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केरल में भाजपा की ट्रेन दौड़ाएंगे मेट्रोमैन

देश को मेट्रो ट्रेन की सौगात देने वाले ई. श्रीधरन, जिन्होंने खुद मेट्रोमैन के नाम से देश-दुनिया में ख्याति बटोरी है, ने 26 फरवरी को केरल के मलप्पुरम में केंद्रीय मंत्री आरके सिंह की मौजूदगी में भाजपा ज्वाइन की है. एक बेहतरीन इंजीनियर के तौर पर ई. श्रीधरन ने देश को जो सेवाएं और सौगातें दी हैं, वह बेमिसाल हैं, उनकी तुलना नहीं की जा सकती है, मगर 88 साल की उम्र में राजनितिक जीवन की शुरुआत करना यही बताता है कि – बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले. हालांकि अरमान श्रीधरन से ज़्यादा उफान पर भाजपा के हैं जो केरल में अपना परचम लहराने को उतावली है और श्रीधरन के रूप में उसको वहां अपनी विजयश्री नज़र आ रही है.

श्रीधरन की इच्छा है कि वह अपने गृह जिले मलप्पुरम से चुनाव लड़ें. 140 सदस्यों वाली केरल विधानसभा के लिए 6 अप्रैल को वोटिंग होनी है और चुनाव के नतीजे 2 मई को आएंगे. सूत्रों की माने तो श्रीधरन को केरल का मुख्यमंत्री बनाने का ऑफर देकर पार्टी में लाया गया है. हालांकि भाजपा उनको मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके केरल का चुनाव लड़ेगी, इस पर अभी सस्पेंस बना कर रखा गया है. केंद्रीय मंत्री वी मुरलीधरन ने पहले अपने एक बयान में कहा था कि भाजपा ने 88 साल के ई श्रीधरन को सीएम कैंडिडेट बनाने का फैसला किया है, मगर 3 घंटे बाद ही वे अपने बयान से पलट गए और कहने लगे कि मुझे मीडिया रिपोर्ट्स के जरिए श्रीधरन को पार्टी का सीएम कैंडिडेट बनाने की जानकारी मिली थी. बाद में जब मैंने पार्टी प्रमुख से बात की, तो उन्होंने ऐसे किसी भी फैसले से इनकार किया है.

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ग़ौरतलब है कि श्रीधरन की छवि हमेशा एक ईमानदार व्यक्ति की रही है. वे काफी धार्मिक प्रवृत्ति के भी हैं और पूजापाठ से उनका खासा लगाव है. उनकी पूजापाठी छवि भाजपा और संघ के मानकों पर परफेक्ट उतरती है, इसलिए हो सकता है उनको सीएम कैंडिडेट के तौर पर प्रोजेक्ट करके केरल में विधानसभा लड़ा जाए. रही बात उनकी उम्र की तो केरल में अपनी ट्रेन दौड़ाने के लिए भाजपा श्रीधरन की उम्र से कुछ समय के लिए समझौता भी कर सकती है, हालांकि 75 पार के अपने सभी वृद्ध मगर अनुभवी नेताओं को उसने रिटायरमेंट रूम में बिठा रखा है.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद 2014 में 75 पार के नेताओं को कैबिनेट से दूर रखने की बात कही थी. लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को उनकी अधिक उम्र के कारण ही सक्रीय राजनीति से हटा कर मार्गदर्शक मंडल तक सीमित कर दिया गया था. उसी दौरान पार्टी में स्पष्ट कर दिया गया था कि चुनाव लड़ने की अधिकतम आयु सीमा 75 साल है. भाजपा शासित राज्यों में भी यही फॉर्मूला अपनाया गया. गुजरात में मुख्यमंत्री रहीं आनंदीबेन पटेल को 75 की उम्र पार होते ही कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. उन्होंने यह आयु सीमा पूरी होने से महीने भर पहले ही पद छोड़ दिया था. नजमा हेपतुल्ला (77) मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद थीं और केंद्र में अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री रहीं मगर 75 की उम्र होने पर न चाहते हुए भी उन्हें पद छोड़ना पड़ा. उत्तराखंड के पूर्व सीएम बीसी खंडूड़ी (82) को मंत्री नहीं बनाया गया. जसवंत सिंह (79), अरुण शौरी (75), लालजी टंडन (82), कल्याण सिंह (85), केशरी नाथ त्रिपाठी (82) जैसे अनेक भाजपा नेता अपनी अधिक उम्र की वजह से ही सक्रिय राजनीति से दूर कर दिए गए. मगर 88 साल के ई. श्रीधरन को सक्रीय राजनीति में लाकर भाजपा अगर उनको मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करती है, तो ‘आपदा में अवसर’ तलाशने का इससे बेहतरीन उदाहरण नहीं होगा. अपना उल्लू सीधा होता हो तो नीति-नियम बदलने में कोई बुराई नहीं है.

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हालांकि श्रीधरन 88 बरस की उम्र में भी पूर्णतया स्वस्थ हैं और कहते हैं कि इंसान की मानसिक उम्र मायने रखती है, शरीर की नहीं. शारीरिक उम्र के बजाय मानसिक उम्र यह तय करती है कि किसी को क्या जिम्मेदारियां उठानी चाहिए. मानसिक रूप से मैं बहुत अलर्ट और यंग हूं. अब तक मेरे साथ सेहत से जुड़ी कोई समस्या नहीं है. मुझे नहीं लगता कि स्वास्थ्य कोई बड़ा मुद्दा होगा. मगर केरल में भाजपा की ट्रेन चल निकलने के बाद श्रीधरन को पटरी से उतार दिया जाए, अन्य अनुभवी मगर उम्रदराज नेताओं की हालत देख कर इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. श्रीधरन ने भाजपा के टिकट पर अपने गृह जिले मलप्पुरम से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई है ताकि अपने गृहजनपद के लोगों को अपनी ईमानदार राजनीति से फायदा पहुंचा सकें.

ई. श्रीधरन का अब तक का सफर बहुत सराहनीय रहा है. उन्होंने विभिन्न पदों पर रहते हुए देश की सेवा की है और अपने अनुभवों, कार्यों और अविष्कारों से देश के विकास में अहम योगदान दिया है.
ई. श्रीधरन का जन्म 12 जून 1932 को केरल के पलक्कड़ में पत्ताम्बी नामक स्थान पर हुआ था. उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पलक्कड़ के बेसल ईवैनजेलिकल मिशन हायर सेकेंड्री स्कूल से हुई. कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने पालघाट स्थित विक्टोरिया कॉलेज से की और सिविल इंजिनियरिंग की पढ़ाई उन्होंने आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा स्थित गवर्नमेंट इंजिनियरिंग कॉलेज से की.इंजिनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद श्रीधरन ने कोझिकोड स्थित गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक में पढ़ाना शुरू किया. वे वहां सिविल इंजिनियरिंग विषय को पढ़ाते थे. इसके बाद उन्होंने बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट में ट्रेनी के तौर पर काम शुरू किया. वर्ष 1953 में उन्होंने इंडियन इंजिनियरिंग सर्विस (आईईएस) की परीक्षा पास की और दक्षिण रेलवे में दिसंबर 1954 में प्रोबेशनरी असिस्टेंट इंजिनियर के तौर पर उनकी पहली नियुक्ति हुई.

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कोलकता में पहली मेट्रो 
कोलकाता मेट्रो देश की पहली मेट्रो कोलकाता मेट्रो की योजना, डिजाइन और कार्यान्वयन की जिम्मेदारी ई. श्रीधरन को ही सौंपी गई थी. वर्ष 1970 में उन्होंने कोलकाता में देश की पहली मेट्रो की नींव डाली. मगर 1975 में कोलकाता मेट्रो रेल परियोजना से उनको हटा लिया गया.

