में पानी आ जाता. वह दौड़ कर अपने होस्टल के कमरे में जाती और एक तसवीर निकाल कर देखती, फिर वापस रख देती.

जब बच्चों के जन्मदिन होते तो उन के मातापिता उन के लिए व उन के दोस्तों के लिए चौकलेट व उपहार ले कर आते लेकिन उस के जन्मदिन पर किसी का कोई फोन भी न आता. हद तो तब हो गई जब गरमी की छुट्टियां हुईं. सब के मातापिता अपने बच्चों को लेने आए लेकिन उसे कोई लेने नहीं आया. मुझे लगा, कोई मांबाप इतने गैर जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं? तब मैं ने औफिस से उस का फोन नंबर ले कर उस के घर फोन किया और पूछा कि आप इसे लेने आएंगे या मैं ले जाऊं?

जवाब बहुत ही हैरान करने वाला था. उस की दादी ने कहा, ‘‘आप अपने साथ ले जा सकती हैं.’’ मैं समझ गई थी कोई बड़ी गड़बड़ जरूर है वरना इतनी प्यारी बच्ची के साथ ऐसा व्यवहार? खैर, उन छुट्टियों में मैं उसे अपने साथ ले गई. कुछ दिन तो वह चुपचाप रही, फिर धीरेधीरे मेरे साथ घुलनेमिलने लगी थी. मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं किसी बड़ी जंग को जीतने वाली हूं. छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुले वह 8वीं कक्षा में आ गई थी. उस की शारीरिक बनावट में भी परिवर्तन होने लगा था. मैं भलीभांति समझती थी कि उसे बहुत प्यार की जरूरत है. सो, अब तो मैं ने बीड़ा उठा लिया था उस की उदासी को दूर करने का. कभीकभी मैं देखती थी कि स्कूल के कुछ शैतान बच्चे उसे ‘रोतली’ कह कर चिढ़ाते थे. खैर, उन्हें तो मैं ने बड़ी सख्ती से कह दिया था कि यदि अगली बार वे नेहा को चिढ़ाते पाए गए तो उन्हें सजा मिलेगी.

हां, उस की कुछ बच्चों से अच्छी पटती थी. वे उसे अपने घरों से लौटने के बाद अपने मातापिता के संग बिताए पलों के बारे में बता रहे थे तो उस ने भी अपनी इस बार की छुट्टियां मेरे साथ कैसे बिताईं, सब को बड़ी खुशीखुशी बताया. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपनी मंजिल का आधा रास्ता तय कर चुकी हूं. इस बार दीवाली की छुट्टियां थीं और मैं चाहती थी कि वह मेरे साथ दीवाली मनाए. सो, मैं ने पहले ही उस के घर फोन कर कहा कि क्या मैं नेहा को अपने साथ ले जाऊं छुट्टियों में? मैं जानती थी कि जवाब ‘हां’ ही मिलेगा और वही हुआ. दीवाली पर मैं ने उसे नई ड्रैस दिलवाई और पटाखों की दुकान पर ले गई. उस ने पटाखे खरीदने से इनकार कर दिया. वह कहने लगी, उसे शोर पसंद नहीं. मैं ने भी जिद करना उचित न समझा और कुछ फुलझडि़यों के पैकेट उस के लिए खरीद लिए. दीवाली की रात जब दिए जले, वह बहुत खुश थी और जैसे ही मैं ने एक फुलझड़ी सुलगा कर उसे थमाने की कोशिश की, वह नहींनहीं कह रोने लगी और साथ ही, उस के मुंह से ‘मम्मी’ शब्द निकल गया. मैं यही चाहती थी और मैं ने मौका देख उसे गले लगा लिया और कहा, ‘मैं हूं तुम्हारी मम्मी. मुझे बताओ तुम्हें क्या परेशानी है?’ आज वह मेरी छाती से चिपक कर रो रही थी और सबकुछ अपनेआप ही बताने लगी थी.

वह कहने लगी, ‘‘मेरे मां व पिताजी की अरेंज्ड मैरिज थी. मेरे पिताजी अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं, इसीलिए शायद थोड़े बदमिजाज भी. मेरी मां की शादी के 1 वर्ष बाद ही मेरा जन्म हुआ. मां व पिताजी के छोटेछोटे झगड़े चलते रहते थे. तब मैं कुछ समझती नहीं थी. झगड़े बढ़ते गए और मैं 5 वर्ष की हो गई. दिनप्रतिदिन पिताजी का मां के साथ बरताव बुरा होता जा रहा था. लेकिन मां भी क्या करतीं? उन्हें तो सब सहन करना था मेरे कारण, वरना मां शायद पिताजी को छोड़ भी देतीं.

‘‘पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि मां उन को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. पिताजी को सिगरेट पीने की बुरी आदत थी. कई बार वे गुस्से में मां को जलती सिगरेट से जला भी देते थे. और वे बेचारी अपनी कमर पर लगे सिगरेट के निशान साड़ी से छिपाने की कोशिश करती रहतीं. पिताजी की मां के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही थी और अब वे दूसरी लड़कियों को भी घर में लाने लगे थे. वे लड़कियां पिताजी के साथ उन के कमरे में होतीं और मैं व मां दूसरे कमरे में. ‘‘ये सब देख कर भी दादी पिताजी को कुछ न कहतीं. एक दिन मां ने पिताजी के अत्याचारों से तंग आ कर घर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुझे ले कर अपने मायके आ गईं. वहां उन्होंने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी भी कर ली. मेरे नानानानी पर तो मानो मुसीबत के पहाड़ टूट पड़े. मेरे मामा भी हैं किंतु वे मां से छोटे हैं. सो, चाह कर भी कोई मदद नहीं कर पाए. जो नानानानी कहते वे वही करते. कई महीने बीत गए. अब नानानानी को लगने लगा कि बेटी मायके आ कर बैठ गई है, इसे समझाबुझा कर भेज देना चाहिए. वे मां को समझाते कि पिताजी के पास वापस चली जाएं.

‘‘एक तरह से उन का कहना भी  सही था कि जब तक वे हैं ठीक है. उन के न रहने पर मुझे और मां को कौन संभालेगा? किंतु मां कहतीं, ‘मैं मर जाऊंगी लेकिन उस के पास वापस नहीं जाऊंगी.’

‘‘दादादादी के समझाने पर एक बार पिताजी मुझे व मां को लेने आए और तब मेरे नानानानी ने मुझे व मां को इस शर्त पर भेज दिया कि पिताजी अब मां को और नहीं सताएंगे. हम फिर से पिताजी के पास उन के घर आ गए. कुछ दिन पिताजी ठीक रहे. किंतु पिताजी ने फिर अपने पहले वाले रंगढंग दिखाने शुरू कर दिए. अब मैं धीरेधीरे सबकुछ समझने लगी थी. लेकिन पिताजी के व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया. वे उसी तरह मां से झगड़ा करते और उन्हें परेशान करते. इस बार जब मां ने नानानानी को सारी बातें बताईं तो उन्होंने थोड़ा दिमाग से काम लिया और मां से कहा कि मुझे पिताजी के पास छोड़ कर मायके आ जाएं. ‘‘मां ने नानानानी की बात मानी और मुझे पिताजी के घर में छोड़ नानानानी के पास चली गईं. उन्हें लगा शायद मुझे बिन मां के देख पिताजी व दादादादी का मन कुछ बदल जाएगा. किंतु ऐसा न हुआ. उन्होंने कभी मां को याद भी न किया और मुझे होस्टल में डाल दिया. नानानानी को फिर लगने लगा कि उन के बाद मां को कौन संभालेगा और उन्होंने पिताजी व मां का तलाक करवा दिया और मां की दूसरी शादी कर दी गई. मां के नए पति के पहले से 2 बच्चे थे और एक बूढ़ी मां. सो, मां उन में व्यस्त हो गईं.

‘‘इधर, मुझे होस्टल में डाल दादादादी व पिताजी आजाद हो गए. छुट्टियों में भी न मुझे कोई बुलाता, न ही मिलने आते. मां व पिताजी दोनों के मातापिता ने सिर्फ अपने बच्चों के बारे में सोचा, मेरे बारे में किसी ने नहीं. दोनों परिवारों और मेरे अपने मातापिता ने मुझे मझधार में छोड़ दिया.’’ इतना कह कर नेहा फूटफूट कर रोने लगी और कहने लगी, ‘‘आज फुलझड़ी से जल न जाऊं. मुझे मां की सिगरेट से जली कमर याद आ गई. मैडम, मैं रोज अपनी मां को याद करती हूं, चाहती हूं कि वे मेरे सपने में आएं और मुझे प्यार करें.

‘‘क्या मेरी मां भी मुझे कभी याद करती होंगी? क्यों वे मुझे मेरी दादी, दादा, पापा के पास छोड़ गईं? वे तो जानती थीं कि उन के सिवा कोई नहीं था मेरा इस दुनिया में. दादादादी, क्या उन से मेरा कोई रिश्ता नहीं? वे लोग मुझे क्यों नहीं प्यार करते? अगर मेरे पापा, मम्मी का झगड़ा होता था तो उस में मेरा क्या कुसूर? और नाना, नानी उन्होंने भी मुझे अपने पास नहीं रखा. बल्कि मेरी मां की दूसरी शादी करवा दी. और मुझ से मेरी मां छीन ली. मैं उन सब से नफरत करती हूं मैडम. मुझे कोई अच्छा नहीं लगता. कोई मुझ से प्यार नहीं करता.’’ वह कहे जा रही थी और मैं सुने जा रही थी. मैं नेहा की पूरी बात सुन कर सोचती रह गई, ‘क्या बच्चे से रिश्ता तब तक होता है जब तक उस के मातापिता उसे पालने में सक्षम हों? जो दादादादी, नानानानी अपने बच्चों से ज्यादा अपने नातीपोतों पर प्यार उड़ेला करते थे, क्या आज वे सिर्फ एक ढकोसला हैं? उन का उस बच्चे से रिश्ता सिर्फ अपने बच्चों से जुड़ा है? यदि किसी कारणवश वह बीच की कड़ी टूट जाए तो क्या उन दादादादी, नानानानी की बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? और क्या मातापिता अपने गैरजिम्मेदार बच्चों का विवाह कर एक पवित्र बंधन को बोझ में बदल देते हैं? क्या नेहा की दादी अपने बेटे पर नियंत्रण नहीं रख सकती थी और यदि नहीं तो उस ने नेहा की मां की जिंदगी क्यों बरबाद की, और क्यों नेहा की मां अपने मातापिता की बातों में आ गई और नेहा के भविष्य के बारे में न सोचते हुए दूसरे विवाह को राजी हो गई?

‘कैसे गैरजिम्मेदार होते हैं वे मातापिता जो अपने बच्चों को इस तरह अकेला घुटघुट कर जीने के लिए छोड़ देते हैं. यदि उन की आपस में नहीं बनती तो उस का खमियाजा बच्चे क्यों भुगतें. क्या हक होता है उन्हें बच्चे पैदा करने का जो उन की परवरिश नहीं कर सकते.’ मैं चाहती थी आज नेहा वह सब कह डाले जो उस के मन में नासूर बन उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. जब वह सब कह चुप हुई तो मैं ने उसे मुसकरा कर देखा और पूछा, ‘‘मैं तुम्हें कैसी लगती हूं? क्या तुम समझती हो मैं तुम्हें प्यार करती हूं?’’ उस ने अपनी गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘हां.’’ और मैं ने पूछ लिया, ‘‘क्या तुम मुझे अपनी मां बनाओगी?’’ वह समझ न सकी मैं क्या कह रही हूं. मैं ने पूछा, ‘‘क्या तुम हमेशा के लिए मेरे साथ रहोगी?’’

