इस से भी ज्यादा गजब यह हुआ
कि उस ने सिर्फ यह बताया था कि मेरा घर मुमताजाबाद, मुलतान में है. इस से पहले कि वह मकान नंबर या अब्बा का नाम
बताता, उस की रूह उड़ गई. यह भी हो सकता है कि इतने दिन गुजर जाने के बाद वह यह मालूमात भूल ही गया हो. उसे
सिर्फ मुमताजाबाद याद रह गया हो.”
“उस बेहूदा आदमी ने तुम्हें हम से जुदा कर दिया और तुम उसे मोहसिन कहती हो. सोचो, अगर वह उसी वक्त तुम्हें हमारे
पास ले आता तो आज यह दिन देखने को नहीं मिलता.” रशीद अहमद ने गुस्से से कहा.
“मैं उसे इसलिए मोहसिन कहती हंू कि उस ने अपनी मौत से पहले मेरी हकीकत मुझे बता कर मुझ पर एहसान किया.
अगर वह न बताता तो आज मैं वहां होती, जहां से अगर वापस आती तो आप मुझे अपनी बहन जानते हुए भी कबूल करने से
इनकार कर देते.”
नरगिस ने आगे बताया, “अब यह बताना जरूरी नहीं कि अब मेरा वहां रहना मुश्किल नहीं रहा था. मैं उन के घर से निकली
और मुलतान का टिकट ले कर गाड़ी में बैठ गई. गाड़ी में मुझे सरफराज की वालिदा मिल गई. फिर जो कुछ हुआ, वह
सरफराज साहब आप को बता ही चुके हैं.”
नरगिस को कराची आते ही यह खबर मिल चुकी थी कि उस के वालिदैन का इंतकाल हो चुका है. अब रशीद भाईजान ही उस
के सब कुछ हैं. उस की खुशी आधी रह गई थी, लेकिन यह खुशी फिर भी थी कि अब वह एक शरीफ घर में शरीफाना
ङ्क्षजदगी गुजारेगी.
नई जगह थी, इसलिए सुबह जल्दी ही नींद टूट गई. सुबह से कुछ पहले ही वह बिस्तर से उठी. जब से वह बड़ी बी के घर आई
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