निजीकरण के फायदे वही गिना रहे हैं जिन की जेब में मोटा पैसा है. इन में से 90 फीसदी वे ऊंची जातियों के अंधभक्त हैं जो सरकार के लच्छेदार जुमलों के  झांसे में आ जाते हैं. इन में से कई लोग शौक तो सरकारी नौकरी का पालते हैं लेकिन सरकारी कंपनियां बिक जाएं, तो उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसे में युवाओं को सोचना है कि बिन सरकारी कंपनी के सरकारी नौकरी कैसे संभव है.   आजादी के बाद जमींदारी जब टूटने लगी थी तब इस वाक्य, ‘हवेली भले ही बिक जाए मुजरा तो होगा,’

इसका इस्तेमाल गांवदेहात के लोग राजघरानों और जमींदारों के उन वारिसों के लिए व्यंगात्मक लहजे में करते थे जो पूर्वजों द्वारा इकट्ठी की गई जमीनजायदाद को बेचबेच कर अपनी ऐयाशियों के शौक को पूरा करते थे.मौजूदा दौर की लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्था में निजीकरण की साजिश हवेली बेचने जैसी ही बात है क्योंकि सरकार न तो अपने भारीभरकम खर्च कम करना चाहती है और न ही पब्लिक सैक्टर्स को चलाए रखने की उस की मंशा दिख रही है. उस का असल मकसद कुछ और है. यह ‘और’ तकरीबन जमींदारी के जमाने जैसा है जिस में न तो लोगों के पास रोजगार होते थे और न ही वे कुशल श्रमिक या कारीगर बन बाहर कहीं जा कर पैसा कमा सकते थे.

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शूद्र, पिछड़े यानी छोटी जाति वाले उस दौरान बड़े किसानों व जमींदारों की गुलामी किया करते थे.जमींदारों और राजाओं के मुंहलगे जो वैश्व, बनिए होते थे उन चापलूसों की चांदी थी. उन की हर मुमकिन कोशिश यह होती थी कि हवेली पर हर शाम मुजरा होता रहे और हुजूर देररात मुकम्मल नशा कर मुन्नीबाई की आगोश में लुढ़क जाएं. तब कुछ जमींदारी बनिए खरीद लेते.वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले वर्ष जो सालाना बजट पेश किया उसे देख लोगों को हैरानी हुई कि आखिर सरकार चाह क्या रही है. पर जब किसी को कुछ सम झ नहीं आया तो बजट को सम झनेसम झाने की जिम्मेदारी अर्थशास्त्रियों को सौंप कर लोग अपने काम में लग गए.

अर्थशास्त्रियों को भी कुछ खास सम झ नहीं आया तो उन्होंने अपने हिसाब से बजट की व्याख्या और विश्लेषण करने शुरू कर दिए. हालत अंधों के हाथी सरीखी हो गई जिस ने कान पकड़ा उस ने कहा कि हाथी सूपा जैसा होता है, जिन्होंने पैर पकड़ा उन्होंने बताया कि हाथी खंबे जैसा होता है और जिन्होंने पूंछ पकड़ी उन्होंने हाथी को रस्सी जैसा बताया. जो सरकार समर्थक थे, वे गुणगान करते रहे, दूसरे उस की एक के बाद एक खामी निकालते रहे.लेकिन 2 बातें लोगों को बिना किसी के बताए सम झ आ गईं. उन में पहली यह थी कि आर्थिक मंदी और सुस्ती का दौर जाता रहेगा क्योंकि जीडीपी मौजूद वित्त वर्ष में 5.7 फीसदी की दर से बढ़ेगी, जो कि 2012-13 के बाद सब से कम दर वाली है.