जवाब में वह मुसकरा रही थी. और मैं ने झट से उस के दादादादी को बुलवा भेजा. जब वे आए, मैं ने कहा, ‘‘देखिए, आप की तो उम्र हो चुकी है और मैं इसे सदा के लिए अपने पास रखना चाहती हूं. क्यों नहीं आप इसे मुझे गोद दे देते?’’

दादादादी ने कहा, ‘‘जैसा आप उचित समझें.’’ फिर क्या था, मैं ने झट से कागजी कार्यवाही पूरी की और नेहा को सदा के लिए अपने पास रख लिया. मैं नहीं चाहती थी कि मझधार में हिचकोले खाती वह मासूम जिंदगी किसी तेज रेले के साथ बह जाए.

Hindi Kahani : सुखद भूल – इरफाना, खाला जान से क्या कहना चाहती थी

Hindi Kahani : ‘आजाद’ अनजाने में हुई भूल से इरफाना घबरा रही थी और जब खाला ने भी घर में तूफान खड़ा कर दिया तो वह रोंआसी हो उठी पर अपने अम्मीअब्बा का फैसला सुन कर तो वह खुशी से पागल हो उठी. उस ने किताबें उठाईं और कालेज जाने के लिए ज्यों ही घूमी, दरवाजे पर आ खड़ी नसीम ने उसे टोक दिया, ‘‘आपा, कालेज जाने से पहले मां से मिल लें, वे आप को अभी बुला रही हैं.’’ ‘‘अच्छा, मैं आ रही हूं.’’ इरफाना सहन में निकल आई. उसे बड़ा अजीब लगा, क्योंकि नसीम, गुलू और नफीसा उसे तिरछी दृष्टि से देख रही थीं. शायद शरारत से वे मुसकरा भी रही थीं.

वह तब खाला के कमरे में आ गई थी. नेकू ने, जो दूर के रिश्ते में उस की खाला लगती थी, उसे खा जाने वाली नजरों से देखा, सिर से पांव और पांव से सिर तक. नेकू खाला की इस दृष्टि में आश्चर्य के साथसाथ घोर अविश्वास भी झलक रहा था. वह छूटते ही बोली, ‘‘इरफाना, कैसी गुजर रही है? खैरियत तो है?’’ ‘‘जी,’’ अटपटे सवाल पर वह अचकचा गई. ‘‘हूं,’’ एक लंबा हुंकारा और फिर इरफाना की अवहेलना करते हुए खालाजान ने पानदान को खोल कर पान लगाया. सरौते से छालियां काटीं और मुंह में गिलौरी दबा कर डबिया बंद कर दी. तब रेशमी रूमाल से हाथ व होंठ पोंछ डाले. फिर तकिए के सहारे आड़ीतिरछी हो कर एक खत निकाल कर उसे दिखलाया, ‘‘यह क्या है? पहचानती हो यह खत?’’ उस खत को देखते ही इरफाना चौंकी. यह रंगीन खत उस का ही लिखा हुआ था.

जुबेर के नाम. वह प्रेमपत्र था. ‘‘यह तुम्हारा लिखा हुआ ही है न?’’ गलत लिफाफे में बंद हो गया, क्यों?’’ नेकू खाला ने पीक में रंगे अधरों पर एक कुटिल मुसकान ला कर जब घुड़का तो सहमी आवाज में उस ने जवाब दिया, ‘‘जी.’’ ‘‘बहुत खूब, क्या शानदार बीएड कर रही हो. क्या कमाल के कारनामे हैं तुम पढ़नेवालियों के. इरफाना, तुम से तो मेरी बेपढ़ी बेटियां लाख भलीं,’’ खाला ने दरवाजे से लगी खड़ी नसीम, गुलू और नफीसा की ओर इशारा कर दिया. फिर पलट कर चीखीं, ‘‘तुम लाख धूल झोंकने की कोशिश करो पर इश्क नहीं छिपता.’’ नेकू बहुत गुस्से में थी पर उस के चेहरे को इरफाना ने नहीं देखा. वह खामोश खड़ी फर्श ताकती रही, बस. ‘‘अपनी किताबें इधर लाओ.’’

खाला ने उसी अंदाज में किताबें जब्त कर लीं और कड़े शब्दों में हिदायत दी, ‘‘आज से कालेज नहीं जाओगी, समझीं?’’ इरफाना रोंआसी हो कर जब अपने कमरे में लौटी तो उस के पीछे नसीम भी थी. नसीम ने देखा, आपा की बड़ीबड़ी आंखों में आंसू भर आए थे. वह उस के पास पलंग पर बैठ कर हमदर्दी जताते हुए बोली, ‘‘आप ने यह क्या किया. आप तो पढ़ाई में बड़ी होशियार थीं. संगीत, खेलकूद और नेकनामी में आप का डंका बजता है. फिर यह भूल कैसे हो गई? कौन है जुबेर?’’ इरफाना ने कोई जवाब नहीं दिया. उसे बड़ी ग्लानि हुई, क्योंकि हमेशा नसीहत सुनने वाली नसीम आज उसे नसीहत कर रही थी. उसे अपनी लापरवाही पर रोना आ रहा था. उस ने इस गली के डाकिए से अनुनयविनय की थी कि एक रंगीन खत है जो खाला को न दे कर उसे दे दिया जाए और अकरम साहब के तो हरगिज हाथ न लगे. लेकिन दाढ़ी वाला यह डाकिया बड़ा कांइयां है.

वह खत आखिर खाला को दे ही गया, दुश्मन कहीं का. वैसे पिछले दिन से ही इस खत को ले कर वह काफी परेशान थी, जब डाक्टर जुबेर का उसे कालेज में फोन मिला था. जुबेर ने बताया था, ‘‘मेरे लिफाफे में तुम ने अपने अब्बा को लिखा खत शायद भूल से बंद कर दिया. उसे पा कर मुझे हंसी छूट रही है क्योंकि अब्बा के पते वाला लिफाफा भी इस में निकला है.’’ लेकिन इस खबर के साथ ही इरफाना के तो पसीने छूटने लगे थे. उस ने 3 लिफाफों पर पते लिखे. एक पर जुबेर का, दूसरे पर अपने अब्बा का और तीसरा अब्बा वाले लिफाफे में डालने के लिए जवाबी, जिस पर अपने खालू अकरम मियां का पता लिखा था. फिर उस ने खत लिखे और लिफाफों में बंद कर तुरंत लैटरबौक्स में छोड़ आई. जुबेर वाले लिफाफे में अब्बाजान को लिखा पत्र और वहां के ठिकाने वाला लिफाफा बंद हो गया और जवाबी लिफाफे में अपने प्रेमी जुबेर को लिखा खत बंद हो गया, जो खाला के हाथ में पड़ गया. इरफाना के अम्मीअब्बू नागौर में सरकारी नौकरी में थे और वह उन की एकलौती लाड़ली बेटी थी.

नागौर के मुसलमान बड़े रुढ़ीवादी हैं मगर इरफाना के अब्बा और अम्मी उदार दिल रहे हैं. उन्होंने बेटी को बावजूद मुल्लेमौलवियों के विरोध के बीए तक पढ़ाया और वही बेटी अब जोधपुर में बीएड कर रही थी. इरफाना को होस्टल में न रख कर उन्होंने उसे एक दूर के रिश्ते की खाला के घर में रखा और बराबर खर्च भेजते रहे. इस नेकू खाला का घर बंबा महल्ले में स्टेडियम के करीब ही था. खाला के पति अकरम मियां की साइकिल की दुकान थी और वह उसी में मस्तव्यस्त रहता था. उस ने तीनों बेटियों को न तो कभी मुंह लगाया और न ही प्राथमिक से आगे पढ़ाया पर तीनों बेटियां बावजूद कड़े परदे के काफी तेजतर्रार व फैशनपरस्त थीं. अकरम मियां के घर से कोई जवान लड़की किसी गैर को प्रेमपत्र लिखे, यह डूब मरने की बात थी. अकरम ने उस दिन अपनी साइकिल की दुकान ही न खोली. उस ने तीनों बेटियों के बयान लिए और फिर उन का किसी तरह का दखल न पा कर पड़ोस वाले हाजीजी की बेटी से पूछताछ की गई थी. हाजी की पुत्री आबेदा पर इरफाना का राज जाहिर था. फिर जुबेर और इरफाना ने कभी कोई गलत कदम भी न उठाया था. सो, उस ने सबकुछ इतमीनान से बता दिया.

अब तो अकरम और कथित खाला के तनबदन में आग लग गई. पर लड़की युवा, पढ़ीलिखी और पराई थी, सो तनिक पूछताछ कर के उस के मांबाप को बुलवा लेना ही उचित समझा गया. उन्हें डर था कि कहीं इरफाना का असर उन की बेटियां न ग्रहण कर लें. दोपहर में नेकू खाला इरफाना के कमरे में आईं, ‘‘तुम ने आज खाना नहीं खाया?’’ ‘‘जी, मेरे सिर में दर्द है.’’ ‘‘दर्द है,’’ नेकू की पेशानी में बल पड़ गए और त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘देखो, मैं तुम्हें बाहर तो हरगिज न निकलने दूंगी,’’ फिर वह तूतड़ाक पर उतर आई, ‘‘चाहे तू खाना खा या न खा. तेरा क्या भरोसा, ऐसे में तू उस कम्बख्त के साथ कहीं भाग जाए तो हमारी तो नाक ही कट जाएगी. पता है, हमारे घर में तू किसी की अमानत है?’’ इरफाना ने कोई जवाब नहीं दिया. वह नतमस्तक किताब के पन्ने उलटती रही. ‘‘अच्छा, बता, यह जुबेर कौन है?’’ ‘‘डाक्टर है, खालाजान.’’ ‘‘भाड़ में जाए डाक्टर. मैं पूछती हूं किस बिरादरी से है?’’ ‘‘शिया मुसलमान है.’’ ‘‘शिया,’’ खाला को एकाएक पसीने छूट गए, ‘‘तोबा, ऐसे काफिर से इश्क लड़ाती है. बेगैरत, शरम नहीं आती तुझे? तू सुन्नी, तेरा बाप सुन्नी और हम सब सुन्नी मुसलमान. खैर, खाना खा.’’ ‘‘कहा न, मुझे भूख नहीं है.’’ ‘‘ठीक है, तेरे अम्मीअब्बा आ जाएं तो खा लेना,’’

और नेकू खाला पांव पटकती हुई वहां से चली गई. उन्होंने अपनी बेटियों को पुकार कर हिदायत दी, ‘‘खबरदार, जो किसी ने इरफाना से कोई बात की.’’ ‘तो इस ने अम्मीअब्बा को भी नागौर से बुला लिया है,’ इरफाना यह सोच कर कांप उठी. अब खैर नहीं. बाप का स्वभाव उस से छिपा नहीं था. ‘अब… मारी जाऊंगी मैं?’ वह बुदबुदाई. जुबेर मंडोर में डाक्टर था. वह हफ्तेदोहफ्ते में इरफाना से मिलता था. इस बीच वे पत्रों द्वारा ही एकदूसरे से संपर्क बनाए रखते थे. वे अकसर अपने भविष्य को सुनियोजित करने की सोचते, उन का प्रेम सात्विक और गंभीर था. जुबेर इरफाना को बीएड कालेज के पते पर पत्र डालता और कभीकभी फोन भी कर देता. अगस्त में सांस्कृतिक सप्ताह के आयोजन के दौरान संगीत में रुचि होने के कारण जुबेर इरफाना के करीब आया, परिचय हुआ, घनिष्ठता बढ़ी और फिर 2 युवा मनों में प्रेम की कोकिला कूकने लगी, जिस की रागिनी उन्हें भा गई. इरफाना के अम्मीअब्बा जोधपुर पहुंच गए. नेकू खाला अम्मी को एक तरफ अपने कमरे में ले गई और बहन को अचानक बुलावे का सबब सुबूत सहित बयान करने लगी. खालू उस वक्त अपनी साइकिल की दुकान पर थे. नसीम सिलाई की मशीन छोड़ कर दीवार से लग चुकी थी. गुलू रसोई में थी और नफीसा कपड़े धो कर सुखा रही थी. उन सबों की निगाहें चाहे जिधर रही हों, कान उस कमरे की ओर ही लगे थे जहां इरफाना के मामले की सुनवाई हो रही थी. अब्बा बाहर बैठक में तनहा बैठे सिगरेट पी रहे थे. इरफाना ने चाहा कि बाप से मिल ले, अभी मौका है. मगर उस के पांव न उठे. अपराधभावना ने उसे दबोच रखा था. अब वह खिड़की का पल्ला कुछ भिड़ा कर अपनी अम्मी का चेहरा देखती रही केवल इस वास्ते कि इस खत की अम्मी पर देखें क्या प्रतिक्रिया होती है. किंतु अम्मी तो खामोश बैठी खाला की नफरतकारी सुन रही थीं.

