कोरोना ने भारत में दस्तक दी, संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी, मौतों का आंकड़ा ऊपर जाने लगा, मोबाइल फ़ोन, टीवी और रेडियो पर कोरोना से बचाव के उपाय गूंजने लगे, देश में लॉक डाउन लग गया, लोग घरों में दुबक गए, मंत्री-संतरी डर के मारे जनता जनार्दन की नज़रों से ओझल हो गए, तब सिर्फ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी थीं, जिनको कोलकता में बाजार-बाज़ार जाकर लोगों को एक दूसरे से भौतिक दूरी बनाये रखने का तरीका समझाते देखा गया. वह बाजार में पहुचतीं और लोगों के बीच जमीन से ईंट-पत्थर का कोई टुकड़ा उठाकर अपने इर्द-गिर्द एक गोला खींच लेतीं.

थोड़ी-थोड़ी दूर पर एक के बाद एक गोला खींच कर वह लोगों को समझातीं कि कोरोना वायरस से बचने के लिए इस तरह एक-दूसरे से भौतिक दूरी बनाकर रखना ज़रूरी है. लोग उनकी बात गौर से सुनते और चुपचाप गोलों में आ कर खड़े हो जाते. बिलकुल वैसे जैसे कोई बच्चा अपनी माँ की बात समझ कर वैसा करता है जैसा वो कहती है. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए माँ का रूप ही हैं. पाँव में हवाई चप्पल, तन पर सूती बंगाली साड़ी, श्रृंगार-रहित चेहरे पर गंभीर मुस्कान लिए ममता ने अपना पूरा जीवन बंगाल के लोगों का जीवन और बंगाल की धरती को संवारने में खपा दिया. आज ममता और बंगाल एक दूसरे के पर्याय हैं जिसमे सेंध लगाने की कोशिश हर राजनितिक पार्टी करती है और मुँह की खाती है. फिर चाहे वो कांग्रेस हो, वाम पार्टियां या आज की भाजपा.

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जनाधार वाली नेता, बेहद ईमानदार, गरीबों की मसीहा, अपने लोगों के लिए दयालुता की देवी मगर अपने राजनितिक प्रतिद्वंदियों के लिए तीखे तेवर रखने वाली दबंग व तानाशाह नेता ममता बनर्जी के राजनैतिक सफ़र की कामयाबी पर उनके प्रतिद्वंदियों को रश्क होता है. चुनावी बेला में बंगाल से उनकी माँ छीनने की चाहत में खूब दांव-पेंच चले जाते हैं, खूब आरोप मढ़े जाते हैं, कोई उन्हें हिटलर की उपाधि देता है, कोई उन्हें बंगाल के सियासत की मज़बूरी बताता है, कोई तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप मढ़ता है तो कोई बंगाल की बर्बादी का कारण करार देता है, लेकिन अपने समर्थकों और बंगाल की जनता की नज़र में मोम की तरह नरम दिल रखने वाली ममता दीदी उनके हर गम और तकलीफ में उनके साथ खड़ी रहने वाली आयरन लेडी हैं, देश की निगाहों में सियासत की अबूझ पहेली मानी जाने वाली ममता को आज भी पश्चिम बंगाल में खुली किताब की तरह पढ़ा जाता है.

बचपन में गरीबी से नाता निभाया, सत्रह बरस की उम्र में पिता को खो दिया, घर चलाने के लिए घर-घर जाकर दूध बेचा, मगर हौसला और ईमानदारी कभी नहीं खोई. सियासत में बड़ी-बड़ी पदवियाँ सँभालने के बाद भी माँ, माटी और मानुष की बात करने वाली ममता बनर्जी आज भी कोलकाता के माध्यम वर्गीय इलाके काली घाट के हरीश चटर्जी मार्ग पर अपने उसी पुश्तैनी घर में रहती हैं जहाँ वह बचपन में अपने छह भाइयों और माँ के साथ रहती थीं. कंधे पर एक सूती कपडे का झोला लटकाये जीवन भर अविवाहित रहने का प्रण लेकर बंगाल के जनमानस की सेवा में लगी ममता ने मुख्यमंत्री के तौर पर बंगाल का नक्शा बदल कर रख दिया है. कोलकाता की चमचमाती सड़कें और शहर का सौंदर्य ममता राज में बंगाल के कायाकल्प की कहानी कहता है.

