लेखक- पुखराज सोलंकी

'बहु, मैं छत पर जा रही हूं, अगर कोई आये तो उसे छत पर ही भेज देना, अभी-अभी मेरी हलवाई से फोन पर बात हुई है वो आता ही होगा, हमने जो एक सौ आठ ब्राह्मणों का भोज रखा है न उसी बारे में उससे कुछ बात करनी है.' कहते हुए मनोरमा सीढियों की और बढ़ी.

थोड़ी देर बाद हलवाई भी आ गया. और ब्राह्मण भोज के लिए मनोरमा और हलवाई के बीच बातचीत होने लगी.

'बाकी सब तो ठीक है, लेकिन तुम्हे एक बात का खास खयाल रखना होगा.' मनोरमा ने हलवाई को चेताया तो हलवाई ने भी अपने कान खड़े कर लिए.

मनोरमा बोली, 'ये तो तुम्हे पता ही है कि हमनें एक सौ आठ ब्राह्मणों का भोज रखा है, खाना बनाते समय तुम्हे और तुम्हारे साथ आने वाले कारीगरों को शुद्धता व साफ सफाई का अच्छा खासा ख्याल रखना होगा, और ध्यान रहे कि तुम्हारे स्टाफ का कोई भी आदमी नीची जाती न हो वरना हम सभी का धर्म भ्रष्ट तो होगा ही पाप के भागीदार बनेंगे सो अलग."

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यह सुनकर हलवाई भरोसा दिलाते हुए बोला, 'आप बेफिक्र रहिये, यह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए, हमारे स्टाफ में आपको एक भी आदमी नीची जाति का नहीं मिलेगा, लेकिन..'

"लेकिन क्या.." मनोरमा तपाक से बोली.

तभी बहु चाय ले आई. चाय का कप उठाते हुए हलवाई बोला-

"देखिए खाना बनाने वाले हमारे स्टाफ में तो कोई भी आदमी नीची जाति का नहीं है, लेकिन खाने के बाद झुंठे बर्तन साफ करने के लिए मैं कह नही सकता की कोन मिलेगा और किस जाति का मिलेगा, इसलिए बर्तन साफ करने के लिए जो भी आदमी मिलेगा उसे ही लाना होगा."

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