अम्मी ने खाला के हाथ से खत ले कर पढ़ा था. फिर भी वे शांत दिखीं. लगा, कहीं गहरे खो गई हैं. खाला के नाचते हाथ, चढ़ती नाक, सिकुड़ती आंखें, परेशान पेशानी और विवर्ण होता चेहरा यह साबित कर रहा था कि इरफाना ने अक्षम्य अपराध कर दिया है. अम्मी ने तभी पुकारा, ‘‘इरफाना, यहां आओ तो.’’ पुकार सुनते ही इरफाना की घिग्घी बंध गई. भयभीत हिरणी सी वह अपनी मां के सामने आ कर खड़ी हो गई. कुछ देर के लिए उस कमरे में खेलने वाली खामोशी पसर गई. नीची गरदन किए इरफाना ने महसूस किया, अम्मी अपनी एकलौती औलाद को ऊपर से नीचे तक देख रही हैं, फिर वे धीरे से बोलीं, ‘‘इरफाना, यह खत तुम्हारा ही लिखा हुआ है न?’’ ‘‘हां,’’ उस ने स्वीकृति में गरदन हिलाई. वह खाला और अम्मी के मध्य खड़ी पसीनापसीना हो रही थी कि एकाएक अम्मी कुरसी से उठीं. इरफाना सहम गई. सोचा, अब पिटाई होगी. किंतु ऐसा कुछ न हुआ.

अम्मी ने उस की खाला से कहा, ‘‘हम हाजीजी की बेटी आबेदा से बात करने बीएड कालेज जा रहे हैं,’’ और जब वे बाहर निकलीं तो नसीम ने कहा, ‘‘लेकिन खाना खा कर जाएं. देखिए न, सब तैयार ही है.’’ ‘‘नहीं, खाना ऐसे में कैसे खा लें? लौट कर सोचेंगे,’’ और मम्मी बैठक से अब्बाजी को साथ ले कर स्टेडियम वाली सड़क पर निकल गईं. वे कालेज नहीं, पब्लिक पार्क में पहुंच कर एक लौन में बैठ गए. कुछ देर की चुप्पी के बाद अब्बा ने पूछा, ‘‘इन लोगों ने अचानक हमें क्यों बुलवाया है?’’ खयालों में खोई अम्मी चौंकी, ‘‘अ…वो अपनी इरफाना को इन लोगों ने कालेज नहीं जाने दिया, पिछले 3 दिनों से.’’ ‘‘भला क्यों?’’ अब्बा चकित हो रहे थे. ‘‘उस का एक लड़के से प्रेम हो गया है. देखो, यह खत इन्होंने सुबूत में मुझे दिखाया है.’’ अम्मी ने बेटी का लिखा प्रेमपत्र उन्हें थमा दिया और पूरी कहानी कह सुनाई. अब्बा ने हैरान हो कर वह खत कई बार पढ़ा और फिर वे स्वयं भी कहीं गहरे खो से गए.

फिर सूनी हवेली में अपने जोड़े के साथ बैठे अनुभवी कपोत की तरह धीरगंभीर स्वर में बोले, ‘‘यह किस्सा इरफाना और जुबेर का है या हमारातुम्हारा?’’ अब्बा ने अम्मी की आंखों में आंखें डाल दीं. ‘‘इसी उलझन में मैं हूं,’’ अम्मी भी उसी भावना में बह रही थीं. उन की आंखों में अपना 22 साल पहले का जमाना घूम गया. वे दोनों एकसाथ कालेज में पढ़ते थे और उन के प्रेमपत्र भी तब पकड़े गए थे. अम्मी लखनऊ की शिया मुसलमान थीं, जबकि अब्बा सुन्नी और राजस्थान के रहने वाले. उन दोनों ने हिम्मत और सूझ से काम लिया और परस्पर शादी कर डाली. वे भले ही शियासुन्नी का झमेला पसंद न करते हों पर घरवाले तो दकियानूसी ही थे. सो, अम्मी ने सब को छोड़ा और राजस्थान आ गईं.

‘‘खैर, यह बताओ, यह लड़का कौन है?’’ ‘‘जो मैं हूं,’’ अम्मी थोड़ा मुसकराईं, ‘‘यानी शिया.’’ ‘‘अच्छा है. हमें यही उम्मीद थी कि हमारी बेटी शियासुन्नी का फर्क मिटाने की कोशिश करेगी.’’ और दोनों को लगा, उन का भोगा हुआ अतीत परदा हटा कर सामने आ खड़ा हुआ है. अब तो वे परस्पर नजरें चुराने लगे. इस के बाद कुछ इधरउधर की बातें करने के बाद एक निश्चय के साथ वे कालेज की तरफ चले गए और काफी देर बाद घर लौटे. घर में घुसते ही दोनों की दृष्टि कमरे में बैठी इरफाना पर टिकी. वह उदास, निराश, भविष्य के प्रति आशंकित अन्यमनस्क सी निढाल हुई कुरसी पर बैठी थी. दोपहर में साइकिल की दुकान बंद कर अकरम मियां भी घर आ गए. उन्होंने भी इरफाना के अब्बा को भारी उलाहना दिया. खाना खाते वक्त हर निवाले पर इरफाना की बुराई करते जा रहे थे, जिसे सुन कर अब्बा बेचैन से हो गए. उन्होंने बहुत कम खाया, लगा, गले में कुछ फंसता जा रहा है. आखिर उन्होंने हाथ धो लिए और बाहर बैठक में आ कर सिगरेट सुलगा ली. उन्होंने आबेदा से हुई बात, इरफाना के शिक्षकों से हुई बात और जुबेर से संबंधित पूछताछ सब पर बारीबारी से विचार किया और आश्वस्त हो कर बेटी को आवाज दे दी, ‘‘इरफाना, जरा बाहर बैठक में आओ, बेटी.’’

‘अब आई शामत,’ इरफाना का कलेजा कांप गया. वह बाप के पास आ खड़ी हुई. ‘‘जी, अब्बाजी’’ ‘‘अपना सामान बांधो. हम यहां से अभी चलेंगे.’’ ‘‘मगर अब्बाजी…’’ वह कुछ कहना चाह रही थी कि बाप ने बात काट दी, ‘‘मगर क्या? हमें इन दकियानूसों के बीच नहीं रहना. मैं ने पहले ही कहा था, होस्टल में रह लो. अब भी तो रहना पड़ेगा. यह रसीद देखो, मैं तुम्हारी होस्टल की फीस जमा करा आया हूं.’’ इरफाना अवाक रह गई. उस की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘अब्बा, आप मुझे पीटेंगे तो नहीं? मैं ने बड़ी गलती कर दी,’’ बेटी बाप के कदमों में बैठ गई. ‘‘हमारी समझदार बेटी कभी गलती नहीं करेगी. जुबेर को मैं ‘तय’ करता या तुम्हारी अम्मी. फिर जब तुम ने खुद ही उसे तय कर लिया तो सोने में सुहागा. तुम्हारे खालाखालू रुढ़ीवादी हैं. इन के सुलूक का बुरा न मानना. ऐसों को नजरअंदाज कर देना ही समझदारी है. आओ, हम इन्हें छोड़ दें.’’ अब्बा तनिक रुक कर फिर बोले, ‘‘उठो, अपनी अम्मी और सामान को ले कर बाहर आ जाओ, खाना बाहर ही खाएंगे. तुम भूखी हो न? खैर, मैं टैक्सी ला रहा हूं.’’ और इरफाना जब उठ खड़ी हुई तो लगा, समझदार बाप ने सयानी बेटी के प्यार को सम्मान दे कर आसमान तक ऊंचा उठा दिया था.

Best Hindi Story : अबोध – गौरा मां को देखते ही क्यों रोने लगी ?

Best Hindi Story : माधव कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, 50 साल की उम्र. सफेद दाढ़ी. उस पर भी बीमारी के बाद की कमजोर हालत. यह सब देख कर घर के लोगों ने माधव को बेटी की शादी कर देने की सलाह दे दी. कहते थे कि अपने जीतेजी लड़की की शादी कर जाओ.

माधव ने अपने छोटे भाई से कह कर अपनी लड़की के लिए एक लड़का दिखवा लिया.

माधव की लड़की गौरा 15 साल की थी. दिनभर एक छोटी सी फ्रौक पहने सहेलियों के साथ घूमती रहती, गोटी खेलती, गांव के बाहर लगे आम के पेड़ पर चढ़ कर गिल्ली फेंकने का खेल भी खेलती.

जैसे ही गौरा की शादी के लिए लड़का मिला, वैसे ही उस का घर से निकलना कम कर दिया गया.

अब गौरा घर पर ही रहती थी. महल्ले की लड़कियां उस के पास आती तो थीं, लेकिन पहले जैसा माहौल नहीं था. गौरा की शादी की खबर जब उन लड़कियों को लगी, तो गौरा को देखने का उन का नजरिया ही बदल गया था. माधव ने फटाफट गौरा की शादी उस लड़के से तय कर दी. माधव की माली हालत तो ठीक नहीं थी, लेकिन जितना भी कर सकते थे, करने में लग गए.

शादी की तारीख आई. लड़के वाले बरात ले कर माधव के घर आ गए. लड़का गौरा से बड़ा था. वह 20-22 साल का था. गौरा को इन बातों से ज्यादा मतलब तो नहीं था, लेकिन इस वक्त उसे अपना घर छोड़ कर जाना कतई अच्छा नहीं

लग रहा था. शादी के बाद गौरा अपनी ससुराल चली गई, लेकिन रोते हुए. गौरा की शादी के कुछ दिन बाद ही माधव की बीमारी ठीक होने लगी, फिर कुछ ही दिनों में वे पूरी तरह से ठीक भी हो गए, मानो उस मासूम गौरा की शादी करने के लिए ही वे बीमार पड़े थे  उधर गौरा ससुराल पहुंची तो देखा कि वहां घर जैसा कुछ भी नहीं था. न साथ खेलने के लिए सहेलियां थीं और न ही अपने घर जैसा प्यार करने वाला कोई. गौरा की सास दिनभर मुंह ऐंठे रहती थीं. ऐसे देखतीं कि गौरा को बिना अपराध किए ही अपराधी होने का अहसास होने लगता.

जिस दिन गौरा अपने घर से विदा हो कर ससुराल पहुंची, उस के दूसरे दिन से ही उस से घर के सारे काम कराए जाने लगे. गौरा को चाय बनाना तो आता था, लेकिन सब्जी छोंकना, गोलगोल रोटी बनाना नहीं आता था. जब ये बातें उस की सास को पता चलीं, तो वे गौरा को खरीखोटी सुनाने लगीं, ‘‘बहू, तेरी मां ने तुझे कुछ नहीं सिखाया. न तो दहेज दिया और न ही ढंग की लड़की. कम से कम लड़की ही ऐसी होती कि खाना तो बना लेती…’’

गौरा चुपचाप सास की खरीखोटी सुनती रहती और जब भी अकेली होती, तो घर और मां की याद कर के खूब रोती. दिनभर घर के कामों में लगे रहना और सास भी जानबूझ कर उस से ज्यादा काम कराती थीं. बेचारी गौरा, जो सास कहतीं, वही करती. शाम को पति के हाथों का खिलौना बन जाती. वह तो ठीक से दो मीठी बातें भी उस से नहीं करता था. दिनभर यारदोस्तों के साथ घूमता और रात  ते ही घर में आता, खाना खाता और गौरा को बेहाल कर चैन से सो जाता.

