मोदी और अडानी की दोस्ती जगजाहिर है। इस दोस्ती में फायदा एक को दिया जाता है मगर रेवङियां बहुतों में बंटती हैं। किसी ने सच ही कहा है कि नादान की दोस्ती जी का जंजाल बन जाती है और यही गौतम अडानी और नरेंद्र मोदी की दोस्ती के मामले में लग रहा है…
अब गौतम अडानी क्या करेंगे, यह सवाल हर किसी के जेहन में है लेकिन साथ में यह आस और एहसास भी है कि उन का कुछ नहीं बिगड़ने वाला क्योंकि उन और उन जैसे धन कुबेरों के साथ अदृश्य भगवान और उस की कृपा तो हमेशा रहती ही है और यहां धरती पर तो न केवल नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप बल्कि एक हद तक अमेरिकी कानून भी उन के साथ है जो ऐसे मामलों में सेटलमैंट, समझौते या निबटान की व्यवस्था करता है. क्या है यह अमेरिकी कानून और कैसे अडानी का मददगार साबित हो सकता है? उस से पहले बहुत थोड़े से में यह समझ लें कि दरअसल में हंगामा क्यों बरपा है.
बीते 20 नवंबर, 2024 को अमेरिका से एक सनसनाती खबर आई कि भारत के अडानी ग्रुप ने भारत सरकार के कई अधिकारियों को कोई ₹25 करोड़ डौलर की घूस देने की योजना को अंजाम दिया। यहां एक मामूली सा सवाल यह उठ खड़ा होता है कि जब कंपनी भी भारत की और रिश्वतखोर भी देसी तो अमेरिका का इस में क्या रोल? इस सवाल का जवाव यह है कि दरअसल में इस रिश्वत का पैसा अमेरिकी लोगों यानी निवेशकों से धोखाधडी से इकट्ठा किया गया था जिस के लिए प्रतिभूतियां और वायर धोखाधङी करने की साजिश रची गई। इस बारे में पूर्वी न्यूयार्क जिले में स्थित अमेरिकी अटार्नी कार्यालय ने एक प्रैस नोट जारी करते आरोप लगाया था कि इस अनूठे घपले में भारतीय सरकारी अधिकारियों को 250 मिलियन डौलर की रिश्वत देने और अरबों डौलर जुटाने के लिए निवेशकों और बैंकों से झूठ बोलने और न्याय में बाधा डालने की योजना बनाई गई जिस के चलते सौर टैंडर अडानी ग्रीन ऐनर्जी और एक और कंपनी एज्योर को दिया गया.
अधिकारियों से शिकायत
अमेरिका की एक कंपनी ट्रिनी ऐनर्जी ने अमेरिकी अधिकारियों से शिकायत की थी कि अडानी ग्रीन के अधिकारियों ने कथित तौर पर ओडिशा, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और जम्मू कश्मीर सहित दूसरे कई राज्यों के सरकारी अधिकारियों को रिश्वत दी ताकि उन की बिजली वितरण कंपनियों पर बाजार दर से ऊपर सौर उर्जा खरीदने के लिए राजी करने का दबाब बनाया जा सके। यह रिश्वत भारतीय मुद्रा में लगभग ₹2,200 करोड़ होती है. जिस सौर उर्जा के अनुबंध के लिए यह घूस दी गई उस से 20 सालों में तकरीबन ₹16,895 करोड़ का मुनाफा होना संभावित था.
चूंकि वहैसियत निवेशक यह मामला अमेरिकी लोगों के हितों से जुड़ा हुआ था इसलिए अमेरिकी कानूनों के तहत वहीं की अदालतों के न्याय क्षेत्र में आता है. इन कानूनों के मुताबिक अगर अमेरिकी नागरिक और अमेरिकी कंपनियां दुनिया में कहीं भी निवेश कर रही हैं और इस में उन के आर्थिक हितों का नुकसान होता है या कोई भी गड़बड़झाला पाया जाता है तो मुकदमा अमेरिकी अदालतों में ही चलेगा. यह कानून है एफसीपीए जिस का पूरा नाम है विदेशी भ्रष्ट आचरण अधिनियम जो 1977 में बना था. इस कानून का एक खास मकसद विदेशी अधिकारियों की घूसखोरी को रोकना भी है। हालांकि यह अमेरिकी कंपनियों पर भी लागू होता है। इस ऐक्ट के चक्रव्यूह में कई विदेशी कंपनियां फंस चुकी हैं जिन में से एक प्रमुख और लोकप्रिय हैं जरमनी की सीमेंस जिस का कारोबार दुनियाभर में फैला हुआ है.
