Download App

बजट ने धो दिया बाजार पर चढ़ा मोदी का रंग

अप्रैल से ले कर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक नरेंद्र मोदी के शब्दों के भ्रमजाल में फंसा रहा बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक नित नए रिकौर्ड तोड़ता और बनाता हुआ 26 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर के करीब पहुंचा. शेयर बाजार पूरी तरह से मोदीमय हो गया था.

आएदिन बाजार नए क्षितिज को छूता रहा लेकिन जैसे ही मोदी सरकार का रेल बजट आया, मानो सरकार की हकीकत से परदा उठ गया और बाजार एक ही दिन में 500 से अधिक अंक तक लुढ़क गया. रेल बजट की निराशा अगले दिन भी बाजार पर छाई रही और फिर आम बजट वाले दिन तक बाजार लगातार तीसरे दिन औंधे मुंह गिरता रहा. बजट के दिन तो बाजार में अत्यधिक अफरातफरी का माहौल था. सूचकांक कारोबार के दौरान 800 अंक तक के उतारचढ़ाव के बीच झूमता रहा और विदेशी संस्थागत निवेशकों की बिकवाली के कारण सूचकांक गिरावट पर बंद हुआ, हालांकि दिनभर चली उठापटक को देखते हुए गिरावट मामूली 73 अंक ही दर्ज की गई.

निफ्टी में भी खासा उतारचढ़ाव देखा गया. बजट के दिन बाजार की गिरावट को नकारात्मक नहीं कहा जा सकता है क्योंकि पिछले 8 साल में बजट के दिन सिर्फ 3 बार ही सूचकांक तेजी के साथ बंद हुआ है. इस साल के बजट में भी बाजार लगातार झुकता हुआ ही नजर आया. इस से पहले बाजार पूरी तरह से मोदी के रंग में रंगा हुआ था. इसी रंग का असर था कि मानसून के सुस्त रहने, महंगाई का आंकड़ा बढ़ने और पैट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमत बढ़ने का दबाव जो हर बार शेयर बाजार पर रहता है, इस बार इन सब परिस्थितियों से ऊपर नजर आया.

विपरीत स्थितियां मौजूद रहने के बावजूद जुलाई के पहले सप्ताह में सूचकांक दीवाली मनाता नजर आया और लगातार 3 सत्र की बढ़ोतरी के बाद रिकौर्ड 25,842 अंक पर बंद हुआ. उस पूरे दिन सूचकांक एक बार 25,865 अंक तक पहुंच गया था. नैशनल स्टौक एक्सचेंज-निफ्टी भी 7,725 अंक की ऊंचाई तक उछल गया. अगले कारोबारी दिन को भी बाजार निरंतर नई ऊंचाई की तरफ बढ़ता रहा और सप्ताह के आखिरी कारोबारी दिन तक यह पहली बार 26 हजार का स्तर छू गया.

भारत भूमि युगे युगे

हिट विकेट हुए आडवाणी

हरियाणा के सूरजकुंड में नवनिर्वाचित भाजपा सांसदों की हालिया आयोजित कार्यशाला का समापन करते लालकृष्ण आडवाणी राजनीतिक मैदान छोड़ सीधे क्रिकेट की पिच पर आ गए. नरेंद्र मोदी की तारीफ करते वे कह बैठे कि उन्होंने ऐसा कोई खिलाड़ी नहीं देखा जो पहले ही मैच में कप्तान बन बैठा हो और जिस ने तिहरा शतक जमा दिया हो. आजकल हर कोई नरेंद्र मोदी का गुणगान कर रहा है लेकिन आडवाणी की तारीफ माने रखती है जो खुद मोदी के मुकाबले फ्लौप साबित हुए और हिट विकेट हो गए. गनीमत यह है कि टीम में बने हुए हैं. जाहिर है उन की भूमिका विशेषज्ञ कमेंटेटर की होती जा रही है.

दखल नहीं दाखिल

बीते 15 सालों से राम माधव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की तरफ से मीडिया मैनेज करने का चुनौतीपूर्ण काम कर रहे थे जिस के तहत उन्हें पत्रकारों के सामने धैर्य से एक बात घुमाफिरा कर करनी होती थी कि संघ राजनीति नहीं करता, न ही भाजपा के अंदरूनी मामलों में दखल देता है. संघ अब राम माधव को पुरस्कृत करते हुए उन्हें भाजपा में भेज रहा है जिस से वे खुले तौर पर दखल देने का काम कर सकें और यह कह सकें कि संघ दखल नहीं दाखिला देता है. अब कोई क्या खा कर कहेगा कि संघ भाजपा या सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करता. मुमकिन है यह कदम हिंदुत्व से जुड़े विवादित मुद्दों को तकनीकी तौर पर उठाने की तैयारी का हिस्सा हो.

यशवंत की गाली

गाली भी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है, इसे सभ्य और अभिजात्य लोग इस्तेमाल नहीं करते. इस आम धारणा को वरिष्ठ भाजपाई नेता यशवंत सिन्हा ने रांची के एक कार्यक्रम में छिन्नभिन्न कर दिया. हुआ यों कि कौन बनेगा झारखंड का मुख्यमंत्री के सवाल पर यशवंत भड़क कर बोले कि कोई भी ऐरागैरा बन सकता है, वे तो यहां कुछ भी नहीं हैं. गाली बकना बुरी बात है लेकिन बक दी तो कोई संगीन गुनाह भी इसे नहीं माना जाता. हां, उन के दिल की भड़ास जरूर निकल गई. अब इस गाली पर ध्यान भाजपा आलाकमान को देना है जो यशवंत की गाली से कन्नी काट रहे हैं.