एक दिन गौरा का बहुत मन हुआ कि घर जा कर अपने मांबाप से मिल ले. मां से तो लिपट कर रोने का मन करता था. मौका देख कर गौरा अपनी सास से बोली, ‘‘माताजी, मैं अपने घर जाना चाहती हूं. मुझे घर की याद आती है.’’ सास तेज आवाज में बोलीं, ‘‘घर जाएगी तो यहां क्या जंगल में रह रही है? यहां कौन सा तुझ पर आरा चल रहा है… घर के बच्चों से ज्यादा तेरी खातिर होती है यहां, फिर भी तू इसे अपना घर नहीं समझती.’’

गौरा घबरा कर रह गई, लेकिन घर की याद अब और ज्यादा आ रही थी. दिन यों ही गुजर रहे थे कि एक दिन माधव गौरा की ससुराल आ पहुंचे. अपने पिता को देख गौरा जी उठी थी. भरे घर में अपने पिता से लिपट गई और खूब सिसकसिसक कर रोई.

माधव का दिल भी पत्थर से मोम हो गया. वे खुद रोए तो नहीं, लेकिन आंखें कई बार भीग गईं. उसी दिन शाम को वे गौरा को अपने साथ ले आए.

घर आ कर गौरा फिर उसी मनभावन तिलिस्म में खो गई. वही गलियां, वही रास्ता, वैसे ही घर, वही आबोहवा, वैसी ही खुशबू. इतने में मां सामने आ गईं. गौरा की हिचकी बंध गई, दोनों मांबेटी लिपट कर खूब रोईं.

घर में आई गौरा ने मां को ससुराल की सारी हालत बता दी और बोली, ‘‘मां, मैं वहां नहीं जाना चाहती. मुझे अब तेरे ही पास रहना है.’’

मां गौरा को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, अब तेरी शादी हो चुकी है. तेरा घर अब वही है. हम चाह कर भी तुझे इस घर में नहीं रख सकते.

‘‘हर लड़की को एक न एक दिन अपनी ससुराल जाना ही होता है. मैं इस घर आई और तू उस घर में गई. इसी तरह अगर तेरी लड़की हुई, तो वह भी किसी और के घर जाएगी. इस तरह तो कोई हमेशा अपने घर नहीं रुक सकता.’’

गौरा चुप हो गई. मां से अब और क्या कहती. जो सास कहती थीं, वही मां भी कहती हैं.

रात को गौरा नींद भर सोई, दूसरी सुबह उठी तो साथ की लड़कियां घर आ पहुंचीं. अभी तक सब की सब कुंआरी थीं, जबकि गौरा शादीशुदा थी. वे सब सलवारसूट पहने घूम रहीं थीं, जबकि गौरा साड़ी पहने हुए थी.

आज गौरा सारी सहेलियों से खुद को अलग पाती थी, उन से बात करने और मिलने में उसे शर्म आती थी. मन करता था कि घर से उठ कर कहीं दूर भाग जाए, जिस से न तो ससुराल जाना पड़े और न ही किसी से शर्म आए.

सुबह के 10 बजने को थे. गौरा ने घर में रखा पुराना सलवारसूट पहना, जिसे वह शादी से पहले पहना करती थी और मां के पास जा कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘मां, तुम कहो तो मैं थोड़ी देर बाहर घूम आऊं?’’

गौरा बोलीं, ‘‘हां बेटी, घूम आ, लेकिन जल्दी घर आ जाना. अब तू छोटी बच्ची नहीं है.’’

गौरा मुसकराते हुए घर से निकल गई. उस की नजर गांव के बाहर लगे आम के पेड़ के पास गई. मन खिल उठा. लगा, जैसे वह पेड़ उस का अपना है, कदम बरबस ही गांव से बाहर की ओर बढ़ गए.

हवा के हलके झोंके और खेतोंपेड़ों का सूनापन, चारों तरफ शांत सा माहौल और बेचैन मन, मानो फिर से लौट पड़ा हो गौरा का बचपन. हवा में पैर फेंकती सीधी आम के पेड़ के नीचे जा पहुंची.

यह वही आम का पेड़ था, जिस के ऊपर चढ़ कर गिल्ली फेंकने वाले खेल खेले जाते थे, जहां सहेलियों के साथ बचपन के सुख भरे दिन गुजारे थे. गौरा दौड़ कर आम के पेड़ से लिपट गई. उस मौन खड़े पेड़ से रोरो कर अपने दिल का हाल कह दिया. पेड़ भी जैसे उस का साथी था. उस ने गौरा के मन को बहुत तसल्ली दी  थोड़ी देर तक गौरा पेड़ से लिपटी बचपन के दिनों को याद करती रही, बचपन तो अब भी था, लेकिन कोई उसे छोटी लड़की मानने को तैयार न था. सब कहते कि वह बड़ी हो गई है, लेकिन खुद गौरा और उस का दिल नहीं मानता था कि वह इतनी बड़ी हो गई है कि घर से बाहर किसी और के साथ रहने लगे. बड़ी औरतों की तरह काम करने लगे, सास की खरीखोटी सुनने लगे.

गौरा बैठी सोचती रही, मन में गुबार की आंधी चलती थी, फिर न जाने क्या सोच कर अपना दुपट्टा उतारा और आम के पेड़ पर चढ़ कर छोर को उस की डाली से कस कर बांध दिया. फिर आम के पेड़ से उतर कर दूसरा छोर अपने गले में बांध लिया. अभी तक गौरा ठीकठाक थी. खड़ीखड़ी थोड़ी देर तक वह अपने गांव को देखती रही, फिर एकदम से पैरों को हवा में उठा लिया, शरीर का सारा भार गले में पड़े दुपट्टे पर आ गया, दुपट्टा गले को कसता चला गया, आंखें बाहर निकली पड़ी थीं, मुंह लाल पड़ गया था. थोड़ी ही देर में गौरा की मौत हो गई. अब उसे ससुराल नहीं जाना था और न ही कोई परेशानी सहनी थी. कांटों पर चल रही मासूम सी जिंदगी का अंत हो गया था.

जिस बच्ची के खेलने की उम्र थी, उस उम्र में उसे न जाने क्याक्या देखना पड़ा था. उस की दिमागी हालत का अंदाजा सिर्फ वही लगा सकती थी. एक भी ऐसा शख्स नहीं था, जो उस अबोध बच्ची को समझता, लेकिन आज सब खत्म हो गया था, उस की सारी समस्याएं और उस की जिंदगी.

Emotional Story : लंच बौक्स – क्या हुआ विजय के बेटे के साथ?

Emotional Story : सूरज ढलने को था. खंभों पर कुछ ही समय बाद बत्तियां जल गईं. घर में आनेजाने वालों का तांता लगा हुआ था. अपनेअपने तरीके से लोग विजय को दिलासा देते, थोड़ी देर बैठते और चले जाते. मकान दोमंजिला था. ग्राउंड फ्लोर के ड्राइंगरूम में विजय ने फर्श डाल दिया था और सामने ही चौकी पर बेटे लकी का फोटो रखवा दिया गया था. पास में ही अगरबत्ती स्टैंड पर अगरबत्तियां जल रही थीं.

लोग विजय को नमस्ते कर, जहां भी फर्श पर जगह मिलती, बैठ जाते और फिर वही चर्चा शुरू हो जाती. रुलाई थी कि फूटफूट आना चाहती थी. दरवाजे पर पालतू कुत्ता टौमी पैरों पर सिर रख कर चुपचाप बैठा था, जरा सी आहट पर जो कभी भूंकभूंक कर हंगामा बरपा देता था, आज शांत बैठा था. दिल पर पत्थर रख मन के गुबार को विजय ने मुश्किल से रोक रखा था.

‘‘क्यों, कैसे हो गया ये सबकुछ?’’

‘‘सामने अंधेरा था क्या?’’

‘‘सीटी तो मारनी थी.’’

‘‘तुम्हारा असिस्टैंट साथ में नहीं था क्या?’’

‘‘उसे भी दिखाई नहीं दिया?’’

एकसाथ लोगों ने कई सवाल पूछे, मगर विजय सवालों के जवाब देने के बजाय उठ कर कमरे में चला गया और बहुत देर तक रोता रहा. रोता भी क्यों न. उस का 10 साल का बेटा, जो उसे लंच बौक्स देने आ रहा था, अचानक उसी शंटिंग इंजन के नीचे आ गया, जिसे वह खुद चला रहा था. बेटा थोड़ी दूर तक घिसटता चला गया. इस से पहले कि विजय इंजन से उतर कर लड़के को देखता कि उस की मौत हो चुकी थी.

‘‘तुम्हीं रोरो कर बेहाल हो जाओगे, तो हमारा क्या होगा बेटा? संभालो अपनेआप को,’’ कहते हुए विजय की मां अंदर से आईं और हिम्मत बंधाते हुए उस के सिर पर हाथ फेरा. मां की उम्र 75 साल के आसपास रही होगी. गजब की सहनशक्ति थी उन में. आंखों से एक आंसू तक नहीं बहाया. उलटे वे बहूबेटे को हिम्मत के साथ तसल्ली दे रही थीं. मां ने विजय की आंखों के आंसू पोंछ डाले. वह दोबारा ड्राइंगरूम में आ गया.

‘पापापापा, मुझे चाबी से चलने वाली कार नहीं चाहिए. आप तो सैल से जमीन पर दौड़ने वाला हैलीकौप्टर दिला दो,’ एक बार के कहने पर ही विजय ने लकी को हैलीकौप्टर खरीद कर दिलवा दिया था.

कमरे में कांच की अलमारियों में लकी के लिए खरीदे गए खिलौने थे. उस की मां ने सजा रखे थे. आज वे सब विजय को काटने को दौड़ रहे थे. एक बार मेले में लकी ने जिस चीज पर हाथ रख दिया था, बिना नानुकर किए उसे दिलवा दिया था. कितना खुश था लकी. उस के जन्म के 2 दिन बाद ही बड़े प्यार से ‘लकी’ नाम दिया था उस की दादी ने. ‘देखना मां, मैं एक दिन लकी को बड़ा आदमी बनाऊंगा,’ विजय ने लकी के नन्हेनन्हे हाथों को अपने हाथों में ले कर प्यार से पुचकारते हुए कहा था. लकी, जो अपनी मां की बगल में लेटा था, के चेहरे पर मुसकराते हुए भाव लग रहे थे.

‘ठीक है, जो मरजी आए सो कर. इसे चाहे डाक्टर बनाना या इंजीनियर, पर अभी इसे दूध पिला दे बहू, नहीं तो थोड़ी देर में यह रोरो कर आसमान सिर पर उठा लेगा,’ विजय की मां ने लकी को लाड़ करते हुए कहा था और दूध पिलाने के लिए बहू के सीने पर लिटा दिया था. अस्पताल के वार्ड में विजय ने जच्चा के पलंग के पास ही घूमने वाले चकरीदार खिलौने पालने में लकी को खेलने के लिए टंगवा दिए थे, जिन्हें देखदेख कर वह खुश होता रहता था. एक अच्छा पिता बनने के लिए विजय ने क्याक्या नहीं किया… विजय इंजन ड्राइवर के रूप में रेलवे में भरती हुआ था. रनिंग अलाउंस मिला कर अच्छी तनख्वाह मिल जाया करती थी उसे. घर की गाड़ी बड़े मजे से समय की पटरियों पर दौड़ रही थी.