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विरोधी पार्टियां हालांकि ममता को विकास विरोधी करार देती हैं. दरअसल अडानी-अम्बानी जैसे उद्योगपतियों के हाथ बिक चुकी केंद्र की एनडीए सरकार के विपरीत ममता प्रदेश में किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले हमेशा बंगाल की गरीब जनता और किसान-मजदूर का हित-अहित का बारीक परीक्षण करती हैं और अगर कोई योजना गरीब और किसान के हितों को रौंदती नज़र आती है तो वह उस पर तुरंत रोक लगा देती हैं. यही वजह है कि सिंगूर में टाटा नैनो कार परियोजना और नंदी ग्राम में औद्योगिकरण के लिए किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण पर ममता ने आन्दोलन कर किसान समर्थक और उद्योग विरोधी हथियार का फ़ॉर्मूला अपना कर 34 साल से सत्ता में बनी वाम मोर्चा की सरकार को झुका दिया था.

जिस लखटकिया कार के निर्माण का सपना संजोये टाटा ने बंगाल के सिंगूर का चयन किया था उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेट वहां से भागना पड़ा और तो और नंदी ग्राम परियोजना का भी वही हाल हुआ. सिंगूर और नंदीग्राम ने ममता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया जिसका असर 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखा जब ममता को जबरदस्त कामयाबी हासिल हुई. 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता ने मां, माटी और मानुष का नारा दिया और पश्चिम बंगाल में 34 सालों से चली आ रही वामपंथ सरकार को उखाड़ फेंका.

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साल 2016 के चुनाव में पश्चिम बंगाल की राजनीति में दूसरी बार सत्ता में वापसी कर ममता ने इतिहास रच दिया. इस बार उनकी यह जीत पिछली जीत से भी बड़ी थी और वह 294 सीटों वाली विधानसभा में 211 सीटें जीत कर आयी थीं. बूथ स्तर पर प्रबंधन और गांव-गांव तक सरकार की उपलब्धियां बताना और विकास के मुद्दों को प्रमुखता से रखने के साथ ही ममता ने अपने पांच साल के कार्यकाल में कई लोकप्रिय योजनाओं की शुरुआत की. गरीबों को सस्ती दर पर अनाज देने की घोषणा, जिसके तहत 8 करोड़ लोगों को 2 रूपए किलो की दर पर अनाज मिलने लगा. छात्रों को स्कॉलरशिप, साइकिल, स्कूल ड्रेस और जूते बांटने के अलावा बेरोजगार लोगों को आसान किश्तों पर क़र्ज़ भी बांटे गए. ममता सरकार की ‘कल्याण श्री’ योजना को तो यूनिसेफ से भी खूब सराहना मिली.

इन सब की बदौलत ही ममता ने 2016 के रण में कांग्रेस और वाममोर्चा के साथ हो जाने के बाद भी अकेले दम पर जीत का परचम फहराया. हालाँकि विपक्षियों ने ममता सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी मढ़े. 2013 में 2500 करोड़ का सारदा घोटाला और मार्च 2016 में नारद स्टिंग ऑपरेशन जैसे भ्रष्टाचार के विषयों को कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों ने अपना मुख्य चुनावी मुद्दा भी बनाया. विपक्ष ने जनता को यह समझाने की कोशिश भी की कि किस तरह ममता सरकार के समय सारदा घोटाले में निवेशकों के पैसे डूबे जबकि नारद स्टिंग ऑपरेशन में तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेताओं को घूस लेते स्टिंग भी प्रसारित हुए. लेकिन विपक्ष के तमाम प्रयासों  के बाद भी ममता के दीवाने वोटरों का प्यार उनके प्रति अटूट बना रहा.

