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सुबह, दोपहर और शाम : भाग 4

2 महीने हो गए सास ने एक बार भी आ कर पोते को नहीं संभाला. बस फोन पर ही हालचाल पूछ लेती थीं. जैसेजैसे विभू बडा हो रहा था, काव्या के लिए अकेले बच्चे को संभालना दूभर होने लगा. कभी वह रातभर रोता…कभी दूध नहीं पीता… कभी घड़ीघड़ी डाइपर खराब करता, तो कभी कुछ और परेशानी खड़ी कर देता.

इन दिनों तो न कहीं आना न जाना… न रिया से फोन न नव्या से चैटिंग… न कोई सोशल मीडिया पर सक्रियता… ब्यूटीपार्लर की सीट पर बैठे महीनों हो गए… दिनभर विभू और उस के पोतड़े… उनींदी सी काव्या हर समय नींद के अवसर तलाशने लगी थी… अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी न होने से अभय भी उस से उखड़ाउखड़ा रहने लगा. खुले आसमान में उड़ने के सपने देखने वालीकाव्या अपनी ही इच्छाओं के घेरे में कैद सी हो कर रह गई.

आजकल विभू कुछ ज्यादा ही चिड़चिड़ा हो गया है. सारा दिन रिरियाता रहता है. अकेला छोड़ो तो कुछ भी उठा कर मुंह में डाल लेता है. 2 दिन से तो लूज मोशन इतने ज्यादा हो गए कि ड्रिप चढ़वाने तक की नौबत आ गई. घबराई सी काव्या उसे पास के डाक्टर को दिखाने ले गई.

‘‘बच्चे के दांत निकल रहे हैं. ऐसे में मसूढ़ों में खुजली होने के कारण बच्चों की हर समय कुछ न कुछ चबाने की इच्छा होती है, इसलिए वे कुछ भी मुंह में डालते रहते हैं. इसी से पेट में इन्फैक्शन हो गया है. आप बच्चे को खिलौनों में उलझाए रखें. कोशिश करें कि बच्चा अकेला न रहे,’’ डाक्टर ने उसे कारण बता कर समझाया.

‘‘हर बार बस मैं ही बुरी कहलाती हूं. अब साथी कहां से लाऊं, बच्चे को अकेले रखने का फैसला भी तो मेरा अपना ही सोच था. काव्या रोआंसी ओ आई. आज उसे सास की बहुत याद आ रही थी. लेकिन मनमरजी से जीने की ऐंठ अभी भी कम नहीं हुई थी.

8 महीने का विभू अब घुटनों के बल चलने लगा था. सो कर उठने के बाद चलना शुरू होता तो फिर चीटी की तरह रुकने का नाम ही नहीं लेता था. घर का वह हर सामान जो उस की पहुंच में आ जाता, बस उठाया और धम्म से नीचे… कभी ड्रैसिंगटेबल उस की जद में होती तो कभी रसोई के बरतन… कभीकभी अभय के जरूरी कागजात भी उस के हाथों जन्नत पा जाते. काव्या उस के पीछेपीछे भागती थक जाती, लेकिन विभू सामान गिराता नहीं थकता, क्या करे काव्या… किसी से शिकायत करने की स्थिति में भी नहीं थी.

फिर एक दिन काव्या दोपहर में विभू के साथ लेटी थी. गृहस्थी के बोझ से उकताई हुई काव्या जल्द ही खर्राटे भरने लगी. विभू की नींद कब खुली उसे पता ही नहीं चला. पलंग से नीचे उतरने की कवायद में विभू औंधे मुंह गिर पड़ा. गिरने के साथ ही पलंग का कोना उस के माथे में लगा और खून निकलने लगा. बच्चे की चीख के साथ काव्या की नींद खुली. बच्चे को खून से लथपथ देख कर काव्या के हाथपांव फूल गए. तुरंत अभय को फोन लगाया और खुद विभू को ले कर डाक्टर के पास भागी.

‘‘सिर में गहरी चोट आई है… 4 टांके लगे हैं… मैं ने आप से पहले भी कहा था कि इस उम्र में बच्चे अधिक चंचल होते हैं, उन्हें हर समय निगरानी में रखना चाहिए… जरा सी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है,’’ डाक्टर के कहने के साथ ही काव्या की आंखों से आंसू बहने लगे.

‘‘तुम से नहीं पलेगा बच्चा… मां को फोन लगाओ,’’ अभय उस पर लगभग चिल्ला ही उठता पर हौस्पिटल के शिष्टाचार के नाते उसे अपनी जबान पर साइलैंसर लगाना पड़ा. बच्चे की इस हालत के लिए वह काव्या को ही कुसूरवार मान रहा था. काव्या ने मोबाइल निकाला और सास का नंबर डायल किया.

‘‘यहां नैटवर्क नहीं आ रहा है, मैं बाहर जा कर ट्राई करती हूं,’’ काव्या को उस के ईगो ने बहाने बनाने खूब सिखा दिए थे.

‘‘सुन रिया… यार बहुत बड़ी प्रौब्लम हो गई… लगता है अब अभय अपने मांपापा को बुलाए बिना नहीं मानेगा… बता न क्या करूं? कैसे उन्हें आने से रोकूं?’’ काव्या ने रिया को फोन लगाया और आज के घटनाक्रम का ब्यौरा देने लगी.

‘‘अरे यार, मैं अपनी ससुराल आई हुई हूं… अभी बात नहीं कर सकते… तू नव्या से बात कर न…’’ रिया ने उसे बात पूरी करने से पहले ही टोक दिया.

‘‘तुम और ससुराल? तुम्हें तो सासससुर के साथ रहना कभी नहीं सुहाया… फिर अचानक तुम्हारा यह फैसला… तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न…’’  अब चौंकने की बारी काव्या की थी.

‘‘हां यार, अब मैं भी तुम्हारी ही श्रेणी में आने वाली हूं न… तुम्हारी हालत देखदेख कर मुझे समझ में आ गया कि कुछ दिन का हनीमून पीरियड तो ठीक है, लेकिन हमेशा के लिए परिवार से दूर रहने में कोई समझदारी नहीं है, खासकर तब जब निकट भविष्य में उन की जरूरत पड़ने वाली हो कहने के अंदाज से ही रिया का स्वार्थ टपक रहा था.

काव्या को लगा मानो जिस डाली का वह सहारा लिए बैठी थी उस पर किसी ने कुल्हाड़ी चला दी.

अब तक अभय अपने मांपापा को फोन कर चुका था. शाम होतेहोते दादादादी अपने पोते के पास थे. विभू को अभी तक सिर्फ अपने मांपापा के पास रहने का ही अभ्यास था. इसीलिए अजनबी चेहरों को देखते ही वह काव्या की गोद में दुबक गया. लेकिन खून आखिर अपनी तरफ खींचता ही है… थोड़ी ही देर में विभू दादादादी से घुलमिल गया. रात को भी उन्हीं के साथ सोया.

अगली सुबह काव्या के चेहरे की रौनक और अभय के चेहरे की संतुष्टि

बता रही थी कि महीनों बाद दोनों ने इतनी निश्चिंतता से नजदीकियां भोगी हैं.

