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बच्चों के मुख से

मेरा 5 साल का बेटा बहुत बातूनी है. एक दिन पढ़ाई के दौरान जब मैं उसे सूरज और चंद्रमा के बारे में बता रही थी तो उस ने पूछा, ‘‘सूरज जब उगता है तो चंद्रमा कहां चला जाता है?’’
मैं ने कहा, ‘‘पहाड़ों के पीछे छिप जाता है. सूरज की रोशनी इतनी तेज होती है कि चंद्रमा दिखाई नहीं देता.’’
उस ने कहा, ‘‘सूरज के पास कोई गया है?’’
मैं ने कहा, ‘‘नहीं.’’
‘‘और चंद्रमा के पास?’’
मैं ने कहा, ‘‘हां. चंद्रमा पर तो बहुत लोग जा चुके हैं.’’
तो वह कहने लगा, ‘‘आप भी गई हैं?’’
मैं ने कहा, ‘‘नहीं.’’
‘‘हां, जाना भी मत, नहीं तो चंदा मामा टूट जाएंगे, आप इतनी मोटी जो हो.’’ उस की बात सुन कर मैं मुसकराए बिना न रह सकी.

रीता तिवारी, भिलाई (छग.)

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मेरा पोता आदित्य 5 साल का है. वह तेज दिमाग है और बोलने में भी तेज है. घर में कुछ मेहमान आए हुए थे. गपशप चल रही थी. इतने में वह आया. तभी एक मेहमान ने उस से दादा का नाम पूछा तो उस ने झट से सुरेंद्र प्रसाद गुप्ता कह दिया. फिर मेहमान ने उस से उस के पापा का नाम पूछा तो उस ने कहा, ‘पतिदेव अमित कुमार गुप्ता हैं.’ पतिदेव शब्द सुन कर हम लोग हंसे बगैर नहीं रह सके. असल में पतिदेव कह कर उस की मम्मी को लोग चिढ़ाया करते थे, जैसे- देखो, तुम्हारे पतिदेव आ गए हैं, पतिदेव को खाना दो, आदि.

सुरेंद्र प्रसाद गुप्ता, पटना (बिहार)

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इलैक्शन के दिनों में घर में काफी लोग आते रहते थे. कोई कहता कि भारतीय जनता पार्टी अच्छी है, कोई कहता कि कांगे्रस अच्छी है तो कोई आम आदमी पार्टी को अच्छा बताता. एक दिन ऐसी ही बात हो रही थी, पास में 3 वर्षीय अंकित खड़ा था, तपाक से बोला, ‘‘मुझे तो बर्थडे पार्टी सब से अच्छी लगती है.’’ उस की बात सुन कर सभी खूब हंसे.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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मेरा 6 साल का पोता पेड़पौधों से बहुत प्यार करता है. एक दिन उस की छोटी बहन पिहू ने घर में रखे गमलों में से 3-4 पत्ते तोड़ कर फेंक दिए तो मेरे पोते अमिश ने जोर से डांट लगाते हुए कहा, ‘‘पिहू, तुम्हें पता है पेड़ों को नुकसान पहुंचाने से पर्यावरण को कितना नुकसान होता है.’’ मेरे छोटे से बच्चे ने इतनी बड़ी व गंभीर बात समझ ली लेकिन बड़े लोग ये बात कब समझेंगे?

संध्या श्रीवास्तव, झांसी (उ.प्र.)

हमारी बेडि़यां

खरगोन शहर के बिस्टान रोड स्थित नाका क्षेत्र में हनुमान जयंती के अवसर पर रात 9 बजे से 2 बजे तक अत्यधिक तेज ध्वनि में भजनों का कार्यक्रम आयोजित किया गया. इस में विडंबना देखिए कि 10 से 12 लोग भजन मंडली के और 10 से 12 लोगों का ही श्रोता समूह था, जिन्होंने रात्रि 2 बजे तक महल्ले के तमाम लोगों की नींद व शांति भंग कर दी थी. चूंकि धर्म का मामला है, इसलिए किसी में विरोध करने की हिम्मत ही नहीं. धर्म के इन कथित ठेकेदारों को किस धर्म ने, किस कानून ने इस तरह की छूट दे रखी है, यह बात समझ से परे है. लोगों की शांति भंग करने का हक जबरिया हासिल करने वाले ये धर्म के ठेकेदार किसी भी तरह से जबरिया हफ्ता वसूल करने वाले किसी गुंडे, दादा या मवाली से कम नहीं हैं.

अनिल कुमार गुप्ता, खरगोन (म.प्र.)

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मेरे ननिहाल में एक युवक ने भोजन के समय मौनव्रत का नियम बना रखा था. यह क्रम काफी दिनों से चल रहा था. एक दिन वह भोजन पर बैठा. खाना शुरू हुआ. माताजी पंखा झल रही थीं. युवक को नीबू खाने की चाह जगी. भोजन के समय मौनव्रत भंग तो कर नहीं सकता था इसलिए इशारे से वह अपनी इच्छा व्यक्त करने लगा. न तो युवक सही इशारा कर पा रहा था न मां उस के भाव को समझ पा रही थीं. मां कभी टमाटर, कभी लड्डू, कभी अन्य वस्तुएं लाती गईं. युवक एकएक कर फेंकता गया. इसी क्रम में अनावश्यक वस्तुओं का ढेर लग गया. आखिरकार, युवक गुस्से में आ कर बोल पड़ा. सोचने वाली बात है, मौनव्रत के कारण उसे  ‘क्रोध तो खूब पीना पड़ा पर पेट नहीं भरा.’

विंग कमांडर एस ठाकुर, दरभंगा (बिहार)

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कहने को तो हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि हमारे देश में अंधविश्वास व चमत्कार की जड़ें अभी भी सदियों पुरानी हैं. इसी तरह की एक घटना हमारी रिश्तेदारी में घटी. हुआ यह कि हमारे रिश्तेदार के लड़के को ब्राह्मणों ने मंगली बता दिया जिस के लिए मंगली लड़की की खोज शुरू हुई. बहुत कठिनाई से एक मंगली लड़की मिली. शादी हुई और अब आलम यह है कि लड़की घर वालों की नाक में दम किए हुए है. उस लड़की का स्वभाव बहुत ही रूखा है. वह किसी का कहना नहीं मानती और अकसर मायके चली जाती है. मैं ने अपने रिश्तेदार से कहा था कि आप किसी जानकार की लड़की से शादी कीजिएगा, अच्छे खानदान की हो, सुसंस्कृत हो. मगर वे ‘मंगलामंगली’ के चक्कर में अनजान परिवार में लड़के की शादी कर के अब पछता रहे हैं. सारा परिवार चिंतित है कि अब आगे क्या होगा?            

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

यह भी खूब रही

समाचारपत्र में छपे वैवाहिक विज्ञापनों को देख कर मेरी चाचीजी ने अपनी बेटी के विवाह के बारे में बात करने को फोन नंबर मिलाया. दूसरी ओर से लड़के की मां बोल रही थीं. कुछ देर बेटे की शिक्षा आदि के बारे में जानकारी ली. एक ही शहर में होने के कारण बेटे की मां ने कहा, ‘‘आप लोग हमारे घर आ जाइए.’’ और वे पता बताने लगीं. इस पर मेरी चाचीजी बोलीं, ‘‘वहां पर हमारी बहन भी रहती है.’’
वे नाम पूछने लगीं. नाम सुन कर फोन पर वे हंसीं और बोल उठीं, ‘‘अरे, छोटी तू है, तभी तेरी आवाज जानीपहचानी लग रही थी.’’ अब तक चाचीजी भी कहने लगीं, ‘‘अरे दीदी, आप हैं. वाह, यह भी खूब रही.’’
स्वाति पटेल, कानपुर (उ.प्र.)

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हम तीनों बहनें, भैया के साथ इंडियन हिस्ट्री कांगे्रस का सैशन अटैंड करने मैसूर जा रहे थे. भैया, जोकि बहुत मजाकिया हैं, जब भी कोई विशेष चीज नजर आती, हम सब से कहते, ‘देखोदेखो.’
सफर मजे से कट रहा था. तभी भैया अचानक जोर से चिल्लाए, ‘‘देखोदेखो ट्रेन की पूंछ.’’
हम सब खिड़की की तरफ लपके. हमें देख कर भैया हंसने लगे. तभी हम ने देखा कि हमारे पूरे कंपार्टमैंट के यात्री खिड़कियों से बाहर झांक रहे थे. उन्हें देख हम हंसतेहंसते लोटपोट हो गए. सभी यात्रियों के चेहरे देखने लायक थे.
हुआ यों कि किसी मोड़ पर ट्रेन के पीछे का हिस्सा दिख रहा था, उसे ही भैया ने पूंछ कहा था.

नेहा प्रधान, कोटा (राज.)

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मेरे पति डाक्टर हैं. एक दिन हम लोग बड़ी दीदी को देखने उन के घर गए. दीदी इन से बोलीं कि उन की स्टिक एक जगह से टूट गई है, उसे ठीक करा दें. इन्होंने देखा और बोले कि यह तो अभी ठीक हो जाएगी. बस, आप जरा नौकर को भेज कर एरलडाइट की ट्यूब मंगा दें. मैं अभी जोड़ दूंगा. उन्होंने नौकर हरिराम को बुला कर कहा कि दौड़ कर जाओ और यह ट्यूब ले आओ. नाम थोड़ा कठिन था तो इन्होंने एक परचे पर लिख कर दे दिया. एक घंटा तक हरीराम नहीं आया. देर हो जाने के कारण हम निकलने को ही थे कि देखा, हरिराम सिर झुकाए खड़ा है. दीदी ने डांटा कि इतनी देर कहां लगा दी और ट्यूब कहां है?
हरिराम रोंआसा हो कर बोला, ‘‘सारी दवा की दुकानें देख डालीं, यह कहीं न मिली.
जैसे ही उस ने ‘दवा की दुकान’ कहा, हम सारी बात समझ गए. फिर तो हंसी का जो दौर शुरू हुआ कि देर तक सब हंसते रहे. उसे जाना था हार्डवेयर की दुकान पर, पहुंच गया कैमिस्ट के पास.

सुश्रुता श्रीवास्तव, भोपाल (म.प्र.)

जिस गली जाना नहीं

अवाक खड़ा था सोम. भौचक्का सा. सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो जाएगा उस के साथ. जीवन कितना विचित्र है. सारी उम्र बीत जाती है कुछकुछ सोचते और जीवन के अंत में पता चलता है कि जो सोचा वह तो कहीं था ही नहीं. उसे लग रहा था जिसे जहां छोड़ कर गया था वह वहीं पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा होगा. वही सब होगा जैसा तब था जब उस ने यह शहर छोड़ा था.

‘‘कैसे हो सोम, कब आए अमेरिका से, कुछ दिन रहोगे न, अकेले ही आए हो या परिवार भी साथ है?’’

अजय का ठंडा सा व्यवहार उसे कचोट गया था. उस ने तो सोचा था बरसों पुराना मित्र लपक कर गले मिलेगा और उसे छोड़ेगा ही नहीं. रो देगा, उस से पूछेगा वह इतने समय कहां रहा, उसे एक भी पत्र नहीं लिखा, उस के किसी भी फोन का उत्तर नहीं दिया. उस ने उस के लिए कितनाकुछ भेजा था, हर दीवाली, होली पर उपहार और महकदार गुलाल. उस के हर जन्मदिन पर खूबसूरत कार्ड और नए वर्ष पर उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक सुखसंदेश. यह सत्य है कि सोम ने कभी उत्तर नहीं दिया क्योंकि कभी समय ही नहीं मिला. मन में यह विश्वास भी था कि जब वापस लौटना ही नहीं है तो क्यों समय भी खराब किया जाए. 10 साल का लंबा अंतराल बीत गया था और आज अचानक वह प्यार की चाह में उसी अजय के सामने खड़ा है जिस के प्यार और स्नेह को सदा उसी ने अनदेखा किया और नकारा.