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जबकि, हो तो यह सकता है कि यह 3.4 फीसदी तक और घट जाए. दूसरी बात लोगों को यह सम झ आई कि सरकार अब सब से बड़ी बीमा कंपनी एलआईसी भी बेचने की योजना बना रही है. बस, इसी से लोग संपूर्ण बजट संहिता या सार सम झ गए कि किया कुछ नहीं जा रहा, बल्कि एक और हवेली को बेचा जा रहा है. कुछ असली अर्थशास्त्रियों ने भांप लिया कि अतिआशावादी इस बजट में सरकार ने संकेत दे दिए हैं कि वह निजीकरण की राह पर चल पड़ी है और खुद मान भी रही है कि वह सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेच कर चालू वित्त वर्ष में 1497 अरब रुपए कमाएगी.विशेषज्ञ अर्थशास्त्री तो दूर, अर्थशास्त्र का ‘अ’ सम झने वाला भी सम झ गया कि कुछ बेच कर जो पैसा आता है उसे कहना या मानना कहां की अकलमंदी है और जिसे सरकार विनिवेश करार दे रही है उसे सीधेसीधे यह क्यों नहीं कहा जा रहा कि सरकार योजनाबद्ध तरीके से अपनी ही कंपनियों का बहिष्कार निजीकरण का नाम दे कर कर रही है.

यह निजीकरण आज लोगों के भले का नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस  का उद्देश्य सरकारी खर्च के घाटे को पूरा करना है, इन कंपनियों को सुधारना नहीं है.बजट में रोजगार का उल्लेख तक न होना ही इस बात का ऐलान है कि बेरोजगारी और भी बढ़ेगी. इस पर नीम चढ़ी बात यह कि निजीकरण अब तेजी से परवान चढ़ेगा, जो कैसे बेरोजगारी बढ़ाता है इसे सम झने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं बल्कि प्राइवेट कंपनियों के उदाहरण से इसे सहज सम झा जा सकता है कि खरीदार समूह कंपनियां चलाने के लिए नहीं बल्कि उन की अचल संपत्ति को कानूनीतौर पर हथियाने के लिए ले रहे हैं.एलआईसी हो या रेलवे, बैंक हों या फिर हवाईअड्डे, जब ये प्राइवेट कंपनियों के हाथों में पूरी तरह आ जाएंगे तब होगा यही कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफे के लालच में वे उन्हें निचोड़ेंगे और फिर दिवालिया घोषित कर के बाहर निकल जाएंगे. अचल संपत्ति को टुकड़ों में बेच दिया जाएगा.

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वे काम की गुणवत्ता सुधार सकेंगे, इस में संदेह है.और बढ़ेगी बेरोजगारीनिजीकरण से बेरोजगारी कैसी बढ़ेगी, इस से पहले एक नजर बेरोजगारी के ताजा आंकड़ों पर डालें तो जान कर हैरानी होगी कि दिसंबर 2019 में बेरोजगारी की दर बढ़ कर 7.5 फीसदी तक पहुंच चुकी थी. सीएमआईआई (सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी) का नया आंकड़ा यह भी बताता है कि शिक्षित युवाओं की बेरोजगारी दर 60 फीसदी तक बढ़ गई है.सीएमआईआई के अध्ययन में शहरी इलाकों की हालत और बदतर बताई गई है जो 9 फीसदी थी. सरल भाषा में कहें तो देश में 63 फीसदी से भी ज्यादा स्नातक बेरोजगार बैठे हैं. यह अर्थशास्त्र के ज्ञात इतिहास में अब तक की सब से खराब स्थिति है.बजट में रोजगार देने की बात न होने से भी कई गुना ज्यादा चिंता की बात है निजीकरण के जरिए बेरोजगारी को और बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना. जिस देश का युवा रोजगार की तरफ से नाउम्मीद कर दिया जाए उस देश को विश्वगुरु बनने जैसे बेहूदे सपने नहीं देखने चाहिए, इस से ज्यादा क्रूर मजाक कोई और हो नहीं सकता.

