लखनऊ . राज्य सरकार युवाओं को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाने के लिए बड़े प्रयास कर रही है. खाद्य प्रसंस्करण की योजनाएं गांव-गांव में बदलाव ला रही हैं. युवा खुद का स्वरोजगार तो स्थापित कर ही रहे हैं साथ में दूसरों को भी रोजगार दे रहे हैं.
महात्मा गांधी खाद्य प्रसंस्करण ग्राम स्वरोजगार योजना इसकी बड़ी मिसाल बनी है. इस योजना का लाभ लेकर गांव के किसान और युवा, उद्यमी बनने के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहे हैं.सरकार की प्राथमिकता गांवों में स्वरोजगार के इच्छुक युवाओं को प्रशिक्षण देकर उनको आत्मनिर्भर बनाने की है. जिससे युवाओं को आर्थिक लाभ होने के साथ गांव का विकास भी संभव हो सके. महात्मा गांधी खाद्य प्रसंस्करण ग्राम स्वरोजगार योजना इसमें बड़ी सहायक बनी है.
पंचायत स्तर पर युवाओं को 03 दिवसीय खाद्य प्रसंस्करण जागरूकता शिविर से जोड़ा जा रहा है. योजना से जुड़े युवाओं को 01 महीने का उद्यमिता विकास प्रशिक्षण दिया जा रहा है. प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद किसान और युवा फल-सब्जी, मसाला, दुग्ध, अनाज प्रसंस्करण की इकाईयां स्थापित कर रहे हैं. खाद्य प्रसंस्करण की इकाई स्थापित करने वाले युवा गांव के बेरोजगार युवकों को भी अपने यहां रोजगार दे रहे हैं.
योजना के तहत खाद्य प्रसंस्करण की इकाई स्थापित करने वाले युवाओं को मशीन या उपकरण की लागत का अधिकतम 50 प्रतिशत और 01 लाख रुपये का अनुदान भी दिया जा रहा है. जिससे गांव के किसान और युवाओं को संबल मिला है और वे स्वयं का रोजगार स्थापित करने में सफल हो रहे हैं.
गांव-गांव युवाओं का संबल बनी ग्राम स्वरोजगार योजन लखनऊ . राज्य सरकार युवाओं को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाने के लिए बड़े प्रयास कर रही है. खाद्य प्रसंस्करण की योजनाएं गांव-गांव में बदलाव ला रही हैं. युवा खुद का स्वरोजगार तो स्थापित कर ही रहे हैं साथ में दूसरों को भी रोजगार दे रहे हैं.
महात्मा गांधी खाद्य प्रसंस्करण ग्राम स्वरोजगार योजना इसकी बड़ी मिसाल बनी है. इस योजना का लाभ लेकर गांव के किसान और युवा, उद्यमी बनने के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहे हैं.सरकार की प्राथमिकता गांवों में स्वरोजगार के इच्छुक युवाओं को प्रशिक्षण देकर उनको आत्मनिर्भर बनाने की है. जिससे युवाओं को आर्थिक लाभ होने के साथ गांव का विकास भी संभव हो सके. महात्मा गांधी खाद्य प्रसंस्करण ग्राम स्वरोजगार योजना इसमें बड़ी सहायक बनी है.
पंचायत स्तर पर युवाओं को 03 दिवसीय खाद्य प्रसंस्करण जागरूकता शिविर से जोड़ा जा रहा है. योजना से जुड़े युवाओं को 01 महीने का उद्यमिता विकास प्रशिक्षण दिया जा रहा है. प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद किसान और युवा फल-सब्जी, मसाला, दुग्ध, अनाज प्रसंस्करण की इकाईयां स्थापित कर रहे हैं. खाद्य प्रसंस्करण की इकाई स्थापित करने वाले युवा गांव के बेरोजगार युवकों को भी अपने यहां रोजगार दे रहे हैं.योजना के तहत खाद्य प्रसंस्करण की इकाई स्थापित करने वाले युवाओं को मशीन या उपकरण की लागत का अधिकतम 50 प्रतिशत और 01 लाख रुपये का अनुदान भी दिया जा रहा है. जिससे गांव के किसान और युवाओं को संबल मिला है और वे स्वयं का रोजगार स्थापित करने में सफल हो रहे हैं.
लखनऊ . राज्य सरकार युवाओं को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाने के लिए बड़े प्रयास कर रही है. खाद्य प्रसंस्करण की योजनाएं गांव-गांव में बदलाव ला रही हैं. युवा खुद का स्वरोजगार तो स्थापित कर ही रहे हैं साथ में दूसरों को भी रोजगार दे रहे हैं.महात्मा गांधी खाद्य प्रसंस्करण ग्राम स्वरोजगार योजना इसकी बड़ी मिसाल बनी है. इस योजना का लाभ लेकर गांव के किसान और युवा, उद्यमी बनने के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहे हैं.
सरकार की प्राथमिकता गांवों में स्वरोजगार के इच्छुक युवाओं को प्रशिक्षण देकर उनको आत्मनिर्भर बनाने की है. जिससे युवाओं को आर्थिक लाभ होने के साथ गांव का विकास भी संभव हो सके. महात्मा गांधी खाद्य प्रसंस्करण ग्राम स्वरोजगार योजना इसमें बड़ी सहायक बनी है.
पंचायत स्तर पर युवाओं को 03 दिवसीय खाद्य प्रसंस्करण जागरूकता शिविर से जोड़ा जा रहा है. योजना से जुड़े युवाओं को 01 महीने का उद्यमिता विकास प्रशिक्षण दिया जा रहा है. प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद किसान और युवा फल-सब्जी, मसाला, दुग्ध, अनाज प्रसंस्करण की इकाईयां स्थापित कर रहे हैं. खाद्य प्रसंस्करण की इकाई स्थापित करने वाले युवा गांव के बेरोजगार युवकों को भी अपने यहां रोजगार दे रहे हैं.
योजना के तहत खाद्य प्रसंस्करण की इकाई स्थापित करने वाले युवाओं को मशीन या उपकरण की लागत का अधिकतम 50 प्रतिशत और 01 लाख रुपये का अनुदान भी दिया जा रहा है. जिससे गांव के किसान और युवाओं को संबल मिला है और वे स्वयं का रोजगार स्थापित करने में सफल हो रहे हैं.
विवाह के बाद कुछ समय तक गौरव शुभांगी के घर पर रहा. फिर नोएडा की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से बढि़या औफर मिला तो वहीं किराए का मकान ले लिया. शुभांगी ने भी तब नोएडा के जानेमाने स्कूल में अपनी सीवी भेज दी. उस के अनुभव व योग्यता को देख वहां उस का सिलैक्शन हो गया. विदित भी तब तक ढाई वर्ष का हो गया था. शुभांगी ने उस का ऐडमिशन अपने स्कूल में करवा दिया. कुछ वर्ष किराए के में बिताने के बाद गौरव ने नोएडा में अपना फ्लैट खरीद लिया.
गौरव चाहता था कि अरुण के सेवानिवृत्ति होने पर मम्मीपापा उस की साथ ही रहें. यही सोच कर उस ने बड़ा फ्लैट खरीदा था, लेकिन अरुण मेरठ में बसने का इच्छुक था. गौरव उस समय थोड़ेथोड़े समय अंतराल पर ही मातापिता से मिलने चला जाता था. तब विदित चौथी कक्षा में था. बाद में उस की पढ़ाई का बोझ और बढ़ते ट्यूशन तथा गौरव की प्रमोशन के कारण दफ्तर का काम बढ़ जाने से उन का मेरठ जाना कम हो गया. परिस्थिति को समझे बिना अपने को उपेक्षित मान ममता व अरुण मन ही मन खिन्न रहने लगे.
इन दिनों भी वे बारबार फोन कर गौरव को आने के लिए कह रहे थे. कुछ दिन पहले ही विदेश में रहने वाले अरुण के एक मित्र का निधन हो गया था. उस दोस्त से फोन पर अरुण अकसर बातचीत कर लिया करता था. मित्र की मृत्यु के कारण अरुण अवसाद से घिर गया था. ममता भी इस समाचार से दुखी थी.
अपने मम्मीपापा की उदासी से चिंतित हो गौरव ने 2 दिन के लिए मेरठ जाने का कार्यक्रम बना लिया. शुभांगी और विदित ने स्कूल से छुट्टी ले ली. गौरव के औफिस में यद्यपि शनिवार की छुट्टी रहती थी, किंतु काम की अधिकता के कारण उस दिन औफिस जा कर या घर पर ही काम निबटाना पड़ता था. ‘काम वहीं जा कर पूरा कर लूंगा’ सोच कर उस ने लैपटौप साथ रख लिया.
तीनों मेरठ पहुंचे तो अरुण व ममता के सूने घर में ही नहीं सूने चेहरे पर भी रौनक आ गई. शुभांगी वहां पहुंच कर चाय पीते ही रसोई में जुट गई. विदित दादाजी को अपने स्कूल और दोस्तों के किस्से सुनाने लगा और गौरव ने औफिस का काम निबटाने के उद्देश्य से लैपटौप औन कर लिया. गौरव को काम करते देख ममता ताना मारते हुए बोली, ‘‘पता है मुझे कि मेरा बेटा बहुत ऊंचे ओहदे पर है, लेकिन ये सब हमें दिखाने से क्या फायदा तुम्हारे पापा के दिन कितनी मुश्किल से बीतते हैं, पता है तुम्हें? न घर पर चैन न बाहर. बस इंतजार करते हैं कि कोई पड़ोसी मिलने आ जाए या फिर दफ्तर से कोई दोस्त फोन कर कहे कि सब बहुत याद कर रहे हैं. अब बताओ ऐसा हुआ है क्या कभी? तुम बंद करो काम और पापा को सारा समय दो आज अपना.’’
अरुण ने ममता की बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अरे, मैं तो सरकारी महकमे के डायरैक्टर की पोस्ट से रिटायर हुआ हूं. इतना काम तो मैं ने भी नहीं किया कभी, तुम क्या जबरन ओट लेते हो काम अपने ऊपर?’’ ‘‘पापा प्राइवेट सैक्टर में कंपीटिशन इतना बढ़ चुका है कि मैं काम सही ढंग से नहीं करूंगा तो मुझे रिप्लेस करने में उन के 2 दिन भी नहीं लगेंगे. चलिए, आप की बात मानते हुए नहीं करूंगा आज काम. लेकिन 1-2 दिन हम लोग आप के पास रह भी जाएंगे तो क्या हो जाएगा? आप लोग ही चलिए न हमारे साथ,’’ गौरव काम बीच में ही छोड़ लैपटौप शटडाउन कर मुसकराता हुआ बोला.
‘‘कहां चलें? तुम्हारे घर? अरे बेटा, वहां भी तुम तीनों रोज अपनेअपने काम पर निकल जाओगे. मैं और ममता फिर अकेले हो जाएंगे. यहां कम से कम पुराने पड़ोसी और यारदोस्त तो हैं. फिर मैं तो दूध, सब्जी लेने जाता हूं तो किसी न किसी से दुआ सलाम हो ही जाती है. असली मुश्किल तो तुम्हारी मम्मी की है. यहां की किट्टी में छोटी उम्र की औरतें ज्यादा आती हैं, ये कहते हैं कि उन के साथ बात करूं तो वही सासननद की शिकायतें ले कर बैठ जाती हैं. फोन पर कितना बतिया लेंगी अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ?’’ कह कर अरुण ने ममता की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा. ममता ने हामी में सिर हिला दिया.
शुभांगी किचन में खड़ी उन की बातें सुन रही थी. बाहर निकल अपनी एक सहेली की मम्मी के विषय में बताते हुए वह बोली, ‘‘मेरी फ्रैंड शिवानी की मम्मी उस के पापा के दुनिया से चले जाने के बाद बहुत अकेली हो गईं थीं. उन्हें बागवानी का बहुत शौक था. छोटा सा किचन गार्डन भी था उन के आंगन में. वे अकसर फोन पर गार्डनिंग की प्रौब्लम्स, तरहतरह के पौधों और फूलों की देखभाल और खाद वगैरह के बारे में अपने भैया से डिस्कस करती रहती थीं. शिवानी के वे मामा यूनिवर्सिटी के हौर्टिकल्चर डिपार्टमैंट में लेक्चरार थे. उन के कहने पर आंटी ने इस सब्जैक्ट को इंट्रस्टिंग बनाते हुए हाउसवाइव्स के लिए वीडियो बना कर अपने यूट्यूब चैनल पर डालने शुरू कर दिए. यू नो, धीरेधीरे वे इतनी पौपुलर हो गईं कि लोग सजेशंस मांगने लगे. फेसबुक और इंस्टाग्राम पर जब वे अपने सुंदरसुंदर गमलों और क्यारियों की पिक्स डालतीं तो लाइक्स और कमैंट्स की बरसात हो जाती. इस से जिंदगी में उन्हें खुशियां तो मिली हीं, साथ ही वे बिजी भी हो गईं.’’
