फरवरी 2015 में दिल्ली में करारी हार के बाद लगा था कि दिल्ली की जनता से कहीं अनजाने में गलती हुई है कि उस ने सदियों बाद फिर विशुद्ध हिंदू सरकार को एक छोटे से राज्य में उसे इस बुरी तरह हराया कि भारी भीड़ वाली पार्टी पालकी वाली पार्टी बन कर रह गईं. उस के बाद कई और बार कलई खुली कि मई 2014 में हुए आम चुनावों में जो भारीभरकम प्रचार, देशीविदेशी पैसे, ऊंची जातियों वालों की एकजुट आक्रमणता, कांगे्रस के दिमागी दिवालिएपन से भाजपा को जीत मिली थी वह जनता से अनजाने में हुई गलती के कारण थी. बाद के चुनावों में कहीं नाममात्र का बहुमत पाने या कहीं विरोधी पक्ष न होने पर जो विजय भाजपा को मिल रही थीं वे पेशवाई जीतें थीं, शत्रुओं में फूट डाल कर पाई गई थीं.
8 नवंबर, 2015 को बिहार ने पुन: फिर इतिहास लिख दिया और जयप्रकाश नारायण के नारे ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ को फिर जीवित कर डाला. जो हार का कूड़ा नीतीश, लालू और राहुल ने नरेद्र मोदी के दरवाजे पर डाला है वह अप्रत्याशित और राहतकारी दोनों है. पेशवाई राज में जो हाल मराठा राजाओं का ऊंची जाति के देशस्थ ब्राह्मणों ने किया था जबकि सिंहासन पर हक शिवाजी के वारिसों का ही था, वही हाल भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को आगे कर के देश की स्वतंत्रता, एकता, कानूनों के साथ करना चाह रही थी जिसे पहले अरविंद केजरीवाल ने, फिर ममता बनर्जी ने और उस के बाद अब पूरी तरह नीतीश-लालू-राहुल की तिकड़ी ने कर दिया है. नरेंद्र मोदी ने 2014 के आम चुनावों में जो वादे किए थे वे ऐसे ही थे जैसे सोने की वर्षा के लिए यज्ञ करने या मोटा दान करने के बाद मिलने वाले करते हैं. कोरे थोथे और बेवकूफ बनाने वाले वादों पर दुनियाभर में धर्मगुरु कम से कम 5 हजार साल से राज कर रहे हैं.