बचपन में बिकिनी

युवतियां क्या पहनें और कितना पहनें इस की चिंता और तनाव धर्माचार्यों को ही रहता था पर अब नेताओं ने भी फतवे जारी करने शुरू कर दिए हैं. गोआ के वरिष्ठ मंत्री सुदीन धावलीकर ने पणजी में श्रीराम सेना के एक कार्यक्रम में नसीहत दे ही डाली कि नौजवान लड़कियां शौर्ट ड्रैस में पब में न जाएं.

गोआ कल्चर की दुहाई भी सुदीन ने दी. बवाल ज्यादा मचता इस के पहले ही मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर ने मनोहारी यह बयान दे डाला कि मैं तो बचपन से ही बिकिनी देख रहा हूं. दरअसल, पोशाक पर विवाद नई बात नहीं है, इस की आड़ में मंशा हिंदुत्व थोपने की रहती है. युवतियों की आजादी छीनने से बेहतर होगा कि गोआ सरकार घूंघट अनिवार्य कर दे. रही बात बचपन में बिकिनी देखने की तो आजकल के बच्चों के लिए यह कतई जिज्ञासा की बात नहीं.

आबोहवा नहीं धार्मिक एजेंडा है गंगा की सफाई

गंगा नदी की सफाई को देश के बजट में बडे़ जोरशोर से प्रचारित किया गया है. गंगा की सफाई के लिए मिशन ‘नमामि गंगे’ शुरू किया गया है. इस के लिए 2,023 करोड़ रुपए का बजट तैयार किया गया है. इस में 1,500 करोड़ रुपए राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा फंड, 537 करोड़ रुपए राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के तहत खर्च किए जाएंगे. यही नहीं, इस योजना के लिए और पैसा जुटाने के वास्ते एनआरआई गंगा फंड बनाने की योजना भी है, जिस के तहत विदेशों में रहने वाले लोग गंगा की सफाई अभियान के लिए पैसा दे सकते हैं.

गंगा नदी के किनारे बसे शहरों–केदारनाथ, हरिद्वार, कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद और पटना के घाटों की सुंदरता को बढ़ाने के लिए 100 करोड़ रुपए का अलग से बजट रखा गया है. अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि नदियों के घाट ऐतिहासिक विरासत के साथ पवित्र स्थल भी हैं. इस को ध्यान में रखते हुए नदी किनारे के घाटों को सुदंर बनाने का काम करना है. गंगा के साथ ही साथ यमुना किनारे बसे दिल्ली शहर के घाटों का विकास भी इसी बजट से किया जाएगा.

गंगा नदी की सफाई का यह अभियान पर्यावरण का मामला नहीं है. अगर मामला पर्यावरण का होता तो गंगा के साथ ही साथ दूसरी नदियों की सफाई का भी ध्यान रखा जाता. एक तरफ केवल गंगा की सफाई अभियान के लिए 2,023 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है तो दूसरी तरफ देश की दूसरी प्रमुख नदियों को आपस में जोड़ने की योजना पर खर्च करने के लिए केवल 100 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है.

इस से साफ पता चलता है कि दूसरी नदियों से ज्यादा गंगा पर खर्च करना पक्षपात है. करदाताओं का पैसा विकास की जगह तीर्थस्थलों की कमाई पर खर्च किया जा रहा है. दूसरी तरफ सरकार देश की बाकी नदियों के विकास से दोगुना पैसा स्टैच्यू औफ यूनिटी के नाम से तैयार हो रही सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति पर खर्च कर रही है. इस मूर्ति के लिए बजट में 200 करोड़ रुपए का बजट तैयार किया गया है. रेल बजट में तीर्थस्थलों को जोड़ने के लिए कुछ ट्रेनों को शुरू करने की बात की गई है. धर्म इस देश का सब से संवेदनशील मुद्दा है. इस पर ध्यान खींच कर जनता को दूसरी ओर से भटकाया जा सकता है. इसी वजह से विकास की बात करने वाली मोदी सरकार बारबार धर्म को बीच में खींच रही है.

अलग नहीं है भाजपा

गंगा के सहारे जनता का ध्यान भटकाने का काम पहले कांग्रेस भी कर चुकी है. गंगा की सफाई के लिए कांग्रेस भी अपने समय में लंबेचौडे़ बजट वाली योजनाएं बना चुकी है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से ले कर राजीव गांधी तक ने अपनेअपने हिसाब से गंगा सफाई को ध्यान में रखा था. राजीव गांधी ने 14 जून, 1986 में गंगा कार्य योजना (जीएपी) को शुरू किया. तब से काफी समय बीत जाने के बाद भी गंगा की हालत जस की तस है. डा. मनमोहन सिंह की अगुआई में चली यूपीए सरकार ने भी गंगा के नाम पर होहल्ला मचाया. साल 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया. 2009 में प्रधानमंत्री के आधीन नैशनल गंगा रिवर बेसिन अथौरिटी (एनजीआरबीए) का गठन किया गया.

