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नेहा का मन आज सुबह से ही घर के कामों में नहीं लग रहा था. उत्सुकतावश वह बारबार अपने चौथे मंजिल के फ्लैट की छोटी सी बालकनी से झांक कर देख रही थी कि सामने वाले बंगले में कौन रहने आने वाला है ? कल बंगले का सामान तो आ गया था, बस इंतजार था तो उस में रहने वाले लोगों का. इस से पहले जो लोग इस बंगले में रहते थे, वे इतने नकचढ़े थे कि फ्लैट में रहने वालों को तुच्छ सी नजरों से देखते थे. उन्हें अपने पैसों का इतना घमंड था कि आंखें हमेशा आसमान की तरफ ही रहती थीं. नेहा ने कितनी बार बात करने की कोशिश की, पर उस बंगले वाली महिला ने घास नहीं डाली.

किसी ने सच कहा है कि इनसान कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, उसे अपने पैर जमीन पर रखने चाहिए, हमेशा आसमान में देखने वाले कभीकभी औंधे मुंह गिरते हैं. इन बंगले वालों का भी यही हुआ, छापा पड़ा, इज्जत बचाने के लिए रातोंरात बंगला बेच कर पता नहीं कहां चले गए?

“अरे, ये जलने की बू कहां से आ रही है, सो गई क्या?” पति की आवाज सुन कर नेहा हड़बड़ा कर किचन की तरफ भागी, “अरे, ये तो सारी सब्जी जल गई…”

“आखिर तुम्हारा सारा ध्यान रहता कहां है? कल से देख रहा हूं, कोई काम ठीक से नहीं हो रहा है. बंगले वालों का इंतजार तो ऐसे कर रही हो जैसे वो बंगला तुम्हें उपहार में देने वाले हों, अब बिना टिफिन के ही दफ्तर जाऊं क्या? या कुछ बनाने का कष्ट करोगी.”

पति की जलीकटी बातें सुन कर नेहा की आंखों में आंसू आ गए. वह जल्दीजल्दी दूसरी सब्जी बनाने की तैयारी करने लगी.

‘सही तो कह रहे हैं ये, सत्यानाश हो इन बंगले वालों का,’ सुबहसुबह दिमाग खराब हो गया.

पर, नेहा भी करे तो क्या करे…, बड़ा सा घर होगा, नौकरचाकर होंगे, गाड़ी होगी, पलकों पर बैठाने वाला पति होगा, पर सारे सपने चकनाचूर हो गए. छोटा सा फ्लैट, पुराना सा स्कूटर, सीमित आय और वो घर की नौकरानी. सारा दिन किचन में खटती रहती है वह, उस पर पति के ताने कि ढंग से पढ़ीलिखी होती तो इस मंहगाई के दौर में नौकरी कर के घर चलाने में मदद तो करती, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों को तो घर में पढ़ा लेती, इतनी मंहगी ट्यूशनों की फीस बचती.

मन जारजार रोने को हो आया, पर मुझे घरगृहस्थी के काम चैन से करने भी नहीं देते. जैसेतैसे टिफिन तैयार कर के पति को थमाया, गुस्से के मारे पतिदेव ने टिफिन लिया और बिना उस की तरफ देखे चलते बने.

जबतब पति की ये बेरुखी नेहा के दिल को अंदर तक कचोट जाती है. कितना गुमान था उसे अपनी खूबसूरती पर, परंतु पति के मुंह से तो कभी तारीफ के दो बोल भी नहीं निकलते, सुनने को कान तरस गए उस के…

तभी कार की आवाज सुन कर उस की तंद्रा टूट गई. थोड़ी देर पहले का सारा वाकिआ भूल कर वह दौड़ कर बालकनी में पहुंच गई, लगता है, बंगले वाले लोग आ गए. कार से उतरती महिला को देख कर नेहा अंदाजा लगाने लगी, उम्र में मेरे जितनी ही लग रही है. अरे, ये तो… कांची जैसे दिख रही है??? नहींनहीं, वह इतने बड़े बंगले की मालकिन कैसे हो सकती है… पर, नहीं… ये तो वो ही है. उस ने झट से अंदर आ कर बालकनी का दरवाजा बंद कर दिया.