गिरफ्तारी वारंट
इसलिए अमेरिका के न्यूयार्क फैडरल कोर्ट ने किसी किस्म का लिहाज न करते हुए गौतम अडानी और उन के 8 और सहयोगियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया. इन नामों में उन के भतीजे सागर अडानी का नाम भी शुमार है। यह मामला 24 अक्तूबर, 2024 को दर्ज हुआ था।
54 पृष्ठों के इस अभियोजन में 139 बिंदु हैं. इन की प्रस्तावना से ही साफ हो जाता है कि मामला यों ही हंसीमजाक में टलने वाला नहीं है और 3-4 साल तो आराम से खिंच जाएगा तब तक डोनाल्ड ट्रंप दूसरी बार राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके होंगे और अमेरिकी जज उन की मंशा के खिलाफ जाने की जुर्रत करेंगे, ऐसा सोचने की भी कोई वजह नहीं.
अमेरिकी अभियोजकों की मानें तो अडानी की कंपनी को पिछले दिनों केंद्र सरकार की कंपनी सोलर ऐनर्जी कौरपोरेशन औफ इंडिया यानी सेकी से 12 हजार मेगावाट सौर उर्जा देने का अनुबंध मिला है. लेकिन दिक्कत यह थी कि सेकी को भारत में खरीददार नहीं मिल रहे थे. ऐसे में उक्त रिश्वत की भारीभरकम राशि भारत के विभिन्न राज्यों के नेताओं और अफसरों को दी गई ताकि वे महंगे दामों में यह सौर उर्जा खरीद लें. घूस की मेहरबानी से ऐसा हुआ भी और आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ बिजली खरीदने को तैयार भी हो गए और अनुबंध भी कर लिया.
अडानी को नुकसान
इस सिलसिले में गौतम अडानी घोषित तौर पर जिन खास नेताओं से मिले उन में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी का नाम प्रमुख है. फिर जो घालमेल शुरू हुआ वह महाभारत के चक्रव्यूह सरीखा है.
इस चक्रव्यूह में आखिर में जनता ही फंसी और आगे भी फंसती अगर इस का खुलासा न हुआ होता. खुलासे से तात्कालिक रूप से अडानी को नुकसान हुआ और उन की कंपनियों के शेयर के भाव 23 फीसदी तक गिरे और केन्या ने अडानी समूह के साथ हुआ ₹73 करोड़ का करार तोड़ लिया. इस की घोषणा बाकायदा केन्या के राष्ट्रपति विलियम रुतो ने राष्ट्र के नाम संबोधन में कर एक मिसाल कायम कर दी कि हम ऐसे घूसखोर बेईमानों से कोई डील नहीं करेंगे. लेकिन अडानी के देश में किसी के कान पर जूं भी नही रेंगी उलटे भक्त लोग उन के बचाव में तर्क ढूंढ़ते नजर आए.
ऐसे और कई नुकसान अडानी को हुए लेकिन इस से उन की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ना क्योंकि ऐसा हिंडनबर्ग खुलासे के वक्त भी हुआ था. हलका सा लड़खड़ाने के बाद अडानी ग्रुप सरपट दौड़ने लगा था. समुद्र से कुछ लोटे पानी निकल जाने से उस की जलराशि पर कोई फर्क नहीं पड़ता और यह अभी भी हो रहा है. अडानी नाम के आर्थिक समुद्र की हिफाजत के लिए भारत सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कितने गंभीर और प्रतिबद्ध हैं यह 2014 से हरकोई देख रहा है.