पोते के आगेपीछे भागतेभागते दादादादी के घुटनों का दर्द न जाने कहां गायब हो गया. दूधब्रैड के सहारे दिन निकालने वाले घर की रसोई दोनों समय पकवानों की खुशबू से महकने लगी. दादी की कोशिशों से विभू ने फीडिंग बोतल छोड़ कर गिलास से दूध पीना सीख लिया. दादा की उंगली थाम कर डगमगडगमग पग भी भरने लगा था.

‘‘काव्या, इस तरह तो तुम हम सब को खिलाखिला कर तोंदू बना दोगी,’’ एक शाम अभय ने रीझ कर कहा तो काव्या निहाल हो गई.

‘तसवीर के इस दूसरे रुख से मैं अब तक अनजान ही रही… उफ, कितनी बड़ी नासमझ थी,’ सोच काव्या आत्मग्लानि से भर जाती.

‘‘बच्चों के साथ 10 दिन कैसे बीत गए पता पता ही नहीं चला. अब हमें लौटना चाहिए,’’ एक दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर ससुरजी ने कहा तो काव्या हैरत से अपनी सास की तरफ देखने लगी.

‘‘हां, विभू के साथ मेरा तो जैसे बचपन ही लौट आया था, लेकिन फिर भी… बच्चों को उन की जिंदगी उन के तरीके से जीने देनी चाहिए. ये उन के खेलनेखाने के दिन हैं. उम्र का यह दौर लौट कर थोड़े आता है…’’ सास ने चाय पी कर कप नीचे रखते हुए पति की हां में हां मिलाई.

‘‘लौटना तो है ही… लेकिन आप अकेले नहीं जाएंगे, हम सब साथ चलेंगे… मैं ने अपना ट्रांसफर फिर अपने होम टाउन करवाने के लिए ऐप्लिकेशन दे दी है. तब तक आप लोग यहीं रहेंगे… अपने परिवार के साथ…’’ अभय ने एक रहस्यमयी मुसकान उछाली तो काव्या ने भी उस का साथ दिया.

‘‘बड़े, सयाने सही कहते हैं कि बिस्तर चाहे कितना भी आरामदायक क्यों न हो, पूरी रात एक करवट नहीं सोया जा सकता,’’ दादी पहले अपने मूल और फिर सूद की तरफ देख कर मुसकराईं.

‘‘हां, सुबह के उड़े हुए पंछी शाम को घर लौटते ही हैं… यह अलग बात है कि कभीकभी रात भी हो जाती है, लेकिन लौटते तो अंतत: घोंसले में ही है न.’’  दादा भी मुसकरा दिए.

विभू अपने पापा की उंगली थामे दादा की बगल में खड़ा था. सुबह, दोपहर और शाम तीनों मुसकरा रहे थे.                                 द्य

‘‘काव्या एक हाथ से अभय की कमर पकड़े और दूसरे हाथ से विभू को संभाले बाइक पर उड़ी जा रही थी. अभय के शरीर से उठती परफ्यूम और पसीने की मिलीजुली गंध ने उसे दीवाना बना दिया था…’’

खुद की तलाश : भाग 4

उन सब के आपसी प्रेम को देख कर मानसी को बड़ी खुशी हुई. रात को जब सब सोने चले गए, मानसी बगीचे में टहलने निकल गई. अब उस के पास कुछ ही दिन थे, फिर उसे वापस जाना होगा. वह विचारों में मग्न थी कि तभी किसी के वहां होने का एहसास हुआ. उस ने पलट कर देखा तो शीला खड़ी थी. दोनों में शुरू में इधरउधर की बातें होती रहीं…

‘‘जब पापा…’’ कहतेकहते रुक गई थी शीला, ‘‘तब उन के पास विभा ही थी.’’

मानसी ने उस की आंखों में वेदना को देखा.

‘‘फिर विभोर का इतना दूर होना, वापस आने पर…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.

मगर मानसी सम झ गई कि वह क्या कहना चाहती है.

‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गईं. लंबे अरसे बाद मैं ने विभा का यह रूप देखा है.’’

शीला के इस कथन पर मानसी के अधरों पर स्वत: ही मुसकान खेल गई.

उसी रात मानसी और शीला ने निकट भविष्य के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय

ले लिए.

1 वर्ष बाद मानसी, मम्मीपापा के पास जा रही है. इस बार उस की यात्रा एकांत में नहीं है. कुछ माह में ही शीला ने देश की सर्वोच्च साहित्यिक संस्थान में अपनी जगह बना ली. अब वह देशभर में लिटरेरी इवेंट्स करवाती है. संभवत: शीघ्र ही वह इंटरनैशनल कम्युनिटी में भी इवेंट्स और्गेनाइज करे. गत वर्ष की घटनाएं मानसी के मन में उभरने लगी.

उस ने कितना सही फैसला लिया था शीला को और्गेनाइजर बनाने का. उस निर्णय का इतना प्रभावपूर्ण परिणाम निकलेगा इस की कल्पना तो उस ने भी नहीं की थी. जब विभा ने उसे सबकुछ बताया था तभी उस ने सोच लिया था कि वह शीला की जितनह बन पड़ेगी उतनी मदद करेगी. उस रात जब शीला उस से बात करने आई, उसे ऐसी अनुभूति हुई मानो यदि स्वयं मानसी ने कभी दबाव में आ कर आननफानन में विवाह कर लिया होता तो वह भी यों ही बिखर गई होती. तभी उस ने निश्चय कर लिया था कि वह शीला की हरसंभव सहायता करेगी. इसी उद्देश्य से वह उसे अपने साथ दिल्ली ले आई.

विभा और विभोर की गृहस्थी वापस पटरी पर आ गई. शीला को काम संभाले कुछ ही सप्ताह हुए थे कि अशोकजी ने जग को अलविदा बोल दिया. जाने से पहले उन्होंने बड़ी सहृदयता से मानसी का धन्यवाद किया था. उन को प्रसन्न करने में मानसी का भी योगदान था, इतना भर उस के लिए बहुत था.

आज जब वह पटना जा रहे हैं, इस के पीछे सिर्फ परिवार से मिलना ही इकलौता

उद्देश्य नहीं है. एक तो उन की एक गोष्ठी है, जिसे शीला संभाल रही है और जिस में मानसी अपनी रचना पढ़ने वाली है. दूसरी और अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस गोष्ठी से एकत्रित राशि एक संस्था जिस से कि हाल ही में विभा जुड़ी है, उस के द्वारा एक सेहतगाह को जाएगी. इस सैनेटोरियम में उन बुजुर्गों की देखभाल होती है, जिन का कोई नहीं है या जिन की देखभाल का जिम्मा उन का परिवार उठा नहीं सकता या उठाना नहीं चाहता.

‘यदि हमें पता हो कि जिंदगी में क्या चाहिए तो उसे पा लेने की यात्रा तनिक सरल हो जाती है,’ मानसी के मन में खयाल आया. वह ट्रेन के बाहर फैली सुंदर धूप को निहार रही थी. ‘यदि नहीं भी पता हो, तो कदाचित यात्रा आरंभ होने पर उस का एहसास हो जाता है. यह यात्रा होती तो सब की एकांत में ही है पर कभीकभी 2 लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो अपना एकांत आपस में बांट सकते हैं. वह रिश्ता सिर्फ एक ही हो ऐसा तो आवश्यक नहीं. कभी हमें जीवन में सहारा एक दोस्त से मिलता है, कभी परिवार से, कभी किसी अजनबी से भी. हरकोई अपना जीवन सिर्फ किसी एक रिश्ते के पीछे भागने में लगा दें, यह तो बुद्धिमत्ता नहीं होगी.’