गंगा की सफाई की चिंता की वजह कांग्रेस के लिए भी पर्यावरण नहीं थी. वह भी अपने को धर्म से जोड़ने के लिए गंगा के विकास की बात करती रही. इस काम पर करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं. उतने खर्च से कई नहरों की खुदाई का काम हो सकता था जिस से किसानों को सिंचाई के लिए पानी मिलता. देश खुशहाल होता. गंगा की सफाई के नाम पर तैयार योजनाओं का पैसा बिचौलियों ने खूब खाया है. इन में कुछ सरकारी अफसर, एनजीओ और दूसरे संगठन शामिल रहे हैं. जब मोदी सरकार ने गंगा की सफाई की शुरुआत नए सिरे से करने की बात कही तो एक बार फिर से कई एनजीओ और दूसरे संगठन सक्रिय हो गए हैं. ‘बाजार लगी नहीं और लुटेरे आ गए’ की तर्ज पर एक बार फिर से गंगा की सफाई पर खर्च होने वाले पैसे पर हाथ साफ करने की तैयारी चल रही है.

धर्म है गंदगी की वजह

उत्तराखंड के गोमुख से निकलने वाली गंगा 2,525 किलोमीटर की दूरी तय कर के बंगाल की खाड़ी में मिलती है. इस के किनारे बसे शहरों पर नजर डालें तो गंगा की गंदगी का साफ पता चलता है. गंगोत्तरी से निकलने के बाद रुद्र्रप्रयाग में ही गंगा का सामना धार्मिक लोगों से होता है. यहीं से गंगा में गंदगी की शुरुआत होने लगती है. यहीं पर गंगा में अलकनंदा और मंदाकिनी नदी का संगम होता है. यहां से ही गंगा के पानी में मलमूत्रजनित बैक्टीरिया मिलने लगते हैं. इस के बाद आने वाले शहर हरिद्वार में भी गंदगी का कारण धार्मिक महत्त्व ही है. यहीं पर गंगा नदी मैदानी इलाके में प्रवेश करती है.

यहां हर साल होने वाली चारधाम यात्रा में करीब 15 लाख लोग आते हैं. इन की गंदगी के अलावा आसपास के शहरों का सीवेज भी गंगा में गिरता है. इस के बाद के आने वाले शहर बिजनौर और नरौरा में बैराज बने हैं. कन्नौज के बाद कानपुर शहर में गंगा के किनारे ही औद्योगिक इकाइयां लगी हैं. कानपुर चमड़ा उद्योग के लिए मशहूर है. 27 लाख से ज्यादा की आबादी वाले कानपुर शहर में रोज 50 करोड़ लिटर गंदगी गंगा में गिरती है. कानपुर के बाद गंगा किनारे पड़ने वाले शहरों–इलाहाबाद, वाराणसी, पटना और कोलकाता में एक भी औद्योगिक इकाई गंगा के किनारे नहीं है. कानपुर के अलावा बाकी शहरों में गंगा को गंदा करने के 2 कारण हैं, एक तो शहरों का सीवेज, दूसरा, गंगा में नहाना और शव जलाना. गंगा किनारे बसे हर छोटेबड़े शहर और कसबे में नदी के किनारे घाट बने हैं. यहां लोग आ कर नहाने, गंदगी करने, कपड़ा धोने का काम करते हैं. गंगा किनारे के शहरों और कसबों में शवदाह स्थल बने हैं. यहां कई जगहों पर शवों को जलाने के बाद उन के अधजले शरीर, लकड़ी और राख को गंगा में प्रवाहित किया

जाता है. केवल वाराणसी शहर के मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर ही माह में 3 हजार से अधिक के शव जलाए जाते हैं. यहां शवदाह का अलग धार्मिक महत्त्व होने के कारण केवल वाराणसी शहर के लोग ही नहीं, बल्कि बिहार, झारखंड, आंध्र प्रदेश से लोग यहां शवदाह करने आते हैं. कई बार तो विदेशों से भी लोग शव ले कर यहां आते हैं.

वाराणसी के इन दोनों शवदाह स्थलों में शवदाह की राख और अधजली लकड़ी को गंगा में बहा दिया जाता है. गंगा के किनारे बसे छोटे कसबों में, जहां गरीब लोग रहते हैं, शव जलाने के लिए लकड़ी को नहीं खरीद सकते. वे लोग अपने परिजनों के शव को गंगा में ऐसे ही प्रवाहित कर देते हैं.

इस के अलावा गंगा किनारे लगने वाले धार्मिक मेलों में जब लोग आते हैं तो यहीं शौच और कपड़े धोने, बाल कटवाने जैसी गंदगी करते हैं. इस के कारण गंगा में गंदगी बढ़ती है. अगर गंगा की सफाई करनी है तो सब से पहले गंगा किनारे ऐसे गंदगी वाले धार्मिक आयोजनों को रोकना होगा. गंगा में सीवेज की गंदगी को रोकने की ठोस योजना बनानी होगी. मरे हुए पशुओं को भी गंगा में फेंकने का रिवाज है. इस के कारण भी गंगा में गंदगी फैलती है. जब तक इन सब योजनाओं पर काम नहीं होगा गंगा की सही सफाई नहीं हो सकती.

