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मेणाल के मंदाकिनी कुंड की सीढि़यों पर वतुराज पिछले एक पहर से नेत्र बंद किए लेटा हुआ था. उस के मस्तिष्क में भयंकर हलचल थी. वास्तव में समस्या विकट थी.

निकट के शिव मंदिर के निर्माण में वह पिछले 4 वर्षों से व्यस्त था. उस ने देवालय सहित पश्चिममुखी मुख्यमंडप, प्रदक्षिणा पथ, अंतराल, शिखर व तोरण की साजसज्जा पर अपना स्थापत्य ज्ञान व संपूर्ण शिल्प व्यय कर दिया था.

पर देवालय का प्रवेशद्वार तथा भित्तियां अभी भी किसी विधवा की मांग की तरह सूनी थीं. अनवरत चिंतन के उपरांत भी वह इन के अनुरूप सुंदर चित्रों के अंकन तथा प्रतिमाओं के निर्माण में अपनेआप को असमर्थ पा रहा था.

उस की इच्छा विशेषकर प्रवेशद्वार को अनूठे व अगाध आकर्षण से भर देने की थी. पर उस की कल्पना तो जैसे दम तोड़ चुकी थी. देवालय की आत्मा को उस ने अतीव भव्यता प्रदान की थी.

विशाल शिवलिंग, भयावह काली, रौद्र रूप महाकाल, भैरव व अन्य परंपरागत देवीदेवताओं की सुंदर प्रतिमाएं उस ने चौहान शासक की इच्छा के अनुरूप निर्मित की थीं. मनोहर बेलबूटे, कई रंगों से युक्त नक्काशी, पशुपक्षियों के सजीव चित्रण आदि उस की शिल्पश्रेष्ठता के प्रमाण थे.

पर वह कुछ जीवंत चित्रण प्रस्तुत करना चाहता था. जैसे अप्सराएं, नर्तकियां, युगल गायक, नर्तक आदि. इन सब के लिए दिनप्रतिदिन के जीवन से वह किसी अछूते नारी सौंदर्य की खोज करना चाहता था. ऐसा सौंदर्य जिस के चित्रण से देवालय के बाह्य कलेवर में प्राण फूंके जा सकें. ऐसे अप्रतिम नारी सौंदर्य की खोज में वतुराज जहाजपुर, माडण व मेवाड़ में पिछले 4 माह से भटक कर लौटा था.

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