युवाओं के जले पर नमक छिड़क कर सरकार क्या साबित करना चाह रही है और देश को किस दिशा में हांक रही है, यह बात अब किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है.इस स्थिति को सरल उदाहरण से सम झें, तो हरियाणा में बिजली और सड़क परिवहन के निजीकरण की सुगबुगाहट पर ही विरोध बेवजह नहीं हो रहा कि जिस से ये सेवाएं महंगी भी होंगी और बेरोजगारी भी बढ़ेगी. मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम साल 1985 तक मुनाफे में चल रहा था, फिर अचानक घाटा शुरू हुआ तो इसे साल 2005 आतेआते पूरी तरह बंद कर दिया गया.हकीकत में राज्य और केंद्र सरकार के ही घाटे अहम वजहें थीं जिन्होंने अनुदान देना बंद कर दिया था. एक वक्त ऐसा भी आया कि मुलाजिमों को पगार के लाले पड़ने लगे. इस पर सरकार ने यह कहते हाथ खड़े कर दिए थे कि अब इस निगम को बंद करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है, लिहाजा, कर्मचारी अनिवार्य सेवानिवृत्ति ले लें.

ऐसा हुआ भी, फाके कर रहे 24 हजार कर्मचारियों ने सेवानिवृत्ति ले ली. धीरेधीरे परिवहन व्यवस्था पूरी तरह एक पूर्व नियोजित साजिश के तहत निजी हाथों में आ गई जिस की मार से आम लोग यानी मुसाफिर अभी तक कराह रहे हैं. ये प्राइवेट बसें तभी चलती हैं जब ठसाठस भर जाती हैं. इन के चलने का कोई तयशुदा टाइमटेबल नहीं है. और ये बसें हर कभी बीच रास्ते में खड़ी कर दी जाती हैं, लेकिन मुसाफिरों के पास खामोश रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता.जहां दुनियाभर में सड़क परिवहन हर साल बेहतर हो रहा है वहीं भारत, जहां सस्ती प्राइवेट बसें हैं, में बेहद घटिया होता जा रहा है.निगम सुचारु रूप से चलता रहता और सरकार वक्त रहते घाटे पर काबू पा लेती तो अब तक लाखों को रोजगार मिलता. अब जब पीएसयू यानी पब्लिक सैक्टर यूनिट्स इसी तरह बंद की जा रही हैं या फिर दूसरे तरीकों से निजी हाथों में सौंपी जा रही हैं तो बेरोजगारी का आंकड़ा अभी और भयावह होना तय है. कोई भी निजी संचालक सरकारी कर्मचारियों की फौज का बो झ उठाने को तैयार नहीं है क्योंकि उस में काम करने का कल्चर नहीं होता है. वह तो पूजापाठी है.

गायब होती गुणवत्तानिजीकरण में सेवाओं और उत्पादों की कोई गुणवत्ता नहीं रह जाती. गुणवत्ता यदि रहती है तो लोगों को उन उत्पाद की भारी कीमत चुकानी पड़ती है. आम जनता की जेब वैसे ही खाली होने लगी है, ऊपर से सरकारी सेवाओं की जगह महंगी प्राइवेट सेवाएं स्थान ले रही हैं. आज गरीबों के पास कोई विकल्प नहीं बचा है.ऐसा बड़े पैमाने पर ब्रिटेन में हो रहा है, जहां अब लोग फिर से रेल और बिजली सहित दूसरी सेवाओं के राष्ट्रीय यानी सरकारीकरण की मांग करने में लगे हैं. वहां की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने निजीकरण को बढ़ावा दिया था जिस से शुरू में तो लोगों को सहूलियतें हुई थीं लेकिन फिर जब प्राइवेट कंपनियों ने अपने रंग दिखाने शुरू किए तो लोग आजिज हो उठे.यह सम झना भी बेहद जरूरी है कि निजीकरण में बढ़ती कीमतों का भार आम लोगों पर ही पड़ता है. और वह रकम जाती धन्ना सेठों की जेबों में है जो शुरू में तो खूब लुभावनी बातें करते हैं, तरहतरह की छूटें और स्कीमें देते हैं और फिर धीरेधीरे दाम बढ़ाने लगते हैं.