‘‘आओ न, बैठो,’’ सामने लगे सोफों की तरफ इशारा किया अजय ने, ‘‘त्योहारों के दिन चल रहे हैं न. आजकल हमारा ‘सीजन’ है. दीवाली पर हर कोई अपना घर सजाता है न यथाशक्ति. नए परदे, नया बैडकवर…और नहीं तो नया तौलिया ही सही. बिरजू, साहब के लिए कुछ लाना, ठंडागर्म. क्या लोगे, सोम?’’

‘‘नहीं, मैं बाहर का कुछ भी नहीं लूंगा,’’ सोम ने अजय की लदीफंदी दुकान में नजर दौड़ाई. 10 साल पहले छोटी सी दुकान थी. इसी जगह जब दोनों पढ़ कर निकले थे वह बाहर जाने के लिए हाथपैर मारने लगा और अजय पिता की छोटी सी दुकान को ही बड़ा करने का सपना देखने लगा. बचपन का साथ था, साथसाथ पलेबढ़े थे. स्कूलकालेज में सब साथसाथ किया था. शरारतें, प्रतियोगिताएं, कुश्ती करते हुए मिट्टी में साथसाथ लोटे थे और आज वही मिट्टी उसे बहुत सता रही है जब से अपने देश की मिट्टी पर पैर रखा है. जहां देखता है मिट्टी ही मिट्टी महसूस होती है. कितनी धूल है न यहां.

‘‘तो फिर घर आओ न, सोम. बाहर तो बाहर का ही मिलेगा.’’

अजय अतिव्यस्त था. व्यस्तता का समय तो है ही. दीवाली के दिन ही कितने रह गए हैं. दुकान ग्राहकों से घिरी है. वह उस से बात कर पा रहा है, यही गनीमत है वरना वह स्वयं तो उस से कभी बात तक नहीं कर पाया. 10 साल में कभी बात करने में पहल नहीं की. डौलर का भाव बढ़ता गया था और रुपए का घटता मूल्य उस की मानसिकता को इतना दीनहीन बना गया था मानो आज ही कमा लो सब संसार. कल का क्या पता, आए न आए. मानो आज न कमाया तो समूल जीवन ही रसातल में चला जाएगा. दिनरात का काम उसे कहां से कहां ले आया, आज समझ में आ रहा है. काम का बहाना ऐसा, मानो एक वही है जो संसार में कमा रहा है, बाकी सब निठल्ले हैं जो मात्र जीवन व्यर्थ करने आए हैं. अपनी सोच कितनी बेबुनियाद लग रही है उसे. कैसी पहेली है न हमारा जीवन. जिसे सत्य मान कर उसी पर विश्वास और भरोसा करते रहते हैं वही एक दिन संपूर्ण मिथ्या प्रतीत होता है.

अजय का ध्यान उस से जैसे ही हटा वह चुपचाप दुकान से बाहर चला आया. हफ्ते बाद ही तो दीवाली है. सोम ने सोचा, उस दिन उस के घर जा कर सब से पहले बधाई देगा. क्या तोहफा देगा अजय को. कैसा उपहार जिस में धन न झलके, जिस में ‘भाव’ न हो ‘भाव’ हो. जिस में मूल्य न हो, वह अमूल्य हो.

विचित्र सी मनोस्थिति हो गई है सोम की. एक खालीपन सा भर गया है मन में. ऐसा महसूस हो रहा है जमीन से कट गया है. लावारिस कपास के फूल जैसा जो पूरी तरह हवा के बहाव पर ही निर्भर है, जहां चाहे उसे ले जाए. मां और पिताजी भीपरेशान हैं उस की चुप्पी पर. बारबार उस से पूछ रहे हैं उस की परेशानी आखिर है क्या? क्या बताए वह? कैसे कहे कि खाली हाथ लौट आया है जो कमाया उसे वहीं छोड़ आ गया है अपनी जमीन पर, मात्र इस उम्मीद में कि वह तो उसे अपना ही लेगी.

विदेशी लड़की से शादी कर के वहीं का हो गया था. सोचा था अब पीछे देखने की आखिर जरूरत ही क्या है? जिस गली अब जाना नहीं उधर देखना भी क्यों? उसे याद है एक बार उस की एक चाची ने मीठा सा उलाहना दिया था, ‘मिलते ही नहीं हो, सोम. कभी आते हो तो मिला तो करो.’

‘क्या जरूरत है मिलने की, जब मुझे यहां रहना ही नहीं,’ फोन पर बात कर रहा था इसलिए चाची का चेहरा नहीं देख पाया था. चाची का स्वर सहसा मौन हो गया था उस के उत्तर पर. तब नहीं सोचा था लेकिन आज सोचता है कितना आघात लगा होगा तब चाची को. कुछ पल मौन रहा था उधर, फिर स्वर उभरा था, ‘तुम्हें तो जीवन का फलसफा बड़ी जल्दी समझ में आ गया मेरे बच्चे. हम तो अभी तक मोहममता में फंसे हैं. धागे तोड़ पाना सीख ही नहीं पाए. सदा सुखी रहो, बेटा.’

चाची का रुंधा स्वर बहुत याद आता है उसे. उस के बाद चाची से मिला ही कब. उन की मृत्यु का समाचार मिला था. चाचा से अफसोस के दो बोल बोल कर साथ कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. इतना तेज भाग रहा था कि रुक कर पीछे देखना भी गवारा नहीं था. मोहममता को नकार रहा था और आज उसी मोह को तरस रहा है. मोहममता जी का जंजाल है मगर एक सीमा तक उस की जरूरत भी तो है. मोह न होता तो उस की चाची उसे सदा खुश रहने का आशीष कभी न देती. उस के उस व्यवहार पर भी इतना मीठा न बोलती. मोह न हो तो मां अपनी संतान के लिए रातभर कभी न जागे और अगर मोह न होता तो आज वह भी अपनी संतान को याद करकर के अवसाद में न जाता. क्या नहीं किया था सोम ने अपने बेटे के लिए.

विदेशी संस्कार नहीं थे, इसलिए कह सकता है अपना खून पिलापिला कर जिसे पाला वही तलाक होते ही मां की उंगली पकड़ चला गया. मुड़ कर देखा भी नहीं निर्मोही ने. उसे जैसे पहचानता ही नहीं था. सहसा उस पल अपना ही चेहरा शीशे में नजर आया था.

‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों?’

उस के हर सवाल का जवाब वक्त ने बड़ी तसल्ली के साथ थाली में सजा कर उसे दिया है. सुना था इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है अगर अगला जन्म होता है तो. सोम ने तो इसी जन्म में सब पा भी लिया. अच्छा ही है इस जन्म का कर्ज इसी जन्म में उतर जाए, पुनर्जन्म होता है, नहीं होता, कौन जाने. अगर होता भी है तो कर्ज का भारी बोझ सिर पर ले कर उस पार भी क्यों जाना. दीवाली और नजदीक आ गई. मात्र 5 दिन रह गए. सोम का अजय से मिलने को बहुत मन होने लगा. मां और बाबूजी उसे बारबार पोते व बहू से बात करवाने को कह रहे हैं पर वह टाल रहा है. अभी तक बता ही नहीं पाया कि वह अध्याय समाप्त हो चुका है.

किसी तरह कुछ दिन चैन से बीत जाएं, फिर उसे अपने मांबाप को रुलाना ही है. कितना अभागा है सोम. अपने जीवन में उस ने किसी को सुख नहीं दिया. न अपनी जन्मदाती को और न ही अपनी संतान को. वह विदेशी परिवेश में पूरी तरह ढल ही नहीं पाया. दो नावों का सवार रहा वह. लाख आगे देखने का दावा करता रहा मगर सत्य यही सामने आया कि अपनी जड़ों से कभी कट नहीं पाया. पत्नी पर पति का अधिकार किसी और के साथ बांट नहीं पाया. वहां के परिवेश में परपुरुष से मिलना अनैतिक नहीं है न, और हमारे घरों में उस ने क्या देखा था चाची और मां एक ही पति को सात जन्म तक पाने के लिए उपवास रखती हैं. कहां सात जन्म तक एक ही पति और कहां एक ही जन्म में 7-7 पुरुषों से मिलना. ‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों’ जैसी बात कहने वाला सोम आखिरकार अपनी पत्नी को ले कर अटक गया था. सोचने लगा था, आखिर उस का है क्या, मांबाप उस ने स्वयं छोड़ दिए  और पत्नी उस की हुई नहीं. पैर का रोड़ा बन गया है वह जिसे इधरउधर ठोकर खानी पड़ रही है. बहुत प्रयास किया था उस ने पत्नी को समझाने का.

‘अगर तुम मेरे रंग में नहीं रंग जाते तो मुझ से यह उम्मीद मत करो कि मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं. सच तो यह है कि तुम एक स्वार्थी इंसान हो. सदा अपना ही चाहा करते हो. अरे जो इंसान अपनी मिट्टी का नहीं हुआ वह पराई मिट्टी का क्या होगा. मुझ से शादी करते समय क्या तुम्हें एहसास नहीं था कि हमारे व तुम्हारे रिवाजों और संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है?’

अंगरेजी में दिया गया पत्नी का उत्तर उसे जगाने को पर्याप्त था. अपने परिवार से बेहद प्यार करने वाला सोम बस यही तो चाहता था कि उस की पत्नी, बस, उसी से प्रेम करे, किसी और से नहीं. इस में उस का स्वार्थ कहां था? प्यार करना और सिर्फ अपनी ही बना कर रखना स्वार्थ है क्या?

स्वार्थ का नया ही अर्थ सामने चला आया था. आज सोचता है सच ही तो है, स्वार्थी ही तो है वह. जो इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है उस का यही हाल होना चाहिए. उस की पत्नी कम से कम अपने परिवेश की तो हुई. जो उस ने बचपन से सीखा कम से कम उसे तो निभा रही है और एक वह स्वयं है, धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का. न अपनों से प्यार निभा पाया और न ही पराए ही उस के हुए. जीवन आगे बढ़ गया. उसे लगता था वह सब से आगे बढ़ कर सब को ठेंगा दिखा सकता है. मगर आज ऐसा लग रहा है कि सभी उसी को ठेंगा दिखा रहेहैं. आज हंसी आ रही है उसे स्वयं पर. पुन: उसी स्थान पर चला आया है जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था. एक शून्य पसर गया है उस के जीवन में भी और मन में भी.

शाम होते ही दम घुटने लगा, चुपचाप छत पर चला आया. जरा सी ताजी हवा तो मिले. कुछ तो नया भाव जागे जिसे देख पुरानी पीड़ा कम हो. अब जीना तो है उसे, इतना कायर भी नहीं है जो डर जाए. प्रकृति ने कुछ नया तो किया नहीं, मात्र जिस राह पर चला था उसी की मंजिल ही तो दिखाई है. दिल्ली की गाड़ी में बैठा था तो कश्मीर कैसे पहुंचता. वहीं तो पहुंचा है जहां उसे पहुंचना चाहिए था.

छत पर कोने में बने स्टोररूम का दरवाजा खोला सोम ने. उस के अभाव में मांबाबूजी ने कितनाकुछ उस में सहेज रखा है. जिस की जरूरत है, जिस की नहीं है सभी साथसाथ. सफाई करने की सोची सोम ने. अच्छाभला हवादार कमरा बरबाद हो रहा है. शायद सालभर पहले नीचे नई अलमारी बनवाई गई थी जिस से लकड़ी के चौकोर तिकोने, ढेर सारे टुकड़े भी बोरी में पड़े हैं. कैसी विचित्र मनोवृत्ति है न मुनष्य की, सब सहेजने की आदत से कभी छूट ही नहीं पाता. शायद कल काम आएगा और कल का ही पता नहीं होता कि आएगा या नहीं और अगर आएगा तो कैसे आएगा.