उसे अच्छी तरह याद है, जब मां ने कहा था, ‘बेटा, नए शहर में जा रहे हो, पहनने वाले कपड़ों के साथसाथ ओढ़नेबिछाने के लिए रजाईचादर भी लिए जा. बिना सामान के परेशानी का सामना करना पड़ेगा.’ ‘मां, क्या जरूरत है यहां से सामान लाद कर ले जाने की? शहर जा कर सब इंतजाम कर लूंगा. तुम्हारा  आशीर्वाद जो साथ है,’ विजय ने कहा था. वह रसोई में चौकी पर बैठ कर खाना खा रहा था. मां उसे गरमागरम रोटियां सेंक कर खाने के लिए दिए जा रही थीं. विजय गांव से सिर्फ 2 पैंट, 2 टीशर्ट, एक तौलिया, साथ में चड्डीबनियान ब्रीफकेस में रख कर लाया था.

कोयले से चलने वाले इंजन तो रहे नहीं, उन की जगह पर रेलवे ने पहले तो डीजल से चलने वाले इंजन पटरी पर उतारे, पर जल्द ही बिजली के इंजन आ गए. विजय बिजली के इंजनों की ट्रेनिंग ले कर लोको पायलट बन गया था.ड्राइवर की नौकरी थी. सोफा, अलमारी, रूम कूलर, वाशिंग मशीन सबकुछ तो जुटा लिया था उस ने. कौर्नर का प्लौट होने से मकान को खूब हवादार बनवाया था उस ने.  शाम को थकाहारा विजय ड्यूटी से लौटता, तो हाथमुंह धो कर ऊपर बैठ कर चाय पीने के लिए कह जाता. दोनों पतिपत्नी घंटों ऊपरी मंजिल पर बैठेबैठे बतियाते रहते. बच्चों के साथ गपशप करतेकरते वह उन में खो जाता. लकी के साथ तो वह बच्चा बन जाता था. स्टेशन रोड पर कोने की दुकान तक टहलताटहलता चला जाता और 2 बनारसी पान बनवा लाता. एक खुद खा लेता और दूसरा पत्नी को खिला देता.

विजय लकी और पिंकी का होमवर्क खुद कराता था. रात को डाइनिंग टेबल पर सब मिल कर खाना खाते थे. मन होता तो सोने से पहले बच्चों के कहने पर एकाध कहानी सुना दिया करता था.मकान के आगे पेड़पौधे लगाने के लिए जगह छोड़ दी थी. वहां गेंदा, चमेली के ढेर सारे पौधे लगा रखे थे. घुमावदार कंगूरे और छज्जे पर टेराकोटा की टाइल्स उस ने लगवाई थी, जो किसी ‘ड्रीम होम’ से कम नहीं लगता था.  मगर अब समय ठहर सा गया है. एक झटके में सबकुछ उलटपुलट हो गया है. जो पौधे और ठंडी हवा उसे खुशी दिया करते थे, आज वे ही विजय को बेगाने से लगने लगे हैं. घर में भीड़ देख कर पत्नी विजय के कंधे को झकझोर कर बोली, ‘‘आखिर हुआ क्या है? मुझे बताते क्यों नहीं?’’

विजय और उस की मां ने पड़ोसियों को मना कर दिया था कि पत्नी को मत बताना. लकी की मौत के सदमे को वह सह नहीं पाएगी. मगर इसे कब तक छिपाया जा सकता था. थोड़ी देर बाद तो उसे पता चलना ही था. आटोरिकशा से उतर कर लकी के कटेफटे शरीर को देख कर दहाड़ मार कर रोती हुई बेटे को गोदी में ले कर वहीं बैठ गई. विजय आसमान को अपलक देखे जा रहा था. पिंकी लकी से 3 साल छोटी थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि हुआ क्या है? मां को रोते देख वह भी रोने लगी.

‘‘देख, तेरा लकी अब कभी भी तेरे साथ नहीं खेल पाएगा,’’ विजय, जो वहीं पास बैठा था, पिंकी को कहते हुए बोला. उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था. पिंकी को उस ने अपनी गोद में बिठा लिया. रहरह कर ढेर सारे बीते पलों

के चित्र उस के दिमाग में उभर रहे थे, जो उस ने लकी और पिंकी के साथ जीए थे. उन चित्रों में से एक चित्र फिल्मी सीन की तरह उस के सामने घट गया. इंजन ड्राइवर होने के नाते रेल के इंजनों से उस का निकट का रिश्ता बन गया था. वर्तमान आशियाने को छोड़ कर वह बाहर ट्रांसफर पर नहीं जाना चाहता था, इसलिए प्रशासन ने नाराज हो कर उसे शंटिंग ड्राइवर बना दिया. रेलवे का इंजन, डब्बे, पौइंटमैन और कैबिनमैन के साथ परिवार की तरह उस का रिश्ता बन गया. विजय दिनभर रेलवे क्रौसिंग के पास बने यार्ड में गाडि़यों की शंटिंग किया करता और डब्बों के रैक बनाया करता. लालहरी बत्तियों और झंडियों की भाषा पढ़ने की जैसे उस की दिनचर्या ही बन गई. सुबह 8 बजे ड्यूटी पर निकल जाता और दिनभर इंजन पर टंगा रहता, रैक बनाने के सिलसिले में. अचानक उस के असिस्टैंट को एक लड़का साइकिल पर आता दिखाई दिया, जो तेजी से रेलवे बैरियर के नीचे से निकला. इस से पहले कि विजय कुछ कर पाता, उस ने इंजन की सीटी मारी, पर लड़का सीधा इंजन से जा टकराया. ‘यह तो लकी है…’ विजय बदहवास सा चिल्लाया.

लकी जैसे ही इंजन से टकराया, उस ने पैनल के सभी बटन दबा दिए. वह इंजन को तुरंत रोकना चाहता था. उस के मुंह से एक जोरदार चीख निकल गई. सामने लकी की साइकिल इंजन में उलझ गई और सौ मीटर तक घिसटती चली गई. लकी के शरीर के चिथड़ेचिथड़े उड़ गए. ‘बचाओ, बचाओ रे, मेरे लकी को बचा लो,’ विजय रोता हुआ इंजन के रुकने से पहले उतर पड़ा. लकी, जो पापा का लंच बौक्स देने यार्ड की तरफ आ रहा था, वह अब कभी नहीं आ पाएगा. चैक की शर्ट जो उस ने महीनेभर पहले सिलवाई थी, उसे हाथ में ले कर झटकाया. वहां पास ही पड़े लकी के सिर को उस की शर्ट में रख कर देखने लगा और बेहोश हो गया. शंटिंग ड्राइवर से पहले जब वह लोको पायलट था, तो ऐसी कितनी ही घटनाएं लाइन पर उस के सामने घटी थीं. उसे पता है, जब एक नौजवान ने उस के इंजन के सामने खुदकुशी की थी, नौजवान ने पहले ड्राइवर की तरफ देखा, पर और तेज भागते हुए इंजन के सामने कूद पड़ा था. उस दिन विजय से खाना तक नहीं खाया गया था. जानवरों के कटने की तो गिनती भी याद नहीं रही उसे. मन कसैला हो जाया करता था उस का. मगर करता क्या, इंजन चलाना उस की ड्यूटी थी. आज की घटना कैसे भूल पाता, उस के जिगर का टुकड़ा ही उस के हाथों टुकड़ेटुकड़े हो गया.

बेटे, जो पिता के शव को अपने कंधों पर श्मशान ले जाते हैं, उसी बेटे को विजय मुक्तिधाम ले जाने के लिए मजबूर था.

Romantic Story : चाय पे बुलाया है – जब टूटा मनीष का दिल

Romantic Story : यह मेरी नजरों का धोखा था या मैं वाकई निराश होता जा रहा था. क्या करूं, उम्र भी तो हो चली थी. 38 वर्ष की आयु तक पहुंचते हुए मैं ने अच्छीखासी प्रोफैशनल उन्नति प्राप्ति कर ली थी. कई प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेते हुए मैं ने बैंक में प्रोबेशनरी औफिसर का पद प्राप्त कर लिया. अब एक प्रतिष्ठित सरकारी बैंक में ब्रांच प्रबंधक के तौर पर पदासीन था. अपना घर भी बना लिया और बड़ी गाड़ी भी ले ली थी. अच्छीखासी शक्लसूरत भी थी, घरपरिवार भी संपन्न था पर शादी नहीं हुई. सभी पूछते, कब सुना रहे हैं खुशखबरी, साहब? क्या कहता? कोई उत्तर नहीं, कोई कारण भी नजर नहीं आता था. पता नहीं बात क्यों नहीं बनी थी अब तक. हंस कर टाल जाता कि जब सलमान खान शादी करेगा, तब मैं भी खुशखबरी सुना दूंगा. पर अब लगने लगा था कि शायद मैं सलमान खान को पीछे छोड़ दूंगा.

कुछ दिनों से देख रहा था कि सामने वाली बिल्ंिडग में रहने वाली सुंदरसुकोमल लड़की मुझे देख मुसकराती थी. आखिर रोजरोज तो गलतफहमी नहीं हो सकती थी.

एक दिन दफ्तर जाने के लिए जब नीचे उतरा तब भी देखा था कि वह अपनी बालकनी में खड़ी मुझे देख रही थी. अगले दिन भी और उस के अगले दिन भी. हिरनी सी बड़ी, कजरारी आंखों में मृदुल सौम्यता, कोमल कपोलों पर छिटका गुलाबी रंग और रसभरे होंठों पर खेलती हलकी मुसकान, इतना लावण्य किसी की दृष्टि से छिप सकता था भला. जाहिर था, मैं ने भी देखा. एक और खास बात होती है दृष्टि में, चाहे कोई हमारी पीठ पर अपनी नजरें गड़ाए हुए हो, हमें पता चल जाता है. हम घूम कर उस देखने वाले को देख लेते हैं. यह प्रकृति का कैसा अनूठा रहस्य है, इसे मैं आज तक समझ नहीं पाया. तभी तो तीसरी मंजिल से मुझे देखती उस सुंदरी तक मेरी दृष्टि खुद ही पहुंच गई थी.

मैं झिझकता रहा और उस की हलकी, अधूरी मुसकान का कोई प्रतिउत्तर नहीं दे पाया था. परंतु उस दिन तो हद हो गई. वह मेरे दफ्तर जाने वाले समय पर लिफ्ट में भी साथ ही आ गई.

‘‘हैलो,’’ अपनी जानलेवा मुसकान के साथ वह मुझ से बोल उठी. अभी तक सिर्फ सूरत देखी थी पर कहना पड़ेगा, जितनी मोहक सूरत उतनी ही कातिल शारीरिक संरचना भी थी. ऊंची आकर्षक कदकाठी, सुडौल बदन, कमर तक लंबे बाल.

मर्दों की एक विशेषता होती है कि वे एक ही नजर में औरत के सौंदर्य को नापने की क्षमता रखते हैं. मैं ने जल्दी उस पर टिकी अपनी दृष्टि हटा ली और अपनी विस्फारित आंखों को भी नियंत्रण में किया. कहीं मेरा गलत प्रभाव न पड़ जाए उस पर.

‘‘हैलो,’’ मैं ने हौले से कहा. मुझे डर था कि कहीं मेरा उतावलापन उसे डरा न दे. बस, एक हलकी सी मुसकराहट रखी चेहरे पर. फिर वह सब्जी लेने दुकान में चली गई और मैं गाड़ी में सवार हो अपने दफ्तर. पर सारे रास्ते आज सिर्फ मेरा रेडियो नहीं चला, पूरा गला खोल कर हर प्रेमभरा गीत मैं ने भी गाया रेडियो के साथ. एक अजीब सा रोमांच छा रहा था मेरे ऊपर. बैंक में भी लोगों ने पूछ डाला, ‘‘क्या बात है, साहब, आज आप बहुत प्रसन्न लग रहे हैं?’’ क्या बताऊं कि क्या बात थी. पर खुश तो था मैं.

देर शाम घर लौटते समय दिल हुआ कि आइसक्रीम लेता चलूं. घर पर मां भी हैरान हुई थीं, ‘‘आज आइसक्रीम?’’