जहाज का निर्माण
अक्टूबर 1979 में श्रीधरन ने कोचिन शिपयार्ड को जॉइन कर लिया. कोचिन शिपयार्ड का उस समय परफॉर्मेंस काफी खराब चल रहा था, जिसे मेट्रो मैन के अनुभव, कार्यकुशलता और अनुशासन ने उभार लिया. ई. श्रीधरन ने कुछ ही समय में कोचिन शिपयार्ड का कायाकल्प कर दिया. 1981 में कोचिन शिपयार्ड का पहला जहाज ‘एम.वी.रानी पद्मिनी’ तैयार हुआ, जिसमें उनकी महती भूमिका रही. उल्लेखनीय है कि एम.वी.रानी पद्मिनी जहाज के निर्माण वाली परियोजना काफी समय से कोचिन शिपयार्ड में लटकी पड़ी थी, जिसे गति तब मिली जब ई.श्रीधरन ने कोचिन शिपयार्ड जॉइन किया.

 कोंकण रेलवे
जुलाई 1987 में ई. श्रीधरन को प्रमोट करके पश्चिमी रेलवे में जनरल मैनेजर बनाया गया और जुलाई 1989 में रेलवे बोर्ड का सदस्य. 1990 में वह सेवानिवृत्त होने वाले थे, लेकिन तभी उनको कोंकण रेलवे के चीफ मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर अनुबंध पर नियुक्त कर दिया गया. कोंकण रेलवे परियोजना ने उनके नेतृत्व में कई रेकॉर्ड बनाए.

दिल्ली मेट्रो
वर्ष 1997 में ई. श्रीधरन को दिल्ली मेट्रो रेल कॉपोर्रेशन (डीएमआरसी) का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया. तब उनकी उम्र  64 साल थी. दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ने उनको नियुक्त किया था. दिल्ली मेट्रो की सफलता और समय-सीमा के अंतर्गत काम करने की जो संस्कृति श्रीधरन ने विकसित की उसके बाद मीडिया में उनके नाम और उपलब्धियों के बहुत चर्चे हुए और उन्हें ‘मेट्रो मैन’ की उपाधि दी गई.

कोच्चि, लखनऊ और अन्य मेट्रो रेल परियोजनाएं

दिल्ली मेट्रो से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें कोच्चि मेट्रो रेल और लखनऊ मेट्रो रेल का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया. उन्होंने जयपुर मेट्रो को सलाह देने का काम किया और देश में बनने वाले दूसरे मेट्रो रेल परियोजनाओं के साथ भी वह जुड़े हुए हैं. इनमें आंध्र प्रदेश की दो प्रस्तावित मेट्रो परियोजनाएं – विशाखापत्तनम और विजयवाड़ा शामिल हैं.

6 महीने का काम 46 दिन में
साल 1964 की बात है. तमिनलाडु में एक तूफान के कारण रामेश्वरम को तमिलनाडु से जोड़ने वाला ‘पम्बन पुल’ टूट गया. रेलवे ने इस पुल के जीर्णोद्धार और मरम्मत के लिए 6 महीने का समय दिया, पर श्रीधरन के बॉस ने उनसे सिर्फ तीन महीने में इस काम को पूरा करने के लिए कहा. श्रीधरन ने यह काम महज 46 दिनों में पूरा करके सबको हैरान कर दिया. इस उपलब्धि के लिए उन्हें ‘रेलवे मंत्री पुरस्कार’ दिया गया.

निजी जीवन
ई. श्रीधरन का विवाह राधा श्रीधरन से हुआ. श्रीधरन के तीन बेटे और एक बेटी है. मेट्रो मैन जीवन में अनुशासन का पूरी तरह पालन करते हैं. उनका दिन सुबह 4 बजे शुरू होता है. वह एक धार्मिक व्यक्ति हैं, जिनका मानना है कि भगवान हर जगह मौजूद है. कभी-कभी श्रीधरन परिवार और अन्य लोगों के बीच प्रवचन भी करते नजर आते हैं. वह हर दिन योग और ध्यान करते हैं. उनका मानना है कि योग से मन और शरीर को काबू में करने में मदद मिलती है. इसके साथ ही वह समय के बेहद पाबंद हैं. श्रीधरन प्रधानमंत्री मोदी के समर्थक माने जाते हैं. 2014 में लोकसभा चुनाव से पहले दो बार उन्होंने नरेंद्र मोदी को अच्छा नेता बताया था. मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का समर्थन करने वालों में भी उनका नाम शामिल था.

सम्मान और पुरस्कार
ई. श्रीधरन को उनकी उपलब्धियों के लिए कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा जा चुका है. जिनमें कुछ बहुत अहम हैं. वर्ष 2001 में भारत सरकार ने उनको पद्म श्री और 2008 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. वर्ष 2005 में फ्रांस सरकार ने उनको नाइट ऑफ़ द लीजन ऑफ़ ऑनर से सम्मानित किया था. वहीं वर्ष 2013 में उनको टी.के.एम. 60 प्लस अवार्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट, 2013 मिला था.

महानगरों के विकास में मेट्रो की भूमिका कितनी अहम है, यह सर्वविदित है और रफ्तार की बात करें तो ई. श्रीधरन इसका पर्याय बन चुके हैं. आज 88 साल की उम्र में भी मैट्रो मैन की रफ्तार बखूबी कायम है मगर जो पटरी उन्होंने अब पकड़ी है वो उनको कितनी दूर तक ले जाएगी ये देखना दिलचस्प होगा.

बच्चों के साथ जंगल में एंजॉय कर रही हैं श्वेता तिवारी, ग्लैमरस लुक में दिखी बेटी

एक्ट्रेस श्वेता तिवारी सोशल मीडिया पर काफी ज्यादा एक्टिव रहती हैं. आए दिन वह सोशल मीडिया पर तस्वीर शेयर करती रहती हैं. हाल ही में श्वेता तिवारी ने अपनी कुछ तस्वीरों को सोशल मीडिया पर डाला है. जिसमें वह अपनी बेटी पलक तिवारी और बेटे रेयान के साथ नजर आ रही हैं.

श्वेता और पलक को एक साथ देखकर फैंस के खुशी का ठिकाना नहीं है. बता दें कि श्वेता तस्वीर में व्हाईट शर्ट और डेनिम जीन्स में नजर आ रही हैं. वहीं उनकी बेटी पलक ब्लैक आउटफिट में गजब की लग रही हैं.

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श्वेता तिवारी की तस्वीर पर फैंस काफी ज्यादा कमेंट करते नजर आ रहे हैं, जिसमें वह लिख रहे हैं, श्वेता आप जंगल में मंगल कर रही हैं. वहीं दूसरे फैंस ने लिखा वाह क्या जोड़ी है, मां बेटी की इस खूबसूरत जोड़ी को नजर न लगें.

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आपको बता दें कि श्वेता तिवारी की बेटी पलक अपनी मां के साथ- साथ खुद भी काफी ज्यादा चर्चा में बनी रहती हैं. श्वेता तिवारी की बेटी भी जल्द फिल्म में लॉच करने वाली हैं.

श्वेता ने कुछ दिनों पहले अपने बेटे रेयांश के साथ तस्वीर शेयर की थी, जिसमें वह काफी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी, श्वेता अपनी फैमली के साथ काफी ज्यादा व्यस्त रहती हैं. साथ ही श्वेता वक्त मिलते ही अपनी फैमली के साथ कहीं बाहर जाना नहीं भूलती हैं.

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बता दें श्वेता तिवारी अपने काम के साथ- साथ अपने निजी जीवन को लेकर भी चर्चा में बनी रहती हैं.

जानें क्यूं फिर से ट्रोल हुई कंगना रनौत, यूजर्स ने कहा-सिर्फ पागल बना सकती हो

कंगना रनौत की गिनती बॉलीवुड के उन अभिनेत्रियों में शूमार है, जो अपने बेबाक अंदाज के लिए जानी जाती हैं. साथ ही वह सोशल मीडिया पर भी काफी ज्यादा एक्टिव रहती हैं. कंगना अपने नए- नए पोस्ट को लेकर चर्चा में बनी रहती हैं.

कभी कभी वो खूब वाह वाही लूटती हैं तो कभी उन्हें ट्रोल होना पड़ता है. ऐसे में आज एक बार फिर कंगना को ट्विटर पर ट्रोल होना पड़ा. जिसकी वजह है कगना द्वारा शेयर की गई कुछ तस्वीरें.