भारत में जियो कंपनी इस का बेहतर उदाहरण है जिस ने शुरू में लगभग मुफ्त के भाव डेटा और वौयस कौल दिए लेकिन अब ग्राहकों को 200 फीसदी तक ज्यादा दाम चुकाना पड़ रहा है. ग्राहकों को अब सरकारी कंपनी बीएसएनएल और एमटीएनएल याद आ रही हैं.टैलीकौम कंपनियों से यह सिद्धांत खारिज हो चुका है कि प्रतिस्पर्धा से फायदा ग्राहकों को होता है. जियो के अलावा आइडिया, एयरटेल और वोडाफोन की सेवाएं अब बेहद घटिया स्तर पर हैं. ये वही कंपनियां हैं जो अपने इश्तिहारों में बड़ेबड़े वादे ग्राहकों से करती थीं. उन का मकसद, दरअसल, लुभा कर ठगनाभर होता है. अब वैसे विज्ञापन गायब हो गए हैं.कौल ड्रौप अब रोजमर्राई परेशानी बन चुकी है. एक बड़े अखबार के सर्वे के मुताबिक, 53 फीसदी लोग कौल ड्रौप से त्रस्त हैं और 75 फीसदी यूजर्स कई बार वौयस कौल की खराब क्वालिटी और कनैक्टिविटी के चलते डेटा कौल करने को मजबूर होते हैं. ग्राहकों को प्राइवेट कंपनियों के लुभावने औफर्स अब आफत लगने लगे हैं. लेकिन विकल्पहीनता के चलते उन के पास अब रोने झींकने के सिवा कुछ बचा नहीं है.

आर्थिक वर्णवाद और मानव अधिकारअक्तूबर 2018 में संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया था कि कई समाजों में सार्वजनिक वस्तुओं का व्यापकरूप से निजीकरण मानवाधिकारों को व्यवस्थित रूप से खत्म कर रहा है और गरीबी में रहने वालों को और अधिक हाशिए पर ले जा रहा है.रिपोर्ट कहती है कि निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिस के माध्यम से निजी क्षेत्र तेजी से या पूरी तरह से सरकार द्वारा की गई गतिविधियों के लिए परंपरागत रूप से जिम्मेदार होता है जिस में मानवाधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए कई उपाय किए जाते हैं. निजीकरण की कुछ खूबियां और कई खामियां गिनाते संयुक्त राष्ट्र ने माना था कि : निजीकरण उन मान्यताओं पर आधारित है जोकि मूलभूत रूप से उन लोगों से अलग हैं जो गरिमा और समानता जैसे मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं.

लाभ ही निजीकरण का सर्वोपरि उद्देश्य है. समानता तथा गैरभेदभाव जैसे विचारों को हटा दिया जाता है.      निजीकरण व्यवस्था मानव अधिकारों के लिए शायद ही कभी हितकर रही हो. गरीब या कम आय वाले कई तरह से इस से नकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं.बुनियादी ढांचागत परियोजनाएं निजी करदाताओं के लिए सब से आकर्षक हैं जिन में महत्त्वपूर्ण उपयोगकर्ता शुल्क लिया जा सकता है, निर्माण लागत अपेक्षाकृत कम होती है. लेकिन गरीब इस तरह के शुल्क का भुगतान नहीं कर पाते हैं.इसलिए पानी, बिजली, सड़क, परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा सहित कई दूसरी सेवाओं का उपयोग वे नहीं कर पाते हैं.

