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Hindi Story : बनारसी साड़ी

Hindi Story : आज सुबह सुबह ही प्रशांत भैया का फोन आया. ‘‘छुटकी,’’ उन्होंने आंसुओं से भीगे स्वर में कहा, ‘‘राधा नहीं रही. अभी कुछ देर पहले वह हमें छोड़ गई.’’

मेरा जी धक से रह गया. वैसे मैं जानती थी कि कभी न कभी यह दुखद समाचार भैया मुझे देने वाले हैं. जब से उन्होंने बताया था कि भाभी को फेफड़ों का कैंसर हुआ है, मेरे मन में डर बैठ गया था. मैं मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि भाभी को और थोड़े दिनों की मोहलत मिल जाए पर ऐसा न हुआ. भला 40 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है, मैं ने आह भर कर सोचा. भाभी ने अभी दुनिया में देखा ही क्या था. उन के नन्हेनन्हे बच्चों की बात सोच कर कलेजा मुंह को आने लगा. कंठ में रुलाई उमड़ने लगी. मैं ने भारी मन से अपना सामान पैक किया. अलमारी के कपड़े निकालते समय मेरी नजर सफेद मलमल में लिपटी बनारसी साड़ी पर जा टिकी. उसे देखते ही मुझे बीते दिन याद आ गए. कितने चाव से भाभी ने यह साड़ी खरीदी थी. भैया को दफ्तर के काम से बनारस जाना था. ‘‘चाहो तो तुम भी चलो,’’ उन्होंने भाभी से कहा था, ‘‘पटना से बनारस ज्यादा दूर नहीं है और फिर 2 ही दिन की बात है. बच्चों को मां देख लेंगी.’’

‘‘भैया मैं भी चलूंगी,’’ मैं ने मचल कर कहा था.

‘‘ठीक है तू भी चल,’’ उन्होंने हंस कर कहा था.

हम तीनों खूब घूमफिरे. फिर हम एक बनारसी साड़ी की दुकान में घुसे.

‘‘बनारस आओ और बनारसी साड़ी न खरीदो, यह हो ही नहीं सकता,’’ भैया बोले. भाभी ने काफी साडि़यां देख डालीं. फिर एक गुलाबी रंग की साड़ी पर उन की नजर गई, तो उन की आंखें चमक उठीं, लेकिन कीमत देख कर उन्होंने साड़ी परे सरका दी.

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ भैया ने पूछा, ‘‘यह साड़ी तुम्हें पसंद है तो ले लो न.’’

‘‘नहीं, कोई हलके दाम वाली ले लेते हैं. यह बहुत महंगी है.’’

‘‘तुम्हें दाम के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं,’’ कह कर उन्होंने फौरन वह साड़ी बंधवाई और हम दुकान से बाहर निकले.

‘‘शशि के लिए भी कुछ ले लेते हैं,’’ भाभी बोलीं.

‘‘शशि तो अभी साड़ी पहनती नहीं. जब पहनने लगेगी तो ले लेंगे. अभी इस के लिए एक सलवारकमीज का कपड़ा ले लो.’’ मेरा बहुत मन था कि भैया मेरे लिए भी एक साड़ी खरीद देते. मेरी आंखों के सामने रंगबिरंगी साडि़यों का समां बंधा था. जैसे ही हम घर लौटे मैं ने मां से शिकायत जड़ दी. मां को बताना बारूद के पलीते में आग लगाने जैसा था. मां एकदम भड़क उठीं, ‘‘अरे इस प्रशांत के लिए मैं क्या कहूं,’’ उन्होंने कड़क कर कहा, ‘‘बीवी के लिए 8 हजार रुपए खर्च कर दिए. अरे साथ में तेरी बिन ब्याही बहन भी तो थी. उस के लिए भी एक साड़ी खरीद देता तो तेरा क्या बिगड़ जाता? इस बेचारी का पिता जिंदा होता तो यह तेरा मुंह क्यों जोहती?’’

‘‘मां, इस के लिए भी खरीद देता पर यह अभी 14 साल की ही तो है. इस की साड़ी पहनने की उम्र थोड़े ही है.’’

‘‘तो क्या हुआ? अभी नहीं तो एकाध साल बाद ही पहन लेती. बीवी के ऊपर पैसा फूंकने को हरदम तैयार. हम लोगों के खर्च का बहुत हिसाबकिताब करते हो.’’ भैया चुप लगा गए. मां बहुत देर तक बकतीझकती रहीं. भाभी ने साड़ी मां के सामने रखते हुए कहा, ‘‘मांजी, यह साड़ी शशि के लिए रख लीजिए. यह रंग उस पर बहुत खिलेगा.’’ मां ने साड़ी को पैर से खिसकाते हुए कहा, ‘‘रहने दे बहू, हम साड़ी के भूखे नहीं हैं. देना होता तो पहले ही खरीदवा देतीं. अब क्यों यह ढोंग कर रही हो? तुम्हारी साड़ी तुम्हें ही मुबारक हो.’’ फिर वे रोने लगीं, ‘‘प्रशांत के बापू जीवित थे तो हम ने बहुत कुछ ओढ़ा और पहना. वे मुझे रानी की तरह रखते थे. अब तो तुम्हारे आसरे हैं. जैसे रखोगी वैसे रहेंगे. जो दोगी सो खाएंगे.’’ साड़ी उपेक्षित सी बहुत देर तक जमीन पर पड़ी रही. फिर भाभी ने उसे उठा कर अलमारी में रख दिया.

मुझे याद है कुछ महीने बाद भैया के सहकर्मी की शादी थी और घर भर को निमंत्रित किया गया था.

‘‘वह बनारसी साड़ी पहनो न,’’ भैया ने भाभी से आग्रह किया, ‘‘खरीदने के बाद एक बार भी तुम्हें उसे पहने नहीं देखा.’’

‘‘भाभी साड़ी पहन कर आईं तो उन पर नजर नहीं टिकती थी. बहुत सुंदर दिख रही थीं वे. भैया मंत्रमुग्ध से उन्हें एकटक देखते रहे.’’

‘‘चलो सब जन गाड़ी में बैठो,’’ उन्होंने कहा. मां की नजर भैया पर पड़ी तो वे बोलीं, ‘‘अरे, तू यही कपड़े पहन कर शादी में जाएगा?’’

‘‘क्यों क्या हुआ ठीक तो है?’’

‘‘खाक ठीक है. कमीज की बांह तो फटी हुई है.’’

‘‘ओह जरा सी सीवन उधड़ गई है. मैं ने ध्यान नहीं दिया.’’ ‘‘अब यही फटी कमीज पहन कर शादी में जाओगे? जोरू पहने बनारसी साड़ी और तुम पहनो फटे कपड़े. तुम्हें अपनी मानमर्यादा का तनिक भी खयाल नहीं है. लोग देखेंगे तो हंसी नहीं उड़ाएंगे?’’

‘‘मैं अभी कमीज बदल कर आता हूं.’’

‘‘लाइए मैं 1 मिनट में कमीज सी देती हूं,’’ भाभी बोलीं, ‘‘उतारिए जल्दी.’’

थोड़ी देर में भाभी बाहर आईं, तो उन्होंने अपनी साड़ी बदल कर एक सादी फूलदार रेशमी साड़ी पहन ली थी.

‘‘यह क्या?’’ भैया ने आहत भाव से पूछा,’’ तुम पर कितनी फब रही थी साड़ी. बदलने की क्या जरूरत थी?

‘‘मुझे लगा साड़ी जरा भड़कीली है. दुलहन से भी ज्यादा बनसंवर कर जाऊं यह कुछ ठीक नहीं लगता.’’ भैया चुप लगा गए. उस दिन के बाद भाभी ने वह साड़ी कभी नहीं पहनी. हर साल साड़ी को धूप दिखा कर जतन से तह कर रख देतीं थीं. मैं जानती थी कि भाभी को मां की बात लग गई है. मां असमय पति को खो कर अत्यंत चिड़चिड़ी हो गई थीं. भाभी के प्रति तो वे बहुत ही असहिष्णु थीं. और इधर मैं भी यदाकदा मां से चुगली जड़ कर कलह का वातावरण उत्पन्न कर देती थी. घर में सब से छोटी होने के कारण मैं अत्यधिक लाडली थी. भैया भी जीजान से कोशिश करते कि मुझे पिता की कमी महसूस न हो और उन पर आश्रित होने की वजह से मुझ में हीन भाव न पनपे. इधर मां भी पलपल उन्हें कोंचती रहती थीं कि प्रशांत अब गृहस्थी की बागडोर तेरे हाथ में है. तू ही घर का कर्ताधर्ता है. तेरा कर्तव्य है कि तू सब को संभाले, सब को खुश रखे. लेकिन क्या यह काम इतना आसान था? सम्मिलित परिवार में हर सदस्य को खुश रखना कठिन था.

भैया प्रशासन आधिकारी थे. आय अधिक न थी पर शहर में दबदबा था. लेकिन महीना खत्म होतेहोते पैसे चुक जाते और कई चीजों में कटौती करनी पड़ती. मुझे याद है एक बार दीवाली पर भैया का हाथ बिलकुल तंग था. उन्होंने मां से सलाह की और तय किया कि इस बार दीवाली पर पटाखे और मिठाई पर थोड़ेबहुत पैसे खर्च किए जाएंगे और किसी के लिए नए कपड़े नहीं लिए जाएंगे. ‘‘लेकिन छुटकी के लिए एक साड़ी जरूर ले लेना. अब तो वह साड़ी पहनने लगी है. उस का मन दुखेगा अगर उसे नए कपड़े न मिले तो. अब कितने दिन हमारे घर रहने वाली है? पराया धन, बेटी की जात.’’

‘‘ठीक है,’’ भैया ने सिर हिलाया.

मैं नए कपड़े पहन कर घर में मटकती फिरी. बाकी सब ने पुराने धुले हुए कपड़े पहने हुए थे. लेकिन भाभी के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आई. जहां तक मुझे याद है शायद ही ऐसा कोई दिन गुजरा हो जब घर में किसी बात को ले कर खटपट न हुई हो. भैया के दफ्तर से लौटते ही मां उन के पास शिकायत की पोटली ले कर बैठ जातीं. भैयाभाभी कहीं घूमने जाते तो मां का चेहरा फूल जाता. फिर जैसे ही वे घर लौटते वे कहतीं, ‘‘प्रशांत बेटा, घर में बिन ब्याही बहन बैठी है. पहले उस को ठिकाने लगा. फिर तुम मियांबीवी जो चाहे करना. चाहे अभिसार करना चाहे रास रचाना. मैं कुछ नहीं बोलूंगी.’’ कभी भाभी को सजतेसंवरते देखतीं तो ताने देतीं, ‘‘अरी बहू, सारा समय शृंगार में लगाओगी, तो इन बालगोपालों को कौन देखेगा?’’ कभी भाभी को बनठन कर बाहर जाते देख मुंह बिचकातीं और कहतीं, ‘‘उंह, 3 बच्चों की मां हो गईं पर अभी भी साजशृंगार का इतना शौक.’’

इधर भैया भाभी को सजतेसवंरते देखते तो उन का चेहरा खिल उठता. शायद यही बात मां को अखरती थी. उन्हें लगता था कि भाभी ने भैया पर कोई जादू कर दिया है तभी वे हर वक्त उन का ही दम भरते रहते हैं. जबकि भाभी के सौम्य स्वभाव के कारण ही भैया उन्हें इतना चाहते थे. मैं ने कभी किसी बात पर उन्हें झगड़ते नहीं देखा था. कभीकभी मुझे ताज्जुब होता था कि भाभी जाने किस मिट्टी की बनी हैं. इतनी सहनशील थीं वे कि मां के तमाम तानों के बावजूद उन का चेहरा कभी उदास नहीं हुआ. हां, एकाध बार मैं ने उन्हें फूटफूट कर रोते हुए देखा था. भाभी के 2 छोटे भाई थे जो अभी स्कूल में पढ़ रहे थे. वे जब भी भाभी से मिलने आते तो भाभी खुशी से फूली न समातीं. वे बड़े उत्साह से उन के लिए पकवान बनातीं. उस समय मां का गुस्सा चरम पर पहुंच जाता, ‘‘ओह आज तो बड़ा जोश चढ़ा है. चलो भाइयों के बहाने आज सारे घर को अच्छा खाना मिलेगा. लेकिन रानीजी मैं पूछूं, तुम्हारे भाई हमेशा खाली हाथ झुलाते हुए क्यों आते हैं? इन को सूझता नहीं कि बहन से मिलने जा रहे हैं, तो एकाध गिफ्ट ले कर चलें. बालबच्चों वाला घर है आखिर.’’

‘‘मांजी, अभी पढ़ रहे हैं दोनों. इन के पास इतने पैसे ही कहां होते हैं कि गिफ्ट वगैरह खरीदें.’’

‘‘अरे इतने भी गएगुजरे नहीं हैं कि 2-4 रुपए की मिठाई भी न खरीद सकें. आखिर कंगलों के घर से है न. ये सब तौरतरीके कहां से जानेंगे.’’ भाभी को यह बात चुभ गई. वे चुपचाप आंसू बहाने लगीं. कुछ वर्ष बाद मेरी शादी तय हो गई. मेरे ससुराल वाले बड़े भले लोग थे. उन्होंने दहेज लेने से इनकार कर दिया. जब मैं विदा हो रही थी तो भाभी ने वह बनारसी साड़ी मेरे बक्से में रखते हुए कहा, ‘‘छुटकी, यह मेरी तरफ से एक तुच्छ भेंट है.’’

‘‘अरे, यह तो तुम्हारी बहुत ही प्रिय साड़ी है.’’

‘‘हां, पर इस को पहनने का अवसर ही कहां मिलता है. जब भी इसे पहनोगी तुम्हें मेरी याद आएगी.’’

‘हां भाभी’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘इस साड़ी को देखूंगी तो तुम्हें याद करूंगी. तुम्हारे जैसी स्त्रियां इस संसार में कम होती हैं. इतनी सहिष्णु, इतनी उदार. कभी अपने लिए कुछ मांगा नहीं, कुछ चाहा नहीं हमेशा दूसरों के लिए खटती रहीं, बिना किसी प्रकार की अपेक्षा किए.’ मुझे उन की महानता का तब एहसास होता था जब वे अपने प्रति होते अन्याय को नजरअंदाज कर जातीं. मेरी ससुराल में भरापूरा परिवार था. 2 ननदें, 1 लाड़ला देवर, सासससुर. हर नए ब्याहे जोड़े की तरह मैं और मेरे पति भी एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते. शाम को जब मेरे पति दफ्तर से लौटते तो हम कहीं बाहर जाने का प्रोग्राम बनाते. जब मैं बनठन का तैयार होती, तो मेरी नजर अपनी ननद पर पड़ती जो अकसर मेरे कमरे में ही पड़ी रहती और टकटकी बांधे मेरी ओर देखती रहती. वह मुझ से हजार सवाल करती. कौन सी साड़ी पहन रही हो? कौन सी लिपस्टिक लगाओगी? मैचिंग चप्पल निकाल दूं क्या? इत्यादि. बाहर की ओर बढ़ते मेरे कदम थम जाते. ‘‘सुनो जी,’’ मैं अपने पति से फुसफुसा कर कहती, ‘‘सीमा को भी साथ ले चलते हैं. ये बेचारी कहीं बाहर निकल नहीं पाती और घर में बैठी बोर होती रहती है.

‘‘अच्छी बात है,’’ ये बेमन से कहते, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’ मेरी सास के कानों में यह बात पड़ती तो वे बीच ही में टोक देतीं,

‘‘सीमा नहीं जाएगी तुम लोगों के साथ. उसे स्कूल का ढेर सारा होमवर्क करना है और उस को ले जाने का मतलब है टैक्सी करना, क्योंकि मोटरसाइकिल पर 3 सवारियां नहीं जा सकतीं.’’ सीमा भुनभनाती, मुंह फुलाती, अपनी मां से हुज्जत करती पर सास का फरमान कोई टाल नहीं सकता था. मैं मन ही मन जानती थी कि मेरी सास जानबूझ कर सीमा को हमारे साथ नहीं भेजती थीं और उसे घर के किसी काम में उलझाए रखती थीं. मैं मन ही मन उन का आभार मानती. एक बार मेरे भैया मुझ से मिलने आए थे. मां ने अपने सामर्थ्य भर कुछ सौगात भेजी थीं. मेरी सास ने उन वस्तुओं की बहुत तारीफ की और घर भर को दिखाया. फिर उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बहू, बहुत दिनों बाद तुम्हारे भाई तुम से मिलने आए हैं. तुम अपनी निगरानी में आज का खाना बनवाओ और उन की पसंद की चीजें बनवा कर उन्हें खिलाओ.’’ मेरा मन खुशी से नाच उठा. उन के प्रति मेरा मन आदर से झुक गया. कितना फर्क था मेरी मां और मेरी सास के बरताव में, मैं ने सोचा. मुझे याद है जब भी मेरी भाभी का कोई रिश्तेदार उन से मिलने आता तो मेरी मां की भृकुटी तन जाती. वे किचन में जा कर जोरजोर से बरतन पटकतीं ताकि घर भर को उन की अप्रसन्नता का भान हो जाए.

