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क्रिकेट को चुनौती

भारत ने 17वें एशियाई खेलों में कुल 57 पदक जीते. इन में 11 स्वर्ण, 10 रजत और 36 कांस्य पदक शामिल हैं. इस बार अच्छी बात यह रही कि 16 वर्ष बाद हौकी ने गोल्ड पदक जीत कर सब का मन खुश कर दिया, क्योंकि राष्ट्रीय खेल हौकी की दुर्दशा से खेल प्रेमियों का दिल इस खेल से हटता जा रहा था और अब रियो ओलिंपिक में हौकी की जगह पक्की हो गई है तो सारा देश झूम उठा.

हौकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद जब खेलते थे तो लोग हौकी के दीवाने थे लेकिन 80 के दशक के बाद हौकी का स्तर गिरता गया. जब वर्ष 1983 में भारत क्रिकेट में कपिलदेव के नेतृत्व में वर्ल्ड चैंपियन बना तो पूरा देश क्रिकेट के प्रति दीवाना होता चला गया और आज क्रिकेट का स्थान वही है जो कभी हौकी का हुआ करता था. बहरहाल, हौकी खिलाडि़यों ने जो कमाल दिखाया है उस से खेल प्रशंसकों में उम्मीद जागी है. पिछले कुछ वर्षों से क्रिकेट की टीआरपी घटी है. लोगों का मन अब क्रिकेट से ऊब रहा है. कहा जाने लगा है कि अब क्रिकेट खेल नहीं रहा, यह खेल सट्टेबाजों का, बड़ेबड़े कारोबारियों और उद्योगपतियों का जमावड़ा बन कर रह गया है.

अब तो क्रिकेट मैच के दौरान विज्ञापनों की दर भी कम हो गई है. पहले विज्ञापन बाजार का 90 फीसदी पैसा क्रिकेट पर जाता था लेकिन अब यह महज 70 फीसदी रह गया है. जाहिर है दूसरे खेलों से क्रिकेट को भारी चुनौती मिल रही है.

प्रो कबड्डी लीग में बड़ेबड़े सितारों ने कबड्डी टीमों को खरीदा और इस का खूब प्रचारप्रसार किया गया. इस का नतीजा यह रहा कि 4.35 करोड़ दर्शकों ने इस लीग को टैलीविजन पर देखा. वहीं अगर पिछले आईपीएल मैच की बात करें तो इसे देखने वाले दर्शकों की संख्या 5.52 करोड़ थी. इसे बहुत ज्यादा अंतर नहीं कहा जा सकता लेकिन इस से साफ है कि इस देश में क्रिकेट को धर्म समझने वाले लोग भी अब धीरेधीरे अन्य खेलों की तरफ रुचि लेने लगे हैं. इस से क्रिकेट के आकाओं की चिंता बढ़नी लाजिमी है.

70 दिनों का महासंग्राम

पहले क्रिकेट फिर हौकी, बैडमिंटन, कबड्डी और अब फुटबाल को मुनाफे की मंडी बनाने के लिए लीग का फार्मूला रचा गया है. कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में फुटबाल लीग यानी आईएसएल के महासंग्राम का आगाज हुआ. कहा जा रहा है कि अब भारत में फुटबाल की दुनिया बदलने जा रही है. इस लीग में 8 टीमें हिस्सा ले रही हैं. इस की कुल इनामी राशि 35 करोड़ रुपए है. विजेता टीम को 15 करोड़ रुपए दिए जाएंगे. बाकी रुपए उपविजेता और अन्य टीमों में बांट दिए जाएंगे. इस लीग में 14 भारतीय खिलाडि़यों के अलावा 94 विदेशी खिलाड़ी होंगे. और सभी टीमों में एक मार्की खिलाड़ी होगा.

इस लीग में टीम के मालिकों में बौलीवुड के बड़ेबड़े स्टार, अभिषेक बच्चन, रितिक रोशन, जौन अब्राहम और रणबीर कपूर के अलावा क्रिकेटर महेंद्र सिंह धौनी, सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली व विराट कोहली शामिल हैं. जहां तक टीमों की बात करें तो एटलेटिको डी, चेन्नइयन एफसी, कोलकाता, दिल्ली डायनामोज, एफसी गोआ, केरल ब्लास्टर्स, नौर्थ ईस्ट यूनाइटेड एफसी, मुंबई सिटी एफसी के अलावा एफसी पुणे जैसी टीमें शामिल हैं. इस लीग से भारतीय फुटबाल का कितना भला होगा इस पर खेल विशेषज्ञों की राय अलगअलग है. लेकिन इतना तय है कि छोटे स्तर के खिलाडि़यों को बड़ेबड़े खिलाडि़यों के साथ खेलने का मौका जरूर मिलेगा. यह कदम देश में फुटबाल की स्थिति सुधारने में कारगर साबित होगा. साथ ही उन खिलाडि़यों का आर्र्थिक स्तर भी सुधरेगा जो पैसों की कमी के चलते आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं.

क्रिकेट के अलावा देश में बैडमिंटन, हौकी और कबड्डी की भी ऐसी लीग बन चुकी है जिन्हें ग्लैमर की चाशनी में लपेट कर कमाऊ बनाया गया है. ऐसे में फुटबाल की यह लीग भी अपने मिशन में कामयाब होती दिख रही है.

कहर बरपाते शिकारी

27 फरवरी, 2014. समय दोपहर के 3.30 बजे. एक ओर उद्यान में अवैध शिकारी और वन विभाग के पुलिसकर्मियों के बीच मुठभेड़ चल रही थी तो वहीं दूसरी ओर एक अन्य शिकारी दल बेरहमी से एक गैंडे की गोली मार कर हत्या कर देता है और उस के कीमती सींग निकाल कर फरार हो जाता है. मुठभेड़ की जगह से शिकारी गिरोह के 2 सदस्यों की लाशें पाई जाती हैं और भारी मात्रा में हथियार व गोलियां बरामद की जाती हैं. हैवानियत की ऐसी घटनाएं विश्व- विख्यात असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में आएदिन घटती हैं. अवैध शिकारी बड़े ही निर्दयी होते हैं. पहले वे घात लगा कर गैंडे को गोली मारते हैं, फिर कुल्हाड़ी से सींग काट लेते हैं. आखिरकार गैंडा दम तोड़ देता है. काजीरंगा समेत असम के तमाम राष्ट्रीय उद्यानों में अवैध शिकारियों के कहर से गैंडों के जीवन पर सवाल उठ रहा है कि आखिर वे जाएं तो जाएं कहां?

मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के चहेते वनमंत्री रकीबुल हुसैन के कार्यकाल के दौरान तकरीबन 200 से अधिक गैंडों की हत्या हो चुकी है. 2014 के फरवरी महीने में 8 गैंडों की हत्या की जा चुकी है, इस के अलावा 2013 में सूबे के उद्यानों से शिकारियों ने 40 गैंडों को मार कर सींग निकाल लिए हैं. बुढ़ापहाड़ वनांचली में अवैध शिकारियों ने 11 अन्य गैंडों की हत्या कर दी. एक के बाद एक गैंडों की हत्याएं की जा रही हैं और वन विभाग बेशर्मी से तमाशा देख रहा है. ऐसा लगता है, वन विभाग ने इन शिकारियों को गैंडों की हत्या करने व उन के सींग निकालने की छूट दे रखी है.

गैंडों की हत्या करने और उन के कीमती सींग निकालने की घटना को बयां करने से पहले 1 सींग वाले गैंडे के लिए विश्वविख्यात काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का यहां जिक्र करना जरूरी है. मध्य असम में बसे और 430 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में 1 सींग वाले गैंडे के अलावा हाथी, बाघ, भालू, चीते, भेडि़या, अजगर, लंगूर आदि सैकड़ों पशुपक्षियों का निवास है. यह पूर्वी भारत के अंतिम छोर का ऐसा उद्यान है जहां इंसान के रहने का नामोनिशान तक नहीं है. ब्रह्मपुत्र नदी के पश्चिमी किनारे पर घने पहाड़ों की तलहटी पर बसे काजीरंगा को 1908 में रिजर्व फौरेस्ट और 1950 में वाइल्ड लाइफ सैंचुरी घोषित किया गया. 1985 के दौरान यूनेस्को ने काजीरंगा को वर्ल्ड हैरिटेज साइट घोषित किया.

1 सींग वाले गैंडों को बचाना आज एक बड़ी समस्या बन कर उभरी है. काजीरंगा के अलावा मानस लाउखोवा और पवितरा समेत तमाम उद्यानों में गैंडे की हत्या बदस्तूर जारी है. 18वीं और 19वीं सदी में गैंडों की हत्या करने की घटनाएं जोरों से होनी शुरू हुई थीं और इसी वजह से इन की संख्या तेजी से घटने लगी. 19वीं सदी के समय सरकारी दस्तावेजों के अनुसार सेना के बड़े अधिकारियों ने 200 गैंडों को मार डाला था. घटना का परदाफाश तब हुआ जब गैंडों की जनगणना हुई. इन की संख्या मात्र 12 रह गई थी. गैंडे की हत्या सिर्फ इस के सींग के लिए की जाती है. काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में 2012 की जनगणना के अनुसार, 2,505 गैंडों के स्थान पर 2,186 गैंडे ही पाए गए. 524 गैंडों की हत्या कर उन के सींग निकाल लिए गए. आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि पिछले 10 सालों के दौरान 115 गैंडों की हत्या की गई और उन के सींग निकाल लिए गए.

भूमिगत उग्रवादी भी शामिल

गैंडों की हत्या ज्यादातर रात के वक्त की जाती है. शिकारी हाथों में हथियार और सींग निकालने के लिए कुल्हाड़ी ले कर गैंडों के शिकार के लिए निकलते हैं. दूसरी ओर बरसात के दिनों में काजीरंगा उद्यान में बाढ़ की स्थिति होने के कारण गैंडे तथा अन्य जीवजंतुओं के जान बचाने के लिए किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में उद्यान से बाहर निकलने के वक्त, शिकारी दल घात लगाए रहते हैं और मौका मिलते ही गोली चला देते हैं. शिकारियों के खिलाफ कभीकभार वनकर्मी अभियान चलाते हैं. अभियान के दौरान कई अवैध शिकारियों को गैंडे के सींग के साथ पकड़ा भी गया है.

गैंडे की हत्या करने की करतूत में असम के कुछ भूमिगत उग्रवादी संगठनों के शामिल होने की बातें भी सामने आई हैं. 2012 में आई भीषण बाढ़ से काजीरंगा में कम से कम 700 जीवजंतुओं की मौतें हुई थीं, वहीं कुछ हथियारबंद उग्रवादी संगठन शिकार की तलाश में घूम रहे थे कि काजीरंगा उद्यान के पुलिसकर्मियों ने लिंगदोह रंग्पी को गिरफ्त में ले लिया था. उस ने कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने कुबूला कि वह कुकी नैशनल लिबरेशन फ्रंट का सदस्य है. और इस समय वह शांति समझौते वाले गुट का साथी है. उस का कहना था कि कुछ सदस्य शिकारियों के साथ मिल कर गैंडे की हत्या कर के उस के सींग निकाल लिया करते हैं. दूसरी ओर उल्फा आतंकवादी संगठन के कुछ कैडर के भी इस धंधे में शामिल होने की बात बताई जा रही है. वैसे तो शिकारियों पर नजर रखने के लिए काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में 8 जगहों पर इलैक्ट्रौनिक कैमरे लगे हैं, बावजूद इस के गैंडे का शिकार बदस्तूर जारी है. वन अधिकारियों के ढुलमुल रवैये के कारण शिकारियों को किसी का भय नहीं है.