देश में निजीकरण अब पांव पसार चुका है. लिहाजा, संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट खतरे की घंटी है. मिसाल तेजस ट्रेनों की लें, तो वे कतई गरीबों के लिए नहीं हैं बल्कि जिन की जेब में किराया देने के लिए भारीभरकम पैसा है उन के लिए हैं. लेकिन पटरियां सरकारी हैं जिन पर सभी का बराबरी का हक है, तो फिर गरीबों से भेदभाव क्यों? दिलचस्प यह है कि ये तेजस रेलें भी अब घाटे में ही चल रही हैं.भेदभाव अब हर कहीं दिखने लगा है. गरीब आदमी प्राइवेट बैंक में खाता नहीं खुलवा सकता क्योंकि उन में न्यूनतम 5 से 10 हजार रुपए की राशि रखनी पड़ती है.निजीकरण के जरिए गरीबों और अमीरों के बीच खुदी खाई और गहरा रही है. आर्थिक आधार पर यह भेदभाव लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है.आरक्षण पर बड़ा हमलामानवाधिकारों के साथ जातिगत आरक्षण खत्म करने की साजिश भी साफसाफ नजर आती है जो सत्ता पर काबिज पार्टी का एजेंडा भी है.

संयुक्त राष्ट्र जिसे गरीब कह रहा है वह, दरअसल, देश में पिछड़ा और दलित वर्ग है.सरकार चूंकि संवैधानिक तौर पर आरक्षण खत्म करने का जोखिम नहीं उठा सकती इसलिए उस ने निजीकरण के जरिए इस की अहमियत खत्म करने का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया है.1 दिसंबर, 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित एक रैली में पूर्व भाजपा दलित सांसद उदित राज ने कहा था कि मोदी सरकार आरक्षण विरोधी है और आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने के लिए वह सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण कर रही है. निजीकरण होने के बाद वहां आरक्षण लागू नहीं किया जा सकेगा.ये वही उदित राज हैं जो साल 2014 में भाजपा के टिकट पर दिल्ली से लोकसभा पहुंचे थे, लेकिन जल्द ही उन्हें सम झ आ गया था कि भगवा खेमे की असल मंशा क्या है.

लिहाजा, उन्होंने सरकारविरोधी बयान देने शुरू किए तो 2019 में उन्हें टिकट नहीं दिया गया.मध्य प्रदेश के एक दलित नेता फूलसिंह बरैया के अनुसार, भाजपा सरकार निजीकरण के जरिए मनुवाद थोपने की साजिश रच रही है और इस कहावत की तर्ज पर रच रही है कि ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’. इसे ले कर पिछड़े व दलित युवाओं में आक्रोश फैल रहा है और वे सीएए व एनआरसी के साथसाथ निजीकरण का भी विरोध कर रहे हैं2017 में बड़बोले भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने जोधपुर के एक कार्यक्रम में कहा था कि हमारी सरकार आरक्षण को पूरी तरह खत्म नहीं करेगी. पर हमारी सरकार आरक्षण को उस स्तर तक पहुंचा देगी जहां उस का होना या नहीं होना बराबर होगा.केंद्र सरकार नौकरशाही में बिना आरक्षण के भरती के लिए लेटरल एंट्री नाम की एक नई प्रणाली का आविष्कार कर चुकी है जिस में आईएएस स्तर के कई सवर्ण अधिकारी जौइंट सैक्रेटी के पद पर नियुक्त किए भी जा चुके हैं. ये सभी अधिकारी सवर्ण या अनारक्षित हैं,

कुछ भी कह लें एक ही बात है. संविदा पर सैकड़ों नियुक्तियां आरक्षण के नियमों के बाहर की जा रही हैं. सुप्रीम कोर्ट में पिछड़ों व दलितों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है, सो सरकारी फैसले लागू रहते हैं.यहां भी हवेली भले ही बिक जाए वाली बात लागू होती है क्योंकि निजीकरण इसी तरह होता रहा तो एक वक्त ऐसा आ जाएगा जब पिछड़े व दलित युवा सरकारी नौकरी के लिए तरस जाएंगे और जो नौकरियां उन्हें मिलेंगी वे साफसफाई और मजदूरी वाली ज्यादा होंगी जिन में चपरासी, स्वीपर जैसे पद ज्यादा होते हैं. इन पदों पर आज भी सवर्ण न के बराबर दिखते हैं और पिछड़े दलित डिग्री लिए होते हैं पर लेबर का काम करते हैं.सरकारी नौकरियों में लगातार कटौती भी हो रही है. साल 2014 में आईएएस की 1,236 नियुक्तियां की गई थीं जबकि 2018 में हैरतअंगेज तरीके से यह संख्या 759 पर सिमट गई.इस से हुआ यह कि आरक्षित पद भी कम हो गए. सेना को छोड़ कर इस वक्त देश में लगभग कोई डेढ़ करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं. इन में लगभग 38 लाख केंद्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों में हैं. नीति आयोग की सलाह पर सरकार अमल करते अगर 42 पीएसयू बेचती या बंद करती है तो नुकसान पिछड़ों व दलितों के आरक्षित वर्ग का ज्यादा होगा.फैसला है भेदभाव भरा संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी रिपोर्ट की पुष्टि एक दिलचस्प वाकेआ भी करती है,