मुझे याद आया कि जब मेरी शादी हुई तो मेरी मां ने मुझे बुला कर हिदायत दी थी, ‘‘देख छुटकी, तेरा दूल्हा बड़ा सलोना है. तू उस के मुकाबले में कुछ भी नहीं है. मैं तुझे चेताए देती हूं कि तू हमेशा उन के सामने बनठन कर रहना. तभी तू उन का मन जीत पाएगी.’’ मुझ से कहे बिना नहीं रहा गया, ‘‘लेकिन भाभी को तो तुम हमेशा बननेसंवरने पर टोका करती थीं.’’

‘‘वह और बात है. तेरी भाभी कोई नईनवेली दुलहन थोड़े न है. बालबच्चों वाली है,’’ मां मुझ से बोलीं. इस के विपरीत मेरी ससुराल में जब भी कोई त्योहार आता तो मेरी सास आग्रह कर के मुझे नई साड़ी पहनातीं और अपने गहनों से सजातीं. वे सब से कहती फिरतीं, ‘‘मेरी बहू तो लाखों में एक है.’’

इधर मेरी मां थीं जिन्होंने भाभी को तिलतिल जलाया था. उन की भावनाओं की अवहेलना कर के उन के जीवन में जहर घोल दिया था. ऐसा क्यों किया था उन्होंने? ऐसा कर के न केवल उन्होंने मेरे भाई की सुखशांति भंग कर दी थी बल्कि भाभी के व्यक्तित्व को भी पंगु बना दिया था. मुझे लगता है भाभी अपने प्रति बहुत ही लापरवाह हो गई थीं. उन में जीने की इच्छा ही मर गई थी. यहां तक कि जब कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी ने उन्हें धर दबोचा तब भी उन्होंने अपनी परवाह न की, न घर में किसी को बताया कि उन्हें इतनी प्राणघातक बीमारी है. जब भैया को भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी. जब मैं घर पहुंची तो भाभी की अर्थी उठने वाली थी. मैं ने अपने बक्से से बनारसी साड़ी निकाली और भाभी को पहना दी.

‘‘ये क्या कर रही है छुटकी,’’ मां ने कहा, ‘‘थोड़ी देर में तो सब राख होने वाला है.’’

‘‘होने दो,’’ मैं ने रुक्षता से कहा.

मुझे भाभी की वह छवि याद आई जब वे वधू के रूप में घर के द्वार पर खड़ी थीं. उन के माथे पर गोल बिंदी सूरज की तरह दमक रही थी. उन के होंठों पर सलज्ज मुसकान थी. उन की आंखों में हजार सपने थे. भाभी की अर्थी उठ रही थी. मां का रुदन सब से ऊंचा था. वे गला फाड़फाड़ कर विलाप कर रही थीं. भैया एकदम काठ हो गए थे. उन के दोनों बेटे रो रहे थे पर छोटी बेटी नेहा जो अभी 4 साल की ही थी चारों ओर अबोध भाव से टुकुरटुकुर देख रही थी. मैं ने उस बच्ची को गोद में उठा लिया और भैया से कहा, ‘‘लड़के बड़े हैं. कुछ दिनों में बोर्डिंग में पढ़ने चले जाएंगे. पर यह नन्ही सी जान है जिसे कोई देखने वाला नहीं है. इस को तुम मुझे दे दो. मैं इसे पाल लूंगी और जब कहोगे वापस लौटा दूंगी.’’

‘‘अरी ये क्या कर रही है?’’ मां फुसफुफसाईं ‘‘तू क्यों इस जंजाल को मोल ले रही है. तुझे नाहक परेशानी होगी.’’

‘‘नहीं मां मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. उलटे अगर बच्ची यहां रहेगी तो तुम उसे संभाल न सकोगी.’’ ‘‘लेकिन तेरी सास की मरजी भी तो जाननी होगी. तू अपनी भतीजी को गोद में लिए पहुंचेगी तो पता नहीं वे क्या कहेंगी.’’

‘‘मैं अपनी सास को अच्छी तरह जानती हूं. वे मेरे निर्णय की प्रशंसा ही करेंगी,’’ मैं ने दृढ़ शब्दों में कहा. मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे भाभी अंतरिक्ष से मुझे देख रही हैं और हलकेहलके मुसकारा रही हैं. ‘भाभी,’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘मैं तुम्हारी थाती लिए जा रही हूं. मुझे पक्का विश्वास है कि इस में तुम्हारे संस्कार भरे हैं. इसे अपने हृदय से लगा कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करूंगी.

Romantic Story : चुनाव मेरा है

Romantic Story : सर्जिकल वार्ड में शाम का राउंड लगाने के बाद डा. प्रशांत और सिस्टर अंजलि ड्यूटी रूम में आ बैठे. एक जूनियर सिस्टर उन दोनों के सामने चाय का कप रख गई.

‘‘आज का डिनर मेरे साथ करोगी?’’ प्रशांत ने रोमांटिक अंदाज में अंजलि की आंखों में झांका.

‘‘मेरे साथ डिनर करने के बाद घर देर से पहुंचोगे तो रीना मैडम को क्या सफाई दोगे?’’ अंजलि की आंखों में शरारत भरी चमक उभरी.

‘‘कह दूंगा कि एक इमरजेंसी आपरेशन कर के आ रहा हूं.’’

‘‘पत्नी से झूठ बोलोगे?’’

‘‘झूठ क्यों बोलूंगा?’’ प्रशांत मेज के नीचे अपने दाएं पैर के पंजे से अंजलि की पिंडली सहलाते हुए बोला, ‘‘डिनर के बाद तुम्हारे रूम पर चल कर ‘इमरजेंसी’ आपरेशन करूंगा न मैं.’’

‘‘बीमारी डाक्टर को हो और आपरेशन कोई और कराए, ऐसा इलाज मेरी समझ में नहीं आता,’’ और अपने इस मजाक पर अंजलि खिलखिला कर हंसी तो उस के व्यक्तित्व का आकर्षण प्रशांत की नजरों में और बढ़ गया.

अविवाहित अंजलि करीब 30 साल की थी. रंगरूप व नैननक्श खूबसूरत होने के साथसाथ उस में गजब की सेक्स अपील थी. उस के चाहने वालों की सूची में बडे़छोटे डाक्टरों के नाम आएदिन जुड़ते रहते थे. अपनी जिम्मे- दारियों को निभाते समय उस की कुशलता भी देखते बनती थी.

प्रशांत के मोबाइल की घंटी बजने से उन के बीच चल रहा हंसीमजाक थम गया. उस ने कौल करने वाले का नंबर देख कर बुरा सा मुंह बनाया और अंजलि से बोला, ‘‘कबाब में हड्डी बनाने वाली छठी इंद्री कुदरत ने सब पत्नियों को क्यों दी हुई है?’’

‘‘पत्नी के साथ बेईमानी करते हो और ऊपर से उसे ही भलाबुरा कह रहे हो. यह गलत बात है जनाब, चलो, प्यारीप्यारी बातें कर के रीना मैडम को खुश करो,’’ अंजलि बिलकुल सामान्य व सहज बनी रही.

‘‘तुम मेरी गर्लफ्रैंड हो कर मेरी पत्नी से ईर्ष्याभाव नहीं रखती हो क्या?’’

‘‘जिस पर हंसने की उस के पति ने ही ठान रखी हो, उस से क्या जलना?’’ यह जवाब दे कर अंजलि एक बार और खिलखिला कर हंसी और फिर अपने काम में जुट गई.

अपनी पत्नी रीना से प्रशांत ने 5-7 मिनट बातें कीं, फिर अपना मोबाइल चार्जर पर लगाने के बाद वह अंजलि से गपशप करने लग गया.

‘‘सोचती हूं तुम्हारे साथ डिनर पर चली ही चलूं,’’ अंजलि शरारत भरे अंदाज में मुसकराई, ‘‘बोलो, कहां ले चलोगे?’’

‘‘जहन्नुम में,’’ प्रशांत भन्ना उठा, ‘‘तुम ने सुन लिया न कि रीना ने रात वाले शो के टिकट ले कर आने की बात अभीअभी फोन पर मुझ से की है. मुझे किलसाने को तुम अब डिनर पर चलने की बात नहीं करोगी तो कब करोगी?’’

‘‘यों क्यों गुस्सा हो रहे हो जानेमन,’’ अंजलि ने प्रशांत की आवाज की बढि़या नकल उतारी, ‘‘आज रात बीवी को खुश करो और कल प्रेमिका का नंबर लगाना. कितने लकी हो तुम. पांचों उंगलियां घी में हैं तुम्हारी.’’

‘‘हां, ठीक कह रही हो,’’ प्रशांत बोला, ‘‘जिस दिन रीना को इस चक्कर का पता लगेगा, उसी दिन मेरा सिर कड़ाही में भी होगा.’’

‘‘देखो रोमियो, तुम क्या समझते हो कि मैडम को इस बारे में पता नहीं है. अरे, ऐसे चक्करों की खबर दुनिया वाले फटाफट पत्नी तक पहुंचा देते हैं. मैडम जिस तरह से मुझे मुलाकात होने पर पहली बार देखती हैं, उन नजरों में समाए कठोरता और चिढ़ के क्षणिक भावों को मैं खूब पहचानती हूं.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम दोनों को सदा आपस में खूब हंसहंस कर बातें करते ही देखा है.’’

‘‘वह हंसना झूठा है, जानेमन.’’

‘‘किसी दिन वह तुम से लड़ पड़ी तो क्या होगा?’’

‘‘वैसा कुछ नहीं होगा क्योंकि जिंदगी के प्रति मेरा जो नजरिया है… जो मेरी फिलौसफी है वह मैं ने उन्हें कई बार समझाई है.’’

‘‘मुझे भी बताओ न जो तुम ने रीना से कहा है.’’

‘‘फिलहाल मेरी उस फिलौसफी को तुम नहीं समझोगे…और न ही उसे तुम्हें समझाने का सही समय अभी आया है,’’ रहस्यमयी अंदाज में अंजलि मुसकराई और फिर दोनों का ध्यान एक मरीज के तीमारदार की तरफ चला गया जो उन से कुछ कहना चाहता था.

प्रशांत को उस व्यक्ति के साथ एक मरीज को देखने जाना पड़ा. उस की गैरमौजूदगी में उस के मोबाइल की घंटी बज उठी और जो नंबर उस में नजर आ रहा था उसे अंजलि ने पहचाना. उस की आंखों में पहले सोचविचार के भाव उभरे और फिर उस की मुखमुद्रा कठोर होती चली गई.

प्रशांत के लौटने तक उस ने खुद को पूरी तरह सहज बना लिया था. उस ने आ कर ‘मिस्ड’ कौल का नंबर पढ़ा और फिर बाहर कोरिडोर में चला गया.

वहां उस ने 10 मिनट किसी से फोन पर बातें कीं. अंजलि को वह इधर से उधर घूमता ड्यूटी रूम से साफ नजर आ रहा था.

‘यू बास्टर्ड,’ अंजलि होंठों ही होंठों में हिंसक लहजे में बुदबुदाई, ‘‘अगर मेरे साथ ज्यादा चालाकी दिखाने की कोशिश की तो वह सबक सिखाऊंगी कि जिंदगी भर याद रखोगे.’

प्रशांत के वापस लौटने तक अंजलि  ने अपनी भावनाओं पर पूरी तरह नियंत्रण कर के उस से मुसकराते हुए पूछा, ‘‘किस से यों हंसहंस कर बातें कर रहे थे?’’

‘‘एक पुराने दोस्त के साथ,’’ प्रशांत ने टालने वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘रीना मैडम से मेरे सामने बात करते हो तो इस पुराने दोस्त से बातें करने बाहर क्यों गए?’’

‘‘यों ही कुछ व्यक्तिगत बातें करनी थीं,’’ प्रशांत हड़बड़ाया सा नजर आने लगा.

‘‘सौरी, जानेमन.’’

‘‘सौरी क्यों कह रही हो? तुम सोचती हो कि मैं किसी दोस्त से नहीं बल्कि किसी सुंदर लड़की से बातें कर रहा था? उस पर लाइन मार रहा था?’’ प्रशांत अचानक ही चिढ़ा सा नजर आने लगा.

‘‘अरे, मैं ऐसा कुछ नहीं सोच रही हूं क्योंकि मुझ जैसी सुंदर प्रेमिका के होते हुए तुम किसी दूसरी लड़की पर लाइन मारने की बेवकूफी भला क्यों करोगे?’’ अपना चेहरा उस के चेहरे के काफी पास ला कर अंजलि ने कहा और फिर रात वाली सिस्टर को चार्ज देने के काम में व्यस्त हो गई.

कुछ देर बाद ड्यूटी समाप्त कर के प्रशांत चला गया. अंजलि जानती थी कि उसे घर पहुंचने में आधे घंटे से कम  समय लगेगा.

आधे घंटे के बाद उस ने प्रशांत के घर फोन किया. उस की पत्नी रीना ने उखड़े मूड़ में उसे खबर दी कि प्रशांत घर पर नहीं है. इमरजेंसी आपरेशन आ जाने के कारण वह देर तक आपरेशन थिएटर में रुकेगा.

यह खबर सुनते ही अंजलि की आंखों में गुस्से और नाराजगी के भाव एकदम से बढ़ गए. वह अस्पताल से बाहर आई और रिकशा कर के शास्त्री नगर पहुंची.

उस का शक सही निकला था.

डा. प्रशांत की लाल मारुति कार सिस्टर सीमा के घर के सामने खड़ी थी. उस के मोबाइल पर उस ने सीमा के घर के फोन का नंबर शाम को पढ़ लिया था.

उस ने रिकशे वाले को अपने घर की तरफ चलने की हिदायत दी. सारे रास्ते वह क्रोध व ईर्ष्या की आग में सुलगती रही.

सीमा और वह कभी अच्छी सहेलियां हुआ करती थीं. दोनों बेइंतहा खूबसूरत थीं. उन की जोड़ी को साथ चलते देख कर लोग अपनी राह से भटक जाते थे.

सीमा का बौयफ्रैंड उन दिनों रवि होता था और उस के साथ जरा खुल कर हंसनेबोलने के कारण सीमा को शक हो गया और वह अंजलि से एक दिन बुरी तरह से लड़ी थी.

तब से उन के बीच कभी सीधे मुंह बातें नहीं हुईं. दोनों डाक्टरों के बीच बराबर की लोक प्रियता रखती थीं. यह भी सच था कि जो व्यक्ति एक के करीब होता वह दूसरी को फूटी आंख न भाता.

‘‘कमीनी, जान- बूझ कर मेरा दिल दुखाने के लिए प्रशांत पर जाल फेंक रही है. इस बेवकूफ डाक्टर को जल्दी ही मैं ने तगड़ा सबक नहीं सिखाया तो मेरा नाम अंजलि नहीं.’’

घर पहुंचने तक अंजलि का पारा सातवें आसमान तक पहुंच गया था.

अगली सुबह अपने असली मनोभावों को छिपा कर उस ने प्रशांत से मुसकराते हुए पूछा, ‘‘कैसी थी कल की फिल्म?’’

पहले प्रशांत उलझन का शिकार बना और फिर जल्दी से बोला, ‘‘कोई खास नहीं… बस, ठीक ही थी.’’

‘‘गुड,’’ अंजलि दवाओं की अलमारी की तरफ चल पड़ी.

‘‘सुनो, आज शाम डिनर पर चल रही हो?’’

‘‘सोचूंगी,’’ लापरवाह अंदाज में जवाब दे कर वह अपने काम में व्यस्त हो गई.

उस दिन उस ने डा. प्रशांत से सिर्फ काम की बातें बड़ी औपचारिक सी मुसकान होंठों पर सजा कर कीं. शाम तक वह समझ गया कि उस की प्रेमिका उस से नाराज है.

प्रशांत के कई बार पूछने पर भी अंजलि ने अपने खराब मूड का कारण उसे नहीं बताया. ड्यूटी समाप्त करने के समय तक प्रशांत का मूड भी पूरी तरह से बिगड़ चुका था.

अगले दिन भी जब अंजलि ने अजीब सी दूरी उस से बनाए रखी तब प्रशांत गुस्सा हो उठा.

‘‘तुम्हारी प्राबलम क्या है? क्यों मुंह फुला रखा है तुम ने कल से?’’ और अंजलि का हाथ पकड़ कर प्रशांत ने उसे अपने सामने खड़ा कर लिया.

‘‘मेरे व्यवहार से तुम्हें तकलीफ हो रही है, मेरे हीरो?’’ भौंहें ऊपर चढ़ा कर  अंजलि ने नाटकीय स्वर में पूछा.

‘‘बिलकुल हो रही है.’’

‘‘और तुम्हें मेरे बदले व्यवहार का कारण भी समझ में नहीं आ रहा है?’’