4 दिन बीत गए. आज दीवाली है. सोम के ही घर जा पहुंचा अजय. सोम से पहले वही चला आया, सुबहसुबह. उस के बाद दुकान पर भी तो जाना है उसे. चाची ने बताया वह 4 दिन से छत पर बने कमरे को संवारने में लगा है.

‘‘कहां हो, सोम?’’

चौंक उठा था सोम अजय के स्वर पर. उस ने तो सोचा था वही जाएगा अजय के घर सब से पहले.

‘‘क्या कर रहे हो, बाहर तो आओ, भाई?’’

आज भी अजय उस से प्यार करता है, यह सोच आशा की जरा सी किरण फूटी सोम के मन में. कुछ ही सही, ज्यादा न सही.

‘‘कैसे हो, सोम?’’ परदा उठा कर अंदर आया अजय और सोम को अपने हाथ रोकने पड़े. उस दिन जब दुकान पर मिले थे तब इतनी भीड़ थी दोनों के आसपास कि ढंग से मिल नहीं पाए थे.

‘‘क्या कर रहे हो भाई, यह क्या बना रहे हो?’’ पास आ गया अजय. 10 साल का फासला था दोनों के बीच. और यह फासला अजय का पैदा किया हुआ नहीं था. सोम ही जिम्मेदार था इस फासले का. बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था सोम जिस पर अजय ने नजर डाली.

‘‘चाची ने बताया, तुम परेशान से रहते हो. वहां सब ठीक तो है न? भाभी, तुम्हारा बेटा…उन्हें साथ क्यों नहीं लाए? मैं तो डर रहा था कहीं वापस ही न जा चुके हो? दुकान पर बहुत काम था.’’

‘‘काम था फिर भी समय निकाला तुम ने. मुझ से हजारगुना अच्छे हो तुम अजय, जो मिलने तो आए.’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहे हो, यार,’’ अजय ने लपक कर गले लगाया तो सहसा पीड़ा का बांध सारे किनारे लांघ गया.

‘‘उस दिन तुम कब चले गए, मुझे पता ही नहीं चला. नाराज हो क्या, सोम? गलती हो गई मेरे भाई. चाची के पास तो आताजाता रहता हूं मैं. तुम्हारी खबर रहती है मुझे यार.’’

अजय की छाती से लगा था सोम और उस की बांहों की जकड़न कुछकुछ समझा रही थी उसे. कुछ अनकहा जो बिना कहे ही उस की समझ में आने लगा. उस की बांहों को सहला रहा था अजय, ‘‘वहां सब ठीक तो है न, तुम खुश तो हो न, भाभी और तुम्हारा बेटा तो सकुशल हैं न?’’

रोने लगा सोम. मानो अभीअभी दोनों रिश्तों का दाहसंस्कार कर के आया हो. सारी वेदना, सारा अवसाद बह गया मित्र की गोद में समा कर. कुछ बताया उसे, बाकी वह स्वयं ही समझ गया.

‘‘सब समाप्त हो गया है, अजय. मैं खाली हाथ लौट आया. वहीं खड़ा हूं जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था.’’

अवाक् रह गया अजय, बिलकुल वैसा जैसा 10 साल पहले खड़ा रह गया था तब जब सोम खुशीखुशी उसे हाथ हिलाता हुआ चला गया था. फर्क सिर्फ इतना सा…तब भी उस का भविष्य अनजाना था और अब जब भविष्य एक बार फिर से प्रश्नचिह्न लिए है अपने माथे पर. तब और अब न तब निश्चित थे और न ही आज. हां, तब देश पराया था लेकिन आज अपना है.

जब भविष्य अंधेरा हो तो इंसान मुड़मुड़ कर देखने लगता है कि शायद अतीत में ही कुछ रोशनी हो, उजाला शायद बीते हुए कल में ही हो.

मेज पर लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर बहुत सुंदर घर का मौडल बना रहा सोम उसे आखिरी टच दे रहा था, जब सहसा अजय चला आया था उसे सुखद आश्चर्य देने. भीगी आंखों से अजय ने सुंदर घर के नन्हे रूप को निहारा. विषय को बदलना चाहा, आज त्योहार है रोनाधोना क्यों? फीका सा मुसकरा दिया, ‘‘यह घर किस का है? बहुत प्यारा है. ऐसा लग रहा है अभी बोल उठेगा.’’

‘‘तुम्हें पसंद आया?’’

‘‘हां, बचपन में ऐसे घर बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘मुझे याद था, इसीलिए तो बनाया है तुम्हारे लिए.’’

झिलमिल आंखों में नन्हे दिए जगमगाने लगे. आस है मन में, अपनों का साथ मिलेगा उसे.

सोम सोचा करता था पीछे मुड़ कर देखना ही क्यों जब वापस आना ही नहीं. जिस गली जाना नहीं उस गली का रास्ता भी क्यों पूछना. नहीं पता था प्रकृति स्वयं वह गली दिखा देती है जिसे हम नकार देते हैं. अपनी गलियां अपनी होती हैं, अजय. इन से मुंह मोड़ा था न मैं ने, आज शर्म आ रही है कि मैं किस अधिकार से चला आया हूं वापस.

आगे बढ़ कर फिर सोम को गले लगा लिया अजय ने. एक थपकी दी, ‘कोई बात नहीं. आगे की सुधि लो. सब अच्छा होगा. हम सब हैं न यहां, देख लेंगे.’

बिना कुछ कहे अजय का आश्वासन सोम के मन तक पहुंच गया. हलका हो गया तनमन. आत्मग्लानि बड़ी तीव्रता से कचोटने लगी. अपने ही भाव याद आने लगे उसे, ‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों.

महायोग : पांचवीं किस्त

अब तक की कथा :

फोन पर बात कर के यशेंदु संतुष्ट नहीं हो सके. आखिर उन की बेटी के भविष्य का प्रश्न उन के समक्ष अधर में लटक रहा था. मन में संदेह के बीज पड़ चुके थे. बेटी का चिड़चिड़ापन उन्हें प्रताड़ना दे रहा था. उन्होंने लंदन जा कर अपने संदेह का निराकरण करना चाहा. मानसिक तनाव व द्वंद्व में घिरे यशेंदु कार पार्क कर के सड़क पार करते समय ट्रक की चपेट में आ गए.

अब आगे…

पूजापाठ, ग्रहनक्षत्र, शुभअशुभ सब पंडितों से पूछ कर ही तो घर के सारे काम होते थे, फिर यशेंदु के साथ ऐसा अनिष्ट क्यों हुआ? कामिनी अब मांजी से इस सवाल का क्या जवाब मांगती. पंडितों ने तो उन की आंखों पर ऐसी पट़्टी बांध दी थी जिस के पार वह कुछ नहीं देख सकती थीं. लेकिन कामिनी  उस पार की तबाही साफ देख रही थी. ट्रक ड्राइवर के ब्रेक लगातेलगाते यशेंदु ट्रक से टकरा कर लगभग 4-5 फुट दूर जा गिरे और बेहोश हो गए.

यशेंदु की ट्रक से दुर्घटना की खबर डाक्टर द्वारा घरवालों को मिली तो वे घबरा गए. वे शीघ्रातिशीघ्र अस्पताल पहुंच गए. वहां कई लोग मौजूद थे.

‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ सेठ ने अपने ड्राइवर से पूछा.

‘‘साब, पता नहीं चला कहां से ये साहब अचानक ही ट्रक के सामने आ गए और मैं ब्रेक लगा पाऊं इतनी देर में तो ये ट्रक से टकरा कर लगभग 4-5 फुट ऊपर उछल कर गिर कर बेहोश हो गए,’’ ड्राइवर को बहुत अफसोस हो रहा था. लगभग 30 वर्ष से वह यह काम कर रहा था. अभी तक इस प्रकार की कोई दुर्घटना उस से नहीं हुई थी.

दिया का रोरो कर बुरा हाल था. दादी, कामिनी, नौकर सब इस दुर्घटना से जड़ से हो गए थे. दिया जानती थी कि पापा उसे अपने साथ लंदन ले जाने के लिए यह सब भागदौड़ कर रहे थे इसलिए उस का मन और भी व्यथित हो उठा. यह प्रसाद मिला पापा को दादी की इतनी पूजा का? उस का मन हाहाकार करने लगा. वह बहुत अभागी है. अपने पिता की दुर्घटना के लिए वही जिम्मेदार है. वैसे कहीं पर कुछ भी हो सकता है परंतु दिया को इसलिए यह बात बारबार कचोट रही थी क्योंकि यह सबकुछ वीजा औफिस के बाहर ही  हुआ था. उस के अनुसार, पापा को यह सब उस की चिंता के लिए ही भोगना पड़ रहा था.

कामिनी ने आंसूभरी आंखों से औपरेशन के फौरमैलिटी पेपर्स पर हस्ताक्षर कर दिए. उस के मस्तिष्क में मानो हथौड़ी की सी मार भी पड़ने लगी. अगर लड़के के घर में सगाई या विवाह के बाद बड़ी दुर्घटना हो जाती है तो लड़की के मुंह पर कालिख पोती जाती है. इस के पैर ऐसे हैं, यह घर के लिए शुभ नहीं है आदि. परंतु जहां लड़की के घर में इस प्रकार की कोई दुर्घटना हो जाए तो क्या लड़के को भी अपशकुनी माना जाता है?

लगभग 3 घंटे के औपरेशन ने घरभर के सदस्यों को हिला कर रख दिया था. ड्राइवर और उस का मालिक दोनों ही सहृदय, संवेदनशील थे, होंठ सिए हाथ जोड़ कर, सिर झुकाए चुपचाप सबकुछ सुनते रहे. 5-7 मिनट बाद कामिनी ने सास को औपरेशन थिएटर के बाहर पड़ी कुरसी पर बैठा दिया और ड्राइवर व उस के मालिक के सामने हाथ जोड़ कर उन्हें वहां से जाने का इशारा किया.

कामिनी व दिया दोनों के मन में बहुत स्पष्ट था कि यह दुर्घटना क्यों हुई होगी? वे कई दिनों से यश को बहुत अधिक असहज देख रही थीं. दिया तो अपने में ही सिमट कर रह गई थी परंतु कामिनी ने पति को समझाने का भरपूर प्रयास किया था. यश थे कि बेटी को देखदेख कर भीतर ही भीतर कुढ़ रहे थे. ऊपर से उन की मां ने घर में पंडितजी को बैठा कर पूजापाठ का नाटक कर रखा था. उन्हें कभी भी पूजाअर्चना में कोई परेशानी नहीं रही परंतु यह कुछ भी हो रहा था, वह उन की समझ से बाहर था और उन की सोच उन्हें यह समझने के लिए बाध्य कर रही थी कि घंटी बजाने से काम नहीं चलेगा, उन्हें कर्मठ होना होगा. एक ओर उन के मन में सवाल पनप रहा था कि मां ने तो दिया की जन्मपत्री कई बार मिलवाई और 90 प्रतिशत गुण मिलने के बावजूद यह सब घटित हो रहा था. समय दीप व स्वदीप भी शहर में नहीं थे.

औपरेशन थिएटर के बाहर कुरसियों पर तीनों शांत बैठे हुए थे. तीनों के मस्तिष्क में एक बात अलगअलग प्रकार से उमड़घुमड़ रही थी. अचानक न जाने दिया को क्या हुआ, ‘‘दादी, आप हर चीज पंडितजी से ही पूछ कर करती हैं न? उन्होंने आप को यह नहीं बताया कि पापा पर ऐसा कोई ग्रह भारी है?’’

