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‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘केचल.’’

‘‘कौन से गांव में रहती हो?’’

‘‘ऊपर पहाड़ पर एक छोटी सी ढाणी (गांव) है-बेस. वहां 30 घर हैं.’’

‘‘मुझे जानती हो?’’

‘‘तुम्हें? सच बताऊं?’’ युवती खिलखिला उठी, ‘‘पास के मंदिर में पत्थरों से घंटों सिर खपाने वाले सिरफिरे पागल से इस क्षेत्र का बच्चाबच्चा परिचित है.’’

‘‘हूं. तो मैं सिरफिरा पागल हूं?’’

‘‘हां, यही नामकरण किया गया है तुम्हारा. वैसे भी सिरफिरे पागल नहीं होते तो क्या इस कुंड की सीढि़यों पर मुर्दों से शर्त लगा कर सोते? मैं ने चुपचाप, रात में पहरों तुम्हें छेनीहथौड़े से दत्तचित्त पत्थरों को तराशतेसंवारते देखा है.

‘‘मेरी उस समय कितनी इच्छा होती थी कि तुम्हें विश्राम करने के लिए मजबूर करूं. पर लाज के कारण मैं मंदिर में पैर रखने का भी साहस नहीं कर सकी. अब जब इस देवालय की काया कुछ निखरी तो तुम्हारी मेहनत का मूल्य मुझे ज्ञात हुआ. सचमुच मेरी ढाणी का हर प्राणी, छोटा या बड़ा, तुम्हारी बहुत इज्जत और सम्मान करता है.’’

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‘‘अच्छा… और तुम?’’

‘‘मैं?’’ केचल के मुख पर शरारत नाच उठी, ‘‘तुम्हें सब से अधिक…’’ अपनी बात बीच में छोड़ कर वह चुनरी का पल्ला मुख में दबा कर भागते हुए बोली, ‘‘तुम्हें चाहती…नहींनहीं, घोंघा- बसंत मानती हूं.’’

वतुराज देखता रह गया. केचल पल भर में भाग कर दूर अंतर्धान हो गई.

रात्रि के दूसरे पहर तक वतुराज शिव मंदिर में एकाग्रता से कार्य करता रहा.

‘‘केचल, इधर आओ,’’ बिना पीछे गरदन मोड़े वतुराज ने सहसा आवाज दी.

‘‘अरे, तुम्हें कैसे पता चला कि मैं यहां बैठी हूं?’’ केचल ने आश्चर्य प्रकट किया.

‘‘क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि मेरी पीठ में भी 2 आंखें हैं जिन से केचल को पहचानना कठिन नहीं है.’’

‘‘रहने दो, बातें बनाने की आवश्यकता नहीं है,’’ पल भर रुक कर वह फिर बोली, ‘‘देखो तो मैं तुम्हारे लिए क्या ले कर आई हूं. मक्का की रोटी और गाजरपालक का साग. मैं गरमगरम लाई थी पर तुम ने अपनी तन्मयता में इन्हें ठंडा कर दिया.’’

‘‘ओहो, पर तुम ने कितना घी डाला है साग और रोटियों में. अरे, यदि मैं ऐसा खाना 4 दिन भी लगातार खा लूं तो 5वें दिन थुलथुल हो कर यहीं कहीं लुढ़का पड़ा मिलूं. भला बताओ कि फिर ये मूर्तियां कौन बनाएगा?’’

‘‘हाय,’’ सहसा केचल के मुख से विस्मयपूर्ण स्वर निकला, ‘‘तुम ने तो सभी प्रतिमाओं में मेरी छवि बना दी है. तुम्हारे हाथ में कोई चमत्कार है क्या?’’

‘‘अभी तो देखना, केचल, इस पूरे देवालय के कणकण में मैं तुम्हारी ही मुखाकृति अंकित करूंगा. जानती हो क्यों?’’

‘‘क्यों?’’ पुलकित हो कर केचल ने प्रश्न किया.

‘‘इसलिए कि मैं तुम्हें हृदय से चाहता…नहींनहीं, ईर्ष्या करता हूं.’’

‘‘धत,’’ लाल बहूटी बनी केचल मंदिर से भाग छूटी.