‘‘कतई समझ में नहीं आ रहा है,’’ प्रशांत कुछ बेचैन हो उठा.

‘‘इस बारे में रात को बात करें?’’

‘‘इस का मतलब तुम डिनर पर चल रही हो मेरे साथ,’’ प्रशांत खुश हो गया.

‘‘डिनर मेरे फ्लैट में हो तो चलेगा?’’

‘‘चलेगा नहीं दौड़ेगा,’’ प्रशांत ने उस का हाथ जोशीले अंदाज में दबा कर छोड़ दिया.

ड्यूटी समाप्त करने के बाद दोनों साथसाथ प्रशांत की कार में अंजलि के फ्लैट में पहुंचे.

अंदर प्रवेश करते ही प्रशांत ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले कर चूमना शुरू किया. अंजलि के खूबसूरत जिस्म से उठने वाली मादक महक उस के अंगअंग में उत्तेजना भर रही थी.

अंजलि ने उसे जबरदस्ती अपने से अलग किया और संजीदा लहजे में बोली, ‘‘मैं तुम्हें अपने बारे में कुछ बताने के लिए आज यहां लाई हूं. शांति से बैठ कर पहले मेरी बात सुनो, रोमियो.’’

‘‘बातें क्या हम बाद में नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘बाद में तुम कुछ सुनने की स्थिति में कभी रहते हो?’’

‘‘देखो, मैं ज्यादा देर बातें कहनेसुनने के मूड में नहीं हूं, इस का ध्यान रखना,’’ प्रशांत पैर फैला कर सोफे पर बैठ गया.

कुछ पलों तक अंजलि ने प्रशांत के चेहरे को ध्यान से देखा और फिर बोली, ‘‘तुम्हें 3 महीने पुरानी वह रात याद है जब मैं अपनेआप बिना किसी काम के तुम से मिलने डाक्टरों के आराम करने वाले कमरे में पहुंची थी?’’

‘‘जिस दिन किसी इनसान की लाटरी खुले उस दिन को वह भला कैसे भूल सकता है?’’

‘‘अपने प्रेमी के रूप में तुम्हें चुनने के बाद उस रात तुम्हारे साथ सोने का फैसला मैं ने अपनी खुशी व इच्छा को ध्यान में रख कर लिया था और अब तक सैकड़ों पुरुषों ने मुझ से शादी करने की इच्छा जाहिर की है पर

कभी शादी न करने का चुनाव भी मेरा अपना है.’’

‘‘ऐसा कठिन फैसला क्यों किया है तुम ने?’’

‘‘अपने स्वभाव को ध्यान में रख कर. मैं उन औरतों में से नहीं हूं जो किसी एक पुरुष की हो कर सारा जीवन गुजार दें. मेरी जिंदगी में प्रेमी सदा रहेगा. पति कभी नहीं.’’

‘‘तुम्हारी विशेष ढंग की सोच ही शायद तुम्हें और औरतों से अलग कर तुम्हारी खास पहचान बनाती है, जानेमन. मैं तुम्हारी जैसी आकर्षक स्त्री के संपर्क में पहले कभी नहीं आया हूं. प्रशांत की आंखों में उस के लिए प्रशंसा के भाव उभरे.’’

‘‘शायद कभी आओगे भी नहीं,’’ अंजलि उठ कर उस के पास आ बैठी, ‘‘क्योंकि अपने व्यक्तित्व को पुरुषों की नजरों में गजब का आकर्षक बनाने के लिए मैं ने खासी मेहनत की है. अपने प्रेमी के शरीर, दिल और दिमाग तीनों को सुख देने की कला मुझे आती है न?’’

अंजलि ने झुक कर प्रशांत का कान हलके से काटा तो उस के पूरे बदन में करंट सा दौड़ गया. अंजलि ने उसे अपने होंठों का भरपूर चुंबन लेने दिया. प्रशांत की सांसें फिर से उखड़ गईं.

प्रशांत के आवारा हाथों को अपनी गिरफ्त में ले कर अंजलि ने आगे कहा, ‘‘अपने प्रेमी मैं बदलती आई हूं और बदलती रहूंगी, फिर भी मैं खुद को बदचलन नहीं समझती हूं क्योंकि एक वक्त में मेरा सिर्फ एक प्रेमी होता है जिस के प्रति मैं पूरी तरह से वफादार रहती हूं. और ऐसी ही आशा मुझे अपने प्रेमी से भी रहती है.’’

‘‘तब यह बताओ कि मेरे जैसे शादीशुदा प्रेमी की पत्नी से तुम्हें चिढ़ नहीं होती है, ऐसा क्यों, अंजलि? तुम्हें उस पत्नी की अपने प्रेमी के जीवन में मौजूदगी क्यों स्वीकार है? वफादारी महत्त्वपूर्ण है तो तुम अविवाहित पुरुषों को ही अपना प्रेमी क्यों नहीं चुनती

हो?’’ अंजलि के मनोभावों को समझने की उत्सुकता प्रशांत के मन में बढ़ गई.

‘‘प्रेमी चुनते हुए मैं विवाहित- अविवाहित के झंझट में न पड़ कर सिर्फ अपने मन की पसंद को ध्यान में रखती

हूं. जनाब, जो विवाहित पुरुष मेरा होने को तैयार है वह अपनी पत्नी के प्रति बेवफा या उस से ऊबा हुआ तो साबित हो ही गया. जो पत्नी अपने पति को अपने आकर्षण में बांध कर रखने में अक्षम है, उस से मुझे भला

क्यों ईर्ष्या होगी. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’ प्रशांत ने साफ देखा कि अंजलि की आंखों में कठोरता के भाव पैदा हो गए थे.

‘‘लेकिन मैं अपने वर्तमान प्रेमी के प्रति सदा वफादार रहती हूं, इसलिए उस का पत्नी के अलावा कहीं इधरउधर मुंह मारना भी मुझे पसंद नहीं. मैं ने आज तक किसी पुरुष के सामने उस के प्रेम को पाने के लिए हाथ नहीं फैलाए हैं. अपने प्रेम संबंधों को शुरू भी मैं करती हूं और उन का अंत भी.

‘‘अपनी जीवनशैली मैं ने खुद चुनी है. पापपुण्य, सहीगलत व नैतिकअनैतिक को नहीं बल्कि अपनी खुशियों को मैं ने अपने जीवन का आधार बनाया है और अपने जीवन से मैं पूरी तरह से संतुष्ट व सुखी हूं,’’ आवेश भरे अंदाज में बोलते हुए अंजलि का मुंह लाल हो उठा.

‘‘यों तनावग्रस्त हो कर तुम यह सब बातें मुझे क्यों सुना रही हो?’’ प्रशांत ने माथे पर बल डाल कर पूछा.

‘‘तुम्हें यह एहसास कराने के लिए कि तुम कितने खुशकिस्मत हो,’’ अंजलि की आवाज और सख्त हो गई, ‘‘मैं तुम्हें खुश रखने में एक्सपर्ट हूं, डाक्टर प्रशांत. मेरा रूप और जिस्म अनूठा है. तुम्हारे मन को समझ कर उसे सुखी रखने की कला मुझे बखूबी आती है. लोग तुम से इस कारण ईर्ष्या करते हैं कि मैं तुम्हारी प्रेमिका हूं…चाहे मुंह से वह मुझे चरित्रहीन कहें पर दिल से वे भी मुझ पर लट्टू हुए रहते हैं. इतना सबकुछ पा कर भी तुम ने सिस्टर सीमा के प्रेमजाल में फंसने की मूर्खतापूर्ण इच्छा को अपने मन में क्यों पनपने दिया?’’

‘‘तुम्हें जबरदस्त गलतफहमी…’’

‘‘डा. प्रशांत, अगर तुम इस वक्त झूठ बोलोगे, तो तुम्हारी मुझ से जुडे़ रहने की सारी संभावना समाप्त हो जाएगी,’’ अंजलि ने साफ शब्दों में उसे धमकी दी.

‘‘सीमा के साथ थोड़ाबहुत हंसी- मजाक करने का यों बुरा मत मानो जानेमन. तुम चाहोगी तो मैं उस से बिलकुल बात करना छोड़ दूंगा,’’ अंजलि  का गुस्सा कम करने के लिए प्रशांत ने फौरन सुलह का प्रयास शुरू किया.

कुछ देर गंभीरता से उस का चेहरा निहारने के बाद अंजलि ने उसे चेतावनी दी, ‘‘आज पहली और आखिरी वार्निंग मैं तुम्हें दे रही हूं. मुझे ‘डबलक्रौस’ करने की कोशिश कभी की तो फिर मुझे सदा के लिए भूल जाना. अपनी पत्नी से जितनी खुशियां पा सकते हो पा लेना लेकिन किसी सीमा जैसी की तरफ आंख उठा कर देखा तो पछताओगे.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात समझ गया और अब तुम ये किस्सा समाप्त भी करो,’’ प्रशांत ने पास आ कर उसे अपनी बांहों में भर लिया.

अंजलि का मूड फौरन बदला. उस ने गर्मजोशी के साथ प्रशांत की इस पहल का स्वागत किया.

चंद मिनटों का आनंद देने के बाद अंजलि ने उसे कठिनाई से अलग कर के हलकेहलके अंदाज में कहा, ‘‘टे्रलर यहीं खत्म होता है जानेमन. पूरी फिल्म कल रात पर छोड़ो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ प्रशांत चौंका.

‘‘मतलब यह कि अब तुम रीना मैडम के पास अपने घर चले जाओ.’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘क्योंकि मैं तुम्हें सोचने का समय दे रही हूं. अगर कल मेरे आगोश में लौटने की इच्छा तुम्हारे मन में हो तो मेरी शर्तों को ध्यान रखना नहीं तो गुडबाय.’’

अंजलि की बात सुन कर एक बार तो प्रशांत की आंखों में तेज गुस्सा झलका लेकिन जब अपने दिल को टटोला तो पाया कि जादूगरनी अंजलि से दूर वह नहीं रह सकता.

‘‘कम से कम एक कप चाय तो पिला कर विदा करो,’’ प्रशांत की बेमन वाली मुसकान में उस की हार छिपी थी और अपनी जीत पर अंजलि दिल खोल कर हंसने लगी.

Hindi Story : गठबंधन संस्कार

Hindi Story : गुलाबचंद ने पास बैठी अपनी श्रीमतीजी से पूछा, ‘‘यह न्योता किस का है?’’

श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘आप के बचपन के लंगोटिया यार मंत्रीजी आज ही दे गए हैं. उन के लाड़ले की शादी अपने इलाके के सांसदजी की बेटी से चट मंगनी पट ब्याह वाली तर्ज पर तय हो गई है. आप को बरात में चलने के लिए कह गए हैं.’’

खुशी और हैरानी से न्योते के कार्ड को जैसे ही उठाया, लिफाफे पर लिखी गई इबारत पर नजर पड़ते ही गुलाबचंद के दिमाग में अजीब सी हलचल मच गई. उन के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘छपाई में इतनी बड़ी गलती हो गई और मंत्रीजी का इस पर ध्यान ही नहीं गया…’’

श्रीमतीजी भी कुछ चौंक कर बोलीं, ‘‘क्या गलती हो गई? मैं ने तो इसे अभी तक छुआ भी नहीं है. आप के आने के तकरीबन घंटाभर पहले ही तो दे गए हैं मंत्रीजी.’’

गुलाबचंद ने वह कार्ड श्रीमतीजी को थमा दिया. देखते ही वे भी हैरानी से सन्न रह गईं.

बात थी ही कुछ ऐसी. लिफाफे के बाहर और भीतर ‘पाणिग्रहण संस्कार’ की जगह ‘गठबंधन संस्कार’ छपा था.

इस कमबख्त एक शब्द के चलते गुलाबचंद महीनेभर की थकान भूल से गए और उन्होंने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘मंत्रीजी को फोन मिलाओ.’’

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘अभीअभी थकेमांदे इतने दिनों बाद आए हो… पहले फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लो, बाद में आराम से मंत्रीजी से बात करना.’’

श्रीमतीजी की बात को तरजीह देते हुए गुलाबचंद फ्रैश होने चल दिए, लेकिन ‘गठबंधन संस्कार’ दिमाग से निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था. उन्होंने मंत्रीजी को मोबाइल फोन से नंबर मिला ही डाला.

फोन पर मंत्रीजी का छोटा सा वाक्य कानों में पड़ा, ‘गुलाबचंदजी, इस समय पार्टी की एक जरूरी मीटिंग चल रही है,

जो देर रात तक चलने की उम्मीद है. सुबह मुलाकात होगी…’

दूसरे दिन सुबह जब गुलाबचंद नाश्ता कर ही रहे थे कि मंत्रीजी का फोन आ गया, ‘हैलो गुलाबचंदजी, मैं आप का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं… जल्दी आ जाओ.’

मंत्रीजी का फोन सुन कर गुलाबचंद ने जल्दबाजी में नाश्ता किया और जैसेतैसे गरमगरम चाय पी. बड़े ही उतावलेपन के साथ, बिना कपड़े बदले, जिस हालत में थे, उसी हालत में वे मंत्रीजी के घर की ओर चल पड़े.

‘गठबंधन संस्कार’ शब्द उन्हें अब भी दुखी कर रहा था. ‘सोलह संस्कारों’ के बाद यह ‘सत्रहवां गठबंधन संस्कार’ कब से, कहां से आ गया है? जैसे नए जमाने के फिल्म वाले पुराने फिल्मी गीतों को ‘रीमिक्स’ कर के उन्हें मौडर्न बना रहे हैं, उसी तरह ‘सोलह संस्कारों’ को रीमिक्स कर के मौडर्न तो नहीं बनाया जा रहा है?

इसी उधेड़बुन में गुलाबचंद मंत्रीजी के दरवाजे पर पहुंचे. देखा कि मंत्रीजी दरवाजे पर ही खड़ेखड़े अपनी पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं से बतिया रहे थे. गुलाबचंद को देखते ही मंत्रीजी कार्यकर्ताओं से विदा लेते हुए उन्हें घर के अंदर ले गए.

उन्होंने मंत्रानी को आवाज लगाई, ‘‘देखो, आज घर पर कौन पधारा है?’’

मंत्रानी ने रसोई से निकलते हुए जैसे ही गुलाबचंद को देखा, बड़ी खुश हो कर बोलीं, ‘‘इतने दिनों तक कहां रहे गुलाबचंदजी? हम लोग बड़ी बेसब्री से आप का इंतजार कर रहे थे…’

मंत्रानी कुछ और कहने जा रही थीं कि गुलाबचंद बीच में बोल पड़े, ‘‘भाभीजी, मुझे तो भाई साहब से कुछ दूसरी ही शिकायत है और इतनी बड़ी है कि घर आ कर जैसे ही शादी के कार्ड पर नजर पड़ी…’’

‘‘रहने दो गुलाबचंदजी…’’ मंत्रीजी ने उन की बात को काटते हुए कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हें किसकिस बात को ले कर मुझ से शिकायत है…’’

इसी बीच भाभीजी यानी मंत्रानी जलपान ले कर आ गईं.

जलपान करते हुए मंत्रीजी ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहली बड़ी शिकायत तो यह है कि शादी के कार्ड को देखते ही तुम गुस्से में आपे से बाहर हो गए होंगे… और दूसरी शिकायत जिस में तुम उलझे हुए हो कि लड़की वाले विपक्षी पार्टी में होने के साथसाथ मेरे घोर राजनीतिक विरोधी ही नहीं, दुश्मन भी हैं. मेरा उन से हमेशा छत्तीस का ही आंकड़ा रहा है. क्यों, है न यही बात?

‘‘बात यह थी कि एक दिन हमारे भावी समधी सांसदजी ने अपने एक भरोसेमंद हमराज द्वारा बातोंबातों में राजनीतिक स्टाइल की चाशनी में मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि अगर मैं सांसदजी की बेटी से अपने एकलौते लाड़ले की सगाई कर दूं तो सांसदजी अपने खास विधायकों से बिना शर्त मेरी पार्टी को समर्थन दिलवा देंगे. बाद में सही मौका आने पर वे अपनी पार्टी का मेरी पार्टी में विलय भी कर लेंगे.

‘‘तुम तो जानते ही हो कि मेरी पार्टी अल्पमत में रहते हुए कितनी मुश्किलों से सरकार चला रही है. मेरी सरकार की कुरसी के गठबंधन में इतनी बेमेल गांठें हैं कि अगर एक गांठ भी खुल जाए तो सबकुछ इस कदर बिखर जाएगा कि भविष्य में दोबारा कुरसी पर बैठने की शायद ही नौबत आए.

