रात को चांद मेरी छत पे टहलने आया
उसने देखा बड़ा गुमसुम, बड़ा उदास मुझे
पास आकर बड़े हौले से दी आवाज़ मुझे
मैं उसे देखकर हैरान हुई जाती थी
मेरे सीने में मेरी सांस रुकी जाती थी
उसकी आंखें चमक रही थीं इक शरारत में
मुस्कुराया वो मुझे देखकर इस हालत में
फिर बढ़ाते हुए मेरी तरफ़ वो दस्ते-अदब
पूछ बैठा मेरी ख़ामोश तबीयत का सबब
मैं जो रहती थी ज़माने के छलावों से अलग
झूठे लोगों से, फ़रेबों से, दिखावों से अलग
मैंने पाया ही नहीं भीड़ के क़ाबिल खुद को
रास आयी फ़क़त तन्हाई की महफ़िल मुझको
इससे पहले कि ये बातें मैं उससे कह पाती
और कुछ देर मैं दुनिया से अलग रह पाती
दिल में उठते हुए तूफ़ान थम गये जैसे
शब्द होंठों पे थरथरा के जम गये जैसे
उसकी बाहों में गिरफ़्तार हो चुकी थी मैं
एक दुल्हन-सी लालो-ज़ार हो चुकी थी मैं
रात को चांद मेरी छत पे टहलने आया
मेरे कानों में जैसे बजने लगी शहनाई
जाग उठे सैकड़ों अरमान लेके अंगड़ाई
इक क़यामत हुआ उसका मेरे क़रीब आना
मेरा आग़ोश-ए-मोहब्बत में डूबते जाना
उसकी पलकें मेरी पलकों पे झुकी जाती थीं
उसकी सांसें मेरी सांसों में घुली जाती थीं
मेरे दिल में समा रही थीं धड़कनें उसकी
और नस-नस में दौड़ती थीं चाहतें उसकी
था वो परवाना, तो शमां सी जल रही थी मैं
उसके होंठों की तपिश से पिघल रही थी मैं
प्यार में गूंजते नग़मात सुने थे मैंने
उसकी आंखों से कई ख़्वाब चुने थे मैंने
उससे करने को मेरे पास थीं कितनी बातें
अब मेरे साथ नहीं थीं मेरी तन्हा रातें
रात को चांद मेरी छत पे टहलने आया
उसने दिल को खुशी, होंठों को वो हंसी दे दी
जैसे इक लाश को दोबारा ज़िन्दगी दे दी
दुनिया-ए-रंग-ए-मोहब्बत की कशिश ऐसी थी
मैं ज़माने के ग़मो-दर्द भूल बैठी थी
उसकी बाहों में यूं लहरा के झूल जाती थी
वो मेरे पास था, मैं खुद को भूल जाती थी
मैं अपने प्यार पे करती थी एतबार बहुत
और मेरे वास्ते वो भी था बेक़रार बहुत
पर मेरे मन में इक सवाल उठा करता था
क्यों मेरा चांद बस रातों को मिला करता था
क्यों नहीं दिन के उजाले में पास आता था
क्यों अपने प्यार को दुनिया से वो छुपाता था
जबकि रातों को एक जिस्म, एक जान थे हम
फिर ज़माने की निगाहों में क्यों अनजान थे हम
क्या मेरा चांद इस दुनिया में आ नहीं सकता
एक छोटा सा घरौंदा बना नहीं सकता
मैंने उस रात ये सवाल किया था उससे
अपने दिल का बयान हाल किया था उससे
बस मेरा चांद मेरे पास फिर नहीं आया
पड़ गयी मुझ पे अमावस की वो काली छाया
मैं सिसकती रही गुमनाम अन्धेरों में पड़ी
इन्तज़ार आज भी करती हूं उसका छत पे खड़ी
जबकि मालूम है कि अब वो नहीं आएगा
मेरी क़िस्मत का अन्धेरा कभी न जाएगा
जिसको पूजा था, जिस पे जान-ओ-जिस्म हारा था
वो मोहब्बत का नहीं था, हवस का मारा था
रूह को मेरी तार-तार किया था उसने
भावनाओं से बलात्कार किया था उसने
प्यार धोखा है ये पैग़ाम दे गया मुझको
मेरी चाहत का ये ईनाम दे गया मुझको
अब किसी और की बाहों में मचलता होगा
अब किसी और की छत पर वो टहलता होगा
अब किसी और की छत पर वो टहलता होगा
अब किसी और की छत पर वो टहलता होगा
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