मानसी को पता है बहुत से लोग आज भी अपने जीवन का आधार किसी अन्य को बनाना ही जीवन का महत्त्व सम झते हैं. हो सकता है ऐसा करना आसान होता हो या हो सकता यह दुष्कर हो, परंतु जीवन में सभी का एक ही मार्ग हो, यह तो संभव नहीं. उसे उम्मीद है कि लोग यह धीरेधीरे सम झने लगेंगे और फिर शीलाओं को यों टूट, बिखर कर पुन: खुद को तलाशने की जरूरत नहीं होगी.                              द्य

‘‘एक अच्छी शिक्षिका होने के नाते उस की

ख्याति दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. विद्यार्थी ही नहीं

शिक्षक भी उस की बुद्धि का लोहा मानते थे….’

दीवार – भाग 4 : इंस्पेक्टर जड़ेजा का क्या मकसद था

लेखक- अमित अरविंद जोहरापुरकर

“बापू, आप हमारे यहां खाना खाओगे…? हम कुछ भी मांसमछली नहीं बनाते हैं घर पर.

“इलाबेन, आप भी चलिए, समय हो गया है,” मकान मालकिन बोली.  “हां, हां, चलिए बापू. मैं भी कमला के यहां खाना खाती हूं.” अब महाराज को दोनों के नामपता मालूम चल गए. खाना खाते हुए महाराज कुछ नहीं बोले. हाथ धोते समय उन्होंने इला से पूछा, “वह जो छुरा पकड़े चिल्ला रहा था. वह कौन है?”

“दक्षेश… मैं उसी के यहां किराए पर रहती हूं. वह कुछ नहीं करेगा, शराब का नशा उतर गया तो सीधा हो जाएगा,” इला बोली. “चलिए, मेरे यहां चल कर बात करते हैं,” कमला का शुक्रिया अदा कर दोनों चलने लगे और 3-4 घर छोड़ कर इला के कमरे के सामने आ गए. वह मकान कमला के घर जैसा ही था, लेकिन काफी पुराना और टूटाफूटा सा लग रहा था. मकान के बाहर से ही एक सीढ़ी ऊपर की ओर जा रही थी.

“यह दक्षेश कहां रहता है?” उन्होंने पूछा. “यहीं ऊपर रहता है. अकेला है. शराब की आदत से तंग आ कर उस की बीवी बहुत पहले ही उसे छोड़ कर चली गई,” इला ने बताया. “तुम यहां अकेली रहती हो?” “जी. मुझे कौन क्या करेगा, यहां किसी का डर नहीं,” उन के सवाल में छिपा सवाल पहचान कर वह हंसते हुए बोली.

फिर महाराज आगे कुछ नहीं बोले. आज सुबह से ही उन्हें इतने आश्चर्य और सदमे नसीब हुए थे कि अब अपनी महंताई छोड़ दुनिया को खुली आंखों से देखना अच्छा लगने लगा था.”मैं वैसे मुंबई की, पर हूं गुजराती. पढ़ने के लिए बड़ोदा आई थी. यहां पहले एमएसडब्ल्यू का थीसिस वर्क करने आई. लेकिन इतनी घुलमिल गई कि यहां करने लायक बहुत काम है, ऐसा लगने लगा. फिर जहां मैं इंटर्नशिप कर रही थी, उसी संस्था में मैं ने नौकरी कर ली.

“मेरे पैरेंट्स काफी नाराज हुए थे. लेकिन अब उन्हें लगता है कि मैं कुछ ढंग का काम कर रही हूं,” इला ने हंसते हुए अपना परिचय दिया. “आप के बारे में बहुत सुना था, पर मिलना आज नसीब हुआ,” वह फिर बोली.”मैं तो एक गोर यानी महंत हूं. मुझ से ज्यादा तो आप इन लोगों के लिए कितना अच्छा काम कर रही हैं,” महाराज दिल से बोले, “वंश परंपरा से हम लोग बावरा लोगों के गोर यानी महंत हैं. न सिर्फ इन के, लेकिन ऐसे और 3 खानाबदोश जातियों के हम महंत हैं.

“मेरे पिताजी रविशंकर महाराज के अनुयायी थे. रविशंकर महाराज ऐसी ही गुनाहगार मानी गई जातियों के, बाहरवाटियों के महंत थे. उन्होंने ऐसी अनेक जातियों को उस अभिशाप से मुक्त किया.”पर, मेरे पिताजी ऐसा नहीं कर पाए, लेकिन वह काफी उदार हृदय थे. उन्होंने मुझे पढ़ाया. मैं भी बड़ोदा में पढ़ा हूं.”मेरे बड़े भाई की अकाल मौत हो गई. फिर मुझे महंत बनना पड़ा,” वह बोले.”आप जैसे लोगों की यहां बहुत जरूरत है,” इला ने कहा.

“हम वैसे तो ब्राह्मण हैं, लेकिन बावरा, सुखारा और घाडिया ऐसे लोगों के गोर यानी महंत, इसलिए रविशंकर महाराज ने मेरे पिताजी को आज्ञा दी कि वह आयोग के काम में इन लोगों का प्रतिनिधित्व करें. उन के बाद मैं भी वह काम करने लगा. हम ने कच्छ और हरियाणा में काफी काम किया. लेकिन अब यहां के हालात देख कर लग रहा है कि हम ने कुछ भी नहीं किया है,” वह खुले दिल से बोले.

“अब तो आप सही समय पर आ गए हो. यह मामला नहीं निबटाया तो ये लोग पूरी बस्ती उजाड़ देंगे,” इला चिंतित होते हुए बोली. “हां, वही करना है अब. यहां का मुखी पबुभा तो सालभर पहले गुजर गया ना? उस के बाद तो कोई मुखी बना नहीं, ऐसा मुझे याद है,” महाराज बोले.”कमला का पति गोरधन काम के लायक है. वह पबुभा का भतीजा है. लेकिन वह दारू पीता नहीं, शराब का कारोबार करता है, इसलिए पुलिस और काफी बावरा उस से खफा हैं. वह रात को काफी देर से काम से लौटता है. अब तो वह सुबह ही मिल पाएगा,” इला बोली.

अब उन्हें वक्त का खयाल आया तो वे बोले, “मैं चलता हूं. ऊपर से एक बार दीवार और देख लूं,” वह बोले.उन का इशारा जान कर इला हंसते हुए बोली, “मैं ने आप को पहले ही कहा है. बंदूक वगैरह दक्षेश के बस की बात नहीं.”फिर भी वह उन को बगल की सीढ़ियों से ऊपर ले गई. ऊपर कमरे का दरवाजा खुला ही था और एक चारपाई पर कराहता हुआ दक्षेश लेटा हुआ था.उस बालकनी से नीचे झुक कर महाराज ने दीवार की तरफ गौर से देखा.’मुझे सुबह उजाले में अच्छे से देखना पड़ेगा,’ वह बुदबुदाए.