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दरअसल, कंगना रनौत ने स्मूदी की तस्वीर शेयर कि है. इस तस्वीर को शेयर कर कंगना ने बताया है कि उन्होंने खुद बनाया है. कंगना के इस तस्वीर को कुछ यूजर्स गूगल से चोरी की गई बताई जा रही है.

सोशल मीडिया ट्रोलर्स को जवाब देते हुए कंगना ने कहा है , कि हाहाहा, मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि कुछ लोग वैनिटी वैन की ली गई तस्वीर को  फेमस की बता रहे हैं. मुझे तो ये पता था कि मैं लाजबाब हूं.  किसी प्रोफेशनल शेफ  जितनी हूं.

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वहीं कुछ ट्रोलर्स ने तस्वीर साझा करते हुए कहा है कि यह कंगना आप सिर्फ लोगों को पागल बना सकती हैं. इसके अलावा आप और कुछ नहीं कर सकती हैं.

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वहीं कंगना रनौत अपनी फिल्म की शूटिंग में व्यस्त हैं. कंगना रनौत ने अपनी फैमली के साथ कुछ दिनों पहले तस्वीर शेयर कि थी, जिसमें वह अपने फैमली के साथ एंजॉय करती नजर आ रहे हैं.

पहाड़ी रतालू देता है अधिक आमदनी, जाने कैसे करें इसकी खेती

लेखक-पिंटू मीणा
आम किसानों को अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने और आमदनी बढ़ाने के लिए परंपरागत खेती को छोड़ कर उन्नत खेती की तरफ ध्यान देना होगा. सरकार और कृषि विभाग इस के लिए आप को समयसमय पर जानकारी उपलब्ध कराते रहते हैं. धौलपुर जिले के सरमथुरा क्षेत्र के बड़ागांव निवासी किसान जगदीश ने कृषि विभाग से प्रेरित हो कर कुछ ऐसा ही नया करने का फैसला किया और रतालू की खेती करना प्रारंभ किया. इस की खेती से प्रति बीघा 3 से 4 लाख रुपए तक आमदनी किसान को हो जाती है, जिस में 70 हजार से 1 लाख रुपए तक का खर्चा हो जाता है.

शुद्ध लाभ लगभग ढाई लाख से 3 लाख रुपए प्रति बीघा मिल जाता है. जगदीश ने बताया कि वो आने वाले दिनों में इस की खेती और बड़े स्तर पर करेंगे. सहायक कृषि अधिकारी पिंटू लाल मीणा ने फील्ड का भ्रमण कर रोग, कीट और व्याधियों के नियंत्रण सहित अधिक उत्पादन लेने के लिए जरूरी सलाह दी. साथ ही, दूसरे किसान, जो रतालू की खेती करना चाहते हैं, उन को इस के बारे में पूरी जानकारी मुहैया करवाई, जो इस प्रकार है: भूमि और जलवायु यह उष्ण जलवायु की फसल है. उपजाऊ दोमट भूमि, जिस में पानी नहीं भरता हो, इस की खेती के लिए उपयुक्त रहती है.

क्षारीय भूमि इस के लिए उपयुक्त नहीं है. उपयुक्त किस्में रंग के आधार पर इस की 2 फसलें प्रचलित हैं, सफेद और लाल. खेत की तैयारी और बोआई खेत की गहरी जुताई कर के क्यारियों में 50 सैंटीमीटर की दूरी पर डोलियां बना लेनी चाहिए. इन डोलियों पर 30 सैंटीमीटर की दूरी पर रतालू की बोआई करें. 50 ग्राम तक के टुकड़े 0.2 फीसदी मैंकोजेब के घोल में 5 मिनट तक उपचारित कर के बोआई के काम में लिए जाते हैं. प्रति हेक्टेयर 20 से 30 क्विंटल बीज की जरूरत होती है. रतालू के ऊपरी भाग के टुकड़े सब से अच्छी उपज देते हैं. इसे अप्रैल से जून माह तक बोया जाता है.

खाद व उर्वरक खेत तैयार करते समय प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 100 किलोग्राम पोटाश डोलियां बनाने से पहले जमीन में दें. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन 2 समान भागों में कर के फसल लगाने के 2 व 3 महीने बाद पौधे के चारों ओर डाल दें. सिंचाई व निराईगुड़ाई पहली सिंचाई बोआई के तुरंत बाद करें. फसल को कुल 15 से 25 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है. डोलियों पर गुड़ाई कर के मिट्टी चढ़ानी चाहिए. आवश्यकतानुसार निराई भी करते रहें. खुदाई और उपज फसल 8 से 9 महीने में तैयार हो जाती है. रतालू के प्रत्येक पौधे को खोद कर निकाला जाता है. उपज 250 क्विंटल से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है.

दायरे में सिमटी सोच : हलवाई ने मनोरमा की बात सुनते मना क्यों कर दिया

लेखक- पुखराज सोलंकी

‘बहु, मैं छत पर जा रही हूं, अगर कोई आये तो उसे छत पर ही भेज देना, अभी-अभी मेरी हलवाई से फोन पर बात हुई है वो आता ही होगा, हमने जो एक सौ आठ ब्राह्मणों का भोज रखा है न उसी बारे में उससे कुछ बात करनी है.’ कहते हुए मनोरमा सीढियों की और बढ़ी.

थोड़ी देर बाद हलवाई भी आ गया. और ब्राह्मण भोज के लिए मनोरमा और हलवाई के बीच बातचीत होने लगी.

‘बाकी सब तो ठीक है, लेकिन तुम्हे एक बात का खास खयाल रखना होगा.’ मनोरमा ने हलवाई को चेताया तो हलवाई ने भी अपने कान खड़े कर लिए.

मनोरमा बोली, ‘ये तो तुम्हे पता ही है कि हमनें एक सौ आठ ब्राह्मणों का भोज रखा है, खाना बनाते समय तुम्हे और तुम्हारे साथ आने वाले कारीगरों को शुद्धता व साफ सफाई का अच्छा खासा ख्याल रखना होगा, और ध्यान रहे कि तुम्हारे स्टाफ का कोई भी आदमी नीची जाती न हो वरना हम सभी का धर्म भ्रष्ट तो होगा ही पाप के भागीदार बनेंगे सो अलग.”

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यह सुनकर हलवाई भरोसा दिलाते हुए बोला, ‘आप बेफिक्र रहिये, यह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए, हमारे स्टाफ में आपको एक भी आदमी नीची जाति का नहीं मिलेगा, लेकिन..’

“लेकिन क्या..” मनोरमा तपाक से बोली.

तभी बहु चाय ले आई. चाय का कप उठाते हुए हलवाई बोला-

“देखिए खाना बनाने वाले हमारे स्टाफ में तो कोई भी आदमी नीची जाति का नहीं है, लेकिन खाने के बाद झुंठे बर्तन साफ करने के लिए मैं कह नही सकता की कोन मिलेगा और किस जाति का मिलेगा, इसलिए बर्तन साफ करने के लिए जो भी आदमी मिलेगा उसे ही लाना होगा.”

यह सुनकर हलवाई भरोसा दिलाते हुए बोला, ‘आप बेफिक्र रहिये, यह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए, हमारे स्टाफ में आपको एक भी आदमी नीची जाति का नहीं मिलेगा, लेकिन, मुझे कोई आपत्ति नही हैं.”

“फिर ठीक है.” कहकर हलवाई समय व दिन तय करके वहां से निकल गया.

हाथ में चाय की खाली ट्रे पकड़े बहु भी यह सब देख सुन रही थी.

हलवाई के जाते ही बहु ने अपनी सास से कहा “माजी, अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं ?”

“हां, बोलो बेटा”

“माजी, हमने जिस दिन ब्राह्मण भोज रखा है, उस दिन बुलाएं गये सभी एक सौ आठ ब्राह्मण एक साथ तो आएगें नहीं, कोई पहले आएगा तो कोई बाद में, लेकिन पहले भोजन कर चूके ब्राह्मणों के झूंठे बर्तनों को जब नीची जाति का आदमी साफ करेगा और फिर उसके छुएं उन्ही बर्तनों में बाद में आने वाले सभी ब्राह्मणों को खाना परोसा जाएंगा, क्या तब उनका धर्म भ्रष्ट नही होगा, क्या तब आप हम सभी पाप के भागीदार नही बनेंगे ?”