‘‘यों ही, बस.’’

‘‘क्या बात है, बहुत खुश लग रहा है. काम बढ़ गया है इसलिए?’’ मां ने तंज किया था. मुझे घर वाले वर्कोहोलिक पुकारते. अब तक मेरी शादी न होने का जिम्मेदार भी वे मेरे काम, काम और बस काम करने को ही ठहराते थे.

‘‘कहा न, यों ही. मैं आइसक्रीम नहीं ला सकता क्या?’’ मेरे जोर देने पर अब मां चुप हो गई थीं.

‘‘तेरे लिए एक रिश्ता आया है,’’ उन्होंने बात बदलते हुए कहा था.

‘‘कहां से?’’

‘‘वह मन्नो मौसी हैं न, उन की रिश्तेदारी में है लड़की. नौकरी नहीं करती है. मैं ने कह दिया है कि वैसे तो मनीष को नौकरी वाली लड़की चाहिए पर फिर भी तसवीर भिजवा दो. तेरे ईमेल पर भेजी होगी. खुद भी देख ले और हमें भी दिखा दे जरा.’’

वह फोटो वाली लड़की उतनी सुंदर नहीं थी जितनी वह बालकनी वाली. पर यों हवा में, बस मुसकराहट के आदानप्रदान के बदले रिश्ता तो भिजवाया नहीं जा सकता. क्या बताता मां को? बस, मन्नो मौसी वाली लड़की की फोटो दिखला दी. मां को पसंद भी आ गई थी. ‘‘घर में तो ऐसी ही लड़कियां जंचती हैं,’’ मां अब मेरी शादी और टालने के मूड में नहीं थीं.

‘‘थोड़े दिन रुक सकती हो तो रुक जाओ.’’

‘‘क्या होगा थोड़े दिनों में?’’

मैं आशान्वित था कि शायद यहीं इसी सोसाइटी में बात बन जाए. ‘‘अभी काफी काम है दफ्तर में. फिर तुम कहोगी समय निकाल, मिलने चलना है वगैरा.’’ फिलहाल मैं ने बात टाल दी थी.

अगली सुबह फिर लिफ्ट में मिल गई थी वह. ‘‘हैलो,’’ वही कर्णप्रिय स्वर.

‘‘हैलो,’’ आज मेरी मुसकराहट कुछ और फैली हुई थी.

‘‘मेरा नाम सुलोचना है. हम हाल ही में सोसाइटी में शिफ्ट हुए हैं. आप यहां कब से रह रहे हैं?’’

‘‘मैं मनीष हूं. यहां कई वर्षों से रह रहा हूं. वहां छठवीं मंजिल पर, अपने मम्मीपापा के साथ. और आप?’’ मेरे लिए जानना आवश्यक था कि सुलोचना शादीशुदा है या नहीं. नए जमाने की लड़कियां कोई भी शादी का चिह्न नहीं धारण करती हैं, फिर गलतफहमी हो जाए तो किस की गलती.

‘‘मैं भी अपने मम्मीपापा के साथ रहती हूं. कभी घर पर चाय पीने आइए न. बाय,’’ सुकोमल हाथ हिलाती हुई  वह सब्जी लेने दुकान में चली गई थी और मैं गाड़ी में सवार हो, अपने दफ्तर की ओर चल दिया था.

सारे रास्ते मेरे कानों में उसी के सुर गूंजते रहे…कभी घर पर चाय पीने आइए न…मेरे मुंह से खुद ही गीत निकल पड़ा, ‘शायद मेरी शादी का खयाल दिल में आया है, इसीलिए मम्मी ने तेरी मुझे चाय पे बुलाया है…’ क्या सचमुच चला जाऊं उस के घर चाय के बहाने? सोचता रहा पर निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया था.

अगली सुबह बैंक जाते समय जब सुलोचना फिर लिफ्ट में मुझ से टकराई थी तो कुछ शिकायती लहजे में बोली थी, ‘‘आप कल आए क्यों नहीं चाय पर? कितना इंतजार किया मैं ने?’’

मुझे कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. अब तक मैं शादी के लिए तरसता रहा था और अब यों अचानक एक सुंदरी मुझे चाय पे बुला रही थी, मेरे न आने पर मुझ से रूठ रही थी. उफ, मैं गदगद हो उठा था. ‘‘आज शाम मैं पक्का आऊंगा, यह वादा रहा,’’ कहते हुए मुझे लगा जरा ज्यादा फिल्मी हो गया है. पर अब तो तीर कमान से निकल चुका था. अपनी बात पर हंस कर मैं आगे बढ़ गया.

शाम को बैंक से जल्दी निकल कर, घर जा कर फ्रैश हो कर मैं सुलोचना के घर पहुंच गया. अच्छेभले लोग लगे. बातचीत में सभ्य, चाय के साथ जिद कर के पकौड़े भी परोसे. ‘‘सुलोचना ने बनाए हैं,’’ उस की मम्मी का कहना मुझे बहुत अच्छा लगा था. मम्मी और सुलोचना तो काफी हंसबोल रहे थे. बस, उस के पापा जरा गंभीर थे. मानो मेरे पूछने को प्रतीक्षारत थे, फौरन बिफर पड़े थे, ‘‘अरे जनाब, यह मोदी सरकार के फैसले ने जो डीमोनेटाइजेशन किया है उस ने जीना हराम कर दिया है. अब बताइए, पैसा होते हुए भी हम पैसेपैसे को मुहताज हो गए हैं. क्या फायदा नौकरी कर सारी उम्र बचत करने का? ‘‘आज जब जरूरत है तो हम अपना ही पैसा नहीं इस्तेमाल कर सकते. बैंकों की लंबीलंबी कतारों में खड़े होने की हिम्मत सब में तो है नहीं. और फिर इन कतारों में खड़े हो कर भी कितना पैसा निकाल पाएंगे? जरूरत ज्यादा की हो तो कोई क्या करे?’’

‘‘आप चिंता न करें. मुझे बताएं, मैं जो भी मदद कर सकता हूं, करूंगा. मैं बैंक से आप के लिए पैसे निकलवा दूंगा. हां, एक भारतीय नागरिक होने के नाते नियमकानून मेरे ऊपर भी वही लागू हैं जो आप के ऊपर, इसलिए निर्धारित सीमा से अधिक रुपए नहीं निकाल पाऊंगा पर आप को कतार में खड़े होने की आवश्यकता नहीं. और हां, यदि अत्यधिक आवश्यकता हो तो मैं अपने पास से भी कुछ राशि आप को दे सकता हूं.’’ मेरी बात से वे पूरी तरह आश्वस्त हो गए थे. चायपकौड़े की पार्टी कर मैं अपने घर लौट आया.

‘‘सोसाइटी में किस से इतनी जानपहचान हो गई रे तेरी?’’ मां अचंभित अवश्य थीं.

‘‘हैं एक. बताऊंगा,’’ बात टालते हुए मैं अपने कमरे में चला गया. सोचा, पहले बात कुछ आगे तो बढ़े.

उस दिन के बाद हफ्तेभर मैं ने सुलोचना के परिवार की भरसक सहायता की. वे लोग मुझ से बेहद खुश थे. आनाजाना काफी बढ़ गया था. मैं बेधड़क उन के घर जाने लगा था. सुलोचना के मम्मीपापा मुझ से बहुत घुलमिल गए थे. मैं मन ही मन मोदी सरकार के फैसले का धन्यवाद करते नहीं थकता था. मां बारबार मन्नो मौसी वाले रिश्ते के बारे में पूछतीं. मैं ने सोचा अब मां को सुलोचना के मम्मीपापा से मिलवा देने का समय आ गया है.  अगले ही दिन मैं सुलोचना के घर पहुंच गया था. थोड़ी देर हलकीफुलकी बातचीत करने के बाद मैं मुद्दे की बात पर आया, ‘‘आंटीजी, मैं सोच रहा था कि क्यों न आप को अपनी मम्मी से मिलवा दूं? मेरा मतलब है…’’

‘‘मैं तो खुद ही यह सोच रही थी, बेटा. हम दोनों तुम्हारे घर आने ही वाले हैं. बस, सुलोचना की शादी के कार्ड छप कर आ जाएं. फिर सब से पहला कार्ड तुम्हें ही देंगे. तुम मदद न करते तो इस की शादी की तैयारी के लिए राशि एकत्रित करना जटिल हो जाता,’’ सुलोचना की मम्मी ने मेरे ऊपर वज्रपात कर दिया था. सुलोचना की शादी? तो क्या इसीलिए मुझ से दोस्ती की थी? सोसाइटी में सभी जानते थे कि मैं बैंक में उच्चपदाधिकारी हूं. आज तक शादी न होने से मुझे इतनी पीड़ा नहीं हुई थी जितनी आज अपने स्वप्नमहल के टूटने से हुई.

मैं उदासीन हो घर लौट आया था. धम्म से सोफे पर बैठ समाचार सुनने लगा. देखने वालों को लग रहा था कि मैं समाचार सुनने में खोया हूं परंतु उस समय मेरी कोई भी इंद्रिय जागरूक अवस्था में नहीं थी. न तो मेरे कान कुछ सुन रहे थे और न ही मेरी आंखें कुछ देख पा रही थीं. मन दहाड़ें मार रहा था. शुक्र है मन की दहाड़ किसी को सुनाई नहीं दे सकती. उस दिन मां भी अलग ही रूप में थीं. बड़बड़ाती जा रही थीं, ‘‘जब देखो तब काम. शादी कब करेगा यह लड़का. वैसे ही रिश्ते आने कम होते जा रहे हैं, ऐसे ही चलता रहा तो कहां से लाऊंगी इस के लिए लड़की…अब मैं तेरी एक नहीं सुनूंगी. मैं ने फैसला कर लिया है कि मन्नो मौसी वाले रिश्ते को हां कर दूंगी. तेरी नजर में कोई है तो बता दे, वरना मैं इस सर्दी में तेरी शादी करवा दूंगी.’’ मेरे चुप रहने में ही मेरी भलाई थी.

Credit Card : इस देश में नहीं इस्तेमाल होता क्रैडिट कार्ड

Credit Card : क्रैडिट कार्ड के प्रयोग में कनाडा सब से आगे है. वहां करीब 83 फीसदी लोग क्रेडिट कार्ड का प्रयोग कर रहे हैं. इस के बाद इजराइल 80 फीसदी, आइसलैंड 74 फीसदी, हांगकांग 72 फीसदी और जापान में 70 फीसदी है. विश्वगुरु भारत में केवल 4.62 फीसदी लोग ही क्रैडिट कार्ड का प्रयोग कर रहे हैं. मजेदार बात यह है कि अफगानिस्तान में क्रैडिट कार्ड इस्तेमाल करने वालों की संख्या जीरो है.

जैसेजैसे क्रैडिट कार्ड का प्रयोग बढ़ रहा है वैसेवैसे ही डिफौल्टर लोगों की संख्या में बढ़ावा हो रहा है. अमीर देशों में क्रैडिट कार्ड का प्रयोग ज्यादा होता है. उन को पता होता है कि खर्च करने के बाद वह भुगतान कर सकते हैं. क्रैडिट कार्ड देश की आर्थिक मजबूती को नापने का पैमाना भी हो सकता है.

भारत में भले ही ग्रोथ हो रही है लेकिन यहां पर प्रति व्यक्ति आय कम है. इस वजह से ही क्रैडिट कार्ड का प्रयोग भी कम हो रहा है. यहां के लोगों को लगता है कि खर्च ज्यादा हो गया तो भुगतान कैसे होगा? देश में अमीर और गरीब के बीच की दूरी बढ़ रही है.