दूसरी नदियों की अनदेखी

गंगा नदी को जल मार्ग के रूप में विकसित करने की योजना है. इलाहाबाद से ले कर हल्दिया तक जल मार्ग बना कर स्टीमर चलाने की बात की जा रही है. वाराणसी में ही अस्सी और वरुणा नामक 2 नदियां हैं. ये नदियां कभी साफ मीठा पानी लाती थीं, जिस से वाराणसी शहर में पीने का पानी मिलता था. अगर इन नदियों का खयाल रखा गया होता तो वाराणसी शहर के लिए पीने का पानी मिल सकता है. ऐसी तमाम नदियां हैं जिन के जरिए शहरों को पीने का पानी उपलब्ध कराया जा सकता है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पीने के पानी की बड़ी परेशानी है. यहां बहने वाली गोमती नदी में पानी नहीं है. अगर इस नदी में पानी को बचाया जाए तो लखनऊ सहित इस के किनारे बसे दूसरे शहरों में पीने के पानी की परेशानी को हल किया जा सकता है. जितना पैसा केवल गंगा की सफाई पर खर्च किया जा रहा है उस से कम खर्च में कई शहरों में पीने के पानी की परेशानी को दूर किया जा सकता है.

गोमती नदी पीलीभीत के माधोटांडा नामक  जगह से निकलतीहै. यहां पर ही पानी नहीं है. इस जगह से 4 किलोमीटर शारदा नहर निकाली गई है. अगर इस नहर से गोमती में पानी प्रवाहित किया जाए तो भी गोमती किनारे बसे शहरों के पेयजल की परेशानी को दूर किया जा सकता है. पीने के पानी की कमी को पूरा करने के लिए शहरों में रहने वाले लोग जमीन के नीचे बोरिंग करा कर पानी निकालने का काम कर रहे हैं. लखनऊ के ज्यादातर घरों में पीने के पानी के ऐसे ही इंतजाम किए जा रहे हैं. इस से पानी का अनियोजित दोहन हो रहा है जो जलस्तर को लगातार नीचे ले जा रहा है.

अगर दूसरी नदियों पर सरकार ध्यान दे तो बहुत सारी परेशानियों का हल निकल सकता है. सरकार को केवल धार्मिक वजहों से गंगा की सफाई पर करोड़ों खर्च करने से बेहतर होगा कि वह दूसरी नदियों पर भी ध्यान दे ताकि शहर वालों को पीने और किसानों को सिंचाई का पानी मिल सके.

जंगलराज से मंगल की उम्मीद

करीब 20 साल के बाद बिहार की राजनीति ने करवट बदली है और पुराने साथी से सियासी दुश्मन बनने और फिर दोस्त बनने तक लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने लंबा सफर तय कर लिया है. कांगे्रस और रामविलास पासवान के साथ छोड़ने के बाद अकेले पड़े लालू और भाजपा से अलग होने के बाद अलगथलग पड़े नीतीश ने अपनेअपने सियासी वजूद को बचाने के लिए एकदूसरे से हाथ मिलाना मुनासिब समझा. जिस जंगलराज के खिलाफ आवाज उठा कर नीतीश सत्ता तक पहुंचे थे, अब उसी जंगलराज के जिम्मेदार दलों के साथ हाथ मिला कर सियासी नैया पार लगाने की उम्मीद पाल बैठे हैं.

पिछले दिनों हुए राज्यसभा उपचुनाव में जदयू, राजद, कांगे्रस और सीपीआई एक पाले में व भाजपा दूसरे पाले में साफतौर पर दिखाई दी. लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली भारी कामयाबी ने अपना सबकुछ लुटाने वाले दलों को एक मंच पर आने का मौका दे दिया है. नीतीश ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री की कुरसी छोड़ दी और एक अनजान से चेहरे जीतनराम मांझी को डमी मुख्यमंत्री बना दिया. इस मामले में भी नीतीश ने अपने पुराने सखा लालू यादव की ही नकल की है. साल 1996 में जब चारा घोटाले के मामले में फंस कर लालू के जेल जाने की नौबत आई तो उन्होंने अपनी बीवी को मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा दिया और जेल से ही वे शासन करते रहे थे.

पिछले दिनों बिहार में राज्यसभा की 2 सीटों पर हुए चुनाव में नीतीश को अपने धुर विरोधी लालू यादव के सामने हाथ फैलाना पड़ा. लालू ने तो पहले नीतीश पर यह कहते हुए तंज कसा कि जब अपने घर में आग लगी तो नीतीश दमकल खोज रहे हैं. काफी मशक्कत के बाद आखिर जदयू के दोनों उम्मीदवार लालू की पार्टी के समर्थन से जीत गए. जदयू ने पवन कुमार वर्मा और गुलाम रसूल बलियावी को मैदान में उतारा था. वर्मा को 122 और बलियावी को 123 वोट मिले, जबकि जदयू के बागी उम्मीदवार अनिल शर्मा को 108 और साबिर अली को 107 वोट मिले. जदयू के 18, राजद के 3 और कांगे्रस के 2 विधायकों ने क्रौस वोटिंग कर लड़ाई को दिलचस्प बना दिया था.

भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि इस चुनाव में नीतीश जीत कर भी हार गए क्योंकि जिस जंगलराज के खिलाफ जनता ने उन्हें गद्दी पर बिठाया था आज वह उसी जंगलराज के मसीहा की गोद में जा बैठे हैं. लोकसभा चुनाव में जदयू की फजीहत के बाद नीतीश की बोलती बंद हो गई थी. चुनाव नतीजों के दिन वे किसी से नहीं मिले, कोपभवन में मंथन करते रहे. जदयू के कुल 38 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे, जिस में महज 2 ही जीत सके और इस से भी ज्यादा फजीहत वाली स्थिति यह रही कि उस के 27 उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई. वहीं राजद उस से काफी बेहतर हालत में रहा. उस ने 27 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे जिस में 3 को जीत मिली, 23 दूसरे नंबर पर रहे और मात्र 1 की जमानत जब्त हुई.

