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‘‘मैं ही नहीं, तुम्हारी प्रशंसा मुझ से सुनसुन कर मेरी मां भी तुम्हारी दीवानी हो उठी है. यह तो बताओ कि तुम्हारे मंदिर का यह कार्य कब तक पूरा होगा?’’

‘‘बस, एक सप्ताह का कार्य और है. फिर हम दोनों यहां से बहुत दूर चले जाएंगे अपनी गृहस्थी बसाने के लिए...’’

‘‘सच,’’ केचल प्रसन्नता से नाच उठी. भावावेश में उस ने वतुराज की दोनों खुरदरी हथेलियां अपने कोमल हाथों में भर लीं. यह उन का प्रथम शारीरिक संपर्क था. चातक पक्षी की भांति दोनों एकदूसरे को अपलक ताकते रहे.

‘‘केचल,’’ लंबे मौन के पश्चात वतुराज बोला, ‘‘मुझे विश्वास है कि चौहान शासक की ओर से मुझे इस देवालय के निर्माण के लिए पुरस्कार अवश्य मिलेगा. मैं ने सारी प्रतिमाएं व चित्र लगभग पूर्ण कर लिए हैं. केवल निश्चित स्थान पर उन के लगाने की आवश्यकता है. सम्राट की ओर से मिलने वाले पुरस्कार द्वारा हम अपनी गृहस्थी को सुगमतापूर्वक संचालित कर सकेंगे. उस छोटे से परिवार में केवल हम 2 ही सदस्य रहेंगे.’’

‘‘नहीं, 3 सदस्य रहेंगे. मेरी बूढ़ी मां भी तो हम पर ही निर्भर है.’’

‘‘अरे हां, यह तो मैं भूल ही गया था.’’

वतुराज स्वप्नों में खो गया. केचल के मन में विवाह की इंद्रधनुषी कल्पना से रंग ही रंग बिखर पड़े. उस का हृदय आलोडि़त हो उठा. अनायास हृदय के वशीभूत हो कर वह वटवृक्ष पर लिपटी किसी लता जैसी वतुराज के हृदय से लग गई.

वतुराज भी धीरेधीरे केचल को अपनी बांहों में समेटता गया. फिर भी उस का विवेक उसे चेतावनी दे रहा था, ‘वतुराज, संभल जाओ, तुम वासना के हाथों लुटे जा रहे हो.’

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