उफ, ये यहां कैसे आ गई? इतनी बड़ी दुनिया में इसे रहने के लिऐ मेरे घर के सामने ही जगह मिली थी क्या?

आज तो दिन नहीं खराब है, सुबहसुबह पता नहीं किस का मुंह देख लिया. हो सकता है, मेरी आंखों का धोखा हो, वो कांची न हो, कोइ ओर हो…, पर पर वो तो वही थी.

हाय री, मेरी फूटी किस्मत, वैसे ही इस घर में कौन से जन्नत के सुख थे, ऊपर से ये नई बला आ गई.

अस्तव्यस्त फैला हुआ घर, किचन में बिखरा फैलारा, ढेर सारे झूठे बरतन, सब बेसब्री से नेहा की बाट जोह रहे थे, पर आज तो उस का मन एकदम खिन्न हो गया था. सारा काम छोड़ कर वह बेमन सी बिस्तर पर लेट गई.

कितने वक्त बाद आज कांची को देख कर फिर अतीत के गलियारों में भटकने लगी.

पुराने भोपाल के एक छोटे से महल्ले में घर था उस का. प्यारा सा, अपनों से भरापूरा घर और घर के साथ ही सब के दुख में रोने के लिए कंधा देने वाला, खुशियों में दिल से खुश होने वाला, अपनत्व से भरपूर, प्यारा सा अपना सा महल्ला. हर एक के रिश्ते को पूरा महल्ला जीता था. सामने वाले घर में जो रिंकी रहती थी, उस की चाची उन के साथ रहती थी, वो पूरे महल्ले की चाची थी. आज वो पोतेपोतियों वाली हो गई हैं, फिर भी अभी तक छोटेबड़े सब उन को चाचीजी कहते हैं. हंसी तो तब आती थी, जब पिताजी उम्र में बडे़ होने के बाद भी उन्हें चाचीजी कहते थे. कोई बंटी की मम्मी को छः नंबर वाली भाभी, कोई दो नबंर वाली आंटी, सब ऐसे उपनामों से पुकारी जाती थी. वे संबोधन कितने अपने से लगते थे, आजकल मिसेस शर्मा, मिसेज गुप्ता, ये… वो… सब दिखावटी से लगते हैं.

गरमियों में शाम को और सर्दियों में दोपहर को सब औरतों की दालान में महफिल जमती थी, जिस में शामिल होता था सब्जी तोड़ना, पापड़, बड़ियां बनाना, सुखाना, ढेरों व्यंजनों की विधियों का आदानप्रदान, स्वेटरों की नईनई डिजाइनें बनाना, एकदूसरे को सिखाना, अपनेअपने सुखदुख साझा करना… क्या जमाना था वो भी… हम बच्चे स्कूल से आ कर बस्ते रखते और जी भर कर धमाचौकड़ी करते,  कभी लंगड़ी, कभी छुपाछुपी, कभी पाली जैसे ढेरों खेल खेला करते थे.

उस जमाने में टेलीविजन तो था नहीं, सो समय की भी कोई कमी न थी, कितनी बेफ्रिकी, सुकून भरे दिन थे वे… घर के आसपास सब जगह कितना भराभरा लगता था, उस दौर में अकेलेपन जैसे शब्द का नामोनिशान नहीं था और आज का वक्त देखो, इन बड़ेबड़ें शहरों में सब अपने छोटेछोटे दड़बों में कैद हैं.

घर से निकलते ही दिखावटीपन का मुखौटा हर किसी के चेहरे पर चढ़ जाता है, आत्मीयता का नामोनिशान नहीं दिखता, दिखते हैं तो बस दौड़तेभागते भावविहीन चेहरे, जिन्हें किसी के सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं होता है. अपना घर और महल्ला याद आते ही नेहा की आंखें डबडबा गईं.

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