“मैं कल सुबह आऊंगा. तुम रहोगी ना तुम?” उन्होंने पूछा.”हां, कल का ही दिन तो है,”  वह रोआंसी हो कर बोली.उस से कुछ न बोलते हुए महाराज ने घड़ी देखी और वहां से चल दिए.जब वह वापस निकले, उस समय 10 बज चुके थे. कमला घर के बरामदे में बैठी हुई थी और अंदर से अभी भी गिटार के सुर सुनाई दे रहे थे.महाराज को आया देख कर उस ने अंदर आवाज लगाई.

एक शर्टपैंट पहना हुआ सांवला सा 40 साल की उम्र का आदमी बाहर आया और उस ने महाराज के पैर छुए.”तुम गोरधन हो?” महाराज ने पूछा. “जी हां बापू,” वह बोला.”अब तो तुम ही यहां के मुखी हो न?” उन्होंने पूछा.गोरधन बिना कुछ कहे खड़ा रहा. उस की खामोशी को नजरअंदाज कर महाराज ने आगे पूछा, “इंस्पेक्टर जड़ेजा के खून के बारे में तो तुम्हें पता ही होगा. क्या लगता है तुम्हें, गुनाहगार अपनेआप को पुलिस के हवाले कर देगा?

“बापू, सीधी लड़ाई करो तो कोई बच्चा भी जड़ेजा को मार दे, इतना पापी आदमी था वो. लेकिन धोखे से बंदूक ले कर कोई यहां का बंदा इसे मारेगा, ऐसा मुझे नहीं लगता.

“यहां के लोग चोरीचकारी करते हैं जीने के लिए. उन से बड़े कांड तो यह इंस्पेक्टर जड़ेजा ही जबरदस्ती करवाता था. इन्हीं लोगों की बदौलत तो उस का शराब का इतना बड़ा कारोबार चल रहा था. लेकिन गुनाहगार तो हम ही लोग होते हैं,” कह कर वह चुप हो गया.

महाराज दो पल चुप रहे, फिर बोले, “मैं सुबह फिर आऊंगा. तुम्हारी छत से दीवार का मुआयना करना है, फिर एक बार. चलेगा न…?”

मैला आंचल : भाग 4

कुछ देर बाद सुंदरी चाय ले कर आई. चाय के बीच उस आदमी ने अपना परिचय दिया, “भभुआ में मेरा घर है. पत्नी 5 साल पहले गुजर गई. 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. रिश्तेदारों ने काफी जोर डाला, मगर दूसरी शादी नहीं की.’’ तत्काल सुंदरी के मन में एक बेमेल समाधान आया. पुरुषों की कमजेारी को वह अच्छी तरह जानती थी. सुंदरी ने महसूस किया कि उस आदमी ने किसी स्त्री की तरफ देखा ही नहीं. खेतखलिहान से ऊपर उसे कुछ सोचना आया ही नहीं. बस एक रट पकड़ी तो पकड़ी रही. सौतेली मां न जाने उस के बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करे? तभी पानी का गिलास थमाते हुए दोनों की उंगलियों का स्पर्श हुआ. उस आदमी की नसों में सिहरन सी दौड़ गई.

एक अरसा गुजर गया, इस सिहरन की अनुभूति से लबरेज हुए. वह अभिभूत हो गया. ‘‘आप के पति नहीं दिख रहे हैं?’’ चाय की चुसकियों के बीच उस आदमी ने पूछा. सुंदरी मुसकराते हुए बोली, ‘‘अभी शादी नहीं की?’’ “कर लीजिए. समय निकल जाएगा ’’‘‘आप करेंगे…?’’ इस तरह के प्रस्ताव पर सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ.

सुंदरी ने उस के मन की थाह ली थी. कहीं न कहीं वह उस से प्रभावित था. लोहा गरम था, इसलिए उस ने मौका नहीं छोड़ा. कहां राजा भोज कहां गंगू तेली. जमीनआसमान का फर्क था दोनों में. वह गांव का ठेठ इनसान. वहीं सुंदरी शहर की पढ़ीलिखी आर्कषक लड़की. खूबसूरत स्त्री का संसर्ग भला किसे अच्छा नहीं लगता. फिर यहां तो सुंदरी जैसी महिला खुद चल कर आई थी. उस का पौरुष बल जोर मारा तो कर ली शादी सुंदरी से.

सुंदरी ने एक काम अच्छा किया था. उस ने कुछ नहीं छुपाया. अपने पेट में पल रहे बच्चे के बारे में उसे सब सच बता दिया था. हां, उस के पिता का नाम उजागर करना मुनासिब न समझा. उस ने जानने की कोशिश भी नहीं की. उसे तो बस सुंदरी की तलब थी. इस तरह सुंदरी की जिंदगी बरबाद होने से बच गई. इस बीच उस अधिकारी ने अपना तबादला करवा लिया. एक तरह से यह अच्छा ही था, वरना जबतब उस की नजरें उस पर पड़ती तो वह नफरत से भर जाती.

सुंदरी का पति उस पर बुरी तरह फिदा था. वह यह भूल गया कि उस के 2 छोटेछोटे बच्चे भी हैं. उन की परवरिश की जिम्मेदारी उस पर है. “अब बता भी दीजिए शालिनी भाभी कि वह आदमी कौन था?’’ मुझ से रहा न गया. कुछ सोच कर वे बोलीं, ’’तुम जानना ही चाहते हो तो बता देती हूं कि शिवराम, तुम्हारे चाचा।’’

एकाएक सुन कर मैं सन्न रह गई. ‘‘वे तो विधुर थे…?’’ “सिर्फ कहने को…’’ यह मेरे लिए किसी आघात से कम नहीं था. मुझे लगा कि शायद इसी वजह से मेरे मातापिता ने उन से संबंध सीमित कर लिया था. बहुत हुआ तो शादीब्याह या किसी फंक्शन में चले गए. मेरे दिल में शिवराम चाचा के प्रति जो आदरसम्मान था, वह अब नहीं रहा. जिस चाचा को वह आदरणीय मानती थी, वह ऐसे निकले? तभी विचार प्रक्रिया बदली. दोष किस का था? सुंदरी का या शिवराम चाचा का?

सुंदरी अपने पाप को उन के गले मढ़ने की चाल न चलती, तो भला चाचा को क्या गरज थी. अवसर तो सुंदरी ने उपलब्ध कराया. स्त्री हमेशा से पुरुष की कमजोरी रही है. लाख पुरुष कोशिश कर ले, स्त्री के सौंदर्य के आगे हथियार डाल ही देता हेै. चाचा ने भरसक कोशिश की होगी. मगर रूपयौवना सुंदरी के आगे उन की एक न चली होगी? इस के बावजूद मैं ने शिवराम चाचा को ही देाषी माना. ऐसा क्या था, जो मानमर्यादा, लाजशर्म सब भूल गए. और तो और, इस विवाह को हमेशा छुपाए रखा. खुल कर समाज के सामने सुंदरी को अपनाने में हर्ज ही क्या था.

शालिनी भाभी आगे बोलीं, ‘‘समय सरकता रहा. सुंदरी ने एक बच्ची को जन्म दिया. शिवराम ने उसे पिता का नाम दिया. “सुंदरी यही तो चाहती थी. आहिस्ताआहिस्ता बेटी जवान होती गई. इकलौती बेटी होने के कारण वह कुछ ज्यादा जिद्दी हो गई थी. इन सब से तंग आ कर उस ने उसे शहर से बाहर बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया. वहां वह ज्यादा पढ़लिख नहीं पाई. उस का मन पढ़ाई में जरा भी नहीं लगता था. सिर्फ इंटर तक ही पढ़ कर घर बैठ गई.