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इतिहास को टटोल कर देखें तो ममता ने कभी अपने मुद्दों से समझौता नहीं किया और जब भी बंगाल के गरीब और किसानो के हित पर हमला हुआ उन्होंने तुरंत गठबंधन तोड़ लिया. फिर चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकार हो या फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार. इसमें दो राय नहीं कि ममता आंदोलन से निकलीं जमीनी स्तर की जुझारू नेता हैं, लेकिन गठबंधन की राजनीति में उनका जोर नहीं चला है. एकला चलो की उनकी नीति ही ज़्यादा प्रभावी रही है. तृणमूल कांग्रेस और ममता की राजनीति को करीब से जानने वाले कहते हैं कि उनका रवैया ही ऐसा रहा है कि वह खुद को सेंटर ऑफ पॉलिटिकल अट्रैक्शन में रखकर चलना चाहती हैं. यानी गठबंधन उस शर्त पर, जिसमें तृणमूल और बंगाल की जनता के हित सर्वोपरि हों.

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव ने एक बार फिर दस्तक दी है. बिहार में अपनी जीत को लेकर भाजपा काफी गदगद है और अब अमित शाह पश्चिम बंगाल में ममता के अखंड राज में सेंध लगाने के रास्ते तलाश रहे हैं. ममता के गढ़ में भाजपा अपना परचम लहराने की तैयारी में काफी समय से जुटी हुई है. पिछले लोकसभा चुनाव में वह कुछ हद तक बंगाल में घुसपैठ करने में कामयाब भी हो गयी है, लिहाज़ा विधानसभा को लेकर भाजपा नेताओं के तेवर काफी आक्रामक दिख रहे हैं, खासतौर पर अमित शाह के. उधर बिहार में पांच सीटें जीतने के बाद ओवैसी भी बंगाल में आ जुटे हैं और मुसलमानो को आकर्षित कर रहे हैं. ओवैसी बंगाल में अपनी ज़मीन भले ना तलाश पाएं मगर भाजपा को फायदा और दीदी को नुक्सान ज़रूर पहुचायेंगे. यही वजहें हैं कि इस बार दीदी अपने को काफी घिरा हुआ महसूस कर रही हैं

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बिहार ने बढ़ायी दीदी की दिक्कत   

बिहार चुनाव 2020 का जनादेश येन-केन-प्रकारेण एनडीए के पक्ष में आया है. इस बार चुनाव में एनडीए ने जहां 125 सीटों पर जीत हासिल की है, वहीं महागठबंधन ने 110 सीटों पर कब्जा जमाया है. बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद अब विधानसभा चुनाव में भी मोदी मैजिक देखने को मिला है, जो आगामी बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए बूस्टर का काम कर सकता है. बिहार में भाजपा को सीटों के मामले में मिली बढ़त ने एक बार फिर यह तय कर दिया है कि भले कोरोना काल में मोदी सरकार ने बिहारी प्रवासियों को खून के आंसू रुलाये, पैरों में छाले पड़वाए, भूखों मरने के लिए मजबूर कर दिया, घोर बेरोज़गारी का तोहफा दिया, लेकिन मोदी की डुगडुगी पर थिरकने के लिए जनता अभी भी तैयार है. बंगाल चुनाव के ठीक पहले बिहार में एनडीए को जनादेश मिलना और भाजपा को सीटों के मामले में मिली उछाल बंगाल फतेह के मिशन पर जुटे भाजपा कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद कर रही है. बिहार की जीत का असर बंगाल के चुनाव में भी देखने को मिलेगा, इसमें कोई दोराय नहीं है.