‘‘ऐसी मजबूर हालत में अगर समधी सांसदजी हमें समर्थन दे रहे हैं और वे अपनी पार्टी का मेरी पार्टी में विलय कर लेते हैं तो हमारी हालत ऐसी हो जाएगी कि गठबंधन की अगर 2-4 गांठें खुल भी जाएं, टूट जाएं तब भी सरकार चलाने में मेरी पार्टी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

‘‘और एक राज की बात तुम्हें चुपके से कह रहा हूं… मौका आने पर अपनी ही पार्टी में जोड़तोड़ करवा कर मैं खुद ही मुख्यमंत्री बनने के चक्कर में लग गया हूं. इन्हीं सब राजनीतिक पैतरों को ध्यान में रखते हुए उन का ‘औफर’ आते ही मैं ने तुरंत हां कर दी और शादी का मुहूर्त निकलवा लिया.

‘‘गठबंधन संस्कार… यही शब्द तुम्हें दुखी कर रहा है न? चूंकि यह शादी राजनीति की बिसात पर हो रही है, जहां हर वक्त अपने फायदे के लिए मौके की तलाश रहती है, आज का दोस्त कल का दुश्मन और आज का विरोधी, कल का समर्थक बन जाता है, इसी माहौल में यह रिश्ता तय हुआ है.

‘‘इन बातों के ध्यान में आते ही मेरे दिमाग में ‘पाणिग्रहण संस्कार’ की जगह ‘गठबंधन संस्कार’ का जन्म हुआ.

‘‘भावी समधी सांसदजी ने भी यह रिश्ता राजनीति की बिसात पर तय किया है और नेता का क्या भरोसा? काम सधने के बाद कब पलटी मार जाए? कौनसी नई शर्त थोप दे? इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर ही मैं ने ‘गठबंधन संस्कार’ शब्द का इस्तेमाल किया है.

‘‘सांसदजी ने शर्त रखी थी कि अगर मैं उन की लड़की की सगाई अपने लड़के से कर दूं तो पहले वे अपने विधायकों का बिना शर्त समर्थन मेरी पार्टी को देंगे और मौका आने पर वे अपनी पार्टी का विलय मेरी पार्टी में करेंगे. अगर उन्हें सामान्य रूप में यह रिश्ता तय करना होता तो वे सीधेसीधे मुझ से कह सकते थे. राजनीति अपनी जगह, रिश्ता अपनी जगह. रिश्तों को तो राजनीति से संबंध रखना ही नहीं चाहिए. सामान्य रूप में मैं इस रिश्ते को नकार भी सकता था, लेकिन उन की इस बात पर मेरे नकारने की गुंजाइश ही न रही.

‘‘रही रिश्तों की राजनीति की बात. मान लो कि शादी हो जाने के बाद वे ऊपर से समर्थन तो करते रहते लेकिन विलय वाली बात को यह कह कर नकारते रहते कि अभी सही समय नहीं आया या विलय तभी करेंगे जब मैं मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने करीबियों की बलि दे कर उन के विधायकों को मलाईदार पदों पर बैठा दूं. अगर मैं ऐसा मजबूरन कर भी दूं तब भी वे मुझे चैन से नहीं रहने देंगे. हमेशा समर्थन वापसी का डर दिखाते हुए एक न एक नई शर्त मुझ से मनवाते रहेंगे.

‘‘इन हालात में मैं क्या करता? इन्हीं सब पैतरों की काट करने के लिए मैं ने ‘गठबंधन संस्कार’ लिखवाया है.

‘‘हिंदू धर्म में ‘पाणिग्रहण संस्कार’ होने के बाद आसानी के साथ रिश्ता तोड़ा नहीं जा सकता. भविष्य में सांसदजी के अडि़यलपन पर अगर रिश्ता तोड़ने के बारे में विचार करता तो दहेज के नाम पर सताने की तलवार आसानी से मेरा गला काट सकती है. मन मसोस कर समधीजी की ऊलजुलूल शर्त

मुझे माननी पड़ती, लेकिन ‘गठबंधन संस्कार’ में ऐसा हरगिज नहीं हो सकता.

‘‘राजनीति में अलगअलग पार्टी की बेमेल गांठों का बंधन कब बंधे, कब खुले या टूटे, कहा नहीं जा सकता और इस जुड़ने, खुलने या टूटने में हमारा संविधान चुप है, कानून लाचार है…

‘‘इस समय हमारी पार्टी सरकार चला रही है, कल सुबह के अखबार में आप हैडिंग पढ़ सकते हैं कि कल की फलां विपक्षी पार्टी ने आज सत्ता हथिया ली है.

‘‘अब अगर राजनीति में इस ‘गठबंधन’ शब्द का इस्तेमाल न होता तो सत्ता का जोड़तोड़ भी इतनी आसानी से न होता. कानून इजाजत ही नहीं देता.

‘‘ठीक यही बात ‘गठबंधन संस्कार’ में है. ‘गठबंधन संस्कार’ कब तक दांपत्य जीवन में जुड़ा रहे और कब यह संस्कार दांपत्य जीवन से अलग हो जाए… इस पर कानून या समाज या फिर सरकार का कोई बंधन नहीं है, जबकि ‘पाणिग्रहण संस्कार’ में बंधन ही बंधन हैं. धर्म, समाज, कानून सब ‘पाणिग्रहण संस्कार’ को जकड़े हुए हैं.

‘‘अब अगर समधी सांसदजी पार्टी का समर्थन वापसी का जरा सा भी तेवर भविष्य में दिखाएंगे तो उन के तेवर

को उन्हीं के ऊपर साधते हुए मैं भी ‘गठबंधन संस्कार’ को भंग करने, तोड़ देने की चेतावनी दूंगा. यह एक

ऐसा हथियार होगा जिस के बलबूते मैं समधी सांसदजी को जब तक जीवन में राजनीति रहेगी, तब तक उन पर ताने रहूंगा और वे बेबस बने रहेंगे, चुप रह कर समर्थन देते रहेंगे.

‘‘मुख्यमंत्री बनने के बाद मैं ‘गठबंधन संस्कार’ को सदन में एक

नया विधेयक पास करा कर कानूनी जामा पहना दूंगा.’’

अपने नेता दोस्त के ऐसे विचार सुन कर गुलाबचंद सन्न रह गए और उलटे पैर घर लौट गए.

Hindi Story : ‘स’ से सावधान रहें महिलाएं

Hindi Story : महिलाएं ‘स’ से सावधान रहें.’ हमारी यह चेतावनी शायद महिलाएं समझ गई होंगी. ‘स’ अक्षर से शुरू होने वाले शब्द उन के जीवन के लिए ‘डेंजर प्वाइंट’ जो बने हुए हैं.

महिलाओं का समयसमय पर अनेक शत्रुओं से साबिका पड़ता रहता है. इस में उन के अनुसार पहला नाम उन की ‘सास’ का होता है, जो उन्हें सांस भी नहीं लेने देती पर वर्तमान में सास से भी खतरनाक शत्रु ‘सार्स’ आ गया है.

इस सार्स का जन्म भले ही चीन में हुआ हो पर चीनी यानी ‘शुगर’ की बीमारी भी महिलाओं की साथी है. सिरदर्द उन का बड़ा शत्रु है जो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को अधिक चपेटे में लेता है. महिलाएं  शृंगारप्रेमी होने के कारण स्वर्ण आभूषणों का प्रयोग सर्वाधिक करती हैं तो ‘सोने’ के आभूषणों से उन में एक तरह का डर भी बना रहता है. इस से बच कर नए शत्रु का सामना यानी ‘सफर’ करती हैं तो भारतीय ‘सड़क’ एक और शत्रु के रूप में आ टपकती है क्योंकि इन्हीं सड़कों की सघन आलियों में से संभव है स्वर्ण आभूषण के लुटेरे भी आ धमकें.

महिलाओं को अपनी ‘सहेलियों’ से भी कम खतरा नहीं है. विवाह से पहले उन का सनम उन की सहेलियों की ओर आकर्षित न हो जाए इसलिए वे डरती हैं और जब सनम सहेलियों को कोई ‘सौगात’ देते हैं तो इसे वे खतरे की घंटी मानती हैं. इसी बीच ‘सगाई’ नामक एक अन्य शत्रु सामने आ धमकता है. इस के ‘संक्रमण’ से बेचारी अभी निकल भी नहीं पातीं कि ‘सुहागरात’ को क्या होगा इस का डर सताने लगता है. और इस डर से वे अपने शरीर की महान ‘सुस्ती’ को साथी बना लेती हैं.

इन खतरों से उबर भी नहीं पाईं कि तभी रोजरोज का साथी शत्रु के रूप में ‘साजन’ सामने आ जाता है. इस डर को भगाने के लिए वह हमेशा ‘सजती- संवरती’ रहती हैं. हालांकि  यह ‘सजना- संवरना’ भी एक खतरा है. इस से ‘संदेह’ रूपी एक खतरनाक बीमारी उस के पतिदेव को लग जाना भी संभव है. यदि ऐसा हुआ तो उस के पतिदेव दूसरा विवाह कर उस की ‘सौत’ को लाते हैं.

सौत के नाम से तो महिलाएं वैसे ही ‘सपने’ में डरती हैं. अगर इतना सबकुछ हो जाए तो समझिए उन को जो ‘सदमा’ लगता है उस से वे जिंदगी भर उबर नहीं पातीं.

‘समाज’ भी महिलाओं के लिए बड़ा खतरा है. इस में दिखावे के लिए ये क्याक्या नहीं करतीं. संयुक्त परिवार द्वारा एक दबाव अनुभव कर के भी वे इस में बनी रहती हैं. आधुनिक महिलाओं के लिए ‘सिनेमा’ एक आर्थिक खतरा है. इस में प्रदर्शित किए गए कपड़ों को खरीदने के चक्कर में वे घर के जरूरी सामान भी खरीदना भूल जाती हैं. इस के लिए वे ‘सरहद’ पार भी चली जाती हैं.

महिलाएं पुरुषों से अधिक भावुक होती हैं. वे ‘संकट’ में फंसे व्यक्तियों को ‘संकट’ से छुटकारे के लिए ‘समझाने’ लगती हैं. यही समझाना एक शत्रु बन जाता है तथा उसे घर में ‘सफाई’ देनी पड़ती है.

अत: हम कह सकते हैं कि महिलाओं को सब से खतरनाक शत्रु ‘स’ से संपूर्ण जीवन संभल कर शान से बिना संदेह के निबटना चाहिए.

लेखक : दीपांशु जिंदल 

Hindi Story : अपना अपना वनवास

Hindi Story : एक बड़े महानगर से दूसरे महानगर में स्थानांतरण होने के बाद मैं अपने कमरे में सामान जमा रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. ‘‘कौन है?’’ यह सवाल पूछते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने एक अल्ट्रा माडर्न महिला खड़ी थी. मुझे देख कर उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘गुड आफ्टर नून.’’ ‘‘कहिए?’’ मैं ने दरवाजे पर खड़ेखड़े ही उस से पूछा. ‘‘मेरा नाम बसंती है. मैं यहां ठेकेदारी का काम करती हूं,’’ उस ने मुझे बताया. लेकिन ठेकेदार से मेरा क्या रिश्ता…यहां क्यों आई है?

ऐसे कई सवाल मेरे दिमाग में आ रहे थे. मैं कुछ पूछती उस के पहले ही उस ने कहना जारी रखते हुए बताया, ‘‘आप को किसी काम वाली महिला की जरूरत हो तो मैं उसे भेज सकती हूं.’’ मैं ने सोचा चलो, अच्छा हुआ, बिना खोजे मुझे घर बैठे काम वाली मिल रही है. मैं ने कहा, ‘‘जरूरत तो है…’’ पर मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि वह कहने लगी, ‘‘बर्तन साफ करने के लिए, झाडू़ पोंछा करने के लिए, खाना बनाने के लिए, बच्चे संभालने के लिए…आप का जैसा काम होगा वैसी ही उस की पगार रहेगी.’’

मैं कुछ कहती उस से पहले ही उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘उस की पगार पर मेरा 2 प्रतिशत कमीशन रहेगा.’’ ‘‘तुम्हारा कमीशन क्यों?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हमारा रजिस्टे्रेशन है न मैडम, जिस काम वाली को हम आप के पास भेज रहे हैं उस के द्वारा कभी कोई नुकसान होगा या कोई घटनादुर्घटना होगी तो उस की जिम्मेदारी हमारी होगी,’’ उस ने मुझे 2 प्रतिशत कमीशन का स्पष्टीकरण देते हुए बताया. ‘‘यहां तो काम…’’ ‘‘बर्तन मांजने का होगा, आप यही कह रही हैं न,’’ उस ने मेरी बात सुने बिना पहले ही कह दिया,

‘‘मैडम, कितने लोगों के बर्तन साफ करने होंगे, बता दीजिए ताकि ऐसी काम वाली को मैं भेज सकूं.’’ ‘‘तुम ने अपना नाम बसंती बताया था न?’’ ‘‘जी, मैडम.’’ ‘‘तो सुनो बसंती, मेरे घर पर बर्तन मांजने, पोंछने वाली मशीन है.’’ ‘‘सौरी मैडम, कपड़े साफ करने होंगे? तो कितने लोगों के कपड़े होंगे? मुझे पता चले तो मैं वैसी ही काम वाली जल्दी से आप के लिए ले कर आऊं.’’ ‘‘बसंती, तुम गजब करती हो. मुझे मेरी बात तो पूरी करने दो,’’ मैं ने कहा. ‘‘कहिए, मैडमजी.’’ ‘‘मेरे घर पर वाशिंग मशीन है.’’

‘‘फिर आप को झाड़ ूपोंछा करने वाली बाई चाहिए…है न?’’ ‘‘बिलकुल नहीं.’’ उस ने यह सुना तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ. कहने लगी, ‘‘कपड़े धोने वाली नहीं, बर्तन मांजने वाली नहीं, झाड़ ूपोंछे वाली नहीं, तो फिर मैडमजी…’’ ‘‘क्योंकि मेरे घर पर वेक्यूम क्लीनर है, बसंती.’’ ‘‘फिर खाना बनाने के लिए?’’ उस ने हताशा से अंतिम आशा का तीर छोड़ते हुए पूछा. ‘‘नो, बसंती. खाना बनाने के लिए भी नहीं, क्योंकि मैं पैक फूड लेती हूं और आटा गूंथने से ले कर रोटी बनाने की मेरे पास मशीन है,’’ मैं ने विजयी मुसकान के साथ कहा. उस के चेहरे पर परेशानी झलकने लगी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस नए घर से उसे 2 प्रतिशत की आमदनी होने वाली थी उस का क्या होगा.

उस ने हताशा भरे स्वर में कहा, ‘‘मैडमजी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि जब सबकुछ की मशीन आप के पास है तो आखिर आप को काम वाली महिला क्यों चाहिए? उस का तो कोई उपयोग है ही नहीं.’’ मुझे भी हंसी आ गई थी. मुझे हंसता देख कर उस की उत्सुकता और बढ़ गई. उस ने बडे़ आदर के साथ पूछा, ‘‘मैडमजी, बताएं तो फिर वह यहां क्या काम करेगी?’’

कुछ देर चुप रही मैं. उस ने अंतिम उत्तर खोज कर फिर कहा, ‘‘समझ गई.’’ ‘‘क्या समझीं?’’ ‘‘घर की रखवाली के लिए चाहिए?’’ ‘‘नहीं.’’ ‘‘बच्चों की देखरेख के लिए?’’ ‘‘नो, बसंती. मैं ने अभी शादी भी नहीं की है.’’ ‘‘तो मैडमजी, फिर आप ही बता दें, आप को काम वाली क्यों चाहिए?’’ अब मैं ने उसे बताना उचित समझा.

मैं ने कहा, ‘‘बसंती, पिछले दिनों मैं दिल्ली में थी और आज नौकरी के चक्कर में बंगलौर में हूं. मुझे अच्छी पगार मिलती है. मेरा दिन सुबह 5 बजे से शुरू होता है और रात को 11 बजे तक चलता रहता है. मेरी सहेली कंप्यूटर है. मेरे रिश्तेदार सर्वे, डाटा, प्रोजेक्ट रिपोर्ट हैं. सब सिर्फ काम ही काम है. मेरे घर में सब मशीनें हैं. मुझे एक महिला की जरूरत है जो मेरे खाली समय में मुझ से बातचीत कर सके. मुझे इस बात का एहसास कराती रहे कि मैं भी इनसान हूं. मैं भी जिंदा हूं. मैं मशीन नहीं… समाज का अंग हूं.’’

मैं ने उसे विस्तार से अपनी पीड़ा बताई. मेरी बात सुन कर वह ठगी सी रह गई. उस ने आगे बढ़ कर मुझ से कहा, ‘‘मैडमजी, आप को ऐसी काम करने वाली महिला मैं भी नहीं दिला पाऊंगी,’’ कह कर वह कमरे से निकल गई. मुझे लगा कि सब को अपनेअपने एकांत का वनवास खुद ही भोगना होता है. मैं फिर अपने कमरे का सामान जमाने में लग गई.