शिकारियों द्वारा मारे गए गैंडों की सूची 1962 से फरवरी 2014 तक

वर्ष     काजीरंगा      मानस  उरांग   पवितरा लाउखोवा

1962  1     ×     ×     ×     ×

1963  1     ×     ×     ×     ×

1964  1     ×     ×     ×     ×

1965  18    ×     ×     ×     ×

1966  6     ×     ×     ×     ×

1967  12    ×     ×     ×     ×

1968  10    ×     ×     ×     ×

1969  08    ×     ×     ×     ×

1970  02    ×     ×     ×     ×

1971  08    ×     ×     ×     ×

1972  0     ×     ×     ×     ×

1973  03    ×     ×     ×     ×

1974  03    ×     ×     ×     ×

1975  05    ×     ×     ×     ×

1976  10    04    ×     ×     ×

1977  0     ×     ×     ×     ×

1978  05    1     ×     ×     ×

1979  02    05    ×     ×     ×

1980  11    03    03    03    03

1981  24    02    02    06    04

1982  25    05    ×     05    08

1983  37    03    04    41    07

1984  28    04    03    04    06

1985  44    1     08    02    ×

1986  45    1     03    ×     ×

1987  23    07    04    02    ×

1988  24    01    05    01    ×

1989  44    06    03    03    ×

1990  35    02    ×     02    ×

1991  23    03    01    01    ×

1992  49    11    02    03    ×

1993  40    22    01    04    ×

1994  14    ×     ×     04    ×

1995  27    ×     ×     02    ×

1996  26    ×     ×     05    ×

1997  12    ×     ×     03    ×

1998  08    ×     ×     04    ×

1999  04    ×     ×     06    ×

2000  04    ×     ×     02    ×

2001  08    ×     ×     ×     ×

2002  04    ×     ×     ×     ×

2003  03    ×     ×     ×     ×

2004  04    ×     ×     ×     ×

2005  07    ×     ×     ×     ×

2006  07    ×     ×     ×     ×

2007  21    ×     ×     ×     ×

2008  16    ×     ×     ×     ×

2009  15    ×     ×     ×     ×

2010  18    ×     ×     ×     ×

2011  09    ×     ×     ×     ×

2012  25    ×     ×     ×     ×

2013  20    ×     ×     ×     ×

2014  08    ×     ×     ×     ×

कीमती होता है गैंडे का सींग

गैंडे का सींग कीमती होता है. यही कारण है कि शिकारियों के दल काजीरंगा समेत असम के तमाम उद्यानों से गैंडों की हत्या कर के उन के सींगों को चोरीछिपे अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में पहुंचा दिया करते हैं, जहां इन के सींग 40 लाख से 90 लाख रुपए तक बेचे जाते हैं. गैंडे का चमड़ा तथा नाखून बहुत महंगे होते हैं. चमड़े से महंगे जैकेट, बैग, पर्स वगैरह तैयार किए जाते हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऊंचे दामों में बेचे जाते हैं.

मदरसा आधुनिकीकरण से उठते सवाल

केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा मदरसों के आधुनिकीकरण का मुद्दा हर दिन एक नई बहस का दरवाजा खोल रहा है. कभी कहा जा रहा है कि इस का मकसद मदरसों के गंतव्य पर प्रहार करना है तो कहीं चर्चा है कि इस के द्वारा सरकार मदरसों को अपने अधीन लाना चाहती है. फिलहाल इस की कोई स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं आई है. आम धारणा यही है कि इस के द्वारा सरकार मदरसा पाठ्यक्रम में आधुनिक कोर्स जैसे विज्ञान, गणित, अंगरेजी और कंप्यूटर आदि को शामिल करना चाहती है. वास्तव में सरकार ने यह बयान दे कर एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है.

एक तो यह कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या मदरसा आधुनिकीकरण के खिलाफ है यानी वह आधुनिक शिक्षा हासिल नहीं करती जो उन के पिछड़ेपन का बड़ा कारण है, दूसरा यह कि सरकार मदरसा पाठ्यक्रम में सुधार करना चाहती है जिस की मांग धार्मिक ताकतों की ओर से लगातार की जाती रही है.

जहां तक मुसलिम मदरसों का मामला है इस में बहुत थोड़ी तादाद में बच्चे जाते हैं. इस का कोई सर्वे नहीं किया गया है. सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में देश में मुसलमानों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति पर यह निष्कर्ष निकाला कि 96 फीसदी मुसलिम बच्चे तो आधुनिक शिक्षा ग्रहण करते हैं, मात्र 4 फीसदी मुसलिम बच्चे मदरसे में जाते हैं, उन्हें आधुनिक शिक्षा दी जाए. वैसे यह योजना सच्चर रिपोर्ट से पहले 90 के दशक में सरकार ने शुरू की थी. इस के तहत अब तक सिर्फ कुछ मदरसों में आधुनिक विषयों को पढ़ाया जा रहा है जिन का वेतन केंद्र सरकार की मदरसा आधुनिकीकरण योजना द्वारा दिया जाता है. लेकिन कईकई महीने इन मदरसों के शिक्षकों को वेतन नहीं मिलता है. इस से सरकार की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है.

एक बड़ी समस्या यह है कि सरकार मदरसा आधुनिकीकरण की तो बात करती है और जिन मदरसों में उस ने आधुनिक शिक्षा का प्रबंध किया है उन में से किसी मदरसे को मौडल मदरसा नहीं बनाया है कि जिसे एक मौडल के रूप में दूसरे मदरसों के सामने पेश किया जा सके.

ज्ञान को धर्म के आधार पर बांटा

जमीअत उलेमा हिंद के सचिव व प्रवक्ता मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी कहते हैं कि जो मदरसे सरकार के अधीन हैं उन का हाल यह है कि वहां बुखारी और तिरमिजी जैसी हदीस की किताबें पढ़ाने वाला कोई नहीं है. ऐसी सूरत में मदरसे का मकसद ही खत्म हो जाएगा. वैसे प्रधानमंत्री के 15-सूत्रीय कार्यक्रम, जो अल्पसंख्यकों के विकास और उन की उन्नति हेतु हैं, में मदरसा आधुनिकीकरण शामिल है.

मदरसों से इसलाम की शिक्षादीक्षा एवं विशेषज्ञता हासिल की जाती है और इस संदर्भ में शिक्षा का विभाजन यानी आधुनिक और दीनी शिक्षा को अलग करने की इसलाम में कोई अवधारणा नहीं है लेकिन ऐसा हो गया है कि ज्ञान को धर्म के आधार पर बांट दिया गया है. आधुनिक शिक्षा हासिल करने वाले दीनी यानी मदरसा शिक्षा हासिल करने वालों को कम समझते हैं तो दीनी शिक्षा हासिल करने वाले आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वालों की मानवीयता को संदेह से देखते हैं. दोनों के बीच का विरोधाभास, स्थिति को और भी जटिल बना देता है. इस परिपेक्ष्य में जब कभी मदरसा आधुनिकीकरण की बात आती है तो मदरसे वाले इस का खुल कर विरोध करते हैं.

जहां तक मदरसा पाठ्यक्रम में समय के अनुसार बदलाव करने की बात है तो यह मुद्दा समयसमय पर उठता रहा है लेकिन मदरसा प्रबंधकों की ओर से कोई ऐसी पहल सामने नहीं आई जिसे सरकार के मदरसा आधुनिकीकरण के जवाब में पेश किया जा सके. इसी आधार पर यह कहा जाता है कि इस विरोध के पीछे मदरसों का अपना हित है और वे नहीं चाहते हैं कि सरकार मदरसों में हस्तक्षेप कर उन के एकछत्र राज्य को खत्म करे. सरकार के अधीन आने का मतलब है हिसाबकिताब पूरा रखना और समय पर उसे सरकार के सामने प्रस्तुत करना.

