किंतु अरुणा न उठी. चादर के भीतर उस ने अपना मुंह छिपा लिया था.
‘‘ठीक है, मर, जो भी करना हो कर, मुझे क्या करना है. न जाने क्यों हर समय अपनी ही दुनिया में जीती है. अरे क्या, तुझे ही एक दुख है?’’
किंतु अरुणा ने कोई उत्तर नहीं दिया. बकझक कर के मनोरमा भी सो गई. सुबह अरुणा जल्द ही उठ गई, देखा मनोरमा सो रही थी, ‘‘हुंह, अभी तक सो रही है, न जाने रात में क्या करती है.’’ उस ने उठ कर कमरे को ठीक किया, स्नान किया और ध्यान लगाने बैठ गई. तभी मनोरमा भी उठ गई. तैयार हो कर दोनों कमरे से बाहर आईं. चायनाश्ते का समय हो चुका था.
‘‘हां तो अरुणा, उन छोटे कपड़ों का क्या करना है तू ने बताया नहीं,’’ मनोरमा ने छेड़ा.
‘‘यदि मेरी मौत हो जाए तो आभास को सौंप देना. यह बता कर कि यह उस की पुत्रवधू के लिए है,’’ अरुणा ने शांत स्वर में उत्तर दिया. और दोनों चाय पीने लगीं.
दोपहर के भोजन का समय हो चुका था. मनोरमा ने आवाज लगाई, ‘‘चल खाना खाने, रोज तो तू मुझे याद दिलाती है लेकिन आज मैं तुझे बुला रही हूं. देर होने पर पता नहीं क्या खाने को मिले, क्या न मिले, चल जल्दी,’’ लेकिन अरुणा ने नहीं में सिर हिला दिया. मनोरमा अकेली ही चली गई, ‘‘हुंह, न जाने क्या हो जाता है इस पगली को, न जाने किस जिजीविषा में जी रही है. अरे, बेटे को आना होता तो अब तक आ न जाता, मुझे क्या करना है.’’ भोजनोपरांत मनोरमा कमरे में आई. अरुणा उसी प्रकार बैठी थी गेट की ओर टकटकी लगाए. अकस्मात वह पलटी और मनोरमा से बोली, ‘‘चल, अभी रमी खेलते हैं. आज मैं तुझे खूब हराऊंगी.’’