ममता बनर्जी के गढ़ बंगाल में भाजपा अपना परचम लहराने की तैयारी में काफी समय से जुटी हुई है. भाजपा के चाणक्य अमित शाह इस दौरान बंगाल के कई दौरे कर चुके हैं. हर बार उनका रवैया काफी आक्रामक दिखाई दे रहा है. हर बार वह ममता सरकार पर पहले से ज़्यादा हमलावर हो रहे हैं. उन्होंने दावा किया है कि विधानसभा चुनाव में भाजपा दो तिहाई यानी 200 से ज्यादा सीटें जीतेगी. शाह के इस बयान ने पश्चिम बंगाल की राजनीति के ठहरे पानी में हलचल तेज कर दी है. शाह ने अपने दौरे के दौरान एक रैली भी कि जिसमें उन्होंने बंगाल की जमीन से तृणमूल कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की बात कही. बिहार जीतने के बाद भाजपा के लिए बंगाल आन की बात बन गयी है. भाजपा के लिए बंगाल जीतना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि उसके प्रमुख विचारकों में से एक श्यामाप्रसाद मुखर्जी यहीं के थे और उनका नाम लेकर भाजपा बीते कुछ वर्षों से बंगाल में अपनी जमीन तैयार करने की पुरजोर कोशिश कर रही है. इस अरसे में ममता बनर्जी के खिलाफ भाजपा ने आक्रामक राजनीति इख्तियार कर रखी है और वामदलों एवं कांग्रेस सबको आउट करके ममता बनर्जी के सामने सबसे बड़े चैलेंजर के तौर पर खुद को पेश कर रही है. कहना गलत ना होगा कि भाजपा ने जनता को ममता बनर्जी का विकल्प दे दिया है. भाजपा के आक्रामक रुख से ममता बनर्जी परेशानियों से घिर गई हैं और भाजपा की तैयारियों के बीच बंगाल का चुनाव इस बार बहुत दिलचस्प होने वाला है.

गौरतलब है कि उत्तर बंगाल तथा जंगलमहल में पिछले लोकसभा चुनाव तथा पंचायत चुनाव में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया था  और तृणमूल कांग्रेस से लगभग सभी सीटें छीन ली थी. इन क्षेत्रों में भाजपा की मजबूती तृणमूल कांग्रेस को बेचैन कर रही है. अमित शाह ने बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों का दौरा कर चुनाव अभियान की शुरुआत पहले ही कर दी थी. पश्चिम मेदिनीपुर, झाड़ग्राम, पुरुलिया तथा बांकुड़ा के कुछ अंश को जंगलमहल कहा जाता है. इस पिछड़े इलाके में पिछले कुछ वर्षों में भाजपा मजबूती से उभर कर सामने आयी है. यहां अपने दौरे के दौरान अमित शाह ने पुआबागान जाकर बाकायदा स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की मूर्ति पर माल्यार्पण किया और उसके बाद उन्होंने स्थानीय आदिवासी परिवार के घर जाकर पत्ते पर भोजन भी किया. शाह बंगालियों से सोनार बांग्ला बनाने की बात भी कह आये हैं.

बंगालियों की भावनाओं को भुनाने में मोदी भी पीछे नहीं रहे. नवरात्र में जबकि पूरे देश में कोरोना के कारण दुर्गा पूजा पंडालों पर बैन लगा हुआ था, मोदी ने बंगाल पहुंच कर एक भव्य दुर्गा पूजा पंडाल का उदघाटन किया और पूजा में शरीक हुए.

इसी के साथ भाजपा ने ममता की केबिनेट में भी सेंध लगा दी है. ममता केबिनेट के चार मंत्री बगावत का सुर अलाप रहे हैं तो भाजपा का कहना है कि सरकार में मौजूद दस मंत्री उनके संपर्क में हैं और समय आने पर भाजपा में शामिल हो सकते हैं. अपने मंत्रियों और कुछ ख़ास अधिकारीयों की बगावत ने ममता की परेशानी में इजाफा किया है.

कांग्रेस ने भी बढ़ाई मुसीबत

बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस पश्चिम बंगाल में वामदलों के साथ गठबंधन को अंतिम रूप देने में जुट गई है. पश्चिम बंगाल में यह दूसरी बार होगा, जब दोनों पार्टियां गठबंधन में विधानसभा चुनाव लड़ेंगी. हालांकि, दोनों के बीच अभी सीट का बंटवारा नहीं हुआ है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस अपना वजूद बचाए रखने की चुनौती से जूझ रही है.