दादी के तो आंसू ही नहीं थम रहे थे. वे क्या उत्तर देतीं? इस उम्र में उन्हें बेटे का यह दुख देखना पड़ रहा था. इस पंडित के पिता ने जिंदगीभर उन के घर के लिए पूजाअर्चना की थी. दिया की दादी व दादाजी तो प्रारंभ से ही पंडितों के मस्तिष्क से ही चलते आए हैं. उन के द्वारा बताए हुए ग्रहों की शांति करवाना, जन्मपत्री मिलवाना व प्रतिदिन उन के द्वारा ही पूजाअर्चना करवाना. कामिनी के पिता ने अपने किसी भी बच्चे की जन्मपत्री नहीं मिलवाई थी फिर भी सब सुखी थे. उन्हें केवल कामिनी की ही जन्मपत्री मिलानी पड़ी थी और कामिनी ही जिंदगीभर इस घर के वातावरण में असहज बनी रही थी. दिया के साथ ये सबघटित तो हो ही रहा है साथ ही यश भी चपेट मेें आ गए. वह पंडित अभी भी घर पर बैठा घंटियां बजा कर भगवान को मनाने में लगा होगा.

दादी मन ही मन सोच रही थीं कि उन्हें अब कौन से जाप करवाने होंगे. यह एक लंबा दर्दीला घटनाक्रम बन गया था मानो. एक दुर्घटना का दर्द समाप्त भी नहीं हो पाता था कि दूसरी कोई दुर्घटना आ उपस्थित होती. कामिनी के लिए तो इस घर के प्रवेश का प्रथम दिवस ही दुर्घटना था बल्कि यह कहा जाए कि यश की सगाई का दिन ही दुर्घटना का दिन था. जिस पिता से वह यह अपेक्षा करती रही थी कि वे उसे किसी हताश स्थिति में डाल ही नहीं सकते उसी पिता ने उसे कहां से उठा कर कहां

पहुंचा दिया था.

बचपन में पिता रटाते थे-

वैल्थ इज लौस्ट, नथिंग इज लौस्ट,

हैल्थ इज लौस्ट, समथिंग इज लौस्ट,

इफ कैरेक्टर इज लौस्ट, एवरीथिंग इज लौस्ट.

ये पंक्तियां रटतेरटते कामिनी युवा हो चली थी. मध्यवर्गीय वातावरण में पलीबढ़ी कामिनी की विवाह के बाद बुद्धि में वृद्धि हुई और उस ने बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस किया था कि वैल्थ के बिना कोई पूछ नहीं है और जैसेजैसे वह इस वैल्दी घर का पुराना हिस्सा होती जा रही थी वैसेवैसे उस की यह भावना दृढ़ होती जा रही थी. कितना मानसम्मान था उस की ससुराल का इतने बड़े शहर में कि वह स्वयं को बौना महसूस करती थी. इतनी कि उस के मुख के बोल भी ‘जी हां’ और ‘जी नहीं’ तक सिमट कर रह गए थे. फिर वह इस सब की आदी हो गई थी और प्रात:कालीन मंत्रोच्चार उस के मुख से निकल कर केवल उस की आत्मा के ही साक्षी बन कर रह गए थे.

घर का संपूर्ण वातावरण सुबहसवेरे पंडितजी की घंटियों की मधुर ध्वनि से नहा उठता था. धीरेधीरे घंटियों के साथ हर घड़ी घर में पंडितों की नाटकीय आवाजें व फुसफुसाहटें सुनाई देने लगीं तब वह और अधिक सहज होती गई. उस ने पंडितों को मंत्रोच्चार करते हुए अकसर हंसीठिठोली करते देखा था. जैसे ही वहां घर का कोई सदस्य पहुंचता वे जोरजोर से मंत्रोच्चार करने लगते. अच्छे पल भी आए थे कामिनी के जीवन में जब उस ने 3 शिशुओं को जन्म दिया था. वास्तव में कामिनी को 2 बेटों के जन्म के बाद किसी तीसरे की कोई इच्छा ही नहीं थी परंतु घर में 1 बेटी की चाह ने पूरे वातावरण में मानो नाराजगी भर रखी थी. बेटी की चाह भी किस लिए क्योंकि 2-3 पीढि़यों से परिवार में कोई बेटी नहीं थी और इस परिवार के बुजुर्गों की कन्यादान करने में रुचि थी. पंडितजी ने उस के सासससुर के मस्तिष्क में कन्यादान की महत्ता इस कदर भर दी थी कि कन्यादान न किया तो उन का जीवन व्यर्थ था. और पंडितजी का गणित तो बिलकुल स्पष्ट था ही कि यशेंदुजी के हाथ की लकीरों में कन्या का पिता बनना स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हो रहा था. सो, कामिनी के तीसरा शिशु कन्या हुई.

न जाने क्यों कामिनी इस बात से भयभीत सी रहती थी कि इतनी लाड़प्यार से पली उस की बिटिया एक दिन दूसरे के घर चली जाएगी उस का मनउपवन खाली कर के. वह भी तो आई थी, ठीक था, परंतु इतनी शीघ्रता से यह सब होगा और इस प्रकार होगा, इस के लिए उस का मन तैयार न था. हुआ वही जो घर के बुजुर्ग ने चाहा और परिवार के सब सदस्य यह होना देखते रहे.

अस्पताल में आईसीयू के बाहर सोफे पर बैठेबैठे न जाने मांजी की वृद्ध काया कब सोफे के हत्थे पर लटक सी गई थी. झुर्री भरे मुख पर आंसुओं की गहरी लकीरें किसी झील में कंकर फेंकने पर लहरों की भांति टेढ़ीमेढ़ी हो कर चिपक सी गई थीं. कामिनी ने सास को बड़ी करुणापूर्ण दृष्टि से देखा और उस के नेत्र फिर से भर आए. मां बुरी बिलकुल न थीं, उन्होंने अपने हिसाब से उसे प्यार भी बहुत दिया था परंतु उन की सोच थी जिस ने सारे वातावरण पर अपनी मुहर चिपका रखी थी. उन का अंधविश्वास और सर्वोपरि समझने की भावना ने पूरे वातावरण पर अजीब से पहरे बिठा दिए थे.

कितनी बार सोचा था कामिनी ने, समय के अनुसार प्रत्येक में बदलाव आते हैं परंतु उन की सोच व तथाकथित परंपराओं में बदलाव क्यों नहीं आ पा रहे थे? यदि पत्थर पर भी बारबार कोई चीज घिसी जाए तो वहां भी गड्ढा हो जाता है परंतु मां… थोड़ी देर में डाक्टर आए और उन के पास ही सोफे पर बैठ गए, ‘‘मांजी, रोने से तो कुछ हो नहीं सकता? आप तो कितनी समझदार हैं.

‘‘नर्स,’’ डाक्टर ने समीप से गुजरती हुई नर्स को आवाज दी. नर्स रुक गई.

‘‘मांजी को आईसीयू के बाहर से जरा यशेंदुजी को दिखा दो, जिन का आज औपरेशन हुआ है.’’

‘‘यस, डाक्टर,’’ नर्स उन्हें सहारा दे कर आईसीयू की ओर हाथ पकड़ कर धीरेधीरे चल पड़ी.

डाक्टर खड़े हो गए और कामिनी से बोले, ‘‘एक्चुअली मिसेज कामिनी, आय वांटेड टू डिसकस सम इंपौर्टेंट इश्यू विद यू.’’

– क्रमश:

बौनों का रहस्यमयी संसार : यांग्सी

हम लोग 4 घंटे का थकाऊ सफर पूरा कर के चीन के सिचुआन प्रांत के दूरदराज के गांव यांग्सी आ पहुंचे थे. चौंकाने वाली बात यह थी कि हमारा स्वागत बच्चों ने किया. हमारा मन भावुक हो उठा. बच्चों के चेहरों पर फैली मुसकराहट बता रही थी कि वे हम से मिल कर खुश थे.

‘‘क्या कोई बड़ा बुजुर्ग हम से मिलने नहीं आएगा?’’ मैं ने अपने गाइड शिजुआओ ली से पूछा. वह मेरी बात सुन कर हंस दिया. एक क्षण बच्चों की ओर देख कर बोला, ‘‘महाशय, यहां आप की और मेरी तरह 5 साढ़े 5 फुट का कोई नहीं है, यही वे लोग हैं जिन्हें आप देखने आए हैं.’’

मैं उस की बात सुन कर एक क्षण को स्तब्ध रह गया. कभी उन बुजुर्ग बच्चों को देखता था और कभी ली को. तभी ली ने एक बच्चे को गोद में उठाया और मुझ से ‘हैलो’ करने को कहा. उस बच्चे ने चीनी भाषा में मेरा अभिवादन किया. ये लोग चीनी भाषा के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं जानते. उस बच्चे का नाम मित्सु था जिस की उम्र 37 वर्ष थी.

मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मित्सु की उम्र 37 वर्ष थी. तब ली ने मुझे एक बार फिर चौंकाया, ‘‘वे जो 2 बच्चे आप खेलते देख रहे हैं वे जुड़वां हैं और 8-8 साल के हैं. मित्सु उन के पिता हैं.’’ मुझे इतनी हैरानी हुई कि मैं कुछ बोल नहीं पाया. मेरा मुंह खुला का खुला रह गया.

मैं ने ली से उन के बौनेपन के बारे में विस्तार से बताने को कहा. ली ने कहा, ‘‘बताया जाता है कि 1920 के आसपास 5 से 7 वर्ष की आयु के बच्चे किसी रहस्यमय बीमारी की चपेट में आ गए. उस बीमारी का असर सीधे हड्डियों पर हो रहा था जिस से बच्चों का विकास रुक गया. हां, मानसिक और बौद्धिक विकास पर उस बीमारी का कोई प्रभाव देखने को नहीं मिला.’’

वैज्ञानिकों ने उस क्षेत्र के पानी, मिट्टी और अनाज का गहन अध्ययन किया लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा. कुछ समय पूर्व एक जरमन लेखक हार्टविग हौसडौर्फ इन लोगों पर शोध करने यहां आया था. उस ने अपने शोधपत्र में लिखा था, ‘‘सिचुआन प्रांत में 120 बौने पाए गए, जिन में सब से ऊंचे बौने की ऊंचाई 3 फुट 10 इंच थी. यह घटना नवंबर 1995 की है. सब से छोटे कद के बौने की ऊंचाई 2 फुट 1 इंच थी. यह आश्चर्यजनक है.’’

चीन के मानवजाति विज्ञानी यह रहस्य आज तक नहीं जान पाए हैं कि शारीरिक विकास रुकने का क्या कारण था. बहरहाल, एक शोध के अनुसार, मिट्टी में पारे के तत्त्व पाए गए थे जिस के कारण हड्डियों का विकास रुकने लगा. परिणामस्वरूप शरीर का संपूर्ण विकास ही रुक गया. बौनों के इस गांव का नाम है बयान कारा उला, जो एक पर्वतशृंखला के बीच बसा हुआ है. यह वह जगह है जहां क्ंवगहाई और सिचुआन प्रांतों की सीमाएं मिलती हैं.

जिस स्थान पर बयान कारा उला स्थित है उसी के पास एक नदी बहती है-डिले, जिसे इस गांव की जीवनरेखा कहा जा सकता है. चीन के लोग इन यांग्सी बौनों को ‘मशरूम पीपल’ भी कहते हैं. इन लोगों ने अपने मनोरंजन के लिए खास व्यवस्था कर रखी है. इन के लिए एक ‘ड्वार्फ थीम पार्क’ का निर्माण भी किया गया है जहां ये लोग नाचतेगाते हैं, नाटकों का मंचन करते हैं और खास बैठकें करते हैं.

विश्वभर में ड्वार्फिज्म (बौनेपन) पर होने वाले शोधकार्यों से पता चलता है कि बौने सिर्फ चीन या जापान में ही नहीं, विश्व के अन्य देशों में भी पाए जाते हैं. ब्रिटेन में तो बौनों की पूरी फुटबौल टीम है. भारत में भी बौनों की कमी नहीं है. सर्कस एक ऐसा व्यवसाय है जिस में बौनों की अनिवार्यता होती है. दुनिया में कहीं भी, कोई भी सर्कस ऐसा नहीं जिस में बौने कलाकार नहीं हैं. वास्तव में बच्चों के मनोरंजन के लिए बौने कलाकारों का होना अनिवार्यता होती है. यह बात अलग है कि अब सर्कस जैसा महंगा व्यवसाय लुप्तप्राय होने के कगार पर है. यों भी, सर्कस में इस्तेमाल किए जाने वाले जानवरों पर प्रतिबंध के चलते सर्कस व्यवसाय डूब रहा है.