Game Changer : रामचरण व शंकर का हिंदी क्षेत्र में ब्रांड दांव पर

Game Changer : रेटिंग : 1 स्टार

निर्माता : दिल राजू और शिरीष
लेखक : कार्तिक सुब्बाराज, विवेक वेलमुरुगन, साईं माधव बुर्रा और शंकर
निर्देशक : एस. शंकर
कलाकार : रामचरण, कियारा आडवाणी, एसजे सूर्या, अंजलि, श्रीकांत, सुनील और ब्रह्मानंदन आदि।
अवधि : 2 घंटे 44 मिनट

हिंदीभाषी क्षेत्रों में तेलुगु फिल्मों के निर्देषक शंकर और अभिनेता रामचरण की अपनी एक पहचान और एक ब्रैंड वैल्यू है, मगर ‘इंडियन’, ‘अन्नियन’ और ‘ऐंधिरन’ जैसी अति सफलतम फिल्मों के निर्देशक एस शंकर की कुछ माह पहले प्रदर्षित फिल्म ‘इंडियन 2’ बुरी तरह से असफल हो चुकी है. 10 जनवरी, 2025 को रिलीज हुई उन की दूसरी फिल्म ‘गेम चेंजर’ के भी बौक्स औफिस पर आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं.

यों तो फिल्म निर्देशक एस शंकर हमेशा एक समय में एक ही फिल्म निर्देशित करते रहे हैं, मगर फिल्म ‘इंडियन 2’ की शूटिंग के दौरान एक हादसा हो गया था, जिस के बाद एस शंकर ने ‘इंडियन 2’ की शूटिंग रोक कर रामचरण के साथ फिल्म ‘गेम चेंजर’ की शूटिंग शुरू कर दी थी. पर फिल्म ‘इंडियन 2’ की निर्माण कंपनी ‘लाइका प्रोडक्शन’ अदालत पहुंच गई थी। ऐसे में, एस शंकर ने ‘इंडियन 2’ और ‘गेम चेंजर’ दोेनों की शूटिंग एकसाथ की थी और एस शंकर भटक गए. वे दोनों फिल्मों पर से अपनी पकड़ खो बैठे.

‘इंडियन 2’ की बौक्स औफिस पर बड़ी बुरी दुर्गति हुई थी, जबकि ‘गेम चेंजर’ देख कर एहसास हुआ कि यह फिल्म भी अच्छी नहीं बनी है. यहां पर एस शंकर के लिए लोग कह रहे हैं,”दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम…’’

10 जनवरी,2025 को प्रदर्षित हुई फिल्म ‘गेम चेंजर’ भी मूलतया तेलुगु फिल्म है, जिसे हिंदी व तमिल में डब कर के प्रदर्षित किया गया है. फिल्म ‘गेम चेंजर’ में अप्पा अन्ना और उन के बेटे व आईएएस औफिसर राम नंदन के दोहरे किरदार को निभाने वाले अभिनेता रामचरण ने कुछ दिन पहले मुंबई आगमन पर कहा था कि इस फिल्म से निर्देशक एस शंकर के साथ काम करने का उन का एक सपना पूरा हो गया, जबकि यह सौभाग्य अब तक उन के पिता व अभिनेता चिरंजीवी को नहीं मिल पाया है.

कहानी : यह कहानी विषाखापट्टनम, आंध्र प्रदेश के नवनियुक्त आईएएस अधिकारी राम नंदन और भ्रष्ट राजनीतिक वर्ग मोपादेवी (एसजे सूर्या) और माणिक्यम (जयराम) से टकराव की है. मगर फिल्म शुरू होती है उत्तर प्रदेश के गुटखा माफिया को तबाह करने वाले आईपीएस राम नंदन के आईएएस बन कर नई नियुक्ति पर विशाखापट्टनम जाते हुए जब गुटखा माफिया के गुंडे उन्हें रास्ते में ट्रेन रोक कर उन से मारामारी करते हैं, पर सब जेल पहुंच जाते हैं.

राम नंदन अपनी ईमानदारी और अपने काम के प्रति समर्पण के लिए प्रसिद्ध हैं. उन का विरोध करने वाली प्रमुख ताकत मुख्यमंत्री सत्यमूर्ति (श्रीकांत) के बेटे बोब्बिली मोपादेवी (एसजे सूर्या) हैं, जो अवैध गतिविधियों में शामिल हैं. जैसाकि अपेक्षित था, बोब्बिली मोपादेवी झूठे आरोपों के साथ राम नंदन को कमजोर करने की योजना बनाते हैं. तो वहीं मोपीदेवी अस्पताल में अपने पिता को मार कर मुख्यमंत्री पद हथियाते लेते हैं, पर पता चलता है कि मुख्यमंत्री सत्यमूर्ति राम नंदन को अपना वारिस घोषित कर गए हैं.

इंटरवल के बाद जब कहानी में फ्लैशबैक आता है। तब राम नंदन के पिता अप्पा अन्ना जोकि हकलाते हैं, खदान मालिकों के खिलाफ आंदोलन करते हैं. नेतागिरी चमक जाती है तो ‘अभ्यूदय’ नाम राजनीतिक पार्टी बनाते हैं. फिर अपने हकलाने की वजह से सार्वजनिक मंच पर पार्टी के एक आम कार्यकर्ता को भाषण देने के लिए आगे बढ़ाते हैं. वह उद्योगपतियों से चंदा न लेने की कसम खाते हैं. पार्टी के पोस्टर, बैनर और कटआउट के खिलाफ हैं. लेकिन, पार्टी के सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में पार्टी कार्यकर्ता यानी कि मोपादेवी के पिता सत्यमूर्ति द्वारा उद्योगपतियों के हाथों बिक कर उस पार्टी को हथियाने व अपर्णा की हत्या करने तक की कहानी सामने आती है.

फिर राम नंदन और मोपादेवी द्वारा एकदूसरे को मात देने का खेल शुरू होता है. फिल्म का अंत राम नंदन के मुख्यमंत्री बनने और लोकलुभावन भाषण के साथ होता है.

समीक्षा : फिल्म ‘गेम चेंजर’ की शुरुआत बहुत ही ज्यादा कन्फ्यूजन पैदा करने वाली व कमजोर है. कहानी के स्तर पर कुछ भी नयापन नहीं है. वह राजनीतिक भ्रष्टाचार व अन्य भ्रष्टाचार के ही इर्दगिर्द अपनी फिल्मों की कहानियां बुनते आए हैं. ‘इंडियन’, ‘इंडियन 2’ के बाद अब ‘गेम चेंजर’ की भी कहानी कमोवेश वही है. ‘गेम चेंजर’ में संविधान व वर्तमान में चर्चित चुनाव आयोग को भी कहानी में पिरो दिया गया है. फिर फर्जी मतदान से ले कर मतपेटियों की तोड़फोड़ सबकुछ है. लेकिन इंटरवल से पहले कहानी बहुत ही ज्यादा कमजोर और बोरियत पैदा करने वाली है. फिल्म में आईएएस अफसर बन कर राम नंदन अपनी कुर्सी पर बैठने के पहले ही दिन जिस तरह से कदम उठाते हैं। उस से फिल्म ‘नायक’ के अनिल कपूर की याद आ जाती है और यह बहुत ही ज्यादा बचकाना भी लगता है.

एक ही दिन में भ्रष्ट अधिकारी को उस के पद से हटाने, पूरे शौपिंग मौल को जमींदोस्त करने से ले कर राशन की दुकानों के आसपास के भ्रष्टाचार को खत्म कर देते हैं.

यों भी एस शंकर की हर फिल्म में हीरो कभी भी किसी रौबिनहुड से कमतर नहीं रहा. अब वह राम चरण अभिनीत फिल्म ‘गेम चेंजर’ में भी राजनीतिक भ्रष्टाचार और मुख्यमंत्री की कुर्सी को ले कर हो रही खींचतान के साथ नायक को रौबिनहुड की तरह पेश करने में पीछे नहीं रहे. लेकिन इस फिल्म में अविश्वसनीय घटनाक्रमों की भरमार है, तो वहीं फिल्म देखते समय दर्शकों को अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ा गया आंदोलन से ले कर अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने तक की सारी कहानी भी याद आ जाए, तो कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं होगी.

फिल्म का क्लाइमैक्स भी घटिया है. वास्तव में ‘इंडियन 2’ और ‘गेम चेंजर’ को निर्देशक एस शंकर ने एकसाथ फिल्माया है और दोनों फिल्मों का सब्जैक्ट भी लगभग एक जैसा ही है, इसलिए ‘गेम चेंजर’ के अंतिम 1 घंटे में वह पूरी तरह से भटके हुए नजर आते हैं. ऐसा लगता है जैसे कि वह अपनी फिल्म पर से नियंत्रण खो चुके हैं.

‘गेम चेंजर’ में मतदान करना अनिवार्य किए जाने की बात करते हुए मतदान करने के महत्त्व पर भी रोशनी डाली गई है.

इंटरवल के बाद घटनाक्रम तेजी से बदलने शुरू होते हैं. पर ज्यादातर दृश्य कपोलकल्पित ही हैं, जिन का वास्तविकता या लौजिक से कोई लेनादेना नहीं. कई बार ऐसा लगता है कि निर्देशक ने कुछ मुद्दों पर कुछ दृश्य फिल्मा लिए, फिर उन्हें ऐडिटिंग टेबल पर जुड़वा कर एक फिल्म की शक्ल दे डाली. बीचबीच में अनावश्यक रूप से गाने ठूंस दिए गए हैं जो कहानी को आगे बढ़ाने की बजाय व्यवधान पैदा करते हैं. राम नंदन और डाक्टर दीपिका की प्रेमकहानी भी ठीक से विकसित नहीं की गई. इतना ही नहीं, एक आईएसएस औफिसर व मुख्यमंत्री के बीच टकराव भ्रष्टाचारमुक्त समाज के लिए जरूरी है, मगर इस फिल्म में निर्देशक की अपनी कमजोरी के चलते यह टकराव निजी दुश्मनी जैसी प्रतीत होती है. कुछ एक्शन सीन दमदार हैं पर इस में कौमेडी वही पुराने अंदाज वाली है.

अभिनय : 2022 में प्रदर्शित मल्टीस्टारर फिल्म ‘आरआरआर’ में अभिनय कर रामचरण ने हिंदीभाषी दर्शकों के बीच अच्छी पैठ बनाई थी. अब वह ‘गेम चेंजर’ में सोलो हीरो बन कर हिंदीभाषी दर्शकों के बीच अपनी ‘पैन इंडिया’ स्टार की छवि को पुख्ता करना चाहते हैं, पर ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है. रामचरण में अभिनय को ले कर सीमित प्रतिभा है. दूसरी बात, उन्हें पटकथा से भी कोई मदद नहीं मिली. अधिकतर दृश्यों में उन के भाव एकसमान ही रहते हैं. डाक्टर दीपिका के किरदार में किआरा अडवाणी सिर्फ सुंदर नजर आई हैं. उन के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. निर्देशक शंकर का सारा फोकस तो रामचरण पर ही रहा. मोपा देवी के किरदार में अभिनेता एसजे सूर्या तारीफ बटोर ले जाते हैं. अंजलि ने अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाई है.

Hindi Story : सरकारी इनाम

Hindi Story : चौधरी हरचरन दास के बुलाने पर हरिया फौरन हाजिर हो गया. चौधरी साहब निवाड़ के पलंग पर बैठे हुक्का पी रहे थे. चौपाल पर दीनू, बीसे, बांके, बालकिसन और जगदंबा परसाद भी बैठे गप्पें हांक रहे थे. हरिया ने नीची निगाहों से चौधरी साहब को हाजिरी दी. चौधरी साहब ने हुक्के की नली दांतों से पकड़ी और दाईं आंख को कुछ ज्यादा खोल कर हरिया की ओर देखा. हरिया ने जुहार की तो चौधरी साहब के होंठ थोड़े फैल कर पुन: सिकुड़ गए.

‘‘हुकम करो मालिक,’’ हरिया ने बुलाने का कारण जानना चाहा.

‘‘हुकम तो तुम करोगे हरीप्रसादजी, हम तो तुम्हारे गुलाम हैं,’’ चौधरी साहब ने हुक्के को मुंह में ठूंसे हुए ही जवाब दिया.

‘‘आप माईबाप हैं…हम तो गुलाम हैं, हजूर. कोई कुसूर हो गया, मालिक?’’ हरिया ने पिचकते पेट को जरा और अंदर खींच कर पूछा.

‘‘नहीं रे, कुसूर तो हम से हुआ है. हम ने तुम्हें काम दिया था न, उसी का इनाम मिला है हमें. तुम्हें रोटीरोजी दे कर जो अधर्म किया है उस का प्रायश्चित्त करना है हम को. सरकार बड़ी दयालु है रे हरिया. वह तुम जैसे सीधेसच्चे गरीबों को ऊंचा उठाना चाहती है और हम जैसे पापी, नीच लोगों की अक्ल दुरुस्त करना चाहती है.’’

हरिया खड़ाखड़ा थूक निगल रहा था. उस की समझ में आ गया था कि  चौधरी साहब किसी बात पर गुस्सा हैं, लेकिन उस ने तो कुछ भी ऐसावैसा नहीं किया. कल दिन छिपने तक काम किया था. रामेसर के ससुरजी का सामान दिल्लीपुरा तक राजीखुशी पहुंचा दिया था. फिर क्या बात हो गई?

‘‘हरी प्रसादजी, तुम सोच रहे होगे कि चौधरी कैसी उलटीसीधी बक रहा है. अब असली बात सुनो. सरकारी आदेश आया है कि हरी प्रसाद वल्द गया प्रसाद, गांव छीछरपुर, तहसील न्यारा, जिला बदायूं, जो सरकारी योजना के अंतर्गत 320-ए 93 के अंतर्गत प्रार्थी है, के प्रार्थनापत्र को स्वीकार करते हुए उसे 7 बीघा जमीन दी जाती है. इस जमीन का पट्टा पटवारी, न्यारा तहसील के मारफत फाइल करने को भेजा गया है तथा गांव छीछरपुर के पश्चिम नाले के ऊपर 1981 बी के मद से बजरिये पटवारी 7 बीघा जमीन हरी प्रसाद को दी जाएगी,’’ चौधरी ने कागज पढ़ा और फिर संभाल कर जेब में रख लिया.

झुकी गरदन को थोड़ा उठा कर हरिया ने इस का मतलब जानना चाहा.

‘‘अरे बेवकूफ की दुम, सरकार ने 10 पुश्तों से चली आ रही हमारी जोत की धरती में से 7 बीघा जमीन तुम्हें दे दी है. पटवारी राम प्रकाश यह कागज पकड़ा गया है हमें. बोल, कब से संभाल रहा है अपनी जमीन?’’

‘‘मालिक, मैं कैसे संभालूंगा जमीन को? मुझ में ऐसी औकात कहां है?’’

‘‘क्यों? सरकारी दफ्तर में जा कर दरख्वास्त देने की औकात थी तेरी?’’

‘‘माईबाप, मैं ने नहीं दी थी दरख्वास्त. वह तो हरिद्वारीलाल ने अपने मन से लिखी थी.’’

‘‘तेरे दस्तख्त नहीं थे उस पर?’’

‘‘अंगूठा चिपकवाया था हरिद्वारी ने. कहा था कि सरकार सहायता करेगी.’’

‘‘अच्छा, तो सरकारी जमीन दिल्ली से बन के आती और तुम जहां कहते वहां बिछा दी जाती, क्यों?’’

हरिया किसी पेड़ की तरह जड़ हो रहा था. वह जानता था कि चौधरी को गुस्सा आ गया तो जमीन जिंदा गड़वा देंगे, ‘‘अब हम क्या करें मालिक?’’ उस ने झिझकते हुए कहा.

‘‘अरे करेगा क्या? पीली पगड़ी बांध, मिठाई खिला सब को. हम ने तो पटवारी से कह दिया कि तुम जानो तुम्हारा काम जाने. हम हटा लेते हैं अपने हलबैल वहां से. कोई और हमारी धरती की तरफ देखता भी तो आंखें निकाल लेते, लेकिन सरकारी मामला है.

‘‘क्या मैं समझ नहीं रहा हूं कि यह सब तमाशा घनश्याम चौधरी करवा रहा है? पिछले चुनाव की सारी कसर निकाल लेना चाहता है. खैर, अपनीअपनी तूबड़ी है, आज तू बजा ले, कल हम बजाएंगे. अच्छा तो भैया, हरीप्रसादजी, आज से तुम भी जमींदार हो गए. हमारी जमात में आ गए. अब हमारे यहां से तुम्हारी छुट्टी. अब नौकर बन कर नहीं, मालिक बन कर रहो. जाओ भैया, जा कर देख आओ अपनी जमीन. अगले महीने तहसील में मुख्यमंत्रीजी आएंगे. वहां बड़े समारोह में तिलक लगा कर तुम्हें धरती का राज सौंपेंगे. बड़े भाग्यवान हो, हरी प्रसाद. जाओ भैया, जाओ.’’