शुभांगी की बात पूरी होते ही ममता तपाक से बोली, ‘‘मुझे भी कुकिंग का बहुत शौक है. इन का जहां भी ट्रांसफर हुआ, वहां का खाना बनाना सीख लिया था मैं ने. हिमाचल प्रदेश के तुड़किया भात और बबरू, मध्य प्रदेश की भुट्टे की कीस, गोआ के गोइन रैड राइस और फोनना कढ़ी, बंगाल के आलू पोस्तो, पीठा, लूची संग छोलार दाल… और… और… अरे बहुत कुछ है. सुनोगे?’’
सरकार को चारों तरफ से घेरने की अग्र जिम्मेदारी जिन मीडिया चैनलों पर थी, वे पहरेदार बन उस का बचाव करने में जुटे हैं. टीवी न्यूज चैनलों द्वारा किसानों की समस्याएं, बेरोजगारी, महंगाई जैसी दिक्कतों को छिपाने के भरसक प्रयास और गैरजरूरी मुद्दे उठाए जाना एक सोचेसम?ो षड्यंत्र का हिस्सा है. अधिकांश चैनलों द्वारा असल मुद्दों को धूल की तरह कारपेट के नीचे छिपाया जा रहा है. आज पूरे विश्व में हिटलर और उस की दहशत के बारे में कौन नहीं जानता.
ऐसा क्रूर शासक जिस के बारे में प्रचलित किस्सेकहानियां आज भी दिल दहला देती हैं, सोचने को मजबूर कर देती हैं कि क्या लोकतंत्र के दमन का ऐसा भी कोई शासन चलाया जा सकता था? इस प्रश्न का जवाब यदि हिटलर युग में ढूंढ़ा जाता तो शायद न मिलता लेकिन आज इस का जवाब जोसेफ गोएबल्स के रूप में मिलता है. जोसेफ गोएबल्स नाजी जरमनी का मिनिस्टर औफ प्रोपगंडा था. गोएबल्स का कहना था, ‘एक ?ाठ को अगर बारबार दोहराया जाए तो वह सच बन जाता है और लोग उसी पर यकीन करने लगते हैं.’ बात बिलकुल सही थी, इसलिए पूरे विश्व में हिटलर के राज और गोएबल्स के काज को मानने वाले संकीर्ण लोगों ने इसे तहेदिल से स्वीकार किया. अब गोएबल्स तो नहीं रहा लेकिन उस की कही बातें कइयों के मनमस्तिष्क में घर कर गई हैं.
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और आधुनिक तकनीकी युग में हमारे देश भारत में हर शाख पर गोएबल्स सरीखे खड़े कर दिए गए हैं जिन का काम सिर्फ सरकार या कहें मोदी की चाटुकारिता करना व देशवासियों को गुमराह करना है. भारत में यह जिम्मा सीधेतौर पर न्यूज चैनलों को भी दे दिया गया है. कहने को चैनल्स जन की आवाज हैं पर उन के असल रिंग मास्टर नरेंद्र मोदी हैं. यही कारण है कि उन के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार के कार्यकाल के दौरान चैनलों के लिए ‘गोदी मीडिया’ शब्द ईजाद हुआ. इस की कई वजहें हैं. पिछले साल की बात है, देशवासियों पर कोरोना के बढ़ते कहर का जितना असर पड़ा, उस से कहीं अधिक असर सरकार की बदइंतजामी का पड़ा. अच्छेखासे चलते व्यापार ठप पड़ गए, करोड़ों ने अपनी नौकरियां गंवाईं और शहरों में रहने वाले प्रवासी मजदूर सैकड़ों मील पैदल अपने गांव जाने को मजबूर हुए. किंतु न्यूज चैनलों ने इन समस्याओं पर सरकार से सवाल करने की जगह जनता से दीया, टौर्च जलाने और तालीथाली पीटने के बेवकूफीभरे कृत्य करने पर जोर दिया. यही नहीं, भाजपाई सरकार के शासन के बीते सालों में नोटबंदी, जीएसटी जैसी आर्थिक (कु)नीतियां थोपी गईं, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर डाला. हैरानी यह है कि तब भी टीवी चैनल सरकार का बचाव करते दिखे.
और अब, जब कृषि कानून जैसी सुसाइडल नीतियां देश पर थोपी जा रही हैं तब भी चैनलों का एक बड़ा धड़ा सरकार की ही गोद में बैठा हुआ है. इस का हालिया उदाहरण हरियाणा के करनाल में किसानों पर 28 अगस्त को की गई बर्बर लाठीचार्ज की घटना है जिस में एक किसान की मौत और कई किसान बुरी तरह घायल हुए. प्रशासनिक पद पर बैठे अधिकारी किसानों का ‘सिर फोड़ने’ का सीधा आदेश देते पाए गए. ऐसे आदेश के बाद कई किसानों के सिर फूटे भी, लेकिन मेनस्ट्रीम चैनलों से यह घटना गायब रही. इस घटना के बाद जब लाखों किसान राजधानी दिल्ली से मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर करनाल सचिवालय में न्याय की गुहार लगाने पहुंचे, तब भी चैनलों के कानों में जूं न रेंगी. चैनलों पर पूरे समय तालिबान-पाकिस्तान ही छाया रहा. यह भारतीय न्यूज चैनलों का षड्यंत्र ही था कि न तो उन्होंने किसानों पर हुए लाठीचार्ज को कवर किया,
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न ही किसानों की उस दौरान ऐतिहासिक जीत या कहें कि 7 सालों में जनता की तरफ से भाजपा सरकार की पहली हार को जगह दी. टीवी चैनलों का इसी तरह का फर्जीवाड़ा 20 सितंबर को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष और निरंजनी अखाड़ा के सचिव महंत नरेंद्र गिरि की आत्महत्या मामले को ले कर दिखा. एक मामूली सी आत्महत्या की घटना को पूरे देश में जानबू?ा कर नैशनल मुद्दा बना कर तिल का ताड़ बनाया गया. इस मुद्दे का ताल्लुक न तो भुखमरी से मर रहे मजदूरों से था, न किसानों की हर वर्ष होने वाली आत्महत्या से था और न ही बेरोजगारों की फटेहाल जिंदगी से, लेकिन चूंकि लोगों को षड्यंत्र के तहत फालतू मुद्दों से भटकाना था तो यही चलाया गया. हाल की इन दोनों घटनाओं के विश्लेषण से आसानी से सम?ा जा सकता है कि आज टीवी चैनल सूचनाओं के मामले में किस गिरावट से गुजर रहे हैं. इस से यह साफ हो जाता है कि ज्यादातर न्यूज चैनल सरकारी चाटुकारिता में लगे हैं. हालांकि, इन के द्वारा किया जा रहा यह कृत्य लोकतंत्र की कब्र खोद रहा है.
सरिता टीम ने इन दोनों इवैंट्स पर टीवी न्यूज चैनलों की प्राइम टाइम कवरेज का विश्लेषण किया, जो इस तरह है- द्य इंडिया टीवी स 9 सितंबर : रात 8 बजे ‘हकीकत क्या है’ के तहत सब से पहले 13वीं ब्रिक्स समिट की बात की गई. फिर बाराबंकी यूपी में असदुद्दीन ओवैसी की रैली, ओवैसी का मुख्य एजेंडा, ‘यूपी में मुसलमानों का नेता क्यों नहीं है,’ सीएम की दावेदारी, गणेश चतुर्थी के नाम पर लोगों के धार्मिक उन्माद इत्यादि दिखाया गया. रात 9 बजे ‘आज की बात रजत शर्मा के साथ’ के प्राइम टाइम में पाकिस्तान से 40 किलोमीटर दूर कैसे जैगुआर और हरक्यूलिस विमान उतारे गए, नितिन गडकरी का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू, पाकिस्तान के बाजार में अमेरिकी हथियार की खुलेआम बिक्री, प्रियंका गांधी के यूपी और राहुल गांधी का वैष्णो देवी के दरबार में जाने के समाचार को बताया गया. स 21 सितंबर : प्राइम टाइम में रात 8 से 10 बजे के बीच एक घंटे से भी ज्यादा समय की कवरेज दी गई वह था महंत महेंद्र गिरि की मौत.
रात 8 से 8:30 बजे तक महंत की आत्महत्या और सुसाइड नोट पर जम कर जांचपड़ताल हुई. फिर करीब 20 मिनट का समय मोदी के अमेरिका भ्रमण पर केंद्रित रखा गया. रात 9 बजे ‘‘आज की बात रजत शर्मा के साथ’’ की शुरुआत हुई. इस में भी कैमरों का फोकस महंत महेंद्र गिरि के मठ के आसपास, उस के चेलों और सहयोगियों के चेहरों पर और सुसाइड नोट के पन्नों पर घूमने लगा. रजत शर्मा के इस एक घंटे के प्रोग्राम में करीब 45 मिनट का समय महंत की आत्महत्या को दिया गया. द्य आजतक स 9 सितंबर : रात 8-10 बजे के बीच दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों में फोकस भाजपा सरकार का इंटरनैशनल प्रोपगंडा, गणपति के नाम पर धर्म का वही पुराना तमाशा, आतंकवाद और तालिबान के नाम पर मिसलीडिंग रिपोर्ट, फिल्मी नौटंकी, क्रिकेट का फर्जी गुणगान, गैरजरूरी पब्लिसिटी इत्यादि पर ही केंद्रित था. स 21 सितंबर : रात 8-10 बजे का पूरा प्राइम टाइम बाबा की मर्डर मिस्ट्री को समर्पित कर दिया, वहीं देश की जरूरी खबरों को सिर्फ 5-7 मिनट की हैडलाइन तक ही सीमित रखा. द्य टीवी 9 भारतवर्ष स 9 सितंबर : रात के 8 बजे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान के मुद्दे पर खास कार्यक्रम दिखाया गया.
यह आधा घंटे का प्रोग्राम था. रात के 8.30 बजे सुपर प्राइम टाइम कार्यक्रम था, जिस में आधे घंटे में ‘कैसे फरार हुए 6 फिलिस्तीनी कैदी’ पर फोकस था. तालिबान पर 100 फटाफट खबरें दिखाई गईं, जिन का देश की समस्याओं से कोई लेनादेना न था. रात के 9 बजे ‘फिक्र आप की’ कार्यक्रम में ‘पाकिस्तान की शामत आई,’ भारत की सामरिक ताकत में इजाफा, सड़क पर फाइटर जहाज की लैंडिंग, जिस में हाईवे पर फाइटर जहाज की लैंडिंग को दिखाया गया. स 21 सितंबर : रात 8-10 बजे के बीच चैनल में महंत नरेंद्र गिरि की मौत पर फोकस, 13 पन्नों के सुसाइड नोट को बारीकी से पढ़ा गया, महंत आनंद गिरि के बारे में उन की ‘कर्मकुंडली,’ जमीन विवाद को नया रंग दिया गया, पूरी संपत्ति का ब्योरा दिया गया, महंत नरेंद्र गिरि की अरबों की संपत्ति की जानकारी भी दी गई.
न्यूज नैशन स 9 सितंबर : रात के 8 बजे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान के मुद्दे पर खास कार्यक्रम दिखाया गया. टैलीविजन कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला की मौत पर सवाल उठाए गए. 8.30 बजे ‘देश की बहस’ कार्यक्रम में कुछ लोगों के पैनल में बहस दिखाई गई. बहस में भारतपाकिस्तान के कुछ बुद्धिजीवियों की आपसी तूतूमैंमैं ही थी. यह कुल एक घंटे की बहस थी, जो समय की बरबादी से ज्यादा कुछ नहीं थी. स 21 सितंबर : रात 8 बजे खबर ‘कट टू कट’ में महंत नरेंद्र गिरि की मौत पर ‘गुरु चेला और ब्लैकमेल’ के नाम से प्रोग्राम चलाया गया. उन के लिखे गए सुसाइड नोट की पड़ताल की गई, आनंद गिरि पर निशाना साधा गया, आनंद गिरि की विलासिता से भरी जिंदगी पर रोशनी डाली गई. रात 8.30 बजे पत्रकार दीपक चौरसिया ने ‘देश की बहस’ नामक अपने कार्यक्रम में महंत नरेंद्र गिरि पर ही फोकस रखा. जिस में कुछ भी नया नहीं था.