“सुंदरी को उस की शादी की फिक्र हुई. ऐसे में शिवराम ने उस की शादी अपने बेटे रमेश से करने की राय दी. “यह अटपटा जरूर लग रहा था, मगर सुुुंदरी के पास और कोई चारा भी नहीं था. वैसे भी वह कोैन सी शिवराम की बेटी थी. “रमेश भले ही ज्यादा पढ़ालिखा नहीं था, मगर गांव में खेतजमीन, टैक्टर, कार वगैरह सब था. उस की बेटी ने नानुकुर किया, मगर सुंदरी नहीं मानी. उस की शादी रमेश से कर दी गई.”

’’इस बेमेल रिश्ते के लिए कैसे सुंदरी का मन माना?’’ मैं ने महसूस किया कि इस सवाल पर शालिनी भाभी का चेहरा उतर गया. एक लंबी सांस ले कर वे बोलीं, ‘‘मांबाप बेटी के लिए संबल होते हैं. जब वही साथ छोड़ दें, तब तो बेटी वही करेगी जो वह चाहेगी. अकेली औरत के लिए जिंदगी आसान नहीं होती. बेटी ने सोचा होगा कि आज नहीं तो कल मां नहीं रहेगी, तब किस के सहारे जिंदगी काटेगी? मांबाप से विद्रोह करना आसान थोड़े ही होता है. कल को बेटी ने आवेश में कोई ऐसा कदम उठा लिया, जिस की रजामंदी मांबाप की न हो, तब तो वे भी बुरे वक्त में बेटी का साथ छोड़ देंगे?’’

शालिनी भाभी के कथन में सचाई थी. आज भी क्या शादी के मामले में बेटी की चलती है? मांबाप जहां चाहते हैं, वहीं शादी कर के चिंतामुक्त होने में भलाई समझते हैं? दोनों की शादी हो गई. रमेश अपनी नईनवेली पत्नी के साथ खुश था. रमेश में छलकपट जैसी भावना न थी.

“मां के असमय चले जाने के कारण वह असुरक्षा और हीनभावना का शिकार था. दूसरी तरफ शिवराम तेजतर्रार था. उस की अपने बेटे की करतूत नागवार लगती. लगता था कि उस ने उसे बचपन से ही काफी डांटडपट कर रखा. इस वजह से उस में आत्मविश्वास कभी नहीं पनपा. वह आज भी कायम था. शिवराम की एक आवाज पर उस की घिग्घी बंध जाती.

शादी के एक हफ्ते तो आराम से गुजरे. मगर उस के बाद शिवराम को क्या हो गया, वह रातबिरात आ कर बहू का दरवाजा खटखटाने लगता. वह उन्हें चैन से सोने नहीं देता.‘‘बहू के साथ चौबीसों घंटे सोया रहता है? तुझे अपनी सेहत का जरा भी खयाल नहीं है?’’ एक रात शिवराम ने रमेश को डांटा.

रमेश दुम दबा कर दूसरे कमरे में चला गया. बहू को खराब लगा. अब पति अपनी पत्नी के साथ नहीं सोएगा तो किस के साथ सोएगा?”रमेश का यह भीरू रूप देख कर उस की पत्नी चिंताग्रस्त हो गई, ‘ऐसे आदमी के साथ जिंदगी गुजारनी होगी?’ उस ने सोचा.रात काफी हो चुकी थी. लिहाजा, मैं शालिनी भाभी को सोने की सलाह दे कर खुद उन के बगल वाले बेड पर सो गई. मुझे नींद नहीं आ रही थी.

शालिनी भाभी की सुनाई कहानी मेरे जेहन में चलचित्र की भांति तैर रही थी. परंतु एक बात मुझे बारबार कचोटती कि शालिनी भाभी को शिवराम और उस की बहूबेटे के बारे में इतना सब कैसे पता है. आखिर राज क्या है?सुबह नहाधो कर फिर वही चर्चा चली तो वे बताने लगीं, “एक शाम शिवराम ने रमेश को शहर में ट्रैक्टर के कुछ पार्ट लाने के लिए भेजा. शाम को 4 बज रहे थे. समय अटपटा था. रमेश बोला, ‘‘बाबूजी, अब जाएंगे तो लौटेंगे कब? कल सुबह चले जाएंगे.’’

दायम्मा – भाग 1 : दायम्मा के बेटे ने घर क्यूं छोड़ दिया था

लेखक-राजेश सहाय

शाम के समय बिसेसर को घर पर आया देख मेरी पत्नी नंदिनी को आश्चर्य हुआ.
‘तुम यहां इस समय कैसे? इस वक्त तो तुम्हें गोदाम पर होना चाहिए था. बात क्या है?’

नंदिनी ने जब उस से यह पूछा, तो बिसेसर ने अपने कान पकड़ लिए मानो इस गलती के लिए वह माफी मांग रहा हो. फिर वह अपने आने का प्रयोजन बताने लगा.

‘मलकिनी ये उत्तमा मईया है. हमारी बहन है. विधवा है. 10 साल पहले इस का बेटा उत्तम, जिस की उमर 12-14 साल की रही होगी,  मेरे बहनोई के मरने के बाद घर छोड़ कर चला गया. कहां गया, पता नहीं चल पाया. हम लोगों ने उसे ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की. बहुत पैसा भी खर्च हुआ. पर वह नहीं मिला. न जाने बचा भी है कि नहीं. जीता होता तो अपनी मां की जरूर सुध लेता.

‘आज इस बात को 10 बरस बीत गए. कुछ दिन अपने पास रखने के बाद इस की सास ने गुस्से में इसे नैहर भेज दिया. वह इसे अपने बेटे के असमय मौत का जिम्मेवार ठहराती है. तब से ये हमारे घर ही रहती है.

‘पर मांजी, औरतों की तबीयत के बारे में हम क्या कहें. आप को तो सब पता ही है. घर पर ननदभौजाई में रोज चकचक मची रहती है और हम परेशान होते रहते हैं. आप की इतनी बड़ी हवेली में इसे आसरा मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी. इसी आशा से इसे ले कर आप के पास आया हूं. यह यहां रहेगी तो इस की जिंदगी भी सही ढंग से निभ जाएगी. आप के घर के सारे काम कर देगी. काम करने के मामले में ये खूब मेहनती है.

‘बहन है, इसलिए नहीं तारीफ कर रहा हूं. हर चीज साफसुथरी और अपनी जगह पर मिलेगी. इसी बात को ले कर दोनों औरतों का झगड़ा भी होता था. इस की भाभी जरा आलसी है और घर को व्यवस्थित रखने में ढीली. हमेशा जरूरत का सामान यहांवहां कहीं रख कर भूल जाती है, जिस की वजह से ये उस से उलझ पड़ती है,’ बिसेसर ने अपनी बहन के सारे गुण व व्यथा का वर्णन एक ही सांस में कर डाला.