हरिया चौपाल से निकला. उस के जैसे पंख निकल आए थे. वह उड़ान भरता हुआ अपने नीड़ पर आ पहुंचा. झोंपड़ी में उस की पत्नी नत्थी 4 बच्चों को समेटे पड़ी थी. रात को चूल्हा जलने की उम्मीद में दिन कट ही जाता था. दिन भर मां बच्चों को लोरियां सुनाती और बच्चे कहानी सुनतेसुनते सो जाते.

झोंपड़ी में घुस कर उस ने बड़े प्यार से नत्थी की कमर पर एक लात जमाई. ‘‘अरे उठ री, देख नहीं रही कि हरी प्रसादजी आए हैं?’’

नत्थी ने अपना मैला घाघरा समेटा और बैठ गई. सामने हरिया तन कर खड़ा था. उस के पिचके गालों में हवा भरी थी और बुझीबुझी आंखों में फुलझड़ी सी जल रही थी. उस का होहल्ला सुन कर और तेवर देख कर नत्थी ने समझा कि आज जरूर इस पर बड़े पीपल वाला जिन्न सवार हो गया है. उस ने परीक्षा करनी चाही.

‘‘कौन है रे तू?’’

‘‘मैं जमींदार हरी प्रसाद हूं.’’

‘‘कहां से आया है?’’

‘‘हवेली से आया हूं.’’

नत्थी ने लपक कर कोने में पड़ा डंडा उठा लिया. फिर बिफर कर बोली, ‘‘तेरा सत्यानास हो जमींदार के बच्चे. इस दरिद्र की कोठरी में क्या झख मारने आया है? अरे नासपीटे, यहां तो चूहे भी व्रत रखते हैं. यहां क्या अपनी ऐसीतैसी कराएगा?’’

हरिया समझ गया कि ज्यादा नाटक दिखाया तो अभी पूजा हो जाएगी. वह धम से बैठ गया, फिर अपनी प्यारी हृदयेश्वरी नत्थी को सीने से लगाता हुआ बोला, ‘‘हमारे भाग खुल गए हैं रे नथनिया!’’

नत्थी ने आंखें खोल कर अपने मर्द को देखा, ‘‘लाटरी खुली है, नथनी. सरकार ने 7 बीघा जमीन का मालिक बनाया है तेरे हरी प्रसाद भुक्खड़ को.’’

नत्थी अभी भी उसे टुकुरटुकुर देख रही थी. धीरेधीरे हरिया ने सारी रामकहानी सुना दी. नत्थी का पोरपोर खुशी से भीग उठा था. अपना कालाकलूटा हरिया सचमुच किसी राजकुमार की तरह सुंदर लग रहा था उसे. सारी रात आगामी योजना पर विचार होता रहा.

सुबह उठ कर हरिया को चिंताओं ने आ घेरा. हलबैल कहां से आएगा? बीज के लिए पैसा, कटाई, खलियान, गोदाम…यह सब कहां से होगा?

वह चौधरी साहब के दरवाजे जा पहुंचा. चौधरी साहब के हाथ में पीतल की कटोरी थी. वह सवेरेसवेरे कच्चा दूध पीते थे.

‘‘पां लागन, मालिक.’’

‘‘जै राम जी की. हरिया, क्या हुआ रे? रात को नींद तो आई न?’’

‘‘हां मालिक, एक बात पूछनी थी. मुझे हलबैल और बीज, पानी की मदद तो करेंगे न?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं, बस तुम्हें 2-4 कागजों पर अंगूठा मारना होगा. हम सबकुछ कर देंगे. चाहो तो कल से ही जोत लो जमीन. पट्टा तो मिल ही जाएगा. सरकार का कानून तो मानना ही होगा न.’’

हरिया ने अपनी धरती पर जीजान लगा दी. नाले से लगी वह धरती वर्षों से अछूती पड़ी थी. 2 महीने में ही धरती चमेली के फूल सी खिल उठी.

एक दिन चौधरी साहब ने उसे बुला कर बताया कि कल तहसील में मंत्रीजी पधार रहे हैं. सभी लोगों को उन के पट्टों के कागज दिए जाएंगे. उसे भी उन के साथ तहसील चलना होगा.

अगले दिन सुबह पगड़ी कस कर, मूंछों पर असली घी का हाथ फेर कर वह मेले के लिए तैयार हुआ. चौधरी साहब उसे अपने साथ बैलगाड़ी पर बैठा कर ही ले गए.

मेले में बड़ा मजा आया. मंत्रीजी ने ढेर सारे गरीब लोगों को जमीन के पट्टे बांटे. उस की बारी आई तो वह तन कर खड़ा हो गया. मंत्रीजी ने उस से पूछा कि जमीन का क्या करेगा, तो उस ने बताया कि जमीन तो उसे पहले ही सौंप दी गई है और चौधरी साहब ने हलबैल दे कर उस की पूरी मदद की है.

मंत्रीजी ने चौधरी हरचरनजी को मंच पर बुलवाया. सभा को संबोधित करते हुए कहा कि चौधरी साहब महान देशभक्त हैं. देश को उन जैसे महान व्यक्ति पर गर्व होना चाहिए जिन्होंने हरिया जैसे सर्वहारा और गरीब मजदूर को अपनी जमीन खुशीखुशी दी और जुताई- बोआई में भी उस की सहायता की.

मंत्रीजी ने अपने गले से उतार कर फूलों का हार चौधरी साहब के गले में डाल दिया. चारों ओर ‘चौधरी साहब जिंदाबाद’ के नारे लगने लगे.

दूसरे दिन हरिया जब चौधरी साहब के यहां बैल लेने गया तो परभू काका ने बैल देने से इनकार कर दिया. कहा कि चौधरी साहब का हुक्म नहीं है.

वह दौड़ादौड़ा हवेली में गया.  हरिया को देख कर उन्होंने भौंहें चढ़ा लीं. जब हरिया ने परभू काका की शिकायत की तो चौधरी साहब बही हाथ में ले कर पलंग पर बैठ गए. हरिया हाथ जोड़ कर जमीन पर उकडूं बैठ गया.

‘‘देख बच्चू, तेरा खाता अब ज्यादा हो गया है. तुझे जमीन का पट्टा आज मिला है और तू 3 महीने से हमारी जमीन पर कब्जा किए है. 1 हजार रुपया माहवार किराए के हिसाब से 3 हजार तेरे खाते में जमा है. हलबैल का किराया 5 रुपया रोज के हिसाब से 450 रुपए और ट्यूबवैल के पानी के 300 रुपए. कुल मिला कर 4 हजार रुपए तुझ पर कर्ज हैं. इस के एवज में हम तेरी 7 बीघा जमीन रेहन रख लेते हैं.

‘‘2 रुपए की दर से 80 रुपए का ब्याज तुझे देना है. कल से हमारे खेत पर काम कर के अपना रुपया भर देना. हम तेरी तनख्वाह बढ़ा कर पूरे 100 रुपए कर देते हैं. अब 80 रुपए काट कर 20 रुपए तुझे नगद मिलेंगे. कुछ चनाचबैना भी दे देंगे. जब भी तेरे पास हो मूल रकम का हिसाब कर देना.

‘‘चल, आज से ही हमारे खेत पर काम करना चालू कर दे. और हां, देख, ज्यादा समझदार बनने की कोशिश मत करना. दिल्ली वाले सरकारी आफिसर खाली नहीं बैठे. मंत्रीजी के माथे सौ काम हैं. सरकार को रोजरोज छीछरपुर आने की फुरसत नहीं है. ज्यादा ऊंचा उछलेगा तो हलदीचूना भी उधार न मिलेगा.’’

‘‘लेकिन मालिक, वह पट्टा तो मेरे नाम है,’’ हरिया बड़ी मुश्किल से इतना ही बोल सका.

‘‘भूल जा बच्चू, भूल जा. सबकुछ भूल जा. तू ने ढेर सारे अंगूठे छापछाप कर सब काम सही कर दिए हैं. वे सब फिर हमारे नाम हो जाएंगे. फिर तू इस की परवाह क्यों करता है? तू फौरन अपने काम पर लग जा.’’

हरिया के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह गरदन झुका कर चुपचाप खेत पर चला गया.

कुछ दिनों बाद हरिया एकाएक गायब हो गया. नीचे के तबके में कानाफूसी हुई कि शायद सरकार के पास गया है, न्याय ले कर आएगा.

4 दिन बाद 3 कोस दूर, हरी बाबा के अखाड़े के पीछे वाले नाले में उस की सड़ी हुई लाश दीनू चरवाहे ने देखी थी. सब ने जाना, लेकिन किसी ने कुछ भी नहीं कहा.

लेकिन कर्ज तो पूरा होना ही है. इसलिए अब नत्थी चौधरी साहब के घर की टहल करती है और उस के 2 बच्चे खेत में पसीना बहाते हैं. सुना है वह फिर एक बच्चे को जन्म देने वाली है.

Trending Debate : 90 घंटे काम तो कब आराम ?

Trending Debate : लार्सन एंड टूब्रो कंपनी के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम के वर्कप्लेस पर हफ्ते में 90 घंटे काम करने वाले बयान पर गरमागरम बहस छिड़ी हुई है. कोई सुब्रह्मण्यम को गरिया रहा है तो कोई उन का समर्थन कर रहा है.

दिल्ली स्थित एक पोस्ट औफिस में शाम 4.45 पर लता एक जरूरी पत्र स्पीड पोस्ट करवाने पहुंची. काउंटर पर बैठी महिला ने उन से कहा, “आप को जल्दी आना चाहिए. अब तो स्पीड पोस्ट नहीं हो रही है.”

लता ने कहा, “अभी तो 5 बजने में पूरे 15 मिनट बाकी हैं. अभी से कैसे बंद हो गया? मैं सुबह जब साढ़े दस बजे आई थी तब आप की सीट खाली पड़ी थे. पता चला आप देर से आती हैं. 10 मिनट इंतजार कर के मैं अपने औफिस चली गई. अब भी मैं समय से आई हूं तो आप कह रही हैं कि जल्दी आना चाहिए?

“मैडम आप कल आइएगा. मैं सारे पैसे काउंट कर के भीतर जमा कर आई हूं. आज का हिसाब पूरा हो गया है. आप की वजह से मुझे फिर से हिसाब कर के भीतर जमा करना पड़ेगा.”

“तो आप को 5 बजे के बाद हिसाब करना चाहिए. पोस्ट औफिस तो 5 बजे बंद होता है. आपने पहले क्यों कर दिया?”

जब काउंटर पर बैठी महिला कर्मचारी ने स्पीड पोस्ट करने से साफ मना कर दिया तब लता ने पोस्ट औफिस के मैनेजर से लिखित में उस की शिकायत कर दी. यही नहीं उन्होंने फेसबुक पर भी यह बात वायरल कर दी. अगले दिन उस महिला कर्मचारी को उस काउंटर से हटा दिया गया. हालांकि इस से उस की कामचोरी की आदत नहीं जाएगी. वह जिस सीट पर होगी वहां समय से पहले ही काम बंद कर देगी.

यह हाल एक पोस्ट औफिस का नहीं, बल्कि अधिकांश सरकारी दफ्तरों का है. कर्मचारी न तो समय से अपनी सीट पर पहुंचते हैं, न ही पूरे वक़्त काम करते हैं. 5 बजने से पहले ही सीट से उठ कर चलते बनते हैं. जाड़ों के दिनों में तो अधिकांश दफ्तरों के कर्मचारी दोपहर की धूप खाने के लिए घंटों अपनी सीट से गायब रहते हैं. कुछ दफ्तर के बाहर मूंगफली खाते या चाय पीते नजर आते हैं.

भारत की धरती को धर्म की धरती कहा जाता है. यहां सदियों से ऋषिमुनियों, साधुसंतों को बहुत मान सम्मान दिया जाता है. उन्हें सिरमाथे पर बिठाया जाता है. पर ज़रा गंभीरता से सोचें तो क्या इन लोगों की देश के विकास में कोई भूमिका है? क्या वे किसी प्रकार का श्रम करते हैं? क्या वे अपनी मेहनत का खाते हैं? नहीं. ये निठल्ले लोग हैं, मेहनत मशक्कत और जिम्मेदारियों से दूर भागे लोग हैं. ये सिर्फ दूसरों की मेहनत की कमाई खाते हैं और हम इन्हें सिरमाथे पर बिठाते हैं. हमारे देश में न काम करने वालों को सिर पर चढ़ा कर रखा जाता है.

हम बेटी के लिए रिश्ता ढूंढते हैं तो चाहते हैं कि लड़का सरकारी नौकरी वाला मिल जाए. क्यों? क्योंकि वहां फुर्सत ज़्यादा है. पैसा अधिक है. ऊपरी कमाई है. हम मेहनती और काम में व्यस्त रहने वाले लड़के की जगह एक निठल्ला और कामचोर दामाद चाहते हैं. यह हम भारतीयों की मानसिकता है जो धर्म से प्रेरित है. हम आरामतलब लोग हैं और इसीलिए विकास के मार्ग पर कछुआ चाल चल रहे हैं.

प्राइवेट नौकरियों वाले समय के अभाव का रोना रोते हैं परन्तु देश अगर कुछ तरक्की कर रहा है तो उस का श्रेय प्राइवेट सैक्टर को ही जाता है. सरकार भी जानती है कि उस के कर्मचारी जो काम 100 दिन में करेंगे, प्राइवेट आदमी दो दिन में कर देगा. यही वजह है कि अधिकांश सैक्टर चाहे रेलवे हो, विद्युत या इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट सब प्राइवेट हाथों में चले गए हैं. वहां कम्पटीशन ज्यादा है. इसलिए कर्मचारियों के लिए काम के घंटे ज्यादा हैं.

मुंबई की लोकल ट्रेनों में औफिस से घर लौटने वाली महिलाओं को अपनी सीट पर बैठ कर सब्जी काटते हुए भी देखा जाता है क्योंकि घर पहुंचतेपहुंचते उन्हें इतनी देर हो जाती है कि परिवार के लिए खाना बनाने का थोड़ा सा समय बचता है. कई कर्मचारी तो रोड साइड पर बने ढाबों से पकी हुई सब्जी दाल खरीद कर ले जाते हैं ताकि घर पहुंच कर सिर्फ रोटी ही बनानी पड़े. इन कर्मचारियों के पास इतना समय ही नहीं बचता कि वे अपने बच्चों के साथ कुछ क्वालिटी टाइम बिता सकें. उन के साथ शाम को कहीं घूमने जा सकें. या उन की पढ़ाई के विषय में ही कुछ पूछ सकें.

रेखा एक रियल एस्टेट कंपनी में काम करती है. उस का औफिस सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक है. आएदिन औफिस के बाद मीटिंग्स होती हैं या उस को क्लाइंट वगैरह से मिलने जाना होता है. जिस के चलते घर लौटते लौटते कई बार तो 10 बज जाते हैं. घर लौट कर भी रेखा अपने लैपटौप पर लगी रहती हैं. उस की पगार अच्छी है. पति से तलाक हो चुका है क्योंकि इतनी अच्छी पगार छोड़ कर वह घर संभालने का काम नहीं करना चाहती थी. उस के काम के घंटे तय नहीं हैं. मगर पगार अच्छी होने के कारण उस को अपना काम बोझ नहीं लगता. वह विभिन्न लोगों से मिलती है, औफिस की पार्टियां एन्जोय करती है. क्योंकि उस ने अपने ऊपर घर गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं ओढ़ी है. वह अपने फ्लैट में अकेली रहती है. इसलिए देर रात लौटने पर उस के सामने किसी की सवालिया आंखें नहीं होतीं.

शरबती गोरखपुर चौरीचौरा की निवासी है. वह पति के साथ खेतों पर काम करती है. सुबह 5 बजे से उस की दिनचर्या शुरू होती है. भैसों को दुहना, उन को चारापानी देना, सब के लिए खाना बनाना, फिर खेतों में जा कर पति और देवर के साथ शाम तक काम करना, लौट कर खाना बनाना, सब को खिलाना, बर्तन मांजना, सास की सेवा करना ऐसे बहुत सारे काम वह प्रतिदिन करती है. शरबती को बमुश्किल 5 घंटे का वक़्त ही आराम करने का मिल पाता है. यानी 19 घंटे वह काम करती है, जिस का उस को कोई भुगतान नहीं मिलता. कुछ कमीबेशी हो जाए तो पति की गालियां अलग से खाती है.

देश में भले श्रम कानून बना हो मगर आम भारतीय गृहणी सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक निरंतर कोई न कोई काम करती रहती है. उस के लिए काम के घंटे तय नहीं हैं. किसानों के लिए काम के घंटे तय नहीं हैं. वह साल भर खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करता है. पुलिस वालों की ड्यूटी 24 घंटों की होती है. युद्ध का मौक़ा आता है तो सेना रात दिन लड़ती है. वहां कोई श्रम कानून काम नहीं करता. अभी अमेरिका के लौस एंजेलिस में आग लगी तो फायरमैन 36-36 घंटे लगे रहे हैं.