प्रश्न उठता है कि सर्कस के बंद हो जाने पर अन्य (सामान्य) लोगों को तो कहीं न कहीं जीवनयापन योग्य कामधंधा मिल भी जाएगा लेकिन बौने लोगों (जो अमूमन जोकर का काम करते हैं) को कौन काम पर रखेगा? इसलिए सरकार को इन लोगों के सहायतार्थ सोचना चाहिए. सिचुआन प्रांत में बौनों के 18 गांव हैं और 3 प्रजातियां हैं. ये सभी लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और महामहिम जांग्चेन रिन्पोचे के प्रति समर्पित हैं.

बौनों का रहस्य चाहे जो भी हो, इतना तय है कि सामान्य व्यक्ति और उन के बीच किसी न किसी ऐसे तत्त्व की कमी अवश्य होती है जो उन की शारीरिक वृद्धि को एक स्थान पर ला कर रोक देती है. एक उल्लिखित जानकारी के अनुसार विश्वभर के वैज्ञानिक इस रहस्य से परदा नहीं उठा पाए हैं कि आखिर बौनापन होता क्यों है. बौनापन वंशानुगत होता हो, ऐसा भी आवश्यक नहीं है.

भोपाल की जीनत बी

113 वर्ष की जीनत बी शायद विश्व की सर्वाधिक आयु की बौनी महिला हैं (कद पौने 3 फुट). उन के विवाह न करने के कारण उन की कोई संतान नहीं है. भारत में ही भोपाल की रहने वाली जीनत बी को अपना बचपन और वह समय अच्छी तरह याद है जब ब्रिटिशर्स भारत पर राज करते थे. जीनत बी ने बताया, ‘‘मेरी उम्र इतनी है कि मैं ने भोपाल शहर को अपनी आंखों के सामने बसते देखा है. एक समय यहां सिर्फ जंगल ही जंगल हुआ करता था. मुझे आज भी याद है वह दिन जब अंगरेजों ने शहर में पहली बार डबलरोटी (ब्रैड) का प्रचलन शुरू किया था.’’

जीनत बी की देखभाल करने वाले सज्जन अबरार मुहम्मद खान दुखी मन से बताते हैं, ‘‘शर्म की बात है कि हमारे देश की सरकार जीनत की तरह के अन्य बौनों की तरफ कोई तवज्जुह नहीं देती, कोई सहूलियत नहीं देती बल्कि उन्हें प्रदर्शनी की वस्तुमात्र बना छोड़ा है.’’ जीनत बी, अबरार खान के घर में पिछले 30 सालों से रह रही हैं. अबरार खान उन्हें मां का दरजा और इज्जत देते हैं और उन की हर जरूरत का ध्यान रखते हैं. जीनत बी बताती हैं कि उन की मनपसंद चीज पान है. वे खाने के बिना रह सकती हैं, पान के बिना नहीं.

दर्द रिश्तों का

हर रिश्ते से बंधी थी
पर कोई भी रिश्ता
मेरा न था
रिश्तों में फासले तो थे पर
वे इतने खौफनाक भी हो सकते हैं
कभी सोचा न था

हमसफर बनाया था जिसे, हमसफर तो था
पर साथी न बन सका
रहते थे इक मकां में पत्थर की तरह
क्योंकि वो मकां था, घर न बन सका
घर न होने का दर्द
ऐसा भी होता है
कभी सोचा न था

गीली रेत पर लिखा था
अपना नाम उस के नाम के साथ
हवा का इक झोंका आया
रेत के साथ नाम भी उड़ा ले गया
नाम का वजूद मिटने का दर्द
ऐसा भी होता है
कभी सोचा न था

मुट्ठी में बंद रेत की तरह
कब फिसल गया वो
मालूम न था
रीति मुट्ठी लिए खड़े रहने का दर्द
दर्दनाक इतना भी होता है
कभी सोचा न था

होता है जो रिश्ता दिल के करीब
वही दे जाता है इतना दर्द
कहते हैं दिए जला कर रोशनी करो
पर दिए के नीचे के अंधेरे का दर्द
कितना होता है दिए को
ये सोचा न था.

बहुत प्यारा है जीवन

विकास और आंचल एकदूसरे से प्रेम करते थे. दोनों के घर वालों ने इस प्रेम को नाम देने का निश्चय किया और शादी के लिए मान गए. सगाई के कुछ दिन बाद आंचल के पिता ने लड़के को नशे का आदी पाया. उन की इस घोषणा से कोहराम मचा. आंचल ने भी तूफान खड़ा किया. खैर, यह बात सही निकली तो उस के पीछे दस तरह की और आशंकाएं सिर उठाने लगीं. सब से आखिर में किया जाने वाला काम पहले किया गया यानी सगाई तोड़ दी गई. विकास के लिए यह आन, मान और प्यार का मसला था. वह नशा मुक्ति केंद्र भी जा रहा था.

प्यार को खोने तथा सगाई तोड़ने के आघात को वह सह न सका. उस ने जहर खा लिया. जब उसे लगने लगा कि वह मर ही जाएगा तो वह घबरा गया और डाक्टर से कहने लगा कि उस के गम में उस के मम्मीपापा मर जाएंगे. वह मांबाप का इकलौता लड़का है. बड़ी कोशिशों के बाद पैदा हुआ है. बहरहाल, उसे बचाया न जा सका. अब कई वर्ष बीत गए हैं. उस के मातापिता जिंदा लाश बन कर जी रहे हैं. आज 48 साल की हो चुकी आंचल भी कहीं शादी करने को तैयार नहीं. वह विकास की मृत्यु का कारण अपने को ही मानती है. वह भावावेश को आत्महत्या का कारण मानती है.

कइयों का जीवन प्रभावित

इस प्रकार एक व्यक्ति का जीवन सिर्फ एक व्यक्ति का जीवन नहीं होता, उस से कई और जीवन भी प्रभावित होते हैं. मरने वाला मर जाता है पर उस के परिवार के सदस्य जीवित तो रहते हैं लेकिन उन की स्थिति किसी लाश से कम नहीं होती. वे हरपल घुटते हैं. उन का मनोबल टूट जाता है. वे अपने को लज्जित महसूस करते हैं व स्वयं को इस की मौत का जिम्मेदार मान कर खुद को अपराधभाव से ग्रसित कर लेते हैं.

छोटीछोटी बातें बड़ी अहम

दिल्ली के पालम गांव में रहने वाली शिखा की दोस्ती पड़ोस में रहने वाली लड़की रीमा से थी. एक दिन अचानक जब शिखा रीमा से मिलने उस के घर गई तो उसे पता चला कि रीमा ने आग लगा ली है. वह दूसरे ही दिन मर गई. छोटी सी बात पर उस ने आग लगा ली. फ्रिज खराब हो गया था, मां उसे ठीक कराने दे आई. 8 दिन तक मैकेनिक नहीं आया. बंद दुकान और भरी गरमी. रीमा ने मां को तुरंत नया फ्रिज खरीदने को कहा. मां ने कहा कि घर में पहले ही बहुत सामान रखा है, नए फ्रिज का क्या होगा. उन्होंने पिता की मृत्यु के बाद सिर्फ किराए की आय से चल रहे जीवन का हवाला भी दिया पर रीमा बिफर गई. वह बोली, ‘‘फ्रिज मुझ से बढ़ कर है? कम आय है? अब कम न पडे़गी…’’

मां ने इसे सामान्य समझा. इसी बीच रीमा ने अपनेआप को जलाना शुरू कर दिया. मां ने उसे बचाने की बहुत कोशिश की पर नाकाम रहीं. आज वे अपनी बेटी की मौत के लिए खुद को जिम्मेदार मान कर पछतावा लिए जी रही हैं. तनाव व अवसाद के कारण वे कई बीमारियों की शिकार हो गई हैं. उन्हें बेटी की मृत्यु बेहद कचोटती है. वे अफसोस से कहती हैं कि बच्चा जरूरत से ज्यादा भावुक हो, क्रोधी हो, आक्रामक हो तो उसे मनोचिकित्सक के पास जरूर ले जाएं. मेरी बेटी इतनी अच्छी इंसान थी. दौड़दौड़ कर सब की मदद करती थी पर गुस्से में चीजें तोड़ डालती थी. हम ऊपरी हवा के अंधविश्वास में पड़ कर उसे मनोचिकित्सक के पास नहीं ले गए. आज हम उसे खो कर अपनी गलती की सजा भुगत रहे हैं.

प्रौपर पेरैंटिंग

मनोचिकित्सक डा. सिद्धार्थ चेलानी कहते हैं कि अब पेरैंटिंग इतनी आसान नहीं रही. कम बच्चे बढ़ता तनाव. ऐसे में सुखसुविधा, अच्छे स्कूल में पढ़ाईलिखाई, लैपटौप, मोबाइल दिला कर मांबाप सोचते हैं कि उन्होंने बच्चे के लिए बहुत कर लिया है. लेकिन बच्चों को सुखसुविधाओं के साथसाथ मातापिता का सहयोग, समय व नियमित संवाद भी जरूरी है. मातापिता उन की समस्याओं को अनसुना न करें. उन के आसपास की दुनिया को भी जानेंसमझें. कुछ भी असामान्य लगे तो मनोचिकित्सक से अवश्य संपर्क करें.

हर उम्र के लोग शामिल हैं

किसी समय में युवा या स्त्रियां आत्महत्या करने में आगे थे पर आज हर उम्र व समूह का व्यक्ति ऐसा करता दिखाई देता है. बढ़ता भौतिकवाद और बढ़ती अपेक्षाएं इस की जड़ हैं. ये अपेक्षाएं मांबाप की बच्चे से हों या पत्नी की पति  से या सास से बहू की या बहू से सास की या फिर बौस की अधीनस्थ कर्मचारी से. ऐसी स्थिति तनाव तथा दबाव बनाती है. व्यक्ति उस तनाव के वशीभूत हो जाता है और आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है. मनोचिकित्सक न्यूरोकैमिकल्स की कमी को भी कारण मानते हैं. हार्मोनल असंतुलन की स्थिति में डाक्टर से मिलें.

किसी को नहीं मिलता सबक

अकसर आत्महत्या के लिए कदम उठाने वालों के मन में लोगों, जिन से वे पीडि़त हैं, को सबक सिखाने की मानसिकता रहती है. महविश नामक महिला के भाइयों को बहन का छोटी जाति और पड़ोसी युवक से ब्याह करना नागवार गुजरा. उन्होंने बहन की छोटीछोटी बच्चियों के पैदा हो जाने पर भी उस के पति की हत्या कर दी. पुलिस ने कार्यवाही नहीं की. प्रशासन एवं उच्चाधिकारियों के कान पर जूं तक न रेंगी. उस के जेठ ने धरना दिया तब भी कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने अपने पर पैट्रोल डाल कर आग लगा ली. अब सिर्फ सासबहू रह गई हैं. इन्हें ही सब भुगतना पड़ रहा है. प्रशासन या पुलिस को क्या फर्क पड़ा.

सुधारने की अपेक्षा

कुमारी बीना कहती हैं कि उन की बहन ने आत्महत्या की. जीजाजी परेशान करते थे. बातोंबातों में कहती थी, मैं मर जाऊंगी तब सुधरेंगे, 3 बच्चों को पालना आसान नहीं, हम ने बात सुन कर उन्हें समझाया. खैर, जीजाजी आज भी वैसे के वैसे हैं. बच्चों की जिंदगी बिगड़ रही है. उन्होंने दूसरी शादी कर ली. लड़की वालों को सच पता चला पर उन्होंने हमारी ही बहन की कमी मानी. दूसरों का ध्यान दिलाने व कार्यवाही कराने के लिए उठाए जाने वाले ये कदम कभी कारगर नहीं हो सकते हैं. हमारा जीवन के दायरे से जुड़े लोगों के बारे में सोचना बहुत जरूरी है. जीवित रहे तो कार्यवाही की व कराई जा सकती है. मरने पर तो जो हो रहा है वह भी नहीं हो पाता.

अब मरने से डरती हूं

चेतना ने जहर खा कर जान देने की कोशिश की. समय पर मिले इलाज ने जान बचा ली पर उसे अब भी कभीकभी बेहोशी के दौरे पड़ते हैं. वह कहती है, ‘‘जहर खा तो लिया पर जैसे पूरा शरीर हिल गया, उबल गया…जीने की इच्छा जाग उठी. मैं ने डाक्टर के पैर पकड़ लिए, ‘डाक्टर साहब, जिंदगीभर आप के यहां काम कर के आप का कर्ज उतार दूंगी. आप बस, मुझे बचा लीजिए.’ ‘‘अब मुझे मरने का प्रयास बचकाना लगता है. मैं आत्मनिर्भर हुई. मैं ने बच्चों से अपनी गलती की माफी मांगी और उन से वचन लिया कि वे मेरी जैसी मूर्खता जीवन में कभी भी, किसी भी हालत में नहीं करेंगे. बल्कि अब मुझे डर लगता है कि भीड़ या ऐसी किसी जगह मुझे दौरे न आ जाएं. मैं किसी बीमारी से मर न जाऊं.’’

खूब हिफाजत करता हूं

संभव कोचिंग में सफल न होने के कारण रेल से कटने चला. उसे लगता था कि उस ने मांबाप का पैसा खूब बरबाद किया, फिर भी उन की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा. वह बताता है, ‘‘मैं रेल के आगे कूदा तो टांग कट गई और मैं जिंदा बच गया. पुलिस केस बना, कार्यवाही हुई. अब जिंदगी की तो छोड़ो, उस लकड़ी की टांग तक की हिफाजत करता हूं. बदनामी होने से शादी भी नहीं हुई. पहले से अधिक दुखी जीवन है, फिर भी मैं मजे में हूं. कोल्डड्रिंक व स्नैक्स की छोटी सी दुकान है. मैं बूढ़े मांबाप की उतनी देखरेख तथा दौड़भाग नहीं कर पाता, इस का अफसोस है. आज बीवीबच्चे होते तो जीवन और भी खूबसूरत होता. अब उस की कोशिश कर रहा हूं.’’

गलतियों से सबक लें

लता ने युवावस्था में प्यार किया और गर्भवती हो गई. प्रेमी ने साथ छोड़ दिया तो मरने की कोशिश की. मां को भनक लगी तो उन्होंने समझाया और उस का गर्भपात कराया. गलती से सबक ले कर लता ने अपना जीवन व्यवस्थित बनाया. वह कहती है, ‘‘शादी कर के 2 बच्चों के साथ खुश हूं. मैं ने दिल्ली विश्वविद्यालय से 3 महीने का काउंसलिंग का कोर्स किया. अब गरीब व भटके बच्चों की काउंसलिंग करती हूं. जीवन से बड़ी कोई चीज नहीं है.’’

जीवन है तो संघर्ष है

अकसर लोग संघर्ष व तनाव से घबरा कर उन्हें जड़ से खत्म करने की सोचते हैं. आत्महत्या कभी भी किसी भी समस्या का हल नहीं. जीवन की खूबसूरती ही दिनबदिन के संघर्ष से है. रात  न आए तो दिन का आना खुशगवार नहीं लगता. भूख और प्यास के बाद खानेपीने का आनंद ही कुछ और है.

फिलौसफी ही बदल गई

आज 16 हजार करोड़ रुपए के मालिक बन चुके एक व्यवसायी कहते हैं, ‘‘एक समय था जब मैं तौलिया लपेट कर पार्कों में अपने पहने हुए कपड़े धो कर सुखाता था. उस के 4 वर्ष बाद संघर्ष कम हुआ तो भी कूलरपंखा तक नहीं खरीद पाया. बिस्तर गीला कर के रात बिताता था. आज मैं जो कुछ हूं, उसी अभाव की बदौलत हूं. 2 बार आत्महत्या करने की सोची. अब सोचता हूं कि यदि आत्महत्या कर लेता तो जीवन के इस सुंदर रूप को न देख पाता.’’

जिजीविषा सब से खूबसूरत चीज

आत्महत्या की कोशिश करने वालों को समझाने वाले एक प्रोफैशनल मोटिवेटर कहते हैं, ‘‘मुझे बड़ेबड़े घर के लोग बुलाते हैं ताकि बच्चों को डिप्रैशन यानी अवसाद न हो. मैं उन्हें समझाता हूं कि जीव, जानवर इतने दुख के बावजूद नहीं मरते यानी आत्महत्या नहीं करते. क्या हम उन से भी गएगुजरे हैं? धरती पर एक इंच भी कच्ची जमीन हो तो वहां घास निकल आती है. यह है जीवन. जिजीविषा यानी जीने की इच्छा को सर्वोपरि महत्त्व दिया  जाए. शास्त्रों और आधुनिक ग्रंथों में भी आत्महत्या को निकृष्टतम कार्य माना गया है.’’

विवेकसम्मत जीवन

विवेकसम्मत जीवन गुजारना जरूरी है. केयरिंग, शेयरिंग, कृतज्ञता को महत्त्व दें. कोई दुख में हो तो उसे संबल दें. अवसाद से भरे लोगों का सहारा बन कर मनोचिकित्सक तक पहुंचाने में देरी न करें. क्षणभंगुर जीवन को लोग आत्महत्या द्वारा और विकृत बनाते हैं. जीवन का मजा संघर्षों से हारने में नहीं, बल्कि उन से पार पाने में है.

कठघरे में मुहूर्त

छत्तीसगढ़ के छोटे से जिले महासमुंद के नामी अधिवक्ता जयनारायण दुबे को शहर में हर कोई जानता है क्योंकि वे ज्योतिष के भी अच्छे जानकार हैं लेकिन यह उन का पेशा नहीं है. 28 जुलाई को जयनारायण  ने 1-2 नहीं बल्कि धर्म से जुड़े लोगों और धर्म को हांकने वाली 40 संस्थाओं को कानूनी नोटिस भेज एक ऐसे मुद्दे मुहूर्त पर सवालिया निशान लगा दिया जिसे ले कर आम लोग रोज लुटतेपिटते रहते हैं और आज तक यह नहीं समझ पाए कि मुहूर्त आखिर है क्या बला और इस की तुक और जरूरत क्या है?

जयनारायण दुबे का एतराज इस बात को ले कर था कि अगस्त के महीने में ही पड़े त्योहारों–हल षष्ठी और जन्माष्टमी के बाबत पंचांग अलगअलग तारीखें बता रहे थे यानी ये त्योहार 2 दिन मनाए जाने की व्यवस्था धर्माचार्यों और मठाधीशों ने कर रखी थी. तमाम त्योहारों, तिथियों और पर्वों के 2 दिन पड़ने पर अलगअलग मुहूर्त होने पर इन वकील साहब की दलील यह है कि इस से भक्तों में भ्रम फैलता है. जब ग्रहों की संख्या वही है, साल के दिन भी सभी के लिए उतने ही हैं तो पंचांगों की गणना में फर्क क्यों आ रहा है? अपनी बात में दम लाने के लिए जयनारायण बीते 3 वर्षों से जरूरी कागजात जुटा रहे थे. नोटिस देने से पहले उन्होंने वर्ष 1967 से ले कर 2014 तक के 10 प्रमुख पंचांगों का बारीकी से अध्ययन भी किया और साबित किया कि मुहूर्त में बड़ा गड़बड़झाला है.

ऐसा पहली बार हुआ कि कोई मुहूर्त को ले कर कानूनी रूप से जागृत हुआ और उसे कठघरे में खड़ा करने की हिम्मत भी दिखाई वरना मुहूर्त की गुलामी करते लोग कभी इस तरफ नहीं सोचते कि यह उन से पैसा झटकने भर की साजिश है. जयनारायण की इस दलील से हर कोई परिचित है कि हिंदुओं के अधिकांश त्योहार अब 2 दिन मनाए जाने लगे हैं ताकि लोग 2 दिन पैसा दें.

मुहूर्त : तुक क्या?

पंडेपुजारियों ने हर शुभ कार्य का पूजन शुभ मुहूर्त में ही किए जाने के इंतजाम कर रखे हैं वरना वे फल नहीं देते. हां, अशुभ कार्य लोग जब चाहें करने के लिए स्वतंत्र हैं.

शुभ और अशुभ का खौफ हमेशा से ही लोगों के सिर चढ़ कर बोलता रहा है जिस का सार यह है कि अगर शादी शुभ मुहूर्त में नहीं की गई तो दांपत्य टूट जाएगा, संतान नहीं होगी, किसी एक की मौत हो जाएगी या पतिपत्नी में कलह होती रहेगी. वे दुखी और तनाव में रहेंगे. हर टूटती शादी के बाबत यही कहा जाता है कि यह गलत मुहूर्त में हुई होगी. पतिपत्नी की जिद अहं और स्वभाव में भिन्नता की चर्चा कोई नहीं करता. नए घर में जा कर अगर सुखशांति से रहना है तो इस का भी मुहूर्त होता है, सोना या वाहन खरीदना है तो इस के भी मुहूर्त हैं. यात्रा के भी मुहूर्त होते हैं और व्यापारव्यवसाय शुरू करने के भी.

हमारा दैनिक जीवन किस तरह मुहूर्त के मकड़जाल में उलझा है, यह जान कर हैरत होती है कि शौच जाने का भी मुहूर्त (प्रथम) होता है और पुत्रप्राप्ति हेतु सहवास का भी विशेष मुहूर्त होता है. बिलाशक पिछड़ेपन और दयनीयता की इस से बेहतर मिसाल कोई और हो भी नहीं सकती. अदालतों में तलाक के और घरेलू विवादों के जो करोड़ों मुकदमे चल रहे हैं उन में कहीं इस मुहूर्त नाम के अजूबे का जिक्र नहीं होता. जाहिर है ऐसा सिर्फ इसलिए कि धर्म के दुकानदारों ने खुद को बचाने के लिए तलाक और घरेलू विवादों के लिए लोगों को कर्मों और किस्मत को कोसने का भी पाठ पढ़ा रखा है.

दिक्कत की बात यह नहीं है कि किसी भी पर्व या पूजन के 2-2 मुहूर्त क्यों हैं बल्कि अहम सवाल यह है कि मुहूर्त है ही क्यों.

सट्टे सा मुहूर्त

आम लोग नहीं जानते, न ही जानने की कोशिश करते और न बताया जाता कि मुहूर्त निकालता कौन है. दरअसल, मुहूर्त किसी सट्टे के नंबर की तरह है जो मुंबई और कल्याण से चल कर चंद सैकंडों में देश भर में फैल जाता है जिस में जीते हुए लोग खुश हो लेते हैं और हारे हुए अगली बार कौन सा नंबर लगाएं, इस सोचविचार में डूब जाते हैं. ग्रहनक्षत्रों का अपना विज्ञान है. धर्म और उस के तमाम क्रियाकलाप इन से कैसे संचालित हो सकते हैं. सट्टा प्रमुख रूप से 2 लोग खिलाते हैं. वैसे ही मुहूर्त भी प्रमुख रूप से 2 जगह से जारी होता है. पहला, पुरी पीठ से और दूसरा, ज्योतिष पीठ से, जिस के मुखिया इन दिनों शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद हैं जो इन दिनों साईंबाबा पूजन विवाद और हिंदू पुरुषों को संतान न होने पर दूसरे विवाह का अधिकार देने के बयान पर चर्चाओं में हैं.

पुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती भी स्वरूपानंद की तरह करोड़ों के आसामी हैं. इन दोनों का ही सनातन धर्म पर दबदबा इस कहावत से लगाया जा सकता है कि सूर्य दिशाओं के अधीन नहीं होता बल्कि वह जहां से उगता है वही पूर्व दिशा कहलाने लगती है. ठीक इसी तरह, शंकराचार्य धर्म के अधीन नहीं हैं. ये जो कह देते हैं वही धर्म हो जाता है.

अरबों की बादशाहत के शहंशाह ये दोनों हर साल हिंदू नववर्ष पर सालभर के तीजत्योहारों, पर्वों और शुभ कार्यों के मुहूर्त ठीक सट्टे के नंबरों की तरह जारी करते हैं जो देखते ही देखते हर घर में पंचांग की शक्ल में पहुंच जाते हैं. दैनिक अखबार भी रोजाना पंचांग और चौघडि़या प्रकाशित कर इस अंधविश्वास को हवा देने का काम करते हैं. हर जिले के प्रमुख पंडित यानी धर्माधिकारी के पास शंकराचार्यों के मठों से छपे हुए पंचांग पहुंचते हैं. इन्हीं पंचांगों की वजह से वे अपनी दुकान विश्वसनीयता का हवाला दे कर बगैर किसी विघ्न के चलाते हैं. पर इस का यह मतलब नहीं कि पंचांग या अखबार हाथ में होने पर लोगों को अपने मन से मुहूर्त निकालने का अधिकार मिल जाता है. दरअसल, यह इतनी गहरी साजिश है कि लोगों को आखिरकार जाना तो पंडों के पास ही पड़ता है. केवल पूजा के मुहूर्त लोग अखबारों में देख कर या न्यूज चैनल्स पर देख, बगैर पंडे के परामर्श के कर सकते हैं.

हालत ठीक वैसी ही है कि बुखार और हलका दर्द होने पर पैरासिटामोल की गोली खा लो. आराम न मिले तो जेब में पैसे ले कर डाक्टर के पास भागो. मुहूर्त के मामले में पंडा एक विशेषज्ञ डाक्टर की तरह होता है. शादी का मुहूर्त निकलवाने पंडे के पास ही जाना पड़ता है जो वर व वधू की जन्मपत्रियों, राशियों और ग्रहनक्षत्रों की गणना कर बताता है कि कौन सा समय शुभ रहेगा. यह दीगर बात है कि वह शुभ मुहूर्त उस वक्त का निकालता है जब उसे किसी दूसरे यजमान के यहां नहीं जाना होता. इसी तरह गृहप्रवेश का मुहूर्त गृहस्वामी की राशि के आधार पर तय किया जाता है.

कड़की का नाम नहीं

पूजन या पर्व के 2 दिनों या एक से ज्यादा मुहूर्तों से फायदा पंडों को ही है इसलिए जयनारायण दुबे को एतराज इस बात पर जताना चाहिए था कि जब कभी भी पूजन पाठ किया जा सकता है और पर्व मनाए जा सकते हैं तो मुहूर्त की जरूरत क्या है. और इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि जब इन के बगैर भी काम चल सकता है तो इन की जरूरत ही क्या है.

दरअसल, जरूरत पंडों को है जिन की रोजीरोटी ही मुहूर्त जैसे अंधविश्वासों से चलती है. मुहूर्त बताने के लिए दक्षिणा ली जाती है और पूजापाठ करने के लिए भी. फिर क्यों इन मुफ्तखोरों की जमात यह चाहेगी कि मुहूर्त को ले कर कोई अदालत जाए. अब पंडेपुरोहित कम हो चले हैं और यजमान बढ़ रहे हैं. मुहूर्त निकलवाने के लिए अब सनातनी चौखटों पर पैसे वाले पिछड़े और दलित भी बहुतायत से जाने लगे हैं. लिहाजा 2 दिन त्योहारपर्व मनाने की स्वीकृति और बहुत से मुहूर्तों का होना धर्माचार्यों व मठाधीशों के खुराफाती दिमाग की ही उपज समझ आती है जो अकसर धार्मिक विवाद फैला कर अपने शोरूम, अपने से छोटों की दुकानें और उन से भी छोटों की गुमटियां चलाए रखने के इंतजाम करते रहते हैं.

अब तो इन लोगों, जो धर्म के निर्माता और पालक हैं, ने पैसा कमाने के लिए नएनए हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए हैं. आमतौर पर धार्मिक मान्यता यह है कि पितृपक्ष के दिनों में खरीदारी नहीं करनी चाहिए, शुभकार्य भी इस दौरान वर्जित रहते हैं. अपनी ही थोपी इस मान्यता से पंडे 15 दिन बेरोजगार बैठे रहने को मजबूर होते हैं, इसलिए अब अखबारों और न्यूज चैनल्स के जरिए फतवा सा जारी कर देते हैं कि पितृपक्ष के दौरान ही फलां दिन इतने ग्रहनक्षत्रों का शुभ मुहूर्त बन रहा है जिस में सोने, चांदी और दीगर आइटमों की खरीदारी शुभ है.

इस बार तो पितृपक्ष में भी खरीदारी का मुहूर्त पंडों ने निकाल दिया. बीते 1 सितंबर को भोपाल के अखबारों में प्रमुखता से एक धर्माचार्य भंवरलाल शर्मा के हवाले से यह खबर छपी थी कि पितृपक्ष में इस बार खरीदारी शुभ है और वह समृद्धिकारक भी होगी. इस बाबत बाकायदा पितृपक्ष के दौरान पड़ने वाली तारीखों 11, 15, 16 और 19 सितंबर को शुभ बताया गया था. यह सलाह किस पंचांग या शंकराचार्य से ली गई थी, यह भंवरलाल शर्मा ने नहीं बताया, न ही यह कि किस धर्मग्रंथ में यह उल्लेख है. जाहिर है मकसद व्यापारियों को और खुद को फायदा पहुंचाना था.

यानी धर्म के इन ठेकेदारों की नजर में अशुभ सिर्फ एक ही काम है, वह है इन्हें दक्षिणा न देना और दक्षिणा लेने का कोई मौका ये चूकते नहीं. उलटे नएनए मौके पैदा करने लगे हैं. अब अकसर पुष्य नक्षत्र नाम का शुभ योग प्रकाशित, प्रसारित और प्रचारित किया जाता रहता है.

अक्ल से काम लें

इन योगों और मुहूर्तों से फायदा व्यापारियों को भी होता है और मीडिया को भी. लिहाजा यह तिकड़ी जम कर धर्म और मुहूर्त के नाम पर चांदी काट रही है. त्योहारों के दिनों में विज्ञापनों की बारिश मीडिया पर हो, यह हर्ज या एतराज की बात नहीं पर यह जरूर है कि कारोबार बढ़ाने के लिए वह मुहूर्त जैसे अंधविश्वासों को बढ़ावा देने की गलती करता है.

व्यापारी भी जानते हैं और एक हद तक मान भी लेते हैं कि मुहूर्त कुछ नहीं होता. असल मुहूर्त और धर्म पैसा होता है. इसे ग्राहकों की जेब से निकलवाने के लिए उन्हें पंडों का सहारा लेना पड़ रहा है तो बात हर्ज की उन्हें नहीं लगती. हजार दो हजार की दक्षिणा में अगर कोई पंडित पितृपक्ष में भी खरीदारी का मुहूर्त घोषित कर दे तो पूरे व्यापारी समुदाय को लाखों का फायदा होता है. इसी बात से एक मामूली सी बात यह भी साबित होती है कि मुहूर्त का कोई औचित्य वास्तव में है नहीं, यह पंडों की कारगुजारी भर है. अगर वाकई मुहूर्त में दम होता तो शुभ मुहूर्त में की गई शादियां टूटती नहीं, शुभ मुहूर्त में किए गए गृहप्रवेश में गृहकलह नहीं होती. लोगों को बीमारियां व रोजमर्राई परेशानियां नहीं होतीं.

आसानी से समझ आने वाली मुहूर्त की हकीकत बताती मिसाल आम चुनाव है जिन में सभी दलों के प्रत्याशी पंडित से शुभ मुहूर्त पूछ कर ही परचा दाखिल करने के लिए चुनाव अधिकारी के यहां जाते हैं, फिर भी जीतता एक ही है. यह तो पंडों की धूर्तता की इंतहा ही है कि इस बाबत पूछने पर वे बड़ी ढिठाई से जवाब यह देते हैं कि जीते प्रत्याशी के ग्रहनक्षत्र हारे हुए से ज्यादा प्रबल थे. अब पंडितजी से यह कोई नहीं पूछता कि जब प्रबल ग्रहनक्षत्र ही जिताते हैं तो मुहूर्त की जरूरत क्या थी? यह बात सीधे पहले चुनाव आयोग को क्यों नहीं बता दी जाती जिस से अरबों का चुनावी खर्च बचे.

आजादी पर अंकुश

ऐसे जवाब सीता वनवास और कृष्ण की असमय मौत सहित ढेरों प्रसंगों में वे देते हैं. धर्म का तानाबाना दरअसल बुना ही इस तरह गया है कि कोई इस की प्रासंगिकता पर उंगली उठाए तो उसे निरुत्तर कैसे किया जाए. इस पर भी बात न बने तो हरि या ऊपर वाले की इच्छा का ब्रह्मास्त्र चला कर बात समाप्त कर दी जाती है. मुहूर्त के चक्कर में नुकसान आम लोगों का होता है. शादीविवाह के मौसम में उस से जुड़ी हर चीज महंगी हो जाती है, त्योहारों पर घासफूस तक महंगे दामों में पूजा के लिए खरीदनी पड़ती है. और सब से नुकसानदेह बात एक जकड़न भरी मानसिकता में जिंदगीभर के लिए खुद और आने वाली पीढ़ी को भी फंसा देना है जो आजादी और अपनी मरजी से जीने की इजाजत नहीं देती.

ऐसे में जयनारायण दुबे की पहल स्वागत योग्य है. यह और भी प्रभावी साबित हो सकती है जब कोई यह नोटिस धर्म के दुकानदारों को दे कि मुहूर्त की प्रामाणिकता और जरूरत क्यों है. इस का दूसरा मतलब सीधा सा यह भी निकलता है कि मुहूर्त कुछ होता ही नहीं. जब भी अच्छे मन से बगैर किसी डर या आशंका के शुभ कार्य किया जाए वही असली मुहूर्त है. शुभ मुहूर्त बताने वाला कोई पंडा कार्यसिद्धि की लिखित गारंटी क्यों नहीं लेता, इस पर भी लोगों को विचार करना चाहिए.   

घर में करें मिलावट की जांच

यह वही दौर है जिस में सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ रही है. लोग स्वास्थ्य नियमों का पालन कर रहे हैं, कसरत कर रहे हैं. साफसफाई व स्वच्छता पर भी ध्यान दे रहे हैं और इन से ताल्लुक रखते उत्पादों का पहले से कहीं ज्यादा इस्तेमाल भी कर रहे हैं लेकिन ये सावधानियां बेफिक्री नहीं, एक झूठी तसल्ली भर देती हैं. वजह, हर चीज में मिलावट है जिस से बच पाना आसान नहीं. मिलावटखोरी कितने शबाब पर है, इस की गवाही विभिन्न एजेंसियों के आंकड़े भी देते हैं और सुप्रीम कोर्ट की यह तल्ख टिप्पणी भी कि दूध में मिलावट करने वालों को उम्रकैद की सजा होनी चाहिए.

कानूनी खामियों व जानकारियों के अभाव में मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति के शिकार आम लोगों की स्थिति मिलावटखोरों के सामने मेमनों सरीखी है जिस में बड़ी दिक्कत यह है कि मिलावट का खेल अब खेतों से ही शुरू होने लगा है जो फुटकर दुकानों से बड़ीबड़ी फैक्टरियों और फूड प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियों तक पसरा हुआ है. रोज लाखों लोग मिलावटी खाद्य पदार्थों के इस्तेमाल के चलते छोटीबड़ी बीमारियों का शिकार हो कर डाक्टरों के पास भागते हैं. अस्पतालों और नर्सिंग होम्स में भरती हो कर महंगा इलाज कराते हैं और अगर ठीक हो गए तो फिर मिलावटखोरी का शिकार होने दोबारा वहीं जाने की तैयारी में जुट जाते हैं.

