‘‘अरुणाजी, आप का फोन,’’ वृद्धाश्रम के प्रबंधक मनोहरजी ने कहा.
‘मेरा फोन?’ अरुणा सोचने लगी, कौन हो सकता है.
‘‘आज कोई खास दिन है क्या, मनोहरजी?’’ अरुणा ने जिज्ञासा से पूछा.
‘‘हां, आज तो आप लोगों का ही दिन है.’’
‘‘हमारा दिन?’’ कह अरुणा ने मनोहरजी से फोन ले लिया, ‘‘हैलो.’’
‘‘हैप्पी मदर्स डे, मम्मा,’’ आभास का स्वर सुनाई दिया. अरुणा एक पल को रिसीवर हाथ में पकड़े स्तब्ध खड़ी रही. उस के मुंह से बोल भी नहीं फूट सके थे. बस, आंखें झरझर बह रही थीं, जिह्वा तालू से चिपक गई थी.
‘‘क्या हुआ, मम्मा, आप ठीक तो हैं न? मैं आश्रम वालों को हर माह पेमैंट भेज देता हूं. ओके, टेक केयर,’’ और फोन कट गया.
रिसीवर पकड़े हुए कुछ पल यों ही निशब्द बीत गए.
‘‘हो गई बात?’’
मनोहरजी के कहने पर ‘जी’ कह कर अरुणा ने फोन रख दिया. भारी कदमों से चलती हुई वह अपने कमरे में आ गई.
‘‘क्या हुआ? क्या व्हाइट हाउस से डिनर का निमंत्रण था?’’ मनोरमा ने चुटकी वाले अंदाज में कहा.
‘‘हां, तो? तेरे राम व लक्ष्मण ने नहीं बुलाया क्या? और बुलाएंगे भी क्यों, वे तो तेरे लिए फूलों का गुलदस्ता लाएंगे, घर से पकवान बनवा कर लाएंगे,’’ अरुणा ने भी मनोरमा को छेड़ने वाले अंदाज में कहा और दोनों ही हंसने लगीं.
अरुणा और मनोरमा दोनों आश्रम में रहती थीं और एकदूसरे की अभिन्न मित्र बन गई थीं. एक ही कमरे में दोनों रहती थीं. अरुणा 5 वर्षों से इस वृद्धाश्रम में रह रही थी. जब आभास अमेरिका जा रहा था तभी उस ने अरुणा को इस आश्रम में पहुंचा दिया था यह कह कर कि ‘मां, तुम अकेली कहां रहोगी, इस आश्रम में तुम्हारे सरीखे बहुत लोग हैं, मन भी लगा रहेगा, और उचित अवसर मिलते ही मैं तुम्हें ले जाऊंगा.’ और फिर वह अपनी पत्नी तथा दोनों बच्चों को ले कर चला गया. तब से अरुणा उस उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी जो शायद कभी नहीं आने वाला था.