बाहर से सख्त दिखने वाली, रूल्सरैगुलेशन को मानने वाली स्मिता के पीजी की मालकिन शोभा आंटी किसी पर विश्वास नहीं करती थीं. फिर ऐसा क्या हुआ कि वे स्मिता की शोभा मम्मी बन गईं?

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर लोगों की भीड़ कंचेगोटियों सी  प्रतीत हो रही थी. लग रहा था जैसे किसी बच्चे के हाथ से ढेर सारे कंचे छूट कर चारों ओर बिखर गए हों. इतनी भीड़ स्मिता ने सिर्फ फिल्म के परदे पर देखी थी. उस के अपने शहर जबलपुर में तो शायद कुल मिला कर इतने ही लोग होंगे जितने यहां स्टेशन पर.

जबलपुर की और्डिनैंस फैक्टरी में कार्यरत उस के पापा, वहीं एक छोटे से महल्ले में रहती आई स्मिता एमबीए कर, नौकरी पाते ही साहस बटोर कर चली आई थी मुंबई. वह भी अकेली. कितनी मुश्किल से माने थे उस के पापा.

‘अब मैं बड़ी हो गई हूं, पापा. हर जगह आप की गोदी में थोड़े ही जाऊंगी. जब पढ़ाई पूरी कर, इंटरव्यू में चुनी जा कर नौकरी पा सकती हूं तो टे्रन में बैठ कर मुंबई क्यों नहीं जा सकती? वैसे भी कंपनी की तरफ से मुझे स्टेशन पर रिसीव किया जाएगा. आप ने भी तो बात की है न फोन पर कंपनी के बौस से.’

पापा मान तो गए पर हर पिता की तरह उन्होंने कई हिदायतों की लिस्ट भी रटा दी थी उसे. ‘हांहां पापा, पहुंचते ही फोन करूंगी. टे्रन में किसी से ज्यादा बात नहीं करूंगी, किसी का दिया कुछ नहीं खाऊंगी, अपना पूरा ध्यान रखूंगी. आप प्लीज चिंता न करना.’ लेकिन यहां लोगों के महासागर में कदम रखते हुए वह मन ही मन सहम गई. चारों ओर नजर उठा कर देखते ही उसे अपने नाम का प्लेकार्ड लिए एक लड़का दिखाई दिया. वह उस की ओर बढ़ गई.

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