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मनोरमा को अपनी बहु से इस तरह के तर्क की उम्मीद नही थी, और न ही मनोरमा के पास अपनी बहु की इस बात का कोई जबाब था, वो बगलें झांकने लगी, उसके पास इससे आगे बोलने के लिए कुछ भी बचा. लेकिन बहु ने बोलना जारी रखा.

“माजी, जब सुरज चांद, पृथ्वी प्रकृति, पेड़ पौधें यहां तक की पशु पक्षी भी जातपात या ऊंचनीच को लेकर भेदभाव नहीं करते तो इंसानों को यह अधिकार किसने दिया, जो भी बड़े है या आज उच्च पदों पर कार्यरत हैं उसमें भी कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से इन्ही छोटी जाति व छोटे लोगों का ही हाथ हैं, फिर इतना भेदभाव क्यूं.” मनोरमा बहु को एकटक देखती रही, बहु ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा.

“माजी, मैं जब से इस घर में आयी हूं तब से देख रही हूं, हम लोग हर साल ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं, और हर बार कहीं न कहीं कोई न कोई कोर कसर रह ही जाती है. जिस वजह से घर आए ब्राह्मणों में से कोई न कोई बिदक जाता हैं, याद है आपको पिछले साल जब हमने भोजन करवाया था तो उनके गिलास में पानी डालते समय जब बिट्टू ने पानी का जग गल्ती से उनकी झुंठी गिलास से टकरा दिया था, तो कैसे भडक गये थे वें लोग.”

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मनोरमा ने याद करने की कोशिश करते हुए हां में जबाब दिया.

‘माजी, मैं तो कहती हूं इसबार हमें इन साधन सम्पन्न ब्राह्मणों को भोजन करवाने की बजाए उन गरीब, बेसहारा और जरूरतमंद लोंगो को भोजन करवाना चाहिए जिन्हें अगर सुबह का भोजन मिल जाए तो शाम का पता नही और शाम का मिल जाए तो सुबह का पता नही. अगर आप भोजन करवाना ही चाहती है तो इस बार इन्ही जरूरतमंद लोगों को भोजन करवाएं और फिर देखना आपके दिल को कितनी तसल्ली मिलती है. सही मायने में तो इन साधन सम्पन्न ढोंगी पाखंडी लोगों की वजह से वंचितों को अपना सही हक नही मिल पाता जो कि इसके असली हकदार हैं.”

मनोरमा ने पहली दफा अपनी बहु को इतना बोलते हुए सुना, बहु की बातों ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया, अपनी सास को मौन देखकर बहु असमंजस में पड़ गयी और सोचने लगी कहीं कुछ ज्यादा तो नही बोल गयी मै, कुछ गलत तो नहीं कह दिया, हो सकता है माजी को मेरी कोई बात बुरी लगी हो. कई ऐसे खयाल उसके दिमाग में घर करने लगें.

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तभी मनोरमा ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “बेटा, आज तुम्हारे मुंह से इस तरह की बात सुनकर अच्छा लगा, काश.. मैं भी अपनी सास से इस बेबाकी के साथ यह सब कहने की हिम्मत जुटा पाती, भले मुझे अपनी सोच के मुताबिक सास न मिली, लेकिन खुशी इस बात की है कि अपनी सोच के मुताबिक बहु तो मिली है, तुम्हारी विस्तृत सोच ने मेरी दायरे में सिमटी सोच को नया आयाम दिया है, वैसे भी किसी को तो पहल करनी होगी, सो तुमने कर दी..”

अपनी सास का बदला मिजाज देखकर बहु का आत्म विश्वास आसमां छूने लगा था.

छितराया प्रतिबिंब

छितराया प्रतिबिंब : वह चाहकर भी अपनी बेटी का फोन क्यों नहीं उठा पा रहा था -भाग 1

मेघों की अब मुझ से दोस्ती हो चली थी, शायद इस वजह से अब आसमान को ढक लेने की उन की जिद भी कुछ कम हो चली थी. खुलाखुला आसमान, जो कभी मेरी हसरतों की पहली चाहत थी, मेरे सामने पसरा पड़ा था. मगर क्या यह आसमान सच में मेरा था? मैं निहार रहा था गौर से उसे. सितारों की झिलमिलाहट कैसी सरल और निष्पाप थी. एक आह सी निकल आई जो मेरे दिल की खाली जगह में धुएं सी भर गई.

गंगटोक के होटल के जिस कमरे में मैं ठहरा था वहां से हरीभरी वादियों के बीच घरों की जुगनू सी चमकती रोशनियां और रात के बादलों में छिपा आसमान मेरे जीवन सा ही रहस्यमय था. शायद वह रहस्य का घेरा मैं ने ही अपने चारों ओर बनाया हुआ था या वह रहस्य मेरे जन्म के पहले से ही मेरे चारों तरफ था. जो भी हो, जन्म के बाद से ही मैं इस रहस्यचक्र के चारों ओर चक्कर काट रहा हूं.

मोबाइल बज उठा था, शरारती मेघों की अठखेलियां छोड़ मैं बालकनी से अपने कमरे में आया. बिस्तर पर पड़ा मोबाइल अब भी वाइब्रेशन के साथ बज रहा था. मुझे उसे उठाने की जल्दी नहीं थी, मैं बस नंबर देखना चाह रहा था. मेरी 10 साल की बेटी कुक्कू का फोन था. दिल चाहा उठा ही लूं फोन, सीने से चिपका कर उस के माथे पर एक चुंबन जड़ दूं, या उसे गोद में ही उठा लूं. उस के सामने घुटने मोड़ कर बैठ जाऊं और कह दूं कि माफ कर दे अपने पापा को, पर चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर पाया.

फोन की तरफ खड़ाखड़ा देखता रहा मैं, फोन कट गया. मैं मुड़ने को हुआ कि फोन पुन: बजने लगा. मैं उसे उठा पाता कि वह फिर से कट गया. शायद प्रतीति होगी जिस ने मेरे फोन न उठाने पर कुक्कू को डांट कर फोन बंद करा दिया होगा.

गंगटोक में घूमने नहीं छिपने आया हूं. हां, छिपने. वह भी खुद से. जहां मैं ‘मैं’ को न पहचानूं और खुद से दूर जा सकूं. अपने पुरातन से छिप सकूं, अपने पहचाने हुए मैं से अपने ‘अनचीन्हे’ मैं को दूर रख सकूं. अनजाने लोगों की भीड़ में खुद से भाग कर खुद को छिपाने आया हूं.

यहां मुझे आए 9 दिन हो गए और अब तो प्रतीति का फोन आना भी बंद हो गया है. हां, मैं उस का फोन उठाऊं या नहीं, फोन की उम्मीद जरूर करता था और न आने पर जिंदगी के प्रति एक शिकायत और जोड़ लेता था. कुक्कू फिर भी शाम के वक्त एक फोन जरूर करती थी, वह भी ड्राइंग क्लास से. लाड़ में मैं ने ही मोबाइल खरीद दिया था उसे. बाहर अकेले जाने की स्थिति में वह मोबाइल साथ रखती थी. मैं बिना फोन उठाए फोन की ओर देख कर उस से बारबार माफी मांगता हूं, वह भी तब जब पूरी तरह आश्वस्त हो जाता हूं कि यह माफी मेरे पुरातन मैं के कानों तक नहीं पहुंच रही. बड़ा अहंकार है उसे अपने हर निर्णय के सही होने का.

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आज रात नींद से मैं चिहुंक कर उठ बैठा. वह मेरा बचपन था, मुझे फिर नोचने आया था, मैं डर कर चीख कर भागता जा रहा था, सुनसान वादियों में कहीं खो चला था कि अचानक कहीं से एक डंडा जोर से हवा में लहराता हुआ आया और मेरे सिर से टकरा गया. मैं ने कराह कर देखा तो सामने पिताजी खड़े थे. मुझे ऐसा एहसास हुआ कि डंडा उन्होंने ही मुझ पर चलाया था, मेरी मां हंसतीगाती अपनी सहेलियों के संग दूर, और दूर चली जा रही थीं. मैं…मैं कितना अकेला हो गया था. आह, क्या भयावह सपना था. मैं ने उठ कर टेबल पर रखा पानी पिया. आज रात और नींद नहीं आएगी, वह हकीकत जो बरसों पहले मेरे दिमाग के पोरपोर में दफन थी, लगभग हर रात मुझे खरोंच कर बिलखता, सिसकता छोड़ कर भाग जाती है और मैं हर रात उन यादों के हरे घाव में आंसू का मरहम लगाता हुआ बिताता हूं.