कांग्रेस जानती है कि अगर उसने अकेले चुनाव लड़ने का दम भरा तो भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. वामदलों के लिए भी सत्ता तक पहुंचने के लिए सेकुलर गठबंधन की जरूरत है क्योंकि, लेफ्ट के पास भी बंगाल में खड़े होने के लिए जमीन नहीं है. कांग्रेस लेफ्ट गठबंधन चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की मुश्किल बढ़ा सकता है क्योंकि, पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल और भाजपा का मुकाबला बेहद नजदीक था.
तृणमूल को 43 फीसदी मत प्रतिशत के साथ 22 सीटें मिली थी, जबकि भाजपा को 40 प्रतिशत वोट के साथ 18 सीट मिली. जबकि दो सीटें कांग्रेस के हिस्से में आई थीं. पार्टी के अंदर एक तबके का मानना था कि कांग्रेस को तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहिए. पर यह संभावना उसी वक़्त खत्म हो गई, जब पार्टी ने अधीर रंजन चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी. चौधरी ममता बनर्जी विरोधी माने जाते हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस लेफ्ट गठबंधन में पार्टी को 44 सीट मिली थी. जबकि अधिक सीट पर चुनाव लड़ने के बावजूद सीपीएम को 26 सीट मिली. यही वजह है कि लेफ्ट के अंदर कांग्रेस से समझौते का विरोध हुआ और दोनों पार्टियों ने लोकसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा और दोनों को नुकसान हुआ. इसलिए अबकी साथ चुनाव लड़ने से दोनों को फायदा होगा. ये दोनों पार्टियां ममता का वोट प्रतिशत कम करेंगी और भाजपा को फायदा पहुचायेंगी.

बंगाल में ओवैसी और ‘मुस्लिम फैक्टर’

बिहार में ओवैसी की पार्टी की जीत का आंकड़ा भले ही बड़ा नहीं है, लेकिन सियासत में संदेश बहुत अहम होते हैं. सिर्फ़ पांच सीटें जीतने वाले ओवैसी ने जिस तरह से बंगाल में पूरी ताक़त के साथ चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है, उसने मुस्लिम वोटर्स को तीसरा विकल्प दे दिया है. अगर कुछ फीसदी मुस्लिम वोटर्स तीसरे विकल्प को चुनते हैं, तो ओवैसी का खेल बने ना बने, लेकिन तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस दोनों का खेल काफ़ी हद तक बिगड़ सकता है.

पश्चिम बंगाल में ओवैसी का चुनावी ऐलान सीधे तौर पर ममता सरकार के वोटबैंक को चुनौती है. बंगाल में मुस्लिम वोटर्स का गणित सरकार बनाने में बहुत अहम भूमिका निभाता है.

यहाँ मुस्लिमों के निर्णायक असर वाली लोकसभा सीटों की संख्या 20 है. मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तरी दिनादपुर में मुस्लिमों की आबादी 50% से ज़्यादा है. 14 लोकसभा सीटों पर मुस्लिमों की आबादी 30% से ज़्यादा है. असदुद्दीन ओवैसी ने सीएए-एनआरसी को लेकर हमेशा खुलकर विरोध किया है. ओवैसी सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर बंगाल में मुस्लिमों के ध्रुवीकरण की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. वो बांग्लादेशियों की घुसपैठ के मुद्दे पर अक्सर नरम रुख़ अपनाते हैं.वो तृणमूल और कांग्रेस समेत सभी दलों पर मुस्लिम वोटबैंक के शोषण का आरोप लगाते रहे हैं. ओवैसी मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर भाजपा के ख़िलाफ़ सबसे मुखर आवाज़ बनने की कोशिश करते हैं. इसलिए, बंगाल में मुस्लिमों के बीच ओवैसी फैक्टर चर्चा का विषय है.

यूं तो बिहार में भी मुस्लिम वोटबैंक पर महागठबंधन ने दांव लगाया था, लेकिन पश्चिम बंगाल में ये वोटबैंक काफ़ी बड़ा है. इतना बड़ा कि किसी भी पार्टी की संपूर्ण जीत-हार में बहुत अहम भूमिका निभाता है. इसलिए जब से ओवैसी ने बिहार के बाद बंगाल के मुसलमानों पर चुनावी दांव लगाने का ऐलान किया है, तब से तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और लेफ्ट समेत सभी दलों में भारी बेचैनी है.