अब गौतम अडानी आगे की सोच रहे हैं. नामी वकीलों और कानूनविदों की फौज चक्रव्यूह भेदने के रास्ते खोजने में दिनरात जुटी है. रास्ता मिलता दिख भी रहा है जिस के लिए सटीक नाम बजाय समझौते या सेटलमैंट का निबटान है.
अफसोस की बात तो यह है…
अमेरिका के विदेशी भ्रष्ट आचरण अधिनयम में रिश्वत मामलों के निबटान की व्यवस्था है जबकि भारत में ऐसा नहीं है. बेईमानी के या गलत कामों की स्वीकृति के नफानुकसान अपनी जगह हैं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि अभी तक किसी ने खासतौर से विपक्ष ने सरकार पर हमलावर रवैया और जांच की जोरदार मांग नहीं उठाई है कि सरकार कम से कम उन लोगों की धरपकङ तो करे जिन्होंने अडानी से घूस ली.
राहुल गांधी उम्मीद के मुताबिक हल्ला मचाने और नरेंद्र मोदी को घेरने में कामयाब जरूर रहे लेकिन आंशिक तौर पर, क्योंकि न तो उन के साथ मुख्यधारा वाले ‘जागरूक’ सवर्ण थे न ही उन की अगुवाई करने वाला मीडिया था जिस के लिए बागेश्वर बाबा की हिंदू राष्ट्र की मांग करती भगवायात्रा टीआरपी बढ़ाने वाली खबर थी.
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी नतीजों का पूर्वानुमान उस के लिए मुनाफे वाला था जिस में कुछ छुटभैये स्वयंभू विशेषज्ञों के विश्लेषण परोसे जा रहे थे. सटोरियों और ज्योतिषियों की राय भी वैसे ही व्यक्त की जा रही थी जैसे सडक पर बैठे तोता चाप ज्योतिषी ग्राहक के कार्ड निकलवाया करते हैं
समझौते या निबटान की राह भी अडानी के लिए बहुत ज्यादा आसान नहीं है . गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बाद उन्हें खुद अमेरिकी कानून के तहत कोर्ट में पेश होना पड़ेगा या वकीलों के मार्फत अपनी बात कहना पड़ेगी जिसे भारत में उम्मीद और रिवाज के मुताबिक वह कह ही रहे हैं कि आरोप गलत हैं लेकिन कोर्ट में इन्हें साबित कर पाना टेढ़ी खीर है. हालफिलहाल तो उन्हें अमेरिकी अदालत के सामने जमानत की अर्जी लगाते और फैडरल कोर्ट द्वारा जारी गिरफ्तारी वारंट रद्द करने की याचना करनी पड़ेगी.
ट्रंप की दया पर निर्भर
अमेरिका में राष्ट्रपति को फैडरल कोर्ट द्वारा जारी वारंट रद्द करने का अधिकार हासिल है लेकिन बात निकली है तो मुमकिन है कि सुप्रीम कोर्ट तक भी जाए. अगले साल 20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप शपथ लेने के बाद ऐसा कर भी सकते हैं लेकिन इस की क्या कीमत वे नरेंद्र मोदी और भारत से वसूलेंगे यह कह पाना मुश्किल है. ट्रंप जानते हैं कि यह अब मोदी की साख का सवाल है इसलिए अपने कारोबारी दिमाग का भरपूर इस्तेमाल करेंगे और कारोबार में दोस्ती के लिए उतना स्पेस नहीं रहता जितना कि इस मामले में चाहिए।
अब बात उस सुराख यानी प्रावधान की जिस के तहत गलत की स्वीकृति को एक गिल्ट के साथ ही सही, मगर भारी कीमत वसूल कर माफ कर दिया जाता है.
इस दिलचस्प किस्से की शुरुआत 90 के दशक में हुई थी जब कई अमेरिकी डाक्टरों ने यह महसूस किया कि अधिकतर देशवासी बदनदर्द से पीड़ित हैं. लिहाजा उन के लिए कोई कारगर दवा खोजी जानी चाहिए. इस के बाद तो अमेरिकी दवा कंपनियों में ऐसी दवा खोजने की होड़ मच गई. इस होड़ में बाजी मारी पडर्यू दवा कंपनी ने, जिस का कर्ताधर्ता सैकलर परिवार था। डाक्टरों के इस कुनबे के मुखिया रिचर्ड सैकलर थे. उन्होंने औक्सिकोटिन नाम की दवा खोज निकाली। यह दवा वाकई दर्द पर असरकारी थी लिहाजा चल निकली और इतनी बिक्री की कि सैकलर परिवार खरबों में खेलने लगा.
