बदायूं की घटना और उस के बाद कुछ और गांवों में लगातार हुई बलात्कार की कई और घटनाओं की सुर्खियों ने 16 दिसंबर, 2012 के बस में हुए बलात्कार कांड की याद फिर सुलगा दी है. बदायूं में जिस तरह 4 लड़कों ने 2 दलित अबोध लड़कियों को बलात्कार का निशाना बनाया और फिर उन्हें पेड़ पर लटका कर मार डाला, यही जताता है कि हमारे समाज में बलात्कार व हत्या करना आम बात है. इसे करने वालों की तो छोडि़ए, उन के मातापिता को भी बलात्कारी बच्चों की घिनौनी करतूतों पर कोई रंज नहीं होता. ऊपरी जातियों का पूरा समाज अपने गुनाहगारों को बचाने में लग जाता है.

अन्य अपराधों में जहां समाज बचाव में आगे नहीं आता, बलात्कार के मामलों में वह बढ़चढ़ कर आगे आता है, खासतौर पर अगर मामले में ऊंचीनीची जातियां हों. बदायूं के मामले में चूंकि मामला दलित बनाम यादव है, 2 जातियां अलगअलग खेमों में खड़ी हो गई हैं और बलात्कार तो केवल बहाना रह गया है. ऐसा हो क्यों रहा है? इसलिए हो रहा है कि हमारा समाज अभी भी 19वीं सदी में जी रहा है और सोचविचार उन ग्रंथों और ग्रंथों के रखवालों पर निर्भर है जो जाति को ईश्वरप्रदत्त मानते हैं. शिक्षा मिली है पर उस से पढ़नालिखना आया है, सहीगलत समझना नहीं. हम जातियों में क्यों बंटे हैं? क्यों ऊंचनीच है? क्यों औरतों की दुर्दशा है? क्यों पोंगापंथी व्याप्त है? क्यों पाखंड बढ़ रहे हैं? ये सब सवाल हमारी शिक्षा में हैं ही नहीं.

शिक्षा हमें सिखा रही है कि कैसे अपनी जाति को उकसाओ, जाति के मिथक मजबूत करो, प्रचारप्रसार के तंत्रों का उपयोग करो, गालियां जो पहले बोली जाती थीं अब लिख कर भेजो. शिक्षा ने तर्क नहीं सिखाया. शिक्षा नाममात्र का तकनीकी ज्ञान दे रही है. शिक्षा पोंगापंथी की पोल नहीं खोल रही बल्कि वह धार्मिक अंधविश्वास बढ़ा रही है. शिक्षा का फायदा पोंगापंथी को व्यवसाय बना कर चलने वाले लोग विचारों की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए उठा रहे हैं. बलात्कार धर्मगं्रथों में हथियार थे, यह बात कहने का अधिकार छीना जा रहा है. अहल्या की कथा को झूठा रूप दिया जा रहा है. देवीदेवताओं के कुकर्मों को आम जनता जानती है, उन्हें चर्चा में आने नहीं दिया जा रहा. धर्म की रक्षा के नाम पर झूठ की रक्षा का अधिकार थोपा जा रहा है. ऐसे में समाज में परिवर्तन कहां से होंगे.

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