वतुराज ने थोड़े ही समय में अपने निपुण हाथों से केचल की कई सुंदर प्रतिमाएं बनाईं. कहीं नृत्य मुद्रा, कहीं स्नान करते, पक्षियों को पकड़ते, प्रोषित पतिका नायिका तथा उल्लास, करुण, विरह, प्रेम, रोष, घृणा आदि प्रकट करती उस की सजीव आकृतियां उस की छेनी व हथौड़ी से बोलती सी प्रतीत हो रही थीं. इसी प्रकार भित्तिचित्रों में भी केचल के ही आकर्षक भिन्नभिन्न रूप थे.

लोग वतुराज की कला की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे. देवालय के कोनेकोने में लगाई जाने वाली अपनी मुखाकृतियों को देखदेख कर तथा सहेलियों को दिखा कर केचल आठों पहर मानो सपनों के मेघों पर आरूढ़ रहती.

नई प्रतिमाओं व यथार्थवादी जीवन के सुंदर चित्रों से देवालय का रूप निखर आया. चौहान विग्रहराज तृतीय के कानों में

भी मेणाल

के देवालय की भव्यता की खबर पहुंची.

वतुराज के शिल्प को अपनी आंखों से देखने के लिए वह लालायित हो उठा.

दूसरी ओर वतुराज व केचल अनवरत प्रेम की पेंगें भर रहे थे. रात्रि के दूसरे व तीसरे पहर में केचल बिना नागा देवालय की परिधि में ही दिखाई पड़ती. अब तो प्रात: व संध्या दोनों समय वह वतुराज को सुस्वादु खाना ले जा कर देती. कई आकृतियां तो वतुराज ने केचल को घंटों अपने सामने बैठा कर ही निर्मित की थीं.

‘‘एक बात तो बताओ,’’ एक संध्या को अपनी छेनीहथौड़ी एक ओर रख कर वतुराज ने अचानक केचल से प्रश्न किया, ‘‘तुम यहां प्रतिदिन आती हो, घंटों मेरे सामने बिना हिलेडुले विशेष भावभंगिमा में मौन बैठी रहती हो, क्या तुम्हारे घर वाले और ढाणी के लोग तुम पर उंगलियां नहीं उठाते?’’

दूर के उच्च स्थान से उठ कर, अंगड़ाई लेते हुए केचल बोली, ‘‘आज तो एक ही मुद्रा बना कर बैठने से मेरी कमर दुख गई है. घर वाले या गांव वाले मुझ पर क्रोध क्यों करेंगे? मैं छिप कर तो यहां आती नहीं हूं. वैसे भी जब मैं कोई पाप नहीं कर रही हूं तो मुझे चिंता भी किस की है? फिर मैं अपनी अंधी, बूढ़ी मां को सबकुछ बता चुकी हूं तुम्हारे विषय में. यहां आने का अपना महत्त्व भी मैं उसे स्पष्ट कर चुकी हूं.

‘‘यदि मेरे कारण तुम्हारी कला में निखार आता है तो घंटों क्या, कई बरस, बल्कि जीवन भर बिना हिलेडुले तुम्हारे सामने मैं बैठी रह सकती हूं. एक बात और भी है मूर्तिकार, प्रत्येक नारी सामने वाले पुरुष को परख कर ही उस से संपर्क बढ़ाती है. तुम्हारे स्थान पर और कोई होता तो शायद मैं देवालय की सीमा में ही पैर न रखती.’’

‘‘पर, केचल, लोग कहते हैं और मैं भी जानता हूं कि मैं अत्यंत कुरूप व्यक्ति हूं. मेरे मुख पर चेचक के मोटेमोटे दाग हैं, मेरा रंग आबनूस सा काला है और…’’

‘‘और तुम्हारी आंखें हाथी जैसी छोटी हैं, तुम्हारी नाक बहुत चौड़ी है, तुम्हारा मुख सपाट है, होंठ बहुत मोटे हैं, हाथपैर टेढ़ेमेढ़े हैं, तुम्हारा सीना भीतर को दबा हुआ है. बस, या तुम्हारे रूप का और भी बखान करूं?

‘‘तुम्हारे इस शारीरिक रूप का वर्णन तो मैं अपनी सहेलियों से दिन भर सुनती रहती हूं. पर तुम्हारा चांदी सा निर्मल मन, स्फटिक जैसा हृदय, हजारों नवीन कल्पनाओं व विचारों में खोया रहने वाला तुम्हारा मस्तिष्क, मूक पत्थरों को स्वर प्रदान करने वाले तुम्हारे हाथ, इन सब की खूबसूरती तो मैं ही उन्हें बताती हूं.

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