सारण सीट से राबड़ी देवी और पाटलीपुत्र सीट से उस के उम्मीदवार मीसा भारती को दूसरे नंबर पर संतोष करना पड़ा. राबड़ी और मीसा की हार से लालू परिवार को भले ही नुकसान हुआ हो पर पार्टी को बड़ा फायदा यह हुआ कि उस पर मंडराता लालू परिवार के कब्जे का खतरा दूर हो गया. लालू के समकक्ष के पार्टी नेताओं को इस बात का डर था कि अगर राबड़ी और मीसा चुनाव जीत गए तो उन दोनों के साथसाथ लालू के बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप का भी पार्टी में रुतबा बढ़ जाता. इस से राजद पूरी तरह से परिवार की पार्टी बन जाती. राबड़ी और मीसा की हार से निश्चित तौर पर लालू का मनोबल टूटा है. लेकिन इस से पार्टी के दूसरे नेताओं को आगे बढ़ने का मौका मिल सकेगा.

नीतीश का खेल

16 मई को लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जब उन की पार्टी 20 से 2 सीटों पर ही सिमट गई तो जदयू के टूटने का खतरा काफी बढ़ गया और खुद को फजीहत से बचाने, पार्टी तोड़कों को सबक सिखाने और भाजपा को सरकार बनाने की चुनौती देने के लिए उन्होंने ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेला. उन्होंने मंत्रिमंडल को भंग कर दिया और अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप आए.

जदयू के टूट के खतरे के साथसाथ नीतीश कुमार की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव से भी नहीं पट रही थी. दरअसल, शरद को हमेशा इस बात की आशंका रहती है कि नीतीश नहीं चाहते हैं कि शरद लोकसभा में पहुंच कर दिल्ली में ताकतवर बनें. इस बात को ले कर दोनों के बीच अकसर तनातनी की स्थिति बनी रहती है. इस लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान 5 मई को शरद ने पटना में नीतीश की बखिया उधेड़ते हुए कह डाला था कि नीतीश भी लालू की तरह जाति की राजनीति को बढ़ावा देते रहे हैं. इस से नीतीश की काफी किरकिरी हुई थी.

दिलचस्प बात यह है इस लोकसभा चुनाव में शरद मधेपुरा से चुनाव हार गए. इस से उन की आशंका सही साबित हो गई कि नीतीश नहीं चाहते हैं कि वे चुनाव जीतें. पिछले साल भाजपा ने जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजैक्ट किया तो इस से नाराज हो कर नीतीश ने भाजपा से समर्थन वापस ले लिया था. उस के बाद सरकार बचाने के लिए उन्हें कांगे्रस के 4 विधायकों का समर्थन लेना पड़ा था.

नीतीश आज कुछ भी कहें पर असली वजह यही है कि उन की पार्टी में 1 साल से उन के विरोध की आवाजें उठने लगी थीं और वे लोकसभा चुनाव के बाद पूरी तरह से सतह पर आ जातीं, इसलिए इस्तीफा दे कर उन्होंने अपनी इज्जत बचा ली. लोकसभा चुनाव में भाजपा की राह में रोड़ा अटकाने और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए नीतीश कुमार ने तीसरे मोरचे का दांव चला था, पर मोदी की सुनामी में वह पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. इस के साथ ही नीतीश के प्रधानमंत्री बनने का सपना भी पूरी तरह से चकनाचूर हो गया, साथ ही मुख्यमंत्री की कुरसी भी छोड़नी पड़ी. न खुदा ही मिला न विसाले सनम.

नीतीश ने चुनाव से पहले तीसरे मोरचे या नैशनल फ्रंट की हांडी चूल्हे पर चढ़ाई थी और भानुमती के कुनबे को जोड़ने की कवायद शुरू की थी. एनडीए और यूपीए को दरकिनार कर एक नया और अनोखा ब्लौक बनाने का दावा किया गया था पर नया विकल्प बनाने का दावा करने वाले यह भूले बैठे थे कि इस मोरचे में ज्यादातर वही लोग शामिल हुए थे जो पिछले कई सालों से प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले बैठे हुए थे.

मजबूरी का साथ

अपनी कमजोर हो चुकी पार्टी जदयू में छिड़ी बगावत ने ही नीतीश को राजद समेत दूसरे दलों के साथ मोरचा बनाने को मजबूर कर दिया है. राज्यसभा उपचुनाव के लिए नीतीश ने लालू से समर्थन मांगा और लालू ने झट से उन से हाथ मिला लिया. और इस तरह से एक नामुमकिन गठबंधन की नींव पड़ गई. नीतीश ने देखा कि उन के दल के बागी विधायक कुछ भी सुननेसमझने को तैयार नहीं हैं तो उन्होंने शरद यादव की सलाह पर लालू से समर्थन मांग लिया. अपनी इज्जत बचाने और बागियों को सबक सिखाने के लिए नीतीश के सामने कोई और विकल्प भी नहीं था. नीतीश को समर्थन देने के लालू के फैसले पर राजद में भी खूब घमासान मचा. राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और थिंक टैंक माने जाने वाले लालू के करीबी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने जदयू को साथ देने का विरोध किया. रघुवंश ने साफ कह दिया कि नीतीश समर्थन पाने के हकदार ही नहीं हैं.

