यों तो पीठ पीछे बोलने वालों से ज्यादा अच्छे मुंह पर बात कहने वाले होते हैं पर यह साफगोई हरदम अच्छी नहीं. कभीकभी शुगर कोटेड पिल्स की भी जरूरत पड़ती है. ज्यादातर लोग उन्हें ही पसंद करते हैं जो जब भी बोलते हैं मुंह पर बोलते हैं. मु?ो भी मुंह पर बोलने वाले लोग अच्छे लगते हैं. मुंह पर बोलने के लिए साहस चाहिए. पीठ पीछे बोलने वालों में कायरता की दुर्गंध आती है. वे अपनी बात घुमाफिरा कर कहते हैं और बात जब पकड़ में आ जाती है तब सकपकाते हुए कहते हैं,

‘‘मेरा कहने का मतलब यह नहीं था. मेरी बात को तोड़मरोड़ कर पेश किया जा रहा है.’’ अपने देश के नेता इस के बेहतरीन उदाहरण हैं क्योंकि उन की बात जब भी पकड़ में आती है तो वे यही कहते हैं कि मेरी बात को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया है. मेरे कहने का आशय यह नहीं था. वे असंतुलित हो कर अपना आपा खो बैठते हैं तथा अनापशनाप बातेंकरते रहते हैं जिन का कोई अर्थ नहीं होता. अर्थ का अनर्थ हो जाता है और वे ‘जो भी बोलूं मुंह पर बोलूं’ कथन के शिकार हो जाते हैं. ‘‘मैं किसी से नहीं डरता. मैं जो भी बोलता हूं मुंह पर बोलता हूं. खेल के नाम पर करोड़ों की बोगस खरीदारी हुई.

लाखों की हेराफेरी हुई. लोगों के पेट का पानी हिला भी नहीं, न किसी ने डकार ही ली. सब एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं, वे किस मुंह से बोलेंगे, उन के मुंह में तो स्वार्थ के नोट ठुंसे पड़े हैं.’’ ‘‘तुम्हें अपनी हिस्सेदारी नहीं मिली क्या? तुम भी तो समिति में थे,’’ मैं ने उन्हें छेड़ते हुए कहा. वे नाराज हो गए. ‘‘भैया, कीचड़ में पत्थर फेंकने से अपने ही कपड़े दागदार होते हैं. मैं जो भी कहता हूं मुंह पर कहता हूं. मैं ने पहले ही आयोजकों को आगाह किया था कि खेल का आयोजन मत कराओ. मगर मेरी सुनता कौन है. अब आग से हाथ जलने लगे तो कराहने लगे,’’ नेताजी गुस्से में बोलने लगे. मैं उन के कहने का अर्थ सम?ा गया. जब जांच आयोग का फंदा कसा जाने लगता है तब मुंह पर बोलने वाले लोग पतली गली ढूंढ़ने लगते हैं.

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