भारत में काम और कर्मचारियों के विभिन्न प्रकार हैं. कुछ लोगों से बहुत ज्यादा काम लिया जाता है और कुछ लोगों से कम, कुछ ऐसे भी हैं जो बिलकुल निठल्ले हैं. कुछ लोग वह काम करते हैं जो उन्हें पसंद होता है. इसलिए उस में कितना भी वक्त दें उन्हें अखरता नहीं है. और अगर उस में पेमेंट भी अच्छा हो तो सोने पर सुहागा. मगर अधिकांश लोग अपने परिवार के भरण पोषण के लिए काम करते हैं. यह काम उन की मजबूरी है. पेमेंट ठीक है तो उस काम का वह अच्छा आउटपुट भी देते हैं. अगर पेमेंट ठीक नहीं है तो मजबूरी में किए जा रहे ऐसे काम का आउटपुट भी कुछ ख़ास नहीं होता है. फिर चाहे वह कितने ही घंटे उस काम को देदे. कुछ लोगों को उन के 10 से 12 घंटे के काम का भी बहुत थोड़ा भुगतान होता है. इन में मजदूर वर्ग और गृहणियां शामिल हैं.

काम के घंटों को ले कर यह विभिन्न प्रकार का विवरण इसलिए है क्योंकि हाल ही में लार्सन एंड टूब्रो कंपनी के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने कर्मचारियों को सम्बोधित करते हुए कहा, “मुझे अफ़सोस है कि मैं आप को रविवार को भी काम पर नहीं बुला पा रहा हूं. अगर मैं आप से रविवार को भी काम करा सकता, तो मुझे ज्यादा ख़ुशी होती क्योंकि मैं रविवार को काम करता हूं. आप को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए. अपने घर में बैठ कर आप क्या करते हैं? आप अपनी पत्नी को कितनी देर निहार सकते हैं और पत्नी अपने पति को कितनी देर निहार सकती है?”

उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही थी कि कंपनी ने शनिवार को काम पर आना अनिवार्य क्यों कर दिया?

एसएन सुब्रह्मण्यम के इस वक्तव्य के बाद सोशल मीडिया, अख़बारों और टीवी स्क्रीन पर काम के घंटों को ले कर एक गरमागरम बहस छिड़ी हुई है. कोई सुब्रह्मण्यम को गरिया रहा है तो कोई उन का समर्थन कर रहा है. बड़ेबड़े दिग्गज काम के घंटों पर अपनी राय पेश कर रहे हैं. इस में फ़िल्मी सितारों से ले कर उद्योगपति तक शामिल हैं. यह मामला अब इतना तूल पकड़ चुका है कि बिहार में काराकट से सीपीआई-एमएल सांसद राजा राम सिंह ने बाकायदा श्रम मंत्री मनसुख मांडविया को पत्र लिख कर सुब्रह्मण्यम के बयान को श्रम कानूनों के उल्लंघन का मामला करार दे दिया है.

लेबर, टेक्सटाइल पर संसद की स्थाई समिति के सदस्य और बिहार में काराकाट से सीपीआई-एमएल सांसद राजा राम सिंह ने श्रम मंत्री मनसुख मांडविया को पत्र लिख कर कहा है, “एलएंडटी के चेयरमैन ने हाल में बयान दिए हैं कि कर्मचारियों को हफ्ते में 90 घंटे काम करना चाहिए. कुछ समय पहले इन्फ़ोसिस के कोफाउंडर नारायण मूर्ती ने कहा था कि युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए. लम्बे वर्क आवर से प्रोडक्टिविटी बढ़ती नहीं घट जाती है. श्रम कानूनों का उल्लंघन न होने देना सरकार की जिम्मेदारी है. सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि वर्कर्स को हफ्ते में 48 घंटे की कानूनी सीमा से ज्यादा काम के लिए मजबूर न किया जाए.”

सुब्रह्मण्यम के बयान पर बड़ी आपत्ति महिलाएं भी जता रही हैं क्योंकि एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने वक्तव्य में कहा कि आप घर में बैठ कर कितनी देर अपनी पत्नी को निहारेंगे?

शशि कहती हैं, “घर पर कौन सा पति दिन भर पत्नी को निहारता है? एक संडे का दिन हमें मिलता है साथ रहने का. बच्चे भी पिता का साथ चाहते हैं. पूरे हफ्ते इंतज़ार करते हैं. मैं अपने कुछ कामों में उन की हेल्प चाहती हूं. कभी रिश्तेदारी में जाना होता है. कभी डाक्टर के पास किसी जांच के लिए जाना होता है. हमारे रिश्तेदार भी संडे के दिन ही मिलने आते हैं. अब संडे भी औफिस बुला लो तो फिर घरपरिवार की जरूरत क्या है? इन को वहीं रख लो औफिस में. सुब्रह्मण्यम साहब की पत्नी उन को भाव न देती होंगी इसलिए वे अपना संडे भी औफिस में बिताते हैं. सब की पत्नियां उन की पत्नी की तरह थोड़ी हैं.”

वर्क लाइफ बैलेंस को ले कर छिड़ी बहस के बीच उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने भी अपनी राय रखी है. विकसित भारत यंग लीडर्स डायलोग 2025 कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, “मेरी पत्नी वंडरफुल है, मुझे उसे निहारना अच्छा लगता है.”

आनंद महिंद्रा ने कहा कि वह काम के घंटों की जगह काम की गुणवत्ता में विश्वास करते हैं. यही नहीं, इंटरनेट मीडिया पर बहुत एक्टिव रहने से जुड़े एक सवाल पर उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, “मैं उस प्लेटफौर्म पर इतना एक्टिव हूं तो इस का मतलब यह नहीं कि मैं अकेला हूं. इंटरनेट मीडिया अमेजिंग बिज़नेस टूल है. मुझे इस पर 11 मिलियन लोगों का फीडबैक प्राप्त होता है. मैं घर और औफिस के कामों में बैलेंस रखता हूं. मेरी पत्नी बहुत प्यारी है, मुझे उसे निहारते रहना अच्छा लगता है.”

आनंद महिंद्रा ने कहा कि मौजूदा बहस गलत है, क्योंकि यह काम घंटों पर जोर देती है. उन्होंने युवाओं से कहा, “मैं नारायण मूर्ति और अन्य लोगों का बहुत सम्मान करता हूं. इसलिए मैं इसे गलत नहीं समझूंगा, लेकिन मुझे लगता है कि यह बहस गलत दिशा में जा रही है. मेरा मानना है कि हमें काम की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए, काम के घंटों पर नहीं. इसलिए यह 40, 70 या 90 घंटे की बात नहीं है. यह काम के आउटपुट पर निर्भर करता है. अगर 10 घंटे काम कर के अच्छा आउटपुट दे रहे हैं तो आप दुनिया बदल सकते हैं. मेरा मानना है कि किसी कंपनी में ऐसे लीडर होने चाहिए जो समझदारी से निर्णय लें, समझदारी से चुनाव करें.”

परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने की जरूरत पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि अगर आप घर पर समय नहीं बिता रहे हैं, अगर आप दोस्तों के साथ समय नहीं बिता रहे हैं, अगर आप पढ़ नहीं रहे हैं, अगर आप के पास सोचनेसमझने का समय नहीं है, तो आप फैसला लेने में सही इनपुट कैसे लाएंगे? एक व्यक्ति तभी बेहतर निर्णय ले सकता है जब उस की जिंदगी का संतुलन सही हो.

बता दें कि अभी कुछ वक्त पहले इनफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ती ने भी सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी. उन के बाद लार्सन एंड टूब्रो (एलएंडटी) के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करने का सुझाव देते हुए कहा कि पत्नी को कितना निहारोगे? रविवार को भी काम करो.

गौरतलब है कि वर्क लाइफ बैलेंस पर यह बहस ऐसे समय छिड़ी है जब कई देशों में 4 दिन के वर्क वीक का प्रयोग चल रहा है. ओयो के सह संस्थापक और सीईओ रितेश अग्रवाल का कहना है कि काम के घंटों की अवधारणा सही नहीं है. उन्होंने कहा, “काम के लिए सही अवधारणा यह है कि आप को पूरे मन से काम करना चाहिए. हर कोई विकसित भारत मिशन के लिए पूरे मन से काम कर रहा है. कुछ लोग दिन में केवल 4 घंटे में प्रोडक्टिव हो सकते हैं, जबकि कुछ लोगों को 8 घंटे लग सकते हैं. हर किसी का काम करने का अपना तरीका और रास्ता हो सकता है.”

यह सच है कि भारत में प्रोडक्टिविटी अन्य देशों के मुकाबले कम है मगर यहां वर्कर्स का वेतन भी बहुत कम है. दूसरी तरफ सरकारी महकमों ने काम न करने की ऐसी मानसिकता फैला रखी है कि लोग आलसी और कामचोर ज्यादा हो गए हैं. वे अपने आराम के आगे देश के विकास की बात सोच ही नहीं पाते. ऐसे में जब नारायण मूर्ति या सुब्रह्मण्यम जैसे लोग काम के घंटे बढ़ाने की बात करते हैं तो आलोचना का बाजार गर्म हो जाता है.

दरअसल चीजें प्राइवेट और सरकारी दोनों जगहों पर समान रूप में लागू किए जाने की आवश्यकता है. देश के विकास में दोनों ही सेक्टर महत्वपूर्ण हैं. प्राइवेट सेक्टर वालों का खून चूस लो और सरकारी महकमे के लोग अय्याशियां करते रहें, इस से देश का विकास नहीं होगा.

प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए वर्कर्स में उत्साह जागृत करने की जरूरत है. उत्साह तभी जागृत होगा जब वेतन बढ़िया होगा. इस के लिए कामकाजी माहौल भी बेहतर होने चाहिए. वर्कर्स की स्किल बढ़ाने के लिए तकनीक में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है. अच्छी मशीनरी लगाईं जाए. मौसम के हिसाब से वर्क फ्लोर पर सुविधाएं हों, जो कई देशों में होती हैं. वर्क एनवायरनमेंट बेहतर होगा तो 90 घंटे का काम कम समय में भी हो सकता है और उस की क्वालिटी भी अच्छी होगी.

चीन में हफ्ते में 40 घंटे काम का समय तय है. लेबर लौ औफ चाइना के अनुसार, चीन के लोग रोजाना 8 घंटे और सप्ताह में 40 घंटे काम करते हैं. यहां के लोग सप्ताह में 5 दिन ही काम करते हैं. इसलिए पूरे सप्ताह में यहां के लोग 40 घंटे ही काम करते हैं. हालांकि, चीन के विशेष क्षेत्रों में 996 वर्क कल्चर भी प्रभावी है. इस का मतलब यह है कि टैक्नोलौजी और वित्त क्षेत्र में कर्मचारियों से सप्ताह में 6 दिन, सुबह 9 से रात 9 बजे तक काम लिया जाता है, लेकिन यह सप्ताह में 72 घंटे ही होता है. हालांकि, चीन की सरकार ने हाल के वर्षों में 996 वर्क कल्चर और अनियमित कामकाजी घंटे को नियंत्रित करने के लिए कदम भी उठाए हैं.

चीन में सप्ताह में 40 घंटे का कामकाजी समय संतुलित और कुशलता से कार्य को बढ़ावा देता है. कर्मचारियों को आराम का समय मिलता है, जिस से उन की उत्पादकता में बढ़ोतरी होती है. नियमित कामकाजी घंटे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करते हैं. तनाव और बर्नआउट कम होता है. लंबे घंटों यानी 996 वर्क कल्चर के विपरीत 40 घंटे की सीमा कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाती है.

जापान में भी श्रम मानक अधिनियम लागू है. इस का मकसद, काम करने की ऐसी स्थितियां सुनिश्चित करना है जो श्रमिकों की जरूरतों को पूरा करें. जापान में, एक सामान्य कार्य सप्ताह में प्रतिदिन 8 घंटे और पूर्णकालिक कर्मचारियों के लिए प्रति सप्ताह 40 घंटे के वैधानिक कार्य घंटे हैं. ओवरटाइम की सीमा महीने में 45 घंटे और साल में 360 घंटे है. इन सीमाओं का उल्लंघन करने पर कंपनी को जुर्माना और जेल हो सकती है.

जापान में श्रम मानक कानून के तहत मजदूरी और अन्य प्राथमिक कार्य स्थितियों के लिए न्यूनतम मानक तय किए गए हैं. जापान में कर्मचारियों को कई तरह के अवैतनिक अवकाश भी मिलते हैं, जैसे कि मातृत्व अवकाश, शिशु देखभाल अवकाश, परिवार देखभाल अवकाश और नर्सिंग अवकाश. जापान में, नियोक्ता को कर्मचारियों के साथ ईमानदारी से परामर्श करना होता है. जापान में, नियोक्ता को कर्मचारियों के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना मना है.

अमेरिका में तो परिवार और चिकित्सा अवकाश अधिनियम (एफएमएलए) 50 या उस से ज्यादा कर्मचारियों वाले नियोक्ताओं को कर्मचारियों को सालाना 12 हफ्ते तक का अवैतनिक अवकाश देने की बाध्यता देता है.

भारत में सरकारी कर्मचारियों और प्राइवेट कर्मचारियों के काम के घंटे, काम के तरीके और आउटपुट में जमीन आसमान का अंतर है. सरकारी कर्मचारी जहां 7 – 8 घंटे की ड्यूटी में आधा वक़्त गप्पे मारने, घूमने, खाने और चाय पीने में व्यतीत करते हैं वहीं प्राइवेट जौब वाला 9 – 10 घंटे अपनी सीट पर बैठ कर भी कभीकभी अच्छा आउटपुट नहीं दे पाता क्योंकि वह थक चुका होता है. जब किसी मजबूरीवश वह ऐसी नौकरी में आता है जहां काम के घंटे बहुत अधिक हैं और वेतन कम है तो उस के लिए ऐसी नौकरी एक उबाऊ चीज हो जाती है. आप उस को 10 की जगह 14 घंटे बिठा लीजिए, आउटपुट जीरो ही रहेगा.

इस के विपरीत यदि नौकरी पसंद की हो, उत्साहित करने वाली हो, वेतन ज्यादा हो, नियोक्ता अपने कर्मचारी के ओवरटाइम और अवकाश का ख्याल रखता हो, वहां कर्मचारी चाहे 4 घंटे काम करे या 10 घंटे, उस का आउटपुट बहुत अच्छा होगा. वह कम समय में भी अच्छा रिजल्ट देगा.

इस बात पर भी चिंतन जरूरी है कि कोई भी व्यक्ति नौकरी इसलिए करता है ताकि वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके और उन के साथ जिंदगी को एंजोय कर सके. उस के लिए परिवार प्रथम है. यदि उस से हफ्ते के सातों दिन काम करवाया जाए और उस को अपने परिवार के साथ हंसनेबोलने, घूमनेफिरने का वक़्त ही न मिले तो ऐसा काम न सिर्फ उस के लिए भार बन जाएगा, उस काम में उस का इंटरेस्ट ख़त्म हो जाएगा, उस का आउटपुट बेकार होगा, बल्कि उस की सेहत भी खराब होती चली जाएगी. वह डिप्रेशन, तनाव और बीपी का मरीज बन जाएगा.

विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि वयस्कों को रात में 7 से 9 घंटे सोना चाहिए. जो वयस्क रात में 7 घंटे से कम सोते हैं, उन में 7 या उस से अधिक घंटे सोने वालों की तुलना में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक होती हैं. वह समय से पहले बूढ़ा हो जाता है. उस की कार्यक्षमता घट जाती है. यदि वह अपनी समस्याएं और अपने काम के तनाव को किसी के साथ शेयर नहीं कर पाता, तो जल्दी ही उस का मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाएगा. ऐसे व्यक्ति से अच्छे काम की उम्मीद करना ही व्यर्थ है.

दुनिया भर में औसतन वीकली वर्क औवर 40-50 घंटे के बीच हैं. कई देशों में तो हफ़्ते में सिर्फ 4 दिन ही काम लिया जाता है. भारत में भी मजदूरों और दफ्तरों में वर्कर्स के लिए श्रम कानून के तहत काम के घंटे तय हैं. अधिनियम के अनुसार, 6 दिनों में प्रति सप्ताह अधिकतम 48 घंटे काम करना अनिवार्य है, तथा किसी भी कर्मचारी को प्रतिदिन 9 घंटे या सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम करने की अनुमति नहीं है.

कारखाना अधिनियम, 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम (एसईए) के मुताबिक, मजदूरों को रोजाना 9 घंटे या हफ्ते में 48 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता. इस में एक घंटे का आराम या भोजन अवकाश शामिल है. अगर कोई मजदूर सामान्य काम के घंटों से ज्यादा काम करता है, तो उसे ओवरटाइम वेतन का हक मिलता है. नाबालिग मजदूरों को रोजाना साढ़े 4 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता. नाबालिग मजदूरों को रात में काम करने की अनुमति नहीं है. लड़कियों को सिर्फ़ सुबह 8 बजे से शाम 7 बजे के बीच काम करने की अनुमति है.