इस देश में आज भी एक लड़की को उस के पिता के नाम से जाना जाता है और शादी के बाद उस के पति अथवा बेटे के नाम से. इस औरत की पहचान उस के बेटे उत्तमा से है. एक ऐसा बेटा, जिस ने अपनी जननी को ही बिसार दिया और उस की कभी सुधि नहीं ली.

‘पर हमें घर पर काम करने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है. सुबहशाम चौकाबरतन का काम करने वाली है. तुम अपने घर की कलह को हमारे हवाले क्यों किए जा रहे हो?’ नंदिनी ने बिसेसर को टालते हुए कहा.

बिसेसर ने जीभ को दांतों से काट कर हाथ जोड़ लिए, ‘मलकिनी, यह कलह करने वाली नहीं है. बड़ी उम्मीद से हम इसे आप के पास ले कर आए हैं. आप जैसे बड़े लोगों के लिए एक बेसहारा महिला को सहारा देना बड़ी बात नहीं है. जहां एक बेसहारा को सहारा देने का पुण्य आप को मिलेगा, वहीं इस बेसहारा का भी एक निश्चित ठौर हो जाएगा.’

बिसेसर मेरे मालगोदाम पर दरबानी करता है और उस की ड्यूटी शाम 8 बजे से सुबह 6 बजे तक की है. लंबाचौड़ा गठीला श्यामल शरीर, चेहरे पर रोबीली मूछें और कसरती बदन वाला बिसेसर अपनी शारीरिक सौष्ठव के विपरीत बिलकुल ही विनम्र प्रकृति का है.

बिसेसर की ही तरह उत्तमा मईया भी श्याम वर्ण की थी, किंतु समय के आघातों ने उस के चेहरे को कांतिहीन बना दिया था. जिस के पति की मृत्यु युवावस्था में ही हो जाए और जिस का बच्चा घर छोड़ कर चला जाए, वो सामान्य रह भी कैसे सकती थी?

बिसेसर की बातें सुन कर नंदिनी सोच में पड़ गई. जब मैं ने बिसेसर को कुछ ज्यादा ही परेशान पाया, तो नंदिनी से उस की बहन को घर के काम पर रख लेने को कहा.

‘आप तो बहुत जल्दी द्रवित हो जाते हैं. कम से कम मांजी से पूछ तो लेते,‘ नंदिनी ने मेरे फैसले का प्रतिवाद किया.

‘मां को मैं मना लूंगा,’ मैं ने नंदिनी को आश्वस्त किया.

‘पर, यह रहेगी कहां?’ नंदिनी ने अंतिम बाण छोड़ा.

‘अरे, गोहाल के बगल में बने भूसीघर में ही ये अपने लिए जगह बना लेगी. इतना बड़ा भूसीघर भी आबाद हो जाएगा,’ मैं ने नंदिनी की शंका का निवारण करते हुए कहा.

जैसी कि आशंका थी, मां ने जब ये सुना तो वो भी बिफर पड़ी. संभवतः नंदिनी ने ही कुछ बढ़ाचढ़ा कर कहा होगा. ‘सत्तो, (अपने बेटे सत्येंद्रनाथ को वो इसी नाम से पुकारती हैं) इसे रखने से पहले इस की जातबिरादरी का तो पता कर लिया होता.’

मां की बात पर मुझे हंसी आई. इस युग में भी वे कहां जातपांत को ले कर बैठ गई. यदि इस बेसहारा महिला की मदद नहीं करनी, तो स्पष्ट कहना बेहतर था. जातपांत का बखेड़ा व्यर्थ का प्रपंच था.

वैसे भी मेरा मानना था, ‘सब तें कठिन जाति अवमाना’, किंतु प्रत्यक्ष मैं ने इतना ही कहा, ‘मां, ये बिसेसर की बहन है, जो जाति का कोइरी है और जिस पर तुम्हें कोई एतराज नहीं है. इसलिए जाति के नाम पर उस की बहन को ना रखना नीतिपरक नहीं होगा. उस के काम को देखते हैं. यदि घर के काम में वह उतनी ही सलीकेदार है, जैसा कि बिसेसर बता कर गया है तो ठीक, वरना उसे हटा देंगे. अभी यह अध्याय यहीं समाप्त करते हैं.’

बहस खत्म करने की गरज से मैं ने मां को समझाया.
मेरी छठी इंद्रिय कहती थी कि मेरी मां और मेरी पत्नी दोनों ने ही मेरे दवाब में आ कर मेरे फैसले को स्वीकार करते हुए उत्तमा मईया को रखने को तैयार तो हो गए थे, किंतु वे दोनों ही मेरे इस फैसले से असंतुष्ट दिखते थे.
मैं ने मन ही मन मान लिया कि इस बेसहारा औरत का आसरा हमारी हवेली में बहुत दिनों तक रहने वाला नहीं है. जब घर की दोनों महिलाएं आप के फैसले के खिलाफ हों, तब उसे कायम रखना टेढ़ी खीर थी.

‘मैं समझ गया कि उस बेसहारा महिला की कड़ी परीक्षा सुनिश्चित थी. यह भी तय था कि इस परीक्षा में सासबहू उसे अनुत्तीर्ण कर उसे बाहर का रास्ता दिखा देंगी. इस प्रकार मेरे फैसले की इज्जत भी रह जाएगी और उन का अभीष्ट भी सिद्ध हो जाएगा. आखिर गृहस्वामिनियों से विरोध के सामने कोई कब तक टिक सकता है. यह तो यों भी एक लाचार, बेसहारा और मजलूम औरत थी.

Tiger Shroff के फिटनेस ट्रेनर Kaizad Kapadia का हुआ निधन, एक्टर ने जताया शोक

बॉलीवुड एक्टर टाइगर श्रॉफ भले ही अपनी एक्टिंग से लोगों के दिलों में जगह उतनी ज्यादा नहीं बना पाएं हैं , लेकिन टाइगर श्रॉफ के फिटनेस के लाखों दीवाने हैं, टाइगर हर वक्त अपने फिटनेस को लेकर चर्चा में बने रहते हैं.

अगर टाइगर की फिटनेस के पीछे की राज की बात करें तो इसके पीछे , उनके फिटनेस गुरू कायजाद कपाड़िया को क्रेडिट जाता है. कायजाद को वह अपना गुरू मानते हैं. उन्हें कायजाद हीरोपंति फिल्म के लिए तैयार किया था. जिसके बाद से टाइगर श्रॉफ को एक नई पहचान मिली थी.

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ऐसे में टाइगर श्रॉफ को बुधवार के दिन एक बड़ा झटका लगा, उनके गुरू कायजाद का अचानक निधन हो गया, जिससे वह काफी ज्यादा सदमे में आ गए हैं. हालांकि उनके निधन के पीछे की वजह क्या है लोगों को अभी तक मालूम नहीं चल पाया है, लेकिन इस बात से टाइगर के अलावा और भी लोगों को सदमा लगा है.

कायजाद के परिवार वालों को भी इस विषय में कुछ पता नहीं चल पाया है अभी तक उनके मौत की सच्चाई का. टाइगर के बाद से उनके फैंस भी उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं.

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वहीं अगर टाइगर की वर्क फ्रंट की बात करें तो टाइगर की 2 फिल्में रिलीज होने को तैयार है. जिसमें से एक गणपत पार्ट 1 है जिसमें वह कृति सेनन के साथ नजर आएंगे, वहीं दूसरी फिल्म की बात करें तो वह हैं हीरोपंति पार्ट 2 जो अगले साल सिनेमा घर में रिलीज होगी.

टाइगर श्रॉफ के झोली में इसके अलावा भी कई सारे प्रोजेक्ट्स हैं. जिस पर वह लगातार काम कर रहे हैं. टाइगर श्रॉफ कुछ वक्त पहले अपनी फैमली के साथ टाइम स्पेंड करते नजर आ रहे हैं.

माइग्रेन : दर्द एक रूप अनेक

दर्द हमारे जीवन का एक अभिन्न भाग है. हर कोई कभी न कभी, कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार के दर्द से अवश्य ही जूझता है. कमर दर्द, दांत दर्द, गरदन दर्द तो ऐसे आम दर्द हैं जिन की शिकायत रोजाना सुनने को मिल जाती है. ऐसा ही एक आमतौर पर उभरने वाला दर्द है, सिरदर्द.  हम अकसर ही सिरदर्द से परेशान हो जाते हैं. वैसे तो सिरदर्द को सामान्य ही समझा जाता है लेकिन हर मामले में अकसर होने वाला सिरदर्द आम नहीं होता है. वास्तव में, बहुत सी बड़ी बीमारियों का आगाज सिरदर्द से ही होता है. ऐसी ही एक गंभीर बीमारी है माइग्रेन, जिसे आम बोलचाल की भाषा में अर्धकपारी भी कहा जाता है.

यह आमतौर पर कुछ घंटों में दूर हो जाता है और इस के लक्षणों में जी मिचलाना, उलटी होना, रोशनी को देख कर घबराहट होना, शोर या किसी भी प्रकार की खुशबू से चिढ़न होना, गरदन या कंधे में दर्द या उन्हें मोड़ने में दर्द होना, दृष्टि संबंधी समस्याएं, पेट में गड़बड़ी, उबासी लेने में दबाव, मुंह का सूखना व कंपकंपी उठना आदि शामिल हैं.  ऐसे कारक जिन से माइग्रेन के उत्पन्न होने के खतरे अधिक रहते हैं वे हैं :चौकलेट, शराब, चीज, नट्स का सेवन, दुर्गंध, हार्मोनल बदलाव, शोरशराबा, तेज रोशनी, तनाव, मौसम में बदलाव, सोने के तरीकों में बदलाव, व्यायाम, धूम्रपान, आहार को मिस करना आदि.

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न्यूरो स्पाइन सर्जन डा. सतनाम सिंह छाबड़ा के अनुसार माइग्रेन के कई प्रकार होते हैं :

साधारण माइग्रेन :

यह ऐसा सिरदर्द होता है जो बिना किसी आहट के शुरू होता है. इस सिरदर्द के शुरू होने से पहले इस के कोई लक्षण नहीं उभरते, जैसा कि अन्य प्रकार के माइग्रेन में  होता है.

क्लासिक माइग्रेन : 

इस में सिरदर्द शुरू होने से पहले कई अन्य लक्षण उभरने लगते हैं जैसे धुंधली दृष्टि, ठीक से सुनाई न देना, देखते समय अजीबअजीब सी आकृतियों का दिखाई देना आदि. सिरदर्द शुरू होने से तकरीबन आधा घंटा पहले ये लक्षण उभर सकते हैं.

रीबाउंड सिरदर्द :

जब पीडि़त पर दवाओं का असर न हो और सिरदर्द बरकरार रहे तो डोज बढ़ा कर ले ली जाती है. इस से कुछ समय तक तो उन दवाओं का असर दिखता है लेकिन आगे चल कर दवाओं के बढ़ाए डोज का भी कोई असर नहीं होता है. एक सप्ताह में यह दर्द 2 से 3 बार तक हो सकता है.

औक्युलर माइग्रेन :

इस माइग्रेन के दौरान आंखों की रक्तवाहिनियां प्रभावित होती हैं न कि सिर की कोई रक्तवाहिनी. इस से पीडि़त को देखने में समस्या होती है. आंखों में अजीब सा प्रकाश दिखने लगता है. यह समस्या 15 से 20 मिनट तक रहती है फिर सब सामान्य हो जाता है लेकिन बहुत से लोगों को इस के बाद हलके सिरदर्द की शिकायत होती है.

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औफ्थैल्मिक माइग्रेन :

इस का संबंध भी आंखों की मध्य नसों से ही होता है. इस में सिरदर्द भी होता है और पीडि़त को उलटी भी होती है. जैसेजैसे सिरदर्द बढ़ता है वैसेवैसे आंखों की कुछ नसें पैरालिटिक हो जाती हैं. ऐसे में आंखों की पलकें लटक जाती हैं.

सिरदर्द रहित माइग्रेन :

माइग्रेन के इस प्रकार में पीडि़त को सिरदर्द तो नहीं होता लेकिन अन्य लक्षण थोड़ी देर के लिए परेशान कर सकते हैं. ये उन लोगों को होता है जिन का इतिहास माइग्रेन से ग्रस्त रहा हो.

बेसिलर आर्टरी :

इस में मस्तिष्क की धमनी में दर्द की वजह से सिरदर्द उत्पन्न हो सकता है. इस से बोलने व देखने में तकलीफ हो सकती है. बड़ों से ज्यादा बच्चे इस से प्रभावित होते हैं.

कैरोटिडाइनिया :

इस में चेहरे का आधा भाग प्रभावित होता है जैसे जबड़े व गरदन का भाग. यह दर्द तीव्र व भयानक भी हो सकता है या फिर कम व हलका भी हो सकता है. कैरोटिड रक्तवाहिनी में सूजन भी हो सकती है. यह बुजुर्गों में अधिक पाया जाता है. इस का असर कई घंटों तक रह सकता है और यह सप्ताह में एक से ज्यादा बार तक हो सकता है.

डा. सतनाम सिंह छाबड़ा के मुताबिक, माइग्रेन के उचित उपचार के लिए कुछ परीक्षणों की आवश्यकता होती है जिस में रक्त की जांच, ब्रेन स्कैनिंग (सीटी या एमआरआई व स्पाइनल टेप) शामिल हैं.

खास बातें :

माइग्रेन के मरीज को समय पर सोना व जागना चाहिए. नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए. बहुत ज्यादा देर तक भूखे नहीं रहना चाहिए. तनाव को नियमित व्यायाम के द्वारा नियंत्रित करना चाहिए. बहुत तेज व चुभने वाली रोशनी से बचना चाहिए. उन चीजों को पहचान कर उन से बचना चाहिए जिन से यह समस्या होने की संभावना हो.

अब तो जी लें : भाग 1

लेखिका- मधु शर्मा कटिहा

‘‘पापाकी बातों से लग रहा था कि वे बहुत डिप्रैस्ड हैं. मैं चाहता तो बहुत हूं कि उन से मिलने का प्रोग्राम बना लूं, लेकिन नौकरी की बेडि़यों ने ऐसा बांध रखा है कि क्या कहूं?’’ फोन पर अपने पिता से बात करने के बाद मोबाइल डाइनिंग टेबल पर रखते हुए गौरव परेशान सा हो पत्नी शुभांगी और बेटे विदित से कह रहा था.

‘‘मैं ने कल मम्मी को फोन किया था. वे बता रहीं थी कि आजकल पापा बहुत मायूस से रहते हैं. टीवी देखने बैठते हैं तो उन्हें लगता है कि सभी डेली सोप और बाकी कार्यक्रम 60 साल से कम उम्र वाले लोगों के लिए ही हैं… बालकनी में जा कर खडे़ होते हैं तो लगता कि सारी दुनिया चलफिर रही है, केवल वे ही कैदी से अलगथलग हैं… उन्हें लगने लगा है कि दुनिया में उन की जरूरत ही नहीं है अब,’’ शुभांगी भी गौरव की चिंता में सहभागी थी.

‘‘मैं ने आज बात करते हुए उन्हें याद दिलाया कि कितने काम ऐसे हैं जो अब तक अधूरे पड़े हैं और कब से उन को पूरा करना चाह रहे हैं. अब पापा की रिटायरमैंट के बाद क्यों न मम्मीपापा वे सब कर लें, मसलन मम्मी के बांए हाथ में बहुत दिनों से हो रहे दर्द का ढंग से इलाज, पापा का फुल बौडी चैकअप और घर में जमा हो रहे सामान से छांट कर बेकार पड़ी चीजों को फेंकने का काम भी. पापा किसी बात में रुचि ही नहीं ले रहे. बस शिकायत कि तुम लोग इतना कम क्यों आतेजाते हो यहां?’’ गौरव के हृदय की पीड़ा मुख से छलक रही थी.

‘‘मम्मी भी फोन पर अकसर हमारे नहीं जाने की शिकायत करती हैं. कल भी कह रहीं थीं कि जब कोई पड़ोसी मिलता है पूछ ही लेता है कि कई दिनों से बेटेबहू को नहीं देखा,’’ शुभांगी बेबस सी दिख रही थी.

‘‘हमारी प्रौब्लम जब मम्मीपापा ही नहीं समझ पा रहे हैं तो पड़ोसियों से क्या उम्मीद की जाए? एक दिन भी ना जाओ तो खटक जाता है बौस को. तुम भी कितनी छुट्टियां करोगी स्कूल की? फिर विदित की पढ़ाईलिखाई भी है… चलो, कोशिश करते हैं इस इतवार को चलने की,’’ गौरव कुछ सोचता सा बोला.

‘‘दादाजी और दादीजी से मिलने का मेरा भी बहुत मन है, लेकिन इस वीकऐंड पर मैथ्स की ट्यूशन में प्रौब्लम्स पर डिस्कशन होगी. मैं मिस नहीं कर सकता,’’ 12 वर्षीय विदित की भाव भंगिमाएं बता रही थी कि आजकल बच्चे पढ़ाई को ले कर कितने गंभीर हैं.

कुरसी से पीठ टिका आंखें मूंद कर उंगलियां चटकाते हुए गौरव गहन चिंतन में डूब गया. उस के पिता अरुण 3 वर्ष पहले निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे. विभिन्न राज्यों में स्थानांतरण और जिम्मेदार पद के कारण अपने कार्यकाल में वे खासे व्यस्त रहते थे. रिटायरमैंट के बाद का खाली जीवन उन्हें रास नहीं आ रहा था. मेरठ में अपने पैतृक मकान को तुड़वा आधुनिक रूप दे कर बनवाए गए मकान में परिवार के नाम पर पत्नी ममता ही थी. बड़ी बेटी पति के साथ आस्ट्रेलिया में रह रही थी, इसलिए अरुण और ममता की सारी आशाएं गौरव पर टिकी रहतीं थीं. उन का सोचना था कि मेरठ से नोएडा इतना दूर भी तो नहीं है कि गौरव का परिवार उन से प्रत्येक सप्ताह मिलने न आ सके. गौरव विवश था, क्योंकि प्रतिस्पर्धा और व्यस्तता के इस युग में समय ही तो नहीं है व्यक्ति के पास.

खाना खा कर विदित अपने कमरे में जा स्टडी टेबल पर पुस्तकों में खो गया. शुभांगी सुबह के नाश्ते की तैयारी करने किचन में चली गई और गौरव भी अपनी सोच से बाहर निकल लैपटौप खोल मेल के जवाब देने लगा. थक कर चूर उन सभी को प्रतिदिन सोने में देर हो जाया करती थी.

नोएडा के थ्री बैड रूम फ्लैट में रहने वाला गौरव एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत था. पत्नी शुभांगी वहीं के एक विद्यालय में अध्यापिका थी. गौरव सुबह 8 बजे दफ्तर के लिए घर से निकलता तो रात के 9 बजे से पहले कभी घर वापस नहीं आ पाता था. कभीकभी काम ज्यादा होने से रात के 11 तक बज जाते थे, विदित और शुभांगी सुबह साढे छ: बजे साथसाथ निकलते और एकसाथ ही वापस आ जाते थे. विदित उसी विद्यालय में पढ़ रहा था, शुभांगी जिस में टीचर थी.

सुबह जल्दी उठ कर सब का ब्रैकफास्ट बना, विदित और अपना टिफिन तैयार करने के बाद कुछ अन्य कार्य निबटा शुभांगी 10 मिनट में तैयार हो स्कूल चली जाती थी. बाद में मेड आ कर गौरव के जाने तक बरतन, सफाई का काम कर दोपहर का खाना बनाती और गौरव का टिफिन लगा देती थी. स्कूल से लौटने पर भी शुभांगी को आराम करने का समय नहीं मिल पाता था. विदित के लिए मेड का बनाया खाना गरम कर उसे ट्यूशन के लिए छोड़ने जाती. लौट कर खाना खा गमलों में पानी देती, आरओ से पानी की बोतलें भर कर रखती और सूखे कपड़े स्टैंड से उतार कर इस्त्री के लिए देने जाती. वहीं से वह विदित को वापस ले कर घर आ जाती थी. अपनी शाम की चाय पीते हुए होमवर्क में विदित की मदद कर वह रात के खाने की तैयारी में जुट जाती. शाम को रसोई संभालने का काम शुभांगी स्वयं ही करती थी. इस के 2 कारण थे. पहला यह कि विदित और गौरव को उस के हाथ का बना खाना ही पसंद था, दूसरा चारों ओर से वह बचत के रास्ते खोजती रहती थी. फ्लैट के लिए गए लोन की कई किश्तें बाकी थीं अभी.

गौरव और शुभांगी का लगभग 12-13 वर्ष पूर्व प्रेमविवाह हुआ था. उस समय शुभांगी दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ा रही थी. आईआईएफटी कोलकाता से एमबीए करने के बाद गौरव ने भी कुछ दिन पहले ही दिल्ली की एक कंपनी में नौकरी शुरू की थी. शुभांगी से जब उस की मैट्रो में पहली मुलाकात हुई थी तो दोनों को ही ‘लव ऐट फर्स्ट साइट’ जैसा अनुभव हुआ था. पहली नजर का प्यार जल्द ही परवान चढ़ा और दोनों ने जीवनसाथी बनने का फैसला कर लिया. शुभांगी के परिवार वालों को इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं थी. ममता ने भी इस विजातीय विवाह की सहज स्वीकृति दे दी थी, लेकिन अरुण इस विवाह के विरुद्ध था. बाद में ममता के समझाने पर उस ने भी विवाह के लिए हामी भर दी थी.

 

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