पिताजी फैक्टरी में बड़े पद पर थे, सो जिम्मेदारी भी बड़ी थी. स्वयं के लिए स्वच्छंद जीवन के प्रार्थी मेरे पिताजी खेल और शिकार में भी प्रथम थे. दोस्तों और कारिंदों से घिरे वे अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते थे. सख्त और जिम्मेदारीपूर्ण नौकरी के 12-12 घंटों से वे जब भी छूटते, शिकार या खेल, चाहे वह टेनिस का खेल हो या क्रिकेट या क्लब के ताश या चेस का, में व्यस्त हो जाते. मेरी मां अपने जमाने की मशहूर हीरोइन सुचित्रा सेन सी दिखती थीं.

बेहद नाजुक, बेहद रूमानी. उन की जिंदगी के फलसफे में नजाकत, नरमी, मुहब्बत और सतरंगी खयालों का बहुत जोर था. लेकिन ब्याह के बाद 5 अविवाहित ननदों की सब से बड़ी भाभी की हैसियत से उन्हें बेहद वजनी संसार को कंधों पर उठाना पड़ा, जहां प्यार, रूमानियत, नजाकत और उन की नृत्य अभिनय शैली, साजसज्जा के प्रति रुझान का कोई मोल नहीं था. सारा दिन शरीर थकाने वाले काम, ननदों की खिंचाई करने वाली भाषा, सासससुर की साम्राज्यवादी मानसिकता और पति का स्वयं को ले कर ज्यादा व्यस्त रहना. मेरी मां ने धीरेधीरे जीने की कला विकसित कर ली. जीजान से दूसरों के बारे में सोचने वाली मेरी मां में अब काफी कुछ बदल गया था, फिर साक्षी बना मैं. तीनों बेटों को अकेले पालतेपालते कब मैं उन की झोली में आ गिरा पता ही नहीं चला.

रात 3 बजे या कभी 2 बजे तक पिताजी क्लब में चेस या रात्रिकालीन खेल आयोजनों में व्यस्त रहते. इधर मेरी मां मारे गुस्से से मन ही मन कुढ़तीबिफरती रहतीं. सब लोगों को खाना खिला कर खुद बिना खाएपिए सिलाई ले कर बैठ जातीं. और तब तक बैठी रहतीं जब तक पिताजी न वापस आ जाते. सारा दिन और आधी रात बाहर रहने के बाद शायद मां का मोल पिताजी के लिए ज्यादा ही हो जाता, वे मां का सान्निध्य चाहते. लेकिन दिनभर की थकीहारी, प्रेम की भूखी, छोटेछोटे बच्चों को पालने में किसी सहारे की भूखी, ननदों की चिलम जलाने वाली बातों से जलीभुनी, सहानुभूति की भूखी मेरी मां दूसरे की भूख क्या शांत करतीं?

 

छितराया प्रतिबिंब : वह चाहकर भी अपनी बेटी का फोन क्यों नहीं उठा पा रहा था -भाग 5

मैं उसी वक्त अपनी पैकिंग में लग गया. दरअसल, मैं ने कितनी ही गलतसही बातें उसे सुनाई हों लेकिन वह कभी भी अपनी जबान नहीं खोलती थी. आज पहली बार था जो मुझे बेहद नागवार गुजरा था. मुझे तैयार होता देख मांबेटी सकते में थीं. कुक्कू अब मुझ से काफी सहमी रहती और इस के लिए मैं पूरी तरह से प्रतीति को दोषी समझता था. पता नहीं क्यों कभी नहीं लगा कि मैं जो इतना उग्र हो जाता हूं उस का बच्ची पर कुछ तो असर होता होगा. कुक्कू किनारे खड़ी हो कर सुबकती हुई अनुनय करने लगी कि मैं न जाऊं.

प्रतीति के लिए यद्यपि ज्यादा मेरे करीब आना मुमकिन नहीं था फिर भी शारीरिक भाषा प्रखर करते हुए राह रोक कर खड़ी हो गई. मैं अपना बैग ले कर लगभग उसे धक्का देते हुए बाहर निकल गया.

आज सुबह से ही मेघों का बोलबाला कुछ ज्यादा था. कुहरे ने स्वस्थ, साफ आसमान को इस कदर ढक लिया था कि अगले कुछ पल बड़े असमंजस भरे थे. मैं बड़ा बेचैन था. मैं ने मोबाइल उठा लिया. सोचा, शहर में ही किसी परिचित को फोन लगाऊं. फिर मां को ही फोन घुमा दिया. मांपिताजी अभी भी उसी पुश्तैनी मकान में रह रहे हैं.

मां ने मेरा फोन पाते ही चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ, मलय? 10 दिनों से रोज तुम्हारे घर फोन कर रही हूं. प्रतीति एक ही बात कह रही है कि तू औफिस के काम से बाहर गया है, इधर तुझे फोन लगाती हूं तो बंद रहता है या उठाता नहीं.’’

‘‘मैं घर से भाग आया हूं और कभी वापस नहीं जाऊंगा.’’

‘‘क्या? यह क्या बोल रहा है तू? कहां है तू?’’

‘‘गंगटोक, यह बात प्रतीति को बताने की जरूरत नहीं, उसे पता नहीं कि मैं कहां हूं.’’

‘‘लेकिन हुआ क्या? वह तो कितनी अच्छी लड़की है.’’

‘‘खबरदार जो गैर लड़की के लिए सिफारिश की तो, बेटा मैं तुम्हारा हूं, तुम मेरी ओर से बोलोगी, बस.’’

‘‘अरे, उस की गलती तो बता?’’

‘‘तुम्हें मैं क्या बताऊं, तुम रहती हो यहां, जो बताऊं? यह मेरा घर है, यहां सबकुछ मेरे अनुसार होगा. मेरी अनुमति के बिना एक पत्ता नहीं हिलेगा.’’

‘‘तू यह क्या कह रहा है? है तो तेरा ही सबकुछ, लेकिन शादी ऐसे निभती है क्या? पति को चाहिए कि पत्नी को वह उतना ही हक और सम्मान दे जितना वह पत्नी से चाहता है.’’

‘‘फिर तुम शुरू हो गईं ज्ञान बघारने. फोन रखो, मैं कहता हूं, फोन रखो.’’

फोन मैं ने काट दिया था और मैं अब किसी से बात नहीं करना चाहता था. बचपन में मेरे मांपिताजी जब अपनी मनमानी करते थे तो तब कोई सिखाने नहीं आया, अब मैं अपने हिसाब से क्यों नहीं चलूं.

मैं बहुत उद्विग्न महसूस कर रहा था. प्रतीति शांत और निश्चिंत कैसे थी? यह सच है कि छोटीछोटी बातों के लिए भी मैं उसे बुराभला कह जाता था, वह शांत रहती थी, यहां तक कि बेटी को हिदायत भी दे डालता था कि उस की मां अहंकारी, पागल और बहुत बुरी है. अगर वह अपनी मां से बातें करेगी तो मुझे खो देगी, प्रतीति मेरी ओर स्थिर दृष्टि से देखती हुई अपनी जगह खड़ी रहती थी. उस का यह शांत रूप मुझे और आक्रामक करता था, मैं अपनी तौहीन देख गालीगलौज पर उतर आता था यहां तक कि उसे मारने तक दौड़ता था. फिर वह शांत हो इतना ही कहती, ‘मुझ से जो गलतियां हुईं उस के लिए माफ करो.’ मैं झल्ला कर बात खत्म करता.