देश में एक तरफ वह लोग हैं जो अमीर हैं, दूसरी तरफ वह लोग हैं जो बेहद गरीब हैं. इस वजह से 80 लाख से अधिक लोगों को खाने के लिए मुफ्त अनाज सरकार को देना पड़ रहा है. जनता लोकतंत्र में भरोसा कर के वोट नहीं दे रही वह मुफ्त सरकारी योजनाओं के नाम पर वोट दे रही है.

Office : बौस की आंख का तारा बनें

Office : ”मिनी सिंह, मिनी सिंह और बस मिनी सिंह, मेरे तो कान पक गए यह नाम सुनसुन कर. लगता है जैसे उन के अलावा पूरे स्कूल में कोई और टीचर काम ही नहीं करती है. जो कुछ होता है सब मिनी सिंह ही करती है.” स्टाफ रूम में अमृता रावत दो अन्य टीचरों के साथ अपने मन की भड़ास निकाल रही थी. वे किसी तरह मिनी सिंह को प्रिंसिपल की नजरों में गिराने की साजिश में लगी थीं.

दरअसल मिनी सिंह ने अभी कुछ महीने पहले ही स्कूल ज्वाइन किया था. उम्र ज्यादा नहीं थी. कोई 26-27 साल की ऊर्जा और उत्साह से भरी लड़की थी. बीएससी, बीएड कर के आई थी और एक्स्ट्रा एक्टिविटीज जैसे डांस, सिंगिंग, एक्टिंग, क्राफ्टवर्क आदि में बड़ी माहिर थी. आमतौर पर अधिक उम्र की टीचर्स इन साड़ी एक्टिविटीज से दूर ही रहती हैं, जबकि बच्चों को इन एक्टिविटीज में अधिक इंट्रैस्ट होता है.

स्कूल के एनुअल डे के लिए मिनी सिंह ने बच्चों के एक समूह को डांस और एक समूह को एक छोटी नाटिका का प्रशिक्षण दे कर जब स्टेज पर उतारा तो दर्शक जिस में बच्चों के पेरेंट्स और कुछ विशेष अतिथि शामिल थे, बच्चों की परफौर्मेंस देख कर अभिभूत हो गए. प्रिंसिपल तो मिनी सिंह की कायल हो गई. इतना अच्छा डांस तो इतने छोटे बच्चों से इस से पहले कोई टीचर नहीं करवा पाई जैसा मिनी सिंह ने करवा लिया.

इस के अलावा स्टेज का पूरा डैकोरेशन, अतिथियों का स्वागत भाषण आदि में भी मिनी सिंह की अहम भूमिका रही. इस प्रोग्राम के बाद तो मिनी सिंह प्रिंसिपल की आंख का तारा बन गई. हर एक्टिविटी में उस की राय ली जाने लगी और कई महत्वपूर्ण प्रोजैक्ट उस को दिए गए. यह सब देख कर अन्य टीचर्स जलभुन कर बैंगन हो गईं.

साल भर के भीतर मिनी सिंह साधारण टीचर से प्रिंसिपल की पीएस बन गई. उस की सैलरी में तीन गुना बढ़ोत्तरी हो गई. यह सब उस को अपनी मेहनत, ज्ञान और कौशल से हासिल हुआ जो अन्य निकम्मी और कामचोर टीचर्स कभी हासिल नहीं कर सकतीं. मिनी सिंह के खिलाफ वे कितनी भी साजिशें करतीं मगर प्रिंसिपल उन की शिकायतों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देती क्योंकि मिनी सिंह की मेहनत वह साफसाफ देख रही थीं.

प्रत्येक कार्यालय, कंपनी, व्यवसाय आदि में एक न एक व्यक्ति मालिक का बहुत विश्वसनीय होता है. वह अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा मेहनत करता है, संस्थान को ज्यादा समय देता है और सब से अधिक बेहतर परिणाम लाता है. स्वाभाविक रूप से, उस के साथ अलग तरह से व्यवहार भी किया जाता है. उस का मानसम्मान समयसमय पर होता है. उस की तनख्वाह में बढ़ोतरी होती है और इस के कारण स्वाभाविक रूप से वह कुछ लोगों की ईर्ष्या का शिकार भी बनता है. ईर्ष्यालु लोग सोचते हैं कि मालिक का ये व्यवहार गलत है कि किसी को इतना मान दें और अन्य को न दें.

अनेक संस्थानों में ऐसे एक या कई व्यक्ति हो सकते हैं जो सच्चे मन से संस्थान का हित चाहते हैं और उन की मेहनत के कारण ही संस्थान उन्नति करता है. दूसरा समूह उन कर्मचारियों का होता है जो बस घड़ी देख कर काम करते हैं, उन को संस्थान की उन्नति से कोई मतलब नहीं होता है, वे सिर्फ टाइम पर अपनी तनख्वाह चाहते हैं. यह वह समूह है जो कभी मालिक का प्रिय नहीं बन सकता. यह समूह तरक्की भी नहीं करता. यह बस चुगलखोरी और ईर्ष्या में लिप्त रहता है. इस के विलाप से न तो इस का कोई फायदा होता है और न ही इस के नियोक्ता का. इसलिए अगर जीवन में तरक्की करनी है तो किसी भी व्यक्ति का लक्ष्य पहले समूह में शामिल होने का रहना चाहिए.

New Trend : इंटीरियर में बढ़ रहा लकड़ी का प्रयोग

New Trend : इंटीरियर में लकड़ी का प्रयोग मंहगा होने के बावजूद ट्रेंड में है. अब लकड़ी के प्रकार और डिजाइन भी बदल रहे हैं.

घर और लकड़ी का बहुत पुराना साथ है. अब पुराने रिश्ते को नए तरह से देखा जा रहा है. घर को बनाने के लिए लकड़ी सब से पुरानी वस्तुओं में से एक है. जब घर बनाने के लिए कोई दूसरी सामाग्री मौजूद नहीं होती थी तब लकड़ी ही अकेला सहारा होती थी. लकड़ी से घर ही नहीं बनाए जाते हैं फर्नीचर से ले कर दूसरी उपयोगी वस्तुएं तैयार होती थी. लकड़ी मजबूत और टिकाऊ होती है. यह लंबे समय तक चलने वाला विकल्प बन जाती है.

आज के दौर में कमर्शियल लकड़ी की पैदावार बढ़ रही है. ऐसे पेड़ लग रहे हैं जिस का प्रयोग लकड़ी के रूप में किया जा रहा है. पेशेवर बिल्डर अब इस का प्रयोग करते हैं. इन में ऐश, पाइन, सागौन, ओक, बीच, महोगनी और भी बहुत कई किस्म के पेड़ों की लकड़ी का जिक्र किया जा सकता है. हर प्रकार की लकड़ी में विशेष प्रकार का गुण होता है. इन की अपनी अलग शैली होती है. लकड़ी एक प्राकृतिक सामग्री है. यह वातावरण के अनुकूल होती है. जैसे यह गरमी को भी रोकती है और सर्दी को भी.

इंटीरियर डिजाइनर और मम गृहम की प्रमुख नीना मिश्रा कहती हैं, ‘आज के दौर में जलवायु परिर्वतन की बात बहुत होती है. सब को इस की चिंता है. ऐसे में लकड़ी का प्रयोग फिर से चलन में हो रहा है. अब लकड़ी को टैक्नोलौजी के जरीए बेहतर बनाया जा रहा है. इस से लकड़ी का बेहतर प्रबंधन किया जा रहा है. इंटीरियर डिजाइन और सजावट में लकड़ी बेहतर हो रही है. इस तरह की मशीनें, एडहेसिव और भी तमाम सामाग्री मौजूद है, जिस से लकड़ी को और उपयोगी बनाया जा रहा है. इस वजह से इंटीरियर डिजाइनिंग में लकड़ी का उपयोग बढ़ रहा है.’

कंकरीट से ऊब गए लोग

प्लास्टिक का प्रयोग अब लकड़ी के विकल्प के रूप में नहीं सहयोगी के रूप में होने लगा है. इस से लकड़ी को और भी अधिक उपयोगी बनाया जा रहा है. इंटीरियर डिजाइनर और आर्किटैक्ट लंबे समय के बाद लकड़ी का वापस उपयोग करने लगे हैं. इंटीरियर डिजाइनिंग में पौधे और लकड़ी का प्रयोग बढ़ रहा है. इस से कारण भी लकड़ी उपयोगी हो गई है. कई तरह की रिसर्च से पता चलता है कि लकड़ी और पेड पौधों हैल्थ के लिए ठीक होते हैं. जिस तरह से इनडोर पौधे तनाव को कम करने में मदद कर सकते हैं, उसी तरह लकड़ी का उपयोग करने से शारीरिक स्वास्थ्य में भी सुधार हो सकता है.

82 प्रतिशत कर्मचारी जो अपने औफिस में 8 या उस से अधिक लकड़ी के फर्नीचरी का प्रयोग करते थे, वह अपने काम से या तो संतुष्ट थे या बहुत संतुष्ट थे. इस के विपरीत जिस औफिस में लकड़ी का प्रयोग कम होता था, वहां केवल 53 प्रतिशत कर्मचारी ही अपने काम से संतुष्ट थे. लकड़ी के गुण, रंग और तत्व कर्मचारियों की संतुष्टि में सुधार का कारण है. लकड़ी रचनात्मकता को प्रोत्साहित करती हैं.

अब लकड़ी का हर हिस्सा उपयोग में लाया जा रहा है. पहले लकड़ी का बडा हिस्सा जलाने के काम आता था. अब लकड़ी का हर हिस्सा किसी न किसी रूप से प्रयोग में आने लगा है. इस का बुरादा भी अब लकड़ी के रूप में तैयार होने लगा है. अब कई तरह के रंग और वार्निष प्रयोग में आने लगे हैं जो लकड़ी की लाइफ और उस की सुदंरता को बढ़ा देती है. जिस से लकड़ी का घरेलू और व्यावसायिक दोनों जगहों उपयोग बढ़ने लगा है. लकड़ी के नए पेड़ जल्दी तैयार हो रहे हैं जिस से लकड़ी मंहगी नहीं लगती है.

टैक्नोलौजी ने बनाया लकड़ी को उपयोगी

लकड़ी का प्रयोग डेकिंग से ले कर क्लैडिंग और फ्लोरिंग तक होने लगा है. लकड़ी से मशीनों के जरिए बेहतर उपयोगी डिजाइन तैयार होने लगे हैं. लकड़ी को पौलिश किया जा सकता है, रेत से साफ किया जा सकता है, रंगा जा सकता है और जरूरत पड़ने पर चमकदार फिनिश दी जा सकती है. इंटीरियर में पुराना, मौसम से प्रभावित, खलिहान जैसा लुक है जो इंटीरियर देहाती एहसास सुखद करता है. लकड़ी में बिना कोई बदलाव किए ही इस से कई डिजाइन तैयार किए जा सकते थे.

लकड़ी का प्रयोग फर्श के रूप में होने लगा है. लकड़ी के फर्श से घर में शान और मौसम का एहसास होता है. फर्श के साथ लकड़ी की दीवारों और पैनलिंग का उपयोग भी किया जा रहा है. बेडरूम या डाइनिंग रूम के लिए घर के अंदर हो, या बाहर बरामदे पर लकड़ी की क्लैडिंग का प्रयोग हो रहा है. लकड़ी के फर्नीचर अपनी अनोखी डिजाइन के लिए पसंद किए जा रहे हैं. पुराने समय में लकड़ी की छतें बनती थीं, जिन में लकड़ी के ही बीम और पटरे का प्रयोग किया जाता था. नए समय में भी इन का प्रयोग इंटीरियर में होने लगा है. आज की लकड़ी की छतों को इस तरह से तैयार किया जा रहा है कि धूप और पानी उस का नुकसान न कर सके.

कांच या प्लास्टिक प्रयोग करने के लिए भी लकड़ी से बने ढांचे का उपयोग किया जाने लगा है. अब लकड़ी की सीढ़ियों का भी विकल्प बनने लगा है. लकड़ी की सीढ़ियां शानदार और कम रखरखाव वाली होती हैं. यह सालोंसाल चलती है. लकड़ी की दीवारें मौसम की मार से घर को बचाती है. अब इन के लिए थर्मोवुड आने लगा है. इस के प्रयोग से दीवारें ठंडी रहती हैं और छूने पर गरम नहीं होती है.