भारत में काम के घंटों को ले कर कई कानून हैं, जिन में से एक न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 भी है. इस अधिनियम के तहत, कामकाजी हफ़्ते को 40 घंटे या रोजाना 9 घंटे तक सीमित किया गया है.

दफ्तरों में वर्कर्स के लिए काम के घंटे को ले कर कई कानून हैं. न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 के मुताबिक, कामकाजी सप्ताह 40 घंटे या प्रतिदिन 9 घंटे तक सीमित है. कारखाना अधिनियम 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम (एसआई) के मुताबिक, काम के लिए हर दिन 9 घंटे और हर सप्ताह 48 घंटे का समय तय है.

श्रम संहिता-2020 के तहत, काम के घंटों को बढ़ा कर प्रतिदिन 12 करने का प्रावधान है, लेकिन सप्ताह में यह अधिकतम घंटे 48 तक सीमित रहे. अगर कोई कर्मचारी अपने तय वक्त से ज्यादा काम करता है, तो उसे ओवरटाइम का पैसा मिलना चाहिए. ओवरटाइम वेतन की गणना सामान्य मजदूरी की नियमित दर से दोगुनी दर पर कराई जाती है. हर 5 घंटे काम के बाद 30 मिनट का ब्रेक देना होगा.

भारत में श्रम कानूनों, श्रमिकों के वेतन, निवेश, तकनीक और सुविधा आदि पर गहन मंथन की जरूरत है. सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में जो जमीन आसमान का अंतर है उस में कोई बीच का रास्ता तलाश करना होगा. एक व्यक्ति हफ्ते में 48 घंटे काम करे और दूसरा व्यक्ति 90 घंटे काम करे तो ऐसी व्यवस्था में तो समाज और देश में तनाव ही बढ़ेगा.

Hindi Story : भाभी! आप ना मत कहना

Hindi Story : चाय की ट्रे हाथों में थामें समीरा ने कमरे में जैसे ही प्रवेश किया उसकी नज़रें सुवित से मिलीं जिसे देखते ही धड़कनें बेतहाशा धड़कने लगीं. एक क्षण के लिए दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया. नीरजा ने कहा था कि उसके ब्वॉयफ्रेंड से मिलकर होश उड़ जाएंगे मगर यह सब सचमुच होगा इस बात का ज़रा भी इल्म न था.

“मेरे होश उड़ाने वाला शख़्स इस संसार से कूच कर चुका है” उस वक़्त उसे ख़ामोश कर दिया था मगर उसका अतीत इस तरह से सामने आ टपकेगा ये कहाँ जानती थी. फटाफट रसोई में आ गई. कहीं उसके चेहरे की सफ़ेदी उसका हाल-ए-दिल बयां न कर दे.

सुवित नीरजा का रिश्ता लेकर आया था. इस बात पर पूरा परिवार बहुत खुश था. एनआरआई डॉक्टर स्वयं चलकर घर तक आया था. बिना किसी दान-दहेज़ की मांग के सामने से आया रिश्ता भला कौन छोड़ता. परिवार में बस दो भाई हैं सुवित और सक्षम. नीरजा व सक्षम फैशन टेक्नोलॉजी कर एक ही ऑफिस में साथ काम कर रहे हैं.

नीरजा ने सुबह ऑफिस जाने के पहले बस इतना ही बताया कि लड़के वाले रिश्ता लेकर आएंगे और अब दोनों ही परिवार आमने-सामने थे. जब सबको रिश्ता इतना ही पसंद था तो तय तो होना ही था इसमें समीरा भला क्या कर लेती मगर सुवित इस घर का दामाद बना तो वह अपने दिल को कैसे संभालेगी यही सब सोचती कचौरियाँ तले जा रही थी कि सुवित की आवाज़ ने चौंका दिया.

“वाशरूम किधर है?”

“इस ओर…… ”

“जाना किसे है.. तुमसे बात करनी है…तुम कैसी हो?”

“ये सही वक़्त नहीं….. ”

“सही वक़्त तो कभी न था तुम्हारे पास…. तब मायके में कचौरियाँ तलती थीं अब यहाँ……. ”

“कहना क्या चाहते हो?”

“शादी करना चाहता हूँ…”

“विधवा से?”

“अपने प्यार से…”

“और नीरजा का क्या होगा?”

“तुम अब भी वही हो…बिना जाने समझे कुछ भी सोच लेने की आदत गई नहीं….!”

हाँ वह पहले भी सुवित को अपनी सहेली के साथ बातें करते देख गलतफहमी का शिकार हो गई थी जबकि दोनो उसके जन्मदिन की पार्टी प्लान कर रहे थे. वह वाक़या याद आते ही सकुचा गई तो समीर आगे बढ़ा.

“बेवकूफ! वो मेरे छोटे भाई ‘सक्षम’ की गर्लफ्रैंड है…हम नीरजा के लिए सक्षम का रिश्ता लेकर आये हैं।”

“ओह!”

समीरा को गुलाबी पड़ते देख समीर की शरारत जाग गई.

“वैसे लगे हाथ अपनी बात भी कर लें…”

यह सुनते ही उसके कपोल गर्म हो गए. घबड़ा कर इधर-उधर देखने लगी. क्या कहती.. उसके पास कहने -सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया था. आदित्य के जाने के बाद उसने खुद को ससुरालवालों की सेवा में झोंक दिया था. रात दिन बस यही सोचती कि भले ही उसने अपना पति खोया पर उन्होंने अपना बेटा और नीरजा ने भाई खोया है. आदित्य से जुड़े लोग और उनके प्रति फ़र्ज़ ही मानो उसके जीने का मक़सद बन गए थे. सुबह शाम नीरजा की भाई बन जाती और उसके ऑफिस जाने के बाद सास ससुर का बेटा. वह भी नीरजा पर खूब स्नेह लुटाते. उसे कभी नाम से नहीं बल्कि बेटा ही कहकर पुकारते. कहना अतिशयोक्ति न होगी समीरा अपने ससुराल की ही होकर रह गई थी कि उसकी तपस्या भंग करने सुवित आ पहुँचा. उसे इस गुस्ताख़ी से बात करते देख जैसे जम गई हो. उसकी मन: स्थिति महसूस कर सुवित वापस लिविंग रूम में आकर बैठ गया.

“आपकी बेटी नीरजा लाखों में एक है..सक्षम और वह एक-दूसरे से प्यार करते हैं…एक- दूसरे को अच्छी तरह जानते- समझते हैं पर यहाँ मैं आपकी बहू समीरा के लिए अपने बड़े बेटे ‘सुवित’ का रिश्ता लेकर आया हूँ. मैं पहले समीरा के घर गया था पर उन लोगों का कहना है कि समीरा के जीवन के सभी फैसले उसके ससुराल वालों पर निर्भर करते हैं. उसने बड़े दुःख देखे हैं, शादी के एक वर्ष के भीतर ही कार एक्सीडेंट में पति को खोने के बाद स्वयं को सबसे दूर कर लिया है. जबकि उसकी उम्र ही क्या है? अगर आपकी व समीरा की ‘हाँ’ है तो एक ही मंडप में दोनों शादियाँ निपटा लें? आप इस विषय में क्या सोचते हैं? मैं आपके जवाब की प्रतीक्षा करूँगा.” सुवित के पिताजी यह कह कर चले गए।

समीरा कहाँ तैयार थी? शादी उसके लिए जितना ही सुखद था उतना ही दुखद भी. बस ननद नीरजा ने ही उसे संभाला था. जाने क्या था ननद में कि उसमें उसकी जान बसती थी. तुरंत उसे फ़ोन मिलाया. जबकि वह लगातार हँसे जा रही थी.

“भाभी जान! देखा! होश ग़ुम हो गए न मिलकर? हम साथ- साथ हैं..साथ जियेंगे-साथ मरेंगे!” समीरा को छेड़ते हुए बोली.

“अच्छा.. ये सब आपको पता था तो पहले क्यों न बताया?”

“कम ऑन भाभी..पहले बताती तो क्या आप सुवित भैया को घर बुलाते? आप सभी के इंकार शुरू हो जाते. घरवालों से भी सारे डिटेल्स इसलिए ही छुपाए.

सुवित भैया और आप एक -दूसरे को जानते हैं,ये बात सक्षम ने ही मुझे बताया. जब सुवित भाई ने मेरे फ़ेसबुक पर हम दोनों की साथ की फोटोज देखीं तो उन्होंने पूरी कहानी सक्षम को बताई कि आपकी मर्ज़ी जाने बिना आपकी शादी कर दी गई तो वह भी USMLE देकर अमेरिका में सेटल हो गए मगर दूरियाँ भी दूरियाँ न ला सकीं. आपके लिए उनकी चाहत अभी भी वैसे ही बरक़रार है यह जानने के बाद ही हमने यह योजना बनाई. सक्षम की बात सुनते ही वह फ़ौरन इंडिया आ गए. आपकी मर्ज़ी जाने बिना रिश्ता करना उन्हें मुनासिब नहीं लगा. अब तो सारे शंकाओं का समाधान हो गया न भाभी! अब प्लीज़ आप न मत कहना!”

समीरा निशब्द थी. उसकी ननद,उसकी सच्ची सहेली बन गई थी और सास -ससुर माता-पिता. उन्होंने भी इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि उनके बाद समीरा अकेली न पड़ जाए यही चिंता उन्हें भी खाए जा रही थी.

फिर क्या था? शुभ मुहूर्त देख कर दोनों जोड़े ब्याहे गए. ससुर के हाथों कन्यादान होता देख सबकी आँखे भर आईं. एक और हाथ आशीर्वाद दे रहे थे जिसे बस समीरा महसूस कर रही थी और मन ही मन आदित्य को धन्यवाद दे रही थी.

लेखिका – आर्या झा 

Hindi Story : हवस

Hindi Story : कार्तिक पूरी तरह से टूट चुका था. हवस की आग ने उसे जला दिया था. अब उस की जिंदगी के अगले कई साल जेल की सलाखों के पीछे गुजरेंगे. हवस की इस आग में उस के सपने, मांबाप के अरमान सब भस्म हो गए. उस का दिल बारबार बस यही सोचता कि काश, वह अपने मन को हवस के दलदल में न फंसने देता और अपनी पढ़ाईलिखाई पर ध्यान देता…

6 महीने पहले की ही तो बात है. कल्पना गुमला से रांची आई थी. कार्तिक की उस से कालेज में जानपहचान हुई थी जो धीरेधीरे दोस्ती में बदल गई थी.

कार्तिक कल्पना के साथ कभी फिल्म देखने जाता तो कभी पार्क में घूमने. कल्पना हर बात में, हर काम में उस का साथ देती थी.

गांव से आई कल्पना भोलीभाली लड़की थी. कार्तिक उस की हर इच्छा पूरी करता था. मोटरसाइकिल से घुमाना, सिनेमा दिखाना, होटल में खिलाना, गिफ्ट देना सबकुछ, पर उस के मन में कभी भी कल्पना के प्रति प्यार नहीं था. वह तो उस के गदराए बदन का मजा लेना चाहता था. पर शायद कल्पना इसे प्यार समझने लगी थी.

जब कार्तिक को लगा कि कल्पना उस के प्रेमजाल में फंस चुकी है तो उस ने धीरेधीरे अपने पर फैलाने शुरू किए. पहले हाथों से छूना, फिर चूमना, गले लगाना और धीरेधीरे सबकुछ. यहां तक कि पार्क के कोने में उस ने कल्पना के साथ हर तरह का शारीरिक सुख भोग लिया था. इसी तरह कभी सिनेमाघर में, तो कभी किसी होटल में वह अपनी ख्वाहिश को पूरा करता रहता था.

कार्तिक कल्पना के शरीर के बदले उस पर खर्च करता था और उस की नजर में हिसाब बराबर हो रहा था. पर कल्पना की बात अलग थी. वह कार्तिक को अपना प्रेमी मानती थी और उस से शादी करना चाहती थी.

एक बार कल्पना को महसूस हुआ कि कार्तिक के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाने से वह पेट से हो गई है. उस ने उसे बताया था, ‘कार्तिक, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

यह सुन कर कार्तिक चौंका था, पर जल्दी ही सहज हो कर उस ने कहा था, ‘अभी हम दोनों को पढ़ाई पूरी करनी है. किसी लेडी डाक्टर से मिल कर इस समस्या से छुटकारा पा लेते हैं.’

‘मुझे कोई एतराज नहीं, पर आगे चल कर हमें शादी करनी ही है तो अगर हम अभी शादी कर बच्चे को आने दें तो इस में क्या हर्ज है?’ कल्पना ने प्रस्ताव रखा था.

‘शादी…’ कार्तिक चौंका था, पर यह सोच कर कि कहीं कल्पना का शरीर दोबारा न मिले इसलिए बोला था, ‘अभी पढ़ाई, फिर कैरियर, उस के बाद शादी.’

कल्पना ने इसे शादी की रजामंदी मान कर लेडी डाक्टर से मिल कर बच्चा गिरवा दिया था. कार्तिक और कल्पना पहले की तरह मजे से रहने लगे थे. पर अब कार्तिक सावधान था. बच्चा न ठहरे, इस के लिए वह उपाय कर लेता था.

इसी बीच कल्पना को भनक लग गई कि कार्तिक उस से नहीं बल्कि उस के शरीर से प्यार करता है. उस की शादी की बात कहीं और चल रही है. उस ने फोन कर कार्तिक को रेलवे स्टेशन बुलाया.

रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर एक सुनसान जगह थी जहां वे पहले भी कई बार मिले थे. कार्तिक ने वहां झाडि़यों के पीछे उस के साथ जिस्मानी रिश्ते भी बनाए थे. कार्तिक मन में जिस्मानी सुख पाने की उमंग लिए वहां जा पहुंचा.

कल्पना के चेहरे पर तनाव देख कर वह हंस कर बोला, ‘क्या हुआ, फिर लेडी डाक्टर के पास चलना पड़ेगा क्या? पर अब तो हम काफी संभल कर चल रहे हैं.’

‘सीरियस हो जाओ कार्तिक. तुम मुझ से शादी करोगे न?’ कल्पना ने उदास हो कर पूछा था.

‘पागल हो रही हो. अभी शादी की बात कैसे सोच सकते हैं हम?’ कार्तिक जोश में आ कर बोला था.

कहां वह जिस्मानी मजा लेने की बात सोच कर आया था, कहां कल्पना उसे दूसरी बातों में उलझाए हुए थी.

‘मैं अभी की बात नहीं कर रही…4 साल बाद ही सही, पर शादी तुम मुझ से ही करोगे. मैं ने तुम्हें अपना सबकुछ इसीलिए सौंपा है,’ कल्पना बोली थी.

‘दोस्ती अलग चीज है, शादी अलग चीज है. मैं तुम्हारी दोस्ती की कीमत अदा करता रहा हूं. शादी की बात तो सोचो ही मत,’ कार्तिक ने बेरुखी से कहा था. उस का मन उचाट हो आया था. सारा जोश जाता रहा था.

‘मैं अपना सबकुछ तुम्हें तुम्हारी कीमत के चलते नहीं प्यार के चलते सौंपती रही, लेकिन मुझे नहीं पता था कि तुम मेरे प्यार को पैसे से तोल रहे हो. पर अगर तुम प्यार को पैसे से खरीद रहे थे तो मैं भी अपने प्यार को ताकत के बल पर पा लूंगी. मेरे चाचा और मामा नक्सली हैं. जब चाहें तुम्हें और तुम्हारे परिवार को मिटा सकते हैं,’ कहते हुए कल्पना को गुस्सा आ गया था.

कार्तिक कल्पना की बात सुन कर डर गया था. वह जानता था कि कल्पना जहां से आई है, वहां नक्सलियों का अड्डा है. वह आएदिन नक्सली वारदातों की खबरें अखबार में पढ़ता था.

कुछ दिन पहले ही कार्तिक के परिवार वालों ने किसी लड़की से उस की शादी की बात भी चला रखी थी. उसे लगा, अगर कल्पना जिंदा रहेगी तो रंग में भंग डालेगी. उस ने झपट कर कल्पना की गरदन पकड़ ली और उस पर तब तक दबाव बनाता गया जब तक कि उस ने शरीर ढीला नहीं छोड़ दिया.

कार्तिक को अभी भी यकीन नहीं हुआ कि कल्पना ने दम तोड़ दिया है तो उस ने अपनी बैल्ट से फिर उस का गला दबा दिया व चुपचाप अपने घर आ गया.

कार्तिक मन ही मन घबराया हुआ था पर जिस जगह पर उस ने कल्पना की लाश छोड़ी थी उधर किसी का आनाजाना न के बराबर होता था. कौएकुत्ते उसे नोंच कर खा जाएंगे यही सोच कर वह अपने मन को संतोष देता था. पर 2 दिनों के बाद एकाएक पुलिस ने उसे दबोच लिया. शायद किसी ने लाश की सूचना पुलिस को दे दी थी और पुलिस उस तक पहुंच गई.

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