मगर फिर भी इतने दिन होने को आए, मैं कहां हूं, उसे यह भी नहीं पता. 10 दिन पर मां को पता चला तो हो सकता है कि अब उसे पता चला हो लेकिन ये 10 दिन क्या उसे मेरी जरा भी परवा नहीं, बस खर्चे को पैसे उपलब्ध हो गए तो मेरी जरूरत ही नहीं? यही हैं उस के शादी के आदर्श?

भोर के 3 बजे अचानक एक एसएमएस की आवाज से हलकी सी तंद्रा उचट गई. औफिस से 15 दिन की छुट्टी ले कर आया था और बता कर भी कि मैं कहां जा रहा हूं लेकिन इतनी रात गए मुझे मेरे छुट्टी समाप्त होने की सूचना देंगे और जबकि अब भी 2 दिन बाकी हैं. एक क्षण को लगा कि मेरे किसी दोस्त ने अपनी नींद छोड़ कर कोई नौनवेज जोक मारा हो.

अनिच्छा के बावजूद मैं ने एसएमएस चैक किया. मुझ से लेटे हुए यह पढ़ा नहीं गया, मैं उठ बैठा. अपने चारों ओर रजाई को खींच कर ऐसे बैठा जैसे प्रतीति की बांहें मुझे अपने आगोश में बहुत दिनों बाद खींच रही हों.

‘‘प्रिय, और कितनी परीक्षा लोगे? अपनी तकलीफ सहने की शक्ति मैं ने जितनी बढ़ा ली है तुम में भी तकलीफ देने की क्षमता उतनी ही बढ़ती गई है. एक तुम्हारे भरोसे मैं अपनी पिछली सारी दुनिया त्याग कर तुम्हारे पास आ गई और तुम पता नहीं कौन से मन की भूलभुलैया में गुम हो कर मुझे और कुक्कू को छोड़ कर ही चल दिए. तुम कैसे कर सके ये सबकुछ? कुक्कू और मैं तुम्हारे हैं, मगर तुम तो बस खुद के ही हो कर रह गए. मैं जानती हूं कि तुम्हारी जिंदगी का पिछला इतिहास तुम्हें विचलित करता है लेकिन यह नहीं समझते कि इतिहास वर्तमान में हमेशा नहीं आता.’’

एसएमएस समाप्त नहीं हुआ था लेकिन प्रतीति के फोन से आया था. मैं इन बातों का गहराई से मंथन करता कि दूसरा एसएमएस आया. सोचा न जाने किस का हो, लेकिन मन यह सोच कर व्याकुल होने लगा कि न जाने प्रतीति आगे क्या कहना चाह रही होगी.

मैं ने मोबाइल अपनी आंखों के सामने रखा, प्रतीति ने आगे लिखा था, ‘‘तुम ने पुरानी प्रतिच्छवियों का रंग वर्तमान के जीते इंसानों के जीवन में इस तरह घोल दिया है कि सारी छवियां मिलजुल कर एकसार हो गई हैं और सब की पहचान ही विकृत हो गई है. तुम्हारे मन का पुराना संताप और विद्रोह मुझ से अपना प्रतिशोध ढूंढ़ने की कोशिश करता है, क्योंकि तुम्हारे आसपास मैं ही एक ऐसी हूं जो तुम्हारी होते हुए भी तुम्हारा अंश नहीं हूं जिस पर तुम अपना हक जता कर अपना गुस्सा मिटा सको. आज कुछ कड़वा सच बोल लेने दो, मलय, और सहा नहीं जाता.

‘‘तुम्हारे मातापिता ने, जैसा कि तुम चिढ़तेकुढ़ते वक्त कहा करते थे, जो भी जीवन जिया उसे इतिहास में दफन करो. उस असामंजस्य का प्रतिकार तुम मेरे साथ प्रतिशोध ले कर क्यों करना चाहते हो? तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम को विद्रोह की घुटन में क्यों बदलने पर तुले हुए हो? प्रकृति के नियम से कुछ बातें मां और पत्नी होने के नाते हर स्त्री में समान होती हैं लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि किसी और का कर्मफल कोई और भुगते. प्रिय होने के कारण जो कदम तुम अपनी मां के लिए नहीं उठा पाए, पराए घर से आई होने के कारण वह प्रतिशोध तुम ने मुझ से लेने की ठानी. तब तुम टूटे हुए से घर में जुड़ेजुडे़ से थे और अब जुड़े हुए घर को तोड़ने पर आमादा हो.

‘‘समय की इच्छा थी कि हम एक हों और अब यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है कि हम आगे भी एक रहें. तुम्हें बेहद चाह कर टूट जाने के कगार पर खड़ी हूं. तुम्हारी बेटी को अपने पापा की, तुम्हारी बीवी को अपने पति की जरूरत है और तुम्हें कोई हक नहीं बनता कि तुम उस का सहारा और प्यार छीन लो.’’

टैक्स्ट पढ़तेपढ़ते मेरी आंखें बोझिल हो गई थीं, आंक रहा था मैं प्रतीति ज्यादा समझदार थी या मैं ज्यादा नासमझ. शायद अहंकार की वजह से मैं ने उसे कभी भाव नहीं देना चाहा. लेकिन आज जब मैं अपने अंतर्मन के साथ बिलकुल अकेला हूं, आसपास के वातावरण में स्वयं को सिद्ध करने की कोई जल्दबाजी नहीं है तो लगता है प्रतीति को मेरी नहीं बल्कि मुझे प्रतीति की जरूरत है. मेरे ठिगने अहंकार, आक्रोश और भावनात्मक प्रतिशोध की सुलगी हुई ज्वाला में प्रतीति के बरसते छींटों की जरूरत है.

मैं ने तत्काल फ्लाइट पकड़ी, एअरपोर्ट से घर पहुंचतेपहुंचते सुबह के 8 बज गए थे. मैं खुली खिड़की से घर के अंदर सब देख सकता था. कुक्कू स्कूल के लिए तैयार हो रही थी, दोनों बेहद बुझीबुझी सी अपना काम कर रही थीं. तैयार हो कर कुक्कू निकलने वाली थी, प्रतीति ने मेरी उपस्थिति से अनजान मुख्यद्वार खोला. मैं अचरज में था. मुझे देख कर उस के मुख पर जरा भी अचरज नहीं आया. जैसे कि उसे अपनी पैरवी पर बेहद यकीन हो.

उस ने मेरे हाथ से बैग लिया और भटक गए बच्चे के घर वापस आ जाने पर सब से पहले उसे सुरक्षित घर के अंदर ले जाने के एहसास से भरी हुई मुझे वह अंदर ले गई.

कुक्कू के शिकायती लहजे को भांप कर प्रतीति ने उस से कहा, ‘‘बेटी, आज खुशीखुशी स्कूल जाओ, वापस आ कर बातें करना, पापा को आराम करने दो.’’

कुक्कू के जाने के बाद घर में सन्नाटा छाने लगा. मैं जो हमेशा डराने में विश्वास करता था, आज खुद डर रहा था.

प्रतीति ने बैग उठा कर अंदर किया और बाथरूम की बालटी में पानी भरने लगी. मैं कुरसी पर चुप बैठा था, डरा वैसा ही जैसा कभी प्रतीति को मैं डरा देखता था. जाने कब मैं क्या बोल पड़ूं. क्या इलजाम लगा कर बच्ची के सामने उसे अपमानित करूं. मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई वह, मेरे सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘बाल रूखे लग रहे हैं, तेल लगा देती हूं.’’

मैं चुपचाप बैठा रहा.

प्रतीति ने बालों में तेल लगाते हुए कहा, ‘‘आज औफिस जाओगे? छुट्टियां तो कल खत्म होंगी.’’

मैं अवाक्, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘क्यों न पता हो? मेरा पति कहीं चला जाए और मैं दफ्तर में खबर भी न लूं.’’

‘‘फिर तुम…’’

‘‘कुछ न कहो. तुम ने अपने हिसाब से सब को चलाने की कोशिश कर के देख ली. यह स्वाभाविक था कि मैं तुम्हारी खोजपरख करती. आगे की सोचो, मलय, पीछे का पीछा छोड़ो.’’

‘‘मैं थक चुका हूं.’’