लोकसभा चुनाव में जदयू ने ही सारण सीट पर राबड़ी देवी और मधुबनी सीट पर अब्दुलबारी सिद्दीकी के खिलाफ मुसलिम उम्मीदवार उतार कर उन्हें हराने की साजिश रची थी और जदयू ने ही राजद के शासन को जंगलराज का नाम दिया था. इस के अलावा नीतीश की वजह से ही भाजपा को मजबूती भी मिली. ऐसे में किसी भी हाल में जदयू को समर्थन नहीं देनी चाहिए.  कुछ दिन पहले तक जदयू सफाई देतेदेते थक नहीं रहा था कि उस का राजद के साथ कोई तालमेल नहीं है. पिछले 28 मई को दिल्ली में जदयू कोर कमिटी की बैठक में फैसला लिया गया कि पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में राजद के साथ किसी भी तरह से तालमेल नहीं करेगी. वहीं भाजपा से भी किसी भी सूरत में गठबंधन नहीं करने की कसमें खाई गईं.

जदयू नेताओं का कहना था कि बिहार में नीतीश कुमार और जदयू को जो जनादेश मिला है वह उन के सुशासन के नारे और लालू के जंगलराज के खिलाफ मुहिम को मिला है. पार्टी महासचिव एवं प्रवक्ता केसी त्यागी का कहना है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी को भले ही हार मिली हो पर वह सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करेगी. कभी भी अवसरवादी गठबंधन नहीं करेगी. नीतीश कहते हैं कि भाजपा को खत्म करना ही उन का मकसद रह गया है.

सामाजिक परिवर्तन की जरूरत

बदायूं की घटना और उस के बाद कुछ और गांवों में लगातार हुई बलात्कार की कई और घटनाओं की सुर्खियों ने 16 दिसंबर, 2012 के बस में हुए बलात्कार कांड की याद फिर सुलगा दी है. बदायूं में जिस तरह 4 लड़कों ने 2 दलित अबोध लड़कियों को बलात्कार का निशाना बनाया और फिर उन्हें पेड़ पर लटका कर मार डाला, यही जताता है कि हमारे समाज में बलात्कार व हत्या करना आम बात है. इसे करने वालों की तो छोडि़ए, उन के मातापिता को भी बलात्कारी बच्चों की घिनौनी करतूतों पर कोई रंज नहीं होता. ऊपरी जातियों का पूरा समाज अपने गुनाहगारों को बचाने में लग जाता है.

अन्य अपराधों में जहां समाज बचाव में आगे नहीं आता, बलात्कार के मामलों में वह बढ़चढ़ कर आगे आता है, खासतौर पर अगर मामले में ऊंचीनीची जातियां हों. बदायूं के मामले में चूंकि मामला दलित बनाम यादव है, 2 जातियां अलगअलग खेमों में खड़ी हो गई हैं और बलात्कार तो केवल बहाना रह गया है. ऐसा हो क्यों रहा है? इसलिए हो रहा है कि हमारा समाज अभी भी 19वीं सदी में जी रहा है और सोचविचार उन ग्रंथों और ग्रंथों के रखवालों पर निर्भर है जो जाति को ईश्वरप्रदत्त मानते हैं. शिक्षा मिली है पर उस से पढ़नालिखना आया है, सहीगलत समझना नहीं. हम जातियों में क्यों बंटे हैं? क्यों ऊंचनीच है? क्यों औरतों की दुर्दशा है? क्यों पोंगापंथी व्याप्त है? क्यों पाखंड बढ़ रहे हैं? ये सब सवाल हमारी शिक्षा में हैं ही नहीं.

शिक्षा हमें सिखा रही है कि कैसे अपनी जाति को उकसाओ, जाति के मिथक मजबूत करो, प्रचारप्रसार के तंत्रों का उपयोग करो, गालियां जो पहले बोली जाती थीं अब लिख कर भेजो. शिक्षा ने तर्क नहीं सिखाया. शिक्षा नाममात्र का तकनीकी ज्ञान दे रही है. शिक्षा पोंगापंथी की पोल नहीं खोल रही बल्कि वह धार्मिक अंधविश्वास बढ़ा रही है. शिक्षा का फायदा पोंगापंथी को व्यवसाय बना कर चलने वाले लोग विचारों की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए उठा रहे हैं. बलात्कार धर्मगं्रथों में हथियार थे, यह बात कहने का अधिकार छीना जा रहा है. अहल्या की कथा को झूठा रूप दिया जा रहा है. देवीदेवताओं के कुकर्मों को आम जनता जानती है, उन्हें चर्चा में आने नहीं दिया जा रहा. धर्म की रक्षा के नाम पर झूठ की रक्षा का अधिकार थोपा जा रहा है. ऐसे में समाज में परिवर्तन कहां से होंगे.

मैले को मैला कहने का अधिकार ही छीनने की कोशिश हो तो मैला अपने को कभी साफ न करेगा. अगर हम समाज की बलात्कार जैसी कुरीतियों की जड़ उन रीतिरिवाजों, उन धर्मकथाओं, उन अंधविश्वासों में न खोजेंगे जिन में इन की महिमा की गई है तो सुधार कैसे होंगे. हमारी न्याय व्यवस्था डर कर या खुद के अंधविश्वासी होने के कारण अंधविश्वासों के लिए ढाल बनी खड़ी है. हम चाहे कितने कानून बना लें, कितने ही पुलिस अफसरों के तबादले कर लें, जब तक समाज की सोच पर बारबार प्रहार न होंगे, समाज न बदलेगा.

