सरकार 100 करोड़ रुपए इस पर खर्च करेगी, 100 करोड़ रुपए उस पर, 20 हजार करोड़ रुपए की यह योजना है, 30 हजार करोड़ रुपए की वह, ये बातें बजट भाषण में अच्छी लगीं पर हैं बेमतलब की. ज्यादातर योजनाएं पुरानी योजनाओं का नया रूप हैं. 2-4 नई हैं तो उन्हें जमाने में ही वर्षों लग जाएंगे और अरबों खर्च करने के बाद भी जनता को क्या मिलेगा, पता नहीं. वैसे जनता को आजादी के बाद से ही कुछ न कुछ मिल रहा है. देश में सड़कों का जाल फैला है. नए स्टेशन खुले हैं. शहरों का विकास हुआ है. स्कूलकालेज खुले हैं. फ्लाईओवर, मैट्रो, पुल, हवाई अड्डे बने हैं. मोबाइल क्रांति दूसरे देशों के समकक्ष आई है. पर क्या इन के लिए कांग्रेसी सरकारों को जनता तमगा दे रही है? यह काम तो हर सरकार को करने ही हैं चाहे वह चंद्रशेखर और इंद्रकुमार गुजराल जैसों की ही क्यों न हो.

सरकारी खर्च पर बनने वाले प्रोजैक्टों में नई दृष्टि कहां है, यह बजट भाषण में कहीं नहीं दिखी. वैसे हर वित्तमंत्री कुछ न कुछ नया कहता है और उतना भर अरुण जेटली ने कहा है. कोई आमूलचूल परिवर्तन लाया गया हो, इस के दर्शन नहीं होते. सरकारी खर्च तो असल में कम से कम होना चाहिए. सरकार को सिर्फ वे काम करने चाहिए जो नागरिक खुद नहीं कर सकते.

रोजीरोटी देना सरकार का काम नहीं है. सरकार का काम जनता की कमाई रोजीरोटी को सुरक्षा देना है. सरकारी प्रोजैक्टों में यह कहीं नहीं दिखता. उन से केवल अरबपतियों को खुशी हो सकती है कि ठेके मिलेंगे पर वे भी उन अरबपतियों को जो आज की सरकार के साथ हैं. तभी बजट का स्वागत करने वालों में वही सब से आगे हैं जिन्हें भाजपा की सरकार से कुछ उम्मीदें हैं.

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