इस में भी उसी खबर को आगे बढ़ाया गया जो पिछले आधे घंटे से चल रही थी. द्य जी हिंदुस्तान स 9 सितंबर : रात 8 बजे ‘वंदे मातरम’ शो चीन, तालिबान और पाकिस्तान के संबंध पर केंद्रित था. रात 8.40 पर दूसरा शो ‘मेरा राज्य मेरा देश’ में चीन, तालिबान और पाकिस्तान को ले कर ही खबरें थीं. 9 बजे ‘राष्ट्रवाद’ के प्राइम टाइम में चर्चा मोदी के मास्टरस्ट्रोक को ले कर थी. रूस, अमेरिका और भारत की एनएसए लैवल मीटिंग और बाड़मेर में रनवे को ले कर बात, पाकिस्तान में इमरान के महिलाओं पर कमैंट और ओवैसी की रैली की खबरें ही दिखाई गईं. स 21 सितंबर : जी हिंदुस्तान पर रोजाना दो शो, शाम 8 से 10 बजे के बीच में मुख्य रहते हैं, एक ‘वंदे मातरम’ और दूसरा ‘राष्ट्रवाद’. 7.55 पर ‘वंदे मातरम’ शो शुरू हुआ. इस के एंकर थे मकसूद खान. शो के प्राइम खबर में महंत नरेंद्र गिरि की मौत को जगह दी गई. तकरीबन एक घंटे के स्लौट में खबर रत्तीभर नहीं, पर धायंधूं बैकग्राउंड म्यूजिक, साउंड और चिल्लपों खूब चलता रहा. पिछले साल की सुशांत की मौत की ?ालकी याद आने लगी. इस के बाद 9 बजे ‘राष्ट्रवाद’ नाम का शो आया.
एंकर थीं ‘भारत की बेटी’ शालिनी कपूर तिवारी. इस शो में भी खबर वही, इंटरव्यू वही, म्यूजिक वही, चीखमचिल्ली वही, जो पीछे मकसूद भाई साहब बोल कर गए, वही शालिनी मैडम बोलती रहीं. द्य एनडीटीवी स 9 सितंबर : रात 8 बजे इस चैनल ने ब्रिक्स पर बहस दिखाना शुरू किया, जिस में मोदी की तारीफ नहीं, बल्कि 5 देशों की अलगअलग भूमिकाओं पर फोकस किया जा रहा था. रात 9 बजे एंकर रवीश कुमार के प्राइम टाइम में टैक्सटाइल इंडस्ट्री की बदहाली और इस सैक्टर में बढ़ती बेरोजगारी के कारण, करनाल में किसान कैसे क्या कर रहे हैं यह विस्तार से दिखाया गया, हरियाणा सरकार द्वारा गन्ने के समर्थन मूल्य बढ़ाए जाने पर किसानों की राय, घायल किसान महेंद्र पुनिया को किसान चंदा कर मदद करना इत्यादि दिखाया गया. स 21 सितंबर : एनडीटीवी पर रात 8 बजे कार्यक्रम ‘खबरों की खबर’ में एंकर संकेत उपाध्याय हाल ही में भाजपा छोड़ टीएमसी में शामिल हुए गायक और सांसद बाबुल सुप्रियो से रूबरू थे. यह हर किसी को सम?ा आ गया था कि इस डैकोरेटिव इंटरव्यू की मंशा बाबुल सुप्रियो को दिखाने की ज्यादा है. इस के बाद ‘बड़ी खबर’ कार्यक्रम में एक और एंकर नगमा ने इस दिन की सब से बड़ी खबर महंत नरेंद्र गिरि की कथित आत्महत्या और उन की लिखी चिट्ठी यानी सुसाइड नोट को दिखाया.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और सपा प्रमुख अखिलेश यादव की बाइट्स भी प्रमुखता से दिखाई गईं, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया को एक गार्ड द्वारा डंडा मारे जाने की खबर को दिलचस्प अंदाज में पेश किया गया. 9 बजे प्राइम टाइम में रवीश कुमार जरूर उन मुद्दों को ले कर प्रस्तुत हुए जिन के लिए उन का शो जाना जाता है. वे अपने शो में ‘अच्छी सैलरी और अच्छी नौकरी के दिन चले गए’ शीर्षक से कार्यक्रम लाए, जिस के शुरू में पहले तो आदतन उन्होंने गोदी मीडिया को कोसा और फिर उत्तराखंड के मैडिकल छात्रों की बात की. मैडिकल कालेजों की लगातार बढ़ती फीस को मुद्दा बनाते रवीश ने आंकड़ों के जरिए बताया. कुछ देर बाद ही सीएमआईई के मैनेजिंग डायरैक्टर महेश व्यास का इंटरव्यू दिखाया गया जो लाख उकसाने के बाद भी सीधेसीधे मोदी सरकार की नीतियों के विरोध में कुछ नहीं बोले, बल्कि सु?ाव दे कर कमियों को उजागर किया. शो का अगला और धमाकेदार आइटम मध्य प्रदेश के कृषि कल्याण विभाग में खाली पड़े पदों को ले कर सवाल करता हुआ था कि इस विभाग में साल 1990 से नई नियुक्तियां ही नहीं हुई हैं. कितने पद किस श्रेणी के खाली पड़े हैं और क्यों पड़े हैं, यह सवाल जोर दे कर पूछा गया.
रिपब्लिक भारत स 9 सितंबर : रात 8 बजे की सुपरफास्ट 200 खबरों से, जिस में शुरुआती 1 से ले कर 40 खबरें सिर्फ तालिबान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से ही जुड़ी हुई थीं. उस के बाद बंगाल में होने वाली राजनीतिक उथलपुथल, उत्तर प्रदेश में चुनाव को ले कर भाजपा की तैयारियां वगैरहवगैरह. बीच में कहीं किसानों की खबरों को स्पेस मिला. वह भी मात्र 5 बुलेट्स में जिसे पढ़ने में दोनों महिला एंकरों ने मुश्किल से 35 सैकंड्स का समय लगाया. अंत में कुछ अन्य सुर्खियों, जिन में कुछ पौजिटिव खबरें थीं तो कुछ कुत्ते, बिल्ली, शेर, गीदड़ इत्यादि से जुड़ी खबरों के साथ प्रोग्राम का अंत हुआ. रात 9 बजे ऐश्वर्य कपूर के साथ ‘पूछता है भारत’ प्राइम टाइम. टौपिक था तालिबानी क्रूरता की ‘क्राइम कुंडली.’ 20 सालों पहले हुए अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर हुए हमले को याद किया गया.
उस के बाद डिबेट शुरू हुई. द्य भारत समाचार स 21 सितंबर : शाम 7 बजे से 9 बजे के प्राइम टाइम में जनता के मुद्दों के बजाय केवल यह दिखाया जाता रहा कि प्रयागराज के महंत नरेंद्र गिरि की मौत हो गई. पूरे एक घंटे तक इस घटना को ले कर अलगअलग तरह की घटनाओं के समाचार दिखाए गए. शाम 7:45 से 8 बजे के बीच अडानी ग्रुप के गौतम अडानी की खबर के साथसाथ फिरोजाबाद की कुछ खबरों के बाद शिवपाल यादव और ओवैसी की मुलाकात की खबर दिखाई गई. शाम 7:55 से ले कर 8 बजे के बीच 5 मिनट में ‘तेज रफ्तार समाचार’ में तमाम खबरें ऐसे निबटा दी गईं कि वे किसी को सुनाई ही नहीं दी होंगी. रात 8 बजे से ‘द डिबेट’ नामक शो शुरू होता है. जिस के एंकर ‘भारत समाचार’ के प्रमुख ब्रजेश मिश्रा होस्ट करते है. इस में कई दिलचस्प हैडिंग के सहारे ‘मठ-महंत और मौत की मिस्ट्री’ नाम से शो को प्रसारित किया गया. ब्रजेश मिश्र बारबार पुलिस की कार्यशैली, शव का पोस्टमार्टम न कराए जाने को मुद्दा बनाते रहे. वे बारबार यह बात भी दोहरा रहे थे कि महंत की मौत की जांच सीबीआई से क्यों न कराई जाए? चैनलों का खेल टीवी न्यूज चैनलों के इन विश्लेषणों से यह बात साफतौर पर जाहिर होती है कि चैनलों में दिखाई जाने वाली खबरें जनता से कोई सरोकार नहीं रखती हैं.
आजकल न्यूज चैनल सरकार की भक्ति और षड्यंत्र फैलाने में उल?ा कर रह गए हैं. इस के लिए वे असल खबरों को एक तरफ दबाते चलते हैं तो दूसरी तरफ उन खबरों की जानबू?ा कर कवरेज करते हैं जो जनता को भ्रमित करती हैं. दोनों विश्लेषणों में साफ दिखता है कि चैनल उन मुद्दों को दबाते हैं जो जनता से जुड़े हैं और उन्हें जानबू?ा कर उठाते हैं जो फुजूल के हैं. 9 सितंबर के दिन टीवी चैनलों में जानबू?ा कर पूरे दिन अफगानिस्तान से संबंधित खबरों को दिखाया जा रहा था ताकि किसान संबंधित खबरों को इस बहाने छिपाया जा सके. यह सिर्फ इस बार की बात नहीं, जब से किसान दिल्ली के बौर्डरों पर अपनी मांग को ले कर प्रदर्शन कर रहे हैं, लगभग तभी से ही एक खास षड्यंत्र के तहत उन के सवालों को या तो छिपाया जा रहा है या गलत तरीके से जनता के सामने परोसा जा रहा है. हम ने पिछले 9 महीनों में चैनलों के माध्यम से किसानों पर कभी खालिस्तानी, माओवादी, आतंकवादी का आरोप लगते सुना तो कभी देशद्रोही होने का. वहीं, महंत की आत्महत्या मामले को चैनलों में भरपूर जगह देना सीधा दिखाता है कि चैनल के पास आमजन की खबरें दिखाने की हिम्मत नहीं बची है. जहां देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी हो, महंगाई और बेरोजगारी चरम हो, असमानता दिनोंदिन बढ़ रही हो,
शिक्षा और स्वास्थ्य डांवांडोल हो, वहां पूरेपूरे दिन इस खबर पर सिर गड़ाए रखना उस शुतुरमुर्ग सरीखा लगता है जो मोदी बचाव में ही अपने सिर को जमीन से बाहर निकालता है. मीडिया के दोगलेपन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गुजरात के मुद्रा पोर्ट पर 15 सितंबर को 2,988 किलो, जिस की कीमत 21 हजार करोड़ रुपए आंकी गई, अफगान हेरोइन सीज की गई. बता दें यह वही पोर्ट है जो इस समय अडानी के कंट्रोल में है. किंतु इस मामले में मजाल कि किसी गोदी चैनल की चूं बोल जाए, पर एक बार पिछले साल के टीवी चैनलों के नजारों पर गौर करें तो रिया चक्रवर्ती जिस के पास कथित 59 ग्राम की हशीश होने के आरोप लगे थे को भयानक मीडिया ट्रायल से गुजरना पड़ा. चाटुकारिता सिर्फ प्राइवेट न्यूज चैनलों में ही नहीं, बल्कि लोकसभा व राज्यसभा चैनलों में भी देखी गई है, जिस के ऊपर विपक्ष ने अपनी कवरेज न दिखा, पक्षपाती होने के गंभीर आरोप हाल ही में लगाए हैं. यही कारण भी था कि मोदी सरकार ने हाल ही में इन दोनों सरकारी चैनलों को आपस में मर्ज कर ‘संसद’ चैनल लौंच किया ताकि राज्यसभा, जहां विपक्ष थोड़ीबहुत मजबूत स्थिति में है, उस की कम से कम कवरेज की जा सके. ध्यान देने वाली बात यह है कि इस वर्ष अप्रैल में वर्ल्ड फ्रीडम इंडैक्स की रिपोर्ट पब्लिश हुई थी.
उस के अनुसार, 180 देशों की लिस्ट में भारत शर्मनाक 142वें स्थान पर था, जिसे आजाद पत्रकारिता के लिहाज से खराब माना गया है. टीवी न्यूज चैनल का असली काम सरकार और सत्ता से सवाल करना है, लेकिन अपना काम न कर वे सरकार की चाटुकारिता कर रहे हैं. यही वजह भी है कि भारत का स्थान दुनिया में 142वें स्थान पर आता है. लेकिन इस की क्या वजह है कि न्यूज चैनल सरकार से सवाल पूछने में घबराते हैं. प्रैस की स्वतंत्रता और पत्रकारों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘रिपोर्ट्स विदाउट बौडर्स’ ने 37 ऐसे राष्ट्राध्यक्षों यानी सुप्रीम नेताओं के नाम प्रकाशित किए जो उस के मुताबिक, प्रैस को प्रभावित कर रहे हैं, जिन में नरेंद्र मोदी का भी नाम शामिल था. मीडिया से असल मुद्दे नदारद देश में मजदूर, किसान की हालत नहीं सुधरी, बेरोजगारी कम नहीं हुई. दुकानदार या म?ाले उद्योगपति अपने कारोबार बैठ जाने से त्रस्त हैं. इन सब को लगता है कि 7 सालों की भगवा सरकार में उन्हें कुछ मिला नहीं, बल्कि जो उन के पास था, वह भी उन से छिन गया.