जिस से यह साबित होता है कि धर्म और जाति के मामले में प्राइवेट सैक्टर भी भेदभाव करता है. मैरिट के आधार पर भरती का दम भरने वाले प्राइवेट सैक्टर की पोल प्रोफैसर सुखदेव थोराट और पाल भटवेल ने खोली थी.अखबारों में निजी कंपनियों के जौब संबंधी विज्ञापनों के जवाब में इन दोनों ने एकजैसे बायोडाटा भेजे तो यह जान कर हैरान रह गए कि बुलावा यानी कौल लैटर उन लोगों को ज्यादा भेजे गए जिन के सरनेम सवर्णों के थे. 100 सवर्णों के मुकाबले केवल 60 दलितों और 30 मुसलमानों को बुलाया गया.यानी, आप दलित, पिछड़े, आदिवासी या अवर्ण हैं तो प्राइवेट कंपनियों में भी धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव  झेलने को तैयार रहें. ऐसे में क्या खा कर प्राइवेट कंपनियां मैरिट और क्वालिटी की बात करती हैं. यह बात सम झ से परे है. क्षेत्रवाद भी इन कंपनियों में गहरे तक पसरा हुआ है. अगर किसी बड़ी कंपनी का मुखिया दक्षिण भारत का है तो उस कंपनी में दक्षिणी राज्यों के युवाओं की भरमार साफसाफ दिखती है और अगर मुखिया गुजरात का है तो वह गुजराती युवाओं की भरती को प्राथमिकता देता है.

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एक तीर, कई निशानेनिजीकरण के फायदे वही गिनाते हैं जिन की जेब में पैसा है और उन में से 90 फीसदी सवर्ण हैं जो सरकार की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा से सहमत हैं और चाहते हैं कि अगर उत्पादों व सेवाओं के कुछ ज्यादा दाम दे कर देश हिंदू राष्ट्र बने, तो सौदा घाटे का नहीं. ये लोग, हैरत की बात है कि, कुल आबादी का लगभग 15 फीसदी ही हैं. यही वे ऊंची जाति वाले हिंदू हैं जो सरकार के निजीकरण के फैसले से उत्साहित हैं, क्योंकि वे ही तेजस ट्रेनों का भारीभरकम किराया वहन कर सकते हैं, प्राइवेट बैंकों में खाता खोल सकते हैं.  और वही लोग 200 रुपए प्रतिलिटर का पैट्रोल भी खरीद लें तो उन की जेब पर भार नहीं पड़ता.सरकार हवेली बेच कर मुजरा कराए इस की सब से ज्यादा खुशी इसी वर्ग को है. यह वर्ग यह मंसूबा पाले बैठा है कि अगर ऐसा हो पाया तो सारी इन निजी हाथों में गईं बड़ी सरकारी कंपनियों में नौकरियां उसी की होंगी, प्राइवेट कंपनियों में तो इस वर्ग का दखल और दबदबा है ही. वे भूल रहे हैं कि सरकारी कंपनियां तो टैक्स के पैसे से चल जाती थीं. निजी कंपनियां भारी नुकसान देने के बाद बंद हो जाएंगी और फिर विदेशी कंपनियां खरीदने आएंगी.

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