यह न भूलें कि मनमोहनसोनिया सरकार बदली तब ही जब नरेंद्र मोदी के समर्थकों ने अपशब्दों भरी कैंपेन सोशल मीडिया में चलाई. वह तार्किक नहीं थी, भद्दी थी, निकृष्ट थी पर कामयाब रही. नरेंद्र मोदी और उन के समर्थक विचारों की स्वतंत्रता का मस्तूल पकड़ कर चले. उन्होंने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया है. अब वही लोग अपनी पोल खुलने पर बौखला रहे हैं. इक्कादुक्का प्रहार हो रहे हैं पर सुनामी बन जाए तो बड़ी बात नहीं.

सरकार का धार्मिक एजेंडा बरकरार

आशा के अनुसार, मोदी सरकार ने अपना धार्मिक एजेंडा बनाए रखा है. धार्मिक प्रचारप्रसार पर चाहे संवैधानिक पाबंदी हो, फिर भी सरकार करदाताओं के पैसे से पर्यटन के नाम पर तीर्थयात्राओं को सुगम बनाने के लिए भरपूर पैसा दे रही है और गंदे हिंदू तीर्थों को जनता के पैसे से दुरुस्त कराएगी. होना तो यह चाहिए कि तीर्थस्थानों को चंदे और दान में हुई उगाही से ठीक कराया जाए जैसे गैर धार्मिक पर्यटन स्थलों के साथ होता है पर यह फैसला तो मतदाताओं ने कर दिया था कि इस बार धर्म पर पैसा निछावर हो. अब शिकायत की गुंजाइश कहां. रही सरदार पटेल की मूर्ति पर 200 करोड़ रुपए खर्च करना तो यह मायावती के पदचिह्नों पर चलना ही तो है जिन्होंने लखनऊ और नोएडा में भव्य स्मारक जनता के पैसे से बनवाए. हां, इतना आश्चर्य जरूर है कि गांवगांव से लोहे के दान की कहानी का क्या हुआ?

गरीबों की रोजीरोटी की सुरक्षा

सरकार 100 करोड़ रुपए इस पर खर्च करेगी, 100 करोड़ रुपए उस पर, 20 हजार करोड़ रुपए की यह योजना है, 30 हजार करोड़ रुपए की वह, ये बातें बजट भाषण में अच्छी लगीं पर हैं बेमतलब की. ज्यादातर योजनाएं पुरानी योजनाओं का नया रूप हैं. 2-4 नई हैं तो उन्हें जमाने में ही वर्षों लग जाएंगे और अरबों खर्च करने के बाद भी जनता को क्या मिलेगा, पता नहीं. वैसे जनता को आजादी के बाद से ही कुछ न कुछ मिल रहा है. देश में सड़कों का जाल फैला है. नए स्टेशन खुले हैं. शहरों का विकास हुआ है. स्कूलकालेज खुले हैं. फ्लाईओवर, मैट्रो, पुल, हवाई अड्डे बने हैं. मोबाइल क्रांति दूसरे देशों के समकक्ष आई है. पर क्या इन के लिए कांग्रेसी सरकारों को जनता तमगा दे रही है? यह काम तो हर सरकार को करने ही हैं चाहे वह चंद्रशेखर और इंद्रकुमार गुजराल जैसों की ही क्यों न हो.

सरकारी खर्च पर बनने वाले प्रोजैक्टों में नई दृष्टि कहां है, यह बजट भाषण में कहीं नहीं दिखी. वैसे हर वित्तमंत्री कुछ न कुछ नया कहता है और उतना भर अरुण जेटली ने कहा है. कोई आमूलचूल परिवर्तन लाया गया हो, इस के दर्शन नहीं होते. सरकारी खर्च तो असल में कम से कम होना चाहिए. सरकार को सिर्फ वे काम करने चाहिए जो नागरिक खुद नहीं कर सकते.

रोजीरोटी देना सरकार का काम नहीं है. सरकार का काम जनता की कमाई रोजीरोटी को सुरक्षा देना है. सरकारी प्रोजैक्टों में यह कहीं नहीं दिखता. उन से केवल अरबपतियों को खुशी हो सकती है कि ठेके मिलेंगे पर वे भी उन अरबपतियों को जो आज की सरकार के साथ हैं. तभी बजट का स्वागत करने वालों में वही सब से आगे हैं जिन्हें भाजपा की सरकार से कुछ उम्मीदें हैं.

वादों का खोखला बजट

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद में पेश पहले आम बजट में ऐसा कुछ नहीं है जिस से लगे कि देश में कुछ बदलाव आने वाला है. वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपने लंबे भाषण में तरहतरह के लुभावने वादे किए पर साफ लग रहा था कि उन वादों को पूरा करने में लंबा समय लगेगा और जब देश की नौकरशाही को उन प्रोजैक्टों में कोई रुचि न हो, केवल प्रोजैक्टों से मिलने वाले पैसे से हो तो वे कब पूरे होंगे, कहा नहीं जा सकता. इस प्रकार के वादे सभी वित्तमंत्री 60 साल से करते आए हैं. गनीमत यही है कि सरकार ने नए कर नहीं बढ़ाए, आम चीजों पर कम से कम. पर जब सरकार का खर्चा बढ़ रहा हो तो महंगाई कैसे रुकेगी, इस का फार्मूला पूरे बजट में न्यूक्लियर माइक्रोस्कोप से देखने पर भी न मिलेगा. पक्की बात है कि सरकार कर्ज लेगी और महंगाई बढ़ाएगी.