किसान खेतों से निकल कर शहर की सड़कों पर बैठे हैं. एमएसएमई सैक्टर पर पड़े बुरे प्रभाव से मजदूरों का काम छिन गया है. इस वर्ष के मनरेगा के आंकड़े बताते हैं कि जुलाई में करीब 3.19 करोड़ परिवारों ने इस योजना के तहत काम की मांग की, जो पिछले साल की तुलना में 0.25 प्रतिशत कम है. लेकिन 2019 के समान महीने की तुलना में करीब 74 प्रतिशत ज्यादा है. यह दिखाता है कि शहरों से गए मजदूरों का बड़ा हिस्सा अपने गांव में ही बसा रह गया. भाजपा सरकार ने 2014 में सत्ता में आने से पहले युवाओं को अच्छे दिनों के सपने दिखाए थे. युवा बेहतर रोजगार और विकास के सपने संजोने लगे थे, पर युवाओं की उम्मीद वहीं टूट गई जब मोदी ने पकोड़े तलने को ही युवाओं के लिए रोजगार की श्रेणी में डाल दिया. आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार, विश्व में औसत रोजगार दर 57 फीसदी है. जबकि भारत की औसत रोजगार दर 47 फीसदी है. यहां तक कि हम से नीचे माने जाने वाले पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका और बंगलादेश भी भारत से इस मामले में आगे हैं.
पाकिस्तान और श्रीलंका की रोजगार दर कमश: 50 और 51 फीसदी है, जबकि बंगलादेश में रोजगार दर 57 फीसदी है. आज देश अभूतपूर्व बेरोजगारी देख रहा है. खुद सरकार की एनएसएसओ की लीक्ड रिपोर्ट के अनुसार, भारत की बेरोजगारी दर 2017-18 में 45 वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी. इस शर्म के बाद सरकार ने बेरोजगारी का सरकारी डेटा निकालना ही छोड़ दिया. उधर, सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 में नौकरीपेशा जौब में 98 लाख की गिरावट हुई है. इसी रिपोर्ट के अनुसार कोरोना की दूसरी लहर में अप्रैलमई के महीने में 2.27 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए, तब बेरोजगारी दर 12 प्रतिशत तक पहुंच गई. यही कारण भी है कि पिछले और इस साल 17 सितंबर को युवाओं ने प्रधानमंत्री के जन्मदिन को ‘बेरोजगार दिवस’ और ‘जुमला दिवस’ घोषित कर दिया. पर इस की उम्मीद चैनलों से लगाना कि वे बेरोजगारी को ले कर चर्चा करेंगे और सरकार से सवाल पूछेंगे, खुद को धोखे में रखने जैसा है.
सीएमआईई के आकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सितंबर 2016 तक भारतीय मीडिया और प्रकाशन उद्योग में 10 लाख से अधिक कर्मचारी काम कर रहे थे. अगस्त 2021 में इन की संख्या घट कर मात्र 2 लाख 30 हजार ही रह गई है. इस सैक्टर से 78 प्रतिशत नौकरियां खत्म हो गई हैं. यानी 5 में से 4 मीडिया कर्मियों की नौकरियां समाप्त हो गई हैं. सिर्फ इसी साल मीडिया और प्रकाशन में काम करने वाले 56 प्रतिशत कर्मचारियों ने या तो काम छोड़ दिया या उन की नौकरियां चली गई हैं. अब सोचिए कि यह जब अपने क्षेत्र में पनपे बेरोजगारी पर कुछ बोल नहीं रहे तो खाक दूसरे क्षेत्र की बेरोजगारी पर कहेंगे. जबकि ये अच्छे से जान भी रहे हैं कि इस बेरोजगारी के पीछे का कारण पिछले सालों में लागू की गई खराब मोदी नीतियां हैं. इस के बावजूद ये इस पर नहीं कहेंगे क्योंकि इन बड़ेबड़े टीवी चैनलों का संचालन करने वाले कहीं न कहीं मोदीमयी हैं,
उन की मनुवादी मानसिकता का समर्थन करते हैं. लंदन स्थित ग्रुप ‘द इकोनौमिस्ट’ की सहयोगी संस्था ‘द इकोनौमिस्ट इंटैलिजैंस यूनिट’ (ईआईयू) के अनुसार, 167 देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थितियों को परखने के बाद भारत को 6.61 अंक मिले हैं. जबकि वर्ष 2019 में उस का स्कोर 6.9 और रैंकिंग 51 रही. भारत का सब से बेहतर स्कोर 2014 में 7.92 रहा है, तब उस की रैंकिंग 27 थी. यह सरिता के विश्लेषण से भी सम?ा आ रहा है कि देशवासियों के बुनियादी सवालों पर न टीवी चैनलों में कोई खास बात हो रही है और न राजनीति में. दोनों ने पूरे देश को धर्म और पाखंड की जंजीरों में बांध रखा है. वर्तमान हालात को गहराई से सम?ाने वाली खबरें, बातें और किताबें अब पत्रकारिता से गायब हो चुकी हैं. गोदी पत्रकारिता का बोलबाला है, जहां खूब सारे पैसे और अवार्ड्स हैं. मीडिया में थ्योरी है ‘कल्टीवेशन थ्योरी’ या इसे ‘गोएबल्स थ्योरी’ भी कह सकते हैं, जिस के अनुसार, ‘लोगों को जो दिखाया जाता है, वे उसे ही सच मानने लगते हैं,’ जोकि हो भी यही रहा है. युवा पीढ़ी पर अज्ञानता का बो?ा लादा जा रहा है, उसे सांप्रदायिकता का चश्मा पहनाया जा रहा है,
महिलाओं को धर्म की बेडि़यों में जकड़ा जा रहा है और ये सब लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के माध्यम से हो रहा है. इस से चिंतनीय बात इस देश के लिए और कुछ नहीं हो सकती. आज जनता को सत्तापक्ष के लिए गुमराह करना इन चैनलों का मूल काम बन गया है, पर इस का खमियाजा भी इन्हें भुगतना पड़ रहा है. हाल ही में मुज्जफरनगर रैली में किसान महापंचायत को कवर करने के दौरान आजतक चैनल की मुख्य एंकर चित्रा त्रिपाठी को किसानों के गुस्से का सामना करना पड़ा. किसानों ने ‘गोदी मीडिया गो बैक’ के नारे के साथ चित्रा को प्रदर्शनस्थल में घुसने ही नहीं दिया. यह कितनी शर्म की बात है कि एक समय जिन चैनलों को माध्यम बना कर आंदोलनकारी अपनी बातें जनता के सामने रखते थे, आज वे अपने आंदोलनों में उन्हें घुसने तक नहीं देते हैं. फिर चाहे वह किसान आंदोलन हो, सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन हो या बेरोजगारों-दलितों का आंदोलन हो. आज इन चैनलों की हालत यह है कि इन के डिबेट शो पर गए पैनलिस्ट भी इन्हें भाजपा का प्रवक्ता, दलाल, भगवा इत्यादि नामों से संबोधित कर रहे हैं.
चैनलों को एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह इन का प्रयोग कर खुद की कल्टपर्सनैलिटी तो बनवा लेते हैं पर इस का भारी नुकसान समाज को होता है. ऐसे लोग सत्ता में आ कर सब को तबाह ही करते हैं. यही कारण है कि आज के टीवी चैनल प्रभावी माध्यम होने के कारण सत्ता के साथ इस गुनाह में बराबर के दोषी हैं. यदि यही मीडिया आमजन की आवाज बन जाता तो लोकतंत्र के लोकसेवक अपने कर्तव्यों को सम?ाते, उन्हें पूरा करते. मगर जब मीडिया ही अपनी आंखें मूंद कर राजनीति की गोद में जा बैठा है तो इन जनसेवकों को कौन सुने और उन्हें कौन चेताए? मीडिया के चाटुकार होने की वजह से भारत में लोकतंत्र का ग्राफ विश्व में गिरा ही है. सरकारें तो आतीजाती हैं पर चिंता की बात यह है कि देश के असली मुद्दे पत्रकारिता की दुनिया से गायब हो चुके हैं. क्या मीडिया की जिम्मेदारी नहीं है कि वह ऐसी नकारा सरकार को आड़े हाथों ले? मगर नहीं, मीडिया तो धर्म और सरकार के स्तुतिगान में मगन है. इन मुद्दों से उस का कोई वास्ता नहीं है.
पत्रपत्रिकाएं जरूरी सरिता टीम ने 9 और 21 सितंबर के रैंडम विश्लेषण में पाया कि टीवी चैनल मोदी भक्ति में लीन हैं. 9 सितंबर को ज्वलंत किसानों के मुद्दे को छोड़ तालिबान छाया रहा और 21 सितंबर को महंत की आत्महत्या छाई रही. टीवी न्यूज चैनलों ने 9 और 21 सितंबर को 50 से 60 फीसदी हिस्सा फुजूल मुद्दों को दिखाने में खर्च कर दिया, जो दर्शकों और चैनलों की मानसिकता ही दर्शाता है. आज के समय में यह जरूरी है कि टीवी चैनलों में परोसे जा रहे आधेअधूरे तथ्यों वाली खबरों से दिखाए जाने वाले फेक न्यूज से, मसालेदार खबरों से खुद को बचाया जाए. ये टीवी चैनल समाज को और अधिक खोखला करने का काम कर रहे हैं. टीवी न्यूज चैनलों में आननफानन और आपसी आपाधापी के चलते किसी खबर को दिखाने से पहले उस की ठीक से जांच नहीं की जाती है.
लेकिन पत्रपत्रिकाओं में छपी खबरों की अपनी जिम्मेदारी होती है. ये सिर्फ बोली गई बातें नहीं होतीं कि मुंह से निकल जाएं. यह लिखी सूचना होती है, जिस की साख होती है और इस काम में कई अच्छी पत्रपत्रिकाएं आम लोगों की आवाज बनती आ रही है. भोपाल के एक युवा व्यवसायी निरंजन सिंह कहते हैं, ‘‘प्रिंट मीडिया में सरिता मैगजीन अभी भी अग्रणी है और मेरे पापा और दादा के जमाने से अग्रणी है जिस ने सब से पहले पंडापुरोहितवाद की पोल खोलनी शुरू की, सामाजिक कुरीतियों पर तार्किक, करारे प्रहार किए व सरकार, चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, की जनविरोधी नीतियों को सरिता ने कभी बख्शा नहीं और न ही कोई सम?ाता किया.’’ अपना रिश्ता पत्रपत्रिकाओं से जोड़ें, जो खबर के हर पहलू का सही नजरिया पेश करती हैं.
सिनेमा में फराज अंसारी एलजीबीटीक्यू समुदाय के चित्रण को ले कर विशेष समझ रखते हैं. उन का मानना है कि एक ‘गे’ फिल्मकार ही सिनेमा में ‘गे’ किरदार को असल न्याय दे सकता है. इसीलिए समाज की समलैंगिकता, स्त्री व मुसलिम विरोधी प्रकृति को उजागर करने के मकसद से वे फिल्म ‘शीर कोरमा’ ले कर आए हैं. 1996 में जब फिल्म ‘फायर’ आई थी, उस वक्त फिल्म के पोस्टर पर 2 महिला कलाकारों को एकदूसरे के प्यार में खोए हुए देखा गया था और अब 25 वर्षों बाद ‘शीर कोरमा’ के पोस्टर में लोग ऐसा देख रहे हैं. यह महज संयोग है कि इन दोनों फिल्मों में शबाना आजमी हैं. 25 वर्षों बाद यह साहस फिल्मसर्जक फराज अंसारी ने दिखाया है.
लेखक, निर्माता, निर्देशक, अभिनेता फराज अंसारी कभी खुद डिस्लैस्किया से पीडि़त रहे हैं और ‘डिस्लैक्सिया’ पर अमेरिका में एक लघु फिल्म भी बनाई थी. उसी के चलते मुंबई में उन्हें ‘डिस्लैक्सिया’ पर आधारित आमिर खान व दर्शील सफारी वाली फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में एसोसिएट डायरैक्टर के रूप में काम करने का अवसर मिला. उस के बाद फराज अंसारी ने बतौर एसोसिएट निर्देशक फिल्म ‘स्टेनली का डिब्बा’ भी की. फिर स्वतंत्ररूप से काम करते हुए भारत की एलजीबीटीक्यू प्रेम कहानी पर मूक फिल्म ‘सिसक’ बनाई, जिसे 60 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था. अब उन्होंने समाज की समलैंगिकता, स्त्री विरोधी और प्रतिगामी प्रकृति को उजागर करने के मकसद से फिल्म ‘शीर कोरमा’ का लेखन, निर्माण व निर्देशन किया है. ‘शीर कोरमा’ एलजीबीटीक्यू समुदाय पर बनी पहली फिल्म है जिस में सारे किरदार औरतें हैं. फिल्म की कहानी एक मुसलिम परिवार से आने वाली लेस्बियन महिलाओं के इर्दगिर्द घूमती है जो एकदूसरे से प्यार करती हैं.
फिल्म ‘शीर कोरमा’ कई वर्जनाओं को चुनौती देती है और कुछ समुदायों या लोगों के समूहों को सौंपी गई रूढि़यों को तोड़ने की कोशिश करती है. शबाना आजमी, दिव्या दत्ता और स्वरा भास्कर के अभिनय से सजी फिल्म ‘शीर कोरमा’ ने पूरे विश्व के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में न सिर्फ हंगामा बरपा रखा है बल्कि 10 से अधिक पुरस्कार भी हासिल कर लिए हैं. हाल ही में फिल्म ‘शीर कोरमा’ को इंडियन फिल्म फैस्टिवल औफ मेलबर्न (आईएफएफएम) में ‘इक्वैलिटी इन सिनेमा’ के अवार्ड से नवाजा गया. फराज ने अमेरिका में रहते हुए डिस्लैक्सिया पर एक लघु फिल्म बनाई थी. जब उन से पूछा गया कि वहां काम के दौरान बच्चों के साथ जो कुछ उन्होंने सीखा, क्या वह ‘तारे जमीं पर’ में भी काम आया. इस पर वे बताते हैं, ‘‘उस सीख ने मेरी बेहिसाब मदद की. भारत में बच्चों के साथ काम करने की समझ ही नहीं है. बच्चों से अभिनय कराने के लिए सब से पहले खुद एक इंसान बनना पड़ता है. आप अच्छे इंसान न हों तो भी आप को अच्छा इंसान बनना पड़ता है. ‘‘इस के अलावा, बच्चों का दोस्त बनना पड़ता है.
आप बच्चों के साथ निर्देशक जैसा व्यवहार नहीं कर सकते. आप को उन के स्तर पर जा कर उन की भाषा में बात करनी पड़ती है. इस का मुझे ज्ञान था.’’ फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में आमिर को ले कर फराज कहते हैं, ‘‘आमिर खान फिल्म में इंटरवल के बाद आते हैं. फिल्म की कहानी तो दर्शील सफारी के बारे में थी. आमिर खान के आने से फिल्म में स्टार पावर आ गया था. इस ने फिल्म को ज्यादा लोगों तक पहुंचाया. फिर आमिर खान बेहतरीन कलाकार हैं.’’ पर जब उन से कहा गया कि कुछ लोगों की राय में फिल्म ‘तारे जमीं पर’ का माइनस पौइंट आमिर खान थे तो वे कहते हैं, ‘‘फिल्म देखने से पहले यूएसपी आमिर खान थे. मगर फिल्म देखने के बाद लोगों को फिल्म की यूएसपी दर्शील सफारी नजर आया. फिल्म देख कर लोगों की अपने बच्चों के प्रति सोच बदली.’’ सिनेमा की शुरुआत मूक फिल्मों से हुई थी, पर बाद में बंद हो गई. 1987 में मूक फिल्म ‘पुष्पक’ बनी. ऐसे ही फराज ने भी अपनी मूक फिल्म ‘सिसक’ बनाई. इस संबंध में फराज कहते हैं, ‘‘हमारी फिल्म ‘सिसक’ 2 पुरुषों की प्रेम कहानी थी. ये दोनों मुंबई में लोकल ट्रेन में मिलते हैं और इन के बीच मोहब्बत हो जाती है.
इस फिल्म में 2 पुरुषों की मोहब्बत को दर्शाया गया है. यह एलजीबीटी फिल्म थी, मगर इस में संवाद नहीं थे. ‘‘यह 2016 में बनी थी. उस वक्त होमोसैक्सुअलिटी को ले कर सैक्शन 377 अपराध था. वैसे कुछ समय के लिए रद्द हुआ था पर फिर यह अस्तित्व में आ गया था. अब तो खैर यह अपराध नहीं रहा. उन दिनों मेरे तमाम दोस्तों ने अपनी सचाई के साथ जिंदगी जीने के लिए काफी संघर्ष किया था. पर जब कानून फिर से अस्तित्व में आया था तब उन्हें काफी तकलीफ हुई थी. ‘‘उस वक्त एलजीबीटी समुदाय के लोगों को एहसास हुआ था कि हमें कुछ पलों की जो आजादी मिली थी वह छीन ली गई. उसी एहसास को दिखाने के लिए बिना संवाद की यह फिल्म बनाई थी. मैं दिखाना चाहता था कि 2 लोगों के बीच बिना कुछ कहे, बिना एकदूसरे को छुए भी मोहब्बत हो सकती है. मोहब्बत को दुनिया का कोई कानून नहीं रोक सकता. यदि मोहब्बत होनी है तो उसे कोई नफरत भी नहीं रोक सकती. मोहब्बत को इंसान या खुदा कोई नहीं रोक सकता. मोहब्बत होनी है तो वह हो कर रहेगी.’’ ‘सिसक’ के बाद फराज अंसारी ने होमो सैक्सुअलिटी पर फिल्म न बनाने की बात कही थी.
पर उन्होंने अपनी नई फिल्म ‘शीर कोरमा’ फिर उसी विषय पर बनाई है. इस बारे में पूछने पर वे बताते हैं, ‘‘मैं ने ‘सिसक’ और ‘शीर कोरमा’ के बीच ‘दूल्हा वांटेड’ और नैटफ्लिक्स के लिए ‘बिग डे’ बनाई. दोनों बहुत अलग और बड़े स्तर के काम थे, जिस से लोगों की समझ में आया कि मैं बड़े स्तर का भी काम कर सकता हूं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा एलजीबीटीक्यू+ कम्युनिटी के संबंधों को अपराध न मानने का आदेश जारी होने के बाद आज भी समाज इन्हें स्वीकार नहीं कर पाया. समाज में इस की स्वीकार्यता न हो पाने पर फिल्म के माध्यम से इस विषय को उठाया गया है. फराज कहते हैं, ‘‘हम चाहे जितने कानून व संविधान संशोधन कर डालें, पर जब तक समाज के अंदर समझदारी नहीं बढ़ेगी तब तक हम पुरानी दुनिया में ही रहेंगे. ‘‘आज अगर मैं एक लड़के का हाथ पकड़ कर अपने घर से निकलूंगा तो दुनिया मुझे अपराधी की ही नजर से देखेगी. इस नजरिए को बदलने के लिए बारबार ‘शीर कोरमा’ जैसी फिल्म बनाने की जरूरत है. इस मुद्दे को सामान्य करने की जरूरत है. हर इंसान को समझना होगा कि ‘गे’ अथवा एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का इंसान भी एक आम इंसान की ही तरह मोहब्बत करता है.
एलजीबीटी समुदाय का इंसान भी हमारे जैसा ही है. यही बात हमारी फिल्म ‘शीर कोरमा’ भी कहती है. हमारी फिल्म कहती है कि मोहब्बत गुनाह नहीं है. जब तक हम एकजुट हो कर आवाज नहीं उठा सकते तब तक समाज में बदलाव नहीं आएगा.’’ महिला लैस्बियन के मुद्दे पर ‘डौली किट्टी और सितारे’ सहित कई फिल्में बन चुकी हैं. उन से पूछा गया कि क्या इन फिल्मों में एलजीबीटी+ से जुड़े मुद्दे सही ढंग से आ नहीं पाए? इस बारे में फराज कहते हैं, ‘‘पहली बात तो यह है कि इन सभी फिल्मों के लेखक व निर्देशक एलजीबीटी समुदाय से संबंध नहीं रखते हैं तो फिल्म में जिस नाजुक तरीके व संजीदगी से रिश्तों को दिखाना है, वह कभी किसी फिल्म में आया ही नहीं. ‘‘इन फिल्मों में जिया हुआ अनुभव व एहसास होने के बजाय शोधकार्य ही है. जो इंसान उस जिंदगी को जिया होता है उसे ही वह अनुभव होता है. जब मैं स्कूल में था, मेरी बुलिंग होती थी, मुझे इतना परेशान किया जाता था, उस के बावजूद मैं आज एक मुकाम पर पहुंच कर अपनी कहानियों को खुलेदिल से दर्शा रहा हूं. ‘
‘इस यात्रा का तत्त्व बेहतर ढंग से मैं ही दिखा सकता हूं. शोध करने वाला उसे उस हिसाब से नहीं दिखा सकता. सब से बड़ी बात यह है कि इन फिल्मों में सचाई व संजीदगी का घोर अभाव है, इसलिए ये फिल्में लोगों के दिलों को नहीं छू पाईं. यदि आप किसी मुद्दे को अपनी फिल्म में उठा रहे हैं तो पहले उस मुद्दे को समझिए. उस मुद्दे को समझ कर उसे सामान्य बनाएं. जब तक आवाज दिल से नहीं आएगी तब तक उस आवाज में मजा नहीं आएगा.’’ यह दिलचस्प है कि जिस समय फराज ‘शीर कोरमा’ बना रहे थे, उस वक्त आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ प्रदर्शित हुई थी. इस फिल्म में भी मां द्वारा अपने बेटे की स्वीकृति का मसला था. इस संबंध में दोनों फिल्मों की तुलना में फराज कहते हैं, ‘‘पहली बात तो आयुष्मान खुराना की फिल्म के लेखक व निर्देशक दोनों ही ‘गे’ यानी कि एलजीबीटी+ समुदाय से नहीं थे. शोधकार्य पर आधारित उन की फिल्म काफी सीमित थी. ‘‘दूसरी बात, फिल्मकार एलजीबीटी समुदाय पर फिल्म बनाते हुए लोगों को हंसाने के लिए उस में बेवजह कौमेडी भर देते हैं. लोग भूल जाते हैं कि लोग उन पर हंस रहे हैं या उन के साथ हंस रहे हैं.
परिणामतया सुधार या प्रगति के बजाय ये फिल्में नुकसान पहुंचाती हैं. तीसरी बात कि इस फिल्म में कई समस्याएं थीं. किसी भी चीज या दृश्य को सामान्य नहीं बता रहे है, बल्कि हर चीज का मजाक उड़ा रहे हैं अथवा कैरीकेचर कर रहे हैं.’’ भारत में ‘गे’ यानी कि एलजीबीटीक्यू समुदाय पर बनी फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते हैं. इस पर फराज कहते हैं, ‘‘ऐसा होमोफोबिया के चलते होता है. भारतीय होमोफोबिक बने हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने तो एलजीबीटीक्यू समुदाय को आजादी दे दी मगर भारतीय समाज स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. मजेदार बात यह है कि ओटीटी प्लेटफौर्म पर ‘गे’ फिल्में ज्यादा देखी जा रही हैं. गे/क्वीर कंटैंट केवल ओटीटी प्लेटफौर्म पर मौजूद होना चाहिए, यह भी एक होमोफोबिक बात है. ‘‘क्वीर फिल्में सिनेमाघरों में क्यों नहीं प्रदर्शित होनी चाहिए. हमें लगातार एकदूसरे को अपने पूर्वाग्रहों की याद दिलाते रहने की जरूरत है. हम सभी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. मुझे लगता है कि जब ‘शीर कोरमा’ जैसी फिल्में बनती हैं तो ये लोगों के पूर्वाग्रहों और भावनाओं को उजागर करती हैं. हमारे पास अच्छी और ईमानदार क्वीर फिल्में न होने का कारण होमोफोबिया की मौजूदगी है.
यह एक दुखद वास्तविकता है.’’ फिल्म ‘शीर कोरमा’ के बारे में फराज बताते हैं, ‘‘पहले मैं यहां यह याद दिला दूं कि जिस वक्त फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी, उसी वक्त हमारी फिल्म ‘शीर कोरमा’ का ट्रेलर रिलीज हुआ था. आप यकीन नहीं करेंगे, मगर ‘गे’ समुदाय के लोगों ने फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ के पोस्टर, ट्रेलर, फोटो आदि को खूब शेयर किया, पर किसी ने भी ‘शीर कोरमा’ का ट्रेलर वगैरह शेयर नहीं किया. ‘‘इस की पहली वजह यह थी कि हमारी फिल्म में लैस्बियन औरतों की कहानी है. हम औरतों को इस रूप में देखना नहीं चाहते. दूसरी बात हमारी फिल्म एक मुसलिम परिवार के बारे में है. हम इतना अधिक ‘इसलामिक फोबिया’ से ग्रसित हैं कि अगर कोई लिखता है कि यह एक आम मुसलिम परिवार है, इस परिवार में कोई आतंकवादी नहीं है, हरे रंग के घर में नहीं रह रहा है और इस परिवार का कोई भी सदस्य पांचों वक्त की नमाज नहीं पढ़ रहा है, आंख में सुरमा लगा, टोपी और सफेद कुरता पहन कर बातें नहीं कर रहा है तो लोगों को यह इसलाम समझ में नहीं आता है. ‘‘मगर हमारी इस फिल्म में यही है. हमारी फिल्म में सभी उच्चशिक्षित हैं.