कंकरीट के प्रयोग से परेशान हो चुके लोग अब लकड़ी को पंसद करने लगे हैं. वह घर के आसपास के वातावरण को नैचुरल तो रखना ही चाहते हैं घर के अंदर भी सकून के लिए लकड़ी का प्रयोग करने लगे हैं.

Happiness Tips : शादी या बच्चे जिंदगी की खुशी का पैमाना नहीं

Happiness Tips : ‘अब तुम्हारी उम्र हो गई है शादी की’ ‘उम्र निकल गई, तो अच्छी लड़की या लड़का नहीं मिलेगा एडजस्ट करना पड़ेगा’, ‘चौइस नहीं बचेगी’ आदिआदि. सिर्फ पेरैंट्स ही नहीं, सोसायटी भी ये डायलौग बोलबोल कर शादी का प्रैशर बनाना शुरू कर देते हैं. क्या सच में शादी के बिना जीवन व्यर्थ है?

हमारे समाज में आज भी 25 क्रौस करते ही इंडियन पेरैंट्स को अपने बच्चों की शादी की चिंता सताने लगती है. आज भी अधिकांश लोग सोचते हैं जिंदगी का मकसद शादी कर के घर बसाना और बच्चेआ पैदा करना है. प्रोफैशनली सेटल होने के बाद उन का नैक्स्ट टारगेट बच्चों की शादी होता है वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन का मानना है कि समय से शादी फिर समय से बच्चे लाइफ का एक जरूरी हिस्सा है, जिस के बिना उन के बच्चों की जिंदगी सेटल नहीं मानी जाएगी.

भले ही उन की अपनी शादी में अनेक प्रौब्लम्स हों. वे यह बात समझ नहीं सकते कि लाइफ शादी के बिना भी खूबसूरत हो सकती है. दरअसल वे शादी और बच्चों को खुश होने का पैमाना, जिंदगी में सेटल होने का पैरामीटर और बुढ़ापे का सहारा मानते हैं. उन्होंने खुद शादी इस डर से की होती है कि बुढ़ापे में मेरा क्या होगा, मेरी प्रौपर्टी का क्या होगा, अकेले जीवन कैसे बीतेगा.

शादी एक पर्सनल डिसीजन

शादी करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन ये पूरी तरह पर्सनल निर्णय होना चाहिए कि कोई शादी करना चाहता है या नहीं. दरअसल, शादी समाज द्वारा दिया गया एक लेबल है और आप जरूरत या इच्छा न होने पर भी अगर शादी करते हैं तो यह एक अपराध है क्योंकि तब आप अपने साथसाथ जिस से शादी करते हैं उस व्यक्ति के जीवन के दुख का रीजन भी बनेंगे.

सोशल मीडिया पर प्रीवेडिंग शूट, शादी, हनीमून, बेबी शावर की फोटोज देखने में बहुत लुभावनी लगती हैं, लेकिन रियल लाइफ में इन सब सामाजिक रीतिरिवाजों से गुजरने के बाद जब रियलटी सामने आती है तो सारे सपने हवा हो जाते हैं और तब शादी बच्चे सब किसी बोझ से कम नहीं लगते.

शादी जिंदगी का हिस्सा हो सकती है, खुशी की गारंटी नहीं

प्रैशर में आ कर, फ्यूचर के बारे में सोचसोच कर शादी के बारे में सोच कर प्रैशर में आने से अच्छाक है कि अपने सपनों के बारे में सोचा जाए. अपनी जरूरतों को समझा जाए, अपनी पहचान के बारे में सोचा जाए क्योंकि केवल शादी, पतिपत्नी और बच्चे ही आप की पहचान नहीं. किसी के साथ शादी के बंधने का निर्णय तभी लेना चाहिए जब आप उस के साथ पूरा जीवन बिताने को तैयार हों.

शादी करना आसान है लेकिन शादी के बाद वह रिश्ता निभा पाना उतना ही मुश्किल है. समझिए कि, एक अनहैप्पी मैरिज से बेहतर हैप्पिली सिंगल रहना है. शादी सिर्फ इसलिए न करें कि समाज क्या कहेगा या दूसरे लोग शादी कर रहे हैं.

शादी करना कहीं गले की फांस न बन जाए

अगर कोई शादी करने के बारे में सोच रहा है तो उसे अच्छी तरह ये जान लेना चाहिए कि आप जिस वजह से शादी करने का फैसला ले रहे हैं वो सही है भी या नहीं क्योंकि गलत वजह से शादी करना न केवल आप के लिए भारी पड़ सकता है बल्कि आप के होने वाले पार्टनर की भी जिंदगी को मुश्किल बना सकता है. विवाह दो लोगों उन के परिवार को एक साथ जोड़ता है. ये किसी की भी लाइफ का एक बेहद जरूरी फैसला होता है, जिसे बड़े सोचविचार के बाद लेना चाहिए. कभीकभी जल्दबाजी में, प्रैशर में या किन्हीं गलत कारणों से भी शादी करने का फैसला कर लेते हैं, जिस पर बाद में पछताना पड़ता है.

शादी अपनी मर्जी या इच्छा से करें प्रैशर में नहीं

शादी करने का फैसला कभी भी किसी प्रैशर में नहीं लेना चाहिए. फिर चाहे वह प्रैशर परिवार, दोस्तों या समाज का ही क्यों न हो. आप को हमेशा अपने दिल की सुननी चाहिए. परिवार की इच्छा पूरी करने के लिए शादी करना कोई वजह नहीं होनी चाहिए. अगर कोई भी लड़का या लड़की शादी करने के लिए तैयार नहीं हैं या उसे शादी जरूरी नहीं लगती तो उसे शादी नहीं करनी चाहिए.

पैसा, शादी की सक्सेस का राज नहीं

कुछ पेरैंट्स अपने बच्चों पर शादी का प्रैशर इसलिए भी बनाते हैं कि सामने वाले के पास बहुत पैसा है और इस से उन्हें फायदा होगा, पैसा उन के बच्चों को खुश रखेगा. ऐसा बिल्कुल न सोचें क्योंकि ये शादी करने की बिल्कुल गलत वजह है. एक सफल शादी प्यार, सम्मान और समझ पर चलती है, न कि सामने वाले के पैसे या स्टेटस पर.

अकेलापन दूर करने के लिए

लोग मानते हैं कि शादी करने से आप को जीवनभर के लिए एक साथी मिल जाता है. अकेलापन दूर होता है लेकिन अगर आप का लाइफ पार्टनर आप की पसंद का नहीं हो, दोनों के विचार न मिलते हों तो शादी करने के बाद भी आप को अकेलापन ही मिलेगा. इसलिए अकेलापन दूर करने के लिए शादी करना शादी करने की सही वजह या गारंटी नहीं है कोई भी शादी तभी सफल होती है जब शादी करने वाले दो दोनों लोग एकदूसरे से प्यार करते हैं और एकदूसरे की कंपनी को एन्जौय करते हैं.

शादी बच्चे के लिए, बुढ़ापे के सहारे के लिए

अगर कोई शादी सिर्फ बच्चे की चाह में अपना परिवार बढ़ाने के लिए कर रहा है, कि बच्चे बुढ़ापे में उन का सहारा बनेंगे तो ये शादी करने की बिल्कुल भी सही वजह नहीं है. बच्चे की परवरिश एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है और उस जिम्मेदारी को पूरी करने के बदले ये एक्सपेक्ट करना कि बुढ़ापे में बच्चे उन की केयर करेंगे उन का सहारा बनेंगे ये सही नहीं है. इस बात की क्या गारंटी है कि जिस वजह से आज आप शादी और उस के बाद बच्चे को दुनिया में लाने का निर्णय ले रहा है वह वजह पूरी होगी, यह अपेक्षा रखना ही गलत है.

मूव औन करने के लिए शादी

कुछ लोग सिर्फ इसलिए भी शादी करना चाहते हैं क्योंकि वे अपने एक्स को भूलना चाहते हैं या उस से मूव औन करना चाहते हैं. ऐसा बिल्कुल न करें. ऐसा करने से आप के साथसाथ आप जिस से शादी कर रहे हैं दोनों की जिंदगी नरक बन सकती है.

शादी का रिश्ता अब सात जन्मों का नहीं रहा

हिंदू धर्म में शादी का रिश्ता केवल एक जन्म का नहीं बल्कि सात जन्मों का माना जाता है, जिस में दो लोग एक साथ जीवनभर साथ रहने और परिवार शुरू करने का फैसला करते हैं. यह बंधन कई तरह के नियमों, रीतिरिवाजों, विश्वासों और व्यवहारों द्वारा नियंत्रित होता है, जिस में दो लोग एकदूसरे के हर दुख और सुख में एक साथ खड़े होने, एकदूसरे की कमियों को पूरा करने का वचन देते हैं लेकिन अपने आसपास अगर गौर से देखा जाए तो सचसच बताइएगा कि आप को कितने खुशहाल वैवाहिक रिश्ते दिखाई दे रहे हैं.

देख कर हैरानी होती है कि अब शादियां सात जन्म तो छोड़िए 7 साल, 7 महीने, 7 दिन और कुछ तो 7 घंटे भी नहीं चल पा रहीं. छोटी सी बात पर हुई तकरार अलगाव का कारण बन रही है. दिनोंदिन तलाक, धोखाधड़ी, पार्टनर के मर्डर जैसे मामले देखने में आ रहे हैं.

शादी से जरूरी खुद की खुशी जरूरी

सोसाइटी, फैमिली के प्रैशर में शादी कर के परिवार शुरू करने से ज्यादा जरूरी आप का खुश रहना है. यदि आप को लगता है आप किसी से शादी कर के खुश रह सकते हैं, तो जरूर शादी करिए. लेकिन यदि आप को लगता है कि आप अकेले ज्यादा खुश रह सकते हैं, तो आप शादी बिना के भी जीवन बिता सकते हैं खुश रह सकते हैं.

बढ़ रही है युवाओं में शादी नहीं करने की सोच

आजकल के युवा शादी करने में विश्वास नहीं कर रहे हैं. खासतौर पर वे युवा जो हाइली एजुकेटेड हैं, अच्छी सैलरी या अच्छी इनकम है, फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की. इस के अलावा, वे जब अपने आसपास के बिगड़ते रिश्तों के उदाहरण देखते हैं, बढ़ती महंगाई के कारण अपनी छोटीछोटी खुशियों के लिए लोगों को स्ट्रगल करते देखते और अपने कंफर्ट और आजादी को खोते देखते हैं, तो वे शादी के बंधन में न बंधना ही बेहतर समझते हैं. वे बुढ़ापे में अकेले होने की कल की चिंता के वजह से आज की आजादी और अपनी मर्जी से जिंदगी जीने की चाहत से बिल्कुल भी समझौता नहीं करना चाहते हैं.

अगर नहीं करनी शादी

अगर किसी को लगता है कि शादी उसे खुशी नहीं देगी, वह बिना शादी के भी खुश रह सकता है और उस ने शादी न करने का निर्णय ले लिया है तो उसे अपना सोशल सर्कल बढ़ाना चाहिए, प्रोफैशनल और पर्सनल दोनों. दोस्त बनाने चाहिए फिर चाहें वे दोस्त मैरिड हों या अनमैरिड.

बैचलर्स के लिए फ्रैंड्स बनाना ईजी

अनमैरिड लोगों के लिए फ्रैंड्स बनाना और निभाना दोनों आसान है क्योंकि तब कोई उन से यह पूछने वाला, टोकाटाकी करने वाला नहीं होता. “इतनी रात को कहां थे, किस दोस्त के साथ थे, कब आ रहे हो, रोज क्यों जाते हो.”

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