मिलावट आमतौर पर दिखती नहीं, समझ तब आती है जब पेट में मरोड़े उठती हैं. बिलाशक मिलावट लाइलाज मर्ज है और कानून भी इस के सामने बेबस है. सरकारी विभागों, खासतौर से खाद्य विभाग से किसी तरह की उम्मीद रखना फुजूल की बात है जिस के मुलाजिम मिलावटखोरों के हमदम हैं और लोगों की सेहत व जिंदगी से खिलवाड़ करने की शर्त पर घूस खाते हैं. मिलावट कभी नंगी आंखों से नहीं दिखती, इस की जांच के लिए कुछ रसायनों और साधारण उपकरणों की जरूरत होती है. अगर इन का इस्तेमाल घर में ही किया जाए तो एक हद तक इन से बचा जा सकता है.

दूध और डेयरी प्रोडक्ट

दूध और इस के उत्पादों में कई तरह की मिलावटी चीजें मिलाई जाती हैं. इन में सब से ज्यादा मिलाई जाने वाली चीजें स्टार्च और अरारोट हैं. इन्हें मावा और पनीर में भी मिलाया जाता है. स्टार्च से दूध में गाढ़ापन आता है और उस की मात्रा भी बढ़ जाती है. स्टार्च की ज्यादा मात्रा से पेट संबंधी तरहतरह की बीमारियां होती हैं. पाचनतंत्र गड़बड़ा उठता है और उल्टी, दस्त होने लगते हैं. स्टार्च से दूध और उस के उत्पादों के पोषक तत्त्व भी नष्ट हो जाते हैं.

घर में मिलावट की जांच बेहद आसान है. 5-10 ग्राम दूध ले कर उसे परखनली में डालें और उस में 20 मिलीलिटर साफ पानी मिला कर इसे उबालें. ठंडा होेने पर 2 बूंद तरल आयोडीन उस में मिलाएं. अगर सैंपल नीले रंग में तबदील हो जाए तो समझ लें कि उस में स्टार्च की मिलावट है.

हरी सब्जियां

भोपाल के नवोदय अस्पताल के ओंकालौजिस्ट डा. श्याम अग्रवाल कहते हैं कि मिलावटी सब्जियों के लगातार इस्तेमाल से भी कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ रही है. सब्जियों को ताजी और हरी दिखाने के लिए कैमिकल्स मिलाए जाते हैं. व्यापारी ही नहीं, अब तो अन्नदाता कहे जाने वाले किसान भी मिलावट के जानलेवा खेल के खिलाड़ी बन गए हैं जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए अंधाधुंध तरीके से कीटनाशकों व उर्वरकों का ज्यादा प्रयोग करने लगे हैं. कच्ची सब्जियों में हार्मोंस के इंजैक्शन भी ये लगाते हैं. जाहिर है सब्जियां अब ज्यादा और जल्द पैसों के लिए अप्राकृतिक रूप से उगाई जा रही हैं.

मेलाकाइट ग्रीन स्वास्थ्य के लिए एक खतरनाक रसायन है जो एक और्गेनिक कंपाउंड है. इस का इस्तेमाल डाई करने के लिए किया जाता है लेकिन आजकल इस का इस्तेमाल खेतों और मंडियों के अलावा फुटकर सब्जी विक्रेता भी कर रहे हैं. इस के इस्तेमाल से सब्जियां हरी दिख कर चमकने लगती हैं, जिस से उपभोक्ता समझता है कि सब्जी ताजी है और वह ज्यादा दाम दे कर खरीद लेता है.

मेलाकाइट ग्रीन का लगातार पेट में जाना छोटीमोटी से ले कर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों की वजह बनता है. यह बात तमाम शोधों से साबित भी हो चुकी है. हरी मटर, भाजियों, हरी मिर्च और कद्दूवर्गीय हरी सब्जियों को रंगने में इस का दुरुपयोग होता है. जितना खतरनाक यह रसायन है उस की जांच कहीं ज्यादा आसान है. सब्जी का नमूना ले कर उसे ब्लौटिंग पेपर पर रखें. रखने से पहले ब्लौटिंग पेपर को पानी से हलका गीला कर लें. 2 मिनट में ही नतीजा सामने आ जाता है. अगर ब्लौटिंग पेपर पर धब्बे आ जाएं तो समझ लें कि उस में मेलाकाइट ग्रीन की मिलावट है.

दालें

सब्जियों और फलों में मेलाकाइट ग्रीन जैसे जानलेवा कैमिकल की मिलावट से दहशत में आए जो लोग दालों के इस्तेमाल को सुरक्षित समझते हैं वे दरअसल गलतफहमी में हैं. मिलावटखोरों द्वारा घरों में सब से ज्यादा खाई जाने वाली तुअर (अरहर) के अलावा चने व मसूर की दालों में दूसरी डाई मेटानिल यलो का इस्तेमाल किया जाता है जिस से दालें चमकती दिखती हैं. खेसरी दाल की मिलावट भी आम है जो मूलरूप से खरपतवार है और बेहद नुकसानदेह है. कैंसर विशेषज्ञ मानते हैं कि मेटानिल यलो में कैंसर पैदा करने वाले तत्त्व पाए जाते हैं. पेट संबंधी बीमारियां तो इस के इस्तेमाल से ही शुरू हो जाती हैं जिन में बदहजमी और संक्रमण प्रमुख हैं.

मेटानिल यलो की मिलावट की जांच के लिए एक चम्मच सैंपल ले कर उसे 20 मिलीलिटर कुनकुने पानी में अच्छी तरह हिला कर मिलाएं और इस में 2-4 बूंदें हाइड्रोक्लारिक एसिड की मिलाएं. पानी का रंग यदि बैगनी या गुलाबी हो जाए तो समझ लें कि सैंपल में मेटानिल यलो की मिलावट की गई है.

सरसों या राई

देश के उत्तरी इलाके में खाने में सरसों व उस से बने तेल का ज्यादा इस्तेमाल होता है. राई सरसों की ही एक किस्म है. इन के दाने बेहद चिकने व छोटे होते हैं, सरसों का तेल अगर शुद्ध हो तो सीधा आंखों में इतना चुभता है कि उस के तीखेपन से आंख में पानी आ जाता है पर ऐसा आजकल नहीं होता. वजह, मिलावट ही है. तेल की मात्रा बढ़ाने के लिए सरसों में इन से मिलतेजुलते दाने वाले पौधे भटकटैया यानी आर्जीमोन की मिलावट की जाती है. यह एकदम जहरीला तो नहीं पर लगातार इस्तेमाल किया जाए तो किसी जहर से कम असर नहीं डालता. आर्जीमोन की मिलावट से बना सरसों का तेल एपिडेमिक ड्रौप्सी बीमारी की वजह होता है. ग्लूकोमा नाम की खतरनाक बीमारी का अंदेशा भी इस से रहता है.

सरसों या राई मसाले के रूप में खाई जाए या तेल के रूप में, आर्जीमोन की मिलावट पहचानने के लिए इस के दानों को तोड़ कर देखा जाना ही बेहतर होता है. राई या सरसों के दानों की पहचान इन की चिकनाहट से होती है और तोड़ने पर ये अंदर से पीले रंग के होते हैं. इसलिए खरीदने के पहले कुछ दानों को हथेली में ले कर उपरोक्त तरीके से पहचान करना बेहतर होता है.

आइसक्रीम

बच्चे तो बच्चे, बड़े भी आइसक्रीम चाव से खाते हैं पर अब आइसक्रीम भी मिलावट से अछूती नहीं रही है. इन्हें स्थानीय निर्माता भी बनाते और बेचते हैं और कई नामी कंपनियां भी अलगअलग फ्लेवर में अपने ब्रांड नाम से बेचती हैं. ठंडी और जायकेदार आइसक्रीम में मात्रा बढ़ाने के लिए डिटरजैंट पाउडर की मिलावट की जाती है. इस से पेट की बीमारियां होती हैं और लंबे वक्त तक सेवन से लिवर भी खराब होता है. आइसक्रीम में डिटरजैंट की मिलावट की जांच या पहचान करना बेहद आसान है. इस पर कुछ बूंदें नीबू के रस की गिराएं. अगर बुलबुले उठें या झाग बनें तो समझ लें कि आइसक्रीम में डिटरजैंट पाउडर की मिलावट है.

और भी हैं मिलावटें

इन प्रमुख खाद्य पदार्थों के अलावा रोजाना इस्तेमाल में आने वाले दूसरे आइटमों में भी तबीयत से मिलावट की जाती है. शक्कर इन में प्रमुख है जिस का इस्तेमाल रोज होता है. शक्कर की मात्रा बढ़ाने के लिए छोटेबडे़ दोनों पैमानों पर इस में चाक पाउडर मिलाया जाता है जो पेट के लिए काफी नुकसानदेह साबित होता है. शक होने पर इस की जांच के लिए 10-25 ग्राम शक्कर ले कर एक गिलास में घोलें. थोड़ी देर बाद चाक पाउडर नीचे बैठा साफ दिखाई देता है.

कालीमिर्च में पपीते के बीजों को मिलाना बेहद आम और प्रचलित है. यह मिलावट भी वजन बढ़ाने के लिए की जाती है. पपीते का बीज लिवर के लिए नुकसानदेह होता है. जांच के लिए सैंपल को एल्कोहल में डालें. मिलावट होगी तो पपीते का बीज एल्कोहल में तैरता रहेगा और कालीमिर्च नीचे बैठ जाएगी. mचावल और मैदा जैसे खाद्य पदार्थ भी बड़े पैमाने पर मिलावट की गिरफ्त में हैं. इन में खतरनाक बोरिक एसिड की मिलावट की जाती है जो कई बीमारियों की वजह बनता है. जांच के लिए सैंपल को पानी में भिगोएं और उस पर हाइड्रोक्लोरिक एसिड मिलाएं. अब इस में टरमरिक पेपर स्ट्रिप डालें. अगर यह पेपर लाल हो जाए तो तसल्ली कर लें कि चावल या मैदे में बोरिक एसिड मिलाया गया है.

कौफी में चिकोरी पाउडर की मिलावट होती है. इस के इस्तेमाल से डायरिया और जोड़ों का दर्द होना तय होता है. नामी कंपनियों की कौफी में मिलावट की शिकायतें कम ही आती हैं पर छोटे पैमाने की मिलावट अकसर पकड़ी जाती है. इस की जांच घर पर आसानी से की जा सकती है. थोड़ा सा पाउडर पानी में डालने से चिकोरी पाउडर नीचे बैठ जाता है और कौफी पाउडर पानी में ऊपर तैरता रहता है.

समस्याएं और समाधान

घर में मिलावट की जांच के सामान और रसायन किसी भी साइंस सैंटर यानी प्रयोगशाला का सामान बेचने वाली दुकानों पर मिल जाते हैं जो हर छोटेबड़े शहरों में हैं. आमतौर पर इन दुकानों की जानकारी आम लोगों को नहीं होती इसलिए किसी भी हाईस्कूल या कालेज की प्रयोगशाला से इसे हासिल किया जा सकता है. जांच के ये सामान बहुत ज्यादा महंगे भी नहीं होते. घर में मिलावट की जांच से समस्या पूरी तरह हल नहीं होती है. इस से लोग मिलावटी सामान के इस्तेमाल और उन से होने वाले नुकसानों से खुद को बचा सकते हैं.

शुद्ध खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है जिस पर कोई सरकार खरी नहीं उतरती. मिलावट की जांच और कार्यवाही करने वाले खाद्य और आबकारी महकमे घूसखोरी में गले तक डूबे हैं. खाद्य सुरक्षा अधिनियम में एक खामी यह भी है कि उस में मिलावटियों को सजा का उल्लेख रस्म अदा करने के रूप में ही है. बेहतर तो यह होगा कि शुद्ध और मिलावट रहित खाद्य पदार्थों को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में शामिल किया जाए.

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