हमारी फिल्म में मां की भूमिका निभा रही शबाना आजमी साड़ी पहनती हैं. कुछ लोगों ने मुझ से सवाल भी किया कि, ‘तुम्हारी फिल्म में जब शबाना आजमी साड़ी पहनती हैं तो फिर वे मुसलिम कैसे हैं?’ तब मैं ने उन्हें जवाब दिया कि साड़ी का कोई मजहब नहीं होता. मेरी मां बचपन से साड़ी पहनती आई हैं. किसी ने पूछा कि, ‘तुम्हारी फिल्म में उर्दू भाषा नहीं है?’ मैं ने कहा कि उर्दू भाषा का भी कोई मजहब नहीं होता. किसी ने कहा कि, ‘फिल्म में शीर कोरमा है, शीर कोरमा तो सिर्फ मुसलिम पीते हैं?’ मेरी राय साफ है कि जबान या पोशाक या खाने का कोई मजहब नहीं होता. ‘‘अब तक सामान्य मुसलिम परिवार की फिल्म कभी बनी ही नहीं है. हर फिल्म में मुसलिम किरदार बारबेरियन या आतंकवादी या गुंडे या बड़ेबड़े बालों के साथ भारत पर कब्जा करने वाले ही दिखाई देते हैं. हाल ही में राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म ‘तूफान’ में भी फरहान अख्तर को ऐसा मुसलिम दिखाया गया है जो मारामारी करता है.
खून बहाता है अथवा सिनेमा के शुरुआती दौर में फिल्म के अंदर हम ने उन मुसलिमों को देखा है जो तवायफ, रंडी, कोठे पर बैठती थीं, जो नाचती थीं, जो मुजरा करती थीं, जो उमराव जान थीं, पाकीजा थीं. ‘‘मैं मुसलिमों की इस छवि को बदलना चाहता था क्योंकि मेरे परिवार में कोई नहीं कहता कि ‘माई नेम इज खान एंड आई एम नौट ए टैररिस्ट.’ मुझे अपनी फिल्म में दिखाना था कि मुसलिम परिवार की महिलाएं साड़ी पहनती हैं. ऐसा मुसलिम परिवार है जिस के घर में एक हिंदू बहू है. एक हिंदू दामाद और एक कैथोलिक दामाद है. हमारी फिल्म राष्ट्रीय व सैक्यूलरिजम की कहानी है. हमारी एकता ही भारत को सुपर पावर बनाती है. हमारी फिल्म एक परिवार के बारे में है. ‘‘मेरी राय में समाज में बदलाव लाने के लिए मेनस्ट्रीम वाला सिनेमा बनाना पड़ेगा. ‘शीर कोरमा’ मेनस्ट्रीम वाली फिल्म है. यह फिल्म हर उम्र, हर पीढ़ी, हर लिंग व हर धर्म के लोगों से बात करेगी.’’
लेखक-देवेंद्रराज सुथार
‘मौताणा’ राजस्थान के आदिवासी समुदाय के बीच प्रचलित प्रथा है जो अब वसूली करने की कुप्रथा बन कर रह गई है. कुछ वर्षों से देखने में आया है कि यह प्रथा अब जबरन वसूली का तंत्र बन गई है. पिछले दिनों राजस्थान के उदयपुर जिले के आदिवासीबहुल क्षेत्र कोटड़ा में शराब पीने से रोकने पर पत्नी की गोली मार कर की गई हत्या के मामले में पुलिस द्वारा कराए गए 10 लाख रुपए के मौताणा समझौते के बाद मृतका का अंतिम संस्कार हो पाया. डूंगरपुर जिले में युवक की हत्या के बाद उस का शव 20 घंटे तक मोर्चरी में पड़ा रहा. पोस्टमार्टम के बाद जब पुलिस ने शव को अंतिम संस्कार के लिए परिजनों को सौंपा तो वे मोलभाव करने लगे. पुलिस परिजनों को समझाने का प्रयास करती रही,
लेकिन वे नहीं माने. आखिरकार, 5 अगस्त की शाम को पुलिस की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच 4 लाख रुपए में शव का निबटारा कर दिया गया. राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में लगातार ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिन में बेवजह मौत का जिम्मेदार ठहरा कर मौत की रकम वसूल की जा रही है. मंडवाल में वृद्ध रणछा 23 अगस्त की दोपहर करीब 2 बजे अपने घर पैदल जा रहा था. रास्ते में बदमाशों ने उसे रोक कर 20 साल पुराने मामले में मौताणे की मांग करते हुए मारपीट की. साथ ही, जबरन बाइक पर बैठा कर जान से मारने की धमकी देते हुए अपहरण कर लिया. इधर, आबूरोड समीपवर्ती आवल गांव में डामरो की फली में धर्माराम पुत्र भूराराम गरासिया ने अपनी पत्नी काली गरासिया के साथ लाठियों से मारपीट की, जिस से उस की मौत हो गई. हत्या के बाद आरोपी पति फरार हो गया. मृतका के पीहर व ससुराल पक्ष के बीच मौताणे की मांग को ले कर पंचायती का दौर शुरू हो गया. पुलिस की मौजूदगी में ससुराल व पीहर पक्ष के बीच पंचायती चलती रही, जिस से मृतका का 2 दिन तक अंतिम संस्कार अटका रहा. दरअसल, ‘मौताणा’ का मतलब ‘मौत’ पर ‘आणा’ यानी रुपए. शव का सौदा करने की इस प्रथा का इतिहास सदियों पुराना है. प्राचीन जमाने में कोई कानून तो था नहीं. तब दक्षिणी राजस्थान में अरावली पर्वत शृंखला से सटे उदयपुर, बांसवाड़ा, सिरोही व पाली जिले के आदिवासियों में अस्वाभाविक या अप्राकृतिक मौत होने पर उस के लिए जिम्मेदार व्यक्ति से मौताणा वसूलने की प्रथा शुरू हुई.
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देश की आजादी के 75 साल बाद भी उदयपुर के आदिवासीबहुल क्षेत्र खेरवाड़ा, झाडोल, कोटड़ा, गिरवा, सलूंबर और निकटवर्ती डूंगरपुर जिले के कुछ हिस्सों में भील, गरासिया और मीणा जाति में आज भी यह प्रथा कायम है. इस प्रथा के तहत किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर कथित दोषी परिवार के सदस्यों से 20 लाख रुपए तक का मुआवजा वसूल किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, यदि किसी कारणवश गर्भवती महिला की मृत्यु हो जाती है तो महिला के परिजन उस के पति से जुर्माना वसूल सकते हैं क्योंकि गर्भधारण के लिए वह जिम्मेदार है. इस प्रथा में यदि किसी व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति की हत्या कर दी तो वह जेल जाने के बजाय निर्धारित राशि का जुर्माना भर कर स्वतंत्र रूप से घूम सकता है. यदि पंचों द्वारा निर्धारित दंड का भुगतान नहीं किया जाता है तो संभव है कि सामने वाला आप के गांव पर हमला भी कर दे. कई बार ‘करे कोई और भरे कोई’ की तर्ज पर आरोपी के परिजनों को भी जुर्माना भरना पड़ता है. यह प्रथा सामाजिक न्याय के उद्देश्य से शुरू हुई थी, जिस में अगर किसी ने किसी व्यक्ति को मार डाला तो दोषी को सजा के रूप में मुआवजा देना पड़ता था.
लेकिन अब आदिवासी अन्य कारणों से भी मौताणा की मांग करते हैं. वहीं, पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि किसी कारणवश अपनों की मौत का दोष दूसरों पर मढ़ा जा रहा है और जबरन मौताणा वसूल किया जा रहा है. मृत्युराशि न मिलने पर आदिवासी चड़ोतरा करते हैं. इस में सामने वाले के घर को लूट कर आग लगा दी जाती है. चड़ोतरा में दोषी पक्ष पर हमला किया जाता है. दरअसल, जब मृतक के परिवार वाले किसी को दोषी मान कर मौत की राशि देने के लिए मजबूर करते हैं तो आदिवासियों का अपना दरबार होता है जहां पंच अपराधी को स्पष्टीकरण का मौका दिए बिना ही मौताणा भुगतान करने का आदेश जारी करता है. भुखमरी से जूझ रहे आदिवासी परिवारों को लाखों रुपए का मौताणा भुगतान करना पड़ता है, जिस से गरीब आदिवासी बरबाद हो जाते हैं. इन पर न तो पुलिस का और न ही कानून का कोई नियंत्रण है.
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यह प्रथा पूरी तरह पंचायतों के अधीन है. इस प्रथा में विवाद के कारण कई बार अंतिम संस्कार न करने पर शव सड़ भी जाते हैं. आस्था, सेवा, मंदिर सहित कुछ स्थानीय गैरसरकारी संगठनों ने भी इस कुप्रथा पर केस स्टडी की है और राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद जैसे संगठन आदिवासियों में जागरूकता पैदा करने के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन वे इस प्रथा को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. कई बार दोनों पक्षों को इस बात पर सहमत होने में इतना समय लग जाता है कि शव कंकाल में तबदील हो जाते हैं. पंचायत प्रावधान अनुसूचित क्षेत्र विस्तार अधिनियम 1996 के तहत आदिवासियों को छोटेमोटे विवादों को पारंपरिक तरीके से निबटाने की अनुमति है लेकिन इस प्रथा के नाम पर हिंसा ठीक नहीं है. कई मामलों में पीडि़त को कुछ मिलता भी नहीं और कई बार पीडि़त मौताणा की मांग भी नहीं करना चाहते, लेकिन वे अपनी जाति के पंचों के आगे स्वयं को बेबस पाते हैं. अब मौताणा किसी विवाहित महिला या पुरुष की अकाल मृत्यु तक सीमित नहीं है. सड़क हादसों में पशुओं की मौत या अस्पताल में बीमारी से मौत जैसे मामलों में भी इस प्रथा की आड़ में जबरन वसूली की जाने लगी है.
‘‘नहीं अम्मी, बिलकुल नहीं. अपने निकाह में मैं तुम्हें साउथहौल की दुकान के कपड़े नहीं पहनने दूंगी’’, नाहिद काफी तल्ख आवाज में बोली, ‘‘जानती भी हो ज्योफ के घर वाले कितने अमीर हैं? उन का महल जितना बड़ा तो घर है.’’
‘‘हांहां, मैं समझती हूं. जैसा तू चाहेगी,
वैसा ही होगा,’’ जोया ने दबी आवाज में जवाब दिया.
‘‘और हां, प्लीज उन लोगों से यह मत कह डालना कि तुम उस फटीचर दुकान को चलाती हो. मैं ने उन से कहा है कि तुम फैशन डिजाइनिंग की दुनिया से सरोकार रखती हो.’’
नाहिद के कथन पर जोया ने सिर्फ एक आह भरी. 20 बरस पहले जिस दुकान ने उन की लड़खड़ाती गृहस्थी को संभाला था, वही आज उस के बच्चों के लिए शर्मिंदगी का कारण बन गई थी. आज भी वे उन दिनों को भुला नहीं पातीं जब उन की शादी इरफान से हुई थी. सहारनपुर की लड़की का निकाह लंदन में कार्यरत लड़के के साथ होना सभी के लिए फख्र की बात थी. बड़े धूमधाम से निकाह होने के बाद इरफान 15 दिन जोया के पास रह कर लंदन चला गया था और जोया के पिता उस का पासपोर्ट, वीजा बनवाने में जुट गए थे. पड़ोस की लड़कियां जोया से रश्क करने लगी थीं.
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लंदन आ कर जोया को वहां की भाषा और संस्कृति को अपनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था. एबरडीन में एक छोटे से घर से उन्होंने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी. इरफान की तनख्वाह लंदन की महंगी जिंदगी में गुजारा करने लायक नहीं थी, किंतु जोया की कुशलता से इरफान की गृहस्थी ठीकठाक चलने लगी थी.
2 लोगों का गुजारा तो हो जाता था लेकिन तीसरे से तंगी बढ़ सकती थी. नाहिद के जन्म के बाद जब ऐसा ही हुआ तो इरफान कुछ उदास रहने लगा. उस की अपनी तनख्वाह पूरी नहीं पड़ती थी और जोया दूसरे मर्दों के साथ काम करे, यह उसे बरदाश्त न था.
नाहिद जब 3 वर्ष की थी और ओमर 8 महीने का, तभी इरफान यह कह कर चला गया कि घरगृहस्थी का झंझट उस के बस की बात नहीं. कुल 5 वर्ष ही तो हुए थे जोया को वहां बसे और फिर इरफान कहां गया, इस की उन्हें आज तक खबर नहीं हुई. उन दिनों घर का सामान बेचबेच कर जोया ने काम चलाया था. पर ऐसा कब तक चलता? यदि नौकरी करने की सोचतीं तो दोनों बच्चों को किस के सहारे छोड़तीं?
‘‘ज्योफ की मां एक कंप्यूटर कंपनी में काम करती हैं, डैरीफोर्ड रोड पर’’, नाहिद बोली, ‘‘और उस के पिता सहकारी दफ्तर में अधीक्षक हैं.’’
