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इक जरा हाथ छूटा तेरा, रास्ते ही जुदा हो गये
कविता
हसरतें भी खूब निकली मेरी, मुराद भी कोई कहा रही अधूरी
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उसको अपना भी कह नहीं सकते कितने मजबूर ये हालात मेरे
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हर चीज निराली है इन ऊंचे मकानों में
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चुभ जाता है बस, सच जो तीखा कहता हूं…
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इक लुटेरे को मददगार न समझे कोई
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कितने ख्वाब पिघलते हैं
कविता
सोच का फर्क
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अनचाहा सा अपना
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लब मेरे खामोश रहेंगे
कविता
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कविता
सहरा में गुल खिलाओ तो कुछ बात बनेगी
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संत महिमा
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कविता
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