जो वर्ग नरेंद्र मोदी को इस उम्मीद से लाया था कि वे कांगे्रस से अलग क्रांतिकारी नीतियां लाएंगे जिन से उद्योग, व्यापार बढ़ेंगे, वह भी खुश नहीं है. उधर बजट के दिन शेयर बाजार भारी अंकों से गिरा पर फिर संभला पर अंत में कम पर ही बंद हुआ. यानी निवेशकों को भी बजट में ऐसा कुछ नहीं दिखा कि वे रात को पटाखे जला कर उस का स्वागत करते. भारत जैसे बड़े देश में कुछ करना आसान नहीं, यह मानी बात है पर यह तो पहले ही सोचना चाहिए था जब चुनावों के दौरान बड़ेबड़े वादे किए जा रहे थे. देश का संपन्न, धर्मभीरु वर्ग सोच रहा था कि ‘सुखी भव:’ के नारों की तरह देश का कल्याण स्वत: हो जाएगा अगर सही व्यक्ति को प्रधानमंत्री बना दिया जाए. उन्हें लगता था कि सही मंदिरों में पूजा करने से धन बरसता है तो सही को नोट और वोट देने से भी संपन्नता आ जाएगी. यह बजट दर्शाता है कि इस में ऐसा कुछ नहीं है जो आश्वासनों से ज्यादा हो.

नरेंद्र मोदी ने न तो सरकार का भारी- भरकम ढांचा हलका करने का वादा किया है और न ही नेहरूवादी समाजवादी ढांचे को खत्म करने का साहस दिखाया है.  कुछ सरकारी कंपनियों के शेयर बाजार में बेचने से काम नहीं चल सकता क्योंकि उस से आम जनता को लाभ नहीं होता. आयकर में निचली स्लैब पर छूट देना कोई क्रांतिकारी कदम नहीं है. यह तो जैसेजैसे रुपए की कीमत घट रही है, हर वित्तमंत्री करता आया है. लोग आयकर बचाने की कोशिश न करें, ऐसा कोई कदम वित्तमंत्री ने उठाया ही नहीं क्योंकि लगता है अब भाजपा सरकार भी कांगे्रसी सरकारों जैसे सारे सुखों को भोगना चाहती है, और उन्हें आम जनता पर न्योछावर नहीं करना चाहती.

शर्तिया कद बढ़ाओ, मर्दानगी लाओ, संतान पैदा करो जैसे नारों से जीत कर आई भाजपा सरकार के पहले बजट ने जो दवा दी है वह केवल कड़वी, बेमतलब के चूर्ण की गोली पर चाशनी की परत है, हर बार की तरह. नई सरकार जानती है कि उसे शासन से मतलब है, पैसा वसूलने से मतलब है, अपने हमदर्दों में बांटने से मतलब है, आम लोगों या देश की सरकार से नहीं. यह  भाजपा की नीयत की खराबी नहीं, शासन की कुरसी का असर है. जो उस पर बैठता है वह पिछले वाले की तरह ही काम करता है.

आप के पत्र

महिलाओं को होना पड़ेगा जागरूक

‘आप के पत्र’ स्तंभ (मई प्रथम अंक) में आईपी गांधी का पत्र पढ़ा. महिलाएं बेशक आज हर क्षेत्र में उन्नति कर रही हैं परंतु फिर भी नारी ही नारी की शोषक है. ये अपने पतियों की बेशक न मानें परंतु तथाकथित प्रवचनकर्ताओं के आयोजनों में बढ़चढ़ कर भाग ले रही हैं. वहीं से उलटीसीधी बातें सीखती हैं व उन के इशारों पर डांस भी करती हैं. अब तो प्रधानमंत्री भी ऐसे व्यक्ति चुने गए हैं जो स्वयं अंधविश्वासी हैं और इतिहास के विषय में कम जानते हैं, जैसे चुनाव के दिनों में दलितों की बात चली थी तो नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘श्रीराम’ ने भीलनी, जो दलित थी, के जूठे बेर खाए थे. यह राम की मजबूरी थी क्योंकि उस समय वे सीता की खोज में थे. यदि बेर न खाते और उन के (भीलनी के) साथ अच्छा व्यवहार न करते तो शायद सीता के बारे में कुछ पता न लगता अर्थात स्वार्थ हेतु जूठे बेर खाए गए. उस के बाद अपने राज्य में शंबूक का वध किया क्योंकि वे भक्ति कर रहे थे. यानी राम राज्य में कोई भी शूद्र न शिक्षा ग्रहण कर सकता था न भक्ति कर सकता था. गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में स्त्रियों की भर्त्सना की है परंतु फिर भी महिलाएं ही मोरारी बापू के प्रवचन सुनने को ज्यादा जाती हैं. जब तक महिलाओं में जागृति नहीं आती तब तक कहीं न कहीं महिला शोषण होता रहेगा.

चरंजी लाल, परवाणू (हि.प्र.)

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें