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यों तो आश्रम में सभी रहने वालों के अपनेअपने, किसी न किसी प्रकार के दुख थे किंतु इन दोनों की मित्रता, उन का आपसी सद्भावनापूर्ण व्यवहार उन दोनों को एकसूत्र में पिरोए था.दोनों को अपने घर लौटने की आशा थी. अरुणा कहती, ‘‘देख मन्नो, जब मुझे मेरा बेटा लेने आएगा तब तू भी मेरे साथ चलेगी. मैं तुझे इस आश्रम में अकेला नहीं छोड़ूंगी.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, यदि मेरे बेटे मुझे लेने आएंगे, तब?’’ मन में सोचती कभी नहीं आएंगे, आना होता तो अब तक आ न गए होते. किंतु अरुणा की आशावादी दृष्टि उस में भी कहीं न कहीं आशा की एक लौ जलाए हुए थी कि शायद कभी उन के बेटों को उन की जरूरत महसूस हो. कितनी बरसातें आईं, कितने सावन आए, कितनी होलीदीवाली आईं पर वे न आए जिन की प्रतीक्षा थी. हर वर्ष दीवाली पर अरुणा हर वह पटाखे लाती जोजो उस के बच्चों को पसंद थे. पर पटाखे बिना जले ही पड़े रह जाते थे.

हर वर्ष की होली बेरंग ही बीत रही थी, कहां गए वो अबीरगुलाल, लालहरे रंग से भरी पिचकारियां? आश्रम में भी होली पर गुझिया बनतीं, अबीरगुलाल भी आते किंतु उसे तो अपनी होली याद आती थी. 15 दिन पहले से ही पापड़, चिप्स, चावल के सेव आदि बनते थे, एक सप्ताह पूर्व ही पकवान बनने शुरू हो जाते थे, मठरियां, काजू वाली दालमोंठ, तिलपूरी, गुझिया, दहीबड़े और भी न जाने क्याक्या. लोग आते थे उस के बनाए पकवानों को खा कर तारीफें करते थे और उस को लगता था कि उस की मेहनत सफल हो गई है. कहां गए वो सुनहरे दिन? क्या जीवनसंध्या इतनी भी बेरंग हो सकती थी, इस की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी लेकिन अब तो यही सत्य उन दोनों के सामने मुंहबाए खड़ा था. दोनों ही अपनेअपने गम में डूबी रहती थीं परंतु एकदूसरे का साथ नहीं छोड़ती थीं. जीवन के इस कड़वे सत्य को स्वीकारने के बाद भी मोहभंग नहीं हुआ था उन का. आशा और आशा, यादें और यादें…यही तो धरोहर थीं उन की.

‘‘मन्नो, मेरा एक काम करोगी?’’

‘‘क्या, बोल न, ऐसा कौन सा कार्य बाकी रह गया है जो तुझे करना है?’’ मन्नो ने ठिठोली की लेकिन अरुणा की ओर देख कर सहम गई. वह शून्य में निहार रही थी, जैसे इस दुनिया से बहुत दूर किसी अनजानी दुनिया में विचरण कर रही हो. उस ने मन्नो की ठिठोली पर ध्यान नहीं दिया और बोलने लगी, ‘‘मैं ने अपने पोते की बहू के लिए मकरमुख कड़े बनवाए थे. सोचा था, उस की मुंहदिखाई में दूंगी लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय को आने में अभी बहुत देर है और अब तो मेरे पास समय भी नहीं है. सोचती हूं, क्या कभी मेरे जीवन में वह सुअवसर आएगा. शायद नहीं, अब जीवन ही कितना शेष है?’’ कह कर अरुणा सिसक पड़ी.

‘‘अच्छा अरुणा, एक बात बता, हम माताएं अपने रक्त से अपने बच्चों की शिराओं को सींचती हैं, उन्हें जीवन प्रदान करती हैं, उन के सुख के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग करने को तत्पर रहती हैं, सारे रिश्तेनातों से उन का परिचय कराती हैं. क्या वही बच्चे इतने निर्मोही हो सकते हैं?’’ मन्नो ने कहा.

अरुणा कुछ भी न कह सकी. वह केवल उस का हाथ पकड़ कर ढाढ़स देती रही. वह कर भी क्या सकती थी. भला एक अंधा दूसरे अंधे को क्या रास्ता दिखा सकता है. उस ने मनोरमा को साथ लिया और अपने कमरे में आ गई. एक छोटा सा बौक्स खोला जिस में से नवजात शिशु के लिए छोटा सा लाल रंग का स्वेटर निकाला, टोपी तथा छोटीछोटी जुराबें और एक छोटा सा दूध का गिलास.

‘‘देख मन्नो, यह मेरे आभास का थोड़ा सा सामान है. मैं जब इन चीजों को छूती हूं तो ऐसा लगता है जैसे छोटा, गदगदा सा प्यारा गोलमटोल आभास मेरी गोद में खेल रहा है, बारबार आंचल हटा कर बगल में मुंह मारता है. अभी भी इन सामानों से कच्चे दूध की महक आती है. यही मेरी थाती है,’’ कह कर अरुणा बिलख पड़ी.

मनोरमा कुछ भी न कह सकी किंतु विचारों से प्रतिपल वह अपने अतीत में भटक रही थी. जीवन के इस कड़वे सत्य को स्वीकारना ही अब इन की नियति थी. किंतु मन, उस पर कभी किसी का जोर चल पाया है कहीं, बारबार बीते दिनों की ओर ही भागता है. एक संतान के लिए लोग कितने जतन करते हैं, क्याक्या नहीं करते हैं किंतु क्या दे देती हैं संतानें उन को, सिवा अवसाद, एकाकीपन के. वे छोड़ देती हैं मातापिता को तिलतिल मरने के लिए. यह सब जानते हुए भी हम क्यों इस मृगमरीचिका के पीछे दौड़ते हैं. जब भी दोनों एकांत में होती थीं, अरुणा अपने मन की भड़ास निकालती थी किंतु मनोरमा चुपचाप सब सुनती रहती थी. उसे भी अपने बेटों पर बड़ा गरूर था किंतु सब मिथ्या निकला. उस की सोच थोड़ी आध्यात्मिक थी और वह सब को यही सलाह देती थी, ‘‘किसी से कुछ भी अपेक्षा न रखो. तुम्हारा जो भी कर्तव्य है, बस, उस का निर्वाह करते रहो.’’

किंतु जीवन की इस सांध्यबेला में जब वह एकदम अकेली पड़ गई तब उसे समझ में आया कि उपदेश देना कितना आसान है, किंतु जब स्वयं पर पड़ती है तब सत्य पर से परदा हट जाता है. थोड़ी देर में ही दोनों सामान्य हो चली थीं. शाम का समय हो चुका था. सभी लोग हौल में उपस्थित थे. मनोरमा और अरुणा ने सब से बाद में प्रवेश किया. प्रबंधक मनोहरजी ने उन्हें घूर कर देखा, दोनों सहम सी गईं क्योंकि वे विलंब से आई थीं. आश्रम में मनोहरजी का सभी सम्मान करते थे. यों तो वे भी अपनी संतानों की उपेक्षा के शिकार हुए थे किंतु वे एक पुरुष थे और कर्मठ थे. उन्होंने हार नहीं मानी और इस आश्रम के प्रबंधक बना दिए गए. सभी उन का बहुत सम्मान कते थे, अनुशासनहीनता उन्हें बरदाश्त नहीं थी.

रात का भोजन शुरू हुआ. भोजनोपरांत सभी स्त्रियां मनोरमा को घेर कर खड़ी हो गईं. उन सभी में मनोरमा बहुत लोकप्रिय थी. वह किसी को कढ़ाईबुनाई सिखाती तो किसी को लिखनापढ़ना या फिर तरहतरह के व्यंजन बनाना सिखाती थी. सभी स्त्रियां उसे अपनाअपना काम दिखा रही थीं. मनोरमा हंसहंस कर सब के कामों को देख रही थी तथा तारीफें भी कर रही थी. अरुणा का मन नहीं लग रहा था. वह अकेली ही अपने कमरे में चली आई और आते ही बत्ती बंद कर के सोने का उपक्रम करने लगी. मनोरमा ने आते ही बत्ती जला दी.

‘‘क्या करती है, सोने दे न,’’ अरुणा खीझ कर बोली.

‘‘अच्छा, बड़ी जल्दी नींद आ गई, रोज तो रात में 12 बजे तक मेरा सिर खा जाती है बकबक कर के और आज, नींद का बहाना मार रही है. चल उठ, अभी हम लोग दोदो हाथ रमी खेलेंगे.’’

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