जान की कीमत
औक्सिकोटिन की मार्केटिंग ताबडतोड़ तरीके से की गई. नतीजतन 2012 में ही कोई 25 करोड़ अमेरिकियों ने डाक्टरों की अनुशंसा पर इसे लिया। उन्हें दर्द से मुक्ति तो मिली लेकिन जल्द ही यह हकीकत भी सामने आने लगी कि यह दवा दरअसल में एक तरह का नशा है जिस के लोग इतने आदी हो चले हैं कि यह न मिले तो वे छटपटाने लगते हैं.
हल्ला मचा तो अमेरिकी सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया लेकिन तब तक लाखों लोग इस के न मिलने पर या इस का ओवरडोज लेने से मर चुके थे और जो बच गए वे अफीम, हेरोइन और स्मैक जैसे नशे वाले पदार्थो के अलावा इन से भी ज्यादा घातक फैटेनाइल नाम की ड्रग का इस्तेमाल करने लगे थे। लाखों की तादाद में लोग इन की गिरफ्त में आ चुके थे. 2015 में लगभग 52 हजार लोग इस के ओवरडोज से मारे गए थे जिन्हें इस के नशे की लत लग चुकी थी जबकि 2022 में 1 लाख से भी ज्यादा लोग मारे गये थे।
महामारी की तरह फैले इस नशे को अमेरिका में ओपिआयड संकट नाम दे दिया गया था. दवा पर रोक लगाई गई लेकिन लोग इस के नशे के इतने आदी हो गए थे कि इसे चोरीछिपे खाने लगे थे। साल 2007 में पडर्यू दवा कंपनी पर धोखाधडी का मुकदमा दर्ज हुआ था जो 12 साल तक चला। देखते ही देखते तकरीबन 2,300 मुकदमे इस कंपनी पर विभिन्न राज्यों में दर्ज हो चुके थे जिन से बचने के लिए कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया था। कई अदालतों ने पडर्यू दवा कंपनी को आदेश दिया कि वह पीड़ितों को मुआवजा दे जोकि उस ने दिया भी था.
जल्द ही अदालतों ने कंपनी को दोषी करार देना शुरू कर दिया तो मुकदमों की मार और परेशानी के अलावा किश्तों में मुआवजे से बचने सैकलर परिवार ने एकमुश्त 6 बिलियन डौलर मुआवजा देने का फैसला किया. लेकिन एवज में उस के व कंपनी के खिलाफ नए मुकदमे लेने से रोक की मांग की.
झूठ और बेईमानी
आखिरकर अदालत ने इस पेशकश को मान लिया और 6 बिलियन डौलर के हरजाने से एक सार्वजनिक लाभार्थी ट्रस्ट बना दिया.
मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है लेकिन फसाद की जङ यह थी कि पडर्यू ने जानबूझ कर औक्सिकोटिन के साइड इफैक्ट छिपाए थे और उस एनजीओ को भी ₹155 करोड़ की रिश्वत दी थी जो दवाइयों को ले कर सरकार से नीतियां बनाने का सुझाव देता है.
अडानी ग्रुप से इस मामले का इतना संबंध तो है कि झूठ उस ने भी बोला और षड्यंत्रपूर्वक पैसे इकट्ठे किए. मामला तय है, सुप्रीमकोर्ट तक जाने से रोकने की कोशिश की जाएगी और निबटान की पेशकश की जाएगी। बेईमानी और धोखे से ₹2,200 करोड़ से भी ज्यादा रुपए इकट्ठा कर चुके गौतम अडानी को कीमत तो अदा करनी पड़ेगी बशर्ते ट्रिनी ऐनर्जी जैसे अभियोजक अड़े रहें और ट्रंप के दबाब में न आएं तो.