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कुछ मदरसों को छोड़ कर ज्यादातर मदरसों में शिक्षकों का शोषण होता है और उन्हें बहुत कम वेतन मिलता है जबकि इन मदरसों की आमदनी किसी भी तरह से कम नहीं है. सारा मामला मोहतमिम के हाथ में होता है. वही उस मदरसे का मालिक होता है. यदि कोई शिक्षक उस के अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलता है तो उसे बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगाई जाती.

शिक्षकों का शोषण

एक बच्चे के सिलसिले में दिल्ली स्थित जाफराबाद के एक मदरसे में जाने का मौका मिला. यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि कुरआन हिफज (कंठस्थ) करने वाले बच्चे जिस कमरे में रह रहे थे, वहां पंखा नहीं था, गरमी के कारण वहां खड़े रहना मुश्किल था. इस बाबत जब मदरसे के जिम्मेदार से पूछा गया तो उन्होंने इस की जिम्मेदारी एक शिक्षक पर डालते हुए कहा कि उन्होंने बताया ही नहीं और मेरे सामने ही उन को डांटने लगे. जब हम लोग मदरसे से बाहर निकल कर सड़क पर आ गए तो उस बच्चे ने बताया कि इस में शिक्षक की गलती नहीं है. उन्होंने कई बार मेरे सामने मोहतमिम से कहा लेकिन वे एक कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते हैं और जब कभी कोई शिकायत ले कर आता है तो सारा आरोप शिक्षक पर मढ़ देते हैं.

बताया जाता है कि इस के पीछे एक षड्यंत्र होता है. मोहतमिम नहीं चाहता कि कोई शिक्षक लगातार उस के मदरसे में पढ़ाए. इस के लिए उसे मात्र 10 महीने ही वेतन दिया जाता है. इस से वह शिक्षक भी खुद भाग जाता है और मोहतमिम को भी आसानी से उस से छुटकारा मिल जाता है. राज्यों में जो मदरसा बोर्ड हैं और जो मदरसे उन बोर्डों से मान्यताप्राप्त हैं, उन बोर्डों का हाल भी इन मोहतमिम से अच्छा नहीं है. बिना घूस दिए वेतन की राशि पास कराना असंभव है.

प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, बिहार मदरसा बोर्ड से लगभग 3,500 मदरसे जुड़े हैं जिन में से लगभग 1,100 शिक्षकों को छठे वेतन आयोग के लिहाज से वेतन मिल रहा है जबकि 205 मदरसा शिक्षकों को 5 से 8 हजार रुपए ही वेतन दिया जाता है. इसी तरह उत्तर प्रदेश में 375, पश्चिम बंगाल में 321 और असम के 60 मदरसों को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता मिलती है. आंध्र प्रदेश में ऐसे मदरसों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. मदरसा आधुनिकीकरण का विरोध करने वालों का तर्क है कि अगर हम सरकार से लाभान्वित होंगे तो हमें पाठ्यक्रम में तबदीली के लिए भी तैयार होना पड़ेगा, इसलिए इस से बचना चाहिए. लेकिन कुछ मुसलिम बुद्धिजीवियों और इसलामी शिक्षा में दक्षता रखने वालों का मानना है कि पाठ्यक्रम में तबदीली करते हुए उसे तर्क आधारित बनाया जाना चाहिए.

तर्कहीन सोच

यहां पर मोहम्मद अब्दुल हफीज के उस लेख का जिक्र करना गलत न होगा जिस में उन्होंने लिखा कि एक अवसर पर देश के एक बड़े मदरसे से शिक्षाप्राप्त आलिमेदीन से मुलाकात की. बातचीत में भारत के उलेमा के साथ पाकिस्तान के उलेमा का भी जिक्र आया. इस पर मैं ने प्रतिष्ठित आलिमेदीन, जिन्होंने कुरआन की व्याख्या की है, का नाम लिया तो उन्होंने तुरंत यह कहते हुए उस नाम को निरस्त कर दिया कि यह व्याख्या गलत है. जब हम ने यह जानना चाहा कि उस में क्या गलत है? क्या आप ने कभी उस का अध्ययन किया है तो उस पर उन्होंने कहा कि बुजुर्गों ने उसे गलत बताया है, इसलिए गलत कह रहे हैं. हम ने कभी उस का अध्ययन नहीं किया. यह वह मानसिकता है जिस से मदरसों की शिक्षा व्यवस्था को भलीभांति समझा जा सकता है कि किसी चीज के सही और गलत होने के लिए क्या तर्क दिए जाते हैं. शायद यही कारण है कि अब मुसलिम बुद्धिजीवी इस हक में हैं कि मदरसा पाठ्यक्रम में संशोधन कर एकरूपता लाई जाए.

ग्रामीण महिलाओं का मोबाइल रखने का सपना

शहरी क्षेत्रों में मोबाइल फोन की कड़ी प्रतिद्वंद्विता से परेशान दूरसंचार क्षेत्र प्रदाता गांव की तरफ रुख कर रहे हैं. गांव में भी मोबाइल सेवा का चक्र तेजी से घूम रहा है, इसलिए इन्होंने ग्रामीण महिलाओं को भी अपना लक्ष्य बना लिया है.

ग्रामीण क्षेत्रों के बारे में कहा जाता है कि वहां 76 फीसदी मोबाइल फोन पुरुषों के पास हैं जबकि महिला मोबाइल फोन धारकों की संख्या महज 29 फीसदी है. इस अंतर को कम करने के लिए एक बहुराष्ट्रीय मोबाइल फोन सेवा प्रदाता कंपनी ने हर ग्रामीण महिला के हाथ में कम दर की आकर्षक योजना पर अपनी सेवा देने की पहल की है. उस की इस साल गांव में इस परियोजना पर 101 करोड़ रुपए से अधिक के निवेश की योजना है. कंपनी ने उत्तर प्रदेश के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में यह काम पायलट परियोजना के रूप में शुरू भी कर दिया है और उस का दावा है कि इस में उसे अच्छी सफलता मिल रही है.

गांव में सचमुच बड़ी दिक्कत है. मोबाइल वहां क्रांति के रूप में अपनी पैठ बना रहा है. गांवों में मोबाइल रखना अब हर महिला का सपना बन गया है. गरीबी, शिक्षा और पर्याप्त दस्तावेजों के अभाव में यह सपना कई महिलाओं का पूरा नहीं हो पा रहा है. रोटी, कपड़ा, मकान के साथ मोबाइल रखना भी एक जरूरत बन गया है. अपनों से तत्काल संपर्क करने का इस से अच्छा दूसरा साधन फिलहाल और कुछ है भी नहीं.

इस तरह की पहल सरकार को भी करनी चाहिए और सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों को सरकारी स्तर पर ऐसी सुविधा दी जानी चाहिए. गांव में लैपटौप बांटे जा रहे हैं तो मोबाइल भी बांटे जा सकते हैं. सस्ती दरों पर उन्हें यह सेवा दी जा सकती है. यह अलग बात है कि बिजली और शुद्ध पेयजल गांव की बड़ी समस्याएं हैं. मोबाइल उन समस्याओं का समाधान नहीं है लेकिन यह गांव वालों को खुशी का अवसर जरूर दे सकता है.

1 लाख मेगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य

सरकार सौर ऊर्जा यानी साफसुथरी ऊर्जा के उत्पादन को विशेष महत्त्व दे रही है. इस की बड़ी वजह यह है कि सरकार ने 1 दशक में सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य 1 लाख मेगावाट निर्धारित किया है. यह लक्ष्य कितना बड़ा है, इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस समय देश में 2,500 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है और 1 साल में इस उत्पादन को दोगुना करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. सरकार ने सौर ऊर्जा के लक्ष्य को हासिल करने के लिए 6 लाख करोड़ रुपए के निवेश का अनुमान लगाया है. इस साफसुथरी ऊर्जा के उत्पादन में विश्व बैंक साथ दे रहा है और जरमनी जैसे प्रमुख देश इस प्रणाली को और मजबूत बनाने में सहयोग करने के लिए तैयार हैं. राजधानी दिल्ली में इस लक्ष्य को हासिल करने की एक तरह से शुरुआत भी की जा चुकी है. दिल्ली बिजली नियामक आयोग ने लोगों से अपने घरों की छतों पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने की सलाह दी है और कहा है कि सरकार उन से 5 रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदेगी. इस के लिए बाकायदा आवेदन मंगवाए गए हैं. आवेदनपत्र की कीमत 500 रुपए रखी गई है.

आवेदन के स्वीकृत होते ही आवेदक पंजीकृत हो जाएगा और 5 रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचने का हकदार बन जाएगा. दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने हाल ही में गुजरात का दौरा किया था और वहां किस तरह से सौर ऊर्जा पैनल के जरिए बिजली तैयार कर के बेची जा रही है, इस बारे में जानकारी हासिल की और अब दिल्ली में उस व्यवस्था को लागू करने की योजना है.

उत्तर प्रदेश सरकार तो इस से एक कदम आगे निकल रही है और इस के लिए वह नैट मीटर सिस्टम शुरू कर रही है. इस सिस्टम से उत्पादक अपनी छत पर पैदा की गई बिजली को ऊर्जा वितरण कंपनी को बेच सकेगा. इस व्यवस्था के लागू होने के साथ ही उत्तर प्रदेश सौर ऊर्जा बेचने वाला देश का पहला राज्य बन सकता है. बहरहाल, यह योजना उन्हीं क्षेत्रों में ज्यादा प्रभावी साबित हो सकती हैं जहां आबादी भले ही कम हो लेकिन घर ज्यादा हों. दिल्ली जैसे शहरों में आबादी बहुत है लेकिन सारी आबादी बहुमंजिले आवासों में घुसी हुई है, जहां न खुली हवा आती है और न ही सूर्य की रोशनी पहुंचती है. 500 गज जमीन पर 500 परिवार गुजरबसर कर रहे हैं. सब की छत एक ही होगी और इस से आबादी के अनुपात से सौर ऊर्जा उत्पादन नगण्य ही होगा. इसलिए सरकार को यदि सचमुच छत पर बिजली पैदा करनी ही है तो उसे गांव का रुख करना पड़ेगा और गांव की हर छत को सौर ऊर्जा प्रणाली से जोड़ कर गांव को सौऊर्जा उत्पादन के केंद्र बना कर और ऊर्जा की कमाई से उन्हें संपन्न बनाना होगा. वहां पर्याप्त रूप से खुली और बेकार जमीन भी है जिस का फायदा सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए उठाया जा सकता है और गांवों को सीधे रोजगार से जोड़ा जा सकता है.

गरीबों के लिए स्वास्थ्य बीमा का नया सपना

सरकार हरेक नागरिक को स्वास्थ्य बीमा के दायरे में लाने के लिए एक महत्त्वाकांक्षी योजना की तैयारी कर रही है. योजना का मकसद देश के हर नागरिक को बिना भेदभाव के स्वास्थ्य बीमा के कवच के दायरे में लाना है और उसे भरोसा दिलाना है कि सरकार दुख की घड़ी में उस के साथ है.

योजना के तहत आने वाले गरीबों को निशुल्क चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जानी है. योजना के क्रियान्वयन होने पर सरकारी अस्पतालों में 50 आवश्यक दवाओं का पैकेज बनाया जाएगा और बीमाधारक व्यक्तियों को इस पैकेज में शामिल दवाएं निशुल्क दी जाएंगी. योजना के तहत सरकारी अस्पतालों में गरीबों को आयुर्वेदिक, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपैथी की दवाएं भी निशुल्क दी जाएंगी. स्वास्थ्य बीमा की यह योजना गरीबी की रेखा से नीचे यानी बीपीएल परिवारों के सदस्यों के लिए निशुल्क होगी. योजना को लागू करने की तरकीब सुझाने के लिए चंडीगढ़ मैडिकल स्नातकोत्तर चिकित्सा महाविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफैसर रणजीत राय चौधरी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया और इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है. स्वास्थ्य बीमा जैसी महत्त्वाकांक्षी योजना लोगों में उत्साह पैदा कर रही है. वैसे भी अब तक देश में सिर्फ 25 फीसदी लोग ही स्वास्थ्य बीमा की परिधि में हैं. सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य बीमा की योजना नहीं होने के कारण बड़ी आबादी इस से वंचित है.

ये हालात उस स्थिति में हैं जब कहा जाता है कि भारत चिकित्सा पर्यटन के लिहाज से दुनिया का अग्रणी देश बन रहा है. दुनियाभर से बीमार सस्ते और बेहतर इलाज के लिए भारत का रुख कर रहे हैं. देश में निजी अस्पताल तो सचमुच अच्छे हैं लेकिन सरकारी अस्पतालों की हालत बहुत खराब है. इन अस्पतालों का रखरखाव अच्छे बजट के बावजूद बहुत खराब है. वहां अच्छी मशीनें हैं और बहुत उम्दा किस्म के चिकित्सा उपकरण हैं लेकिन वे काम ही नहीं करते हैं. वहां डाक्टर हैं लेकिन इलाज नहीं करते हैं. वहां दवाएं निशुल्क मिलती हैं लेकिन दी नहीं जातीं और अगर दवा मिलती भी हैं तो वे नकली होती हैं. स्वयं डाक्टर ही अपने मरीज को उन दवाओं के सेवन की सलाह नहीं देते हैं. सरकारी अस्पतालों के अधिकांश डाक्टर दवा और जांच के लिए मरीजों को निजी लैब में भेजते हैं और कमीशन खाते हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि स्वास्थ्य बीमा योजना लागू होने से गरीबों को सचमुच राहत मिलेगी.

बाजार में मजबूती का माहौल

विश्व बाजार में सोने के दाम 15 माह के निचले स्तर पर पहुंचने और कच्चे तेल के दाम 28 माह में न्यूनतम स्तर पर रहने के बावजूद बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई में बिकवाली का दौर शुरू हुआ और सूचकांक दशहरे से पहले और उस के बाद कमजोर बना रहा. सितंबर के आखिरी सप्ताह के लगभग सभी दिनों के कारोबार के दौरान बाजार में मुनाफावसूली का दौर चला जिस की वजह से सूचकांक उठापटक के बीच लगभग कमजोर स्थिति में ही बंद होता रहा. अक्तूबर की शुरुआत में भी बाजार का माहौल नहीं सुधरा हालांकि पहले सप्ताह दशहरा, गांधी जयंती तथा ईद के कारण छुट्टी का माहौल रहा और बाजार सिर्फ 1 ही दिन खुल सका. दूसरे सप्ताह की शुरुआत भी कमजोरी के साथ हुई और यह माहौल करीब पूरे सप्ताह बना रहा.

सप्ताह के दूसरे कारोबारी दिवस को तो बाजार 2 माह के निचले स्तर पर बंद हुआ. इन सब स्थितियों के बावजूद साल की शुरुआत से ही मोदीमय रहे बाजार में माहौल को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ के विकास दर के वर्तमान 5.4 प्रतिशत से बढ़ कर 6.5 प्रतिशत तक पहुंचने के पूर्वानुमान ने सकारात्मक बनाया. शेयर बाजार के मोदीमय होने की वजह से इस साल अब तक बाजार का निवेश 23 लाख करोड़ रुपए हो चुका है. सूचकांक पिछले 9 माह के दौरान 25.49 फीसदी की छलांग लगा चुका है. इसी दौरान भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई के औद्योगिक व्यापार विश्वास सूचकांक यानी इंडस्ट्रीज बिजनैस कौन्फिडैंस इंडैक्स के सूचकांक में इस तिमाही में भी लगातार दूसरी बार तेजी रही है. पहली तिमाही में इस सूचकांक में तेजी 57.4 प्रतिशत की थी जो दूसरी तिमाही में बढ़ कर 72.5 प्रतिशत तक पहुंची है. इन घटकों की वजह से बाजार घटतबढ़त के बावजूद मजबूत स्थिति में है.

मैनग्रोव जंगल की कटाई होगी बड़ी तबाही

हर मकर संक्रांति पर्व अपने पीछे छोड़ जाता है सुंदरवन के मैनग्रोव की तबाही. चक्रवाती तूफान और बरसात यानी प्राकृतिक आपदा किस रूप में आ सकती है, इस का पूर्वानुमान तो लगाना संभव है पर इस प्राकृतिक आपदा की तबाही से बचना नामुमकिन सा है. तमाम पूर्वानुमानों के बावजूद यह बंगाल की खाड़ी के करीब 2 जिलों उत्तर और दक्षिण परगना समेत बंगलादेश में तबाही मचाता है. हर साल बंगाल की खाड़ी से इस दौरान कम से कम 6 चक्रवाती तूफान उठते हैं. हालांकि ये तूफान महज कुछेक मिनटों के होते हैं पर मिनटों में ही बड़े पैमाने पर तबाही मचाते हैं.

25 मई, 2009 में आया आइला तूफान इस की एक बड़ी मिसाल है, जिस ने पश्चिम बंगाल और बंगलादेश के तटीय इलाकों में बड़े पैमाने पर कहर ढाया. पर्यावरण विशेषज्ञ और कलकत्ता विश्वविद्यालय के समुद्र व जीव विभाग के प्राध्यापक अमलेश चौधुरी की अगुआई में तत्कालीन सुंदरवन विकास परिषद द्वारा 1983-84 में वेणुवन नदी के द्वीप से 7 किलोमीटर इलाके में मैनग्रोव के पौधे लगाए गए थे. इस का उद्देश्य था मैनग्रोव के जरिए नदी बांध की सुरक्षा. 1984 में लगाए गए मैनग्रोव अब पूरी तरह से जंगल में तबदील हो गए थे. लेकिन इस साल के गंगासागर मेले के दौरान इस जंगल की बलि चढ़ा दी गई.

अमलेश चौधुरी का कहना है, ‘‘चक्रवाती तूफान और बाढ़ के लिहाज से इस साल इस क्षेत्र का समय कठिन होगा. गौरतलब है कि इस इलाके में गरमी के मौसम की शुरुआत में अकसर चक्रवाती तूफान आते हैं. हलकेफुलके चक्रवाती तूफान भी यहां बड़ी तबाही मचाया करते हैं.’’आइला तूफान ने पश्चिम बंगाल और बंगलादेश के खाड़ी के करीबी जिलों के भूगोल और मौसम के पैटर्न को ही बदल कर रख दिया है. आज तक वहां का जनजीवन अपने ढर्रे पर नहीं लौट पाया है. वहीं, गंगासागर मेले के मद्देनजर मैनग्रोव की अंधाधुंध कटाई को ले कर पर्यावरणविदों के माथे पर बल पड़ गए हैं. इस से जो तबाही हो रही है वह प्राकृतिक आपदा से ज्यादा है.

तीर्थयात्रा की मार

हर साल मकर संक्रांति के मौके पर गंगासागर मेला लगता है. साल दर साल तीर्थयात्रियों की भीड़ बढ़ रही है. तीर्थयात्रियों की सुविधा और पुराने जेटी पर लोगों का दबाव कम करने के लिए स्थानीय सागरद्वीप के करीब चेमागुड़ी पौइंट के वेणुवन में नई सड़क और जेटी के निर्माण किए गए. इस के लिए लगभग 100 मीटर से भी बड़े इलाके में, अधिक पैमाने पर मैनग्रोव को काटा गया.

नई जेटी और सड़क बनाने का जिम्मा गंगासागर बकखाली उन्नयन (विकास) परिषद का था. पर्यावरणविदों की आशंका के बारे में पूछे जाने पर परिषद के चेयरमैन बंकिम हाजरा ने माना कि सागरमेला के दौरान तीर्थयात्रियों की सुविधा के मद्देनजर मैनग्रोव के जंगलों का सफाया किया गया था. लेकिन जंगल काटने का फैसला तमाम स्तर पर बैठक और सहमति के बाद किया गया. हालांकि उन का यह भी कहना है कि बरसात के मौसम में नदी के कटाव को रोकने के लिए नदी के द्वीप में बड़े पैमाने पर मैनग्रोव के पौधे लगाए गए हैं. इन से नदी के बांध के लिए किसी तरह का खतरा पैदा नहीं होगा. इधर, दक्षिण चौबीस परगना जिला प्रशासन का कहना है कि हर साल गंगासागर में बढ़ते तीर्थयात्री मुश्किलें पेश कर रहे हैं. गंगासागर तक पहुंचने के रास्ते में चेमागुड़ी पौइंट, जो बंगाल की खाड़ी से बहुत करीब है, के पास मुड़ीगंगा नदी में जेटी है. लेकिन भाटा के दौरान इस में समस्या इसलिए पेश आती रही है क्योंकि तीर्थयात्रियों से भरा लौंच अकसर नदी की गाद में अटक जाता है. इस के कारण जेटी में भीड़ बढ़ती जाती है. इस से बड़ी दुर्घटना की आशंका बनी रहती है. इस कारण वेणुवन में नए जेटी के निर्माण का फैसला लिया गया.

गौरतलब है कि वेणुवन में नदी की गहराई अधिक है, जिस के कारण वहां यात्री लौंच चलाने में परेशानी नहीं पेश आएगी, यही सोच कर प्रशासन ने वहां नई जेटी का निर्माण किया. इस के अलावा जेटी से जोड़ कर 60 फुट चौड़ी सड़क का भी निर्माण किया गया. जेटी और सड़क निर्माण के लिए बड़ी तादाद में मैनग्रोव के जंगल का सफाया किया गया.

प्रकृति से खिलवाड़

चिंता इस बात की है कि यह क्षेत्र विकसित प्रजाति के मैनग्रोव का है, जिस की अंधाधुंध कटाई की गई. इस को ले कर पर्यावरणविदों में बड़ी नाराजगी है. मैनग्रोव के ये जंगल बरसात के मौसम में बाढ़ के कारण नदी के कटाव को रोकने में बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं. पर्यावरणविदों को आशंका है कि इतने बड़े पैमाने पर मैनग्रोव को काटे जाने से सागरद्वीप के पर्यावरण संतुलन पर जरूर आंच आएगी. इस का नतीजा इस बार बरसात के मौसम में साफ नजर आएगा. इस मेले का प्रचार बहुत बड़े पैमाने पर होता है. जत्थों के साथ पंडेपुजारी भक्तों के खर्च पर आते हैं और अपनी जेबें भरते हैं. भक्तों के चढ़ावे और उन की खरीदारी में अफसरों के साथ पंडों का भी हिस्सा होता है. इसीलिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ की बात कोई सुनना ही नहीं चाहता.

पटना के गर्ल्स होस्टल का सच

सीलन भरे, दड़बेनुमा छोटेछोटे कमरे उन कमरों में 2-3 चौकियां, हवा आनेजाने के लिए ठीक से खिड़कियां तक नहीं, गंदे बाथरूम व टौयलेट, संकरी सीढि़यां, दीवारों और छतों से ढहते प्लास्टर, रंगरोगन का नामोनिशान नहीं, अंदर और जहांतहां बाहर बिजली के लटकते तार, पानी की तरह बेजायका चाय, गंदी पड़ी पानी की टंकियां, गेट पर लगा बड़ा सा फाटक और वहां पर सिक्योरिटी के नाम पर खड़ा बूढ़ा व कमजोर गार्ड. कुछ ऐसी है पटना के गर्ल्स होस्टल्स की पहचान. ज्यादातर गर्ल्स होस्टल्स की ऐसी हालत है कि बाहर से देखने पर अजीब सा रहस्यमयी वातावरण नजर आता है. टूटेफूटे पुराने मकानों के कमरों में लकड़ी या प्लाईबोर्ड से पार्टिशन कर के छोटेछोटे कमरों का रूप दे दिया गया है. सीलन भरे कमरों में न ही ढंग से रोशनी का इंतजाम है, न पानी और साफसफाई का. खानेपीने की व्यवस्था काफी लचर है.

खजांची रोड के एक गर्ल्स होस्टल में रहने वाली प्रिया बताती है कि 8×8 फुट के कमरे में 3 चौकियां लगी हुई हैं, खिड़की का नामोनिशान नहीं है. खाने के लिए 2 हजार रुपए हर महीने लिए जाते हैं और घटिया चावल और उस के साथ दाल के नाम पर पानी दिया जाता है. सब्जी के रस में आलू या गोभी ढूंढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है.

दरअसल, पटना में कोचिंग के कारोबार के साथ कई धंधे चल रहे हैं. कोचिंग संस्थानों के आसपास गर्ल्स होस्टल, बौयज होस्टल, मैस, किताबकौपियों की दुकानें, टिफिन वालों का कारोबार फलताफूलता रहा है. पटना के महेंदू्र, मुसल्लहपुर हाट, खजांची रोड, मखनियां कुआं, नया टोला, भिखना पहाड़ी, कंकड़बाग, राजेंद्रनगर, बोरिंग रोड, कदमकुआं, आर्य कुमार रोड, पीरमुहानी आदि इलाकों में कोचिंग सैंटर और होस्टल्स की भरमार है. शहर में करीब 3 हजार से ज्यादा छोटेबड़े होस्टल्स हैं. उन का करोबार करोड़ों रुपए का है.

सुरक्षा का अभाव

होस्टल की सुरक्षा के नाम पर चारों ओर की खिड़कियां बंद कर दी जाती हैं, चारदीवारी को ऊंचा कर दिया जाता है और लोहे का बड़ा सा गेट लगा दिया जाता है. मखनियां कुआं के होस्टल में रह कर मैडिकल की कोचिंग करने वाली पूर्णियां शहर की रश्मि बताती है कि हर रोज सुबह और रात को लड़कियों की हाजिरी नहीं लगाई जाती है. लड़कियों के गार्जियन, प्रशासन और होस्टल संचालकों के बीच समन्वय नहीं होने के चलते होस्टल्स को हमेशा संदेह की नजरों से देखा जाता है. ज्यादातर गर्ल्स होस्टल्स के संचालक मर्द हैं जो लड़कियों से अकसर बेशर्मी से पेश आते हैं.

पटना की सिटी एसपी रह चुकी किम कहती हैं कि गर्ल्स होस्टल्स की वार्डेन महिला ही होनी चाहिए और लोकल थानों के टैलीफोन नंबर होस्टल्स में चिपकाने चाहिए. गर्ल्स होस्टल्स की कई शिकायतें मिलने के बाद समयसमय पर महिला पुलिस वालों द्वारा होस्टल्स के मुआयने करने के निर्देश थानों को दिए जाते रहे हैं. पटना के श्रीकृष्णापुरी महल्ले के मुसकान गर्ल्स होस्टल की इंचार्ज श्वेता वर्मा कहती हैं कि उन के होस्टल में ज्यादातर मैडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग करने वाली लड़कियां ही रहती हैं. उन का दावा है कि उन के होस्टल में लड़कियों की हिफाजत, मैडिकल और साफसफाई का पूरा खयाल रखा जाता है.

इस होस्टल में रह कर मैडिकल की तैयारी करने वाली सृष्टि जैन कहती है कि उस के होस्टल का इंतजाम चुस्तदुरुस्त है. शाम 8 बजे तक हर हाल में होस्टल में आ जाना होता है, नहीं तो इंचार्ज गार्जियन को खबर कर देते हैं. सरकारी होस्टल्स का हाल तो और भी ज्यादा बदतर है. पटना में ऊंची पढ़ाई के लिए महेंद्रू और सैदपुर महल्ले में 3 सरकारी होस्टल्स बने हुए हैं. उन में पटना और मगध विश्वविद्यालय और नैशनल इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी के छात्र रहते हैं. इन होस्टल्स की जर्जर हालत की वजह से उन में रहने वालों के सिर पर हमेशा जान का खतरा बना रहता है.

कमरों का हाल यह है कि चादर का घेरा बना कर बने कमरों में छात्र रहने के लिए मजबूर हैं. महेंद्रू के होस्टल में हैंडपंप खराब होने की वजह से महीनों से गंदा पानी निकल रहा है. होस्टल की टंकी की साफसफाई नहीं हो पाती है. छात्रों ने बताया कि अकसर वे खुद चंदा कर के पैसा जमा करते हैं और टंकी की सफाई करवाते हैं. होस्टल में रहने वाले छात्र दिलीप ने बताया कि जब होस्टल की हालत में सुधार के लिए छात्र हंगामा मचाते हैं तो अफसर उन्हें बालटी और झाड़ू थमा देते हैं.

होस्टल व कोचिंग के कारोबार में मोटी कमाई और बढ़ती कारोबारी प्रतियोगिताके चलते होस्टल व कोचिंग के संचालकों ने अपने चारों ओर सुरक्षा का मजबूत घेरा बना रखा है. प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड्स से घिरे रहने वाले होस्टल संचालकों को स्टूडैंट्स की सुरक्षा का कोई खयाल नहीं रहता. पटना विश्वविद्यालय के एक प्रोफैसर कहते हैं कि होस्टल व कोचिंग चलाने वालों को सब से ज्यादा खतरा स्टूडैंट्स से ही होता है. 95 फीसदी होस्टल में स्टूडैंट्स के रहने व खाने का इंतजाम ठीक नहीं होता है, जबकि इस के लिए स्टूडैंट्स से मोटी रकम वसूली जाती है. भोजन के लिए 20 से 35 हजार रुपए और रहने के लिए 25 से 40 हजार रुपए सालाना वसूले जाते हैं.

कई होस्टल्स के स्टूडैंट्स ने बताया कि जब कभी होस्टल के बदतर इंतजाम के खिलाफ स्टूडैंट्स हल्ला मचाते हैं तो संचालक उन्हें पुलिस को सौंप देने की धमकी देने के साथ अपने राइफलधारी बौडीगार्ड्स का खौफ दिखा कर मामले को ठंडा कर देते हैं.

ढाबे वालों की मोटी कमाई

घरपरिवार से दूर होस्टल में रह कर कालेज और कोचिंग में पढ़ाई व बेहतर भविष्य बनाने के लिए जीतोड़ मेहनत करने वाले बच्चों को ढंग का खाना नसीब नहीं हो पाता है. ज्यादातर स्टूडैंट्स गलियों और चौकचौराहों पर झोंपडि़यों में बने ढाबों में गंदा, मिलावटी और नकली तेल में बना खाना खाने को मजबूर हैं. हैल्दी भोजन नहीं मिलने से वे अकसर बीमार पड़ जाते हैं और शरीर को कमजोर बना लेते हैं. पटना के कंकड़बाग महल्ले में रह कर आईआईटी की तैयारी कर रहा शेखपुरा जिले का श्याम शर्मा बताता है कि होस्टल का खाना बहुत ही घटिया होता है वह और उस के 4 दोस्त पास के ही ढाबे में एक टाइम खाने के 35 रुपए चुकाते हैं. होस्टल्स के आसपास झोंपड़ी में ढाबा चलाने वाले मोटी कमाई कर खुद तो मालामाल हो रहे हैं जबकि स्टूडैंट्स को शारीरिक व मानसिक तौर पर कमजोर कर रहे हैं.

होस्टल संचालकों का रोना

होस्टल का कारोबार कर लाखों रुपए कमाने वाले होस्टल संचालकों का अपना रोना है कि मकान मालिक उन से मनमाना किराया वसूलते हैं. होस्टल के लिए किराए पर मकान लेते समय मकान मालिक और होस्टल संचालक के बीच में लीगल एग्रीमैंट होता है, जिस में तमाम तरह की शर्तों के साथ हर साल 10 फीसदी किराया बढ़ाने का जिक्र होता है. जब होस्टल का धंधा अच्छा चलने लगता है तो मकान मालिकों के मुंह से लार टपकने लगती है और वे 10 फीसदी के बजाय मनमाने तरीके से किराया बढ़ा देते हैं. अचानक मकान को छोड़ा भी नहीं जा सकता. इन सारी परेशानियों की वजह यही है कि होस्टल संचालक एकजुट नहीं हैं और उन का कोई संगठन नहीं है. सब से बड़ी दिक्कत यह है कि सरकार की ओर से होस्टल के रजिस्ट्रेशन आदि का कोई नियम नहीं है.

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