‘‘तुम क्यों इतना चिंतित हो? सारी चिंता मुझ पर छोड़ो और तुम निश्ंिचत हो जाओ. जैसे कुक्कू मेरी जान है वैसे ही तुम मेरे सबकुछ हो. किस से खफा, किस की गलती? जो तुम हो वही तो हम हैं. तुम से अलग तो कुछ भी नहीं. अगर तुम्हें मेरी कुछ आदतें बुरी लगती हैं तो सरल उपाय है कि उन की लिस्ट बना कर मुझे दे दो, मैं ईमानदारी से उन्हें छोड़ने की पहल करूंगी. मगर स्थितियों को इतना गंभीर न बनाओ.’’

जरा चुहल करने का मन हुआ, कहा, ‘‘ईमानदारी से मुझे तो न छोड़ दोगी?’’

‘तुम्हें तो नहीं, हां तुम्हारी एक आदत छुड़ा कर ही दम लूंगी.’

‘‘तुम्हारी नकारात्मक सोच, और मनमुताबिक न होने को शत्रु भाव से ग्रहण करना, जिस की जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि. बुरा सोचोगे तो हर इंसान बुरा ही नजर आएगा. सब कुछ स्वीकार कर लो तो जीवन प्रेममय बन जाता है वरना कुक्कू के साथ भी वही इतिहास दोहराया जाएगा.’’

‘‘प्रतीति…’’ कह कर मैं ने उसे बाहुपाश में भर लिया.

सचाई को महसूस कराती गहरी गरम सांसें एकदूसरे में विलीन हो रही थीं. मैं ने प्रतीति को सीने से लगा कर उस का माथा चूम लिया. जिस खुशी की खोज में वादियों में भटक आया वह खुशी मेरे लिए मेरे घर में बैठी मेरा इंतजार कर रही थी.

छितराया प्रतिबिंब : वह चाहकर भी अपनी बेटी का फोन क्यों नहीं उठा पा रहा था -भाग 4

जब भी मुझे फुरसत मिलती, हम आपस में खेलते, बातें करते, लेकिन प्रतीति हमारे बीच आ जाती तो मैं मायूस हो जाता, कहीं कुक्कू का झुकाव उस की मां की तरफ हो जाए तो मैं अकेला रह जाऊंगा, मैं अपने पिता की तरह परिवार से दूर हो जाऊंगा. यह मेरे परिवार की बेटी है, मेरी बेटी है, मेरी अमानत. आखिर कुछ तो हो जो पूरी तरह से मेरा हो.

मैं अपनी मां को चाह कर भी हरदम अपने करीब न पा सका, जब देखो तब वे बस पिताजी को ले कर व्यस्त रहतीं. नहीं, मुझे सख्ती से प्रतीति को कुक्कू से दूर रखना होगा, उस का हर वक्त मेरे बच्चे को सहीगलत बताना, निर्देश देना मैं बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

ऐसा लगता था कि वह मुझे ही आदेश दे रही हो, अप्रत्यक्ष रूप से. बेहद चिढ़ होती है मुझे जब पत्नी पति को सीख दे. यही गलती मेरी मां ने कर के पिताजी को जिद्दी और असंतोषी बना दिया था, घर में अशांति की जड़ है पत्नी का स्वयं को ज्यादा समझना. और अब यही काम मेरी पत्नी कर रही थी. मेरी यह चिढ़ इतनी बढ़ गई थी कि अब प्रतीति की हर बात पर मैं बोल पड़ता. प्रतीति कहती, आओ कुक्कू, दूध पीओ. इधर आओ, ड्रैस बदल दूं, कापी निकालो, होमवर्क करना है, आदि.

मैं झल्ला पड़ता, ‘दिमाग नहीं है, बेवकूफ कहीं की. दिख नहीं रहा वह खेल रही है मेरे साथ, अभी कोई होमवर्क नहीं.’
‘दूध तो पीने दो?’
‘क्यों? तुम कहोगी तो हुक्म बजाना ही पड़ेगा? कोई जबरदस्ती है क्या? नहीं पीएगी अभी दूध, उस की जब मरजी होगी तभी पीएगी.’
उदासी और आश्चर्य से भर उठती प्रतीति. कहती, ‘4 साल की बच्ची की कभी दूध पीने की मरजी होगी भी.’
मैं बोलता, ‘नहीं होगी तो नहीं पीएगी, तुम बीच में मत बोलो.’
प्रतीति मारे हताशा के झल्ला पड़ती, ‘बीच में तो तुम पड़ रहे हो. मुझे समझने दो न उस की जरूरतों को.’
‘कोई जरूरत नहीं है तीसरे को बीच में बोलने की, जब मैं अपनी बेटी के साथ हूं, समझीं.’

प्रतीति अवाक् हो कर मेरा मुंह ताकती और मैं झल्ला कर उसे और नीचा दिखाने की, उस पर गुस्सा उतारने की कोशिश करता ताकि वह मेरी ओर देखती न रहे. उस का मेरी ओर इस तरह एकटक देखना मेरे गलत होने का एहसास दिलाता था और मुझे मेरा गलत साबित होना कतई पसंद नहीं था. मैं ने कमर कस ली कि उसे किसी भी कीमत पर इतना नहीं बढ़ने दूंगा कि वह मुझे समझाना शुरू करे.

मैं ने प्रतीति को हर बात पर डराना, दबाना शुरू कर दिया ताकि वह सहीगलत कुछ भी मुझे बता कर मेरी गलतियों का एहसास न करा पाए. धीरेधीरे मैं ने उस में ऐसे एहसास भर दिए कि अगर उस ने कभी भी किसी बात पर अपनी नापसंदगी जाहिर की तो उसे हमेशा के लिए यह घर छोड़ना होगा और यह नुसखा कारगर साबित हुआ. हो क्यों न, कितनी ही पढ़ीलिखी और समझदार भारतीय औरत हो, हर हाल में निभाने वाली मानसिकता उसे कई बार न बरदाश्त हो सकने वाली चीजों को बरदाश्त करने का हौसला दे देती है, प्रतीति की भी यह शक्ति कम मगर सहनशक्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. शारीरिक तौर पर वह ड्यूटी के लिहाज से शायद मुझे खुश रखती थी और ज्यादा अंत:स्थ तक प्रवेश करने की मैं भी जहमत नहीं उठाता था.

दिन गुजरते जा रहे थे, कुक्कू बड़ी होती जा रही थी.

ज्योंज्यों मेरा आधिपत्य बढ़ता जा रहा था, प्रतीति अपनेआप में सिमटती जा रही थी. हमारा रिश्ता सिकुड़ता जा रहा था. कुक्कू अचंभित, हैरान दोराहे पर चलती जा रही थी.

मैं कुक्कू को अकसर पढ़ाने बैठता और कुक्कू की गलतियों के लिए मुझे उस की मां को सुनाने का अच्छा मौका मिलता. प्रतीति चुपचाप सुनती रहती और मैं बेटी के सामने खराब हो जाने के डर से प्रतीति पर उलटेसीधे इलजाम लगाना शुरू करता ताकि कुक्कू अपनी मां को बुरा समझे. इन सब से मैं क्या पाता था या मेरी कौन सी चाहत पूरी होती थी, मैं खुद भी नहीं समझ पाता. हां, इतना अवश्य था कि मेरा भूखा पुरातन ‘मैं’ थोड़ा सांस लेता, पुष्ट होता, संतुष्ट होता. बचपन में मैं रात के साढ़े 3 बजे से भोर 5 बजे तक यही सोचता रहता कि मांपिताजी दोनों साथसाथ एक ही घर में रहते ही क्यों हैं? सोचता, ये अगर अलगअलग हो जाएं तो मैं मां के साथ रहूंगा और तीनों भाइयों को पिताजी के साथ भेज दूंगा. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. जिंदगी हिचकोले खाती चलती रही, साथ वह सिलसिला भी.

मगर अब मैं पूरी क्षमता में हूं कि पुरानी गलतियों को सुधार लूं. अब न तो मैं घर में किसी औरत को हायतौबा मचाने दूंगा और न ही घर में अशांति का महाभारत छिड़ने दूंगा. रोजरोज के क्लेश से बेहतर है अलगाव…अलगाव… अलगाव.