पश्चिम बंगाल में शून्य से शुरुआत करने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का कोई व्यक्तिगत जनाधार नहीं है, लेकिन बंगाल के चुनावी खेल में उनका हर कदम तृणमूल, कांग्रेस और लेफ्ट के राजनीतिक हालात को बदलने का काम करेगा. भाजपा इस बदलाव को साफतौर पर देख रही है. ओवैसी के ऐलान ने पश्चिम बंगाल की सियासी जंग को काफ़ी दिलचस्प मोड़ दे दिया है. तृणमूल, कांग्रेस और भाजपा के लिहाज़ से अब तक मुक़ाबला त्रिकोणीय रहता था, लेकिन ओवैसी की एंट्री से ये लड़ाई चार कोण वाली बन गई है. इसमें भी ख़ास बात ये है कि जिन सीटों पर तृणमूल कांग्रेस या कांग्रेस की जीत लगभग एकतरफ़ा होती थी, वहां अब उनका रास्ता रोकने के लिए ओवैसी की पार्टी आ गई है.

बंगाल में चुनाव लड़ने के ऐलान के साथ ही ओवैसी और उनकी पार्टी के लोग सक्रिय हो गए हैं. एआईएमआईएम की राजनीतिक ज़मीन मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र हैं. ऐसे में तृणमूल और कांग्रेस के अलावा अब ओवैसी की पार्टी की नज़रें भीं उन 10 ज़िलों पर टिक गई है, जहां मुस्लिम वोटर्स हर चुनाव का नतीजा तय करते हैं.

बिहार के चुनाव नतीजों ने मुस्लिम वोटर्स के बीच ओवैसी की लोकप्रियता, उनकी सीटें और वोटबैंक को बढ़ाने का काम किया है. बंगाल में यही तस्वीर दोहराई गई, तो वहां मुस्लिम वोटर्स के बंटने का ख़तरा है और इस हालात में सबसे ज़्यादा नुकसान दीदी की पार्टी को होगा.

भाजपा को मुस्लिम बहुल सीटों पर 2011 विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी. मुस्लिम बहुल इलाकों में उसे सिर्फ़ 4.6 प्रतिशत वोट ही मिले थे, लेकिन 2016 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मुस्लिम बहुल इलाकों में एक सीट जीती और उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 9.6 प्रतिशत हो गया, यानी मुस्लिमों के बीच भाजपा की छोटी बढ़त और ओवैसी की एंट्री दोनों ही ममता और कांग्रेस को मुस्लिम वोटबैंक से दूर करेंगे.

ओवैसी और उनकी पार्टी अच्छी तरह जानते हैं कि पश्चिम बंगाल के चुनाव में उनका बहुत कुछ हासिल करना बहुत मुश्क़िल है, लेकिन तृणमूल, कांग्रेस और लेफ्ट के लिए मुश्क़िलें बढ़ाना बहुत आसान. ओवैसी का निशाना भले ही मुस्लिम फैक्टर है, लेकिन उससे घायल तो दीदी ही होंगी. अब देखने वाली बात ये होगी कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ममता बनर्जी कांग्रेस व अन्य दलों को साथ लेकर मैदान में उतरेंगी या फिर पुरानी शैली में ही मुकाबला करेंगी. फिलहाल 2021 का चुनाव जीतने के लिए ममता वह सब करने को तैयार नजर आ रही हैं जिनसे अक्सर उनको परहेज रहा है. वह कांग्रेस पर भी डोरे डाल रही हैं और प्रशांत किशोर की मदद से लेफ्ट नेताओं के पास भी सन्देश भिजवा रही हैं ताकि भाजपा को किसी तरह बंगाल से दूर रखने में कामयाब हो सकें. लेकिन कई बार सनक में फैसले लेने की आदत की वजह और ममता के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए कांग्रेस और वाम दल तृणमूल अध्यक्ष की बात को कितनी गंभीरता से लेते हैं ये आने वाले वक्त में पता चलेगा.

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