जोया ने कोई उत्तर न दिया. ‘यदि उन की साउथहौल वाली दुकान न होती तो नाहिद ज्योफ से कहां टकराती? 6 महीने पहले नाहिद दुकान आई थी तो वहीं उसे ज्योफ मिला था. वह पास की दुकान में पड़े ताले की पूछताछ करने आया था.’
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‘‘यह दुकान आप की है?’’ उस ने काफी अदब से नाहिद से पूछा था.
‘‘नहींनहीं, मैं तो यहां बस यों ही…’’, नाहिद फौरन बात टाल गई थी.
दुकान से जाते वक्त ज्योफ ने नाहिद से अपनी गाड़ी में चलने का प्रस्ताव रखा था, जिसे नाहिद ने स्वीकार कर लिया था.
‘‘उस के दादा पुरानी चीजों की दुकान चलाते हैं,’’ नाहिद ने कहा.
‘‘पुरानी चीजों की दुकान तो मैं भी चलाती हूं,’’ नाहिद की बात पर जोया बोल पड़ी, ‘‘पुराने कपड़े…’’
‘‘बेवकूफी की बात मत करो, अम्मी.’’
बरसों पहले जब गृहस्थी खींचने के जोया के सभी तरीके खत्म हो चुके थे और वे इसी उधेड़बुन में रहती थीं कि क्या करें, तभी एक दिन एक पड़ोसिन के साथ वे यों ही फैगन बाजार चली गई थीं अपनी पड़ोसिन के लिए ईवनिंग ड्रैस लेने. वहां पहुंच कर वे तो जैसे हतप्रभ रह गई थीं. इस कबाड़ी बाजार में क्याक्या नहीं बिकता. बिना इस्तेमाल किए हुए तोहफे, पहने जूते, कपड़े, स्वैटर वगैरह. इस के अलावा और भी बहुत कुछ.
बस फिर क्या था जोया ने साउथहौल में एक दुकान किराए पर ले ली. हर शाम वे फैगन बाजार से कपड़े खरीद लातीं, फिर उन कपड़ों को घर ला कर धोतीं, सुखातीं और प्रैस कर के नया बना देतीं. जोया की इस कारीगरी का अंजाम यह होता कि कौडि़यों के दाम की चीजें कई पौंड की हो जातीं.
‘‘और हां, तुम्हें उन का घर देखना चाहिए. हमारा पूरा घर उन की बैठक में समा जाएगा,’’ नाहिद बोली.
उस के स्वर के उतारचढ़ाव ने जोया को यह सोचने पर विवश कर दिया कि आज तक उन्होंने हजारों कपड़े सिर्फ इसलिए खरीदे बेचे थे कि नाहिद और ओमर को अपने दोस्तों को घर लाने में शर्मिंदगी न महसूस हो. और सिर्फ अपनी बेटी की खुशी के लिए जोया ने उस के एक ईसाई से शादी करने के फैसले पर कोई आपत्ति नहीं की थी. शादी भी ईसाई ढंग से हो रही थी और शादी की दावत ज्योफ के घर ही निश्चित हुई थी. ज्योफ की मां ने एक पत्र द्वारा जोया से यह पूछा था कि इस पर उन्हें कोई एतराज तो नहीं? इस पर जोया का उत्तर था कि दावत भले ही वहां हो, भोजन का खर्च वे उठाएंगी.
‘‘अब इस छोटे से घर में तुम्हें अधिक दिन तो रहना नहीं है,’’ जोया ने नाहिद से कहा.
‘‘नहीं अम्मी, यह बात नहीं है. आप ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है. वह तो बस…’’
‘‘बस मुझे अपनी मां कहने में तुम्हें शर्म आती है,’’ जोया बीच में ही बोल पड़ीं.
‘‘अम्मी, ऐसी बात नहीं है,’’ कह कर नाहिद ने जोया के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘तुम तो सब से अच्छी अम्मी हो, ज्योफ की मां से कहीं ज्यादा खूबसूरत. बस वह दुकान…’’
‘‘दुकान क्या घटिया है?’’
‘‘हां,’’ कह कर नाहिद हंसने लगी.
‘‘जोया की दुकान से बहुत सी मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियां कपड़े खरीदती थीं. मैडम ग्रांच तो वहां जब भी किसी धारियों वाली ड्रैस को देखतीं, फौरन खरीद लेतीं. इतने वर्षों में अपनी ग्राहकों की नाप, चहेते रंग और पसंद जानने के बाद जोया ऐसी ही पोशाकें लातीं जिन्हें वे पसंद करतीं. उन में से कुछ किसी जलसे या पार्टी से पहले जोया को अपने लिए अच्छी डै्रस लाने को कह जातीं. एक बार तो अखबार में शहर के मेयर के घर हुए जलसे की तसवीर में उन की एक ग्राहक का चित्र भी था, जिस ने उन्हीं की दुकान की डै्रस पहनी हुई थी. वह ड्रैस जोया केवल 15 पैन्स में लाई थीं और उस पर थोड़ी मेहनत के बाद वही पोशाक 10 पौंड की थी.’’
सहारनपुर में जब भी कोई निकाह होता तो सभी सहेलियों के कपड़ों पर सजावट जोया ही तो करतीं. फिर चाहे वह तल्हा का शरारा हो या समीना की कुरती, सभी को जरीगोटे से सुंदर बनाने की कला सिर्फ जोया ही दिखातीं. और इतनी मेहनत के बाद भी जो कारीगरी जोया के कपड़ों पर होती, वही नायाब होती.
‘‘वे लोग ईसाई हैं और शादी भी ईसाई ढंग से होगी. यह तुम जानती ही हो. इसलिए मैं चाहती हूं कि तुम कोई बढि़या सा ईवनिंग गाउन खरीद लो अपने लिए. सभी औरतें अच्छी से अच्छी पोशाकों में होंगी. आखिर इतने अमीर लोग हैं वे. ऐसे में तुम्हारा सूट या शरारा पहनना कितना खराब लगेगा.’’
नाहिद की हिदायत पर जोया ने अपने लिए एक विदेशी गाउन तैयार करने की सोची. नाहिद को बताए बिना ही जोया ने अपनी दुकान की एक पोशाक चुनी. वे जानती थीं कि नाहिद कभी उन्हें अपनी दुकान की पोशाक नहीं पहनने देगी. लेकिन सिर्फ एक शाम के लिए पैसे बरबाद करने के लिए जोया कतई तैयार न थीं. और फिर जब उन जैसे अमीर घरों की औरतें उन की दुकान से पोशाकें खरीदती हैं, तो यह कहां की अक्लमंदी होगी कि वे खुद दूसरी दुकान से पोशाक खरीदें.
काफी सोचविचार के बाद उन्होंने अपने लिए एक नीली ड्रैस चुनी, जो कुछ महीने पहले फैगन बाजार से ली थी. पर वह इतनी घेरदार थी कि तंग कपड़ों का फैशन की वजह से उसे किसी ने हाथ तक न लगाया था. जोया ने उसे काट कर काफी छोटा और अपने नाप का बनाया. फिर बचे हुए कपड़े की दूधिया सफेदी हैट के चारों तरफ छोटी झालर लगा दी.
शादी के बाद जोया दावत के लिए ज्योफ के घर पहुंचीं. वहां की चमकदमक देख वे काफी प्रभावित हुईं. भव्य, आलीशान बंगले के चारों तरफ खूबसूरती व करीने से पेड़ लगे हुए थे. उन पर बल्बों की झालर यों पड़ी थी मानो नाहिद के साथसाथ आज उन की भी शादी हो.
जोया अपनी बेटी की पसंद पर खुश हो ही रही थीं कि ज्योफ की मां मौरीन वहां आ पहुंचीं, ‘‘जोया, क्या खूब शादी थी न. नाहिद कितनी खूबसूरत लग रही है. आप को गर्व होता होगा अपने बच्चों पर. बच्चों को अकेले ही पालपोस लेना कोई छोटी बात नहीं. नाहिद से पता चला कि आप के पति सालों पहले ही… मुझे खेद है.’’
मौरीन बातचीत और हावभाव से एक बड़े घराने की सभ्य स्त्री मालूम पड़ती थीं, ‘‘मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती विदेश में अपने पति की गैरमौजूदगी में बच्चों को अकेले पालने की. मैं वाकई आप से बहुत प्रभावित हूं. कैसे संभाल लिया आप ने सब कुछ? आप के बच्चे आप की कुशलता के तमगे हैं.’’
‘‘शुक्रिया मौरीन’’, जोया खुश अवश्य थीं किंतु कुछ असंतुष्ट भी. कहीं न कहीं उन का मन यह मना रहा था कि उन की कोई ग्राहक ज्योफ की रिश्तेदार निकल आए. ऐसे में वे अपने कार्य के प्रति नाहिद के दृष्टिकोण को बदल पातीं. किंतु ऐसा हुआ नहीं.
तभी मौरीन जोया की बांह में बांह डालते हुए कहने लगीं, ‘‘नाहिद ने मुझे बताया था कि आप फैशन की दुनिया से सरोकार रखती हैं. कितना आकर्षक लगता है यह सब. यह ड्रैस जो आप ने पहनी है ‘हिलेयर बैली’ से ली है न?’’
जोया ने खामोशी से सिर हिला हामी भर दी.
‘‘क्या खूब फब रही है आप पर. मुझे नहीं पता था कि वे घेरदार के अलावा तंग नाप की भी ड्रैसेज बेचते हैं या इस के साथ हैट भी मिलती है. कितने आश्चर्य की बात है कि मेरे पास भी ऐसी एक घेरदार ड्रैस थी, रंग भी बिलकुल यही. लेकिन वह इतनी घेरदार थी कि आजकल उसे पहनना मुमकिन नहीं था. आप से क्या कहना, आजकल का फैशन आप से बेहतर भला कौन जानेगा,’’ फिर कुछ सोचते हुए मौरीन बोलीं, ‘‘पता नहीं मैं ने उस ड्रैस के साथ क्या किया.’’
‘‘हां, पता नहीं…’’ जोया ने अपनी भोलीभाली आंखों को मटकाते हुए कहा
और इतना कह कर अपनी कारीगरी पर मुसकरा उठीं.
लेखक- अमित अरविंद जोहरापुरकर
“कल का ही दिन है बापू. परसों की सुबह यहां देख पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा,” वह मायूस हो कर बोला. महाराज होटल आ गए. आयोग का मेंबर होने के नाते उन्हें इस होटल की सुविधा मिली थी. उन्हें लगा कि आज नींद आएगी या नहीं, लेकिन बिस्तर पर लेटते ही उन की आंख लग गई. सुबह उठ कर उन्होंने सब से पहले भरपेट नाश्ता किया, फिर गाड़ी निकाल कर वह बावरा बस्ती पहुंच गए.
पुलिस की एक गाड़ी वहां पहले से ही खड़ी थी और उस में झाला बैठा हुआ था. “सुबहसुबह आ गए. देख लीजिए आज आप की बस्ती. कल सुबह तो यहां कोई दिखेगा नहीं,” वह तुच्छ नजरों से घूरते हुए बोला. “चिंता मत कीजिए, समयसीमा से पहले ही आप को गुनाहगार मिल जाएगा,” खुद ही अपने आत्मविश्वास पर अचंभित होते हुए महाराज ने कहा.
“मैं एक बार इंस्पेक्टर जड़ेजा साहब की बौडी देख सकता हूं?” “उन का तो दाह संस्कार भी हो चुका होगा. उन के गांव उन की बौडी भिजवा दी गई थी कल रात ही. उन की बीवी तो कब की चल बसी, एक बेटा है, जो कनाडा में रहता है, सो, आ नहीं पाएगा. उन के भाई रहते हैं गांव में, वही क्रियाकर्म करने वाले हैं,” झाला ने कहा. “ठीक है, लेकिन यह बस्ती हटाने की जल्दबाजी मत कीजिए. हमें एकदो हफ्ते का समय और दीजिए,” महाराज बोले.
“यह हमारे हाथ में नहीं है,” मगरूरी से ऐसा बोलते हुए झाला ने गाड़ी स्टार्ट की और निकल गया. महाराज आज दीवार के दूसरे छोर से अंदर गए. वहां इक्कादुक्का लोग ही बाहर थे. एक बड़े से छकड़े में तकरीबन 14-15 बच्चों को बिठा कर इला उन को विदा कर रही थी. छकड़ा निकल गया और वह उन के पास आते हुए बोली, “आज आप सुबह ही आ गए बापू. आप के कहने के मुताबिक ही इन बच्चों को भेज दिया है, नहीं तो इन का क्या करें, यह बड़ी चिंता हो रही थी. ऐसे धूमधड़ाक वाले माहौल में बच्चे यहां न रहें तो ही अच्छा है. आप ने बात कर के नरहरी भाई के फार्महाउस पर इन लोगों की व्यवस्था कर दी, यह अच्छा किया.