प्रतीति शारीरिक और मानसिक भाषा द्वारा कितनी ही समझाने की कोशिश करती, मुझे लगता वह मुझे उल्लू बना रही है, मुझे धोखा दे कर अपनी बात मनवाने की कोशिश कर रही है. मैं जिद से भर उठता, न मानने की जिद से, उसे नीचा दिखाने की जिद से, बातबात पर उस की गलतियां ढूंढ़ कर उस को गलत साबित करने की जिद से, जो शायद हमारे संसार में नहीं था. उस पुरानी कहानी को काल्पनिक रूप से हमारे संसार पर प्रतिबिंबित कर बचपन की उन बिसूरती यादों को सही करने की जिद से, भर उठता था मैं.

छठी में पढ़ने वाली कुक्कू का रिजल्ट आया था. कक्षा में प्रथम आने वाली कुक्कू किसी तरह पास हो कर 7वीं में पहुंची थी, मैं उस का रिपोर्टकार्ड देख कर अपनेआप को रोक नहीं पाया, घर में मेरे काफी देर बवाल मचाने के बाद जब प्रतीति से रहा नहीं गया तो वह मुझ से उलझ ही पड़ी. प्रतीति अपनेआप में बड़बड़ाती हुई कहने लगी, ‘दूभर कर दिया है जीना. कहीं अकेले बैठ कर सोचो कि शादी के बाद मेरे सारे सपनों को कैसे तुम ने हथौड़े मारमार कर तोड़ा, कहीं चैन की सांस नहीं लेने दी. हमेशा मुझ पर गलत तोहमतें लगाईं और मैं ने कभी उन का सही तरीके से विरोध तक नहीं किया. सब उलटेसीधे इलजामों को अपने दिल में दबा कर घुटती रही, लेकिन कर्तव्य से कभी मैं ने मुंह नहीं फेरा. काउंसिलिंग की बात से चिढ़ होती है, लेकिन खुद सोचो कि हम पर…’

छितराया प्रतिबिंब : वह चाहकर भी अपनी बेटी का फोन क्यों नहीं उठा पा रहा था -भाग 3

मेरी जिंदगी में अकेलेपन का सफर काफी लंबा हो गया था. होस्टल की पढ़ाई के बीच दोस्तों के साथ मनमानी मौज अकेलेपन को भुलाने की या उस दर्द को फटेचिथड़ों में लपेट कर दबा देने की नाकाम कोशिश भले ही रही लेकिन मेरा नया मैं, हर वक्त मेरे पुरातन मैं से नजरें चुराए ही रहना पसंद करता था.

जीवनयुद्ध में अब कामयाब होने की बारी थी क्योंकि मैं अकेले जीतेजीते इतना परिपक्व हो गया था कि समझ सकता था कि इस के बिना मैं डूब जाऊंगा. मैं अपनेआप को खुश रखने वाली स्थायी चीजों की तलाश में था. मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की और पिताजी की कृपा से मुक्त होने को एक अदद नौकरी की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगा. ऐसा नहीं था कि इस उम्र में लड़कियों ने मेरी जिंदगी में आने की कोशिश न की हो. मैं रूप की दृष्टि से अपनी मां पर गया था, इसलिए भी दूसरों की नजरों में जल्दी पड़ जाना या विपरीत सैक्स का मेरे प्रति सहज मोह स्वाभाविक ही था. और इस मामले में मुझ में गजब का आत्मविश्वास था जिस के चलते मैं स्वयं कभी सम्मोहित नहीं होता था. इन सब के बावजूद शादी को ले कर जो धारणाएं मेरे दिल में थीं उस लिहाज से वे मात्र शरीर सुख के अलावा कुछ नहीं थीं. मगर क्या कहूं इन अच्छे घरों की मासूम लड़कियों को. आएदिन लड़के दिखे नहीं कि थाल में दिल सजा कर आ गईं समर्पण करने.

इस मामले में लड़के भी कम दिलदार नहीं थे. लेकिन मैं इस मामले में पक्का था. जवानी की दहलीज पर दहकती कामनाओं को दिल में पल रहे रोष और विद्रोह का रूप दे कर बस तत्पर था स्थायी सुख की तलाश में.
समय की धार में बह कर एक दिन मैं सरकारी नौकरी के ऊंचे ओहदे की बदौलत क्वार्टर, औफिस सबकुछ पा गया. एक खोखली सी, जैसा कि मेरा पुरातन मैं सोचता, जिंदगी बाहरी दुनिया के लिए बहारों सी खिल गई थी.
कुछ साल और गुजरे. मांपिताजी कभीकभी मेरे बंगले में आ कर रहते. लेकिन बदलते हुए भी बदलना जैसे मुझे आता ही नहीं था.

अब भी मां हर वक्त पिताजी को लगातार कुछ न कुछ सुनाती रहती थीं. शायद अब यह फोबिया की शक्ल ले चुका था. पिताजी ने सोचसमझ कर अपने होंठ सिल रखे थे. ‘हर बात अनसुनी कर दो ताकि सामने वाले को यह एहसास हो कि वह दीवारों से बातें कर रहा है’ की मानसिकता के बूते पर रिश्ते घिसट रहे थे. इन सब के बीच मैं दिनोंदिन ऊबा सा, चिढ़ा सा महसूस करता था, जिस से अब भी उन दोनों को कोई लेनादेना नहीं था.

आखिर मैं ने इस अकेलेपन से उबरने का और थोड़ा मनोरंजन का तरीका ढूंढ़ निकाला, जैसे कि यह कोई जड़ीबूटी या जादू हो. मैं ने दूर प्रदेश की एक रूमानी सूरत वाली गेहुंए रंग की धीर, स्थिर, उच्च शिक्षिता से विवाह कर लिया. तरहतरह की कलाओं में पारंगत, सुंदर, रूमानी और विदुषी बिलकुल मेरी मां की तरह.

नौकरी के शुरुआती साल थे. सुंदर और समझदार पत्नी पा कर मैं घर की ओर से बेफिक्र हो गया था. मैं उसे चाहता था और मेरे चाहने भर से ही वह मुझ पर बिछबिछ जाती थी और यह एहसास जब मेरे लिए काफी था तो उसे पाने की जद्दोजहद कहीं बाकी ही नहीं रही.

इधर, नौकरी में मैं ऊंचे ओहदे पर था. अधीनस्थ मानते थे, सलाह लेते थे, मैं अपने अधिकार का भरपूर प्रयोग कर रहा था. अब तक का जीवन जो अकेलेपन की मायूसी में डूबा था, मेरे काम और तकनीकी बुद्धि की प्रखरता से प्रतिष्ठा की रोशनी से भर गया था. मेरा शारीरिक आकर्षण 30 की उम्र में उफान पर था, आत्मविश्वास चरम पर था, इसलिए मेरा सारा ध्यान बाहरी दुनिया पर केंद्रित था.

मैं एक रौबभरी दमदार जिंदगी का मालिक था, जिस में धीरेधीरे अतीत की हताशाओं पर जीत हासिल करने का दंभ भर रहा था. अतीत का एकांत मेरे पुरातन ‘मैं’ के साथ चमकदमक वाली दुनिया के किसी एक अंधेरे कोने में दुबक कर शिद्दत के साथ मेरा इंतजार कर रहा होता, लेकिन मैं उसे अनदेखा कर के अपनी दुनिया में व्यस्त होता जा रहा था. इसी बीच हमारी जिंदगी में बेटी कुक्कू आ गई. उस के आने के बाद मेरे अंतस्थल में ऐसी और कई परतें उभरीं जिन्हें अब तक मैं नहीं जानता था.

मेरे पिता ने हम बच्चों से दूरी बना कर हमारी नजरों में अपनेआप को जितना बुरा बनाया था और मेरी मां के पिताजी पर चीखनेचिल्लाने से उन की जो छवि हमारी नजरों में बनी थी, मैं अपनी कुक्कू के लिए कतई वह नहीं बनना चाहता था. मैं कुक्कू को पूरी तरह हासिल करने और उस की मां की तरफ झुकाव को बरदाश्त न कर पाने की ज्वाला से कब भरता जा रहा था, न तो मुझे ही पता चला और न ही कुक्कू को.

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