“हमारे वालंटियर्स अब 4-5 दिन इन का शिविर लगा देंगे. सब को मजा आएगा. बाद की बाद में देखेंगे,” इला बोली. महाराज बोले, “ठीक है. तब तक कुछ न कुछ और इंतजाम कर ही लेंगे. लेकिन अगर इन लोगों ने यह बस्ती हटा दी तो तुम वापस जाओगी?” “नहीं. कदापि नहीं. यहां हमारी संस्था का गेस्टहाउस है. वहां रह लूंगी. “वैसे, हमारी संस्था कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है. लेकिन उस में थोड़ा वक्त लगेगा. “कुछ भी हो, मैं वापस नहीं जाऊंगी. वैसे भी मेरे पति…” “तुम्हारी शादी हो चुकी है?” महाराज हैरानी से बोले.
“हां. वह मेरे सहपाठी थे, अब स्वीडन में पीएचडी कर रहे हैं,” वह मुसकरा कर बोली. महाराज बोले, “चलो, तुम्हारे घर चलते हैं.” “हां चलिए, आप को अच्छी चाय पिलाती हूं,” इला ने कहा. नीचे इला के कमरे में जाते हुए महाराज ने वहां पड़ा एक छोटा पत्थर उठाया और वह सीढ़ियों से सीधे ऊपर गए. गैलरी से नीचे झुक कर उन्होंने दीवार को ठीक से देखा और फिर हाथ ऊपर कर वह पत्थर उन्होंने दीवार की तरफ फेंका. वह सीधा दीवार के ऊपर से रास्ते के बीच जा गिरा.
“क्या चल रहा है यहां?” पीछे से किसी की आवाज आई. महाराज पीछे मुड़ कर देखने लगे. दक्षेश अपनी कोठरी से बाहर आ रहा था. तब तक हाथ में चाय की प्याली लिए इला ऊपर आ गई. “दक्षेश भाई, ये बापू हैं, थोड़ा तमीज से पेश आइए,” इला कड़ी आवाज में बोली. वैसे, नशे में ही गालियां बकते हुए वह वापस जा कर चारपाई पर लेट गया. “इला, तुम इसी गैलरी में रुको,” ऐसे कहते हुए महाराज जल्दीजल्दी उतरे और दीवार पार कर मुड़ के रास्ते पर खड़ी पुलिस जीप के पास पहुंच गए.
वह खड़े हो कर काफी देर तक इधरउधर देखते हुए कुछ सोच रहे थे. उन्होंने वापस आ कर इला से कहा, “इस बस्ती में दोमंजिला से ऊपर किसी का घर नहीं है. वहां से गोली कैसे भी आई तो वह दीवार के ऊपर से ही जाएगी. इंस्पेक्टर जड़ेजा तो दीवार के बहुत नजदीक खड़े थे. इस तरफ से आती हुई गोली उन्हें लग ही नहीं सकती थी.” “तो गोली आई कहां से?” इला ने कहा. उस का इशारा समझ कर महाराज हंसे. “चलो, एक बार फिर गोरधन के घर हो आते हैं,” महाराज बोले.
गोरधन काम पर जा रहा था और कमला कपड़े सुखाने डाल रही थी. उन्हें देख कर गोरधन ने झुक कर उन के पैर छुए. “मैं काम पर जा रहा हूं बापू. मालिक को पूछ लूंगा कि हमारे रहने की कहीं और व्यवस्था हो सके तो…” और वह काम पर जाने के लिए निकल पड़ा.महाराज उस के पीछे बस्ती के अंत तक गए और फिर वह दोनों काफी देर तक बातें करते रहे.
उसे विदा कर वह वापस लौट आए और सीधे कमला के घर की छत पर गए.कमला के साथ इला ऊपर गई, तब वह खिड़की के टूटे हुए कांच के टुकड़ों के सामने खड़े हो कर कुछ सोच रहे थे.
“यह कांच कैसे टूटा?” उन्होंने कमला से पूछा, “पता नहीं बापू, बच्चे ही ऊपर कुछ करते रहते हैं. मैं ने भी यह कांच अभीअभी टूटा हुआ देखा है. मालिक देखेंगे तो और डाटेंगे,” कमला बोली.”मुझे यहां और भी कुछ मिला है,” महाराज बोले और उन्होंने अपना हाथ आगे किया. उन के पास एक छोटी राइफल थी. कमला की आंखें डर और हैरानी से बड़ी हो गईं.
इला हैरान होते हुए देखती रही. काफी देर तक महाराज राइफल हाथ में पकड़े खिड़की से बाहर देखते रहे. ऐसे ही दस मिनट निकल गए. तभी कमला अपने बड़े बेटे जिगर को पकड़ कर ऊपर ले आई, “बापू, यह ले आया था वह बंदूक. और कांच तो बौल की वजह से टूटी है, ऐसा यह कह रहा है,” वह हांफते हुए बोली. उस के चेहरे पर काफी बेचैनी थी.
लखनऊ. नीति आयोग ने जुलाई-अगस्त 2021 के सर्वे के आधार पर देश के अतिपिछड़े 112 जिलों की डेल्टा रैंकिंग जारी कर दी है. नीति आयोग की तरफ से जारी जुलाई- अगस्त 2021 डेल्टा रिपोर्ट में देश के आकांक्षात्मक जनपदों की सूची में प्रदेश के 8 जनपदों में से 7 जनपदों ने टॉप 10 में स्थान बनाया है. यह जनपद सिद्धार्थनगर, बहराइच, सोनभद्र, श्रावस्ती, फतेहपुर, चित्रकूट, चंदौली है.
फतेहपुर ने नीति आयोग के निर्धारित मानकों पर कार्य करते हुए पूरे देश में विकास के क्षेत्र में दूसरा स्थान हासिल किया है. वहीं तीसरे स्थान पर सिद्धार्थनगर, चौथे पर सोनभद्र, पांचवें पर चित्रकूट, सातवें पर बहराइच, आठवें पर श्रावस्ती और नौवें पर चंदौली ने स्थान बनाया है.
उत्तर प्रदेश के आठ आकांक्षात्मक जिलों में चित्रकूट और चित्रकूट ने नीति आयोग के मानकों पर उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है. आयोग ने इन जिलों को विकास कार्यों के लिए अतिरिक्त बजट आवंटित किया है. नीति आयोग की ओवरआल डेल्टा रैंकिग में चित्रकूट ने शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण सहित अनेक मानकों पर देश में पांचवा स्थान हासिल किया है.
डेल्टा रैंकिंग द्वारा छह विकासात्मक क्षेत्र स्वास्थ्य और पोषण, शिक्षा, कृषि और जल संसाधन, वित्तीय समावेश, कौशल विकास और बुनियादी ढांचा विकास हैं, जिन्हें रैंकिंग के लिए ध्यान में रखा गया. आकांक्षी जिलों की रैंकिंग हर महीने जारी की जाती है. आकांक्षी जिला कार्यक्रम जनवरी 2018 में शुरू किया गया. इसका उद्देश्य उन जिलों को आगे बढ़ाना है जिनमें महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों में कम प्रगति देखी गई है और कम विकसित इलाके के तौर पर सामने आये हैं.
‘‘मम्मी का चमचा,’’ काव्या ने मुंह सिकोड़ा.
‘‘सुनो, आज खाना बनाने की हिम्मत नहीं है. चलो न कहीं बाहर चलते हैं… वैसे भी पिज्जा खाए बहुत दिन हो गए.’’ काव्या ने चिरोरी की तो अभय चलने के लिए तैयार हो गया.
‘हवा के साथसाथ… घटा के संगसंग… ओ साथी चल… तू मुझे ले कर साथ चल तू… यूं ही दिनरात चल तू…’ काव्या एक हाथ से अभय की कमर पकड़े और दूसरे हाथ से विभू को संभाले बाइक पर उड़ी जा रही थी… अभय के शरीर से उठती परफ्यूम और पसीने की मिलीजुली गंध ने उसे दीवाना बना दिया था. हालांकि अभय अभी भी चुप सा ही था. काव्या चाहती थी कि कुछ देर यों ही हवा से अठखेलियां होती रहें. लेकिन तभी अभय ने पीज्जाहट के सामने ले जा कर बाइक रोक दी.
महीनों बाद दिलबर के साथ आउटिंग थी… काव्या ने जीभर ‘ओनियन,
कैप्सिकम, टोमैटो पिज्जा विद डबल चीज’ खाए, साथ में फ्रैंचफ्राइज और गर्लिक ब्रैड भी… विभू थोड़ी देर तो खुश रहा, फिर परेशान करने लगा तो काव्या ने फीड करवा दिया. मां की छाती से लगते ही बच्चा सो गया. घर पहुंचते ही काव्या ने खुद को बिस्तर के हवाले कर दिया. दिनभर की थकीहारी तुरंत ही नींद के आगोश में चली गई. अभय इंतजार करता रह गया. अभी नींद आंखों में पूरी तरह से घुली भी नहीं थी कि विभू बाबू ने रंग बदलने शुरू कर दिए. आधेआधे घंटे के अंतराल पर 4 बार कपड़े गंदे कर दिए. पोतड़े बदलतेबदलते काव्या का रोना छूट गया. अभय ने उसे दवा दे दी, लेकिन दवा भी तो असर करतेकरते ही करती है. खैर, किसी तरह रात बीती तो विभू की आंख लगी. काव्या ने भी पलकें झपक लीं. आंख खुली तो सुबह के 8 बज रहे थे. अभय औफिस जाने के लिए लगभग तैयार था.
‘‘सुनो, तुम आज खाना बाहर से ही मंगवा लेना,’’ काव्या अपराधबोध से घिर गई.
‘‘आगेआगे देखिए होता है क्या,’’ रात की घटना से बौखलाया अभय बुदबुदाया.
पति के औफिस जाते ही काव्या ने नव्या को फोन लगाया और रात का किस्सा कह सुनाया.
‘‘यह तो मजे की सजा है रानीजी… कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है…’’ बहन ने उसे छेड़ा तो काव्या कुढ़ कर रह गई.
‘‘हो सकता है कि कल तुम ने जो पिज्जा खाया वह बच्चे को हजम नहीं हुआ और वह रातभर परेशान रहा…’’ अब तक रिया भी कौन्फ्रैंसिंग के जरीए उन के साथ बातचीत में शामिल हो चुकी थी.
‘‘यह एक और नई मुसीबत कि मन का खाओ भी नहीं…’’ काव्या ने विभू की तरफ देखा.
‘‘तू एक काम कर न विभू को बोतल से दूध पिलाना शुरू कर दे,’’ नव्या ने फिर सलाह दे डाली.
‘‘लेकिन डाक्टर तो कहते हैं कि कम से कम 6 महीने तक बच्चे को स्तनपान करवाना चाहिए,’’ काव्या ने शंका जाहिर की.
‘‘अरे ओ ज्ञानी की औलाद, जिन बच्चों की मां उन के पैदा होते ही चल बसती हैं, वे भी तो किसी तरह से पलते होंगे न,’’
रिया का यह भद्दा मजाक काव्या को जरा भी रास नहीं आया लेकिन विभू को ऊपर का दूध पिलाने वाली बात जरूर उस के दिमाग में फिट बैठ गई. दूसरे दिन अभय के औफिस जाते ही काव्या फीडिंग बोतल खरीद लाई और ‘मिशन दूध पिलाओ’ में जुट गई.
काव्या ने जैसेतैसे कर के 2 घूंट बच्चे के गले में उड़ेले और सफलता पर अपनी पीठ थपथपाने लगी, लेकिन यह क्या थोड़ी ही देर में विभू ने उलटी कर दी. वह खुद तो उलटी में लिपटा ही, तकिया सहित बैड की चदर भी खराब कर दी. रोने लगा वह अलग मुसीबत.
‘फिर भूख लग आई लगता है,’ सोच कर काव्या ने फिर से बोतल उस के मुंह से लगा दी. बच्चे को दूध हजम नहीं हुआ और 2-3 घंटे बाद ही उस ने दस्त करने शुरू कर दिए.
‘‘लगता है मुसीबतों ने मेरे ही घर का रास्ता देख लिया है,’’ परेशान सी काव्या भुनभुना रही थी. लेकिन शाम होतेहोते फिर से सजधज कर अपनी आजादी का जश्न मनाने के लिए तैयार हो गई. विभू को भी हगीज पहना दिया. अभय के औफिस से आते ही तीनों फिर चल पड़े हवाखोरी करने.
विभू को बोतल का दूध अब भी कम ही हजम होता था, लेकिन काव्या ने हार
नहीं मानी… हिचकोले खाती गाड़ी चल रही थी… एक तरफ आजादी की खुली हवा थी तो दूसरी तरफ जिम्मेदारी की बेडि़यां भी थीं… कभी काव्या पंख पसार कर खुश होती तो अगले ही पल पंख सिकुड़ भी जाते. इसी तरह धूपछांव से दिन निकल रहे थे, लेकिन चैन के दिनों से कहीं लंबी बेचैनियों की रातें होने लगी थीं.